Tuesday, 16 December 2025
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न्यायिक जवाबदेही की ओर

शिमला के उप-नगर संजौली के समिट्री में 20 अक्तूबर 2011 को घरेलू नौकर अमन चौधरी ने 95 साल के एक बुजुर्ग अंबादत्त धांटा को घर में अकेला पाकर उसका कत्ल कर दिया था। हत्या के बाद अमन चौधरी फरार हो गया था। पुलिस ने मामला दर्ज करके उसे बिहार से गिरफ्तार किया अन्ततः अदालत में धारा 302 के तहत चालान दायर कर दिया। चालान अदालत में आने के बाद अमन चैाधरी ने दलील दी कि वह नाबालिग है। इस पर यह मामला हाईकोर्ट आ गया और हाईकोर्ट ने विशेष जज वन को निर्देश दिये कि वह कानून के मुताबिक आरोपी की उम्र तय करे। इस पर विशेष जज ने आईजीएमसी के मैडिकल अधीक्षक को मैडिकल बोर्ड गठित करके आरोपी की उपरोक्त तिथि को उम्र निर्धारित करने के आदेश दिये। मैडिकल बोर्ड ने आरोपी की जांच करके अपनी रिपोर्ट अदालत को सौंप दी और कहा कि हत्या के दिन आरोपी की उम्र बीस साल से ज्यादा थी। यह रिपोर्ट 21 दिसम्बर 2016 को सौंपी गयी थी। इसके बाद 11 जनवरी 2017 को आरोपी ने व्यक्तिगत तौर पर विशेष जज के पास अर्जी दायर की कि उसकी उम्र का सही-सही पता लगाने के लिये दोबारा पीजीआई से मैडिकल करवाने की अनुमति दी जाये। आरोपी की इस अर्जी को अदालत ने स्वीकार कर लिया। इस अर्जी का सरकारी वकील ने भी विरोध नहीं किया। विशेष जज इस फैसले का हाईकोर्ट के जस्टिस त्रिलोक सिंह चौहान ने कड़ा संज्ञान लेेते हुए इसे प्रथम दृष्टया सही नही पाया। विशेष जज वन ने कैसे यह अर्जी सुन ली जबकि इसमें यह भी जिक्र नही था कि यह किस प्रावधान के तहत दायर की गयी है। उच्च न्यायालय ने कहा है कि सैशन जज की शक्तियां बेलगाम नही है। सीआरपीसी की धारा 482 केे तहत भी असीमित शक्तियां नही है। जस्टिस चौहान ने कहा है कि Therefore in such cricumstances both Learned Session Judge  (Forests) Shimla and Public Prosecutor owe an explanation Learned Session Judge( forests) shimla owes a duty explain as to under what authority of law he passed the order dated. 11.1.2017 and at the same time the Public Prosecutor owes a duty to explain as to why he had not opposed such as application. 
जस्टिस चौहान ने जिस तरह से विशेष जज वन से जवाब तलब किया है और सरकारी वकील के खिलाफ जांच किये जाने का निर्देश गृह सचिव को दिया है उसे न्याययिक अधिकारियों की न्याययिक जवाब देही तय किये जाने की दिशा मेें एक बड़ा कदम करार दिया जा सकता है। न्यायपालिका की भी जवाबदेही तय होनी चाहिये इसको लेकर एक लम्बे अरसे से बहस चली आ रही हैै। केन्द्र सरकार के पास यह जवाबदेही का विधेयक अभी विचाराधीन चल रहा है। जिस तरह का संज्ञान जस्टिस चौहान ने लिया है। ऐसा कोई प्रावधान आम आदमी के पास नही है। कत्ल हुए अंबादत्त धांटा के परिजन ऐसा कोई आग्रह नही कर सकते थे जबकि इस हत्या से पीड़ित वह है। ऐेसे दर्जनों मामले पाये जा सकते है जहां शक्तियों  के अतिक्रमण के कारण इन्साफ न मिल पाया हो और अन्याय को चुपचाप बर्दाश्त कर लिया गया हो।
सामान्यतः निचली अदालत के फैसले को जब ऊपरी अदालत में चुनौती दी जाती है तो कई बार यह फैसले बरकरार रह जाते है परन्तु कई बार बदल जाते है। लेकिन फैसला बदलने की सूरत में निचली अदालत के जज या मामले की पैरवी कर रहे वकील के खिलाफ कोई कारवाई करने का या उससे जवाब तलब करने को कोई प्रत्यक्ष प्रावधान आम आदमी के पास नही है। जबकि आज न्यायपालिका पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगने शुरू हो गये है ऐसे कई मामले सामने भी आ चुके हैं बल्कि पिछले दिनो अरूणाचल के पूर्व मुख्यमन्त्री स्व कालिखो पुल के मरने से पहले लिखे गये पत्र के सामने आने के बाद न्यायपालिका को लेकर एक गंभीर बहस ही नही परन्तु उसकी विश्वसनीयता और निष्पक्षता को लेकर भी गंभीर सवाल उठ खड़े हुए है। न्यायपालिका पर से आम आदमी का भरोसा टूटना समाज के लिये बड़ा नुकसान देह होगा। क्योंकि जब न्यायपालिका पर से भरोसा खत्म हो जायेगा तो समाज में अराजकता फैल जायेगी और फिर जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत चरितार्थ हो जायेगी।
इसलिये आज न्यायपालिका को विश्वसनीयता और भरोसे के संकट से उबारने के लिये यदि कहीं से कोई पहल होनी है तो स्वयं न्यायपालिका को ही शुरूआत करनी होगी। इस परिदृश्य में जस्टिस चौहान का विशेष जज से यह जवाब तलब करना कि किस प्रावधान/शक्ति के तहत ऐसा किया गया यह अपने में एक महत्वपूर्ण पहल साबित होगा। इसी साथ जिस सरकारी वकील ने इसका विरोध करने की जगह मौन रहकर इसको स्वीकृति दे दी उसके खिलाफ जांच के आदेश देना पूरी वकील बरादरी को एक बड़ा सन्देश माना जायेगा क्योंकि प्रायः यह देखा जा रहा है कि बरसों तक अदालत में बिना किसी कारवाई के वकील केवल पेशीयां  लेकर ही समय निकाल देते है। इस समय इस तरह की प्रवृतियों  पर रोक लगाने की आवश्यकता है और वह जस्टिस चैहान जैसे साहसिक फैसलों से ही लगेगी।

गोवंश की राजनीति

शिमला/शैल।  गोवंश रक्षा इन दिनो राजनीति का एक बड़ा मुद्दा बनाता जा रहा है। गोरक्षा के नाम पर पिछले कुछ अरसे में देश के विभिन्न भागों में गोरक्षकों के अति उत्साह के हिंसक तक हो जाने के कई प्रकरण सामने आ चुके हैं। गो रक्षकों के हिंसक उत्साह का शिकार कई स्थानों पर मुस्लिम और दलित समाज के लोग हुए हैं। गोरक्षकों के हिंसक होने का तर्क रहा है कि यह लोग गोवंश को मारने के लिये बूचड़खानों में ले जा रहे थे और उन्हे ऐसा करने से रोकने के प्रयास में यह दुर्घटनाएं हुई हैं। उत्तर प्रदेश में तो योगी सरकार बनने के बाद बूचड़खानों को बन्द करवाने की जो मुहिम चली थी उसका अन्त उच्च न्यायालय के आदेशों के बाद हुआ। उच्च न्यायालय ने बन्द करवायेे गये कई बूचड़खानों को फिर से खुलवाया क्योंकि यह कारवाई कानून की नजर में अवैध थी। गोरक्षा के नाम पर उठे इस उत्साह को केन्द्र सरकार से लेकर राज्यों की भाजपा सरकारों का परोक्ष/अपरोक्ष समर्थन रहा है यह पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है। गोरक्षा आन्दोलन आज जिस तरह से शक्ल ले रहा है वैसा ही आन्दोलन साठ के दशक में भी देश देख चुका है। उस समय इसकी अगुवाई देश का साधू समाज कर रहा था और इसके लिये स्व. गुलजारी लाल नन्दा को अपना पद तक त्यागना पड़ा था। इसी आन्दोलन का परिणाम था कि सरकार को उस समय पशु क्रुरता प्रतिबन्ध अधिनियम 1960 लाना पड़ा था। उस दौरान गोरक्षा आन्दोलन को कोई राजनीतिक अर्थ नहीं दिया गया था। लेकिन आज गोरक्षकों की कार्यशैली से राजनीति की गन्ध आ रही है और यही सबसे अधिक नुकसान देह है।
1960 में जो पशु क्रुरता प्रतिबन्ध अधिनियम आया था उसके तहत पशुओं पर होने वाली हिंसा को रोका जा सकता है लेकिन अभी जो पशु बाजारों मे गोवंश व अन्य पशुओं की खरीद-बेच पर प्रतिबन्ध का जो नया अधिनियम केन्द्र सरकार लायी है उसके मुताबिक इन बाजारों/मेलों से कटाने के लिये पशुओं को नहीं खरीदा जा सकता। इस नये कानूनों के मुताबिक राज्य की सीमा के 25 किमी और अन्र्तराष्ट्रीय सीमा के 50 किमी के भीतर पशु बाजार नही लगाया जा सकता। इस नये कानून पर देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग -अलग प्रतिक्रियाएं उभरी है। मद्रास और केरल में इसका विरोध हुआ है। मद्रास हाईकोर्ट ने केन्द्र के इस कानून पर रोक लगाते हुए राज्य सरकार और केन्द्र सरकार से चार सप्ताह के भीतर जबाव मांगा है। दूसरी और राजस्थान हाईकोर्ट ने केन्द्र से भी दो कदम आगे जाते हुए गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने का निर्देश दिया है। गोहत्या के अपराधियों को आजीवन कारावास का आदेश दिया है। केरल के मुख्यमन्त्री विजयन ने इसे लोकतन्त्र विरोधी करार दिया है तो बंगाल में ममता बेनर्जी ने इसे मानने से इन्कार कर दिया है क्योंकि यह राज्य सरकार का विषय है। मेघालय के सांसद  और पूर्व मन्त्री पाला ने मोदी सरकार को पत्र लिखकर इस नये कानून को वापिस लेने का आग्रह किया है। देश के दो हाईकोर्टों की इस संद्धर्भ में जब अलग-अलग राय है तो निश्चित रूप से यह विषय इतना सरल नही है और न ही इस पर उठे विरोध को आसानी से नजर अन्दाज किया जा सकता है।
इस परिदृश्य में पूरे मुद्दे को निष्पक्षता से परखने की आवश्यकता है। गाय दूध देने वाला पशु है। गाय के साथ ही भैंस और बकरी भी दूध देते हैं। इसमें कई और पशु भी आ जाते हैं। दूध हर जीवधारी की आवश्यकता है इसमें कोई दो राय नहीे है। इन जीवधारियों में मानव की सबसे ऊपर है इसलिये सारा सरोकार इसी मानव के गिर्द केन्द्रित हो जाता है। मानव जीवन के लिये दूध के अतिरिक्त रोटी और अन्य खाद्य पदार्थ भी बहुत आवश्यक हैं लेकिन दूध की आवश्यकता जन्म लेते ही शुरू हो जाती है। मां के दूध के बाद सबसे ज्यादा पोषक तत्व गाय के दूध में होते हैं संभवतः इसी कारण से गाय को धर्म का प्रतीक बनाकर हमारे ऋषियों ने उनकी रक्षा का विधान खड़ा किया है। गो हत्या को पाप की संज्ञा देेना इसी रक्षा के प्रयास का गणित है। इसीलिये हर गृहस्थ को गो पालन आवश्यक था। गाय का दूध अन्य पशुओं की अपेक्षा ज्यादा श्रेष्ठ है और उसके गोबर तथा गोमूत्रा में भी गुण हैं इसलिये गोरक्षा की आवश्यकता बड़ी बन जाती है। लेकिन क्या आज हर गृहस्थ गो पालन का धर्म निभा पा रहा है? बल्कि जो लोग गो रक्षक बनकर सामने आ रहे हैं उनके अपने घरों में भी शायद गो पालन नही हो रहा है। आज आवारा पशुओं में भी गाय सबसे अधिक देखने को मिलती है जिसका अर्थ है कि जब दूध नही है तो गाय को आवारा छोड़ दिया जाता है। इन आवारा पशुओं का गो सदन में भी पूरा प्रबन्ध नही हो पा रहा है। जिस राजस्थान के हाईकोर्ट ने गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने का आदेश दिया है उसी राजस्थान की सरकारी गोशाला का हाल देश के सामने आ चुका है।
इस परिदृश्य में आज यह आवश्यक है कि कोई भी पशु आवारा/अनुपयोगी होकर सड़क पर न छोड़ा जाये। सारे पशुओं के पालन की व्यवस्था सुनिश्चित की जाये। जब यह व्यवस्था सुनिश्चित हो जायेगी तभी हर तरह के पशुओं पर क्रूरता रोकी जा सकेगी। आज पशु व्यापार को ऐसे प्रतिबन्धों सेे रोकने के प्रयास से केवल राजनीतिक मुद्दे ही बनेंगे। बल्कि इसे धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण के प्रयास की संज्ञा दे दी जायेगी। इसलिये आज पशु व्यापार पर इस तरह के नियम थोपने की बजाये पशुओं के पालन की व्यवस्था सुनिश्चित करने और इसके लिये एक मानसिकता तैयार करने की आवश्यकता है। इस व्यवस्था के बाद ही यह सुनिश्चित करना आसान होगा कि किस पशु की कब क्या उपयोगिता है और उसके बाद उसका क्या प्रबन्ध किया जाना चाहिये।

संभव नहीं है आऊटसोर्स कर्मचारियों का नियमितिकरण

इस समय प्रदेश सरकार के विभिन्न विभागों /निकायों में आऊट सोर्सिंग के माध्यम से काम कर रहे कर्मचारियों को सरकार में नियमित करने के लिये पाॅलिसी लाये जाने की चर्चा हो रही है। मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह ने इन कर्मचारियों को ऐसा आश्वासन दे रखा है। मुख्यमन्त्री ने यह आश्वासन चुनावी गणित को सामने रखकर दिया है क्योंकि इन कर्मचारियों की संख्या तीस हजार से अधिक कही जा रही है। सरकार में कर्मचारी भर्ती के लिये वाकायदा आर एण्ड पी रूल्ज बने हुए हैं। इन नियमों को सदन से भी स्वीकृति प्राप्त है और इनमें आऊटसोर्स कर्मचारी जैसा कोई वर्ग नहीं है। सरकार में इस समय कान्ट्रैक्ट के आधार पर भी कर्मचारी कार्यरत है। बल्कि स्कूलों में तो पीटीए और एसएमसी नाम के भी अध्यापक काम कर रहे है। आर एण्ड पी रूल्ज में ऐसे कर्मचारियों का कोई प्रावधान नहीं है। हिमाचल हाईकोर्ट में भी जस्टिस आर.बी. मिश्रा की पीठ ने कान्ट्रैक्ट  पर रखे गये कर्मचारियों को चोर दरवाजे की भर्ती करार दिया है। रूल्ज के मुताबिक कर्मचारियों का एक ही वर्ग है और वह नियमित कर्मचारी। जो कर्मचारी नियमित नही है वह तदर्थ कर्मचारी माना जाता है। इन कर्मचारियों को भर्ती करने की एक तय प्रक्रिया है।
लेकिन इस तय प्रक्रिया की अवहेलना करके अस्सी के दशक में ही शिक्षा विभाग में वालॅंटियर शिक्षक भर्ती किये गये थे। इन शिक्षको को बड़े बाद में सरकारी खर्च पर  ट्रेनिंग  करवाई गयी थी और उसके बाद यह नियमित हुए। इसके बाद आयी हर सरकार ने शिक्षा विभाग में भर्ती की तय प्रक्रिया को नजर अन्दाज करके चोर दरवाजे से विद्या उपासक पैरा टीचरज, पीटीए, एसएमसी के नाम पर भर्ती के रास्ते अपनाये। 1993 से 1998 के दौर में हजारों कर्मचारी चिटों पर भर्ती किये गये। अब तो हर विभाग में चयन प्रक्रिया पूरी करने के बाद भी कर्मचारियो को कान्ट्रैक्ट  पर रखा जा रहा है। बल्कि कान्ट्रैक्ट  से भी आगे निकलकर अब आऊट सोर्सिंग के माध्यम से कर्मचारी भर्ती किये जा रहे है। कानून की नजर से ऐसी सारी भर्तीयां गैर कानूनी है। सरकार भी किसी चीज के लिये तय प्रक्रिया को नजर अन्दाज नही कर सकती है। हाईकोर्ट ऐसी सारी नियुक्तियों को चोर दरवाजे की भर्तीयां करार दे चुका है लेकिन सरकार पर इसका कोई असर नहीं पड़ा है। इसीलिये तो अब आऊट सोर्स पर रखे गये कर्मचारियों को नियमित करने के लिये पाॅलिसी लायी जा रही है।
सरकार का ऐसी कोई पाॅलिसी लाना एकदम गैर कानूनी है। लेकिन यहां पर यह समझना आवश्यक है कि सरकार को ऐसा करने की आवश्यकता क्यों हो जाती है। लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाना सरकार की सवैंधानिक जिम्मेदारी है संविधान की धाराओं 38, 39, 41 में इसका स्पष्ट उल्लेख है। इसके साथ धारा 14 और 16 के तहत सबको एक समान अवसर उपलब्ध करवाना भी सरकार की जिम्मेदारी है। इन्ही धाराओं में यह सुनिश्चित किया गया है कि समान काम के लिये समान वेतन दिया जायेगा। कर्मचारी चाहे कान्ट्रैक्ट पर हो या अन्य किसी भी आधार पर रखा गया हो उसके वेतन में नियमित कर्मचारी के वेतन के मुकाबले में कोई अन्तर नहीं किया जा सकता। यह सर्वोच्च न्यायालय ने जगपाल सिंह बनाम स्टेट आॅफ पंजाब मामले में दिये फैसले में स्पष्ट कर दिया है। एक लम्बे समय से सरकार सीधे नियमित भर्ती करने की बजाये कान्ट्रैक्ट  आदि पर भर्तीयां करती आ रही थी। जब ऐसी भर्तीयां में भी चयन प्रक्रिया अनुपालना करने की विवशता आ गयी तो उसके बाद आऊट सोर्सिंग का माध्यम अपना लिया गया है। आऊट सोर्सिंग में कोई प्रक्रिया की बाध्यता नही है। जो भी सामने आ गया यदि वह न्यूनतम योग्यता को पूरा करता है तो उसे रख लिया जाता है। ऐसे कर्मचारी को केवल न्यूनतम दिहाड़ी जो कि जिलाधीश के माध्यम से तय होती है वही वेतन दिया जाता है। जबकि जिस भी विभाग में ऐसे कर्मचारी को तैनात किया जाता है वहां से ज्यादा वेतन लिया जाता है। इस तरह प्रति कर्मचारी उसको भर्ती करने वाला लेवर स्पलायर दो-तीन हजार का अपना कमीशन रख लेता है। कानून में ऐसे कर्मचारी के प्रति सरकार की कोई जिम्मेदारी नही होती है। क्योंकि वह सरकार का कर्मचारी न होकर लेवर स्पलायर का कर्मचारी होता है।
सरकार इस चलन से पूरी तरह परिचित है। लेकिन लेवर स्पलायर किसी न किसी राजनेता/अधिकारी से पोषित होता है और उसके पास आने वाले कर्मचारी को किसी चयन प्रक्रिया का सामना नही करना पड़ता है। इसलिये यह सारा चक्र चलता रहता है। इस समय प्रदेश के स्कूलों में कार्यरत कम्यूटर शिक्षक इसी आऊट सोर्स के माध्यम से रखे गये कर्मचारी हैं। लेकिन सरकार ने इस ओर कभी ध्यान नही दिया कि जब आज कम्यूटर प्रशिक्षण/शिक्षण एक अनिवार्यता बन गया है तो उसके लिये स्थायी व्यवस्था क्यों नही बनायी गयी। क्योंकि आऊटसोर्स का अर्थ केवल यही है कि एक सीमित समय के लिये ही आपके पास काम है जबकि वास्तव में ऐसा नही है। ऐसे में स्थायी काम को आऊट सोर्स के माध्यम से करवाना जायज़ नही ठहराया जा सकता फिर भी इन कर्मचारियों को आज सरकार में नियमित करने में संविधान की धारा 14 और 16 का सीधा उल्लंघन है क्योंकि इन्हें आऊटसोर्स के माध्यम से रखने पर किसी चयन प्रक्रिया की अनुपालना नही की गयी है ऐसे में सरकार का यह कदम भी एकदम चिटों पर भर्ती जैसा ही हो जायेगा।

मोदी सरकार के तीन वर्ष

शिमला/शैल।  केन्द्र में मोदी सरकार को सत्ता में तीन वर्ष हो गये हैं यह तीन वर्ष का समय आकलन के लिये एक पर्याप्त आधार माना जा सकता है। इन तीन वर्षों में राजनीतिक पटल पर यह स्पष्ट हो गया है कि सरकार को इस मोर्चे पर महत्वपूर्ण सफलता मिली है क्योंकि दिल्ली, बिहार और पंजाब को छोड़कर अन्य सभी राज्यों में उसकी सरकारें बनी है जहां- जहां चुनाव हुए। इस राजनीतिक सफलता से यह माना जा रहा है कि निकट भविष्य में होने वाले विधानसभाओं के चुनावों में भी उसे सफलता मिलेगी। लेकिन क्या इस सफलता के सहारे वह 2019 के लोकसभा चुनावों में भी 2014 जैसी ही सफलता हासिल कर पायेगी यह कहना अभी जल्दबाजी होगी। क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले भ्रष्टाचार और कालेधन को लेकर पहले स्वामी रामदेव और फिर अन्ना हजारे के आन्दोलनों ने जो वातावरण खड़ा कर दिया था और उसके परिणामस्वरूप जो जन अपेक्षाएं सरकार को लेकर बन गयी थी वह अभी पूरी नहीं हो पायी हैं। बल्कि यह कहना ज्यादा संगत होगा कि उन अपेक्षाओं के संद्धर्भ अभी ठोस कुछ भी नहीं हुआ है। कालेधन के जो आंकडे़ उछाले गये थे तथा हर व्यक्ति के खाते जोे पैसा आने के स्वप्न दिखाये गये थे वह अभी ज़मीनी हकीकत से कोसों दूर है। अलबत्ता जो मंहगाई बेरोजगारी और भ्रष्टाचार इस सरकार के बनने से हपले जिस पायदान पर खड़ा था आज भी वहीं खड़ा है। इस दिशा में भाषणों में तो बड़ी उपलब्धियां परोसी जा रही  हैं लेकिन वह हकीकत से बहुत दूर हैं।
इस दौरान सरकार ने जो कदम उठाये हैं उनमें जनधन योजना का नाम सबसे पहले आता है। इस योजना के माध्यम से आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों की पहुंच बैंक खातों तक तो बन गयी है। जीरो बैलेनस से यह खाते खुल गये हैं लेकिन क्या इन खातो में लगातार ट्रांजैक्शन हो रही है? क्या इन गरीब लोगों की नियमित रूप से इन खातों में कुछ जमा करवाने की हैसियत बन पायी है? या यह खाते केवल सरकार से मिलने वाली सबसिडि का लेखाजोखा होकर ही रह गये हैं। इनमें से कितने खाते एनपीए हो गये हैं यदि बैंको की गणित से इन खातों को देखा जाये तो एक खाता खोलने के लिये कम से कम बीस रूपये का खर्च आया है और खाता जीरो बैलेन्स पर बरकरार है फिर नोटबंदी के दौरान इन्ही खातों का दुरूपयोग भी हुआ है इस तरह जनधन योजना को कोई उपलब्धि करार देना ज्यादा सही नहीं होगा। इस योजना के बाद सामाजिक सुरक्षा दायरे का विस्तार किया जाना दूसरी उपलब्धि कही जा रही है। इसके तहत प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना अटल पैन्शन योजना और प्रधानमंत्री जीवन ज्योती योजना की गिनती हो रही है। लेकिन ऐसी ही योजनाएं पहले यूपीए सरकार के कार्यकाल में चल रही थी अब इनका दायरा कुछ बढ़ा दिया गया है लेकिन इन योजनाओं के माध्यम से क्या लाभान्वित व्यक्ति की आय के स्त्रोत में कोई नियमित बढ़ौत्तरी सुनिश्चित हो पायी है क्या उसके लिये कोई रोजगार का स्थायी अवसर सृजित हो पाया है? दुर्भाग्य से ऐसा नही हो पाया है बल्कि वह सरकार पर ज्यादा आश्रित हो गया है। सामाजिक सुरक्षा के बाद अनुसूचित जाति, अनुसुचित जन जाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के गौण उद्यमीयों के लिये मुद्रा बैंक के जरिये संस्थागत समर्थन का प्रबन्धन किया गया है। इसके लिये 1,37,449,27 करोड़ की धन राशी स्वीकृत की गयी है। इस योजना को भारतीय औद्यौगिक वित्त निगम लागू करेगा और निगम को इसके लिये 200 करोड़ जारी भी कर दिये गये  हैं। इससे पूर्व भी यूपीए सरकार के समय में भी इन जातियों और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिये वित्त निगम कार्य कर रहे थे। बल्कि अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग तक गठित थे जिन्हे अब बन्द किया जा रहा है। इसलिये कुल मिलाकर आर्थिक संद्धर्भ में समाज के गरीब वर्गों के लिये यूपीए और एनडीए की येाजनाओं में कोई भी गुणात्मकता अन्तर अभी सामने नजर नही आ रहा है।
बल्कि काॅरपोरेट जगत के लिये यह सरकार ज्यादा उदार नजर आ रही है। जो बैंक अपने एनपीए के बोझ तले दबकर बन्द होने के कगार पर पंहुच गये थे उन्हें सरकार ने नये सिरे से जीवन दे दिया है। बड़े उद्योगपतियों के लिये आर्थिक पैकेज पहले की तर्ज पर ही आज भी जारी हैं बल्कि बढे़ है। आज एक तरह से अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धा में जाने की बात की जा रही है उसी के लिये येाजनाएं बन रही हैं। जबकि देश की जमीनी हकीकत यह है कि जहां सरकारें जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय बढ़ने के दावे कर रही हैं उसके अनुपात में बीपीएल और सार्वजनिक ऋण के आंकडे ज्यादा बढ़ रहे हैं। अभी यह तथ्य सार्वजनिक चर्चा में नही आ पा रहे हैं लेकिन बहुत जल्द आम आदमी इस हकीकत से वाकिफ होने जा रहा है क्योंकि उसी रसोई का खर्च और स्कूल जाते बच्चे की फीस में कोई कमी आने की बजाये उसमें बढ़ौत्तरी ही देखने को मिल रही है। यदि सरकार समय रहते इस ओर ध्यान नहीं देगी तो कब स्थितिंयां उसके हाथ से निकल जायें इसका अन्दाजा भी नही लग पायेगा।

‘आप’ पर उठते सवाल क्या साजिश है

आम आदमी पार्टी के निलंबित मन्त्री कपिल मिश्रा ने पार्टी आरोप लगाया है कि पार्टी को 2013-14 और 2014-15 में जो चन्दा मिला उसकी आयकर, चुनाव आयोग और पार्टी की बेवसाईट पर अलग-अलग जानकारी दी है। मिश्रा के मुताबिक पार्टी को चुनाव आयोग को 9.42 करोड़ बताया। आयकर ने जब नोटिस दिया तब वहां 30 करोड़ दिखा दिया। 2014-15 में 65.52 करोड़ मिला लेकिन साईट पर 27.48 करोड़ तथा चुनाव आयोग को 32.46 करोड़ दिखाया। मिश्रा ने 35-35 करोड़ के दो चैक बिना किसी तारीख के भी पार्टी के नाम आये होने का आरोप लगाया है मिश्रा का यह भी आरोप है कि पार्टी चन्दे के नाम पर कालेधन को सफेद करने का काम कर रही है और यह सब अरविंद केजीरवाल की जानकारी में हो रहा है। मिश्रा ने इन आरोपों पर सीबीआई में शिकायत दर्ज करवाकर केजरीवाल के खिलाफ कारवाई करने की मांग करने का भी दावा किया है। मिश्रा को जब बर्खास्त किया गया था उसके बाद उन्होने स्वास्थ्य मन्त्री सत्येन्द्र जैन द्वारा केजरीवाल को दो करोड़ देने का भी आरोप लगाया है । नील नाम के एक व्यक्ति ने मिश्रा को यह जानकारियां जुटाने में सहयोग देने का दावा किया है।
आम आदमी पार्टी ने आरोपों को निराधार बताते हुए पार्टीे नेता संजय सिंह ने मिश्रा की तर्ज पर ही भाजपा के नाम पर भी 70 करोड़ का एक चैक आया हुआ मीडिया को दिखाया है। मिश्रा ने 2013-14 और 2014-15 मंे चन्दे के नाम पर घपला होने का आरोप लगाया है। मिश्रा को अभी मई के प्रथम सप्ताह में मन्त्री पद से बर्खास्त किया गया है। अथार्त जब यह घपले बाजी हुई उस समय मिश्रा पार्टी के कमर्ठ कार्यकर्ता और मन्त्री थे। जिसका अर्थ है कि मिश्रा उस समय पार्टी हित में इस पर खामोश रहे यदि मिश्रा को अब नील के माध्यम से यह जानकारियां मिली हैं तो यह स्पष्ट हो चुका है कि नील के भाजपा नेताओं और कुछ अन्य केजरीवाल विरोधियों से नजद़ीकी रिश्ते हैं। नील के कुछ भाजपा नेताओं के साथ सामने आये फोटोग्राफ से यह प्रमाणित होे जाता है। इसका अर्थ यह है कि इस सबके पीछे कहीं न कहीं भाजपा का हाथ है। बहुत संभव है कि मिश्रा की शिकायत पर सीबीआई मामला दर्ज करके केजरीवाल के खिलाफ कारवाई करे। आयकर ने पहले ही चन्दे के मामले को लेकर ‘आप’ के दावे को अस्वीकार कर दिया है। चुनाव आयोग भी चन्दे की पूरी और सही जानकारी न देने को लेकर पार्टी की मान्यता रद्द करने तक की कारवाई कर सकता है। क्योंकि जबसे आप ने विधानसभा पटल पर ईवीएम को हैक करके दिखा दिया है तब से चूनाव आयोग का रूख भी पार्टी के प्रति और कड़ा हो गया है। यदि कल को सभी राजनीतिक दलों और चुनाव आयोग के सामने आप वोटिंग मशीन को हैक करके दिखा देता है तो उससे पूरा राजनीतिक परिदृश्य ही बदल जायेगा यह तय है।
ऐसे में जो महत्वपूर्ण सवाल खड़े होते  हैं  उन पर एक बड़ी चर्चा की आवश्यकता हो जाती है। इस समय केन्द्र में भाजपा की सरकार है और भाजपा ने देश को कांग्रेस मुक्त करने का संकल्प ले रखा है पिछले लोक सभा चुनावों में कांग्रेस को जो हार मिली है उससे अब तक बाहर नही निकल पायी है। उसके बाद हर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को हार ही मिली है लेकिन इसके बावजूद भी कांग्रेस अभी तक सबसे बडे़ राजनीतिक दल के रूप में गिनी जाती है। कांग्रेस भाजपा के बाद कोई भी राष्ट्रीय स्तर का राजनीतिक दल नहीं है। आम आदमी पार्टी भले ही गोवा में बुरी तरह हारी है। लेकिन पंजाब में जितनी भी सफलता मिली है उससे अभी भी उसके राष्ट्रीय विकल्प बनने की संभवना खत्म नहीं हुई है। क्योंकि मोदी सरकार के सारे दावों और योजनाओं के बावजूद मंहगाई, बेरोजगारी और भष्ट्राचार के बडे मुद्दों पर आम आदमी को कोई राहत नही मिल पायी है अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य अभी भी उसकी पहुंच से दूर है। फिर भाजपा को जो प्रचण्ड बहुमत मिला है और उसके पीछे संघ की जो विचारधारा कार्यरत है। उसके चलते कब यही बहुमत पार्टी की सबसे बड़ी समस्या बन जाये कोई आश्चर्य नही होगा। क्योंकि जिन कार्यक्रमों पर पार्टी काम कर रही है उससे बुनियादी सवाल हल होना संभव नही है। डिजिटल होने पर प्रधानमन्त्री जितना बल दे रहे हैं उस पर अभी हुए साईवर अटैक ने एक बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है।
इस परिदृश्य में भाजपा के लिये आज राजनीतिक दृष्टि से आप ही एक बड़ी चुनौती है बल्कि एक तरह से अब के सारे स्थापित राजनीतिक दलों के लिये भी आप ही एक बड़ी चुनौती होगी। फिर यह तो स्वभाविक है कि कोई भी अपना सशक्त हिस्सेदार नहीं चाहेगा और इसके लिये आप को रोकने में सभी अपरोक्ष में इक्कठे हो जायेंगे आज कपिल मिश्रा ने जो आरोप लगाये हैं उनकी जानकारी केन्द्र सरकार और उसकी संवद्ध ऐजैन्सीयो के पास तो पहले से ही रही है। लेकिन वह इसके आधार पर अब तक कोई कारवाई नहीं कर पाये  हैं । स्पष्ट है कि कारवाई के लिये सक्षम आधार नहीं है लेकिन इतने पर ही कोई भी जांच ऐजैन्सी जांच तो शुरू कर सकती है। इसमें पार्टी विधायकों को बडे़ स्तर पर दल-बदल भी आयोजित किया जा सकता है। क्योंकि जिस तरह से इसके पीछे भाजपा के कुछ नेताओं का हाथ होने की संभावना दिख रही है उससे कुछ संभव हो सकता है। दिल्ली से राज्य सभा के चुनावों से पहले सरकार को अस्थिर करने की योजना हो सकती है। इसके लिये आम आदमी पार्टी को सारी संभावनाओं के लिये तैयार रहना होगा। इसी के साथ हर राज्य में संगठन की ईकाईयां खड़ी करनी होगी ताकि सभी राज्यों से ऐसी साजिशों को नाकाम करने के लिये एक बराबर आवाज उठे। आज संगठन के सशक्त न होने के कारण ही इस तरह के  हथकण्डों को अंजाम दिया जा रहा है। जबकि जहां-जहां कांग्रेस और भाजपा सत्ता में रह चुकी है वहां पर तो संगठन को इनके भ्रष्टाचार पर खुलकर हमला बोलना चाहिये। क्योंकि यदि इस तरह की साजिशों से आप को खत्म करने का खेल सफल हो जाता है तो यह एक राष्ट्रीय नुकसान होगा। इस समय एक कारगर राजनीतिक विकल्प की आवश्यकता है।

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