Thursday, 18 September 2025
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नोटबंदी-नीयत और नीति सवालों में

शिमला। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नोटंबदी का फैसला क्या एक ऐतिहासिक भूल बनकर ही तो नहीं रह जायेगा अब यह सवाल उभरने लग पड़ा है। क्योंकि नोटबंदी से कालेधन पर अंकुश लगाने और कालेधन के सहारे चल रही समानान्तर अर्थव्यवस्था को समाप्त करने का दावा और वायदा देश से किया गया था। लेकिन जैसे-जैसे इस फैसले के बाद भी कालाधन घोषित करने की समय सीमाएं बढ़ाई जा रही हैं और उन्हें 50% टैक्स देकर अपना शेष धन वैध बनाने का अवसर दिया जा रहा है उससे इस फैसले की नीयत और नीति दोनों पर ही सन्देह होने जा रहा है। क्योंकि नोटबंदी से पहले यह स्थिति जग जाहिर हो चुकी थी कि हमारे की बैंक घाटे में चल रहे हैं। देश के 55 लोगों के पास 85 हजार करोड़ कर्ज होने का आंकड़ा भी सामने आ चुका था। बैंको का एनपीए बढ़ता जा रहा था। संभवतः इसी वस्तुस्थिति को सामने रखकर रिर्जव बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने बड़े लोगों को दिये जा रहे बढे़ कर्जो पर चिन्ता जताते हुए उनका विरोध किया था। गरीब को दस रूपये की सबसिडि देकर बडे़ घरानों को लाखों करोड़ के पैकेज देना खुली बहस का मुद्दा बन चुका था। आम आदमी इस स्थिति पर मुखर होने लग पड़ा था क्योंकि इसी के कारण मंहगाई लगातार बढ़ती जा रही थी। लोकसभा चुनावों से पहले इस कालेधन को लेकर बड़े-बडे़ दावे और वायदे किये गये थे।
इस परिदृश्य में यह स्वाभाविक था कि यदि इन दावों वायदों को अमली जामा देना है तो उसके लिये कर प्रणाली को सरल करना होगा और इस दिशा में जीएसटी को लाया गया। लेकिन अकेले जीएसटी से ही पूरी स्थिति में सुधार नही हो सकता था इसके लिये कुछ और भी चाहिये था जो कि नोटबंदी के ऐलान के रूप में सामने आया। आम आदमी इस फैसले से इसलिये खुश हुआ कि उसके पास 500 और 1000 के इतने नोट नहीं है जो अवैध करार दिये जाने के दायरे में आयेंगे क्योंकि उसने कोई टैक्स चोरी नही की है। इसलिये यही आम आदमी पुराने नोट बदलवाने के लिये बैकों के आगे लाईने लगाकर खड़ा हुआ। जबकि कोई भी कर चोर इन लाईनों में नही देखा गया क्योंकि जब सरकार ने सरकार को दिये जाने वाले सारे बिलों के भुगतान में पुराने नोटों की सुविधा दे दी तो इसका लाभ बहुत स्थानों पर कालेधन वालों ने उठाया। पैट्रोल पम्पों पर यह सुविधा दी गयी और वहां भी चार दिन में ही इतनी सेल दिखा दी गयी जो शायद दो वर्षो में भी न हुई हो। ऐसे पैट्रोल पम्प मालिकों को ईडी के नोटिस आना इसका प्रमाण है। सरकारी परिवहन सेवाओं को भी इसके लिये इस्तेमाल किया गया। कुल मिलाकर आम आदमी को राहत देने के लिये जो भी कदम उठाये गये उनका दुरूपयोग हुआ है। संभवतःइसी दुरूपयोग का परिणाम है कि कालाधन रखने वालों को इसकी घोषणा का फिर मौका दिया जा रहा है।
कंरसी की व्यवस्था की जिम्मेदारी रिजर्व बैंक की है। रिजर्व बैंक उतने ही नोट छापता है जितना उसके पास रिजर्व में सोना उपलब्ध रहता है। सोना ही अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में हमारी मुद्रा का आधार होता है। स्मरणीय है कि इसी आधार को बनाये रखने के लिये स्वर्गीय चन्द्र शेखर के शासनकाल में सोना गिरवी रखना पडा था। इस उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि कंरसी का मूल आधार सोना रहता है। ऐसे में रिजर्व बैंक ने जितने भी नोट छापकर बाजार में भेजे हैं उनका अनुपातः सुरक्षित भण्डार सोने के रूप में उसके पास मौजूद है। ऐसे में यदि उसके छापे हुए 500 और 1000 के नोटों का चलन बन्द कर दिया गया तो उतना स्वर्ण भण्डार तो उसके पास है ही। आरबीआई के पास यह आंकड़ा भी हर समय उपलब्ध रहता है कि कितने नोट विभिन्न बैंको के पास हैं और कितने बैंको से निकलकर खुले बाजार में पहुंच चुके हैं। इस परिदृश्य में जब यह नोटबंद किये गये और उन्हे नये नोटों के साथ बदलने की सुविधा दी गयी तो इसके लिये एक अनुपात में पूर्व व्यवस्था की जा सकती थी जो नही की गयी। हर आदमी काला धन रखने का दोषी नहीं है इसलिये उसे नोट बदलने के लिये जायज़ समय मिलना चाहिये था जो मिला भी। तय समय सीमा के बाद नोट बदलने का काम पूरी तरह बन्द हो जाना चाहिये था। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कुल कितने पुराने नोट वापिस आये और कितने नही आये। जो नोट वापिस नहीं आते उससे सरकार का, आरबीआई का तो कोई नुकसान नही होता। नुकसान तो केवल नोट रखने वाले का होता। जब पुराना नोट चाहे वह किसी के पास चलना ही नही है तो उसकी गिनती किस अर्थव्यवस्था में कि जा सकती है। कालेधन से जो संपति खड़ी की गयी है वह तो बनी ही रहेगी उसकी जांच पड़ताल कभी भी की जा सकती है। लेकिन जेब में रखा हुआ पुराना नोट तो चलन बन्द होने के बाद महज कागज का टुकडा मात्र है। आरबीआई इन पुराने नोटों को रिसाईकिल करवा कर केवल करंसी पेपर ही ले सकता है इससे अधिक कुछ नही। ऐसे में अब कालेधन वालों को टैक्स छूट देकर और समय देना सरकार की नीयत और नीति दोनों के लिये घातक होगा।

नोटबंदी से मंहगाई क्यों

शिमला/शैल। प्रधानमंत्री के नोटबंदी फैसले के बाद अब आटा, दाल आदि की कीमतों में बढ़ौत्तरी के समाचार आने लग पड़े  हैं। नोटबंदी से मंहगाई का बढ़ना एक खतरनाक संकेत है क्योंकि इन दोनों का आपस में कोई सीधा संबद्ध नही है। मंहगाई के लिये केवल थोक में काम करने वाला बड़ा व्यापारीे ही जिम्मेदार होता है जो कि बाजार से ची उठाकर स्टोर लेता है और फिर उसकी कालाबाजारी करता है जब नोटबंदी के फैसले की घोषणा हुई थी उसके बाद इसी काले बाजार ने देश के कुछ भागों में नमक की कमी की अफवाह फैला दी और नमक को लेकर अफरातफरी मची। नमक की कमी की अफवाह फैलाने वालों के खिलाफ जब कोई कारवाई नहीं हुई तब इन्ही लोगों ने अब दैनिक जरूरत के आटा दाल आदि की कीमतें बढ़ा दी हैं 
प्रधानमन्त्री ने कालेधन का कारोबार करने वालों के खिलाफ यह नोटबंदी का कदम उठाया है। देश के गरीब और मध्यम वर्ग ने प्रधान मन्त्री को इस पर खुलकर समर्थन दिया है। प्रधानमंत्री ने देश से पचास दिन का समय मांगा था। लेकिन इन काला बाजारीयों ने पन्द्रह दिन में ही प्रधान मन्त्री को चुनौती दे दी है। उन्होने दैनिक जरूरत की चीजों के दाम बढ़ाकर फिर से दो गुणा कालाधन जमा करने का रास्ता अपना लिया है। दैनिक खाद्य सामग्री की कीमतें बढ़ना एक घातक संकेत है और आने वाले दिनों में इसके परिणाम भयानक हो सकते है। नोटबंदी से तो इन काला बाजारीयों की कमर टूट जानी चाहिए थी लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। इस मंहगाई से यह स्पष्ट हो गया है कि नोटबंदी का इन जमाखोरों पर कोई असर नही हुआ है। उल्टे आम आदमी की जमा पूंजी भी इस फैंसले से बैकों के पास जमा हो गई और बदले में उसे अपने ही पैसे जरूरत के मुताबिक वापिस बैंक से नहीं मिल रहें है। पैसों के लिये बैंको के आगे लगी लम्बी लाईनों में देश के 74 आदमी अपनी जान गंवा चुके है। आखिर इन मौतों के लिये किसी को तो जिम्मेदार ठहराना होगा। सरकार ने बार -बार कहा कि सरकारी और प्राईवेट अस्पतालों में ईलाज के लिये पुराने नोट स्वीकार किये जायें। लेकिन सरकार के इस दावे की हवा केन्द्रिय मंत्री डी वी गौड़ा के साथ एक प्राईवेट अस्पताल में हुए व्यवहार से निकल जाती है। मन्त्री ने अपने मृतक भाई के ईलाज का भुगतान जब पुराने नोटों से करना चाहा तो अस्पताल ने पुराने नोट लेने से इन्कार कर दिया। ऐसे सैंकडों किस्से हैं।
कालेधन के खिलाफ नोटबंदी एक सराहनीय और सही फैंसला है और इस पर प्रधानमंत्री का सहयोग किया जाना चाहिए यह मेरा पहले दिन से ही मानना है लेकिन इस फैंसले का परिणाम यदि गरीब आदमी को मंहगाई के रूप में मिलता है तो इस फैसले का समर्थन करना कठिन होगा। इस फैंसले से हर घर और हर व्यक्ति सीधे प्रभावित हुआ है। ऐसा ही आपातकाल के दौरान हुआ था। जमाखोरों और काला बाजारीयों को जेल देखनी पड़ी थी। दफ्रतरों में लोग एक समय पर आने शुरू हो गये थे। रिश्वत पर अकुंश लग गया था। आपातकाल का विरोध तब भी राजनीतिक कारणों से हुआ था। लेकिन उस दौरान जब परिवार नियोजन के नाम पर जन संख्या कम करने के लिये नसबंदी कार्यक्रम शुरू हुआ तो उसमें आकंडो की होड में पात्र-अपात्र की परख किये बिना नसबंदी आप्रेशन शुरू हो गये। इन आप्रेशनों से हर घर प्रभावित हो गया। आपातकाल का और कोई ऐसा फैंसला नही रहा है जिससे आम आदमी प्रभावित और डरा हो। लेकिन एक नसबंदी के फैंसले पर हुए अमल ने आपातकाल के सारे अच्छे पक्षों को पीछे छोड़ दिया और 1977 में कांग्रेस पूरे देश से सत्ता से बाहर हो गयी। आज नोटबंदी का फैंसला ठीक नसबंदी जैसा ही फैंसला है और इसके परिणाम भी वैसे ही होने की आशंका मंहगाई से उभरने लग पड़ी है। यदि इसे अभी सख्ती से न रोका गया तो फिर सर्वोच्च न्यायालय की दंगे भड़कने की आशंका सही साबित हो जायेगी।

नोट बंदी से संकट क्यों

शिमला/शैल। प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी ने काले धन के खिलाफ एक बड़ा कदम उठाते हूए आठ नवम्बर रात बारह बजे से 500 और 1000 के नोटों के चलन पर रोक लगा दिये जाने का ऐलान किया। इस ऐलान के साथ ही इन पुराने नोटों को बदलने के लिये तीस दिसम्बर तक का समय दिया। पूराने नोटों के स्थान पर 2000 का नया नोट पहले चरण में जारी किया गया। नये नोटों में 500 और 1000 के भी नये नोट जारी किये जायेंगे और कब किये जायेंगे इसको लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है। प्रधानमन्त्री ने इस फैसले से होने वाली व्यवहारिक असुविधा के सामान्य होने के लिये पचास दिन का समय मांगा है। फैसला लागू होने के बाद जिस तरह की व्यहवहारिक असुविधा सामने आयी है उससे यह सवाल अवश्य उठता है कि प्रशासनिक स्तर पर इस फैसले की व्यापकता और व्यवहारिकता दोनां का ही आकलन करने में भारी चूक हुई है। यह आकलन उस तन्त्र को करना था जिन्हें इतने बड़े फैसला की प्रक्रिया में शामिल किया गया होगा। इस फैसले के सकारात्मक परिणाम कब, क्या और कितने आयेंगे यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन इस समय इससे व्यवहारिक अराजकता फैलती जा रही है इसमें कोई दो राय नही है।
काला धन एक भयानक समस्या ही नही बल्कि अन्य समस्याओं मंहगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार का भी स्त्रोत है यह सब जानते और मानते हैं। इसी कालेधन के सहारे नशा खोरी और आंतकवाद पनपता फैलता है जिसका सबसे बड़ा शिकार आम आदमी होता है। इसीलिये आम असुविधा सहते हुए भी इस फैसले का स्वागत कर रहा है और प्रधान मन्त्री को पचास दिन का समय देने के लिये तैयार है। आज इस फैसले का विरोध आम आदमी की असुविधा के नाम पर वह राजनीतिक वर्ग कर रहा है जिसका अधिकांश काम कालेधन के बिना नही चलता है। आज नोट बदलवाने के लिये यह बैंक से अपने ही खाते से पैसा निकलवाने के लिये लग रही लाईनों में कहीं से भी ऐसी कोई खबर नही आयी है कि कहीं कोई मन्त्री, सांसद विधायक, बड़ा नौकरशाह या बड़ा व्यापारी ऐसी लाईन में देखा गया हो। जबकि कालाधन सबसे पहले इसी वर्ग के पास आता है। क्योंकि सरकार में कोई भी बड़ा-छोटा फैसला इसी वर्ग के हाथों से होकर निकलता है और घूसखोरी का पहला कदम यहीं से शुरू होता है। इसी घूसखोरी का पैसा आगे चलकर कालेधन की शक्ल लेकर बाजार में निवेश होता है। आज पंचायत सदस्य से लेकर सांसद तक सबका चुनाव इसी कालेधन के सहारे हो रहा है। चुनाव खर्च की सीमा जिस अनुपात में बढती आयी है उसी अनुपात में कालाधन बढ़ा है। आज चुनावों के लिये राजनीतिक दलों की खर्च सीमा पर कोई पाबन्दी नही है। राजनीतिक दलों के लिये खर्च की कोई सीमा न होना तथा चुनाव खर्च का लगातार बढ़ता जाना ही भ्रष्टाचार और कालेधन की बाध्यता बनता है और हमाम में सारे छोटे बड़े राजनीतिक दल बराबर के नगें है।
इसलिये आज काले धन पर हुई चोट से जो वर्ग आहत है वह आगे चलकर इस फैसले को पलटने के लिये और इसे असफल प्रमाणित करने के लिये किसी भी हद तक जा सकता है इस संभावना को ध्यान में रखना होगा। आज काले धन के खिलाफ उठे इस कदम की जो मध्यम वर्ग हिमायत कर रहा है देश में बहुत मत उसका है। उसको साथ रखने के लिये आवश्यक है कि इस फैसले के सीधे लाभ उसे प्रत्यक्ष मिलें। इसके लिये यदि उसके किचन का खर्च उसके बच्चों की पढ़ाई का खर्च और अस्पताल में उसके ईलाज का खर्च आधा रह जाता है तभी वह इस फैसले के साथ इतनी असुविधा सहने के बाद भी खड़ा रहेगा। यदि आज इस कालेधन के बाहर आने से उद्योगपतियों को दिये ट्टणों के कारण बीमार पडे बैंको को ही राहत दी जाती है तो इस फैसले का समर्थन आम आदमी ज्यादा देर तक नही कर पायेगा। बल्कि वह इसके आक्रमक विरोध में खड़ा हो जायेगा। इस फैसले से हो रही व्यवहारिक असुविधा को दूर करने के लिये 2000 के नोट के साथ ही पांच सौ और हजार के नोट जारी करना आवश्यक हो जायेगा। क्योंकि बाकी के खुले पैसे मिलने में व्यवहारिक कठिनाई आती है। क्योंकि पुराने बंद किये गये नोट पहले ही कुल कंरसी का 86% थे तो उन्हे बदलने के लिये भी उसी मूल्य पांच सौ और एक हजार के 86% नोट ही उपलब्ध करवाने होंगे। क्योकि पांच, दस, बीस और सौ के नोट तो पहले ही केवल 14% थे। इसलिये 14% से 86% नही बदले जा सकते यह सामान्य सी समझ की बात है। लेकिन लगता है कि इस फैसले को अमली शक्ल देने के लिये जिम्मेदार तन्त्र ने इस व्यवहारिकता को ही नजर अन्दाज कर दिया और इसी के कारण यह संकट खडा हो रहा है।

प्रशंसा और सहयोग के हकदार है मोदी

प्रधानमन्त्री मोदी ने एक साहसिक फैंसला लेकर एक हजार और पांच सौ के नोटों की कानूनी वैधता समाप्त किया जाने की घोषणा करके काले धन के खिलाफ एक एक प्रभावी कदम उठाया है। इसके लिये मोदी और उनकी टीम बधाई की पात्र है। इस फैंसले के लिये देश की जनता उन्हे लम्बे समय तक याद रखेगी इसमें कोई दो राय नही हो सकती क्योंकि देश के अन्दर एक लम्बे वक्त से काले धन को लेकर बहस चली आ रही थी। कई बार काले धन के आंकडे उछाले जाते रहे हैं। स्वामी रामदेव ने काले धन को लेकर आन्दोलन तक छेड़ने का प्रयास किया था। 2014 के लोक सभा चुनावों से पूर्व मोदी ने वायदा किया था कि यदि वह सत्ता में आते है तो सौ दिन के भीतर देश के बाहर रखे गये धन को वापिस लाया जायेगा। इस धन के वापिस आने से प्रत्येक भारतीय के खाते में पन्द्रह लाख आने का दावा किया था। लेकिन इस वायदे को पूरा करना आसान नहीं था। विदेशों से काला धन वापिस लाने के लिये एक लम्बी और जटिल कानूनी प्रक्रिया वांछित थी। इस पक्रिया पर यू पी ए सरकार के समय में भी कदम उठाये गये थे अब वित्त मन्त्री अरूण जेटली ने इस प्रक्रिया को और आगे बढ़ाया है और कई देशों से इस संबंध में समझौते भी हस्ताक्षरित हो चुके हैं। लेकिन इस प्रक्रिया के तहत वांछित परिणाम आने में समय लगना स्वभाविक है। इस समय लगने की सच्चाई को जानने समझने के बावजूद प्रत्येक भारतीय के खाते में 15 लाख आने के दावे वायदे को मोदी सरकार की आलोचना और असफलता का हथियार बनाया गया।
जहां एक और काला धन समस्या थी वहीं दूसरी और बढ़ती आंतकवादी घटनाएं चिंता का विषय बनती जा रही थी इस पर भी मोदी की आलोचना होनी शुरू हो गयी थी। सवाल किये जाने लगे थे कि 56 इंच का सीना अब कहां है इसका जवाब भी मोदी ने आतंकी बेस कैंपो पर सर्जिकल स्ट्राइक के माध्यम से दिया। भले ही वन रैंक वन पैंशन का मुद्दा अभी पूरी तरह हल नहीं हो पाया है और पूर्व सैनिक रामकिशन की आत्महत्या के बाद इस पर राजनैतिक बवाल भी खड़ा हो गया है। लेकिन सर्जिकल स्ट्राइक और वन रैंक वन पैंशन को अलग - अलग करके देखना होगा। इसलिए हजार और पांच सौ के नोटों की कानूनी वैधता समाप्त करना तथा सर्जिकल स्ट्राइक पर मोदी प्रशंसा और सहयोग के हकदार हैं।
काला धन जितना देश के बाहर है उससे कहीं अधिक देश के भीतर हैं आज रियल इस्टेट और गोल्ड मार्किट में काला धन स्पष्ट देखा जा सकता है। क्योंकि कोई भी बिल्डर प्लैट/मकान /प्लाट की घोषित कीमत की सारी अदायगी चैक से नहीें लेता है और जो अदायगी चैक से नही होती है वह काला धन है। सारी घूसखोरी कालाधन है। सारा चुनाव काले धन के सिर पर लड़ा जाता है। ठेकेदारी में काले धन की बड़ी भूमिका है। कुल मिलाकर आज कालाधन दैनिक क्रिया का एक अभिन्न अंग बन गया है। आंतकवाद काले धन के बिना एक दिन नहीं टिक सकता। नशे का सारा कारोबार कालेधन का ही पर्याय है। कोई भी गैर कानूनी काम काले धन के बिना नहीं चल सकता। बेरोजगारी, मंहगाई और आंतकवाद तथा भ्रष्टाचार का आधार यह काला धन ही है। इस काले धन से निपटने के लिये करंसी में इस तरह का फैंसला लिये जाने के अतिरिक्त और कोई कारगार विकल्प ही नही। क्योंकि कोई भी धन तभी काला धन बनता है जब उसका स्त्रोत वैध न हो। ऐसे धन का सबसे ज्यादा बेनामी संपत्तियों में होता है। मोदी सरकार ने इसी वर्ष कालेधन और बेनामी संपत्तियों को वैध करने के लिये आयकर विभाग के माध्यम से मुहिम चलाई। अब इस योजना के समाप्त होते ही हजार और पांच सौ के नोटों का चलन रोक दिया। सरकार के इन दोनो कदमों के एक साथ आने से सरकार की नीयत पर सन्देह करने का कोई कारण नहीं रह जाता है। हर आदमी सरकार के इस कदम की सराहना कर रहा है। भले ही उसे पहले दिनों व्यवहारिक कठिनाईयों का सामना करना पड़ेगा। इस कदम के बाद चुनावों को भी कालेधन से मुक्त किये जाने की योजना आनी चाहिए। यदि चुनाव कालेधन से मुक्त हो जाये तो लगभग सारी समस्याएं समाप्त हो जायेंगी यह तय है।

लोकतन्त्र में यह नहीं होता

शिमला/शैल। केन्द्र सरकार ने ‘वन रैंक वन पैन्शन’ योजना जिस ढंग से लागू की है उससे देश के पूर्व सैनिक पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं है। इसके लिये उन्होंने अपना आन्दोलन फिर से तेज कर दिया है। वह फिर से जन्तर-मन्तर पर धरने प्रदर्शन पर बैठ गये हैं। इस योजना के लागू करने मे क्या त्राटियां है। इसको लेकर सरकार और पूर्व सैनिकों में मतभेद हो सकते हैं। प्रशासनिक तन्त्र के सामने भी इस संद्धर्भ में कई तरह की समस्याएं हो सकती हैं। जिन्हें सुलझाने में समय लग सकता है। लेकिन यह तो पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है कि अभी तक सारे पूर्व सैनिकों को पैन्शन के बकाये की पहली किश्त भी नहीं मिल सकी है। जिस पूर्व सैनिक राम किश्न ग्रेवाल ने इस पर आत्महत्या कर ली उसे भी पहली किश्त तक नही मिल पायी है। आज पूर्व सैनिकों की तर्ज पर अर्धसैनिक बल भी अपने लिये उन्ही के समान सारे लाभ मिलने की मांग लेकर आ गये हैं। हो सकता है कल कोई और वर्ग भी ऐसी ही मांग लेकर सामने आ जाये। पूर्व सैनिक पिछले तीन दशकों से भी अधिक समय वन रैक वन पैन्शन की मांग करते आ रहे हैं। बल्कि इसी मांग के कारण पूर्व सैनिकों को सेना से वापसी के बाद सिविल में भी नौकरीपाने का प्रावधान किया गया और इस नौकरी मे सेना में की हुई नौकरी को भी वरियता के लिये शामिल कर लिया गया। आज इस नौकरी पाने और वरियता भी कायम रहने के सरकार के दोहरे लाभ के नियम को सर्वोच्च न्यायालय ने पलट दिया है। लेकिन सरकार पूर्व सैनिकों के प्रति सदैव संवेदनशील और गंभीर रही है इसमें भी कोई दो राय नही है।
परन्तु आज जो पूर्व सैनिक सन्तुष्ट नही हैं इसके लिये लोकसभा चुनावों से पहले उनसे किया गया वायदा है। यह वायदा भी स्वयं प्रधानमंत्री ने किया है। भले ही वह उस समय प्रधानमंत्री नही थे लेकिन आज प्रधान मन्त्री हैं इसलिये चुनावों से पूर्व किये गये हर वायदे को तय समय के भीतर पूरा करने की जिम्मेदारी भी उन्ही की है। फिर वह रह मंच पर यह दावा भी करते आ रहे हैं कि उन्होने वन रैंक वन पैन्शन योजना को पूरी तरह लागू कर दिया है जबकि पूर्व सैनिकों का एक बड़ा वर्ग आज भी इसके लिये आन्दोलन की राह पर है। ऐसे लोकतांत्रिक व्यवस्था में यदि आपके राजनीतिक विरोधीयों को आपके दावों में कहीं भी कोई भी अपवाद सामने मिलता है तो उस पर विरोध के स्वर तो मुखर होंगे ही। आज रामकिशन ग्रेवाल की आत्महत्या सरकार और प्रधान मन्त्रा के दावों के विपरीत एक ऐसा अपवाद बन कर सामने आयी जिसे नजर अन्दाज कर पाना संभव ही नही है। फिर इस समय भारत पाक सीमा पर जिस तरह से तनाव चल रहा है उससे ही सैनिक और पूर्व सैनिक सबके लिये एक चर्चा और चिन्ता का विषय बन चुके हैं। क्योकि सरकार ने भी सर्जिकल स्टा्रईक को जिस तरह से एक बड़ी उपलब्धि के रूप में देश के सामने प्रचारित किया उसको लेकर भी प्रतिक्रियाएं आ गयी थी। सरकार पर सेना की उपलब्धि पर राजनीति करने का आरोप लगा। सरकार सर्जिकल स्टा्रईक को विधानसभा चुनावों में लाभ लेने का प्रयास कर रही है यह भी आरोप लगा। सरकार ने इन आरोपों का खण्डन करते हुए विपक्ष पर ओच्छी राजनीतिक करने का आरोप लगाया।
इस परिदृश्य में जब एक पूर्व सैनिक आत्महत्या करेगा और उसका सुसाईट नोट तथा परिजनों से हुई अन्तिम बातचीत का रिकार्ड सामने आ जायेगा तो स्वाभाविक है कि विपक्ष इस मुद्दे को हाथ से नहीं जाने देगा। विपक्ष ने ऐसा ही किया राहूल के नेतृत्व में कांग्रेस ने सरकार पर हमला बोला। आम आदमी पार्टी और केन्द्र में तो वैसे ही अच्छे संबध नहीं है फिर जब आम आदमी पार्टी की किसान रैली में राज्यस्थान के एक किसान ने आत्महत्या की थी तो उस पर भाजपा ने भी ऐसी ही राजनीति की थी। अब आप ने भी भाजपा को उसी की भाषा में जबाव दिया है। लेकिन इसमें दिल्ली पुलिस ने जिस तरह से सैनिक के परिजनों से दुर्व्यवहार किया है उसको किसी भी तर्क से जायज़ नही ठहराया जा सकता। इस पूर्व सैनिक की आत्महत्या पर मोदी के मन्त्री जनरल वी.के.सिंह और हरियाणा के मुख्यमन्त्री मनोहर लाल खट्टर ने ब्यान दिये है। उससे निश्चित रूप से सरकार की कार्यशैली पर सवाल उठेंगे ही। दिल्ली पुलिस ने जिस तरह से राहूल गांधी और अरविन्द केजरीवाल के साथ व्यवहार किया है। उसकी अपेक्षा लोकतन्त्र में किसी सरकार से नही की जा सकती। विरोध के स्वरों को पुलिस बल की ताकत से नही दबाया जा सकता है। सरकार के इस आचरण से जनता में यह सन्देश गया है कि सरकार अपनी असफलताओं को छुपाने के लिये बल प्रयोग का सहारा ले रही है और लोकतन्त्र में यह सब अब स्वीकार्य नही हो सकता। इसी के साथ देश की राजनीतिक ज्मात को यह भी समझना होगा कि चुनावी लाभ के लिये घोषनाएं और दावे करने से पूर्व उन्हें व्यवहारिक पक्षों को सामने रखना होगा। अन्यथा हर दावे का अन्तिम परिणाम इसी तरह का रहेगा और वह लोकतन्त्र के लिये घातक सिद्ध होगा ही।

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