Thursday, 18 September 2025
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सवालों में घिरती न्यायपालिका

शिमला/शैल। अरूणाचल के पूर्व मुख्यमन्त्री स्व. कालीखो पुल ने अपनी मौत से पहले साठ पन्नों का विस्तृत और हस्ताक्षित नोट लिखा है। यह नोट लिखने के दूसरे ही दिन कालीखो पुल अपने आवास पर मृत पाये गये थे। उनकी मौत के बाद सामने आये इस नोट में उन्होने प्रदेश और देश की राजनीति मे फैले भ्रष्टाचार को पूरी बेबाकी से बेनकाब किया है। राजनीति में फैले भ्रष्टाचार के साथ न्यायपालिका कैसे परोक्ष/अपरोक्ष में सहयोगी और भागीदार बन गयी है इसका भी पूरा खुलासा इस नोट में है। पृल के इस नोट में लगाये गये गंभीर आरोपों पर कहीं से कोई जबाव नही आया है। राजनेंताओं पर आरोप लगना कोई नयी बात नहीं है। क्योंकि राजनीति में हर राजनीतिक दल की प्राय यही हकीकत है कि चुनावों में वह दागी छवि के लोगों को अपनी-अपनी पार्टी के टिकट पर चुनावों में उतारते ही हैं। इसी कारण आज संसद से लेकर राज्यों की विधानसभाओं तक गंभीर अपराधी छवि के लोग माननीय बनकर बैठे हैं। आपराधिक मामले झेल रहे जनप्रतिनिधियों के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने अधीनस्थ अदालतों को ऐसे मामलों को एक वर्ष के भीतर निपटाने के निर्देश दे रखे हैं। लेकिन इन निर्देशों की कितनी अनुपालना हो पायी है इस बारे में कोई रिपोर्ट सामने नहीं आयी है क्योंकि इस पर अमल नही हुआ है। अधीनस्थ अदालतों में आज भी जनप्रतिनिधियों के मामले कई वर्षों से लंबित चले आ रहे हैं। हिमाचल में ऐसे लंबित चल रहे मामले सबके सामने हैं। इससे यह प्रामणित होता है कि भ्रष्टाचार के प्रति गंभीरता के आईने में न्यायपालिका और व्यवस्थापिका दोनों के ही चेहरे एक बराबर प्रश्नित हैं।
स्व. कालीखो पुल के बाद जस्टिस करनन का किस्सा सामने है। जस्टिस करनन और सर्वोच्च न्यायालय में आमने-सामने की स्थिति आ गयी है। जस्टिस करनन को मानहानि के मामले में किस तरह से पेश आना चाहिये? उनकी और सर्वोच्च न्यायालय की वैधानिक सीमायें क्या हैं इस बारे में आम आदमी को कुछ लेना देना नही है इस संबंध में जो भी कानून है उसकी अनुपालना की जानी चाहिये उसमें किसी का भी अनाधिकारिक दखल नही हो सकता। लेकिन जो आरोप जस्टिस करनन ने कुछ न्यायधीशों पर लगाये हैं आम आदमी की चिन्ता का विषय यह है। क्योंकि न्यायपालिका के शीर्ष न्यायधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने से आम आदमी का न्यायपालिका पर विश्वास बनाये रखना कठिन हो जायेगा। जस्टिस करनन के आरोपों की ही तरह स्व. कालीखो पुल द्वारा लगाये गये आरोप हंै। इन दोनों के आरोपों को यदि इक्कठा रखकर देखा जाये तो स्थिति बेहद चिन्ताजनक हो जाती है। कालीखो पुल के आरोपों को वहां के राज्यपाल ने भी गंभीर माना था क्योंकि उनके पास स्थानीय एसडीएम की रिपोर्ट आ चुकी थी। केन्द्र के धन का दुरूपयोग किया गया है। केन्द्र के धन के दुरूपयोग के आरोपों पर मोदी सरकार का भी चुप्प बैठ जाना अपने में ही कई और सवाल खडे कर देता है।
स्व. कालीखो पुल और जस्टिस करनन ने जिन लोगों के खिलाफ आरोप लगाये हैं उनकी ओर से भी इस पर कोई प्रतिक्रिया नही आयी है। किसी ने भी यह कहने का साहस नही किया है कि यह आरोप गल्त हैं। जस्टिस करनन का यह कहना कि वह दलित हैं इसलिय उनके साथ यह ज्यादती की जा रही है यह तर्क किसी भी तरह स्वीकार्य नही हो सकता। क्योंकि वह दलित होने के बाद ही उच्च न्यायालय के न्यायधीश के पद तक पहुचे हैं। इसीलिये दलित होने का तर्क जायज नहीं ठहराया जा सकता। इसी के साथ जिस तरह वरिष्ठ अधिवक्ता जेठमलानी ने उनकी निन्दा की है उसे भी स्वीकारा नही जा सकता। किसका कानूनी अधिकार क्षेत्र कितना और क्या है? किसे क्या प्रक्रिया अपनानी चाहिये थी क्या नहीं? यह सारे प्रश्न आरोपों की गंभीरता के आगे बौने पड़ जाते हैं। आम आदमी इन आरोपों की एक निष्पक्ष जांच चाहता है। जिससे आरोपों की सत्यता प्रमाणित हो सके। ऐसे आरोपों की जांच के लिये वही प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिये जो आम आदमी के लिये अपनायी जाती है। अर्थात जांच ऐजैन्सी में विधिवत मामला दर्ज करके जांच शुरू की जाये। स्व. कालीखो पुल ने जो आरोप लगाये हैं उनसे जुडे़ सारे प्रमाण वहां राज्य में मौजूद हैं। स्व. पुल के नोट को डांईंग डक्लारेशन मानकर जांच की जानी चाहिये। जस्टिस करनन ने जिनके खिलाफ आरोप लगाये हैं उनसे आरोपों के बारे में पूरी गंभीरता से पूछा जाना चाहिये और जस्टिस करनन तथा आरोपीयों से आमने-सामने सवाल-जबाव होने चाहिये। यदि न्यायपालिका पर विश्वास बनाये रखना है तो यह अति आवश्यक है कि आम आदमी के सामने सच्चाई आये। यदि ऐसा न हुआ तो अराजकता का एक ऐसा दौर शुरू होगा जिसकी कल्पना करना भी कठिन होगा।

बेरोजगारी भत्ता विकल्प नहीं है

शिमला/शैल।मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह ने वर्ष 2017-18 का बजट सदन में रखते हुए प्रदेश के उन बेरोजगार युवाओं को बेरोजगारी भत्ता देने की घोषणा की है जिनकी शैक्षिणक योग्यता जमा दो या इससे अधिक होगी। बेरोजगारी भत्ता देने का वायदा कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र में था इस वायदे को लेकर कांग्रेस सरकार और संगठन में किस तरह की बहस होती रही है यह जगजाहिर है। इस वायदे को पूरा करने के लिये जी एस बाली और विपल्व ठाकुर जैसे नेताओं ने वीरभद्र पर जो दबाव बनाया था वीरभद्र सिंह उस दबाव के आगे झुके नहीं थे। यहां तक की जब 8 मार्च को मुख्यमंत्री ने राज्यपाल के अभिभाषण पर हुई बहस का जबाव दिया तब भी कहा कि जब सरकार के पास संसाधन होंगे तब बेरोजगारी भत्ते के देने पर विचार करेंगें। स्पष्ट है कि राज्यपाल अभिभाषण पर हुई बहस का जबाव देते वक्त तक वीरभद्र यह भत्ता दिये जाने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन बजट भाषण पढ़ते समय इसकी घोषणा कर दी गयी। इस परिपेक्ष में यह सवाल उठता है कि दो दिन के भीतर राज्य सरकार के संसाधनों मे कोई वृद्धि नही हुई है इसका प्रमाण 2017-18 के बजट में दर्ज चार हजार करोड़ अधिक के घाटे की स्वीकारोक्ति है। ऐसे में स्वाभाविक है कि इस घोषणा के शुद्ध राजनीतिक कारण हैं। पांच राज्यों की विधानसभाओं के लिये हुए चुनावों के इग्जिपोल जब आने शुरू हुए तो उन नतीजों में कांग्रेस के लिये कहीं से भी कोई सुखद संकेत नही मिला। हिमाचल में भी इसी वर्ष के अन्त में विधानसभा चुनाव होने है और इस नाते यह इस कार्यकाल का आखिरी बजट सत्र है। इसलिये ऐसी घोषणा इसी समय पर की जा सकती थी जो कि हो गयी। यह योजना कैसे लागू की जायेगी इसके लिये नियम आने वाले दिनो में बनेंगे। इस घोषणा से यह तय है कि बेरोजगारी भत्ते का बोझ अब आने वाली सरकारों को उठाना ही पडे़गा सरकार चाहे जिसकी भी बने।
राजनेता और राजनीतिक दल अपने सत्ता स्वार्थों के आगे कुछ भी दांव पर लगा सकते  है अपने रराजनीतिक स्वार्थ के लिये कोई भी फैसला जनता पर थोप देगें भले ही उसे पूरा करने के लिये संसाधन कर्ज लेकर ही जुटाने पड़े। आज हिमाचल प्रदेश में संसाधनों के नाम पर 31 मार्च 2016 को राज्य का कर्जभार करीब 39000 करोड़ दिखाया गया है। इसमें वर्ष 2016-17 का कर्ज जोडकर यह आंकडा 45000 हजार करोड़ से ऊपर हो जायेगा। इस इतने भारी भरकम कर्ज से सरकार ने क्या संपति खडी की है? प्रदेश में कौन सा उद्योग सरकारी क्षेत्र में स्थापित हुआ है। जिससे सरकार को नियमित आय हो रही है? ऐसा कुछ भी नजर नही आता है। कर्ज का ब्याज अदा करने के लिये कर्ज लेना पड़ रहा है। प्रदेश में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है रोजगार कार्यालयों में दर्ज संख्या के अनुुसार यह आंकडा 8,24,478 है। इसके मुताबिक इनको बेरोजगारी भत्ता देने के लिये 800 करोड़ से अधिक का बोझ सरकार पर पडे़गा। लेकिन यह बेरोजगारी भत्ता देने से समस्या हल हो जायेगी? क्या इनके लिये रोजगार के अवसर नही पैदा करने पडेंगे? इस समय सरकार ही प्रदेश में रोजगार का सबसे बडा स्त्रोत है हर व्यक्ति रोजगार देखता है। सरकार के पास अपने कर्मचारियों की कुल संख्या कारपोरेट सैक्टर को मिलाकर तीन लाख के करीब है। प्रदेश के निजिक्षेत्र में भी करीब 2.50 लाख कर्मचारी है। ऐसे में सरकारी और निजि क्षेत्र में एक ही दिन में पुराने कर्मचारियो को निकालकर नये कर्मचारी भर्ती कर दिये जाये तो भी रोजगार कार्यालयों में दर्ज करीब आधा आंकड़ा बेरोजगारों का शेष रह जाता है इसका अर्थ है कि इस दिशा में जो भी नीति और नियम रहे हैं उन्हे तुरन्त प्रभाव से बदलने की आवश्यकता है।
आज प्रदेश में जितने भी प्रशिक्षण संस्थान खोले गये  है उनमें प्रशिक्षित युवाओं का अगर यह आंकलन किया जाये कि उनमें से कितनों को रोजगार उपलब्ध हो पाया है तो यह आंकडा भी 20% से नीचे ही रहता है। आज कौशल विकास के नाम पर भी जो योजना अमल में है उसमें भी कालान्तर में रोजगार मिल पायेगा इसको लेकर गंभीर शंकायें उठ खडी हुई हैं। क्योंकि सरकार की स्र्टाटअप येाजना से आकर्षित होकर जितने लोग इसमें आये थे उसको लेकर जो सर्वे हुए हैं उनकी रिपोर्ट के मुताबिक जो आंकड़े आये  हैं उनमें सफलता का प्रतिशत दस से कम है। स्र्टाटअप छोड़कर यह लोग वापिस नौकरी की तलाश कर रहे  हैं। आईटी का जो सैक्टर तेजी से उभरा था उसमें सबसे ज्यादा छंटनी की तलवार चल पडी है। बैंकिग क्षेत्र में भी ऐसी स्थिति की आंशका उभर गयी है। इसलिये आज इस राष्ट्रीय परिदृश्य को समाने रखकर बेरोजगारी की समस्या का हल खोजना होगा। इस संद्धर्भ में कृषि से बड़ा कोई क्षेत्र नही है। जिसमें रोजगार के अवसर अन्य क्षेत्रों से कहीं अधिक हैं। लेकिन इस क्षेत्र की ओर सबसे कम ध्यान दिया जा रहा है। कृषि को उद्योग का दर्जा देकर उसके उत्पादों को मुल्य निधार्रण ओद्यौगिक उत्पादों के समकक्ष लाना होगा। मूल्य निर्धारण में अप्रंसागिकता के कारण आज कृषि को अन्तिम विकल्प के रूप में लिया जाता है जबकि रोजगार के चयन में कृषि को पहली पंसद बनाये जाने की आवश्यकता है।

सत्ता की बिसात पर राजधानी का पासा

शिमला/शैल। वीरभद्र मन्त्रीमण्डल ने वीरभद्र की धर्मशाला को दूसरी राजधानी बनाने की घोषणा पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगा दी है। मन्त्रीमण्डल की स्वीकृत के बाद सरकार का यह फैसला वाकायदा अधिसूचित हो जायेगा। फैसला अधिसूचित होने के साथ ही मन्त्रीमण्डल में रखे गये इस आश्य के प्रस्ताव की Statement of  objects भी सामने आ जायेगी। उससे सरकार की नीयत और नीति साफ हो जायेगी कि यह दूसरी राजधानी अंशकालिक है या नियमित। क्योकि अभी तक जो सामने आया है उसके मुताबिक सर्दीयों के दो माह ही धर्मशाला में राजधानी रेहगी। यदि दो माह ही धर्मशाला में यह राजधानी रहनी है तो सरकार का यह फैसला दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि जब राजधानी अधीसूचित हो जायेगी तब सरकार के सारे कार्यालय मुख्यसचिव से लेकर नीचे तक वहां स्थित होने आवश्यक हो जायेंगे। इसमें हर विभाग का निदेशालय और उससे जुड़ा सचिवालय प्रभाग रहेगा। इस समय सरकार के साठ से अधिक विभाग हैं जिनके अपने -अपने निदेशालय होते है। सचिव स्तर पर तो एक सचिव के पास कई विभाग हो सकते हैं लेकिन एक ही निदेशालय अन्य निदेशालयों का काम नहीं कर सकता। इसलिये प्रशासनिक अर्थो में राजधानी एक संपूर्ण ईकाई है जिसे खण्डों में विभाजित नही किया जा सकता। यदि सचिव स्तर के अधिकारी ही बिना उनके निदेशालयों के वहां बिठाये जायेंगे तो उससे कोई लाभ नहीं होगा और केवल दो माह के लिये निदेशालय से लेकर सचिवालय स्तर तक सारा कुछ स्थानान्तरित कर पाना या करना न तो व्यवहारिक होगा और न ही संभव। इस तरह का प्रयोग और प्रयास केवल वित्तिय बोझ बढ़ाना ही होगा।
मन्त्रीमण्डल ने इन सारे पक्षों पर विचार किया है या नहीं? मन्त्रीमण्डल के सामने रखे गये प्रस्ताव में संबधित प्रशासन ने यह सारी स्थिति रिकार्ड पर लायी है या नही। इसका खुलासा तो आने समय में ही होगा। लेकिन इस समय प्रदेश की जो वित्तिय स्थिति है उसके मुताबिक प्रदेश का कर्जभार 31 मार्च को 50 हजार करोड़ तक पहुंच जाने की संभावना है क्योंकि 2016-17 को जब बजट सदन में पारित किया गया था उसमें 69084 करोड़ ऋण के माध्यम से जुटाया जाना दर्शाया गया था। अब इसी वर्ष के लिये 3940 करोड़ की अनुपूरक मांगे पारित की गयी है। जिसका अर्थ है कि यह खर्च पहले पारित हुए अनुमानों से बढ़ गया है। स्वाभाविक है कि बढ़े हुए खर्च के लिये धन या तो जनता पर कर लगाकर किया गया है या फिर कर्ज लेकर। इसका खुलासा भी आने वाले बजट दस्तावेजों में सामने आ जायेगा। कुल मिलाकर प्रदेश कर्ज के बोझ तले इतना डूब चुका है कि यदि यह चलन न रूका तो भविष्य कठिन हो जायेगा। ऐसी स्थिति मे हर तरह के अनुत्पादक खर्चों को रोका जाता है न कि बढ़ाया जाता है। प्रदेश की वित्तिय स्थिति किसी भी तर्क से इस समय यह अनुमति नहीं देती है कि केवल दो माह के लिये धर्मशाला को राजधानी बनाया जाये।
प्रशासनिक और वित्तिय पक्षों के बाद केवल राजनीतिक पक्ष रह जाता है। राजनीतिक वस्तुस्थिति का यदि निष्पक्षता से आकलन किया जाये तो इस समय केन्द्र में भाजपा की सरकार है और लोक सभा की चारों सीटें कांग्रेस वीरभद्र के नेतृत्व में बुरी तरह से हारी हुई है। वीरभद्र और उनका परिवार आय से अधिक संपति को लेकर आयकर सीबीआई और ईडी की जांच झेल रहा है। जबकि भाजपा और धूमल शासन के कार्यकाल को लेकर जो भी मामले वीरभद्र सरकार ने बनाये है उनमें एक भी मामले में सफलता नही मिली है। बल्कि कुछ मामलों में तो सर्वोच्च न्यायालय में हार का मुंह देखना पड़ा है। बाबा रामदेव के मामलें में वीरभद्र ने जो यूटर्न लिया है उससे तो वीरभद्र सरकार ने स्वयं मान लिया है कि यह मामले गलत बनाये गये थे। राजनीति के इस व्यवहारिक पक्ष मेें भी कांग्रेस और वीरभद्र भाजपा धूमल के सामने बहुत कमजोर सिद्ध होते है। फिर प्रदेश की राजनीति में डा. परमार के बाद कोई भी सरकार रिपिट नहीं हो पायी है। ऐसे में आज कांग्रेस वीरभद्र सिंह को जो सातवी बार मुख्यमन्त्री की शपथ दिलाने का जो दावा कर रही है उस दिशा में धर्मशाला को दूसरी राजधानी बनाकर प्रदेश के सबसे बडे़ जिले कांगड़ा को प्रभावित करने के लिये यह पासा फैंक रही है। लेकिन इससे शिमला, सोलन और सिरमौर के लोग नाराज होंगे। मण्डी में भी यह मांग उठेगी की दूसरी राजधानी यहां क्यों नही। वीरभद्र यह फैंसला कांग्रेस को चुनावी लाभ देने की बजाये नुकसान देने वाला सिद्ध हो सकता है क्योंकि जब अब एक बार दूसरी राजधानी बनाये जाने के लिये मन्त्रीमण्डल के स्तर पर फैसला ले लिया गया है तो आने वाले समय में भी हर सरकार को इस दिशा में आगे ही बढ़ना होगा। कोई भी सरकार इस फैसले को राजनीति के चुनावी गणित के साथ जोड़कर ही देखगी। जैसे की धर्मशाला में स्थित विधानसभा भवन की कोई सही उपयोगिता आज तक नही हो पायी है। सभी इसे एक अवांच्छित फैसला करार देते रहे है लेकिन इसे बदलने का प्रस्ताव आज तक कोई नहीं ला पाया है। ऐसा ही इस राजधानी के नाम पर होगा यह तय है।

कालीखोपुल के नोट पर चुप्पी क्यों

शिमला/शैल। अरूणाचल के स्वर्गीय मुख्यमन्त्री कालीखो पुल ने 9 अगस्त 2016 को आत्महत्या कर ली थी। उनकी आत्महत्या के बाद उनके आवास से एक 60 पन्नों का नोट बरामद हुआ है। इस नोट के हर पन्ने पर उनके हस्ताक्षर हैं। नोट के अन्तिम पृष्ठ पर 9 अगस्त को हस्ताक्षर हुए कालीखोपुल के नोट पर चुप्पी क्यों और उसी दिन पुल्ल ने आत्महत्या की है। इसलिये उनके इस नोट को Dying declaration करार दिया जा सकता है और उनके इस ब्यान को हल्के से नज़रअन्दाज नही किया जा सकता। कालीखो पुल को सर्वोच्च न्यायालय के उस आदेश के तहत मुख्यमन्त्री पद से हटाया गया था। जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने अरूणाचल से राष्ट्रपति शासन निरस्त किया गया था। कालीखो पुल सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से इस कदर आहत हुए कि न्यायपालिका और राजनीति तथा राजनेताओं के प्रति उनकी सारी धारणा ही बदल गयी। इस धारणा के बदलने के कारण उन्होने इस फैसले की कोई अपील दलील करने की बजाये प्रदेश और देश की जनता के सामने इस सारी वस्तु स्थिति को रखने का फैसला लिया। 60 पन्नों का विस्तृत पत्र लिखा। हर पन्ने पर हस्ताक्षर किये और उसके बाद अपना जीवन समाप्त कर दिया।
इस नोट में देश की शीर्ष न्यायपालिका से लेकर विधायकों/मन्त्रियों और राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोप है। कालीखो पुल की आत्महत्या के बाद जब यह नोट बरामद हुआ और सार्वजनिक हुआ तब इस नोट पर अपनी प्रतिक्रिया में अरूणाचल के राज्यपाल राज खोवा ने इन आरोपों को गंभीर बताते हुए इसकी सीबीआई से जांच करवाये जाने की वकालत की थी। लेकिन राज्य सरकार ने ऐसा नही किया। केन्द्र सरकार और उसकी ऐजैन्सीयां भी इस बारे में खामोश रही। राज्यपाल राज खोवा ने जब इसकी सीबीआई जांच पर ज्यादा बल दिया तो केन्द्र सरकार ने राज्यपाल राज खोवा को ही हटा दिया। इस नोट में एक  मुख्यमन्त्री ने मरने से पहले जो गंभीर आरोप लगाये हैं उन्हें क्यों नज़रअन्दाज किया जा रहा है? भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी इस नोट पर क्यों चुप है? देश का कोई भी राजनीतिक दल एक मुख्यमन्त्री के इस आत्मकथ्य पर चुप क्यों है? मीडिया भी इस पर कोई सार्वजनिक बहस क्यों नही उठा रहा है?
कालीखो पुल मुख्यमन्त्री थे और इससे पहले कई सरकारों में मन्त्री रह चुके है यह उन्होने अपने नोट में कहा है। वह कांग्रेस पार्टी के सदस्य थे। कांग्रेस के कई लोगों पर उन्होने गंभीर आरोप लगाये है। लेकिन न्यायपालिका से लेकर नीचे तक जितने भी लोगों पर आरोप लगे है। वह सब इस पर खामोश क्यों है? खो का यह नोट सरकार की कार्य प्रणाली का एक आईना है। सरकारी कामकाज सब जगह एक ही जैसा है। हर राज्य में एक ही तरह की योजनाएं होती है। केन्द्र सरकार की योजनाएं भी हर राज्य के लिये एक ही जैसी रहती है। ऐसे में सरकार के कार्यक्रमों को लागू करने में सरकारी तन्त्र कैसे काम करता है उसमें कितना जनता तक पहुंचता है और कितना बीच में ही खत्म हो जाता है इसका खुलासा पुल के इस नोट में विस्तार से है। कैसे विधायक और मन्त्री बनने के बाद हमारे राजनेता एकदम अमीर बन जाते है। इस ओर पुल्ल ने ध्यान आकर्षित किया है। स्व. पुल ने अपने पत्र में सबसे बड़ा सवाल यह उठाया है कि जब कानून की किताब नही बदलती है तो फिर उस पर आधारित फैसले बार-बार क्यों बदल जाते हैं? स्व. कालीखो पुल के नोट में सर्वोच्च न्यायपालिका और देश के सर्वोच्च शासन पर गंभीर आरोप लगे हैं। स्वाभाविक है कि जब पुल्ल इस भ्रष्ट व्यवस्था से लड़ने का साहस नहीं जुटा पाये तो फिर उनके परिजन कैसे इस लड़ाई को जारी रख पायेंगे? ऐसे में देश के प्रत्येक ईमानदार संवदेनशील नागरिक को इस नोट में उठाये गये सवालों को सार्वजनिक बहस का मुद्दा बनाना होगा। पुल के उठाये गये आरोपों पर सर्वोच्च न्यायालय के शीर्ष पांच न्यायधीशों की देखरेख में एक एसआईटी गठित करके इन आरोपों की जांच की जानी चाहिये। प्रधानमन्त्री मोदी के लिये भी यह नोट एक परीक्षा पत्र है और इस पर उन्हे देश के सामने पास होकर दिखाना होगा। इस उम्मीद के साथ मैं इस पत्र को अपने पाठकांे के सामने रख रहा हूं

कहां तक जायेगा वीरभद्र और संगठन का टकराव

शिमला/शैल। 2012 के विधानसभा चुनावों से पूर्व कांग्रेस ने धूमल सरकार के खिलाफ एक विस्तृत आरोप पत्र
महामहिम राष्ट्रपति को दिल्ली में सौंपा था। इस आरोप पत्र के बाद चुनावों के दौरान कांग्रेस ने चुनाव घोषणा पत्र जारी किया था। सरकार बनने के बाद आरोप पत्र की जांच और घोषणा पत्र के वायदों को पूरा करने की जिम्मेदारी सरकार की थी। आरोप पत्र में सबसे बड़ा आरोप ‘हिमाचल आॅन सेल’ का था। सरकार बनने के बाद यह आरोप पत्र जांच के लिये विजिलैन्स को सौंप दिया गया। लेकिन विजिलैन्स ने अब तक जितने भी मुद्दों पर जांच की है उनमें एक भी मामलें में उसे सफलता नही मिली है। बल्कि विजिलैन्स की सारी जांच एचपीसीए के गिर्द ही केन्द्रित होकर रह गयी है। एचपीसीए पर ही ज्यादा ध्यान केन्द्रित होने पर जब संगठन और सरकार के कुछ वर्गो में सवाल उठे तब वीरभद्र ने आरोप पत्र से यह कहकर किनारा कर लिया था कि वह आरोप पत्र तैयार करने वाली कमेटी के सदस्य ही नहीं थे। कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र में एक सबसे बड़ा वायदा था प्रदेश के बेरोजगार युवाओं को प्रतिमाह एक हजार रूपये का बेरोगारी भत्ता देना। वीरभद्र इस वायदे को भी पूरा नही कर पाये है। इन दिनों यह बेरोजगारी भत्ता सरकार और संगठन में फिर मुद्दा बनकर उछल गया है। परिवहन मन्त्री जीएस बाली द्वारा यह मुद्दा उठाया गया है। स्मरणीय है कि बाली ने धूमल शासन के दौरान भी इस मुद्दे पर एक पद्यात्रा निकाली थी और अब फिर युवाओं का एक सम्मेलन बुलाने जा रहें हैं। प्रदेश के विभिन्न रोजगार कार्यालयों में दर्ज आंकड़ो के मुताबिक बेरोजगार युवाओं की संख्या दस लाख से भी ऊपर है। बाली की ही तर्ज पर राज्यसभा सांसद विप्लव ठाकुर ने भी इस मुद्दे पर अपनी चिन्ता मुखर की है। लेकिन वीरभद्र ने बेरोजगारी भत्ता देने के मुद्दे पर यू टर्न ले लिया है। वीरभद्र यहां तक कह गये हैं कि वह चुनाव घोषणा पत्र तैयार करने वाली कमेटी के सदस्य ही नही थे और वह इस वायदे को मानते ही नही है।
यह सही है कि आरोप पत्र तैयार करने वाली कमेटी के अध्यक्ष जीएस बाली थे और घोषणा पत्र कमेटी के अध्यक्ष आनन्द शर्मा थे। लेकिन जब आरोप पत्र सौंपा गया था तब वीरभद्र साथ थे और जब घोषण पत्र जारी किया गया था तब भी वह इसमें शामिल थे। लेकिन दोनों ही मामलों पर वीरभद्र ने जिस तरह से अपने आप को संगठन से अलग कर लिया है वह राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में एक अलग चर्चा का विषय बन गया है। संभवतः इसी कारण आनन्द शर्मा को भी एक पत्राकार वार्ता करके बेरोजगारी भत्ते पर अपना पक्ष रखना पड़ा है। लेकिन आनन्द शर्मा पूरी स्पष्टता के साथ न तो इसके पक्ष में और न ही इसके विरोध में खड़े हो पाये है। उन्होने इस पर केवल वीरभद्र से बात करने की बात की है। वह भी चुनाव घोषणा पत्र के वायदों पर हुए अमल को लेकर एक समीक्षा बैठक के दौरान। चुनावी घोषणा पत्र और उसके बाद अब तक के कार्यकाल में हुई विभिन्न घोषणाओं पर कितना अमल हुआ है इसको लेकर एक बैठक की जायेगी। जो वायदे/घोषणाएं पूरी नही हो पायी है उन पर संगठन और सरकार का रूख क्या होगा इसको लेकर कुछ नही कहा जा रहा है। क्योंकि वीरभद्र जिस तरह की कार्यशैली से काम कर रहे है उससे स्पष्ट हो जाता हैं कि इस समय सरकार के साथ -साथ वीरभद्र संगठन का भी पर्याय बनते जा रहें है।
वीरभद्र ने संगठन में हुई विभिन्न नियुक्तियों को लेकर कई बार यह स्पष्ट कर दिया है कि वह इन नियुक्तियों को कोई ज्यादा अधिमान नही देते है। जिलाध्यक्षों और ब्लाॅक अध्यक्षों को लेकर जो टिप्पणी अभी हाल ही में वीरभद्र सिंह ने की है उस पर आनन्द शर्मा का यह कहना कि इसमें भविष्य में सुधार करने की आवश्यकता है अपने में एक महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया है। आनन्द शर्मा ने वीरभद्र के संगठन के प्रति इस तरह के रिमार्कस पर कोई सीधा स्टैण्ड नही लिया है। बल्कि एक तरह से वीरभद्र का समर्थन ही किया है इसी के साथ आनन्द शर्मा ने अब तक वीरभद्र सरकार की सफलताओं/असफलताओं पर भी खुलकर कोई प्रतिक्रिया वयक्त नही की है। लेकिन कभी प्रदेश अध्यक्ष का खुलकर समर्थन भी नही किया है। वीरभद्र संगठन के काम काज से संतुष्ट नही है ऐसे संकेत वह कई बार दे चुकें है। इस चुनावी वर्ष में उनका यह प्रयास रहेगा कि संगठन की बागडोर भी उनके किसी विश्वस्त के हाथ ही रहे। इस दिशा में वह कई बार प्रयास कर भी चुके हंै। लेकिन उन्हे सफलता नही मिली है। अब आनन्द शर्मा ने अपरोक्ष में एक बार फिर वीरभद्र का समर्थन ही किया है। आनन्द केन्द्र में वरिष्ठ मंत्री रह चुके है और इस समय राज्य सभा में पार्टी के उपनेता है। इस नाते हाईकमान के विश्वस्त भी है। वीरभद्र के नाम से जब उनके समर्थकों ने ब्रिगेड का गठन कर लिया था। (जिसे बाद में भंग कर दिया गया था ) उस मुद्दे पर आनन्द ही ऐसे बडे नेता है जिनकी इस पर कोई प्रतिक्रिया नही आयी थी। अब यह बिगे्रड एक एनजीओ बन गया है और इसके अध्यक्ष ने सुक्खु के खिलाफ मानहानि का मामला दायर कर रखा है। लेकिन कांग्रेस का एक भी बड़ा नेता इस पर कुछ भी नही बोल पा रहा है। जबकि यह एनजीओ राजनीतिक संगठन की तर्ज पर ही सक्रिय है। कांग्रेस सरकार और संगठन में एक समय कौल सिंह, जीएस बाली, आशा कुमारी, राकेश कालिया और राजेश धर्माणी ने विरोध के स्वर मुखर करने का प्रयास किया था लेकिन आज जीएस बाली को छोड़कर बाकी सभी खामोश होकर बैठ चुके है। इस समय वीरभद्र सरकार और संगठन का पर्याय बनते जा रहे है क्योंकि आरोप पत्र और घोषणा पत्र से जिस लहजे में उन्होने किनारा किया है और संगठन की नियुक्तियों को स्पष्ट शब्दों में अप्रसांगिक करार दिया है उससे यह स्पष्ट हो जाता है। ऐसे में विपक्ष भी सबसे अधिक वीरभद्र को ही अपने निशाने पर रखेगा। विपक्ष का मुकाबला भी वीरभद्र को अकेले अपने ही दम पर करना पडे़गा। संगठन और सरकार में इस परिस्थिति में कौन वीरभद्र का कारगर सहारा बनेगा इसको लेकर कोई तस्वीर अब तक साफ नही है और वीरभद्र के लिये आने वाले समय में यह एक बड़ी चुनौति होगा।

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