Tuesday, 16 December 2025
Blue Red Green
Home सम्पादकीय

ShareThis for Joomla!

कालीखोपुल के नोट पर चुप्पी क्यों

शिमला/शैल। अरूणाचल के स्वर्गीय मुख्यमन्त्री कालीखो पुल ने 9 अगस्त 2016 को आत्महत्या कर ली थी। उनकी आत्महत्या के बाद उनके आवास से एक 60 पन्नों का नोट बरामद हुआ है। इस नोट के हर पन्ने पर उनके हस्ताक्षर हैं। नोट के अन्तिम पृष्ठ पर 9 अगस्त को हस्ताक्षर हुए कालीखोपुल के नोट पर चुप्पी क्यों और उसी दिन पुल्ल ने आत्महत्या की है। इसलिये उनके इस नोट को Dying declaration करार दिया जा सकता है और उनके इस ब्यान को हल्के से नज़रअन्दाज नही किया जा सकता। कालीखो पुल को सर्वोच्च न्यायालय के उस आदेश के तहत मुख्यमन्त्री पद से हटाया गया था। जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने अरूणाचल से राष्ट्रपति शासन निरस्त किया गया था। कालीखो पुल सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से इस कदर आहत हुए कि न्यायपालिका और राजनीति तथा राजनेताओं के प्रति उनकी सारी धारणा ही बदल गयी। इस धारणा के बदलने के कारण उन्होने इस फैसले की कोई अपील दलील करने की बजाये प्रदेश और देश की जनता के सामने इस सारी वस्तु स्थिति को रखने का फैसला लिया। 60 पन्नों का विस्तृत पत्र लिखा। हर पन्ने पर हस्ताक्षर किये और उसके बाद अपना जीवन समाप्त कर दिया।
इस नोट में देश की शीर्ष न्यायपालिका से लेकर विधायकों/मन्त्रियों और राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोप है। कालीखो पुल की आत्महत्या के बाद जब यह नोट बरामद हुआ और सार्वजनिक हुआ तब इस नोट पर अपनी प्रतिक्रिया में अरूणाचल के राज्यपाल राज खोवा ने इन आरोपों को गंभीर बताते हुए इसकी सीबीआई से जांच करवाये जाने की वकालत की थी। लेकिन राज्य सरकार ने ऐसा नही किया। केन्द्र सरकार और उसकी ऐजैन्सीयां भी इस बारे में खामोश रही। राज्यपाल राज खोवा ने जब इसकी सीबीआई जांच पर ज्यादा बल दिया तो केन्द्र सरकार ने राज्यपाल राज खोवा को ही हटा दिया। इस नोट में एक  मुख्यमन्त्री ने मरने से पहले जो गंभीर आरोप लगाये हैं उन्हें क्यों नज़रअन्दाज किया जा रहा है? भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी इस नोट पर क्यों चुप है? देश का कोई भी राजनीतिक दल एक मुख्यमन्त्री के इस आत्मकथ्य पर चुप क्यों है? मीडिया भी इस पर कोई सार्वजनिक बहस क्यों नही उठा रहा है?
कालीखो पुल मुख्यमन्त्री थे और इससे पहले कई सरकारों में मन्त्री रह चुके है यह उन्होने अपने नोट में कहा है। वह कांग्रेस पार्टी के सदस्य थे। कांग्रेस के कई लोगों पर उन्होने गंभीर आरोप लगाये है। लेकिन न्यायपालिका से लेकर नीचे तक जितने भी लोगों पर आरोप लगे है। वह सब इस पर खामोश क्यों है? खो का यह नोट सरकार की कार्य प्रणाली का एक आईना है। सरकारी कामकाज सब जगह एक ही जैसा है। हर राज्य में एक ही तरह की योजनाएं होती है। केन्द्र सरकार की योजनाएं भी हर राज्य के लिये एक ही जैसी रहती है। ऐसे में सरकार के कार्यक्रमों को लागू करने में सरकारी तन्त्र कैसे काम करता है उसमें कितना जनता तक पहुंचता है और कितना बीच में ही खत्म हो जाता है इसका खुलासा पुल के इस नोट में विस्तार से है। कैसे विधायक और मन्त्री बनने के बाद हमारे राजनेता एकदम अमीर बन जाते है। इस ओर पुल्ल ने ध्यान आकर्षित किया है। स्व. पुल ने अपने पत्र में सबसे बड़ा सवाल यह उठाया है कि जब कानून की किताब नही बदलती है तो फिर उस पर आधारित फैसले बार-बार क्यों बदल जाते हैं? स्व. कालीखो पुल के नोट में सर्वोच्च न्यायपालिका और देश के सर्वोच्च शासन पर गंभीर आरोप लगे हैं। स्वाभाविक है कि जब पुल्ल इस भ्रष्ट व्यवस्था से लड़ने का साहस नहीं जुटा पाये तो फिर उनके परिजन कैसे इस लड़ाई को जारी रख पायेंगे? ऐसे में देश के प्रत्येक ईमानदार संवदेनशील नागरिक को इस नोट में उठाये गये सवालों को सार्वजनिक बहस का मुद्दा बनाना होगा। पुल के उठाये गये आरोपों पर सर्वोच्च न्यायालय के शीर्ष पांच न्यायधीशों की देखरेख में एक एसआईटी गठित करके इन आरोपों की जांच की जानी चाहिये। प्रधानमन्त्री मोदी के लिये भी यह नोट एक परीक्षा पत्र है और इस पर उन्हे देश के सामने पास होकर दिखाना होगा। इस उम्मीद के साथ मैं इस पत्र को अपने पाठकांे के सामने रख रहा हूं

कहां तक जायेगा वीरभद्र और संगठन का टकराव

शिमला/शैल। 2012 के विधानसभा चुनावों से पूर्व कांग्रेस ने धूमल सरकार के खिलाफ एक विस्तृत आरोप पत्र
महामहिम राष्ट्रपति को दिल्ली में सौंपा था। इस आरोप पत्र के बाद चुनावों के दौरान कांग्रेस ने चुनाव घोषणा पत्र जारी किया था। सरकार बनने के बाद आरोप पत्र की जांच और घोषणा पत्र के वायदों को पूरा करने की जिम्मेदारी सरकार की थी। आरोप पत्र में सबसे बड़ा आरोप ‘हिमाचल आॅन सेल’ का था। सरकार बनने के बाद यह आरोप पत्र जांच के लिये विजिलैन्स को सौंप दिया गया। लेकिन विजिलैन्स ने अब तक जितने भी मुद्दों पर जांच की है उनमें एक भी मामलें में उसे सफलता नही मिली है। बल्कि विजिलैन्स की सारी जांच एचपीसीए के गिर्द ही केन्द्रित होकर रह गयी है। एचपीसीए पर ही ज्यादा ध्यान केन्द्रित होने पर जब संगठन और सरकार के कुछ वर्गो में सवाल उठे तब वीरभद्र ने आरोप पत्र से यह कहकर किनारा कर लिया था कि वह आरोप पत्र तैयार करने वाली कमेटी के सदस्य ही नहीं थे। कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र में एक सबसे बड़ा वायदा था प्रदेश के बेरोजगार युवाओं को प्रतिमाह एक हजार रूपये का बेरोगारी भत्ता देना। वीरभद्र इस वायदे को भी पूरा नही कर पाये है। इन दिनों यह बेरोजगारी भत्ता सरकार और संगठन में फिर मुद्दा बनकर उछल गया है। परिवहन मन्त्री जीएस बाली द्वारा यह मुद्दा उठाया गया है। स्मरणीय है कि बाली ने धूमल शासन के दौरान भी इस मुद्दे पर एक पद्यात्रा निकाली थी और अब फिर युवाओं का एक सम्मेलन बुलाने जा रहें हैं। प्रदेश के विभिन्न रोजगार कार्यालयों में दर्ज आंकड़ो के मुताबिक बेरोजगार युवाओं की संख्या दस लाख से भी ऊपर है। बाली की ही तर्ज पर राज्यसभा सांसद विप्लव ठाकुर ने भी इस मुद्दे पर अपनी चिन्ता मुखर की है। लेकिन वीरभद्र ने बेरोजगारी भत्ता देने के मुद्दे पर यू टर्न ले लिया है। वीरभद्र यहां तक कह गये हैं कि वह चुनाव घोषणा पत्र तैयार करने वाली कमेटी के सदस्य ही नही थे और वह इस वायदे को मानते ही नही है।
यह सही है कि आरोप पत्र तैयार करने वाली कमेटी के अध्यक्ष जीएस बाली थे और घोषणा पत्र कमेटी के अध्यक्ष आनन्द शर्मा थे। लेकिन जब आरोप पत्र सौंपा गया था तब वीरभद्र साथ थे और जब घोषण पत्र जारी किया गया था तब भी वह इसमें शामिल थे। लेकिन दोनों ही मामलों पर वीरभद्र ने जिस तरह से अपने आप को संगठन से अलग कर लिया है वह राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में एक अलग चर्चा का विषय बन गया है। संभवतः इसी कारण आनन्द शर्मा को भी एक पत्राकार वार्ता करके बेरोजगारी भत्ते पर अपना पक्ष रखना पड़ा है। लेकिन आनन्द शर्मा पूरी स्पष्टता के साथ न तो इसके पक्ष में और न ही इसके विरोध में खड़े हो पाये है। उन्होने इस पर केवल वीरभद्र से बात करने की बात की है। वह भी चुनाव घोषणा पत्र के वायदों पर हुए अमल को लेकर एक समीक्षा बैठक के दौरान। चुनावी घोषणा पत्र और उसके बाद अब तक के कार्यकाल में हुई विभिन्न घोषणाओं पर कितना अमल हुआ है इसको लेकर एक बैठक की जायेगी। जो वायदे/घोषणाएं पूरी नही हो पायी है उन पर संगठन और सरकार का रूख क्या होगा इसको लेकर कुछ नही कहा जा रहा है। क्योंकि वीरभद्र जिस तरह की कार्यशैली से काम कर रहे है उससे स्पष्ट हो जाता हैं कि इस समय सरकार के साथ -साथ वीरभद्र संगठन का भी पर्याय बनते जा रहें है।
वीरभद्र ने संगठन में हुई विभिन्न नियुक्तियों को लेकर कई बार यह स्पष्ट कर दिया है कि वह इन नियुक्तियों को कोई ज्यादा अधिमान नही देते है। जिलाध्यक्षों और ब्लाॅक अध्यक्षों को लेकर जो टिप्पणी अभी हाल ही में वीरभद्र सिंह ने की है उस पर आनन्द शर्मा का यह कहना कि इसमें भविष्य में सुधार करने की आवश्यकता है अपने में एक महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया है। आनन्द शर्मा ने वीरभद्र के संगठन के प्रति इस तरह के रिमार्कस पर कोई सीधा स्टैण्ड नही लिया है। बल्कि एक तरह से वीरभद्र का समर्थन ही किया है इसी के साथ आनन्द शर्मा ने अब तक वीरभद्र सरकार की सफलताओं/असफलताओं पर भी खुलकर कोई प्रतिक्रिया वयक्त नही की है। लेकिन कभी प्रदेश अध्यक्ष का खुलकर समर्थन भी नही किया है। वीरभद्र संगठन के काम काज से संतुष्ट नही है ऐसे संकेत वह कई बार दे चुकें है। इस चुनावी वर्ष में उनका यह प्रयास रहेगा कि संगठन की बागडोर भी उनके किसी विश्वस्त के हाथ ही रहे। इस दिशा में वह कई बार प्रयास कर भी चुके हंै। लेकिन उन्हे सफलता नही मिली है। अब आनन्द शर्मा ने अपरोक्ष में एक बार फिर वीरभद्र का समर्थन ही किया है। आनन्द केन्द्र में वरिष्ठ मंत्री रह चुके है और इस समय राज्य सभा में पार्टी के उपनेता है। इस नाते हाईकमान के विश्वस्त भी है। वीरभद्र के नाम से जब उनके समर्थकों ने ब्रिगेड का गठन कर लिया था। (जिसे बाद में भंग कर दिया गया था ) उस मुद्दे पर आनन्द ही ऐसे बडे नेता है जिनकी इस पर कोई प्रतिक्रिया नही आयी थी। अब यह बिगे्रड एक एनजीओ बन गया है और इसके अध्यक्ष ने सुक्खु के खिलाफ मानहानि का मामला दायर कर रखा है। लेकिन कांग्रेस का एक भी बड़ा नेता इस पर कुछ भी नही बोल पा रहा है। जबकि यह एनजीओ राजनीतिक संगठन की तर्ज पर ही सक्रिय है। कांग्रेस सरकार और संगठन में एक समय कौल सिंह, जीएस बाली, आशा कुमारी, राकेश कालिया और राजेश धर्माणी ने विरोध के स्वर मुखर करने का प्रयास किया था लेकिन आज जीएस बाली को छोड़कर बाकी सभी खामोश होकर बैठ चुके है। इस समय वीरभद्र सरकार और संगठन का पर्याय बनते जा रहे है क्योंकि आरोप पत्र और घोषणा पत्र से जिस लहजे में उन्होने किनारा किया है और संगठन की नियुक्तियों को स्पष्ट शब्दों में अप्रसांगिक करार दिया है उससे यह स्पष्ट हो जाता है। ऐसे में विपक्ष भी सबसे अधिक वीरभद्र को ही अपने निशाने पर रखेगा। विपक्ष का मुकाबला भी वीरभद्र को अकेले अपने ही दम पर करना पडे़गा। संगठन और सरकार में इस परिस्थिति में कौन वीरभद्र का कारगर सहारा बनेगा इसको लेकर कोई तस्वीर अब तक साफ नही है और वीरभद्र के लिये आने वाले समय में यह एक बड़ी चुनौति होगा।

आऊट सोर्स-लाखों बेरोजगारों के साथ अन्याय की तैयारी

शिमला/बलदेव शर्मा।
वीरभद्र ने आऊट सोर्स कर्मचारियों के लिये नीति बनाने की घोषणा की है। इस घोषणा के लिये तर्क दिया है कि आऊट सोर्स के माध्यम से करीब 35000 कर्मचारी सरकार के विभिन्न अदारों में तैनात है और इनके भविष्य को देखते हुए इसके लिये कोई नीति बनाई जाना आवश्यक है वीरभद्र की घोषणा पर पूर्व मुख्यमंत्री नेता प्रतिपक्ष प्रेम कुमार धूमल ने अपनी प्रतिक्रिया जारी की है। धमूल ने कहा है कि वीरभद्र यह नीति लाने के प्रति गंभीर नही हैं वह केवल इन कर्मचारियों से छलकर रहें है। धूमल ने दावा किया है कि उनकी सरकार ने मुख्य सचिव की अध्यक्षता में इस आश्य की कमेटी बनाई थी जिसे वीरभद्र ने आकर भंग कर दिया है। धूमल की प्रतिक्रिया से स्पष्ट हो जाता है कि उनके शासनकाल में भी आऊटसोर्स के माध्यम से सरकारी अदारों में कर्मचारी रखे गये थे और आज वीरभद्र शासन में भी यह प्रथा जारी है।
हिमाचल में सरकार ही रोजगार का मुख्य साधन है क्योंकि प्रदेश के निजिक्षेत्र में पंजीकृत 40 हजार छोटी बड़ी उद्योग ईकाइयों में कार्यरत कर्मचारियों की संख्या केवल 2,58000 तक ही पंहुच पायी है जबकि यह उद्योग विभिन्न पैकेजों के नाम पर कैग रिपोर्ट के मुताबिक पचास हजार करोड़ सरकार से डकार चुके हैं। सरकार में कार्यरत कर्मचारियों की संख्या इससे दो गुणा से भी अधिक है। इसलिये सरकार ही रोजगार मुख्य केन्द्र है। हमारे राजनेता इस तथ्य को जानते है और इसके लिये अपने चेहतों को चोर दरवाजे से सरकारी नौकरी देने का प्रबन्ध हर बार करते आयेे हैं। चोर दरवाजे से नौकरियों का चलन शान्ता के पहले शासन काल में शिक्षा विभाग से शुरू हुआ था जब उन्होने वाल्टिंयर अध्यापक लगाये थे। यह लोग केवल मैट्रिक पास थे जिन्हे विभाग ने काफी समय बाद अपने खर्च पर कुछ को जेबीटी करवाई और कुछ को वैसे ही ट्रेण्ड होने का प्रमाण पत्र दे दिया गया था। तब से लेकर आज तक शिक्षा विभाग में अध्यापकों के विद्याउपासक आदि कई वर्ग कार्यरत हैं। 1993 से 1998 के बीच वीरभद्र शासनकाल में चिटों पर भर्तीयों का चलन शुरू हुआ। बिना किसी प्रक्रिया के सरकारी विभागों और निगमों बोर्डो में 23969 कर्मचारी भर्ती किये गये। 1998 में धूमल ने इस पर दो जांच कमेटियां बिठाई जिनकी रिपोर्ट में यह आकंडा सामने आया। उस समय शैल ने इस पर दो जांच कमेटीयों की पूरी रिपोर्ट अपने पाठकों के सामने रखी थी उसके बाद यह मामला प्रदेश उच्च न्यायालय में भी पहुंचा था और उच्च न्यायालय ने इसका गंभीर संज्ञान लिया और एफआईआर दर्ज हुई। लेकिन बाद में विजिलैन्स ने राजनीतिक दवाब के आगे घुटने टेक दिये। उच्च न्यायालय ने भी विजिलैन्स से कोई रिपोर्ट लेने का प्रयास नही किया।
अब फिर उसी तर्ज पर आऊट सोर्स के तहत रखे गए 35 हजार कर्मचारियों के लिये नीति लायी जा रही है। कार्यपालिका में कर्मचारियों की भर्ती और उनके प्रोमोशन के लिये संविधान की धारा 309 नियम बने हुए हैं पूरा प्रावधान परिभाषित है। इन प्रावधानों की अवहेलना नही कि जा सकती। सरकार ने जो कन्ट्रैक्ट के आधार पर कर्मचारी रखें है उन्हे नियमित करने के लिये 9-9-2008 और 8-6-2009 को जो पाॅलिसी लायी गयी थी उसे प्रदेश उच्च न्यायालय अपने अप्रैल 2013 के फैसले में गैर कानूनी करार दे चुका है। कान्ट्रैक्ट पर की गयी भर्तीयों को चोर दरवाजे से की गयी नियुक्तियां करार दे चुका है। सर्वोच्च न्यायालय को नियमित के बराबर वेतन देने के भी आदेश किये है। सरकार इन आदेशों की अनुपालना नही कर पा रही है। अब आऊट सोर्स के माध्यम से रखे गये कर्मचारियो के लिये पाॅलिसी लाकर यह सरकार चिटों पर भर्ती से भी एक बड़ा कांड़ करने जा रही है। आऊट सोर्स कर्मचारियों के लियेे सरकार कोई नीति बना ही नही सकती है। क्योंकि यह कर्मचारी तो मूलतः ठेकेदार के कर्मचारी हैं और बिना किसी प्रक्रिया के रखे जाते हैं जो कि सविधान की धारा 14 और 16 का सीधा उल्लघंन है। लेकिन आऊट सोर्स के नाम पर कर्मचारी सप्लाई करने का काम कुछ प्रभावशाली नेता कर रहे हैं। आऊट सोर्स के नाम पर यह ठेकेदार प्रति कर्मचारी मोटा कमीशन खा रहे हैं जो कि अपने में ही एक बहुत बड़ा घोटाला है। अब वीरभद्र इन ठेकेदारों के दबाव के आगे प्रदेश के लाखों बेरोजगार युवाओं के साथ खिलवाड़ करने जा रहे हैं। लेकिन चुनावों को सामने रख कर एक भी राजनीतिक दल या राजनेता इस घोटाले का विरोध करने का साहस नही कर रहा है।

चुनाव सुधारों को टालना घातक होगा

 शिमला/बलदेव शर्मा  अभी कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। इन राज्यों में इस समय उत्तराखण्ड में कांग्रेस, पंजाब में अकाली -भाजपा और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी सत्ता में है। इन चुनावों में यह सभी दल फिर से चुनाव मैदान में कहीं सीधे तो कहीं गठबन्धन की शक्ल मे इनके अतिरिक्त बसपा और ‘‘आप’’ भी चुनाव में है। बसपा यूपी में पहले भी सरकार चला चुकी है और आप दिल्ली में सरकार चला रही है। भाजपा के पास इस समय केन्द्र सरकार है तो कांग्रेस के पास इससे पहले रह चुकी है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इन सभी दलों को सरकार चलाने का अनुभव है और सभी को सरकारों की वित्तिय स्थिति तथा जनता की समस्याओं और अपेक्षाओं का भी ज्ञान है। इसी के साथ यह भी एक सच है कि सभी राज्य सरकारें कर्ज के बोझ तले भी है और यह कर्ज हर वर्ष घटने की बजाये बढ़ता ही जा रहा है सभी को राज्यों के संसाधनों का भी पता है। लेकिन आज यदि इन सभी दलों के वर्तमान और पूर्व के चुनाव घोषणा पत्रों का एक निष्पक्ष आकलन किया जाये तो जो तस्वीर उभरती है वह एकदम चिन्ताजनक और निराशाजनक दिखती है। क्योंकि किसी के भी घोषणापत्र में संसाधनों का जिक्र नही है। किसी ने भी संबंधित राज्य की आर्थिक और वित्तिय स्थिति का कोई उल्लेख नही किया है। सभी ने जनता को अधिक से अधिक मुफत लाभ देने का वायदा किया है बल्कि इन घोषणापत्रों को देखकर तो यह सवाल भी उठता है कि जो वायदे इस बार किये जा रहें है क्या जनता की यह आवश्यकताएं अभी पैदा हुई है? जब यह दल सरकार चला रहे थे क्या तब जनता को इस सबकी आवश्यकता नही थी? कुल मिलाकर सभी दलों के घोषणपत्रों को प्रलोभनों का पिटारा और मतदाताओं को खरीदने का प्रयास करार दिया जा सकता हैं। कहीं भी यह नही बताया गया है कि इन वायदों को पूरा करने के लिये साधन कहां से आयेंगे? यह वायदा नहीं किया गया है कि जनता पर परोक्ष/अपरोक्ष में कोई नया टैक्स नही लगाया जायेगा और न ही सरकार पर कर्ज का बोझ डाला जायेगा। यदि ईमानदारी से आंकलन किया जाये तो सभी के घोषणापत्र आचार संहिता का उल्लघंन करार दिये जा सकते है।
लेकिन हमारा चुनाव आयोग इस बुनियादी पक्ष की ओर एकदम आंख बन्द करके बैठा हुआ है। हर बार चुनाव खर्च की सीमा बढ़ा दी जाती है और इसमें भी राजनीतिक दलों पर तो कोई सीमा है ही नही। राजनीतिक दलों की आय के स्त्रोत कितने वैध हैं और कितने अवैध इसका खुलासा सामने आ चुका है। राजनीतिक दलों की 69 प्रतिशत आय अज्ञात स्त्रोतों से है जिसे सीधे-सीधे अवैध करार दिया जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति के पास इतनी आय अज्ञात स्त्रोतांे से हो तो उसके खिलाफ आपराधिक मामला बन जाता है और सज़ा मिलती है। लेकिन राजनीतिक दलों को लेकर न्यायपालिका और चुनाव आयोग दोनों ही एकदम पंगु होकर बैठे हुए है। क्योंकि यह घोषणापत्र जनता का ऐजैन्डा न होकर इन दलों की सत्ता में वापसी सुनिश्चित करने का ऐजैन्डा होकर रह गये है। गरीबों को कुछ चीजे सस्ते में या मुफत उपलब्ध करवा कर एक निश्चित वोट बैंक को अपने पक्ष में करने का प्रयास करना स्वस्थ लोकतन्त्र का मानक नही माना जा सकता। चुनावों की यह वर्तमान व्यवस्था धीरे - धीरे अपराधियों, धनबलियों और बाहुबलियों को शासन के शीर्ष पर बैठाने का साधन होकर रह गयी है। आज राजनीतिक दल पेशेवर चुनाव प्रबन्धकों और प्रचारको के रोजगार का एक बड़ा स्त्रोत बन कर रह गये है। राजनीतिक दल कारपोरेट संस्कृृति का पर्याय बनकर रह गये हैं। कोई भी दल राजनीति में बढते अपराधीकरण को लेकर अपने घोषणापत्रों में एक शब्द तक नही कह पाया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि आज राजनीतिक दलों का एक मात्र सरोकार सत्ता में बने रहने के अतिरिक्त और कुछ नही रह गया है। ऐसे में यह सोचना पडे़गा कि यदि ही चुनावी व्यवस्था चलता रही तो निकट भविष्य में स्थितियां कहां से कहां पहुंच जायेगी।
इस परिदृश्य में यह आवश्यक हो जाता है। कि समय रहते ही चुनावी व्यवस्था और इससे वांच्छित सुधारों को लेकर एक सर्वाजनिक बहस शुरू की जायेे। राजनीतिक दलों और जनता के बीच एक सशक्त संवाद कैसे स्थापित हो सकता है। इसके लिये कौन सा मंच कारगर हो सकता है? इस पर विचार किये जाने की आवश्यकता है। चुनाव को धनबल और बाहुबल से कैसे मुक्त रखा जाये? क्योंकि इस वक्त जिस तरह का चुनाव प्रचार किया जा रहा है उसमें तो जनता को सोचने विचारने का समय ही नहीं मिल पाता है। आज की व्यवस्था में राजनीतिक दल और राजनेता को सुनने की व्यवस्था तो है। परन्तु उसे सुनाने और उससे पूछने की कोई तय व्यवस्था नही है। आज माॅडल आचार संहिता तो है परन्तु उसकी अवहेलना पर दण्डनीय अपराध दर्ज हो पाने का प्रावधान नही है इस पर केवल चुनाव परिणाम के बाद चुनाव याचिका दायर करने का ही प्रावधान है। इसलिये आज आवश्वकता है कि जनता और रानीतिक दल तथा राजनेता के बीच अधिकाधिक संवाद की व्यवस्था सुनिश्चित की जाये। क्योंकि सैद्धान्तिक रूप से तो चुनाव प्रचार का अर्थ ही मतदाताओं के साथ सार्थक संवाद की स्थापना है और यह संवाद लगभग बिना किसी बड़े खर्च से स्थापित किया जा सकता है। इसके लियेे सरकार, चुनाव आयोग और न्यायपालिका तीनों को अपने- अपने स्तर पर प्रभावी कदम उठाने की आवश्यकता है। यदि समय रहते यह न हो पाया तो बहुत संभव है कि जनता स्वयं को ऐसा कुछ करने पर आ जाये जो अराजकता की सीमा तक जा पहुंचें।

दूसरी राजधानी की आवश्कता

शिमला/बलदेव शर्मा

मुख्यमन्त्री सिंह वीरभद्र सिंह ने धर्मशाला को दो माह के लिये प्रदेश की शीतकालीन राजधानी बनाने का ब्यान दिया है। मुख्यमंत्री का यह ब्यान हकीकत में बदल पाता है या नहीं यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। क्योंकि 2017 चुनावी वर्ष है और चुनावों के नाम पर राजनेता हर कुछ ब्यान देते हैं जिनका हकीकत से कोई वास्ता नही होता है। वीरभद्र सिंह ने भी यह ब्यान मन्त्रीमण्डल की बैठक के बाद दिया है और यह स्पष्ट नहीं किया है कि क्या इस पर मन्त्री परिषद में कोई विचार हुआ है या नही। क्योंकि यदि

ऐसा होना है तो इस पर मन्त्री परिषद में फैसला लिया जाना आवश्यक है। वीरभद्र अपने इस ब्यान पर कितने गंभीर हैं यह तो वही जानते हैं। लेकिन उनके इस ब्यान पर एक सार्वजनिक बहस की आवयकता है।
इस समय शिमला प्रदेश की राजधानी है और अंग्रेजी हकूमत ने जब शिमला बसाया था उस समय उनके दिमाग में इसे राजधानी नगर नही बल्कि एक पर्यटक स्थल बनाने का नक्शा था। एक पर्यटक स्थल के हिसाब से ही यहां के लिये बिजली पानी जैसी बुनियादी आवश्यकताओं का ढ़ाचा तैयार किया गया था। लेकिन जब से शिमला को एक नियमित रूप से राजधानी नगर बनाया गया है। तब से लेकर आज तक शिमला का जितना प्रसार हुआ उसके मुताबिक आज यहां की आवश्यक सेवाओं का सारा प्रबन्धन बुरी तरह से चरमरा गया है। इस बार की बर्फबारी ने इसका तल्ख अहसास भी करवा दिया है। इस वर्ष बर्फबारी में आवश्यक सेवाओं के तहस-नहस हो जाने के कारण हर प्रभावित व्यक्ति ने प्रशासन और शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व को कोसा है। बहुत संभव है कि इस स्थिति की व्यवहारिक गंभीरता को स्वीकारते हुए ही वीरभद्र ने यह ब्यान दिया हो। क्योंकि राजधानी नगर में जो भी होगा उसमें हर वर्ष नये निमार्ण होगें ही और उनके लिये आवश्यक सेवाओं का प्रबन्धन भी अनिवार्यता रहेगी ही। परन्तु आज शिमला नये निमार्णों और प्रबन्धनों का बोझ उठा पाने के लिये सक्षम नही रह गया है। आज शिमला के आधे से ज्यादा हिस्से में हर घर तक एेंबुलैन्स और फॉयर टैण्डर नहीं पहुंच पाता है। पार्किंग की समस्या इतनी विकराल हो चुकी है कि नयी गाड़ी खरीदने से पहले पार्किंग की उपलब्धता का प्रमाणपत्र देना होगा। इसके बिना नयी गाड़ी के पंजीकरण पर रोक है। शिमला में एक लम्बे अरसे से अवैध निर्माण होते आ रहे हैं जिनके लिये नौ बार रिरटैन्शन पॉलिसियां लायी गयी हैं। अब तो अवैध निमार्णों का प्रदेश उच्च न्यायालय तक ने कड़ा संज्ञान लिया है और अवैधता के लिये जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कारवाई करने तक निर्देश दे रखे हैं।
इस परिदृश्य में आज यदि निष्पक्षता से आकलन किया जाये तो व्यवहारिक रूप से शिमला को आगे लम्बे अरसे तक राजधानी बनाये रखना संभव नही होगा। इस समय शिमला स्मार्ट सिटी बनाने की कवायद की जा रही है। भारत सरकार भी इसके लिये खुला आर्थिक सहयोग दे रही है। स्मार्ट सिटी की अवधारणा पुराने शहरों पर लागू नही होती है। इस अवधारणा के तहत नया ही शहर बसाया जाना होता है। क्योंकि स्मार्ट सिटी के लिये हर घर तक सीवरेज ऐन्बुलैन्स और फायर टैण्डर का पहुंचना आवश्यक है। इसी के साथ हर घर की अपनी पार्किंग होनी चाहिये। इन बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता के बाद शिक्षा, स्वास्थ्य और शॉपिंग कम्पलैक्स आदि आते हैं। आज शिमला के हर घर को यह सुविधाएं उपलब्ध होना व्यवहारिक रूप से ही संभव नही है चाहे इसके लिये जितना भी निवेश क्यों न कर लिया जाये।
ऐसे में जब आज स्मार्ट सिटी बनाई जानी है तो उसके लिये यह बहुत आवश्यक और व्यवाहारिक होगा कि प्रदेश के किसी केन्द्रिय स्थल पर स्मार्ट सिटी की अवधारणा पर एक राजधानी नगर ही बसाने का प्रयास किया जाये। क्योंकि शिमला में बर्फ के मौसम में करीब तीन महीने और बरसात में दो महीने के लिये सामान्य जनजीवन में बाधा आती ही है। इससे पूरा शासन और प्रशासन प्रभावित होता है। आज शिमला में आवश्यक सेवाओं को मैन्टेन करने के लिये ही प्रतिवर्ष सैकड़ों करोड़ खर्च हो रहे हैं जो कि पूरी तरह से अनुत्पादिक खर्चा है। इसलिये आज सारे
दूसरी राजधानी की आवश्कता
राजनीतिक और उनके नेतृत्व को दलगत हितों से ऊपर उठकर इस पर विचार करना चाहिये। मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने चाहे जिस भी मंशा से सर्दीयों के दो माह के लिये धर्मशाला शीतकालीन राजधानी बनाने की बात की हो लेकिन उसमें अपरोक्ष में यह स्वीकार्यता तो है ही कि शीतकाल के लिये राजधानी के रूप में शिमला सक्षम नहीं रह गया है। धर्मशाला में जब विधानसभा भवन बनाया गया था तब उसके पीछे शुद्ध रूप से राजनीतिक स्वार्थ रहे हैं अन्यथा जिस भवन का वर्ष में इस्तेमाल ही एक सप्ताह भर होना है उसके लिये इतना बड़ा निवेश किया जाना कतई जायज नही ठहराया जा सकता वह भी तब जब सरकार को हर वर्ष एक हजार करोड़ से अधिक का कर्ज लेना पड़ रहा हो। इसलिये मेरा सुझाव है कि अब जब स्वंय वीरभद्र सिंह ने यह बात छेड़ दी है तो उसे आगे बढ़ाने के लिये सबको आगे आना चाहिये। अन्यथा आने वाली पीढीयां वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व को बराबर कोसती रहेंगी।

Facebook



  Search