शिमला। 2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है क्योंकि उसकी सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और मंहगाई के जो आरोप लगे उनका वह जवाब नहीं दे पायी। जनता ने उसे भ्रष्टाचारी सरकार कहकर सत्ता से बेदखल कर दिया। इस बेदखली के बाद राज्यों की विधान सभाओं के जो भी चुनाव हुई उनमें पांडीचेरी को छोड़कर और कहीं भी कांग्रेस सत्ता में नही आयी। दिल्ली में तो शून्य पर चली गयी। दिल्ली के बाद बिहार और बंगाल में भले ही पार्टी का प्रदर्शन कुछ अच्छा रहा है लेकिन इसका श्रेय अकेले कांग्रेस को नही जाता है। यह श्रेय चुनावी गठबन्धन के दूसरे सहयोगीयों को उसी बराबरी में जाता है। अब पंजाब में 2017 जनवरी में चुनाव होने हंै और इसके लिए अभी से तैयारी शुरू कर दी गयी है। इसी तैयारी के परिदृश्य में कांग्रेस ने पंजाब में वरिष्ठ नेेता कमल नाथ को यहां का प्रभार दिया। लेकिन 1984 में दिल्ली में हुए सिख विरोधी दंगों में रही कमल नाथ की भूमिका को लेकर सवाल उठने शुरू हो गये। इन सवालों के दवाब में कमल नाथ को पंजाब से हटाना पड़ा। कमल नाथ के बाद आशा कुमारी को वहां का प्रभार दिया गया। लेकिन संयोग वश आशा कुमारी को जमीन के मामले में ट्रायल कोर्ट से एक साल की सजा हो चुकी है। भले ही अपील में अब यह मामला हिमाचल उच्च न्यायालय में है लेकिन जब तक उच्च न्यायालय से क्लीन चिट नही मिल जाती है तब तक आशा कुमारी के खिलाफ सजा का यह फतवा जनता में यथा स्थिति बना रहेगा।
आशा कुमारी को यह जिम्मेदारी दिये जाने पर भाजपा और आम आदमी पार्टी ने कड़ी प्रतिक्रियाएं जारी करते हुए इसे कांग्रेस द्वारा जन-अनादर करार दिया है। इन प्रतिक्रियाओं का कांग्रेस ने इसे पार्टी का अंदरूनी मामला कहा है। यह ठीक है कि पार्टी किस आदमी को कहां क्या जिम्मेदारी देना चाहती है यह उसका अपना मामला है। लेकिन जब पार्टी जनता के बीच वोट मांगने-सत्ता मांगने जाती है तो वह जनता से पहला वायदा स्वच्छ शासन-प्रशासन देने का करती है। आज हर पार्टी पर यह आरोप लग रहा है कि वह अपने संगठन और पैसे के दम पर आपराधियों को चुनावों में उम्मीदवार बनाकर उतार रही है। लोकतन्त्रा में लोक लाज बहुत ही महत्वपूर्ण और संवेदनशील भूमिका अदा करती है। लोकलाज के लिये सबसे पहली आवश्यकता नेता की अपनी छवि का स्वच्छ होना है। आज आशा कुमारी के लिये और पार्टी के लिये यह धर्म संकट की स्थिति होगी जब उसके सामने कोई ऐसा व्यक्ति चुनाव का टिकट मांगने के लिये आ जायेगा जिसके खिलाफ कोई अपराधिक मामले खडे हों। ऐसे व्यक्ति को किस नैतिक अधिकार से वह मना कर पायंेगी। आज चुनाव के परिदृश्य में पार्टी ने आशा कुमारी को यह जिम्मेदारी देकर यह सवाल खड़े कर लिये कि क्या पार्टी में स्वच्छ छवि के लोगों की कमी है? क्या पार्टी आज किसी भी नेता के खिलाफ लग रहे भ्रष्टाचार के आरोपों का संज्ञान लेने को तैयार नही है?
भ्रष्टाचार के आरोपों के साये में सत्ता से बेदखल हुई कांग्रेस ने क्या अभी तक हार से कुछ नही सीखा? आज मोदी सरकार जिन योजनाओं को लेकर जनता में अपनी सफलता का राग अलाप रही है उन सबकी नीव कांग्रेस में रखी गयी थी। कम्यूटरीकरण का सपना सबसे पहले स्व. राजीव गांधी ने देखा था। स्व0 चन्द्रशेखर के प्रधानमन्त्राी काल में जब सोना गिरवी रखकर कर्ज लिया गया था तो क्या नरसिंह राव और मनामोहन सिंह की सरकारों ने देश को उस स्थिति से बाहर नहीं निकाला। सब्सिडी का पैसा सीधे उपभोक्ता के खाते में ले जाने की योजना क्या मनमोहन सिंह की नहीं थी। जिस मनरेगा को लेकर मोदी ने इसे कांग्रेस का कंलक कहा था क्या आज उसको भाजपा अपनी उपलब्धि नही बता रही है? जब आधार योजना शुरू की गयी थी तक क्या इसका भाजपा ने विरोध नही किया था और उसे आज अपनी सफलता करार दे रही है। ऐसे बहुत सारे मुद्दे हैं जिन पर कांग्रेस भाजपा को घेर सकती है लेकिन ऐसा कर नही पा रही है क्योंकि पार्टी अपने भीतर बैठे भ्रष्टाचारीयों को बाहर का रास्ता दिखाने का साहस नहीं कर पा रही है और यही उसका सबसे बडा संकट है।
एफ डी आई कुछ सवाल !
शिमला:- केन्द्र सरकार ने पन्द्रह क्षेत्रों में एफ डी आई निवेष के मानदण्डो में संशोधन किया है। इस संशोधन से कई क्षेत्रों में सौ फीसदी विदेशी निवेश का रास्ता खोल दिया गया है। जिन क्षेत्रों में सौ फीसदी विदेशी निवेश को हरी झण्डी दी गई हैं उनमें टाऊनशिप, शापिंग काम्पलैक्स, व्यापारिक केन्द्रो का निर्माण, काफी रबर और कुक तेल, मैडिकल उपकरण रेवले, तथा एटीएम आप्रेशनज आदि शामिल है। गैर प्रवासी भारतीयों को फेेमा के शडूयल चार में संशोधन चार में संशोधन करके खुले निवेश की सुविधा देे दी गयी हैं विकासात्मक निर्माण के क्षेत्रा में एफ डी आई के तहत होने वाले निवेश में एरिया की न्यूतम और अधिकतम
सीमाओं की बंदिश से भी छुट दे दी गई है। इसमें केवल 30% हाऊसिंग गरीब तबकांे के लिये होनी चाहिये की ही शर्त रखी गई है। प्राईवेट सैक्टर के बैंको में 74% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सुविधा कर दी गई हैं एफडी आई के तहत होने वाले उत्पादन को निर्माता सीधे सरकार की अनुमति के बिना ही थोक और खुदरा तथा ई-कार्मस के माध्यम से बेचने के लिये स्वतन्त्रा रहेंगे । इस तरह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश कृषि पशुपानल आदि क्षेत्रों के लिये खोल दिया गया है। सौ फीसदी निवेश वाले क्षेत्रों में सरकार की स्वीकृति की भी आवश्यकता नही है। निवेशक के मानदण्डों में सशोंधन का प्रभाव आम आदमी पर क्या पडेगा इसका खुलासा तो आने दिनो में ही सामने आयेगा। लेकिन यह तय है कि जब निर्माताओं को थोक और खुदरा बिक्री ई कामर्स के माध्यम से दे दी गयी है तो इसकी सीधा प्रभाव हर क्षेत्रा के छोटे और मध्यम स्तर के दुकानदार पर पेड़गा। क्योंकि इस क्षेत्रा में कार्यरत दुकानदार और छोटा कारखानेदार विदेशी वस्तुओं की बराबरी नहीं कर पायेगा। एमजान और स्नैपडील को ई कामर्स को लेकर मध्यम स्तर का दुकानदार पहले ही चिन्ता जता चुका है। सरकार इस विदेशी निवेश के माध्यम से देश को निर्माण का केन्द्र बनाना चाहती है। सरकार का दावा है कि इससे रोजगार के अवसर बढेगें ।
लेकिन इसी विदेशी निवेश को लेकर जब यूपीए सरकार ने पहल की थी तब भाजपा के वरिष्ठ नेता डाक्टर मुरली मनोहर जोशी और आज केन्द्रिय मन्त्री राजीव प्रताप रूडी इसके प्रखर आलोचकों के रूप में सामने आये थे। आज संघ से जुडा स्वदेशी जागरण मंच इस निवेश का विरोध कर रहा हैं यह विरोध अगर यूपीए के समय में जायज था तो आज भी यह उतना ही जायज और प्रासंगिक है। इस संद्धर्भ में कुछ बुनियादी सवाल खड़े होते है क्योंकि जब से विदेशी निवेश के दारवाजे खूले है तब से मंहगाई और बेरोजगारी के आंकडे बढे़ हैं ऐसा क्यों हुआ है इसके कई अध्ययन सामने आ चुके है। मूल प्रश्न है कि हमें विदेशी निवेश आवश्यकता क्यों है? क्या देश के काले धन के विदेशों में पड़े होने के बडे़ बड़े आंकडे आये थे। इस काले धन को वापिस लाकर प्रत्येक के बैंक खाते में पन्द्रह लाख आने के दावे किये गये थे जो पूरे नहीं हुए है और न ही हो सकेगें।
एफडीआई को लेकर यह भी आशंका जताई जा रही है कि इसके माध्यम से अपने ही कालेधन को निवेश के रूप में सामने लाया जायेगा।
यह आशंका कितनी सही हैं इसका खुलासा भी आने वाले दिनों में ही सामने आयेगा। लेकिन आज हाऊसिग निमार्ण के सारे क्षेत्रों में शतप्रतिशत विदेशी निवेश की स्वीकृति दे दी गयी है। जबकि देश के अन्दर बिल्डर अब माफिया की शक्ल ले चुका है। इस बिल्डर माफिया को नियन्त्रित करने की सरकारों से मांग की जा रही है। लेकिन एफ डीआई के नाम पर आने वाले इन बिल्डरों को हर तरह की छूट का प्रावधान कर दिया गया है क्यों? सरकार निवेश के लिए पूंजी आमन्त्रित करना चाह रही है जो क्या इसका यह सरलतम तरीका नहीं हो सकता कि इस कथित काले धन को देश के अन्दर निवेश के रास्ते खोल दिये जाये। आज देश का लाखों करोड़ का काला धन विदेशों में पडा हेै उससे देश में किसी को कोई लाभ नही मिल रहा है। यदि इस काले धन पर से सारी बंदिशे हटाकर भयमुक्त करके सीधे निवेश के लिये आमन्त्रित कर लिया जाये तो पूंजी की सारी समस्या ही हल हो जाती है।
दिल्ली की केजरीवाल सरकार द्वारा नियुक्त इक्कीस संसदीय सचिवों के भविष्य पर तलवार लटक गयी है। इन विधायकों की सदस्य रद्द होने की संभावना बढ़ गयी है क्योंकि संसदीय सचिव के पद को लाभ के पद की परिभाषा से बाहर रखने के आश्य का एक विधेयक दिल्ली विधानसभा से पारित करवाकर राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिये भेजा था। दिल्ली को अभी तक पूर्णराज्य का दर्जा प्राप्त नहीं है। इसलिये यह विधेयक केन्द्र सरकार के माध्यम से राष्ट्रपति के पास गया। केन्द्र सरकार ने इस पर प्रक्रिया संबधी कुछ तकनीकी टिप्पणीयां के साथ यह बिल राष्ट्रपति को भेजा। लेकिन इन तकनीकी टिप्पणीयों के कारण राष्ट्रपति भवन से इसकी स्वीकृति नही मिली। स्वीकृति न
मिलने से यह मुद्दा एक राष्ट्रीय मुद्दा बन गया हैं क्योंकि देश के लगभग राज्यों में वहां के मुख्यमन्त्राीयों ने संसदीय सविच/ मुख्य संसदीय सचिव नियुक्त कर रखें हंै। इसमें हर राजनीतिक दल ने अपनी-अपनी सरकारों में इस तरह की राजनीतिक नियुक्तियां कर रखी हैं।
हिमाचल प्रदेश में नौ मुख्य संसदीय सचिव नियुक्त हंै। विधानसभा में जब माननीयों के वेतन भत्ते बढ़ौतरी के बिल आये हैं उनमें मुख्यसंसदीय सचिवों का उल्लेख अलग से रहा है। इनके वेतन भत्ते मंत्रीयों से कम और सामान्य विधायकों से अधिक रहे हंै। इन्हें सचिवालय में अलग से कार्यालय मिले हुए हंै। सरकार से मन्त्रीयों के समान सुविधायें इन्हें प्राप्त हैं। कार्यालय में पूरा स्टाफ है तथा सरकार से गाड़ी ड्राईवर और उसके लिये पैट्रोल आदि का सारा खर्च सरकार उठा रही है। पदनाम को छोड़कर अन्य सुविधायें इन्हें मन्त्रीयों के ही बराबर मिल रही है। बल्कि प्रदेश के लोकायुक्त विधेयक में तो इन्हें मन्त्री परिभाषित कर रखा है।
स्मरणीय है कि वर्ष 2005 में एक संविधान संशोधन के माध्यम से केन्द्र और राज्यों की सरकारों में मन्त्रीयों की संख्यां एक तय सीमा के भीतर रखी गयी है। हिमाचल में मन्त्रीयों की अधिकतम सीमा मुख्मन्त्री सहित बारह है। दिल्ली में यह संख्या सात तक है। लेकिन राजनीतिक समांजंस्व बिठाने के लिये संसदीय सचिवों की नियुक्तियां हो रखी हैं। नियमों के मुताबिक संसदीय सचिव को किसी विभाग की वैसी जिम्मेदारी नही दी जा सकती है जो एक मन्त्री/राज्य मन्त्री/ उप मन्त्री को हासिल रहती है। संसदीय सचिव का किसी न किसी मन्त्री से अटैच रहना आवश्यक है। उन्हे एक राज्य मन्त्री की तरह स्वंतत्र प्रभार नही दिया जा सकता । संसदीय सचिव जिस भी विभाग के लिये संवद्ध हो वह उस विभाग की फाईल पर संवद्ध विषय पर अपनी राय अधिकारिक रूप से दर्ज नही कर सकता। नियमों के मुताबिक संसदीय सचिव की भूमिका तभी प्रभावी होती है जब विधानसभा का सत्र चल रहा हो। सत्र के दौरान संव( मन्त्री को संसदीय सलाह/ सहयोग देना ही उसकी जिम्मेदारी रहती है। बल्कि सत्र में मंत्री की अनुपस्थिति में संसदीय सचिव संवद्ध विभाग से जुडे़ प्रश्न का उत्तर भी सदन में रख सकता है। लेकिन सामान्यतः ऐसा किया नही जाता है।
ऐसे में जब किसी संसदीय सचिव किसी भी विभाग की वैधानिक तौर पर जिम्मेदारी नही दी जा सकती है तब उसमें और एक सामान्य विधायक में कोई अन्तर नही रह जाता है। क्योेंकि संसदीय सचिव मन्त्री के समकक्ष नही रखा गया है। लेकिन वह सामान्य विधायक से संसदीय सचिव होने के नाते ज्यादा सुविधायें भोग रहा है। उसके वेतन भत्ते भी सामान्य विधायक से अधिक हंै। लेकिन 2005 में संविधान में संशोधन लाकर मन्त्रीयों की अधिकतम सीमा तय की गयी थी तब संसदीय सचिवोें का कोई प्रावधान नही रखा गया था क्योंकि ऐसा प्रावधान मूलतः संविधान की नीयत के एकादम विपरीत है। ऐसे में अब दिल्ली के संसदीय सचिवों का मुद्दा एक बड़ा सवाल बनकर सामने आ खड़ा हुआ है तो उसके लिये पूरे देश में एक समान व्यवस्था का प्रावधान करना होगा। अलग-अलग राज्यों में आज अलग-अलग प्रावधान नहीं हो सकते। इसके लिये एक बार फिर संशोंधन लाकर मन्त्रीयों की संख्या बढ़ा देना ज्यादा व्यवहारिेक होगा और उसमें संसदीय सचिवों की नियुक्तियों पर विराम लग जाना चाहिए।
शिमला/शैल। अवैध भवन निर्माणों को नियमित करने के लिये सरकार फिर रिटैन्शन पाॅलिसी लेकर आयी है। इसके लिये अध्यादेश जारी किया गया है प्रदेश पहली बार 1997 में रिटैन्शन पाॅलिसी लायी गयी थी तब वीरभद्र की सरकार ही थी। इसके बाद 1999, 2000, 2002, 2004, 2006 और 2009 में रिटैन्शन के नाम पर भवन निर्माण नियमों में संशोधन किये गये हैं। 2006 में जून और नवम्बर में दो बार यह पाॅलिसी लायी गयी। रिटैन्शन के नाम पर अब तक प्रदेश में 8198 अवैध भवनों को नियमित किया जा चुका है। इस अवधि में प्रदेश में वीरभद्र और प्रेम कुमार धूमल दोनो की ही सरकारें रही है और दोनो के शासन कालों में बडे पैमाने पर अवैध भवन निमार्ण हुए है।
ग्रामीण क्षेत्रों में भवन निमार्ण के लिये किसी तरह के कोई नियम नही है। प्रदेश के शहरी क्षेत्रों में ही यह नियम लागू हैै। शहरी क्षेत्रों में नगर निगम, नगर पालिका, एन ए सी आदि स्थानीय स्वशासन निकायों को भवन निर्माणो को रैगुलेट करने के अधिकार प्राप्त है। इन नियमों में यदि कोई भवन निर्माता छोटी - मोटी भूल कर जाता है। तो उसे नियमित करने का अधिकार भी इन निकायांे को प्राप्त है। नियमित करने के लिये भी नियम पूरी तरह परिभाषित है। सामान्यतः अवैध भवन निर्माणों को लेकर सरकार के दखल की गुंजाईश बहुत कम रहती है। सरकार का दखल की आवश्यकता तब पडती है जब बडे पैमाने पर अवैध निर्माण सामने आते है जिनमें नियमों में ही संशोधन करना पड़ जाये।
प्रदेश में नौवी बार यह संशोधन होने जा रहा है। 1997 में जब पहली बार यह रिटैन्शन पाॅलिसी लायी गयी थी तब यह दावा किया गया था कि इसके बाद होने वाले अवैध निर्माणों के साथ सख्ती से निपटा जायेगा। लेकिन बाद में हुआ सब कुछ इस दावे के ठीक उल्ट। सख्ती के नाम पर दलाली की फीस अवश्य बढ़ गयी है और यह दलाली बहुत लोगों का रोजगार बन गयी है। 1997 में रिटैन्शन जब पहली बार रिटैन्शन पाॅलिसी लायी गयी थी तो उसके बाद फिर अवैध निर्माण कैसे हो गये? इस अवैधता के लिये उस सरकारी तन्त्रा के खिलाफ क्या कारवाई की गयी जिसे यह सुनिश्चित करना था। कि उसके क्षेत्रा में भवन निर्माण नियमों की अनुपालना ठीक से हो रही या नही। लेकिन जिस तरह से बार-बार रिटैन्शन के नाम पर भवन निर्माण नियमों में संशोधन हुए है। उससे यह संदेश जाता है कि सारी अवैधता एक सुनियोजित तरीके से होती आ रही है। इसक पीछे ऐसे लोग रहे है जा पूरी तरह आश्वस्त रहे है जो यह जानते थे कि निर्माण के दौरान सरकारी तन्त्रा उनका काम रोकने नही आयेगा और बाद मे वह इसे रिटैन्शन के नाम पर नियमित करवा लेगें।
आज अगर शिमला में ही नजर दौड़ायी जाये तो सबसे ज्यादा अवैध निर्माण यहां पर हुए है। यहा पर नगर निगम केे जिम्मे भवन निर्माणों पर निगरानी रखने का काम था। लेकिन यहां पर होटल बिलो बैंक में जिस तरह से अवैध निर्माण ठीक मालरोड़ पर होता रहा और जैसे उसे नियमित किया गया है उसमें सरकार से लेकर नगर निगम तक पूरा संवद्ध तन्त्र की सवालों के घेरे में आ जाता है। सही पर प्रदेश उच्च न्यायालय का अपना भवन अवैध निर्माणों की सूची में शामिल है जब नगर निगम शिमला के क्षेत्रा में अवैध निर्माणों को लेकर विधान सभा में स्थानीय विधायक सुरेश भारद्वाज का प्रश्न आया था तो उसके उतर मे जो सूची में शामिल रखी गयी थी उसे कई सरकारी भवन भी शामिल रहे है। जबकि नियमो के मुताबिक सरकारी भवनों को भवन निर्माण नियमों की अनुपालना न करने की छूट नहीं हैं। आज कोर्ट रोड़ पर जिस तरह के विधायक बलवीर शर्मा का होटल बना है उस पर अवैधता का सबसे बड़ा आरोप है। आज हर व्यक्ति यह कहता सूना जा सकता है कि इस बार रिटैन्शन पोलिसी इन लोगो के लिए लाई जा रही है। बार- बार भवन निर्माण नियमों में संशोधन से स्पष्ट हो जाता है कि प्रदेश में बिल्डर लाॅबी कितनी प्रभावशाली हो चुकी है नगर निगम शिमला और प्रदेश विधान सभा चुनावों से पूर्व हर बार बिल्डर लाॅबी को खुश करने के लिए भू अधिनियम की धारा 118 और भवन निर्माण नियमों में सरकारें संशोधन लाती रही है। हर बार लायी गई रिटैन्शन को आखिरी बार कहा जाता रहा है लेकिन हुआ ठीक उससे उल्टा है। इसलिए बार - बार नियमों में संशोधन लाने की बजाये इन नियमों को ही समाप्त कर दिया जाना चाहिये और एक तय सीमा के बाद हर अवैधता की एक फीस का प्रावधान कर दिया जाना चाहिये।
शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह ने प्रदेश के शिक्षा विभाग की जिम्मेदारी इस कार्यकाल मेे अपने पास रखी हैं इस वार प्रदेश के सरकारी स्कूलों के कक्षा दसवीं और बारहवीं के परीक्षा परिणाम इतने निराशाजनक रहे हैं कि मुख्यमंन्त्री ने इसका कड़ा संज्ञान लेते हुए निराशाजनक परिणाम देने वाले स्कूलों के मुख्याध्यापकों /प्रिसिंपलों को तुरन्त ट्रांसफर करने और खराब परिणाम के कारण बताने के आदेश किये है। इन्ही के साथ संबधित विषयों के अध्यापकों की भी जवाब तलबी की है। मुख्य मन्त्रीे के इन आदेशों पर अमल होना भी शुरू हो गया है। मुख्यमन्त्री की चिन्ता जायज है। लेकिन इस समस्या का स्थायी हल खोजने की आवश्यकता है क्योंकि स्थानान्तरण इसका कोई हल नही है क्योंकि जो लोग एक जगह गैर जिम्मेदार रहें हैं वह दूसरी जगह जाकर सुधर जायेगें इसी कोई गांरटी नही है। इसका कोई स्थायी हल तब तक नही निकाला जा सकता है जब तक की इसे मूल कारणों की जानकारी न मिल जाये। 
शिक्षा में सुधार लाने के लिये और इसे हर घर और बच्चे तक पहुंचाने के लिये आप्रेशन ब्लैक बोर्ड तथा प्रौढ शिक्षा केन्द्रों से लेकर आर एम एस ए व रूसा तक के कई कार्यक्रम लागू हो चुके है। स्कूलों में व्यवसायिक शिक्षण कार्यक्रम भी इसी में उठाये गये महत्वपूर्ण कदम रहे है। हर कार्यक्रम के तहत काम हुए हैं। केन्द्र से सभी कार्यक्रमों के लिये पर्याप्त आर्थिक सहयोग भी मिला है। आज राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा और सर्व शिक्षा अभियान जैसे कार्यक्रमों में शिक्षा में गुणवता लाने के लिये विशेष बल दिया गया हैं यहां तक की कैग रिपोर्टो में समय-समय पर जो टिप्पणीयां आती रही है उनका भी गंभीरता से कोई संज्ञान नही लिया जाता रहा है। इसलिये सबसे पहले यह आवश्यक है कि इन सारे कार्यक्रमों का सही मूल्यांकन हमारे सामने हो।
शिक्षा संस्थान खोलने के लिये केवल वोट की राजनीति ही आधार नही रहनी चाहिये। इस समय मुख्यमन्त्री दिल खोलकर प्रदेश में सभी जगह स्कूल/काॅलिज बांटते जा रहे हैं इसका कोई अध्ययन नही है। कि कहां पर स्कूल /काॅलिज खोलने के वांच्छित मानक पूरे है। एक संस्थान खोलने के लिये कम बच्चों की संख्या और अन्य आधार भूत सुविधांयों की निश्चितता पूरी तरह परिभाषित है लेकिन इन मानको को पूरी तरह नजर अंदाज किया जा रहा है। एक समय डीपीवीईपी कार्यक्रम के तहत इतने स्कूल खोल दिये गये थे कि आगे चलकर प्रदेश उच्च न्यायालय के आदेशों पर स्कूलों का युक्तिकरण करते हुए कई स्कूल बन्द करने पडे थे। आज भी दर्जनों स्कूल ऐसे है जहां पर अध्यापकों की संख्या पूरी नहीं है। दर्जनो स्कूल ऐसे है कि जिनमें बच्चों की कम से कम संख्या भी पूरी नही है। अभी निराशाजनक परिणामों का संज्ञान लेेते हुए जो स्थानान्तरण किये गये है उनमें सामने आया है कि कितने स्कूलों में मुख्याध्यापकों/प्रिसिपलों के पद खाली है। इसलिये सबसे पहले इन खाली पदों को भरने के प्रयास किये जाने चाहिये। हर स्कूल में जब तक हर विषय का अध्यापक उपलब्ध नही होगा जब तक अच्छेे परिणामों की अपेक्षा कैसे की जा सकती है। शिक्षा पर देश /प्रदेश का भविष्य आधारित है और एक लम्बे अरसे से शिक्षा क्षेत्र में ही व्यापारीकरण के आरोप लगते आ रहे है। इसी व्यापारीकरण का परिणाम है कि शिक्षा के क्षेत्र में नियामक आयोग नियुक्त करना पड़ा है। क्या नियामक आयोग अप्रत्यक्षततःसरकारी तन्त्र की असफलता की स्वीकारोक्ति नही हैं फिर यह नियामक आयोग अपने उद्देश्य में कितने सफल हो पाये है। यदि इस पर ईमानदरी से आकलन किया जाये तो इससे व्यापारीकरण के साथ ही भ्रष्टाचार का स्तर भी बढ़ गया है। इसलिये प्रदेश के भविष्य की चिन्ता करते हुए इस व्यापारीकरण को तुरन्त प्रभाव से रोकने की आवश्यकता है। क्योंकि सरकार से बड़ा कोई अदारा नही हो सकता जो शिक्षा और स्वास्थ्य को हर घर तक पहुंचाने की क्षमता रखता है। लेकिन इसमें गुणात्मक सुधार लाने के लिये शिक्षकों और अन्य सरकारी कर्मचारियों के लिये यह अनिवार्य कर दिया जाना चाहिये कि वह अपने बच्चों को प्राईवेट स्कूलों/कालेजो में न पढायेें। क्योंकि जब तक इस तरह की अनिवार्यता नही ला दी जाती है। तब तक इसमें सुधार नही किया जा सकता। स्कूलों की संख्या बढ़ाने की बजाये स्कूलों में छात्रों और अध्यापकों की संख्या बढ़ाई जाये। संख्या बढ़ाने के लिये कम बच्चों वाले स्कूलों को बन्द करके उन बच्चों को बस सुविधा उपलब्ध करवायी जाये ताकि उन्हे स्कूल पहंुचने में कठिनाई न आये।