Tuesday, 16 December 2025
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जनाक्रोश के आगे झुकी सरकार

चौपाल-कोटखाई की दसंवी कक्षा की नाबालिग छात्रा के साथ हुए  गैंगरेप  और उसके बाद उसकी हत्या कर दिये जाने पर उभरे जनाक्रोष के आगे झुकते हुए इस मामलें की जांच सीबीआई को सौंपने का फैसला लेना पड़ा है वीरभद्र सरकार को। क्योंकि पुलिस की जांच पर जनता ने असन्तोष व्यक्त करते हुए यह आरोप लगाया कि पुलिस असली अपराधियों को बचाने का प्रयास कर रही है। पुलिस जांच पर यह आरोप इसलिये लगा क्योंकि जांच के दौरान मुख्यमन्त्री की अधिकारिक फेसबुक साईट पर चार युवाओं के फोटो अपलोड़ हो गये और इससे यह सन्देश गया कि यही लोग इस घिनौने कृत्य के दोषी हैं। फेसबुक पर फोटो आने के बाद यह सोशल मीडिया पर वायरल भी हो गये लेकिन जन चर्चा में आने के बाद इन फोटो को साईट से हटा भी दिया गया लेकिन जब जांच कर रही एसआईटी ने इस मामलें में पांच लोगों की गिरफ्तारी की अधिकारिक सूचना एक संवाददाता सम्मेलन के माध्यम से जनता के सामने रखी तब इन गिरफ्तार किये गये लोगों में उनमें से एक भी चेहरा नही था जिनके फोटो मुख्यमन्त्री की फेसबुक साईट पर आये थे। यही जनता के आक्रोष का कारण और जनता ने ठियोग तथा कोटखाई में व्यापक प्रदर्शन कर दिया। प्रदर्शन हिसंक होने के कगार तक पहुंच गया और सरकार को उसी समय सीबी आई को मामला सौंपना पड़ा जिसकी जांच पर मुख्यमंत्री के अपने प्रकरण में सरकार असन्तोष व्यक्त कर चुकी है।
अब यह मामला सीबीआई को सौंपा जा चुका है इसलिये सीबीआई की जांच के परिणाम आने तक इस पर कोई ज्यादा टिप्पणी करना अधिक संगत नही होगा। लेकिन इस प्रकरण पर मुख्यमन्त्री कार्यालय की भूमिका जिस तरह से सामने आयी है उस पर अवश्य ही गंभीर सवाल खड़े हो जाते हैं। क्योंकि यह सवाल अहम हो जाता है कि जब यह फोटो ऐसे गंभीर प्रकरण में साईट पर अपलोड किये जा रहे थे तो स्वभाविक है कि इन्हें पूरी पड़ताल के बाद पूरी जिम्मेदारी से लोड किया गया होगा और इसकी जानकारी उनसे जुड़े प्रधान निजि सचिव प्रधान सचिव तथा मुख्यसचिव को अवश्य रही हेागी। इनको साईट से हटाने के निर्देश भी इन्ही अधिकारियों में से किसी के रहे होंगे। क्योंकि जब यह फोटो अधिकारिक साईट पर लोड किये गये थे तो निश्चित रूप से यह काम उन्ही लोगों ने किया जो इस काम से जुडे़ रहे हैं। यदि किसी अनाधिकारिक व्यक्ति ने ऐसा किया है तो निश्चित रूप से मुख्यमन्त्री की साईट हैक कि गयी होगी। परन्तु यदि साईट हैक की गयी होती तो इस संबध में साईबर अपराध के तहत कोई शिकायत दर्ज हुई होती और यह फोटो अपलोड हो जाने पर यह जानकारी सबको दी गयी होती। परन्तु ऐसा हुआ नही है। ऐसे में स्वभाविक रूप से कल सीबीआई के सामने भी यह बड़ा सवाल रहेगा ही क्योंकि मुख्यमन्त्री कार्यालय द्वारा ऐसा क्यों किया गया इसका कोई स्पष्टीकरण आया नही है। जबकि पुलिस की ओर से पहली और अन्तिम जानकारी प्रैस नोट और फिर पत्रकार वार्ता के माध्यम से ही सामने आयी है और जिस तरह से यह सब हुआ है उससे पुलिस जांच पर सवाल उठने भी बहुत स्वभाविक हैं और यही सब हुआ भी है।
अब इसी के साथ यह भी चर्चा का विषय बन रहा है कि जिस तरह की सक्रियता पुलिस ने इस रेप और हत्या के प्रकरण में दिखायी है वैसी ही सक्रियता फाॅरेस्ट गार्ड और किन्नौर वाले आत्म हत्या प्रकरणों में क्यों नही दिखायी गयी? क्या यह मामले सरकार और पुलिस की नजर में गंभीर नही हैं। क्या इन मामलों में भी जांच को अंजाम तक पहुंचाने के लिये इसी तरह से जनाक्रोष को सड़को तक आने की आवश्यकता होगी? आज सरकार और पुलिस की विश्वसनीयता इन प्रकरणों के कारण सवालों के घेरे में है। क्योंकि इसी कोटखाई प्रकरण में जो भूमिका मुख्यमन्त्री कार्यालय की रही है उससे पुलिस और प्रशासन से ज्यादा मुख्यमन्त्री पर सवाल उठने शुरू हो गये है। क्योंकि फोटो अपलोड होने के प्रकरण में यदि मुख्यमन्त्री फेसबुक साईट हैण्डल करने वाले अधिकारियों/कर्मचारियों के खिलाफ कोई कड़ी कारवाई अपनी निष्पक्षता जनता के सामने नहीं रखेंगे तो उससे कालान्तर में उन्ही को नुकसान होगा। जबकि बहुत संभव है कि यह सब मुख्यमन्त्री की व्यक्तिगत जानकारी के बिना ही हो गया हो। अब बाकी मामलों में मुख्यमन्त्री को समयबद्ध जांच सुनिश्चित करने के अतिरिक्त जनता में विश्वास को बहाल करने का और कोई विकल्प शेष नही बचा है।

भाजपा की रथ यात्रा- कुछ सवाल

भाजपा ने सत्ता परिवर्तन के लिये प्रदेश में रथ यात्रा आयोजित की है। इस यात्रा के माध्यम से प्रदेश की जनता को जागृत किया गया है। जनता के बीच मुख्यमन्त्री से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार फैलने के आरोप लगाये गये हैं। भ्रष्टाचार के प्रकरण में मुख्यमन्त्री स्वयं जमानत पर हैं बल्कि उनकी पत्नी तक जमानत पर हैं यह जनता के सामने रखा गया है। प्रदेश में माफिया राज होने की बात की है। भाजपा के इन आरोपों के जनता तक पहुंचने से भले ही प्रदेश में सत्ता परिवर्तन हो जाये लेकिन भाजपा इन आरोपों पर क्या करेगी और आज केन्द्र में उनकी सरकार इस बारे में प्रचार से अधिक कुछ नहीं कर रही है, और इस बारे में जनता के सामने कुछ नही रखा गया है। प्रदेश की ओर से समस्याएं क्या है और उनके बारे में भाजपा का क्या आकलन है? उनका समाधान क्या है इस बारे में भी इस यात्रा के दौरान कुछ नही कहा गया है। जबकि यात्रा के दौरान भाजपा के केन्द्रिय नेताओं से लेकर भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमन्त्रीयों तक ने प्रदेश की जनता को संबोधित किया है। प्रदेश के युवाओं में बढ़ती बेरोजगारी का हल क्या है और यह क्यों बढ़ रही है इस बारे में भी जनता से कुछ नही कहा गया है।
आज प्रदेश की सबसे बड़ी समस्या बढ़ता कर्जभार हो रहा है। यह कर्जभार इस कदर बढ़ चुका है कि कर्ज का ब्याज चुकाने के लिये भी कर्ज लेना पड़ रहा है। इसी कर्ज की विभिषिका को देखकर योजना आयोग ने 1998-99 में सरकार में दो वर्ष से खाली चले आ रहे कर्मचारियो के पदों को समाप्त करने के निर्देश दे दिये थे। इन निर्देशों की अनुपालना में सरकार को उस समय योजना आयोग से एक एमओयू तक साईन करना पड़ा था। इस एमओयू के साईन होने के बाद प्रदेश में कर्मचारियों में सैंकड़ो नही हजारों पद समाप्त किये गये थे बल्कि इसके बाद ही अनुबन्ध और आऊटसोर्स जैसे रास्ते निकाले गये थे। लेकिन आज इस तरह की सारी नियुक्तियों का प्रदेश उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक ने कड़ा संज्ञान लिया है ‘‘समान काम के लिये समान वेतन का फैसला’’ सर्वोच्च न्यायालय से आ चुका है। नियुक्ति एवम् पदोन्नत्ति नियमों से हटकर की गयी सारी नियुक्तियों को अदालत ने चोर दरवाजा से की गयी भर्तियां करार दिया है। अदालत के इन फैसलों का आने वाले समय में प्रदेश की वित्तिय स्थिति पर गंभीर असर पेड़गा।
इस समय प्रदेश कर्ज के ऐसे चक्रव्यूह मे फंस गया है कि इसके लिये एफआरवीएम एक्ट से लेकर संविधान की धारा 205 तक का उल्लघंन किया जा रहा है। केन्द्र सरकार के वित्त विभाग की ओर से 29 मार्च 2016 को पत्र आया था जिसमें प्रदेश सरकार को अपनी वित्तिय स्थिति पर नियन्त्रण रखने की हिदायत दी गयी थी। इस पत्र के अनुसार वित्तिय वर्ष 2016-2017 के लिये कर्ज की अधिकतम सीमा 3540 करोड़ आंकी गयी थी। एफआरबीएम के मुताबिक जीडीपी के 3.1 से अधिक कर्ज नही लिया जा सकता। लेकिन 2016-17 में ही करीब 7000 करोड़ का कर्ज सरकार ले चुकी है। 2017-18 के चुनावी वर्ष में यह कर्ज और बढे़गा। यही नही सरकार एक लम्बे अरसे से राज्य की समेकित निधि से हर वर्ष ज्यादा खर्च करती आ रही है। ऐसा खर्च संविधान की धारा 205 की सीधी अवमानना है। कैग की हर वर्ष की रिपोर्ट में इसका जिक्र आ रहा है। कैग की रिपोर्ट हर बार सदन में पटल पर रखी जाती है लेकिन आज तक किसी भी माननीय ने सदन में इस पर चर्चा तक नही उठाई है। यदि यही स्थिति कुछ और समय तक चलती रही तो प्रदेश में वित्तिय आपात स्थिति की नौबत आ जायेगी।
प्रदेश की इस कड़वी सच्चाई का आम जनता को पता नही है जबकि इसके दुश्प्रभावों का असर केवल उसी पर पडे़गा। इस स्थिति के लिये प्रदेश की हर सरकार बराबर की जिम्मेदार रही है। आज आवश्यकता प्रदेश की जनता को इस सच्चाई से वाकिफ करवाने की है। कल भाजपा यदि सरकार में आती है तो वह इस स्थिति का कैसे सामना करेगी? वह प्रदेश को बढ़ते कर्जभार से कैसे मुक्ति दिलायेगी और जनता पर बिना कोई नया कर भार डाले विकास कैसे सुनिश्चित करेगी? आज भाजपा की रथ यात्रा के दौरान प्रदेश की जनता के सामने यह स्थिति रखी जानी चाहिए थी जो कि नही रखी गयी है। जबकि यह यात्रा ही एक सही मंच और माध्यम था जिससे जनता को इसी कड़वी सच्चाई से अवगत करवा कर इसके प्रति तैयार करवाया जाता। कल जब भाजपा भी जनता की अपेक्षाओं पर पूरा नही उत्तर पायेगी तो उसके विश्वास को बड़ा आघात पहुंचेगा जो कल को अराजकता का कारण बन सकता है।

जीएसटी-सही वक्त पर सही फैसला

कर राजस्व सरकार की आय का सबसे बड़ा साधन होता है और इसी कर की चोरी से काला धन पैदा होता है जिसके एक बड़े हिस्से का निवेश आतंक और नशीले पदार्थो की तस्करी में होता है। यह एक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत जमीनी सच्चाई है। अन्तर्राष्ट्रीय संसद, संयुुक्त राष्ट्र संघ, इससे उत्पन्न समस्याओें और इसके समाधान पर लम्बे समय से चर्चा करता रहा है और इसी चर्चा के परिणामस्वरूप मनीलाॅंड्रिंग नियम जैसे कदम भी सामने आये हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ में उठी चर्चाओं के परिदृश्य में ही हमारी संसद में मनीलाॅंड्रिंग 2001-02 में मनीलाॅंड्रिंग अधिनियम को एक स्वरूप दिया गया जिसमें जनवरी 2013 में कुछ संशोधन करके उसे और भी कड़ा किया गया। जब मनीलाॅंड्रिंग पर संसद में चर्चा आयी थी उसी दौरान पूरे देश में एक ही सरल कर प्रणाली की आवश्यकता अनुभव करते हुए पहली बार जीएसटी का विचार सामने आया था। क्योंकि  जब कर प्रणाली जटिल हो जाती है तो उससे ही यह शेष समस्याएं पैदा होती है। हमारे देश में पंचायत से लेकर राज्यों की विधान सभाओं और केन्द्र में संसद तक को कर लगाने के स्वतन्त्र अधिकार हासिल थे। इन्ही अधिकारों के चलते करों पर कर लगाने और उगाहने की स्थिति पैदा हो चुकी थी। इस कर प्रणाली को सरल बनाने और इसमें एकरूपता लाने के जब भी प्रयास हुए तो न केवल व्यापारी वर्ग ही बल्कि राजनीतिक दलों और नेताओं ने भी इसका विरोध किया। इसी विरोध और स्वीकार के कारण ही इस ‘‘एक कर एक राष्ट्र और एक बाजार’’ की अवधारणा को जमीनी हकीकत बनने में डेढ़ दशक से भी ज्यादा समय लग गया। आज भी कुछ व्यापारी वर्ग और कुछ राजनीतिक दलों ने इसका विरोध किया है। लेकिन विरोध के बावजूद वित्तमन्त्री अरूण जेटली और प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी इसे आकार देने में सफल हुए हैं इसके लिये वह प्रंशसा के हकदार हैं। इनके साथ ही वह राज्य विधान सभाएं भी प्रशंसा की पात्र हैं जिन्होने इसे  रैक्टीफाई  करने में देरी नहीं लगाई।
राज्य सरकारों को केन्द्रीय करों में से अपना हिस्सा पहले भी मिलता था और अब भी यह हिस्सा कुल के आधे भाग के रूप में मिलता रहेगा। इसलिये राज्यों को अपने कर राजस्व में कोई हानि नही होगी यह तय है। जीएसटी के दायरे में 1207 वस्तुओं को लाया गया है। इन पर लगने वाले कर के पांच स्लैव हैं। पहला स्लैव 5% का है जिसमें 263 वस्तुएं रखी गयी हैं, 12% के स्लैब में 242, 18% के स्लैब में 458 और 28% कर दायरे में 228 आईटमें रखी गयी हैं। इसके अतिरिक्त सोना, चांदी कीमती पत्थर आदि 18 चीजों पर 3% कर लगेगा। पहले इन पर कुल 2% टैक्स लगता था। इसी तरह बिना तराशे हीरे आदि की तीन चीजों पर 0.125% टैक्स लगेगा। इसी के साथ बिना पैकिंग के खुली बिना ब्रांड की बिकने वाली खाद्य सामाग्री को कर मुक्त रखा गया है। इसमें जिस वस्तु पर 5% टैक्स लगना है उस पर कश्मीर से कन्याकुमारी तक टैक्स की दर में कोई बदलाव नही आयेगा। कोई भी उपभोक्ता अपने उपयोग की चीजों की एक बार सूची बनाकर यह सुनिश्चित कर सकता है कि उसकी कितनी चीजें कर के किस-किस स्लैव में आती हैं। इसमें कालान्तर में उसे कोई कठिनाई सामने नहीं आयेगी। लेकिन बिना पैकिंग के खुले में बिकने वाली बिना कर की चीजों की गुणवत्ता सुनिश्चित करना सरकार के लिये एक बड़ी चुनौती होगी। क्योंकि आज सरकार द्वारा संचालित सस्ते राशन की दुकानों में से सामान लेने वाले बीपीएल और एपीएल उपभोक्ताओं को राशन कार्ड पर मिलने वाली खाद्य सामाग्री पर यह सवाल रहेगा कि यदि उसे पैकिंग में दिया जाता है तो उस पर जीएसटी लागू होगा और खुले में बिना टैक्स के उसकी गुणवत्ता कौन सुनिश्चित करेगा यह बड़ा सवाल रहेगा। आज 18% से 28% के टैक्स स्लैव में 1207 में से 681 वस्तुएं रखी गयी है। यह वस्तुएं संभवतः पहले से मंहगी मिलेंगी। इसका आम आदमी पर नाकारात्मक प्रभाव पेड़गा। फिर सबसे बड़ा सवाल है कि पैट्रोल और डीजल को जीएसटी के बाहर रखा गया है। उत्पादक से उपभोक्ता तक वस्तु ट्रांसपोर्ट के माध्यम से ही पहुंचेगी। इसका कीमतों के अन्तिम निर्धारण पर असर पडे़गा। इस समय पैट्रोल-डीजल पर एक्साईज और वैट मिलाकर 57% टैक्स लिया जा रहा है। यदि इन्हे भी जीएसटी के दायरे में ला दिया जाता तो यह टैक्स केवल 28% ही लगता और इससे उपभोक्ता को भी लाभ मिलता और मूल्य की गणना में भी सरलता रहती। सेवा कर के दायरे में आने वाले अधिवक्ता वर्ग को जीएसटी के दायरे से बाहर रखना भी आने वाले दिनों में विवाद और चर्चा का केन्द्र बनेगा क्योंकि इसको लेकर अभी से कानाफूसी शुरू हो गयी है। 

अब जब जीएसटी लागू हो गया है तो इसके लिये हर छोटे बड़े दुकानदार उद्यमी को कम्पयूटर की आवश्कता रहेगी। कम्पयूटर आप्रेशन के लिये नैटवर्क सिंगलन और विद्युत आपूर्ति की निर्वाध उपलब्धता सुनिश्चित करना आवश्यक होगा। जबकि इस समय देश की राजधानी दिल्ली में बिजली की 24x7 उपलब्धता सुनिश्चित नही है। ऐसे मे ‘‘एक कर, एक देश और एक बाजार’’ की अवधारणा को सफल बनाने के लिये इन व्यवहारिक पक्षों पर ध्यान देना आवश्यक होगा।

दलित राजनीति के आईने में राष्ट्रपति का चयन

शिमला/शैल।  देश के राष्ट्रपति के लिये सत्तारूढ़ एनडीए ने बिहार के पूर्व राज्यपाल रामनाथ कोविंद को तो विपक्ष ने बिहार की ही बेटी पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को अपना उम्मीदवार घोषित किया है। दोनों ही उम्मीदवार दलित वर्ग से ताल्लुक रखते हैं। लेकिन रामनाथ कोविंद के नाम पर जिस अन्दाज में केन्द्र सरकार के ही वरिष्ठ मन्त्री और लोजपा के शीर्ष नेता रामविलास पासवान ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है उससे यह चयन दलित राजनीति का केन्द्र बनकर रह गया है। क्योंकि पासवान ने एन डी ए द्वारा रामनाथ कोविंद का नाम पेश किये जाने को उन लोगों के गाल पर तमाचा करार दिया जो भाजपा को दलित विरोधी मानते हैं। पासवान की इसी प्रतिक्रिया का परिणाम है कि विपक्ष ने भी दलित वर्ग से ही कोविंद से भी बड़ा चेहरा उतारने का फैसला लिया और मीरा कुमार के रूप में यह नाम सामने आया है। लेकिन जिस तरह से यह बहस बढ़ाई गयी है उससे यह लगने लगा है कि शायद यह पद इस बार अनुसूचित जाति के लिये आरक्षित है और यही इस बहस का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष है जहां इस सर्वोच्च प्रतिष्ठित पद को भी दलित राजनीति के मानक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
लेकिन इसी बहस से एक बड़ा सवाल यह भी खड़ा होता है कि क्या पासवान ने इस बहस को एक मकसद के साथ तो नहीं मोड़ा है इस ओर? क्योंकि पिछले एक लम्बे अरसे से देश के विभिन्न राज्यों से आरक्षण को लेकर आन्दोलन उठे हैं। हार्दिक पटेल से लेकर जाट आन्दोलन तक देश ने देखे हैं। इन आन्दोलनो में या तो इन वर्गों के लिये भी आरक्षण की मांग की गई या फिर सारे आरक्षण को सिरे से समाप्त करने की मांग उठाई गयी है। इस समय अनुसूचित जातियों के लिये 15 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के लिये 7.5 प्रतिशत और अन्य पिछड़े वर्गों के लिये 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। आजादी के बाद 1957 में काका कालेलकर कमेटी की रिपोर्ट के बाद जब सरकार ने पहली बार अनुसूचित जातियों की सूची प्रकाशित की थी उसमें ऐसी 1100 जातियों का उल्लेख है। इसके बाद 1980 में आयी मण्डल आयोग की रिपोर्ट में 3743 अन्य पिछड़ी जातियों का उल्लेख है जिसके लिये आरक्षण की सिफारिश की गयी थी। अनुसूचित जातियों के लिये पहली बार अंग्रेज शासन के दौरान जब राजा राम मोहन राय और स्वामी विवेकानन्द तथा गांधी जैसे समाज सुधारकों के विचारों से प्रभावित होकर समाज सुधार और दलितोंद्धार राष्ट्रीय आन्दोलन के अंग बन गये। अंग्रेजों ने इस स्थिति को भांपते हुए पूना पैकट के तहत आरक्षण का सिद्धान्त स्वीकार कर लिया और 1935 के भारत सरकार अधिनियम में अनुसूचित जातियों के लिये प्रांतों की विधान सभाओं के अन्दर 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान कर दिया। 1935 से शुरू हुआ यह राजनीतिक आरक्षण आज तक चल रहा है। यह राजनीतिक आरक्षण अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिये है लेकिन अन्य पिछड़ी जातियों के लिये नही है। काका कालेलकर और फिर मण्डल आयोग की रिपोर्टों के परिणामस्वरूप इनके लिये सरकारी नौकरियों और शिक्षा के लिये शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण का प्रावधान कर दिया गया।
संविधान के अनुच्छेद 15, 16, 38, 46, 164, 275, 330, 332, 334, 335, 338, 340, 341, 342 और 366 में सार्वजनिक सेवाओं में अवसर की समानता के साथ-साथ पिछड़े वर्गों के लिये राज्यों की सेवाओं, शैक्षणिक संस्थानों और व्यवस्थापिकाओं में स्थान आरक्षित करने की भी अनुमति दी गयी है। अनुच्छेद 16(4) के मूल प्रारूप में नागरिकों के किसी भी वर्ग के लिये आरक्षण की बात रखी गयी थी। परन्तु डा. अम्बेडकर ने इसके साथ पिछड़ा शब्द जुड़वा दिया ताकि आरक्षण की शर्त और दशा स्पष्ट हो सके। लेकिन मण्डल आयोग की सिफारिशों पर अमल 1989 में वी.पी. सिंह सरकार के समय हुआ। इस अमल का विरोध इतने बड़े स्तर पर हुआ कि यह आन्दोलन हिंसक तक हो गया। कई राज्यों में आन्दोलनकारियों ने आत्मदाह तक किये। इसी आरक्षण विरोधी आन्दोलन के परिणामस्वरूप वी.पी.सिंह की सरकार गयी और सरकार जाने के साथ ही आन्दोलन भी समाप्त हो गया। इस आरक्षण विरोधी आन्दोलन को आर.एस.एस. का संरक्षण और समर्थन प्राप्त था यह जगजाहिर है। इस आन्दोलन के बाद आज तक आरक्षण का विरोध उस तर्ज पर सामने नहीं आया है जबकि आरक्षण की व्यवहारिक स्थिति वैसी ही बनी हुई है। इस समय केन्द्र में भाजपा को अपने दम पर प्रचण्ड बहुमत हासिल है। इस दौरान जहां आरक्षण को लेकर कुछ आन्दोलन सामने आये हैं वहीं पर संघ नेतृत्व की ओर से भी कई ब्यान आ चुके हैं। आरक्षण प्राप्त वर्गों से ‘‘क्रिमी लेयर’’ को बाहर करने का फैसला सर्वोच्च न्यायालय बहुत पहले दे चुका है परन्तु इस फैसले पर सही अर्थों में अमल नहीं हो पाया है क्योंकि इस लेयर का दायरा हर बार बढ़ा दिया जाता है। आज तक आरक्षण से सम्पन्न हो चुके किसी भी परिवार की ओर से यह सामने नहीं आया है कि उसने अपने को आरक्षण से बाहर कर दिये जाने का आग्रह किया हो। पासवान, मीरा कुमार या कोविंद कोई भी हो सबको चुनाव आरक्षित सीट से ही लड़ना है। राष्ट्रपति को संविधान में इन वर्गों के लिये विशेष अधिकारी का अधिकार भी प्राप्त है और इसी अधिकार के तहत पिछड़ा वर्ग आयोग गठित हुए हैं।
इस समय आरक्षण को लेकर जो स्थिति परोक्ष/अपरोक्ष में उभर रही है वह एक बार फिर 1991-1992 जैसे स्वरूप में कब सामने आ जाये इसकी संभावना बराबर बनी हुई है। आज इस संभावित परिदृश्य में राष्ट्रपति की भूमिका भी महत्वपूर्ण होगी यह तय है। ऐसे में आज बहस का रूख इस आकर्षित करने की दिशा में यह प्रयास पाठकों के सामने है।

किसान की उपेक्षा क्यों

भारत कृषि प्रधान देश है। इसके करीब 70% लोग आज भी गांवों में रहते हैं और खेतीबाड़ी करते हैं। यह आज भी हकीकत है और इसी के साथ जुड़ी एक बड़ी हकीकत है कि खाने की हर चीज खेत से ही निकलती है। इसका कोई विकल्प किसी मशीन से अब तक तैयार नहीं हुआ है। फिर जिस क्षेत्र पर 70% आबादी आश्रित हो उससे बड़ा रोजगार का कोई और साधन हो नही सकता लेकिन क्या शासन और प्रशासन इसे स्वीकार करने के लिये तैयार है। यदि सरकार इस सीधी सच्चाई को स्वीकार कर ले तो बहुत सारी समस्याएं आसानी से समाप्त हो जाती हैं। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज कृषि का स्थान सबसे अन्त में धकेल दिया गया है। एक समय यह माना जाता था कि ‘‘ उत्तम खेती, मध्यम व्यापार, निकृष्ट चाकरी.....।’’ लेकिन आज इस धारणा को एकदम उल्ट दिया गया है और इस उल्टने का ही परिणाम है कि आज देश का किसान आन्दोलन के रास्ते पर निकलने को मजबूर हो गया है। क्योंकि दूसरो का अन्नदाता आज स्वयं आत्महत्या के कगार पर पहुंच गया है। आज आन्दोलन के दौरान पुलिस की गोली से होने वाली मौतें  भी उसके आन्दोलन के संकल्प को हिला नही पा रही है।
इस किसान आन्दोलन को समझने के लिये थोड़ा इसकी पृष्ठभूमि में जाने की जरूरत है। शासन का खर्च लगान से चलता है और इस लगान का मुख्य स्त्रोत किसान और उसका खेत होता है यह एक स्वीकृत सच्चाई है। आज इस लगान का पर्याय टैक्स है। एक समय था जब यह लगान सीधे पैदा हुए अन्न के रूप में ही उगाहया जाता था। लेकिन अंग्रेज शासन के दौरान यह लगान अन्न से हटकर सीधे नकद के रूप मे बसूला जाने लगा । इस नकद बसूली के कारण किसान को साहूकार से कर्ज लेने की आवश्यकता पड़ी और जब इस नकद कर्ज को वह समय पर नही लौटा सका तो उसके खेत निलाम होने लग गये। 1861 के आसपास किसान और साहूकार के रिश्ते इस मोड़ पर आ गये कि किसानों ने साहूकारों का घेराव करना शुरू कर दिया। साहूकारों के घर में घुसकर उनसे कर्ज के कागजात छीन कर उनको जला दिया जाने लगा। इस स्थिति को देख कर अंग्रेज शासन साहूकार की सहायता के लिये आगे आ गये और उस जमाने में करीब तीन हजार किसानों की गिरफ्तारी हुई थी। किसानों की गरीबी पर बासुदेव बलवंत फड़के और ज्योतिवा फुले ने सबसे पहले बड़े विस्तार से चर्चाएं उठायी थी और इन्हीं चर्चाओं के परिणामस्वरूप आजादी के बाद सहकारिता और किसान आन्दोलन के लिये वैचारिक धरातल तैयार हुआ।
1980-81 में पूना के निंपाणी में तम्बाकू उत्पादक किसानों का आन्दोलन किसान आन्दोलनों के इतिहास में पहला सफल आन्दोलन रहा है जब मार्च 81 में चालीस हजार किसानों ने अपनी बैलगाड़ीयां लेकर पूना-बंगलौर राजमार्ग को पूरी तरह जाम कर दिया था। 23 दिन चले इस आन्दोलन पर पुलिस ने आंसू गैस और गोली चलाई जिसके कारण 12 किसान इसमें शहीद हुए लेकिन इस आन्दोलन से देश के हर हिस्से में बैठा किसान अपनी स्थिति के प्रति जागरूक हुआ और उसने अपनी उपज के उचित मूल्य की मांग समाज और सरकार के सामने रखी। 1981 के पूना के इस आन्दोलन का ही प्रभाव है उसके बाद पंजाब हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसान भी अपने उत्पाद के उचित मूल्य की मांग करने लगे है। आज किसान आन्दोलन महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राज्यस्थान से निकलकर पंजाब हरियाणा में अपनी दस्तक देने वाला है। किसान गरीब है और कर्ज के बोझ तले दबा हुआ है क्योंकि उसे बाजार में उसकी उपज का उचित मूल्य नही मिल पा रहा है। इसके लिये किसान इस कर्जे से मुक्ति के लिये कर्ज माफी और उसकी उपज के लिये मूल्य निर्धारण की मांग कर रहा है। आज उत्पादक किसान और उपभोक्ता के बीच मूल्य को लेकर इतना बड़ा अन्तर है जिसके कारण दोनों ही अपने-अपने स्थान पर हताश और पीड़ित हैं। उत्पादक किसान आत्महत्या के कगार पर है और उपभोक्ता बढ़ती कीमतों से पेरशान होकर उनका उपयोग-उपभोग छोड़ने को विवश है। लेकिन दोनों के बीच का जो अन्तराल है इसे समझने और पाटने में शासन और प्रशासन पूरी तरह आॅंख बन्द करके बैठा है। आज कुछ राज्य सरकारों ने किसान का कर्जा माफ करने की घोषणाएं की है लेकिन इन घोषणाओं के साथ ही केन्द्र के वित्त मन्त्राी अरूण जेटली ने राज्य सरकारों को स्पष्ट कर दिया है कि किसानों की कर्ज माफी की जिम्मेदारी राज्य सरकारों को अपने संसधनों से उठानी होगी। केन्द्र इसमें कोई सहायता नही करेगा। लेकिन हर राज्य सरकार भारी भरकम कर्ज के बोझ तले है। यह कर्जभार जीडीपी के 3% की सीमा से कहीं अधिक हो चुका है। लेकिन इस कर्ज पर नजर दौडाई जाये तो यह कर्ज विभिन्न उद्योगों की स्थापना और फिर उनको राहत की शक्ल में दिये गये पैकेजो का परिणाम है। उद्योग पैकेजों के बाद इस कर्ज से समाज के कुछ वर्गों को सस्ता राशन , वृद्धावस्था, विधवा बेरोजागारी आदि के लिये दी जाने वाली पैन्शन दी जा रही है। लेकिन सरकारों के इस बढ़ते कर्ज से किसान को कुछ नही मिला है यह स्पष्ट है। फिर जिस अनुपात में उद्योगों को पैकेज दिये जा रहे हैं उस अनुपात में यह उद्योग रोजगार के अवसर पैदा नही कर पाये हैं।
इस परिदृश्य में आज किसान और उद्योग आमने-सामने खड़े होने के कगार पर पहुंच गये हैं। कारखाने को कच्चा माल तो किसान के खेत से जा रहा है या उसके खेत के नीचे दबे खनिज से। लेकिन सरकार इन उद्योगपतियों का तो कई लाख करोड़ का कर्ज माफ करने को तैयार बैठी है लेकिन किसान के लिये नही। आज किसान सरकारों की इस नीयत और नीति को समझ चुका है इसलिये उसे अब और अधिक नजर अन्दाज कर पाना संभव नही होगा।

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