शिमला/शैल। मोदी के वित्तमंत्री अरूण जेटली ने फरवरी 2016 के अपने बजट भाषण में कहा था कि सरकार बैकिंग संस्थानों में बेहत्तर अनुशासन लाने की दिशा में कुछ बडे़ और स्थायी कदम उठाने जा रही है। वित्तमन्त्री की इस घोषणा के बाद आर्थिक मामलों के अतिरिक्त सचिव अजय त्यागी की अध्यक्षता में मार्च 2016 में इस आश्य की एक कमेटी का गठन किया गया। इस कमेटी ने सितम्बर 2016 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी उसकेे बाद इस रिपोर्ट पर जनता की प्रतिक्रियाएं आमन्त्रित की गयी और 14 अक्तूबर को ही प्रतिक्रियाओं और सुझावों का सिलसिला बन्द कर दिया गया। 20 दिन से भी कम का समय जनता को इस रिपोर्ट को समझने के लिये दिया गया। इसी कारण सेे आज आम आदमीे को इस रिपोर्ट और फिर इस रिपोर्ट के आधार पर लाये गये एफआरडी आई बिल के बारे में कोई जानकारी ही नही है। इस रिपोर्ट के बाद वित्त मन्त्रालय में इस आश्य का विधेयक तैयार किया गया जिसे मोदी मन्त्रीमण्डल की स्वीकृति के बाद संसद के पिछले मानसून सत्र के अन्तिम दिन से एक दिन पहले सदन में पेश किया। सदन में पेश होने के बाद इसेे संसद की वित्त मन्त्रालय की स्लैक्ट कमेटीे को भेजने की बजायेे संसद की संयुक्त कमेटी को भेजा गया है। संयुक्त कमेटी ने इस बिल पर रिजर्ब बैंक का पक्ष जानने के लियेे उर्जित पटेल को भी तलब किया है। संयुक्त कमेटी की रिपोर्ट के बाद यह बिल संसद में पारित होने के लिये आ जायेगा और फिर कानून बन जायेगा।
इस पृष्ठभूमि में यह समझना आवश्यक हो जाता है कि यह प्रस्तावित विधेयक है क्या और इसे क्यों लाया जा रहा है? इससेे बैंकिंग संस्थानों और उनके उपभोक्ताओं पर क्या प्रभाव पड़ेगा। उपभोक्ता के बिना तो किसी भी बैंकिंग संस्थान की कल्पना ही नही की जा सकती है। उपभोक्ता अपना पैसा बैंक में बचत खाते के रूप में या फिक्सड डिपाॅजिट शक्ल में रखता है। बैंक इस पैसेे पर उसेे ब्याज देता है। बैंक इस पैसे को आगे निवेशित करता है और उस पर ब्याज कमाता है। आम आदमी भी जरूरत पड़ने पर बैंक से ऋण लेता है और ब्याज अदा करता है। बैंक ऋण देने की एवजे में ऋण लेनेे वाले से सामान्य 15% तक की धरोहर (चल-अचल संपति) जमानत के रूप में रखता है। यदि किसी कारण से ऋण की वसूली न हो पाये तोे ज़मानत के रूप में रखी गयी धरोहर को निलाम करकेे अपना ऋण वसूलने का अधिकार बैंक को रहता है। बैंकों के साथ साथ ही अब इन्शयोरैन्स कंपनीयां भी इसी तरह के व्यवसाय में आ चुकी हैं। बैंक उपभोक्ता के विश्वास पर चलता है। लेकिन बैंक के प्रबन्धन में उपभोक्ता का कोई दखल नही रहता। उपभोक्ता को यह जानकारी ही नही होती है कि बैंक का प्रबन्धन ठीक चल रहा है और वह लाभ कमा रहा है। यदि किन्ही कारणों से बैंक फेल हो जाये और बन्द होने केे कगार पर पहुंचे जाये तो उससेे जुड़े उपभोक्ताओं का क्या होगा? बैंक के पास उनकी जमा पूंजी का क्या होगा? क्योंकि जब बैंक खुद ही बीमार होगा तो वह उपभोक्ता का पैसा कैसे वापिस दे पायेगा। केन्द्र सरकार ने 1961 में इस स्थिति पर विचार किया था और तब संसद ने Deposit Insurance and Credit Gaurntee Corporataive Act. परित किया था। इस एक्ट के तहत उपभोक्ता के एक लाख के डिपाॅजिट को ब्याज सहित सुरक्षित कर दिया गया था। लेकिन यह सीमा आज भी एक लाख तक की ही है। एक लाख से अधिक का डिपाॅजिट बैंक के बीमार होने की सूरत में कानून सुरक्षित नही है।
इस समय 21 पब्लिक सैक्टर कार्यरत है और 82% बैंकिंग बिजनैस इनके पास है यह बैंक करीब 3000 करोड़ का इन्शयोरैन्स प्रिमियम अदा कर रहे हैं लेकिन इसके बावजूद उपभोक्ता की सुरक्षा केवल एक लाख तक की ही हैं इस समय हमार बैंको का एनपीए करीब दस लाख करोड़ को पहुंच रहा है। एनपीए तब होता जब ऋण लेने वाला ऋण की वापसी नही करता है। इस एनपीए का करीब 67% पैसा कुछ ही बड़े उद्योग घरानों के पास है। जैसे अब अनिल अंबानी ने 45000 करोड़ का घाटा दिखाकर अपना टैलीकाॅम बिजनैस बन्द कर दिया। अब 45000 करोड़ का पैसा स्वभाविक है कुछ बैंको का ही है। जेपी इन्फ्र्रा का मामला तो दिवालिया घोषित होने के लिये सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है इस बढ़ते एनपीए के कारण बहुत सारे बैंको की हालत बिगड़ चुकी है। बन्द होने के कगार पर पहुंच चुकी है। अभी पिछले ही दिनों स्टेट बैंक आॅॅफ इण्डिया में कुछ बैंको को मर्ज किया गया है। निजिक्षेत्र के कई बैंक डूबे चुके हैं। संभवतः इसी स्थिति को समझते हुए 1971 में बैंको का राष्ट्रीयकरण किया गया था। एनपीए के कारण 2007-08 से ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बैंकिंग क्षेत्र संकट में आया था। बैंकिंग क्षेत्र को रैगूलेट करने के लिये रिजर्ब बैंक स्टेट बैंक आॅफ इण्डिया एक्ट और 1961 में पास हुआ एक्ट तथा 2016 में लाया गया बैंकिंग कोड है। बैंको को बन्द होने से बचाने के लिये सरकार इनको बेल आऊट करती रही है। सरकार बजट से पैसा देकर बैंकों की सहायता करती रही है। लेकिन अब इस दिशा में Bail out की जगह Bail out का प्रावधान लाया जा रहा है।
नये प्रस्तावित विधेयक के तहत सरकार Financial Resolition Deposit Insurance Act 2017 एक नयी Resolution Corporation गठित करने जा रही हैं इसकेे गठन से पुराने सारे प्रावधान निःरस्त हो जायेंगे। इसके गठन से आरबीआई की भूमिका काफी गौण हो जायेगी। यह नयी बननेे वाली कारपोरेशन ही किसी भी बैंक या अन्य वित्तिय संस्थान का आंकलन करेगी कि उसकी वित्तिय सेहत कैसी है क्या उसे बचाया जा सकता है या नहीं इसके तहत कई संस्थान बन्द भी हो सकते हैं या उन्हे किसी दूसरे में मिलया जा सकता है। इस संद्धर्भ में इस कारपोरेशन का निर्णय अन्तिम होगा और उसेे किसी भी अदालत में सिवाय ट्रिब्यूनल के चुनौती नही दी जा सकेगी। इस स्थिति में यदि बैंक को बन्द करने का फैसला लिया जाता है तो उसमें उपभोक्ता का एक लाख से ज्यादा का सारा पैसा डूब जायेगा क्योंकि उसकी कोई गांरटी नही है। यदि बैंक को बचानेे का फैसला लिया जाता है तो उसके लिये Bail in के तहत उसके डिपाॅजिटरों के पैसेे का एक निश्चित % काटकर बैंक की इक्विटी में डाल दिया जायेगा। यह कितने % तक रहेगा इसको लेकर विधेयक में कोई स्पष्ट उल्लेख नही है। अब तक अन्तर्राष्ट्रीय जगत में साईप्रस जैसा देश 2013 में 47.50% तक की कटौती कर चुका है। इस विधेयक में यह स्पष्ट किया गया है कि बैंक को बचाने के लियेे Bail out की जगह Bail in का प्रावधान लागू होगा।
ऐसे में यह सवाल उठता है कि जब बैंक अपने ऋणों की वसूलीे करने में असमर्थ रहता है और ऋण धारक की धरोहर को निलाम करने के कदम नही उठाता है तब तक उसे Bail in या Bail out का लाभ क्यों मिले? क्या ऐसे प्रबन्धन के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करकेे उसे सज़ा नही दी जानी चाहिये? ऐसेे एनपीए वालों के नाम सार्वजनिक करके उन्हे भविष्य के लिये ब्लैक लिस्ट नही कर दिया जाना चाहिये? यदि सरकार एनपीए धारकों और बैंक प्रबन्धनों के खिलाफ ऐसे कड़े कदम उठाये बिना ही Bail in जैसे प्रावधान लाती है तो यह आम आदमी के साथ सबसे बड़ा विश्वासघात होगा।
शिमला/शैल। 16 नवबर को राष्ट्रीय प्रैस दिवस के रूप में जाना जाता है। इस दिन भारतीय प्रैस परिषद मीडिया से जुड़े किसी मुद्दे को मीडिया के सामने एक खुले चिन्तन और खुली चिन्ता के लिय संप्रेषित करती है। क्योंकि यह दिन और इस दिन चिन्तन के लिये आया विषय मीडिया के लिये अपने भीतर झांकने का विषय होता है। उम्मीद की जाती है कि इस अवसर पर मीडिया से जुड़ा हर कर्मी आत्मचिन्तन करके अपने लिये कुछ मानक तय करेगा। इस दिन निष्पक्षता से हर छोटा-बड़ा व्यक्ति जो अपने को मीडिया कर्मी मानता है इक्कठे बैठकर सामूहिक रूप से खुले मन
से चिन्तन-मन्थन करेगा। लेकिन क्या ऐसा हो पा रहा है क्या हमारे प्रैस क्लब इस विषय में पूरी ईनामदारी से अपनी भूमिका निभा रहे हैं? या फिर यह दिन भी एक सरकारी आयोजन बनकर ही रह गया है। इस अवसर पर इस बार प्रैस परिषद द्वारा सुझाया गया विषय था ‘‘मीडिया के सामने चुनौतीयां’’। इस दिन षिमला में भी इस संद्धर्भ में प्रदेश के जनलोक संपर्क विभाग द्वारा एक आयोजन किया गया। इस अवसर पर शिमला के तीन पत्रकारों ने इस दिन के विषय पर अपने-अपने विचार रखे। विचार रखने के बाद इस पर खुली चर्चा भी हुई। इसके लिये संद्धर्भित विषय किस वक्ता ने क्या कहा उसकी तफसील में जाने की बजाये मैं इस बिन्दु पर आऊंगा कि पूरे चिन्तन के बाद अन्त में सामने क्या आया और वह कितना महत्वपूर्ण और गंभीर था। सभी एक मत थे कि मीडिया इस समय विश्वसनीयता के संकट से गुजर रहा है और सोशल मीडिया ही उसके लियेे सबसे बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। यह सही है कि यह मीडिया के लिये इस समय का सबसे बड़ा संकट है लेकिन इस संकट से बाहर कैसे निकला जाये इसका कोई रास्ता इस चिन्तन में निकल नही पाया। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि ‘‘रास्ते ’’ का कोई प्रयास ही नही हुआ।
इस चिन्तन में रास्ता खोजने का प्रयास क्यों नही होे पाया इस पर बात करने से पहले यह कहना ज्यादा प्रसांगिक होगा कि इस अवसर पर शिमला में ही बैठे सारे मीडिया कर्मी उपस्थित नही रहे। शिमला में प्रदेश विश्वविद्यालय के अतिरिक्त इग्नू एपीजी गोयल विश्वविद्यालय में भी पत्रकारिता का विषय पढाया जा रहा है। यह अच्छा होता कि इन संस्थानों का भी पत्रकारिता विभागों के छात्र इस आयोजन में भाग लें क्योंकि भविष्य में उन्हें इन सवालों का सामना करना है। इसकेे लिये प्रदेश के लोक संपर्क विभाग के साथ मैं प्रैस क्लब के संचालकों से भी यह अपेक्षा करूंगा कि अगले वर्ष यह दोनों मिलकर इस दिन का आयोजन करें और सभी मीडिया कर्मीयों से भी उम्मीद करूंगा कि वह अपने-अपने अहम को छोड़कर इस आयोजन का हिस्सा बने और यह आयोजन पूरे दिन भर का कार्यक्रम रहे। भविष्य की इस कामना के साथ ही मैं इस विषय पर स्वयं क्या सोचता हूं उसे भी अपने सह धर्मीयों और पाठकों के साथ सांझा करना चाहूंगा।
मीडिया पहले विश्वयुद्ध के बाद से पत्रकारिता का पर्याय बन गया है। संप्रेषण का सबसे बड़ा माध्यम माना जाता है। मीडिया/संप्रेषण सूचना और संप्रेषण विचार का समाज और उसकी व्यवस्था में सूचना और विचार दोनों का अपना-अपना अलग महत्व है और दोनों की ही अपनी -अपनी भूमिका है। संभवतः इसी महत्व और भूमिका के कारण ही मीडिया को लोकन्त्र का चैथा खम्बा माना जाता है। समाज में चाहेे लोकतांत्रिक व्यवस्था हो या तानाशाही लेकिन दोनों ही व्यवस्थाओं कार्यपालिका और न्यायापालिका आवश्यक अंग है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में व्यवस्थापिका तीसरे सतम्भ के रूप में जुडती है। हमारे यहां लोकतान्त्रिक व्यवस्था के तहत यह यह तीनों अंग मौजूद है और तीनों का अपना-अपना दायित्व है इन तीनों पर नजर रखने के लिये जनता है। इसे जनता के अधिकार हासिल है कि वह पांच साल बाद व्यवस्था को बदल सकती है। जनता बदलाव तब करती है जब उसे लगता है कि उसके द्वारा चुनी हुई व्यवस्थापिका के तहत कार्यपालिका और न्यायपालिका अपने दायित्वों का ठीक से निर्वहन नही कर रही है। जब ऐसी स्थिति उभरती है तब मीडिया की भूमिका आती है। तब मीडिया से यह अपेक्षा की जाती है कि वह व्यवस्थापिका कार्यपालिका और न्यायपालिका पर एक ऐसे निगरान की भूमिका निभाये जो अपने में पूरी तरह निष्पक्ष भी हो। लेकिन जब व्यवस्थापिका सत्ता के लोभ में कार्यपालिका और न्यायपालिका को प्रभावित करना शुरू कर देती है तब सामाजिक व्यवस्था का सारा सन्तुलन बिगड़ जाता है। जब यह स्थिति पनपती है तब जनता भ्रमित होना शुरू हो जाती है। जिस जनता को इसी पूरी व्यवस्था का मालिक कहा जाता है जिसके सामने सारे तन्त्र की जवाबदेही मानी जाती है। वही जनता इसी व्यवस्था के सामने जब लाचारगी में आ जाती है तब जनता का इस स्थिति से बाहर निकालने की जिम्मेदारी केवल मीडिया के कंधों पर आ जाती है।
यह वह स्थिति होती जब जनता उसे मीडिया द्वारा प्रेषित सारी सूचनाओं और विचारों पर या तो तात्कालिक रूप से एकदम विश्वास कर लेती है और तब उस पर सकारात्मक फैसला लेती है या उस पर विश्वास न करके नकारात्मक फैसला लेती है। लेकिन यह एक महत्वपूर्ण स्थिति होती है और यहीं पर सत्ता पर काबिज या सत्ता पर कब्जा करने की चाहत वाला चाहे वह एक राजनीतिक दल हो या महज़ एक व्यक्ति वह मीडिया का सहारा लेता है। और यहीं से शुरू होता है मीडिया की विश्वसनीयता का प्रश्न। यदि मीडिया कर्मी ऐसी स्थिति का निष्पक्ष वौद्धिक आंकलन करके अपना पक्ष चुनता है तो उसकी विश्वसनीयता पर किसी भी तरह का संकट नही आता है। तब उस पर फेक न्यूज या पेड न्यूज के आक्षेप नही लगते हैं। लेकिन इसके लिये आवश्यक शर्त यह रहती है कि संबधित विषय पर उसका अध्ययन और जानकारी एकदम ठोस हो। जब ठोस अध्ययन और जानकारी के आधार पर व्यवस्था पर चोट करता है तब उसकी विश्वसनीयता अपने आप स्थापित हो जाती है। अध्ययन और जानकारी का अभाव ही उसे सवालों के घेरे में खडे़ करते है। आज जिस सोशल मीडिया को एक बड़ी चुनौतीे माना जा रहा है विश्वसनीयता का सबसे बड़ा संकट उसी पर है। क्योंकि यह सोशल मीडिया सूचना संवाहक तो बन गया है लेकिन अभी तक विचार का नही बन पाया है। फिर सोशल मीडिया पर आयी जानकारी के स्त्रोत का पता लगाने के लियेे तो कैलिफार्निया का सहयोग चाहिए यह इन चुनावों के दौरान प्रदेश भाजपा द्वारा साईबर एक्ट के तहत दायर एक शिकायत के जवाब में हमारे सामने आ चुका है। सोशल मीडिया पर आयी पोस्ट से भाजपा का जो नुकसान होना था वह तो हो गया और उस पर दर्ज शिकायत पर कारवाई होने तक तो शायद दूसरा चुनाव भी आ जाये। इस उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस सोशल मीडिया की अपनी प्रमाणिकता पर गंभीर सवाल उठ चुकेे हैं वह मीडिया के लिये चुनौती या संकट नही हो सकता। सोशल मीडिया एक त्वरित प्रचार का माध्यम मात्र है और उसे प्रचार मंच से अधिक मान देने की आवश्यकता नही है। आज जब कोई विचार या सचूना पाठकों के सामनेे दस्तावेजी प्रमाणों के साथ रखी जाती है तब उसकी विश्वसनीयता पर कोई सवाल नही उठ पाते हैं। आज पत्रकार यदि अपनी सूचना पर आश्वस्त हैं तो उस पर कोई संकट नही है। क्योंकि आज पाठक भी पत्रकार पर हर समय उसी तरह नज़र रखे हुए है जिस तरह पत्रकार रखता है। आज यदि पत्रकार की करनी और कथनी में कोई अनतर नही होगा तो समाज हर समय उसके साथ खड़ा नज़र आयेगा। इसलिये जब पत्रकार स्वयं पर विश्वास कर पायेगा तब उसकी विश्वसनीयता को कोई संकट नही है।
जीएसटी परिषद् ने 177 वस्तुओं को 28% के दायरे से बाहर करके 18% के दायरे में ला दिया है। यह फैसला अभी 15 नवम्बर से ही लागू हो जायेगा और इससे इन वस्तुओं की कीमतों में कमी आयेगी यह माना जा रहा है। जीएसटी जब से लागू हुआ था तभी से व्यापारियों का एक बड़ा वर्ग इसका विरोध कर रहा था। व्यापारी इस कारण विरोध कर रहे थे कि इससे कर अदा करने में प्रक्रिया संबधी सरलता के जो दावे किये जा रहे थे वह वास्तव में सही नही उतरे। लेकिन व्यापारी के साथ ही आम आदमी भी उपभोक्ता के रूप में इससे परेशान हो उठा क्योंकि खरीददारी के बाद कुल
बिल पर जब जीएसटी के नाम पर कर वसूला जाने लगा तो उसे इस जीएसटी के कारण मंहगाई होने का अहसास हुआ। इससे पहले भी वह यही खरीददारी करता था परन्तु उस समय उसे जीएसटी के नाम से अलग अदायगी नही करनी पड़ती थी आज जब जीएसटी अलग से बिल में जुड़ता है तब वह इसका विरोध नही कर पाता है। जीएसटी को लेकर जब लोगों में नाराज़गी उभरी तब इस पर भाजपा के ही पूर्व वित्त मन्त्री रहे यशवंत सिन्हा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा, पूर्व मन्त्री अरूणी शौरी जैसे बड़े नेताओं के विरोधी स्वर भी उभर कर सामने आ गये। राहुल गांधी ने जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स की संज्ञा दे दी। हिमाचल के चुनाव प्रचार अभियान में जब भाजपा के केन्द्रिय नेता प्रदेश में आयेे और पत्रकार वार्ताओं के माध्यम से मीडिया से रूबरू हुए तब उन्हे जीएसटी पर भी सवालों का समाना करना पड़ा। जीएसटी पर उठे सवालों के जवाब में भाजपा नेताओं का पहली बार यह स्टैण्ड सामने आया कि इसके लियेे मोदी सरकार नही बल्कि जीएसटी काऊंसिल जिम्मेदार है। भाजपा नेताओं ने इसके लिये कांग्रेस को भी बराबर का जिम्मेदार कहा और सवाल किया कि इसे वीरभद्र सरकार ने अपने विधानसभा में क्यों पारित किया?
जीएसटी नोटबन्दी के बाद दूसरा बड़ा आर्थिक फैंसला मोदी सरकार का रहा है। नोटबंदी को लागू हुए पूरा एक वर्ष हो गया है। विपक्ष ने 8 नवम्बर 2016 को काले दिवस के रूप में स्मरण किया है। पूर्व प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह ने नोटबंदी को आर्थिक आतंक करार दिया है। नोटबंदी को लेकर मनमोहन सिंह ने जो चिन्ताएं देश के सामने रखी थी वह सब सही साबित हुई है। नोटबंदी के बाद आर्थिक विकास दर में 2% की कमी आयी है इसे रिजर्व बैंक ने भी स्वीकार कर लिया है। भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनावों में पहले ही मोदी को नेता घोषित कर दिया था। लोकसभा का चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ा गया था। 2014 के लोकसभा चुनाव से पूर्व स्वामी राम देव और अन्ना आन्दोलनों के माध्यम से देश के भीतर भ्रष्टाचार और कालेधन को लेकर जो तस्वीर सामने रखी गयी थी वह एकदम भयानक और गंभीर थी। देश का आम आदमी उस स्थिति से छुटकारा पाना चाहता था। चुनावांे में उसे भरोसा दिलाया गया था कि मोदी की सरकार बनने से अच्छे दिन आयेंगे। इस भरोसे पर विश्वास करके ही जनता ने मोदी के नेतृत्व में भाजपा को प्रचण्ड बहुमत दिलाकर सत्तासीन किया। लेकिन सरकार बनने के आज चैथे साल भी वह अच्छे दिनों का वायदा पूरा नही हो पाया है। आम आदमी के लिये अच्छे दिनों का पहला मानक मंहगाई होती है। मंहगाई के मुहाने पर मोदी सरकार बुरी तरह असफल रही है आज आम कहा जा रहा है कि कांग्रेस के शासनकाल में मंहगाई की स्थिति यह नही थी। आज रसोई गैस की कीमत यूपीए शासन के मुकाबलेे में दोगुनी हो गयी है। पेट्रोल डीजल और सारे खाद्य पदार्थों की कीमतों में भारी वृद्धि आम आदमी के सामने है। बेरोजगारी कम होने की बजाये नोटबंदी और जीएसटी जैसे फैंसले से और बढ़ी है।
कालेधन और भ्रष्टाचार के जो आंकड़े 2014 के लोकसभा चुनावों से पूर्व देश के सामने थे वह आज भी वैसे ही खड़े है। मोदी और उनके सहयोगी जो यह दावा करते आ रहे थे कि उनके शासनकाल में भ्रष्टाचार का कोई बड़ा काण्ड सामने नही आया है। उनका यह दावा आज अमितशाह और अजित डोभल के बेटों पर लगे आरोपों से एकदम बेमानी हो जाता है। जिन बानामा पेपर्ज में नाम आने के बाद पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री नवाज़ शरीफ वहां के सुप्रीम कोर्ट का फैंसला आने के बाद पद से भी हटाये जा चुके हैं। वहीं पर भारत सरकार उन पेपर्ज में जिन लोगों के नाम आये हैं उनकेे खिलाफ कोई मामला तक दर्ज नहीं कर पायी है। अब पैराडाईज़ पेपरज़ में तोे मोदी के मन्त्राी और एक राज्य सभा सांसद तक का नाम आ गया है। लेकिन इसपर भी कोई कारवाई नही होगी यह माना जा रहा है। क्योंकि जिस लोकपाल के गठन को लेकर अन्ना का इतना बड़ा आन्दोलन यह देश देख चुका है आज मोदी सरकार इतनेे बड़े बहुमत के बाद भी उस मुद्दे पर पूरी तरह चुप्प बैठी हुई है। इसी से सरकार की भ्रष्टाचार के खिलाफ ईनामदारी और नीयत का पता चल जाता है। यही कारण है कि काॅमन वैल्थ गेम्ज़ और 2 जी जैसे मामलों पर चार वर्षों में कोई एफआईआर तक दर्ज नही हो पायी है।
आज जब जीएसटी पर सरकार ने नये सिरे से विचार करके 177 आईटमो को 28% से बाहर करने का फैंसला लिया है भले ही यह फैंसला गुजरात चुनावों के कारण लिया गया है। फिर भी यह स्वागत योग्य है इसी तर्ज में अब सरकार को चाहिये कि नोटबंदी के बाद कैश लैस और डिजिटल होने के फैसलों को ठण्डे बस्ते में डालकर काॅरपोरेट सैक्टर पर नकेल डालनेे का प्रयास करें। इस सैक्टर के पास जो कर्ज एनपीए के रूप में फंसा हुआ है उसे वसूलने में गंभीरता दिखायेे अन्यथा हालात आने वाले दिनों में सरकार के कन्ट्रोल से बाहर हो जायेगा यह तय है।
शिमला शैल। देश के भूतपूर्व सैनिक ’’वन रैंक वन पैन्शन’’ की मांग को लेकर 870 दिनों से दिल्ली के जन्तर- मन्तर पर लगातार अपना आन्दोलन जारी रखे हुए है। पिछले दिनों एनजीटी ने एक आदेश पारित करके जन्तर- मन्तर को आन्दोलन स्थल के रूप में प्रयोग किये जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। इस आदेश की अनुपालना में दिल्ली पुलिस ने जन्तर - मन्तर से इन आन्दोलन रत भूतपूर्व सैनिको को 31 अक्तूबर 2017 को बल पूर्वक हटा दिया। पुलिस द्वारा किया गया बल प्रयोग एक अपमान की सीमा तक जा पहुंचा है। इस अपमानजनक बल प्रयोग से यह भूतपूर्व सैनिक और आहत हो उठे हैं। आज यह सैनिक प्रधानमन्त्री के खिलाफ वादा खिलाफी का आरोप लगा रहे हैं। देश के प्रधानमन्त्री के खिलाफ इस तरह आरोप उस समय लगना जब हमारी सीमाओं पर हर तरफ तनाव का वातावरण बना हुआ है। अपने में एक गंभीर चिन्ता और चिन्तन का विषय बन जाता है।
सत्ता पक्ष द्वारा इस तरह प्रताडित और अपमानित किये जाने के बाद इन सैनिको ने प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस से अपने पार्टी मंच के माध्यम से देश की जनता के सामने इनकी मांगों को रखने के लिये आग्रह किया है। क्योंकि सत्ता पक्ष के साथ प्रमुख विपक्षी दल की भी राष्ट्रहित के मामलों में बराबर की जिम्मेदारी हो जाती है। इन पूर्व सैनिको की पीड़ा को जनता के सामने लाने के लिये कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने शिमला में इन सैनिकों को पार्टी का मंच प्रदान किया। यह एक संयोग है कि प्रदेश में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं और 9 तारीख को मतदान होना है। इस समय हिमाचल में करीब 11.50 लाख भूतपूर्व सैनिक है।
कांग्रेस के मंच का इस्तेमाल करते हुए इण्डियन एक्स सर्विस मैन मूवमैन्ट के चेयरमैन मेजर जनलर (रि॰ ) सतवीर सिंह और यूनाईटड एक्स सर्विस मैन मूवमैन्ट के वाईस चेयरमैन ग्रुप कैप्टन वी के गांधी और अन्य पदाधिकारियों ने प्रदेश की जनता के सामने अपनो पक्ष रखते हुए मोदी सरकार से यह सवाल उठाये है।
मादी सरकार ने ’’वन रैंक वन पैन्शन’’ (आरोप ) को न लागू कर भारत के सैनिकों और भूतपूर्व सैनिकों के साथ विश्वासघात किया है। ’’वन रैंक वन पैन्शन’’ की मांगे कर रहे सैनिक 870 दिनों से जंतर - मंतर पर विरोध प्रदर्शन कर रहे है। आन्दोलनकारी भूतपूर्व सैनिक 32,000 से अधिक युद्ध पदक सरकार को लौटा चुके हैं। लेकिन भाजपा या प्रधानमन्त्री मोदी के कानों पर जूं तक नही रेंग रही है।
दूसरी तरफ की सरकार ने 14 अगस्त 2015 को स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर जंतर मंतर पर आन्दोलिन सैनिको पर हमला करके उनका अपमान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 31 अक्तूबर 2017 की नरेन्द्र मोदी की सरकार ने ’’वन रैंक वन पैन्शन’’ की मांग कर रहे सैनिकों और सैनिको की विधवाओं का अपमान करके न केवल उन्हे गिरफ्तार किया बल्कि बलपूर्वक उन्हे वहां से खदेड़ दिया।
पटेल चैक, नई दिल्ली से 12 भूतपूर्व सैनिको को उस समय गिरफ्तार किया जब वह चुपचाप बस स्टाॅप पर बैठे थे। उनके हाथ में कोई बैनर, कोई पोस्टर नही था और न ही वह कोई नारा लगा रहे थे। इसके बाद भी 25.50 पुलिसकर्मीयों ने उन पर लाठियां भांजीं और फिर उन्हे हिरासत मे ले लिया। क्या नरेन्द्र मोदी की नजरों में प्रजातंत्र के यही मायने है?
विरोधी स्वर को दबाना, जनमानस की आवाज को कुचलना और लोकतन्त्र का गला घोंटना केन्द्र की भाजपा सरकार की पहचान बन गए हैं।
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्र की भाजपा सरकार को हिमाचल प्रदेश के 11.50 लाख भूतपूर्व सैनिको को निम्नलिखित प्रश्नों के जवाब देने ही होंगे।
1. 17 फरवरी 2014 को केन्द्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने 1 अप्रैल 2014 से "वन रैंक वन पैन्शन’’ को स्वीकार कर लिया था। 26 फरवरी 2014 को उस समय रक्षामन्त्री ए के एंटोनी ने बैठक की अध्यक्षता की और वित्तवर्ष 2014-2015 से रक्षाबलों की सभी रैंक्स के लिये ’’वन रैंक वन पैन्शन ’’ लागू करने का निर्णय लिया। दिनांक , 26.02.2014 को भेजे गए पत्र तथा ’’वन रैंक वन पैन्शन’’की मीटिंग के मिनट्स संलग्नक A-1 में संलग्न है।
मिनट्स के पैरा 3 में यह साफ कहा गया है कि ’’ वन रैंक वन पैन्शन ’’ का मतलब है कि एक समान अवधि तक सेवाएं देने के बाद एक समान रैंक से रिटायर होने वाले सशस्त्र बलों के सनिकों को एक समान पेंशन दी जाएगी फिर चाहे उनकी रिटायरमेंट की तारीख कोई भी क्यों न हो तथा भविषय में पेंशन की दरों में होने वाली वृद्धि पहले से पेंशन पा रहे लोगों को स्वतः ही मिलने लगेगी।
इसलिये क्या यह सही नहीं है कि "वन रैंक वन पेन्शन ’’ में बराबरी के सिंद्धात को स्पष्ट व निष्पक्ष रूप से अपनाया गया था।
2. मई 2014 में केन्द्र में भाजपा की सरकार बनी और नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। डेढ़ साल बीत जाने के बाद 7 नवम्बर 2015 को मादी सरकार ने एक नोटिफिकेशन जारी करके तीनों सेनाओं के 40 प्रतिशत सैनिकों को ’’ वन रैंक वन पेन्शन के फायदे से वंचित कर दिया तथा समय से पहले रिटायरमेंट लेने वाले सैनिकों को वन रैंक वन पेन्शन का फायदा देने से इंकार कर दिया। 7 नवम्बर 2015 को जारी नोटिफिकेशन के क्लाॅज 4 में कहा गया है कि ’’ 4. जो सैनिक सेना नियम 1954 के नियम 16 वी या नियम 13 (3), 1(i) (b), 13 (3) 1(iv) या इसके समतुल्य नेवी या एयरफोर्स के नियमों के तहत अपने खुद के निवेदन पर सेवानिवृत होता है उसे ’’वन रैंक वन पेन्शन का फायदा नही दिया जाएगा।
क्या भाजपा सरकार को इस बात की जानकारी नही है कि जूनियर रैंक के लगभग सभी कर्मचारी खासकर जवान /जूनियर कमीशंड आॅफिसर 40 वर्ष की आयु में रिटायर हो जाते हैं? केवल 30 प्रतिशत सैनिक ही कर्नल बन पाते है। बचे हुए अधिकांश अधिकारी 20 साल की सेवा पूर्ण होने पर समयपूर्व रिटायमेंट ले लेते हैं। समय से पहले रिटायरमेंट लेने वाले सैनिकों की संख्या भी लगभग 30 प्रतिशत से 40 प्रतिशत हैं तो क्या तीनों सेनाओं के सभी सेवाधीन सैनिकों को ’’वन रैंक पेंशन के फायदों से वंचित कर देना उनके साथ अन्याय नहीं ?
3. केन्द्र की भाजपा सरकार को जुलाई 2014 के निर्णय को लागू करने में क्या परेशानी है? भाजपा सरकार से उस समय कांग्रेसस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार द्वारा लिये गए निर्णय के अनुसार 4 अप्रैल 2014 से "वन रैंक वन पेंशन" लागू क्यों नही होने दिया ? कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार द्वारा लागू ’’ वन रैंक वन पेंशन" को खारिज करके मोदी सरकार भूतपूर्व सैनिकों को इसके फायदों से वंचित क्यों कर रही है?
4. मोदी सरकार ने पांच साल पूरे हो जाने के बाद पेंशन की पुनः समीक्षा की शर्त क्यों रखी जबकि सभी अनुभवी लोग दो सालों में समीक्षा की मांग कर रहे थे?
5. रिटायर्ड एंव सेवाधीन भूतपूर्व सैनिकों सहित सभी हितग्राहियों की पाचं सदस्यीय कमेटी की जगह "वन रैंक वन पेंशन" की समीक्षा एक सदस्यीय कमेटी द्वारा क्यों कराई जाएगी ?
6. कांग्रेस पार्टी द्वारा तय किए गए "वन रैंक वन पेंशन" में भूतपूर्व सैनिकों को सर्वाधिक वेतन के आधार पर पेंशन मिलती। वर्तमान व्यवस्था में पेंशन का निर्णय सबसेे कम वेतन के औसत के आधार पर लिया जाएगा। मोदी सरकार ने यह एक तरफा व्यवस्था लागू करके
भूतपूर्व सैनिकों को फायदों से वंिचत क्यों किया जिसके चलते विभिन्न पेंशनभोगियों की पेंशन में असमानता आ जाएगी?
7. मोदी सरकार 7 फरवरी / 26 फरवरी 2017 को लिये निर्णय के अनुसार ’’ वन रैंक वन पेंशन’’ लागू करने की वजाये इसकी मांग कर रहे सैनिकों और सैनिकों की विधवाओं पर अत्याचार कर उनकी गिरफ्तारी क्यों कर रही है?
मोदी सरकार भारत एंव हिमाचल प्रदेश के सैनिकों की आवाज दबा नही सकती। यदि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा राजनीति करना चाहते हैं तो वह जान लें कि हिमाचल प्रदेश के सैनिकों और यहां के लोगों को गुमराह नही किया जा सकता। सैनिक वन रैंक वन पेंशन के इस विश्वसघात को कभी स्वीकार नहीं करेंगे।
यह है फरवरी 2014 में जारी हुआ पत्र और बैठक में पारित प्रस्ताव


प्रदेश विधानसभा के लिये नौ नवम्बर को मतदान होगा। इस बार यह मुकाबला प्रदेश के दो बड़े राजनीतिक दलों के बीच ही होने जा रहा है क्योंकि राजनीतिक विकल्प के रूप में कोई तीसरा दल चुनाव मैदान में उपलब्ध नहीं है। दोेनों राजनीतिक दलों के प्रत्याशीयों के अतिरिक्त भी 212 उम्मीदवार बतौर आज़ाद या कुछ छुटपुट दलों के नाम पर उपलब्ध हैं लेकिन इन्हें एक कारगर विकल्प के रूप में नही लिया जा सकता। फिर निर्दलीय उम्मीदवारों की भूमिका चुनाव जीतने के बाद क्या रहती है यह हम पिछले चुनाव के बाद देख चुके हैं। इन लोगो ने कैसे सत्ता के साथ जाने का खेल खेला और फिर अन्त में भाजपा की ओर आ गये। इनके दलबदल कानून के तहत कारवाई किये जाने की याचिका विधानसभा अध्यक्ष के पास भाजपा ने दायर की थी जिस पर आज तक कोई फैसला नही आया है और यह फैसला आने के लिये अन्त में भाजपा ने भी कोई प्रयास नही किया क्योंकि यह लोग पासा बदलकर उसी में शामिल हो गये थे। हमारे विधानसभा अध्यक्ष की राजनीतिक नैतिकता ने उन्हे फैसला करने नही दिया। ऐसे में निर्दलीयों पर कितना और क्या भरोसा किया जा सकता है इसका अनुमान लगाया जा सकता है।
इसलिये चयन दोेनों ही बडे़ दलों में से ही किया जाना है यह राजनीतिक विवश्ता है। यह ठीक है कि मतदाता के पास नोटा के अधिकार का विकल्प है परन्तु इस विकल्प का प्रयोग करने केे बाद भी यह स्थिति उभरने की स्थिति नही है कि मतदाताओं का बहुमत नोटा को मिल जाये और चुनाव रद्द होकर नये सिरे से चुनाव करवाने की स्थिति आ जाये। इसलिये नोटा का विकल्प भी कोई सही नही रह जाता है। इससे भी यही स्थिति उभरती है कि दोनों दलों में से ही किसी एक को चुना जाये। लेकिन दोनों में से ही बेहत्तर कौन है इसका चनय कैसे किया जाये यह बड़ा सवाल है। दलों का आंकलन करने के लिये इनके चुनाव घोषणा पत्रों को खंगालना और समझना पड़ता है। दोनो दलों के घोषणा पत्र जारी हो चुके हैं। दोनो ने ही जनता को लुभाने के लिये लम्बे चैडे़ वायदे कर रखे हैं लेकिन वायदों को पूरा करने के लिये संसाधन कहां से आयेंगे इसका जिक्र किसी के भी घोषणा पत्र में नही है। इस समय प्रदेश पर 50,000 करोड़ के करीब कर्ज है। यह कर्ज जी एस डीपी का 40% और राज्य की कुल राजस्व प्रतियों से 29% अधिक है। जिस प्रदेश की माली हालत यह हो वहां पर चुनाव लड़ रहे दलों को अपने-अपने चुनाव घोषणा पत्र जारी करते हुए इस स्थिति का ध्यान रखना चाहिये लेकिन ऐसा हुआ नही है। इस प्रदेश को एक समय विद्युत राज्य प्रचारित-प्रसारित करते हुए यह दावा किया गया था कि अगले विद्युत की आय से ही प्रदेश खुशहाल हो जायेगा। परन्तु आज का कड़वा सच यह है कि विद्युत से हर वर्ष आय में कमी हो रही है। राज्य विद्युत बोर्ड के स्वामित्व वाले से प्रौजैक्टों में रिपेयर के नाम पर हर वर्ष लगातार हजारों घन्टों का सुनिश्चित शटडाऊन हो रहा है। निजि प्रौजैक्टों से पावर परचेज एग्रीमैन्टो के तहत जो बिजली खरीदनी पड़ रही है वह पूरी बिक नही पा रही है। यह प्रदेश की सबसे गंभीर समस्या है और इसकी ओर किसी भी दल ने अपने घोषणा पत्र में जिक्र तक नही किया है। स्वभाविक है कि घोषणा पत्रों को वायदों को पूरा करने के लिये या तो और कर्ज उठाया जायेगा या फिर केन्द्र की सहायता से ही यह संभव हो पायेगा।
इसके अतिरिक्त दोनो दलों को आंकने के लिये दोनो के शासनकालों को देखा जा सकता है। क्योंकि दोनो ही दल सत्ता में रह चुके हैं। दोनों ही दलों ने जो अपने-अपने मुख्यमन्त्री के चेहरे घोषित किये वह पहले भी मुख्यमन्त्री रह चुके हैं। आज कांग्रेस सत्ता में है और वीरभद्र उसके मुख्यमन्त्री हैं लेकिन वीरभद्र कार्यालय पर आज जो सबसे बड़ा आरोप लग रहा है कि यह कार्यालय सेवानिवृत अधिकारियों का एक आश्रम बन कर रह गया है। मुख्यमन्त्री का प्रधान निजि सचिव और प्रधान सचिव दोनों सेवानिवृत अधिकारी है और उन्हे इन पदों पर तैनाती देने के लिये अलग पदनामों का सहारा लिया गया है, क्योंकि शायद नियमों के मुताबिक सेवानिवृत अधिकारियों को यह पद दिये नही जा सकते थे। फिर प्रधान निजि सचिव की पत्नी को जिस ढंग से पहले शिक्षा के रैगुलेटरी कमीशन का सदस्य और लोकसेवा आयोग का सदस्य लगाया गया है उससे यह संदेश गया है कि शायद मुख्यमन्त्री का काम इस परिवार के बिना नही चल सकता। यह परिवार शायद मुख्यमन्त्री की मजबूरी बन गया है। यदि मुख्यमन्त्री पुनः सत्ता में आते हैं तो यही परिवार फिर सत्ता का केन्द्र होगा। इसी के साथ वीरभद्र के इस कार्यकाल में जिस तरह से प्रशासन के शीर्ष पर हर विभाग में नेगीयों को बिठाया गया है उससे भी प्रशासनिक और राजनीतिक हल्कों में अच्छा संकेत नही गया है। बल्कि यही माना जा रहा है कि सत्ता में पुनः वापसी का अर्थ फिर सेे इन्ही लोगों को सत्ता सौंपना होगा। दूसरी ओर यदि धूमल सत्ता में आते हैं तो उनसे अभी यह आंशका नही है कि उनका कार्यालय भी वृ़द्धाश्रम बन कर रह जायेगा। क्योंकि उनके पिछले कार्यकालों में ऐसा देखने को नही मिला है। फिर जो आर्थिक स्थिति प्रदेश की आज है उसमें केन्द्र का आर्थिक सहयोग इनके माध्यम से ज्यादा मिल पायेगा जो आज प्रदेश की आवश्यकता है।