हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल ने प्रदेश विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के प्रौफेसर डा0 शशीकांत शर्मा को अपना अवैतनिक सलाहकार नियुक्त किया है। डा0 शशीकांत एक अनुभवी पत्रकार हैं। उसी अनुभव के परिणाम स्वरूप वह दैनिक ट्रिब्यून से विश्वविद्यालय पहुंचे और अब विश्वविद्यालय के अध्यापन के साथ ही महामहिम राज्यपाल के सलाहकार भी हो गये हैं और राज्यपाल आचार्य डा0 देवव्रत स्वयं भी एक विद्वान चिन्तक है और उन्होनेे बहुत सारे सामाजिक कार्य भी अपनी जीवन शैली का हिस्सा बना रखे है। ऐसे में राजभवन के दायित्वों के निर्वहन के साथ ही सामाजिक कार्यों को भी बराबर चलाये रखने के लिये उन्हें कुछ सहयोगीयों और सलाहकारों की आवश्यकता रहेगी ही। संभवतः इसी मनोधारणा को अंजाम देने के लिये ही उन्होने पहले कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय के प्रौफैसर डा0 राजेन्द्र सिंह को बतौर ओएसडी राजभवन में तैनाती दी और अब उसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए डा0 शशीकांत को अपना सलाहकार बनाकर लाये हैं। यह शायद इसलिये आवश्यक हुआ होगा क्योंकि डा0 राजेन्द्र सिंह अपना पूरा समय राजभवन को नहीं दे पा रहें है।
राजभवन की यह नियुक्तियां अपने में एक प्रशंसनीय कदम है। फिर डा0 शशीकांत प्रदेश की राजनीति से भली प्रकार से परिचित हैं। डा0 आचार्य देवव्रत प्रदेश के राज्यपाल केन्द्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद आये हैं और प्रदेश में पदभार संभालने के बाद यहां पर सत्तारूढ़ कांग्रेस तथा मुख्य विपक्षी दल भाजपा में कैसे राजनीतिक रिश्ते हैं यह पूरी तरह खुलकर सामने आ चुका है। इतना ही नहीं मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह और नेता प्रतिपक्ष पूर्व मुख्यमन्त्री प्रेम कुमार धूमल के बीच रिश्तों का मुकाम यहां तक पहुुंच गया कि वीरभद्र अपने खिलाफ चल रहे मामलों को सीधे धूमल, जेटली और अनुराग का षडयंत्र करार दे चुके हैं बल्कि स्पोर्टस बिल को लेकर वीरभद्र राजभवन की भूमिका पर भी अपनी नाराजगी जग जाहिर कर चुके हैं। राजनीतिक रिश्तों के इस परिदृश्य में यह डा0 शशीकांत ही थे जिन्होने वीरभद्र-धूमल और विक्रमादित्य को एक टेबल पर बिठाया। भले ही डा0 शशीकांत की इस भूमिका को लेकर सभी हल्कों में अलग-अलग प्रतिक्रियाएं उस समय रही है। आज भी डा0 शशीकांत उसी भूमिका को महामहिम राज्यपाल, मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह और नेता प्रतिपक्ष प्रेम कुमार धूमल के बीच निभा पाते है या नहीं। क्योंकि इस नये पद पर उनका चयन इन तीनों की सहमति के बिना संभव नही हो सकता। इसलिये डा0 शशीकांत इस नयी भूमिका में कैसे उतरते हैं और यहां से कुलपति तथा राज्यसभा तक का सफर तय कर पाते हैं या नहीं यह सब आने वाले समय मे स्पष्ट हो जायेगा।
लेकिन इस नियुक्ति से जो अन्य सवाल उभरे हैं वह बहुत महत्वपूर्ण है। डा0 शशीकांत की नियुक्ति की फाईल सरकार के सामान्य प्रशासन विभाग से अनुमोदित होकर राजभवन पहुंची है। सामान्य प्रशासन स्वयं मुख्यमन्त्री देख रहे हैं। ऐसे में पहला सवाल यह आता है कि क्या सरकार बिना वेतन के नियुक्ति पत्र दे सकती है? क्योंकि सांकेतिक रूप से एक रूपया वेतन तो हो सकता है या फिर एक पद के साथ दूसरे पद का अतिरिक्त दायित्व कानून की नजर में भी सवाल उठायेगा क्योंकि राज्यपाल, मुख्यमन्त्री या किसी भी मन्त्री का अवैतनिक सलाहकार होने के लिये दर्जनों लोग सामने आ सकते हैं फिर अवैतनिक दायित्व निभाते हुए प्रशासनिक गोपनीयता का निर्वहन कैसे और कितना अपेक्षित व संभव हो सकता है यह दूसरा बड़ा सवाल होगा।
इसी के साथ तीसरा सवाल यह है कि संविधान में राज्यपाल के लिये "To aid and advise" पूरा मन्त्रीमण्डल है। जब राज्य में राष्ट्रपति शासन की सूरत में मन्त्रीमण्डल नही रहता है तब वरिष्ठतम प्रशासनिक अधिकारियों को राज्यपाल का सलाहकार नियुक्त किया जाता है। क्योंकि सलाहकार और ओएसडी के पदनामो में भी भारी प्रशासनिक अन्तर रहता है। ऐसे में क्या राजभवन और राज्यपाल को मन्त्रीमण्डल और पूरे प्रशासनिक तन्त्र की सलाह पर भरोसा नहीं रहा है जिसके कारण राज्यपाल को अलग से मन्त्रीमण्डल के समानन्तर सलाहकार की आवश्यकता आ खड़ी हुई है। राज्यपाल का सलाहकार होने का बड़ा व्यापक अर्थ है क्योंकि संविधान के अनुसार राज्यपाल ही सरकार को ‘‘मेरी सरकार’’ कह कर संबोधित कर सकता है दूसरा कोई नही। ऐसे में राज्यपाल का सलाहकार पूरे मन्त्रीमण्डल और प्रशासनिक तन्त्र का समानन्तर बन जाता है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शिमला में भाजपा द्वारा आयोजित परिवर्तन रैली को संबोधित करते हुए प्रदेश के मुख्यमन्त्री का नाम लिये बगैर कहा कि जिन्होने इतने समय तक प्रदेश का शासन चलाया है आज उनका अधिकांश समय वकीलों से सलाह लेने में ही गुजर रहा है। मोदी के सहयोगी मन्त्री नड्डा ने भी नाम लिये बगैर ही वीरभद्र पर निशाना साधा। वीरभद्र अपने खिलाफ चल रही जांच के लिये वित्त मन्त्री अरूण जेटली का नाम लेकर उन पर षडयंत्र का आरोप लगा चुके हैं। उनका आरोप है कि केन्द्र सरकार जांच एजैन्सीयों का अपने विरोधियों के खिलाफ दुरूपयोग कर रही है। केन्द्र में जब कांग्रेस नीत यूपीए सरकार थी तब सीबीआई को देश के सुप्रीम कोर्ट ने पिंजरे का तोता कहा था। आज भाजपा नीत एनडीए सरकार है और जांच ऐजैन्सीयां वही हैं। आज भी दुरूपयोग का आरोप लग रहा है। अन्तर केवल इतना भर है कि आरोप लगाने वाले बदल गये हैं। हर सरकार यह दोहराती है कि भ्रष्टाचार कतई बर्दाश्त नही किया जायेगा। मोदी सरकार भी यह परम्परा निभा रही है।
मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह के खिलाफ वर्ष 2013 से वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण की याचिका के परिणाम स्वरूप जांच चल रही है जो अभी तक पूरी नही हुई है। इस जांच को पूरा होने में कितना समय लगेगा यह कहना संभव नही है। लेकिन इतना स्पष्ट है कि जब तक यह जांच पूरी नही होे जाती हैं इसका पूरा-पूरा राजनीतिक लाभ उठाया जायेगा। लेकिन क्या प्रधानमन्त्री के स्तर पर भी ऐसा किया जाना चाहिए? क्योंकि इस मामले में जांच ऐजैन्सीयां केन्द्र सरकार की हैं उनके ऊपर सरकार का प्रशासनिक नियन्त्रण है। ऐसे में किसी भी मामले में जांच को प्रभावित किये बिना क्या उसकी जांच एक तय समय सीमा के भीतर नही हो जानी चाहिए? क्या एक जांच को सालों तक चलाये रखा जाना चाहिये? जब ऐसा होता है तब उसके साथ राजनीति जुड़ जाती है। सत्ता संभालते ही प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने यह ऐलान किया था कि ‘‘न खाऊंगा और न ही खाने दूंगा’’ लेकिन पिछले दिनों अरूणांचल के पूर्व मुख्यमन्त्री स्व.काली खो पुल्ल का जो पत्र मरणोपरान्त सार्वजनिक हुआ है क्या उसमें लिखे गये तथ्यों पर जांच नही होनी चाहिए थी और इसका जिम्मा मोदी सरकार पर नहीं आता है। इस पत्र के बाद मोदी के अपने सहयोगी केन्द्रिय स्वास्थ्य मन्त्री जे.पी. नड्डा को लेकर रामबहादुर राय के यथावत में कई गंभीर आरोप लग चुके है। एम्ज़ की जमीन के मामलें में हजारों करोड़ के घपले के आरोप लग चुके हैं। रामबहादुर राय संघ में भी एक बड़ा नाम है। परन्तु नड्डा पर लगे आरोपों को लेकर न तो मोदी की सरकार की ओर से कोई प्रतिक्रिया आयी है और न ही स्वयं नड्डा ने इसका कोई खण्डन किया है या ‘‘यथावत’’ को मानहानि का नोटिस ही दिया है।
इसलिये जब प्रधानमन्त्राी नरेन्द्र मोदी जैसा व्यक्ति वीरभद्र पर नाम लिये बगैर हमला करता है तो स्वाभाविक रूप से उसमें राजनीति की ही गंध आयेगी। प्रधानमन्त्री के स्तर से तो परिणाम आने चाहिए और खास तौर पर तब जब स्वयं केन्द्र की जांच ऐजैन्सीयों की कार्यशैली का मामला हो। क्योंकि इस मामलों में ईडी की जो कार्यशैली अब तक सामने आ रही है उससे ऐजैन्सी की निष्पक्षता पर ही सवाल उठने शुरू हो गये हैं। जांच ऐजैन्सी के स्तर पर संबद्ध मामले की जांच को एक निश्चित समय सीमा के भीतर जांच पूरी करके चालान अदालत तक पहुंचाना होता है। परन्तु इस मामले में जांच को जिस तरह से लम्बा किया जा रहा है उससे यह संकेत उभरने शुरू हो गये हैं कि इस मामले में जांच परिणाम से ज्यादा राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास हो रहा है। वैसे भी भ्रष्टाचार को लेकर प्रदेश में भाजपा का आचरण कुछ अलग ही रहा है। भाजपा ने बतौर विपक्ष 2003 से 2007 के कार्यकाल में जो आरोप पत्र कांग्रेस सरकार के खिलाफ सौंपे थे उन पर सत्ता में आने के बाद कोई कारवाई नही हुई है। उन आरोप पत्रों पर भी कवेल राजनीति ही हुई थी जो अब वीरभद्र के मामले में हो रही है।
केन्द्र सरकार ने वीआईपी कल्चर समाप्त करने की दिशा में सर्वोच्च न्यायालय के 2013 में दिये गये फैसले पर अमल करते हुए लालबत्ती के प्रयोग को बन्द करने का फैसला लिया है। मोदी से पहले यह फैसला पंजाब के मुख्यमन्त्री अमरेन्द्र सिंह ने लिया। उसके बाद यू पी में योगी सरकार ने लिया। हिमाचल में परिवहन मन्त्री जी एस बाली ने 15 अप्रैल को हिमाचल दिवस के अवसर पर लालबत्ती त्यागने की घोषणा की। स्वभाविक है कि जब दो मुख्यमन्त्री और एक मन्त्री यह फैसला सार्वजनिक कर चुके थे तो मोदी जैसे व्यक्तित्व को ऐसा फैसला लेना आवश्यक था। हां मोदी के फैसले का पूरे देश पर प्रभाव पडे़गा क्योंकि सबको इस पर अमल करना पडे़गा। इसके लिये मोदी की पीठ थपथपायी जा सकती है।
लेकिन क्या अकेले लालबत्ती का प्रयोग बन्द करने मात्र से ही वीआईपी कल्चर समाप्त हो जायेगा? यह एक बड़ा सवाल है और अब इसके सारे संभव पक्षों पर विस्तार से विचार करने और फैसले लेने का वक्त आ गया है। किसी वाहन पर लालबत्ती लगी होने का अर्थ होता था कि उसे सड़क पर लगे लम्बे जाम मे भी अलग से रास्ता दे दिया जाता था। अब उसे सामान्य रूप से ही जाना होगा। लेकिन वीआईपी गाड़ी से आगे पीछे जो पुलिस की सुरक्षा गाड़ी चला करती थी जिसके कारण उसे अलग से रास्ता दे दिया जाता था यदि वह सुरक्षा गाड़ी अब भी वैसे ही साथ रहती है तो लालबत्ती न होने का कोई ज्यादा लाभ नहीं होगा। गाड़़ी पर लालबत्ती के बाद यह लालबत्ती दफ्रतर के दरवाजे पर भी रहती है। जब तक दरवाजे पर लालबत्ती जल रही है आम आदमी दफतर के भीतर बैठे नेता/मंत्री/ अधिकारी से नहीं मिल सकता। दरअसल वीआईपी कल्चर आज दफतर की प्रशासनिक संस्कृति से निकल कर एक संस्कार बन चुका है और इसका प्रयोग सामान्य नियमों/कानूनों को अगूंठा दिखाने के रूप में किया जाता है। वीआईपी का अर्थ हर समय, हर स्थान पर प्रमुखता मिलना रह गया है। यह प्रमुखता पद से जोड़ दी गयी है और लालबत्ती आदि इसके कुछ प्रत्यक्ष प्रतीक बन चुके हैं जिनका प्रयोग मात्र ही आपकी विशिष्ठता की पहचान बन जाता है और इसी कारण वीआईपी एक रक्षा संस्कार और मानसिकता बन गयी है जिसके कारण वीआईपी और आम आदमी में एक लम्बी दूरी बन गयी है। वीआईपी कल्चर के कारण ही मन्त्री अधिकारी और उनके अधीनस्थ कर्मचारी के आवास में भी दिन रात का अन्तर देखने को मिलता है जबकि आवास परिवार की आवश्यकता के अनुरूप होना चाहिए। इसी तरह वेतन भी आवश्यकता पर आधारित रहना चाहिए। पद की वरियता के कारण इन आवश्यकताओं में दिन रात का अन्तर नहीं रहना चाहिए।
आज जब लालबत्ती का प्रयोग करने की बात हो रही है तो इसी के साथ यह भी आवश्यक है कि इन वीआईपी लोगों को जो सुरक्षा व्यवस्था प्रदान की गयी है उसकी भी समीक्षा की जानी चाहिए। जब हमारे मन्त्री/अधिकारी अपने को जन सेवक कहते हैं तो उन्हे उसी जनता से खतरा क्यों है। जन सेवक तो जनता के हित के लिये काम करता है तो उसे खतरा तो तभी हो सकता है जब वो आम आदमी के हित में काम नहीं कर रहा है और उसे डर रहता है कि इसका पता आम आदमी को चल जायेगा। जब कानून की नजर में सब बराबर है तो फिर उस पर अमल भी उसी तरह का दिखना चाहिए। आज राज्यों की विधान सभाओं से लेकर संसद तक ऐसे माननीय आ चुके हैं जिन पर गंभीर अपराधिक मामले चल रहें है। कई-कई वर्षो से पहले यह मामले चल रहे है। जेलों में बैठ कर चुनाव लडे़ और जीते जा रहे हैं क्योंकि अदालतों से उनके मामलों के फैसले नही आ रहे है। जन प्रतिनिधियों के खिलाफ चल रहे आपराधिक मामलों का निपटारा एक वर्ष के भीतर करने के निर्देश सर्वोच्च न्यायालय कब का दे चुका है। आज बाबरी मस्जिद के मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले को दो वर्षांे के भीतर निपटाने के निर्देश दिये हैं बल्कि सुनवाई करने वाले जज को मामले के बीच तबादला न किया जाये यह भी निर्देश दिया है। क्या ऐसी ही समयबद्धता सभी के मामलों में नही होनी चाहिये? आपराधिक मामलें झेल रहे जिन माननीयों के फैसले सालों तक नही आ रहे है क्या वह सब वीआईपी होने के कारण नही हो रहा है?
आज सर्वोच्च न्यायालय ने आडवानी, जोशी, उमा भारती आदि के खिलाफ बाबरी मामले में आपराधिक साजिश रचने के लिये मामला चलाने के निर्देश दिये हैं लेकिन इस पर उमा भारती और विनय कटियार जैसे नेताओं की प्रतिक्रिया क्या आयी है, क्या इस तरह की प्रतिक्रिया के बाद भी इन लोगों को अपने पदों पर बने रहना चाहिए? क्या यह प्रतिक्रियाएं इनके वीआईपी होने के कारण ही नहीं आ रही है? इसलिये वीआईपी कल्चर को समाप्त करने के लिये लालबत्ती से आगे भी कदम उठाने होंगे। इस संद्धर्भ में केवल मोदी से ही ऐसे कदमों की अपेक्षा है क्योंकि मोदी ही महाजनो मेन गतः स पन्था की कहावत को चरितार्थ कर सकते हैं।
दिल्लीे विधानसभा के चुनावों में आम आदमी पार्टी ने 70 में से 67 सीटें जीतकर जो इतिहास रचा था आज वहीं एक उपचुनाव में जमानत भी न बचाकर फिर एक इतिहास रचा है। क्योंकि यह उपचुनाव भी उन्ही के विधायक द्वारा सीट खाली करने के कारण हुआ था। इससे पहले पार्टी ने पंजाब और गोवा विधानसभाओं के चुनाव हारे। इन राज्यों में भी पार्टी बड़े दावों के साथ चुनाव में उत्तरी थी। दिल्ली में पिछले चुनावों में कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पायी थी। उस गणित से आप की यह हार कोई बड़ा अर्थ नहीं रखती है। लेकिन यह गणित ‘आप’ पर लागू नही होता। क्योंकि आम आदमी पार्टी कांग्रेस और भाजपा के राजनीतिक विकल्प की उम्मीद बनकर सामने आयी थी। जनता नेे आप पर उस समय विश्वास जताया था जब
भाजपा केन्द्र में लगभग आप जैसा ही इतिहास रचकर सत्ता में आयी थी। भाजपा को मात्र तीन सीटें ही मिल पायी थी ‘आप’ की इतने कम समय में ऐसी हालत क्यों हो गयी यह पार्टी के लिये ही नहीं बल्कि पूरे देश के लिये एक गंभीर चिन्ता का विषय है। क्योंकि यह केवल ‘आप’ के ही राजनीतिक भविष्य का प्रश्न नही हैं बल्कि देश के लिये राजनीतिक विकल्प की तलाश के प्रयासों की हत्था जैसी स्थिति बन गयी है। ऐसा क्यों हुआ और इसके लिये कौन जिम्मेदार है इस पर खुले मन से विश्लेषण की आवश्यकता है।
इसको समझने के लिये थोड़ा पीछे झंाकने की आवश्यकता है। जब 1947 में देश आजाद हुआ और 1952 के आम चुनावों से पहले केन्द्र में एक प्रतिनिधि सरकार बनी थी उसी दौरान 1948 और 1949 में ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और हिन्दुस्तान समाचार न्यूज ऐजैन्सी का गठन कर लिया था। यह गठन इसका संकेत करते हैं कि संघ ने उस समय भांप लिया था कि आने वाले भविष्य में युवाशक्ति और समाचार माध्यमों की भूमिका कितनी व्यापक होने जा रही है। 1952 में हुए पहले आम चुनावों से लेकर 1962 के चुनावों तक जनसंघ को बड़ी सफलता नही मिल पायी थी लेकिन 1967 में जब कुछ राज्यों में संयुक्त विधायक दल सरकारें बनी थी तब जन संघ को सत्ता में भागीदारी मिली थी। हमारे पड़ोसी राज्य पंजाब में अकाली दल और जन संघ ने मिलकर सरकार बनायी थी। उसके बाद जब 1975 में स्व. जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में समग्र क्रांति का नारा बुलन्द हुआ और देश में आपातकाल लागू कर दिया गया था। तब उस आन्दोलन के बाद जब 1977 में आपातकाल हटते ही आम चुनाव हुए और यह चुनाव जनता पार्टी के नाम पर लडे़ गये थे तक केन्द्र में जनता पार्टी को ऐसा ही प्रचण्ड बहुमत मिला था। जनता पार्टी के गठन के लिये वाम दलों को छोड़कर शेष सारे दलों ने कागें्रस के विरोध के लिये अपने आप को जनता पार्टी में विलय कर दिया था। लेकिन 1977 में प्रचण्ड बहुमत मिलने के बावजूद 1980 में जनता पार्टीे टूट गयी, केन्द्र में सरकार गिर नये चुनाव हुए और स्व. इन्दिरा गंाधी के नेतृत्व में कांग्रेस फिर सत्ता में आ गयी। 1980 में जनता पार्टी पूर्व जन संघ के सदस्यों के जनता पार्टी और आरएसएस के एक साथ सदस्य होने पर उठे दोहरी सदस्यता के प्रश्न पर टूटी। शिमला में मुख्यमंत्री शान्ता कुमार ने केन्द्रिय स्वास्थ्य मंत्री राजनारायण को गिरफतार करके इस टूटन को मूर्त रूप दिया।
1980 के 1988 में जब स्व. वी पी सिंह ने बोफोर्स तोप सौदे पर सवाल उठाकर कांग्रेस से बाहर निकलकर जन मोर्चे का गठन किया और भ्रष्टाचार के खिलाफ जन आन्दोलन छेड़ा तब फिर उस आन्दोलन में सारे गैर कांग्रेसी दल इकट्ठे हो गये। 1989 का चुनाव जनतादल के नाम पर लड़ा गया भाजपा इस गठबन्धन में शामिल हुई। 1990 के विधानसभा चुनाव जनतादल और भाजपा ने मिलकर लड़े। वी पी सिंह ने ओबीसी को आरक्षण की घोषणा की और भाजपा एवम संघ परिवार ने इसका विरोध किया। मण्डल बनाम कमण्डल आन्दोलन आया। आरक्षण के विरोध में आत्मदाह हुए परिणामस्वरूप वीपी सिंह सरकार गिर गयी। इसकेे बाद अब फिर अन्ना आन्दोलन आया इसमें भी संघ परिवार की परोक्ष/अपरोक्ष में पूरी भूमिका रही लेकिन जैसे ही आन्दोलन सफलता तक पहुंचा और अगले राजनीतिक स्वरूप की चर्चा उठी तोे आन्दोलन बिखर गया। अन्ना किनारे हो गये असफल होकर। लेकिन केन्द्र की सत्ता भाजपा को मिल गयी और दिल्ली केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को। यह सारी पृष्ठभूमि यह स्पष्ट करती है कि जब भी कांग्रेस के खिलाफ आन्दोलन हुए उसमें संघ परिवार की भूमिका अपरोक्ष में सर्वेसर्वा की रही। लेकिन आन्दोलनों की सफलता के बाद जो भी राजनीतिक प्रतिफल सामने आये उन्हें संघ परिवार ने ज्यादा देर तक चलने नही दिया।
ऐसे में आज कांग्रेस और भाजपा का राजनीतिक विकल्प बनने का जो भी प्रयास करेगा उसे यह समझना होगा कि उसके विरोध में अब यह दोनों दल एक साथ खड़े हो जायेंगे। कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्याय प्रचारित- प्रसारित करने में एक लम्बा समय लगा है और भ्रष्टचार के कारण ही आज कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई है। कांग्रेस मुक्त भारत का नारा इसी भ्रष्टाचार पर टिका है। ऐसे में भाजपा/संघ का मुकाबला करने के लिये उन्ही के बराबर की ठोस विचारधारा का विकल्प तैयार करना होगा। आज आम आदमी पार्टी के पास ठोस विचारधारा की कमी है। उसके सगंठन में हर कहीं संघ भाजपा से जुड़े लोग मिल जायेंगे जो अन्ना आन्दोलन में शामिल रहने के कारण ‘आप’ पर अपना पहला अधिकार मानते हैं। आप नेतृत्व को इस बारे सजग रहने की आवश्यकता है। इसी के साथ यह हकीकत भी माननी होगी कि हर राज्य में दिल्ली का माॅडल लागू नही होगा क्योंकि दिल्ली केन्द्रिय राजधानी है यहां पर देश के हर कोने का व्यक्ति सक्रिय राजनीति कर सकता है। किसी भी प्रदेश का मूल निवासी यहां का विधायक/सांसद/ मन्त्री और पार्टी प्रमुख हो सकता है। लेकिन अन्य राज्यों में नही। अभी तक पार्टी अन्य राज्यों में अपनी सशक्त इकाईयां ही खड़ी नहीं कर पायी है। संयोगवश ‘आप’ का केन्द्रिय नेतृत्व अधिकांश में एनजीओ संस्कृति से जुड़ा रहा है। लेकिन राजनीतिक संगठन एनजीओ की तर्ज पर नहीं चलाया जा सकता। राज्य इकाईयों के लिये राज्यों से ही लोग तलाशने होंगे। फिर संगठन का सेाशल मीडिया के माध्यम से प्रचार प्रसार नही किया जा सकता जबकि आप के कई नेता केवल सोशल मीडिया में ही दो दो लाईनो के ब्यान से प्रदेश के नेता होने का भ्रम पाले हुए है। ऐसे में आज ‘आप’ को इस संकट के दौर में इन व्यवहारिक पक्षों को सामने रखना बहुत आवश्यक है। बहुत संभव है कि ‘आप’ को दिल्ली नगर निगम के चुनावों में हार देखनी पड़े और उसके बाद चुनाव आयोग कुछ विधायकों पर भी अपना चाबुक चला दे। इस लिये सरकार से ज्यादा इस समय संगठन को बिखरने से बचाना ज्यादा आवश्यक है क्योंकि आप का बिखरना/टूटना एक राष्ट्रीय नुकसान होगा।
पिछले दिनों मनीपुर, गोवा, उत्तराखण्ड, पंजाब और उत्तर प्रदेश की विधानसभाओं के चुनाव संपन्न हुए है। इन राज्यों में पंजाब को छोड़कर अन्य सभी राज्यों में भाजपा की सरकारें बनी है। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी को मिली करारी हार पर मायावती ने इसके लिये वोटिंग मशीनों की विश्वनीयता पर सवाल उठाते हुए इनमें मैनुपुलेशन होने का आरोप लगाया है। मायावती की पार्टी ने इस आश्य की सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका भी दायर कर दी है। मायावती के बाद आम आदमी पार्टी ने भी इसी तरह का आरोप लगाया है और चुनाव आयोग के पास अपना
प्रतिवेदन दायर किया है। इसी बीच मध्यप्रदेश के भिण्ड में एक विधानसभा चुनाव के लिये ईवीएम मशीन का एक अधिकारिक परीक्षण किया गया और इसमें यह सन्देह और पुख्ता हो गया कि मशीन में मैनुपुलेशन की जा सकती है। भिण्ड का मुद्दा राज्यसभा में उठा है। लेकिन इस पर नियम 267 के तहत चर्चा की अनुमति नहीं दी गयी। राज्यसभा में यह मुद्दा मध्यप्रदेश से ताल्लुक रखने वाले कांग्रेस सांसद दिग्विजय सिंह ने उठाया था। ईवीएम मशीन पर मैनुपुलेशन की संभावना के सवाल उठना लोकतन्त्र के लिये बहुत घातक हो सकता है। यह मामला इस समय सर्वोच्च न्यायालय के पास लंबित है। इसलिये इस पर अदालत के फैसलें का इन्तजार करना आवश्यक है।
ईवीएम मशीन पहली बार 1982 में प्रयोग के तौर पर चुनाव आयोग ने इस्तेमाल की थी उस समय इसकी वैधानिकता पर सवाल उठे और इसके लिए जनप्रतिनिधि अधिनियम 1951 में संशोधन कर धारा 61 A जोड़ी गयी इसी के साथ एक चुनाव सुधार कमेटी का आयोग ने गठन किया। इस विशेषज्ञ कमेटी ने अप्रैल 1990 में अपनी सिफारिशें आयोग को दी। इसके बाद वर्ष 2000 से इसका प्रयोग राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों और लोकसभा के 2004, 2009, और 2014 के आम चुनावों में हुआ है। लेकिन हर बार इस पर स्वाल भी उठते रहे हैं। 2001 में मद्रास उच्च न्यायालय, 2002 में केरल उच्च न्यायालय और 2004 में मुंबई, दिल्ली और कर्नाटक उच्च न्यायालय में इस संद्धर्भ में याचिकाएं आयी है। इसके बाद जुलाई 2011 में सर्वोच्च न्यायालय में राजेन्द्र सत्यनारायण गिल्डा की जनहित याचिका आयी और शीर्ष अदालत ने चुनाव आयोग को इसेs Modify करने के निर्देश दिये। इसके बाद जनवरी 2012 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने डा. सुब्रहमन्यमस्वामी की 2009 की याचिका पर फैसला सुनाते हुए कहा कि "EVM & are temper proof" डा.स्वामी इस फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में चले गये। इस पर चुनाव आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय में कहा कि VVPAT सिस्टम को लेकर ट्रायल चल रहा है और इसकी स्टे्टस रिर्पोट जनवरी 2013 में अदालत मे पेश की जायेगी। इस पर अक्तूबर 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला देते हुए कहा कि Election Commission of India will use VVPAT alongwith EVMS in a phased manner and the full completion should be achieved by 2019 इस परिदृष्य मे यह स्पष्ट हो जाता है कि ईवीएम मशीन की विश्वसनीयता पर पहले ही दिन से सवाल उठते आ रहे हैं। अदालतों ने भी हर बार इसमें सुधार की संभावनाओं को मानते हुए इसमें VVPAT सिस्टम लागू करने के निर्देश दिये है।
VVPAT सिस्टम में मशीन पर बटन दबाने के साथ ही उसकी कागज पर प्रिन्ट रिपोर्ट भी आ जायेगी और उससे वोट डालने वाले व्यक्ति को पता चल जायेगा कि जिसके लिये उसने बटन दबाया था उसी के पक्ष मे उसका वोट पड़ा है। इस सिस्टम से विश्वसनीयता पर उठने वाले सवालों को विराम मिल जायेगा। लेकिन चुनाव आयोग को इसके लिये 3174 करोड़ रूपये की आवश्यकता है चुनाव आयोग ने शीर्ष अदालत से यह कहा है कि जब सरकार यह पैसा दे देगी तो उसके बाद तीस माह के अन्दर ही इस सिस्टम को सभी जगह लागू कर पायेगा। इस समय आयोग के पास 53500 मशीने इस VVPAT सिस्टम से लैस है। अभी तक 255 विधानसभा क्षेत्रों और नौ संसदीय क्षेत्रों मेें इन मशीनों का उपयोग किया जा चुका है। आज पंजाब के चुनावों को लेकर आम आदमी पार्टी ने सवाल उठाये है। पंजाब में 117 और उत्तराखण्ड में 70 विधानसभा सीटें है। ऐसे में चुनाव आयोग इन राज्यों में बड़ी सहजता से इन VVPAT सिस्टम मशीनों का उपयोग कर सकता था क्योंकि वह 255 विधानसभा क्षेत्रों में पहले ही इनका उपयोग कर चुका है। ऐसे में आने वाले समय में जब गुजरात और हिमाचल विधानसभा के चूनाव आयेंगे तब इन राज्यों में इन मशीनों का उपयोग करके विश्वसनीयता पर उठने वाले सवालों को विराम मिल सकेगा। क्योंकि इस समय भापजा ने देश को कांग्रेस मुक्त करने का जो राजनीतिक अभियान छेड़ रखा है उसमें इस तरह के आरोप लगना स्वाभाविक है। इसमें केन्द्र सरकार को भी अपनी विश्वनीयता बनाये रखने के लिये चुनाव आयोग को इतना धन देना ही होगा। यदि अभी इतने धन का प्रावधान नही किया जाता है तो 2019 के चुनावों में भी इस सिस्टम का लागू हो पाना संदिग्ध हो जायेगा और सरकार की नीयत पर सवाल उठेंगे जो देशहित में नही होंगे।