Tuesday, 16 December 2025
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दूसरी राजधानी की आवश्कता

शिमला/बलदेव शर्मा मुख्यमन्त्री सिंह वीरभद्र सिंह ने धर्मशाला को दो माह के लिये प्रदेश की शीतकालीन राजधानी बनाने का ब्यान दिया है। मुख्यमंत्री का यह ब्यान हकीकत में बदल पाता है या नहीं यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। क्योंकि 2017 चुनावी वर्ष है और चुनावों के नाम पर राजनेता हर कुछ ब्यान देते हैं जिनका हकीकत से कोई वास्ता नही होता है। वीरभद्र सिंह ने भी यह ब्यान मन्त्रीमण्डल की बैठक के बाद दिया है और यह स्पष्ट नहीं किया है कि क्या इस पर मन्त्री परिषद में कोई विचार हुआ है या नही। क्योंकि यदि ऐसा होना है तो इस पर मन्त्री परिषद में फैसला लिया जाना आवश्यक है। वीरभद्र अपने इस ब्यान पर कितने गंभीर हैं यह तो वही जानते हैं। लेकिन उनके इस ब्यान पर एक सार्वजनिक बहस की आवयकता है।
इस समय शिमला प्रदेश की राजधानी है और अंग्रेजी हकूमत ने जब शिमला बसाया था उस समय उनके दिमाग में इसे राजधानी नगर नही बल्कि एक पर्यटक स्थल बनाने का नक्शा था। एक पर्यटक स्थल के हिसाब से ही यहां के लिये बिजली पानी जैसी बुनियादी आवश्यकताओं का ढ़ाचा तैयार किया गया था। लेकिन जब से शिमला को एक नियमित रूप से राजधानी नगर बनाया गया है। तब से लेकर आज तक शिमला का जितना प्रसार हुआ उसके मुताबिक आज यहां की आवश्यक सेवाओं का सारा प्रबन्धन बुरी तरह से चरमरा गया है। इस बार की बर्फबारी ने इसका तल्ख अहसास भी करवा दिया है। इस वर्ष बर्फबारी में आवश्यक सेवाओं के तहस-नहस हो जाने के कारण हर प्रभावित व्यक्ति ने प्रशासन और शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व को कोसा है। बहुत संभव है कि इस स्थिति की व्यवहारिक गंभीरता को स्वीकारते हुए ही वीरभद्र ने यह ब्यान दिया हो। क्योंकि राजधानी नगर में जो भी होगा उसमें हर वर्ष नये निमार्ण होगें ही और उनके लिये आवश्यक सेवाओं का प्रबन्धन भी अनिवार्यता रहेगी ही। परन्तु आज शिमला नये निमार्णों और प्रबन्धनों का बोझ उठा पाने के लिये सक्षम नही रह गया है। आज शिमला के आधे से ज्यादा हिस्से में हर घर तक एेंबुलैन्स और फॉयर टैण्डर नहीं पहुंच पाता है। पार्किंग की समस्या इतनी विकराल हो चुकी है कि नयी गाड़ी खरीदने से पहले पार्किंग की उपलब्धता का प्रमाणपत्र देना होगा। इसके बिना नयी गाड़ी के पंजीकरण पर रोक है। शिमला में एक लम्बे अरसे से अवैध निर्माण होते आ रहे हैं जिनके लिये नौ बार रिरटैन्शन पॉलिसियां लायी गयी हैं। अब तो अवैध निमार्णों का प्रदेश उच्च न्यायालय तक ने कड़ा संज्ञान लिया है और अवैधता के लिये जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कारवाई करने तक निर्देश दे रखे हैं।
इस परिदृश्य में आज यदि निष्पक्षता से आकलन किया जाये तो व्यवहारिक रूप से शिमला को आगे लम्बे अरसे तक राजधानी बनाये रखना संभव नही होगा। इस समय शिमला स्मार्ट सिटी बनाने की कवायद की जा रही है। भारत सरकार भी इसके लिये खुला आर्थिक सहयोग दे रही है। स्मार्ट सिटी की अवधारणा पुराने शहरों पर लागू नही होती है। इस अवधारणा के तहत नया ही शहर बसाया जाना होता है। क्योंकि स्मार्ट सिटी के लिये हर घर तक सीवरेज ऐन्बुलैन्स और फायर टैण्डर का पहुंचना आवश्यक है। इसी के साथ हर घर की अपनी पार्किंग होनी चाहिये। इन बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता के बाद शिक्षा, स्वास्थ्य और शॉपिंग कम्पलैक्स आदि आते हैं। आज शिमला के हर घर को यह सुविधाएं उपलब्ध होना व्यवहारिक रूप से ही संभव नही है चाहे इसके लिये जितना भी निवेश क्यों न कर लिया जाये।
ऐसे में जब आज स्मार्ट सिटी बनाई जानी है तो उसके लिये यह बहुत आवश्यक और व्यवाहारिक होगा कि प्रदेश के किसी केन्द्रिय स्थल पर स्मार्ट सिटी की अवधारणा पर एक राजधानी नगर ही बसाने का प्रयास किया जाये। क्योंकि शिमला में बर्फ के मौसम में करीब तीन महीने और बरसात में दो महीने के लिये सामान्य जनजीवन में बाधा आती ही है। इससे पूरा शासन और प्रशासन प्रभावित होता है। आज शिमला में आवश्यक सेवाओं को मैन्टेन करने के लिये ही प्रतिवर्ष सैकड़ों करोड़ खर्च हो रहे हैं जो कि पूरी तरह से अनुत्पादिक खर्चा है। इसलिये आज सारे
दूसरी राजधानी की आवश्कता
राजनीतिक और उनके नेतृत्व को दलगत हितों से ऊपर उठकर इस पर विचार करना चाहिये। मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने चाहे जिस भी मंशा से सर्दीयों के दो माह के लिये धर्मशाला शीतकालीन राजधानी बनाने की बात की हो लेकिन उसमें अपरोक्ष में यह स्वीकार्यता तो है ही कि शीतकाल के लिये राजधानी के रूप में शिमला सक्षम नहीं रह गया है। धर्मशाला में जब विधानसभा भवन बनाया गया था तब उसके पीछे शुद्ध रूप से राजनीतिक स्वार्थ रहे हैं अन्यथा जिस भवन का वर्ष में इस्तेमाल ही एक सप्ताह भर होना है उसके लिये इतना बड़ा निवेश किया जाना कतई जायज नही ठहराया जा सकता वह भी तब जब सरकार को हर वर्ष एक हजार करोड़ से अधिक का कर्ज लेना पड़ रहा हो। इसलिये मेरा सुझाव है कि अब जब स्वंय वीरभद्र सिंह ने यह बात छेड़ दी है तो उसे आगे बढ़ाने के लिये सबको आगे आना चाहिये। अन्यथा आने वाली पीढीयां वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व को बराबर कोसती रहेंगी।

क्या न्यायपालिका के भी सरोकार बदल रहे हैं

देश के पांच राज्यों में विधान सभाओं के चुनाव होने जा रहे है। इन चुनावों के परिदृश्य में यह सवाल फिर उभरा है कि जिन लोगों के खिलाफ आपराधिक मामले हैं क्या उन्हें चुनाव लड़ने की अनुमति होनी चाहिए या नही? चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय इस सवाल पर विचार कर रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए की समय रहते हीे इसका कोई जवाब जनता के सामने आ जायेगा। आज विधान सभाओं से लेकर देश की संसद तक आपराधिक मामले झेल रहे लोग जन प्रतिनिधि बनकर बैठे हुए हैं। क्योंकि यह लोग न्यायपालिका की बजायेे जनता की अदालत पर ज्यादा भरोसा करते हैं और जनता इन्हे विजयी बनाकर अपने प्रतिनिधि के रूप में आगे भेज देती है। इस जनता की अदालत में इनके आपराधिक मामलों पर कितनीे बहस होती है कैसे और कौन इनका पक्ष रखता है इसका कोई लेखा जोखा नहीं रहता है। केवल हार या जीत सामने आती है। इसी के कारण चुनावों में धन बल और बाहुबल के प्रभाव के आरोप लगते आ रहे हैं। यह चलन कब समाप्त होगा? कब व्यवस्थापिका को इन अपराधियों से निजात मिलेगी? 
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में यह निर्देश दे रखे हैं कि जिन जन प्रतिनिधियों के खिलाफ आपराधिक मामले आदलतों में लंबित हैं उनमें एक वर्ष के भीतर फैसला करना होगा। इसके लिये अगर दैनिक आधार पर भी सुनवाई करनी पडे़ तो की जानी चाहिये। इसको सुनिश्चित करने के लिये अतिरिक्त अदालतें तक स्थापित करने की व्यवस्था दी गयी थी। केन्द्र सरकार ने उस समय राज्य सरकारों को इस आश्य का पत्रा भी भेजा था। सर्वोच्च न्यायालय ने अधीनस्थ अदालतों को सख्त हिदायत दी थी कि एक वर्ष से अधिक का समय लगने की स्थिति में संबधित उच्च न्यायालय से इसकी अनुमति लेनी होगी। लेकिन क्या सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले की अनुपालना हो पायी है? आज भी जन प्रतिनिधियों के खिलाफ वर्षो से ट्रायल में मामले लंबित हैं। क्योंकि फैसले के बाद न तो सर्वोच्च न्यायालय ने और ही सरकार ने इस बारे में जानकारी लेने का प्रयास किया है। एक अन्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्देश दिये थे कि जांच ऐजैन्सी के पास आने वाली हर शिकायत पर एक सप्ताह के भीतर मामला दर्ज हो जाना चाहिये। यदि जांच अधिकारी को शिकायत पर कुछ प्रारम्भिक जांच करने की आवश्यकता लगे तो ऐसी जांच भी एक सप्ताह में पूरी करके शिकायत पर कारवाई करनी होगी। यदि जांच अधिकारी की राय में शिकायत पर मामला दर्ज करने का आधार न बनता हो तो इसकी वजह लिखित में रिकार्ड करनी होगी और शिकायतकर्ता को भी लिखित में इसकी जानकारी देनी होगी। सर्वोच्च न्यायालय ने ललिता कुमारी बनाम स्टेेट आॅफ उत्तर प्रदेश में स्पष्ट कहा है कि किसी भी शिकायत को बिना कारवाई के नहीं समाप्त किया जायेगा। 
सर्वोच्च न्यायालय के इन फैसलों से उम्मीद जगी थी कि अब व्यवस्थापिका में देर सवेर आपराधिक छवि के लोगों के घुसने पर रोक लग ही जायेगी। यह भी आस बंधी थी कि पुलिस तन्त्र उसके पास आने वाली शिकायतों को आसानी से रद्दी की टोकरी में डालकर ही नहीं निपटा देगा। लगा था कि ‘‘हर आदमी कानून के आगे बराबर है ’’ के वाक्य पर अमल होगा। लेकिन अभी सर्वोच्च न्यायालय ने प्रधानमन्त्री मोदी के खिलाफ आयी प्रशान्त भूषण की शिकायत के मामले को जिस तरह से निपटाया है उससे आम आदमी की उम्मीद को गहरा आघात लगा है। मोदी जब गुजरात के मुख्यमन्त्री थे उस समय उन्हें कुछ उद्योग घरानों से करीब 40 करोड़ मिलने का आरोप लगा है। इस आरोप की पुष्टि में उन्हें जो कुछ दस्तावेज मिले हैं उन पर आयकर विभाग का भी हवाला है। राहुल गांधी ने भी इन आरोपों को जनता के सामने रखा है। इन आरोपों से आज की राजनीति और आर्थिक परिस्थितियों से एक नयी बहस उठी है। क्योंकि इस समय देश में भ्रष्टाचार और कालाधन केन्द्रित मुद्दे बन चुके हंै। नोटंबदी से इस पर और भी ध्यान केन्द्रित हुआ है। राजनीतिक दल और नेता एक दूसरे के भ्रष्टाचार पर हमला बोलने लगे हैं और यह एक अच्छा संकेत है। इस वस्तु स्थिति में न्यायपालिका की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। क्योंकि देश की सबसे बड़ी जांच ऐजैन्सी सीबीआई को सर्वोच्च न्यायालय ही सरकार के पिंजरे का तोता करार दे चुका है। ऐसे में न्यायपालिका पर ही अन्तिम भरोसा है। यदि सर्वाच्च न्यायालय मोदी पर लगे इन आरोपों की जांच का मार्ग अपनी निगरानी में प्रशस्त कर देता तो इस भरोसे को और बल मिल जाता लेकिन इस जांच का रास्ता ही रोक दिये जाने से यह धारणा बनना और सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या बदले राजनीतिक परिदृश्य में न्यायपालिका के सरोकार भी बदल गये हैं?

क्या कालेधन का आंकड़ा जारी होगा

 शिमला/बलदेव शर्मा 

2014 के लोक सभा चुनावों की तैयारीयों के दौरान तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने उस समय एक स्ट्रैटेजिक एकशन कमेटी का गठन किया था। उस कमेटी का अध्यक्ष डा0 सुब्रमण्यम स्वामी को बनाया गया। उस कमेटी में डा0 स्वामी के अतिरिक्त रा, सैन्य खुफिया विभाग और आई वी आदि के सेवानिवृत अधिकारी शामिल थे। उस कमेटी ने यह पाया था कि देश में जाली नोट एक बड़ी समस्या बन चुके हैं और इस समस्या से निपटने के लिये नोटबंदी ही एक कारगर कदम हो सकता है। आज नोटबंदी का फैंसला उसी कमेटी की सिफारिशों का परिणाम है। नोटबंदी से पहले स्वैच्छा से आय घोषणा योजना लायी गयी। यह सारे कदम कालेधन और जाली करंसी के चलन को बन्द करने के लिये उठाये गये है। सिद्धान्त रूप से इस पर कोई दो राय नहीं हो सकती कि इन समस्याओं से निपटने के लिये इससे बेहतर और कोई कदम नहीं हो सकता था। राजनाथ सिंह द्वारा पार्टी के अन्दर ऐसी कमेटी का गठित किया जाना डा0 स्वामी ने एक साक्षात्कार में स्वीकार किया है। 

इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पार्टी के भीतर जब इस तरह की चर्चा एक कमेटी के रूप मे रह चुकी है जिस पर अब अमल किया गया है। तो निश्चित है कि सरकार के पास इस फैंसले को सफल बनाने के प्रयास करने के लिये पर्याप्त समय था। लेकिन जिस ढंग से इस पर अमल किया गया है उससे यह भी स्पष्ट हो गया है कि इस दिशा मे तैयारियों में भारी कमी रही है। तैयारीयों की कमी ही विपक्ष का आरोप है और इसी कमी के कारण इसके घोषित वांच्छित परिणाम मिलने पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। क्योंकि नयी करंसी अभी 8 नवम्बर के बाद बाजार में बैंकों में आयी है लेकिन इसी के साथ जाली करंसी फिर बाजार में आ गयी और पकड़ी गयी है। कालाधन पांच सौ और हजार के नोटों के रूप में लोगों ने जमा कर रखा था यह धारणा थी लेकिन आज नयी करंसी में भी करोड़ो लोगों के पास छापो में मिला है। कालेधन और जाली नोटों का आतंकी गतिविधियों मे प्रयोग होता था यह भी धारणा थी। नोटबंदी के बाद आंतकी घटनाओं में कुछ कमी अवश्य आयी है लेकिन यह कितने दिनों तक बनी रहेगी कहना कठिन है क्योंकि कालाधन और जाली नोट नयी करंसी में भी सामने आ गये है
नोटबंदी से पैदा होने वाली कठिनाईयां पचास दिन बाद समाप्त हो जायेंगी। इस वायदे के साथ प्रधानमन्त्री ने देश की जनता से पचास दिन का समय मांगा था। अब यह समय पूरा हो गया है लेकिन अभी भी बैंको से निकासी की सीमा चैबीस हजार ही है। यह सीमा कब बढ़ती है कितनी बढ़ती है आने वाले दिनों में ही पता चलेगा। मंहगाई में कितनी और कब कमी आती है अभी यह स्पष्ट नही हो पा रहा है क्योंकि नोटबंदी के बाद पैट्रोल और डीजल की कीमतें दो बार बढ़ गयी है। इसलिये कीमतों के कम होने की संभावना नही के बराबर है। लेकिन कालाधन धारकों के खिलाफ कारवाई का जो वायदा किया गया था उसके परिणाम कब सामने आते है अब जनता को इसका इन्तजार है। पांच सौ और एक हजार के नोटों के रूप में 15.3 लाख करोड़ की करंसी बाजार में होने के आंकडे़ सामने आये है। नोटबंदी की घोषणा के बाद 8 नवम्बर से इन नोटों का चलन बन्द हो गया। 8 नवम्बर के बाद बैकों से किसी को पुराना नोट जारी नहीं हुआ यह स्पष्ट है। इसके बाद पुराना नोट या तो बैक में आकर बदला गया या फिर खाते में जमा किया गया। 30 दिसमबर तक 15-16 लाख करोड़ के पुराने नोट बैंकों में वापिस आने का अनुमान है। इसका अधिकारिक आंकडा अभी तक जारी नही हुआ है। 27 दिसम्बर तक यह आंकडा 11.5 लाख करोड़ का रहा है। अब जब इतनी संख्या में यह पुराने नोट बैंक में वापिस आ गये हैं तो स्पष्ट है कि इसी में कालाधन और जाली नोट भी शामिल है जो आंकडे चर्चा मे है  उनके मुताबिक 1.5 से 2 लाख करोड़ के करीब जाली नोट है। यह आंकडे जो भी रहे हो इसमें महत्वपूर्ण यह है कि बैंको के पास जो भी पुराने नोट वापिस आये है वह सारा कैश लोगोें के घरों में मौजूद था। अब यह सारा पैसा वापिस आ गया है तो पहचान करना आसान होगा कि इसमें से कितना कालाधन है और किसका है। क्योंकि यह पैसा बैंक में तो था नहीं घरों में था। घरों में इतना कैश इसलिये था क्योंकि इस पर टैक्स नही दिया गया था और टैक्स न देने के कारण कालाधन था। किसके पास टैक्स की सीमा से ज्यादा पैसा था इसकी पहचान करके यदि उसे सजा नही दी जाती है तो फिर प्रधानमन्त्री पर से लोगों का विश्वास समाप्त हो जायेगा। क्योंकि जब कालेधन वाले कोे सजा ही नही मिलेगी तो फिर उसके खिलाफ कारवाई क्या हुई क्योंकि यदि सही मायनों में कालेधन को समाप्त करना है तो यह देश के सामने लाना होगा कि सोने और अचल संपत्ति के रूप मे किसके पास क्या है।
अब जो विधान सभा चुनाव होने जा रहे  है तो कालेधन पर की गयी कारवाई के असर की परीक्षा होगी। कौन सा राजनीतिक दल और कौन सा प्रत्याक्षी कितना खर्च करता है और यह खर्च कितना डिजिटल या चैक से होता है क्योंकि निकासी की सीमा चैबीस हजार रहने से एक माह में केवल 96000 ही बैंक से मिल सकता है चाहे वो पार्टी हो या प्रत्याक्षी और इतने से चुनाव नहीं लड़ा जा सकता है। यह चुनाव आयोग और सरकार के लिये भी कड़ी परीक्षा होगा।

आज कहां खड़ी वीरभद्र सरकार

 शिमला/बलदेव शर्मा

 वीरभद्र सरकार के सत्ता में चार वर्ष पूरे हो गये हैं। अगला वर्ष चुनावों का वर्ष है। इस समय प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा दो ही प्रमुख राजनीतिक दल हैं जिसमें अब तक सत्ता की भागीदारी रहती है। प्रदेश में इन दोनों का राजनीतिक विकल्प अब तक नही बना पाया है। इसलिये आज भी प्रदेश की राजनीति का आकलन इन्ही के गिर्द केन्द्रित रहेगा यह एक व्यवहारिक सच्चाई है जिसे स्वीकार करना ही होगा। इस परिदृश्य में बीते चार वर्षों का राजनीतिक आकलन एक तरह से इन्ही का राजनीतिक आकलन रहेगा। वीरभद्र और कांग्रेस का दावा है कि प्रदेश में सातवीं बार वीरभद्र के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनेगी। दूसरी ओर भाजपा का संकल्प है
कि देश को केन्द्र से लेकर राज्यों तक कांग्रेस से मुक्त करना है। केन्द्र में पहली बार भाजपा के नेतृत्व में ऐसी सरकार बनी है जिसमें भाजपा ने गठबन्धन का धर्म निभाते हुए अपने सहयोगी दलों को सरकार में भागीदार बनाया है। अन्यथा भाजपा का अपना ही इतना प्रचण्ड बहुमत है जिसमें उसे किसी अन्य की संख्याबल के लिये आवश्यकता नहीं है। पिछले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को 1977 के बाद दूसरी बार ऐसी शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है।
इसमें यह भी महत्वपूर्ण है कि 1977 से लेकर अब तक इन्दिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्याओं के परिदृश्य में हुए चुनावों को छोड़कर शेष सारे चुनावों में भ्रष्टाचार ही केन्द्रित मुद्दा रहा है। हिमाचल में भी पिछले तीन दशकों से हर चुनाव में भ्रष्टाचार ही प्रमुख मुद्दा रहा है और यह भ्रष्टाचार के मुद्दा बनने का ही परिणाम है कि कोई भी दल लगातार दो बार सत्ता में नही रह पाया हैं। ऐसे में इस बार कांग्रेस का दावा पूरा होता है या भाजपा का संकल्प फली भूत होता है यह देखना रोचक होगा। लेकिन इसके लिये बीते चार वर्षो में सरकार की कारगुजारीयां और भाजपा की भूमिका दोनों को ही देखना आवश्यक होगा। सरकार के नाते वीरभद्र के नेतृत्व में अन्य मन्त्रीयों और संगठन की भूमिका केवल नाम मात्र की ही रह जाती है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि वीरभद्र के आगे कांग्रेस हाईकमान भी हर बार बौना ही साबित हुई है। वीरभद्र हर बार आंखे दिखाकर सत्ता पर काबिज हुए है । इस बार तो वीरभद्र के बेटे युवा कांग्रेस के अध्यक्ष विक्रमादित्य सिंह ने भी अभी से ही बाप नक्शे कदम चलना शुरू कर दिया है। चुनावी टिकटों के आवंटन में हाईकमान की भूमिका को लेकर जिस तरह ब्यान वह देते रहे है उससे यह कार्यशैली स्पष्ट हो जाती है। इसलिये प्रदेश में चुनावी परिणाम जो भीे रहेंगे वह केवल वीरभद्र केन्द्रित ही होगें।
2012 के विधानसभा चुनावों के दौरान यदि धूमल शासन के खिलाफ हिमाचल को बेचने के आरोप न लगते तो तय था कि धूमल पुनः सत्ता पर काबिज हो जाते। केवल इस एक आरोप के प्रचार ने भाजपा और धूमल को सत्ता से बाहर कर दिया था। जबकि इस बहुप्रचारित आरोप की दिशा में वीरभद्र सरकार एक भी मामला सामने नही ला पायी है। बल्कि वीरभद्र सरकार ने जो भी मामले धूमल शासन को लेकर उठाये हैं वह सारे एचपीसीए के गिर्द ही केन्द्रित हैं और उनमें भी किसी मामले में अभी तक सफलता नहीं मिली है। एचपीसीए से हटकर ए एन शर्मा का मामला बनाया गया था और उसमें सरकार की भारी फजीहत हुई है। इसी तरह धूमल की संपत्तियों को लेकर जो भी दावे वीरभद्र करते रहे हैं वह सब अन्त में केवल राजनीतिक ब्यान मात्रा ही होकर रह गये हैं। ऐसे में आज भाजपा या धूमल के खिलाफ चुनावों में उछालने लायक एक भी मुद्दा वीरभद्र या कांग्रेस के पास नही है।
दूसरी ओर आज सरकार के चार वर्ष पूरे होनेे के बाद सरकार के खिलाफ भाजपा का एक ऐसा आरोप पत्र खड़ा हो गया जिसमें वीरभद्र और उनका करीब पूरा मन्त्रीमण्डल गंभीर आरोपों के साये में आ गया है। इस आरोप पत्र को लेकर कांग्रेस के नेता चाहेे कोई भी प्रतिक्रिया देते रहें लेकिन इसकी छाया संबधित प्रशासन पर साफ देखी जा सकती है। बल्कि आज सीबीआई और ईडी में जो मामले चल रहे हैं उनको लेकर वीरभद्र जिस ढंग से जेटली, धूमल और अनुराग को कोसते आये हैं उससे यह झलकता है कि वीरभद्र को राजनीतिक तौर पर केवल धूमल से ही खतरा है। अब तो आयकर के अपील ट्रिब्यूनल और उसके बाद हिमाचल उच्च न्यायालय के फैसलों ने सीबीआई और ईडी के आधार को और पुख्ता कर दिया है। ऐसे में यह फैसले भाजपा के हाथ में एक ऐसा हथियार बन जायेंगे जिस की काट से वीरभद्र और कांग्रेस को बचना आसान नहीं होगा।

पुराने नोट जमा करवाने की सुविधा से किसे लाभ मिल रहा है

शिमला/बलदेव शर्मा 

आठ नवम्बर को रात आठ बजे प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी ने यह घोषणा की कि आज रात बारह बजेे के बाद पांच सौ और एक हजार के नोट लीगल टैण्डर नहीं रहेंगे। यह केवल कागज के टुकड़े रह जायेंगे। इन नोटों के स्थान पर पांच सौ और दो हजार के नये नोट जारी किये गये है। प्रधान मन्त्री ने इस फैंसले को कालाधन और उसके धारकों के खिलाफ बडा़ कदम बताते हुए आम को भरोसा दिलाया था कि इस फैंसले से जो व्यवहारिक पेरशानीयां सामने आयेंगी वह पचास दिन में समाप्त हो जायेंगी। मोदी ने देश से पचास दिन का बिना शर्त सहयोग मांगा था और देश ने यह सहयोग उन्हें दिया है। प्रधान मन्त्री नेे यह भी दावा किया गया था कि इससे मंहगाई कम होगी। आठ नवम्बर को यह घोषित नही किया था कि पुराने नोट कितने समय तक कहां कहां उपयोग में रहेंगे। इसके लिये समय -समय पर नियमों में संशोधन होता रहा और पुराने नोटों के उपयोग की सहूलियत मिलती रही। इसी में कालेधन के धारकों को भी यह सुवधा दी गयी कि वह भी अपना धन घोषित कर सकते है उनके खिलाफ कोई कारवाई नहीं की जायेगी उनसे कुछ पुछा नहीं जायेगा। केवल उनके लिये टैक्स आदि की मात्रा बढ़ा दी गयी। इस सब में जो फैसला नहीं बदला वह यही कि पुराने नोटों का चलन बाजार के लिये बन्द हो गया। अब पुराने नोट केवल रिजर्व बैंक की धरोहर रह जायेंगे। पुराने नोटों को जमा करवाने की समय सीमा में जो बढौत्तरी होती रही है उसके लिये यह तर्क आता रहा है कि रिजर्व बैंक ने पांच सौ और हजार के जितने नोट प्रिंट किये थे वह सारे वापिस नही आये हैं। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब पुराने नोटों की वैधता ही आठ नवम्बर से समाप्त हो गयी है तब रिजर्व बैंक इन्हे अपने पास लेकर क्या करेगा । 

नोटबंदी कालाधन समाप्त करने के लिये लायी गयी। कालाधन वह धन होता है जिस पर आयकर नही दिया जाता है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही है कि आयकर छिपानेे का प्रयास ही कालेधन का जनक बन जाता है। अन्यथा हर खरीद -फरोख्त पर हम प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से 56 करों की अदायगी करते है। यह कर उन पर भी बराबर लागू रहते हैं जिनकी आय आयकर के दायरेे में नही आ पाती है। इस समय भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक तीन प्रतिशत लोग आयकर अदा कर रहें हैं। 92 प्रतिशत वह लोग है जिनकी आय ही दस हजार या इससे कम है। इनके पास आयकर से छिपाने के लिये है ही कुछ नहीं । इस तरह केवल पांच प्रतिशत लोग बच जाते हैं जो आयकर की चोरी करके कालाधन अर्जित कर रहें हैं। इन पांच प्रतिशत कालाधन धारकों के खिलाफ कारवाई के लियेे नोटबंदी लायी गई। यहां यह भी विचारणीय है कि करंसी के मुद्रण, नियमन और संचालन की जिम्मेदारी रिजर्व बैंक की है। रिजर्व बैंक एक स्वायतः संस्था है। उसका हर फैसला उसके निदेशक मण्डल में पूरी तरह गहन विचार के साथ लिया जाता है और तब उस फैंसले से सरकार को सूचित किया जाता है। करंसी के मुद्रण में यह सुनिश्चित किया जाता है कि उतनी ही करंसी प्रिंट की जायेगी जितना ही आपके पास गोल्ड का धातू है इसलिये विश्व भर में गोल्ड ही इसका मानक बन चुका है। इसका अर्थ है कि गोल्ड के सुरक्षित भण्डार के अनुपात में ही करंसी का मुद्रण होता है। 

अब जब नोटबंदी की गयी तब यह आंकडे सामने आये की पांच सौ और हजार के नोट कुल करंसी के 86 प्रतिशत है। अब जब 86 प्रतिशत करंसी का चलन वैध नही रहा तब यह पुराना किसी के घर तिजोरी में बन्द रहे या रिजर्व बैंक के पास रहे उसकी कीमत तो एक कागज के टुकडे से अधिक नही है। फिर 86प्रतिशत करंसी का अनुपातित गोल्ड रिजर्व तो सुरक्षित पडा ही है। इसमें नुकसान तो केवल छपाई और कागज की कीमत का ही है। कालाधन और बेनामी संपत्ति की घोषणा की समय सीमा 30 सितम्बर को समाप्त हो गयी थी । अब नोटबंदी में आम आदमी को जो 92प्रतिशत के आंकडे में आता है उसको पुराने नोट बदलने के लिये काफी समय मिल गया है। अब इस समय इन कालाधन धारकों को पुराने नोट जमा करवानेे की सुविधा क्यों दी जा रही है। इस सुविधा से कालाधन धारकों को तो लाभ ही मिल रहा है इससे उनका नुकसान तो नहीं हो रहा है। क्या यह सुविधा देने से कालेधन के खिलाफ कारवाई के सारे दावों पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है। अब जब छापों में नये नोट फिर से इन कालाधन धारकों के पास मिल रहें हैं तो उससेे भी यही प्रमाणित होता है कि इन लोगों पर इस फैसले का कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा है। इसमें यदि पुराने नोटों को बदलने के लिये एक तय सीमा के बाद छूट न दी जाती और बिजली, पानी टैलिफोन आदि सारी सेवाओं के बिलों के भुगतान में यह सुविधा देने की बजाये इन बिलों का भुगतान ही पाचस दिन किश्तों में लिया जाता तो उसके परिणाम कुछ और ही होते। अब पुराने नोटों को जमा करवाने के समय को बढ़ाने से नोटबंदी का पूरा फैसला सवालों के घेरे में खड़ा हो जाता है।

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