शिमला/शैल। कन्नड के एक साप्ताहिक समाचार गौरी लंकेश की संपादक गौरी की पिछले मंगलवार को कुछ अज्ञात बन्दूकधारियों ने उनके घर में घुसकर शाम को उस समय हत्या कर दी जब वह दफ्तर से आकर अपनी गाड़ी पार्क कर रही थी। गौरी की हत्या से पूरा पत्रकार जगत स्तब्ध और रोष में है। देश के कई भागों में पत्रकारों ने इस हत्या की निन्दा करते हुए गौरी के हत्यारों को शीघ्र पकड़ने की मांग की है। गौरी की हत्या के लिये हिन्दुत्वादी विचारधारा से लेकर नक्सलवादियों तक को जिम्मेदार माना जा रहा है। इसमें असल में इस हत्या के लिये कौन जिम्मेदार है और यह हत्या क्यों की गयी है इसका पता तो जांच रिपोर्ट आने के बाद ही लगेगा। लेकिन जैसे ही इस हत्या के लिये हिन्दुत्ववादी विचारधारा को जिम्मेदार माना जाने लगा तभी से कुछ हिन्दुत्व विचारधारा से ताल्लुक रखने का दावा करने वाले लोगों की जिस भाषा में प्रतिक्रियाएं आयी हैं उससे पूरी स्थिति ही एकदम बदल गयी है। क्योंकि जिस भाषा में यह प्रतिक्रियाएं सोशल मीडिया में आयी है वह न केवल निन्दनीय है वरन ऐसी भाषा प्रयोग करने वालों के खिलाफ कड़ी कारवाई होनी चाहिये। क्योंकि ऐसी प्रतिक्रियाएं देने वाले अपने को हिन्दुत्व की विचारधारा का समर्थक होने का दावा भी कर रहे हैं। ऐसे दावों से सीधे भाजपा और संघ परिवार की नीयत और नीति दोनो पर ही गंभीर सवाल उठते हैं और कालान्तर में यह सवाल पूरे समाज के लिये कठिनाई पैदा करेंगे।
क्योंकि आज केन्द्र में भाजपा नीत सरकार है बल्कि भाजपा के अपने पास ही इतना प्रचण्ड बहुमत है कि उसे सरकार चलाने के लिये किसी दूसरे की आवश्यकता ही नही है। भाजपा को इतना व्यापक समर्थन क्यों मिला था? कांग्रेस नीत यूपीए सरकार पर किस तरह के आरोप उस समय लग रहे थे? उन आरोपों की पृष्ठभूमि में अन्ना जैसे आन्दोलनांे की भूमिका क्या रही है? इन सवालों पर लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद बहुत कुछ लिखा जा चुका है और सामने भी आ चुका है। फिर भी वर्तमान संद्धर्भ में यह स्मरणीय है कि लोकसभा चुनावों में भाजपा ने मुस्मिल समुदाय के लोगों को चुनाव टिकट नही दिये थे। लोकसभा की ही परिपाटी यूपी के चुनावों में भी दोहरायी गयी। ऐसा क्यों किया गया? इसके दो ही कारण हो सकते हैं कि या तो भाजपा में कोई मुस्लमान उसका सदस्य ही नही है या फिर भाजपा पूरे मुस्लिम समुदाय को शासन में भागीदारी के योग्य ही नही मानती है। लेकिन केन्द्रिय मन्त्री परिषद और उत्तर प्रदेश के योगी मन्त्री मण्डल में मुस्लमानों को प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व दिया गया है उससे यही समझ आता है कि इस समुदाय को वैचारिक कूटनीति के तहत ही चुनावी प्रक्रिया से बाहर किया गया था। इसका खुलासा चुनावों के दौरान और उसके बाद जिस तरह के ब्यान कुछ भाजपा नेताओं के मुस्लमानो को लेकर आये थे उससे हो जाता है। प्रधानमन्त्री को स्वयं ऐसे ब्यानों की निन्दा करनी पड़ी थी। इसी तरह की भावना गोरक्षा के नाम पर हुई हिंसात्मक घटनाओं में भी सामने आयी है। बल्कि इस हिंसा की प्रधानमन्त्री मोदी ने बार -बार निन्दा की है और अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसका कड़ा संज्ञान लेेते हुए राज्य सरकारों को इससे निपटने के कड़े निर्देश दिये हैं। इस सबसे यह प्रमाणित होता है कि समाज में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। क्योंकि कहीं सरकार की नीयत और नीति को लेकर सन्देह का वातावरण बनता जा रहा हैं। क्योंकि सरकार सबकी एक बराबर होती है किसी एक वर्ग विशेष की नही होती है। इस नाते देश के मुस्लिम समुदाय की भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पूरी भागीदारी बनती है जो सत्तारूढ़ दल की ओर से उन्हें नही मिल पायी है।
ऐसे में जहां सामाजिक सौहार्द के नाम पर सत्तारूढ़ दल की नीयत और नीति पर सन्देह के सवाल उठने शुरू हो गये हैं वहीं पर सरकार के नीतिगत फैलसों पर भी अब सवाल खड़े हो गये हैं। नोटबंदी सरकार की अब तक सबसे बड़ा नीतिगत फैसला रहा है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि आर्थिक संद्धर्भ में किसी भी देश के लिये इससे बड़ा कोई फैसला हो ही नही सकता है। लेकिन यह फैेसला लाभ की अपेक्षा नुकसानदेह साबित हुआ है। क्योंकि इस फैसले के तहत जब पुराने 500 और 1000 के नोटों का चलन कानूनी रूप से बन्द हो गया तब उसके बाद वह नोट चाहे बैंक में थे या किसी व्यक्ति के पास थे वह उसके लिये एकदम अर्थहीन हो गये। किसी के पास भी अधिकतम कितना पैसा किस शक्ल में हो -चाहे कैश हो या संपत्ति के रूप में -इसकी कोई न्यूनतम या अधिकतम की सीमा नही है। यह भी कोई बंदिश नही है कि कोई व्यक्ति कितना कैश घर में रख सकता है। इसके लिये केवल एक ही शर्त है कि व्यक्ति के पास पैसे का वैध स्त्रोत हो। जब नोटबंदी के पुराने नोटों का 99% वापिस आरबीआई के पास पहुंच गया है तो इसका सीधा अर्थ है कि यह सारा पैसा वैध था। इस नाते यह सारा पुराना पैसा नये नोटों की शक्ल मेें धारकों को वापिस करना पड़ा है। इससे सरकार के अतिरिक्त और किसी का नुकासान हुआ नही है। इस नोटबंदी से जो विकास दर में कमी आयी है उसको पूरा होने में बहुत समय लग जायेगा।
इसी के साथ अब मन्त्रीमण्डल विस्तार में दो ऐसे लोगों को मंत्री बनाना पड़ गया जो इस समय किसी भी सदन के सदस्य नही हैं। इससे पार्टी के चुने हुए लोगों में यह संदेश जाता है कि या तो प्रधानमन्त्री को इन चुने हुए लोगों पर भरोसा नही रह गया है या फिर उनकी नजर में इन लोगों में से कोई भी इस लायक है ही नही कि उसे मन्त्री बनाया जा सकता। इनमें से जो भी स्थिति रही हो वह सरकार और देश के लिये सुखद नही कही जा सकती। आज तीन वर्ष बाद भी मंहगाई में कोई कमी नही आयी है यूपीए के जिस भ्रष्टाचार के मुद्दा बनने से यह सरकार बनी थी उसके खिलाफ अभी तक कोई ठोस कारवाई सामने नही आयी है। बल्कि सरकार के सारे प्रचार को आज फेक न्यूज की संज्ञा दी जाने लग पड़ी है और यह फेक न्यूज गौरी लंकेश की हत्या के बाद अब जन चर्चा का विषय बनती जा रही है।
रिर्जव बैंक आॅॅफइण्डिया ने दावा किया है कि नोटबंदी के तहत बैन किये गये 500 और 1000 के 99% नोट वापिस आ गये हैं केवल 1% पुराने नोट वापिस नही आये हैं। नोटबंदी में 500 और 1000 के नोट बंद किये गये थे और इसके लिये एक तर्क दिया गया था कि बडे़ नोटों से काला धन जमा रखने में आसानी होती है। यह भी तर्क दिया गया था कि इससे आंतकी गतिविधियों में कमी आयेगी। नोटबंदी के दौरान जो आम आदमी को असुविधा हुई है उसके कारण उस समय 100 से अधिक लोगों की जान गयी है। यह सच भी सबके सामने है। नोटबंदी के बाद आंतकी हमलों में भी कोई कमी नही आयी है। प्रायः हर दिन कहीं न कहीं कोई वारदात होती ही रही है। नोटबंदी के बाद मंहगाई में भी कोई कमी नहीं आयी है। नोटबंदी के बाद देश के भीतर कितना कालाधन मिला इसको लेकर भी कोई अधिकारिक आंकड़ा आरबीआई की ओर से जारी नही हुआ है बल्कि इसको लेकर वित्त मंत्री अरूण जेटली ने 16 मई को जो आंकडे़ सामने रखे थे अब प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त को देश के सामने रखे आंकड़ो में इन्हे आधा कर दिया है। नोटबंदी के बाद नये नोट छापने के लिये आरबीआई ने करीब आठ हजार करोड़ खर्च किये हैं यह दावा भी आरबीआई ने ही किया है।
इस परिदृश्य में यदि नोटबंदी के फैसले का आकंलन किया जाये तो सरकार के अपने ही कृत्य से यह फैसला तर्क की कसौटी पर खरा नही उतरता है क्योंकि नोटबंदी के बाद भी सरकार/आरबीआई 500 और 2000 के नये नोट लेकर सामने आयी है। यदि बड़े मूल्य के नोटों के माध्यम से कालाधन जमा करना आसान होता है तो अब दो हजार मूल्य का नोट आने से तो यह और आसान हो जायेगा। तो क्या माना जाये कि सरकार ने कालेधन वालों को और सुविधा देने के लिये नोटबंदी का कदम उठाया। जाली नोट जिस तरह से पहले छप रहे थे अब भी वैसे ही यह धंधा चला हुआ है। जाली नोटों के कई मामले पकड़े गये हैं। नोटबंदी सरकार का एक बहुत बड़ा क्रान्तिकारी फैसला करार दिया जा रहा था। इन्ही सुधारों की कड़ी में सरकार ने जनधन योजना के तहत जीरो बैलैन्स पर लोगों के खाते खुलवाये। लेकिन आज भी आधे से ज्यादा जीरो बैलैन्स पर ही चल रहे हैं। इनमें कोई ट्रांजैक्शन हो नही रही है क्योंकि इन लोगों के पास बैंक में जमा करवाने लायक पैसा है ही नही बल्कि यह खाते खोलने के लिये जो बैंको का खर्च आया है वह हर आदमी पर एक अतिरिक्त बोझ पड़ा है। इसी के साथ सरकार ने सारी ट्रांजैक्शन डिजिटल करने पर बल दिया है। ई-समाधान की ओर बढ़ने की आवश्यकता की वकालत की जा रही है। लेकिन इस दिशा का कड़वा सच यह है कि आज भी देश में हर स्थान पर 24 x 7 निर्बाध बिजली की आपूर्ति नही है। राजधानी नगरों तक में यह सुनिश्चितता नही है। जबकि डिजिटल के लिये निर्बाध बिजली बुनियादी आवश्यकता है। जब बिजली की आपूर्ति निर्बाध नही है तो उसका प्रभाव इन्टरनैट सर्विस पर पड़ना स्वभाविक है। इसी कारण सरकार की संचार सेवाएं अक्सर बाधित रहती हैं। इन व्यवहारिक स्थितियों से स्पष्ट हो जाता है कि सरकार जिस तरह के सुधारों की वकालत कर रही है उसके लिये जमीन तैयार ही नही है।
नोटबंदी को लेकर जो दावा आरबीआई ने 99% पुराने नोट वापिस आने का किया है उससे स्पष्ट हो जाता है कि देश के भीतर कालेधन के आंकड़ो को लेकर स्वामी रामदेव जैसे जो लोग दावे कर रहे थे या तो वह आंकडे गल्त थे उनकी सूचना और आंकलन गल्त था या फिर सरकार नोटबंदी के बावजूद कालेधन को पकड़ने में पूरी तरह असफल रही है। यदि सरकार असफल नही है तो क्या जो एक प्रतिशत पुराने नोट वापिस नही आये हंै वह कालाधन है। इस पर सरकार को स्थिति स्पष्ट करनी होगी।
आज सरकार बैंकिंग सुधारों को बैंक युनियनों ने ही जन विरोधी करार दिया है। यूनियनों ने पब्लिक सैक्टर बैंको के निजिकरण और बैंको के विलय का विरोध किया है। आज करीब 6 लाख करोड़ का एनपीए चल रहा है और इसमें 70% से अधिक बड़े काॅरपोरेट घरानो का है। लेकिन इन लोगों के खिलाफ कारवाई करने की बजाये सरकार इन्हे किसी न किसी रूप में पैकेज देकर लाभ पहुंचा रही है। बल्कि नोटबंदी के दौरान हर व्यक्ति को 500 और 1000 के नोटों की शक्ल में रखी अपनी संचित पूंजी को जबरन बैंको में ले जाकर जमा करवना पड़ा और फिर कई दिनों तक उसे उतनी निकासी करने की सुविधा नही मिली तो इस तरह अचानक बैंकों के पास भारी भरकम पैसा आ गया तो क्या इस पैसे का अपरोक्ष में लाभ इन काॅरपोरेट घरानों को नही मिला? क्योंकि बैंकों ने इस पैसे का निवेश इन घरानों के अतिरिक्त और कहीं तो किया नही। बल्कि बैंकों के पास इतना डिपोजिट आ जाने के बाद तो बैंको ने बचत पर ब्याज दरें तक कम कर दी। इस तरह सरकार के नोटबंदी से लेकर बैंकिंग सुधारों तक के सारे फैसलों से आम आदमी को कोई लाभ नही मिल पा रहा है। क्योंकि आम आदमी के लिये यह सारे सुधारवादी फैसले तभी लाभदायक सिद्ध होंगे जब मंहगाई और बेरोजगारी पर लगाम लगेगी और इसकी कोई संभावना नजर नही आ रही है।
हरियाणा के सिरसा स्थित डेरा सच्चा सौदा राम रहीम के प्रमुख बाबा गुरमीत राम रहीम को पंचकूला स्थित सीबीआई अदालत ने एक बलात्कार के मामले में दोषी करार देकर 10 वर्ष कैद की सजा सुनाई है। बाबा के खिलाफ अदालत का फैसला 25 तारीख को आयेगा इसकी जानकारी सबको थी। मीडिया में भी इस आश्य के समाचार प्रमुखता से आ रहे थे। बाबा के फैसले के समाचार को प्रमुखता इसलिये दी जा रही थी क्योंकि बाबा ने पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा को खुलकर समर्थन दिया था। हरियाणा में भाजपा की सरकार बनने के बाद खट्टर का पूरा मन्त्रिमण्डल बाबा से आर्शीवाद लेने गया था। अभी पिछले दिनो खट्टर के मन्त्री राम विलास शर्मा बाबा को भारी भरकम भेंट देकर आये थे और मीडिया ने इस खबर को प्रमुखता दी थी। हिमाचल से भी भाजपा के प्रमुख प्रवक्ता पूर्व मन्त्री नाहन के विधायक डा. राजीव बिन्दल भी बाबा के आश्रम आर्शीवाद लेने पहुचे हुए थे। यही नही सांसद अनुराग ठाकुर भी बाबा से आर्शीवाद पाने वालों में प्रमुख हैं। सांसद साक्षी महराज ने तो यह फैसला आने के बाद खुले रूप से न कवेल बाबा का समर्थन ही किया है बल्कि अदातल के फैसले की भी यह कहकर निन्दा की कि अदालत को करोड़ो लोगों की आस्था का सम्मान करना चाहिये था। बाबा की भाजपा में इसी राजनीतिक साख के कारण हरियाणा की खट्टर सरकार ने उनके समर्थको को लाखों की संख्या में पंचकूला में इक्कठा होने दिया और परिणामस्वरूप फैसले के बाद भड़की हिंसा से निपटने में असफल रही भाजपा की हरियाणा सरकार की इस असफलता पर पंजाब - हरियाणा उच्च न्यायालय ने जिस तरह से सरकार की निन्दा की है वह अपने में सब कुछ ब्यान कर देती है।
इस परिदृश्य में जो कुछ घटा है जान -माल की जो हानि हुई है उसे रोका जा सकता था यदि सरकार चाहती तो। यह अदालत से लेकर आम आदमी तक को पूरी तहर साफ हो चुका है इसमें सरकार अपना राजधर्म निभाने में पूरी तरह असफल रही है। इसमें पूरी वस्तुस्थिति का आंकलन करने में सरकार और उसका तन्त्र असफल रहा है। या इसमें नीयतन राजनीतिक ईच्छा शक्ति का अभाव रहा है। इसका खुलासा उच्च न्यायालय का फैलसा आने के बाद हो जायेगा। लेकिन इस पूरे प्रकरण के बाद जो प्रश्न उभरते हैं वह बहुत गंभीर और संवदेनशील हैं। इसी प्रकरण पर पहला सवाल तो यही उठता है कि ऐसे अपराध का फैसला आने में पन्द्रह वर्ष का समय क्यों लग गया ? अब यह सामने आ चुका है कि इस मामले को दबा दिये जाने के लिये राजनेताओें से लेकर अधिकारियों तक के दबाव आये हैं। फिर जिस पत्रकार ने इस डेरे की गतिविधियों को लेकर पहली बार खबर छापी थी और उसकी हत्या करवा दी गयी थी। इस हत्या के मामलें में आजतक कोई पुख्ता कारवाई का सामने न आना व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है। क्या इस हत्या के गुनाहगारों को लेकर तन्त्र अब कोई परिणाम दे पायेगा अभी देखना बाकी है।
डेरा सच्चा सौदा का यह आश्रम करीब 68 वर्षो से चला आ रहा है। 100 एकड़ में फैले इस आश्रम की संपति हजारों करोड़ की कही जाती है। अमेरिका, कनाडा, इंग्लैण्ड से लेकर आस्ट्रेलिया और यूएई तक इसके आश्रम अनुयायी है। देश-विदेश में इसके पांच करोड़ अनुयायी कहे जाते हैं और अकेले हरियाणा में ही 25 लाख माने जाते हैं। संभवतः इतनी बड़ी संख्या में अनुयायीयों का होना और ऊपर से अपार धन का होना ही राजनेताओं के लिये आकर्षक का केन्द्र बन जाता है। स्वभाविक है कि जिस एक व्यक्ति के पास इतने बडे अनुयायीयो की फौज होगी जो उसके एक फरमान पर लोकतन्त्र के नाम पर किसी एक राजनीतिक दल और नेता को समर्थन देकर सत्ता की कुर्सी पर बैठा देने में सहायक बनगे बाद में उसके आगे नतमस्तक ही रहेंगें। यही कारण है कि आज हमारे राजनेता बाबा के इस पक्ष पर मौन साधे हुए हैं। यहां यह स्वभाविक सवाल उठता है कि एक बाबा के पास इतनी अपार संपत्ति और इतने अनुयायी एक दिन में तो इक्कठे नही हो जाते हैं। यह सब होने में समय लगता है। आज डेरा सच्चा सौदा के आश्रम के निमार्ण को लेकर जो खुलासे सामने आ रहे हैं उस पर सवाल उठता है कि जब यह सब हो रहा था तब हमारा प्रशासनिक तन्त्र क्या कर रहा था? देश की सारी गुप्तचर ऐजैन्सीयां क्या कर रही थी ? क्योंकि आज जो कुछ गुरमीत राम रहीम को लेकर सामने आया है। वैसा ही सब कुछ बापू आशा राम, रामपाल और कई अन्यों के मामलों में सामने आ चुका है। ऐसे सभी लोगों को राजनेताओं और प्रशासन का सहयोग हासिल रहता है और सभी की आपराधिक गतिविधियां सामने आती हैं। आज जितने बाबे जेल की सलाखों के पीछे पहुंच चुके है सभी पर यौन शोषण के आरोप रहे हैं। इस तरह के बाबाओं की संस्कृति फैलती जा रही है और यह राजतन्त्र के सहयोग के बिना संभव नही है और यह देश के लिये खतरे का एक नया क्षेत्र खुलने जा रहा है। आस्था के इस दुरूपयोग का अन्तिम परिणाम अपराध के रूप में सामने आ रहा है इसलिये क्या यह नही होना चाहिये कि जब इस तरह का कुछ सामने आये तो उसे समर्थन देने वाले राजनीतिक दलों और नेताओं को भी उस अपराध में बराबर का जिम्मेदार बनाया जाये।
भ्रष्टाचार के खिलाफ शीर्ष न्यायपालिका के साथ अब देश के चुनाव आयोग ने भी गंभीर चिन्ता व्यक्त की है। चुनाव आयोग ने स्पष्ट कहा है कि अब चुनाव केवल धन का ही खेल होता जा रहा है। क्योंकि चुनाव जीतना ही एक मात्र ऐजैण्डा होकर रह गया है और इसकी पूर्ति के लिये साधनों की नैतिकता का कोई प्रश्न ही नही रह गया है। राजनीतिक दलों को पिछले दिनों मिले चन्दे के जो आंकड़े अभी ए डी आर के माध्यम से समाने आये हैं वह चैंकाने वाले हैं। इन आंकड़ो के अनुसार 750 करोड़ का ऐसा चन्दा सत्तारूढ़ दल के पास आया है जिसका कोई स्त्रोत सामने नही आया है। इस संद्धर्भ में सारे राजनीतिक दलों की स्थिति लगभग एक जैसी ही है। चुनाव के लिये सबको पैसा चाहिये और इसी पैसे के कारण आज देश की संसद से लेकर राज्यों के विधान मण्डलों तक आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग माननीय होकर बैठे हैं। इन लोगों के मामलों का फैसला कई-कई वर्षों तक नही आता है जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने अधीनस्थ अदालतों को स्पष्ट निर्देश दे रखे हैं कि ऐसे लोगों के आपराधिक मामलों का निपटारा एक वर्ष के भीतर किया जाये। लेकिन इन निर्देशों की अनुपालना नही हो रही है और उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय भी निर्देश जारी करने के बाद इसे भूल गये हैं। जबकि हर राज्य में ऐसे मामलें मिल जायेंगे। ऐसे में स्वभाविक है कि जब हत्या और अपहरण जैसे संगीन अपराधों के मामले झेल रहे लोग मन्त्री और मुख्यमन्त्री होकर दशकों तक बैठे रहेंगे तो फिर ‘‘कानून का डर’’ नामक चीज ही कहां रह जायेगी। अभी बिहार के मुख्यमन्त्री नीतिश कुमार के खिलाफ हत्या की साजिश का मामला करीब दो दशकों से लंबित चला आ रहा है कि जानकारी सामने आयी है। उच्च न्यायालय में कई वर्षों से इस मामले पर स्टे चल रहा है। जब एक मुख्यमन्त्री स्वयं ऐसे आरोप झेल रहा होगा तो फिर वह कानून और व्यवस्था कैसे सुनिश्चित कर सकता है। वीरभद्र सिंह के मामले में उनके साथ सहअभियुक्त बना एलआईसी ऐजैन्ट आनन्द चौहान एक वर्ष से भी अधिक समय से हिरासत में चल रहा है। उच्च न्यायालय तक ने उसकी जमानत अस्वीकार कर दी है। लेकिन इसी मामले का मुख्य अभियुक्त वीरभद्र सिंह सत्ता चला रहा है। देश की अदालत, सरकार, कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी संभाल रही ऐजैन्सीयों से लेकर पक्ष और विपक्ष में बैठी राजनीतिक पार्टीयों के पास इस हास्यपद स्थिति का कोई जवाब नही है। इस पर केन्द्र से लेकर राज्य तक सब राजनीति कर रहे हैं और जनता इन्हें झेलने के लिये विवश है। क्योंकि हमारी चुनाव व्यवस्था ही एैसी है।
इस परिदृश्य में स्पष्ट हो जाता है कि जब संगीन अपराधों के आरोपी होने के वाबजूद हमारे माननीयों को कानून का डर इसलिये नही हैं कि उनके पास सत्ता और पैसा है तब फिर उसी पैसे के दम पर दूसरा कानून से क्यों डरेगा। आज अपराध और पैसे से हासिल की हुई सत्ता की बुनियाद पर चोट करने की आवश्यकता है। इसके लिये चुनाव की वर्तमान व्यवस्था ओर इस संद्धर्भ में न्यायपालिका की प्रक्रिया में सुधार करने की आवश्यकता है। चुनावों को पूरी तरह पैसे के प्रभाव से मुक्त किया जा सकता है इसके लिये केवल जनता में एक जमीन तैयार करनी होगी। चुनावों को पैसे के प्रभाव से कैसे मुक्त रखा जा सकता है इसके ब्लूप्रिन्ट पर चर्चा करने से पहले यह समझना आवश्यक है कि चुनावों को धन के प्रभाव से मुक्त रखने की आवश्यकता क्यों है। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में आम आदमी के वोट के माध्यम से ही पंचायत से लेकर संसद तक पहुंचा जाता है। पंचायत से संसद तक का हर प्रतिनिधि जन सेवा के नाम यहां जाता है। लेकिन आज इन सारे पदों के साथ वेत्तन भत्तों के नाम पर इतने सारे पैसे के लाभ दे दिये गये हैं जो शीर्ष प्रशासनिक सेवा में मिलने वाले लाभों से भी अधिक हैं और फिर सत्ता साथ में। एक बार विधानसभा या संसद के लिये निवार्चित होने के साथ ही पैन्शन के लाभ की पात्रता बन जाती है। जिसे ढंग से यह वेत्तन भत्ते इस जन सेवा के साथ जोड़े गये हैं उससे यह किसी भी अर्थ में आज सेवा नही रह गयी है। इन्ही सेवकों के कारण हर राज्य का कर्जभार लगातार बढ़ता जा हरा है जिसके कारण मंहगाई और बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। सरकारें गरीब होती जा रही हैं। कर्ज के सहारे चल रही है लेकिन उन्हें चलाने वाले नेता लगातार अमीर होते जा रहे हैं। ऐसा क्यों और किस व्यवस्था के कारण हो रहा है? क्या इस पर एक गहन चिन्तन की आवश्यकता नही है।
आज लोकसभा के चुनाव लड़ने के लिये उम्मीदवार पर 70 लाख खर्च की सीमा तय है लेकिन राजनीतिक दलों पर खर्च की कोई सीमा नही है क्यों? आज 70 लाख सफेद धन खर्च करके कितने लोग चुनाव लड़ने का साहस कर सकते हैं । मैने हिमाचल के सारे सांसदों और विधायकों के चुनाव शपथ पत्रा देखे हंै उनमें जितनी आय दिखा रखी उसके मुताबिक एक भी माननीय की स्थिति ऐसी नही है कि वह चुनाव खर्च के लिये तय सीमा तक सफेद धन खर्च कर सकता हो। लेकिन चुनाव खर्च तो तय सीमा से कहीं अधिक रहा है। तब सवाल उठता है कि यह पैसा कहां से आया। स्वभाविक है कि चुनाव खर्च तो बड़े उद्योगपति उठा रहे हैं। आदरणीय मोदी जी लोकसभा चुनावों के दौरान जो हैलीकाॅप्टर हर रोज इस्तेमाल कर रहे थे क्या वह उनके घोषित साधनों से संभव था। मोदी ही नही सभी बड़े नेताओं की यही स्थिति रही है और जब उद्योगपति अपरोक्ष में चुनाव का संचालन करेंगे तो उनका हित तो इसी में है कि हर बार चुनाव खर्च बढ़ता रहे। राजनीतिक दलों पर खर्च की कोई सीमा न रहे और राजनीतिक दल औद्योगिक घरानों की ईकाईयां बनकर रह जायें। इसी कारण से चुनाव आचार संहिता उल्लंघना अभी तक आईपीसी के तहत दण्डनीय अपराध नही बन पाया है। इसी कारण राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणा में दर्ज वायदों के लिये धन कहां से आयेगा और इसके लिये कोई कर्ज नही उठाया जायेगा ऐसी जानकारी और वायदा अनिवार्यता नही बन पायी है। इसलिये आज यह पहली आवश्यकता है कि चुनावों को धन के प्रभाव से मुक्त करने की मांग पूरे समाज से उठनी चाहिये। इसके ब्लूप्रिन्ट पर आगे चर्चा करूंगा।
भ्रष्टाचार के खिलाफ देश जे.पी. आन्दोलन से लेकर अन्ना आन्दोलन तक कई जनान्दोलन देख चुका है। हर आन्दोलन के बाद सत्ता परिवर्तन हुआ है यह भी एक सत्य है। प्रधानमन्त्रियों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक सभी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ हर वक्त अपनी प्रतिबद्धता दोहरायी है। भ्रष्टाचार से निपटने के लिये कानून में सक्ष्म प्रावधान हैं। इन प्रावधानों से आगे बढ़कर राज्यों में लोकायुक्तों की स्थापना तक कर दी गयी है। लोकायुक्त की तर्ज पर ही केन्द्र में लोकपाल की स्थापना की जा रही है। संसद और विधानसभाओं में बैठे जन प्रतिनिधियों के खिलाफ आये आपराधिक मामलों को एक वर्ष भीतर निपटाने के निर्देश सर्वोच्च न्यायालय अधीनस्थ अदालतों को बहुत पहले जारी कर चुका है। बल्कि इन निर्देशों के परिणामस्वरूप ही फाॅस्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित किये गये है। लेकिन क्या इस सबके बावजूद भ्रष्टाचार रूक गया है या इसके मामलों में कोई कमी आयी है? इस सावल का जवाब तलाशते हुए उत्तर लगभग नकारात्मक ही निकलता है और इसी से यह सोचने जानने की आवश्यकता आ खड़ी होती है कि ऐसा क्यों हो रहा है। भ्रष्टाचार में कमी क्यों नही आ रही है।
अभी सर्वोच्च न्यायालय ने नीरा यादव के मामलें में फैसला सुनाते हुए अपनी चिन्ता में इसके लिये समाज की सोच और उसके बदलते संस्कारों को इसके लिये सबसे ज्यादा जिम्मेदार माना है। इन्ही बदलते सामाजिक संस्कारों/सरोकारों के कारण ही हम अत्यधिक उपभोक्तावाद की ओर बढ़ते जा रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने तो इसके खिलाफ सामूहिक आन्दोलन तक का आहवान किया है। यह सामूहिक आन्दोलन चाहिये भी। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि इस आन्दोलन का स्वरूप क्या हो और यह कहां से शुरू हो। समाज के संस्कार उसको दी जाने वाली शिक्षा से बनते हैं यह एक स्थापित सत्य है। लेकिन आज देश की बिडम्बना यह है कि हम अभी तक एक शिक्षा नीति और एक ही पाठयक्रम पर सहमत नही हो पाये है। यह देश का दुर्भाग्य है कि सरकारी स्कूलों को गरीबों के लिये शिक्षा का साधन मान लिया है और उच्च/संपन्न वर्ग के लिये नीजि स्कूलों को जब अमीर और गरीब के लिये शिक्षा के साधनों का पैमाना इस तरह से अलग -अगल हो जायेगा तो स्वभाविक है कि एक समान संस्कार नही बन पायेंगें। आज नीजि क्षेत्र के लिये शिक्षा एक बड़ा व्यापार बन गयी है। क्योंकि शिक्षा हर व्यक्ति को चाहिये। स्वभाविक है कि जिसकी आवश्यकता समाज के हर वर्ग के हर व्यक्ति को होगी वह व्यापार का उतना ही सबसे बड़ा क्षेत्र बन जायेगा। शिक्षा में नीजि क्षेत्रा के बढ़ते दखल के खिलाफ यू पी ए शासन के दौरान आज केन्द्र में सतारूढ भाजपा का संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद तक भी आन्दोलन कर चुका है। देश का छात्रा वर्ग शिक्षा में नीजि क्षेत्र के बढ़ते दखल के खिलाफ एकमत है क्योंकि नीजि क्षेत्र के शिक्षण संस्थान आज शिक्षा नही बल्कि व्यापारिक प्रतिष्ठान बन कर रह गये हैं। नीजिक्षेत्र में चल रहे स्कूलों से लेकर उसके विश्वविद्यालयों तक यही व्यापारिक स्थिति बनी हुई है। शिक्षा में नीजिक्षेत्र का बढ़ता दखल और उसकी बढ़ती मनमानी आज चिन्ता का सबसे बड़ा कारण हैं क्योंकि शिक्षा संस्कार का मूल होती है और शिक्षा में बढ़ते व्यापारवाद के कारण ही अत्यधिक उपभोक्ता संस्कृति हमारी मानसिकता बनती जा रही है। क्योंकि नीजिक्षेत्र द्वारा दी जाने वाली शिक्षा में सबसे बड़ी भूमिका वहां खर्च किये जाने वाले पैसे की है। क्योंकि वहां दी जाने वाली भारी भरकम फीस एक स्टटेस सिंबल बन चुकी है। ऐसे में जब कोई किसी भी तरह का व्यवसायिक प्रशिक्षण ‘‘डाक्टर, वकील, इन्जिनियर’’ नीजिक्षेत्र से लेकर आता है तो नौकरी में आते ही उसकी मानसिकता सेवा भाव की न होकर केवल व्यापारिक होकर रह जाती है। क्योंकि शिक्षण/प्रशिक्षण के दौरान किये हुए खर्च का दस गुणा बसूल करना होता है। इस खर्च वसूल करने की मानसिकता के चलते उसका हर सामाजिक रिश्ता संबध कवेल पैसा होकर रह जाता है। यही पैसे की मानसिकता आगे चलकर अपराध और भ्रष्टाचार को जन्म देती है। आज समाज को इस पैसा केन्द्रित मानसिकता से बचाने का केवल एक ही मार्ग शेष है और वह है पूरे देश में स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक हर सतर के लिये एक ही पाठ्यक्रम और एक ही फीस। संस्थान चाहे सरकार का हो या नीजिक्षेत्र का सबके ऊपर यह नियम एक समान लागू होना चाहिये। शिक्षा में नीजि क्षेत्र सेवाभाव से नही वरन् बाजार भाव से प्रवेश कर रहा है। आज शिक्षा के क्षेत्र में नीजिक्षेत्र के बढ़ते दखल को रोकना बहुत आवश्यक है क्योंकि जब शिक्षा व्यापारिक मानसिकता से संचालित होगी तो उसका अन्तिम परिणाम केवल उपभोक्तावाद ही होगा।
इस परिदृश्य में देश के प्रधानमन्त्री से लेकर सर्वोच्च न्यायपालिका से यह आग्रह है कि यदि वास्तव में ही हम भ्रष्टाचार के खिलाफ गंभीर हैं तो इस दिशा में तुरन्त प्रभाव से कदम उठाने होंगे। शिक्षा के बाद चुनाव के क्षेत्रा में भी इसी तरह के कदम की आवश्यकता है उस पर अगले अंक में चर्चा करूंगा।