Tuesday, 16 December 2025
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चुनाव आयोग से अपेक्षाएं

बलदेव शर्मा 

चुनाव आयोग ने कांग्रेस को अपने संगठनात्मक चुनाव पूरा करने के लिये छः माह का समय दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग से पूछा है कि पूर्व विधायकों/सांसदो को मिल रही पैन्शन को बन्द किये जाने की गुहार को लेकर जो याचिका आयी है उस पर आयोग की क्या राय है। दागी छवि के जन प्रतिनिधियों को चुनाव से अयोग्य घोषित कर दिया जाये यह आग्रह एक याचिका के जवाब में सर्वोच्च न्यायालय से आयोग ने किया है। यह सारे प्रश्न महत्वपूर्ण हैं और सभी राजनीतिक स्वच्छता के लिये आवश्यक हैं। इस समय हमारे चुनाव पंचायत से लेकर संसद तक इतने महंगे हो गये हैं कि आम आदमी चुनाव लड़ने की सोच ही नहीं सकता। चुनाव आयोग ने ही विधानसभा से लेकर संसद तक चुनाव खर्च की सीमा इतनी बढ़ा दी है कि कोई भी सामान्य व्यक्ति चुनाव के लिये इतना सफेद धन खर्च नहीं कर सकता। इन चुनावों में एक-एक प्रत्याशी करोड़ो खर्च कर रहा है लेकिन आयोग के पास जो ब्योरा इस खर्च का दायर किया जाता है वह एकदम साफ झूठ होता है। सारा खर्च संबधित राजनीतिक दल के नाम डाल दिया जाता है और पार्टी के लिये खर्च की कोई सीमा है नहीं। पार्टीयों के लिये दिये जा रहे चन्दे की जो सीमा बीस हजार से घटाकर दो हजार करने की बात की गयी थी उसे फिर संशोधित करके पहले से भी ज्यादा सरल कर दिया गया है। अब किसी भी पंजीकृत कंपनी से पार्टी कितना भी चन्दा ले सकती है। उस पर कंपनी से कोई स्त्रोत नही पूछा जायेगा। कंपनी में राजनेता का ही काला धन निवेश होकर चन्दे के रूप में वापिस आ रहा है इसको चैक करने का कोई प्रावधान नही है। कुल मिलाकर धन के मामले में पार्टीयां फिर निरंकुश हो गयी हैं और व्यक्ति के पास चुनाव लड़ने के लिये पार्टी के मंच का सहारा लेना ही एक विकल्प रह गया है।
ऐसे में जब तक चुनाव को खर्च मुक्त नही किया जायेगा तब तक देश की व्यवस्था में सुधार का हर प्रयास बेमानी हो जायेगा। राजनीतिक दलों में आन्तरिक लोकतन्त्र हो उसके लिये संगठन में चुनाव होना आवश्यक है। लेकिन आज देश में कितने ही राजनीतिक दल हैं जो केवल एक परिवार के ही होकर रह गये हैं और फिर सत्तासीन भी रह चुके हैं यह सब पैसे के कारण हुआ है। भाजपा जैसे दल में चयन के स्थान पर मनोनयन का चलन है और यह भी अपरोक्ष परिवारवाद की ही संज्ञा में आता है क्योंकि यह संघ परिवार के निर्देशों पर होता है। इसी धन और परिवारवाद के कारण ही आज देश का कोई भी दल बाहुबलियों से मुक्त नही है। हर दल चुनाव में इन्हें ज्यादा -से-ज्यादा टिकट देने की होड़ में रहता है यह हर दिये जा रहे टिकटों के बढ़ते आकंड़ो से प्रमाणित हो रहा है। पूर्व विधायकों/सांसदो को पैंन्शन देने के मामले में वित्त मन्त्री अरूण जेटली ने स्पष्ट कर दिया है कि यह तय करना संसद का अधिकार क्षेत्र है न्यायालय का नहीं। इसलिये चुनाव सुधारों की दिशा में उठाये जा रहे इन कदमों से भी कोई बड़ा लाभ होने की उम्मीद नहीं की जा सकती। क्योंकि आज के राजनीतिक दल एकदम कारपोरेट घरानों जैसे हो गये हैं। आज चुनाव प्रचार एक व्यवसाय बन गया है। चुनाव प्रचार के दौरान पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र क्या हैं और उसमें किये गये वायदे कैसे पूरे होंगे, कितने समय में होंगे तथा उनके लिये धन की व्यवस्था कहां से होगी इसकी कोई चर्चा प्रचार के दौरान सामने आ ही नही पाती है। देश या प्रदेश की आर्थिक स्थिति क्या है इसकी कोई चर्चा उठ ही नही पाती है। जबकि किसी भी चुनाव प्रचार का मूल यही रहना चाहिये। आज देश अपरोक्ष में एक राजनीतिक निरंकुशता की ओर बढ़ता नज़र आ रहा है। क्योंकि इस समय राजनीति को धर्म और संस्कृति के सहारे बढ़ाया जा रहा है जो कि कालान्तर में घातक सिद्ध होगा।
इस स्थिति से बचने के लिये चुनाव सुधारों का ही माध्यम शेष बचा है। इसमें चुनाव प्रचार को खर्च से मुक्त करने का रास्ता खोजना पडे़गा। यदि ईमानदारी से इस दिशा में प्रयास किया जाये तो ऐसा किया जा सकता है। इसी के साथ आदर्श आचार संहिता की उल्लंघना को क्रिमिनल अपराध की संज्ञा दी जानी चाहिये। आज आचार संहिता की उल्लंघना पर केवल चुनाव याचिका दायर करने का ही विकल्प है और ऐसी याचिकाएं वर्षों तक लंबित रहती हैं। आचार संहिता की उल्लंघना का मामला दर्ज होते ही उस चुनाव क्षेत्र का चुनाव स्थगित कर देना चाहिये। चुनाव खर्च की सीमा पार्टीयों के लिये भी तय होनी चाहिये। पार्टीयों को अपनी नीतियों और कार्यक्रमों के प्रचार-प्रसार के लिये चुनावों की घोषणा के बाद कोई समय नहीं दिया जाना चाहिये क्योंकि पार्टीयों के पास चुनावों के बाद अगले चुनावों तक का जो समय रहता है उसी के बीच यह प्रचार-प्रसार होना चाहिये। चुनावों की घोषणा के बाद हर मतदाता के पास उम्मीदवार का पूरा प्रोफाईल और उसका चुनाव घोषणा पत्र हर मतदाता तक पहुचा दिया जाना चाहिये। चुनाव घोषणा पत्रा में राज्य की आर्थिक स्थिति और उस स्थिति में घोषणा पत्र में घोषित दावों को कैसे पूरा किया जायेगा इसका पूरा उल्लेख रहना अनिवार्य होना चाहिये। जब मतदाता के पास सारे उम्मीदवारों का यह विवरण पहुंच जायेगा तो वह उसकी समीक्षा करके सही उम्मीदवार का चयन कर पायेगा। इसी के साथ जनप्रतिनिधियों के जो अपराधिक मामले वर्षों से अदालतों में लंबित चल रहे हैं उनका निपटारा ट्रायल कोर्ट से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक प्राथमिकता के आधार पर एक तय समय सीमा के भीतर किये जाने का प्रावधान किया जाना चाहिये। आज चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय के बीच कुछ मामलों में जो एक संवाद की स्थिति उभरी है उसमें इन पक्षों पर भी विचार किये जाने की आवश्यकता है।

पांच राज्यों के जनादेश

बलदेव शर्मा

अभी हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद चार राज्यों में भाजपा और एक राज्य में कांग्रेस की सरकार बनी है। इस जनादेश को लेकर जो भी पूर्वानुमान लगाये जा रहे थे वह गलत सिद्ध नहीं हुए हैं। क्योंकि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में जो बहुमत भाजपा को मिला है शायद इसकी उम्मीद भाजपा को भी नही रही होगी। यहां सपा और कांग्रेस के गठबन्धन को 50.5% वोट मिले हैं। कांग्रेस को 22.5%और सपा को 28% जबकि भाजपा को 41%। लेकिन भाजपा 41% वोट लेकर 325 सीटें जीत गयी और सपा कांग्रेस 50.50% वोट लेकर भी 50 के आंकडे़ को नहीं छू पायी। उत्तराखण्ड और गोवा में मुख्यमन्त्री तक हार गये। पंजाब और गोवा में आम आदमी पार्टी
की हार ने आप के राजनीतिक विकल्प होने की सारी सभांवनाओं को लम्बे समय तक के लिये अनिश्चिता के गर्व में डाल दिया है। इस परिप्रेक्ष में यह जनादेश देश के राजनीतिक भविष्य की दिशा दशा तय करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा यह तय है। इसलिये इस जनादेश का विश्लेषण करने के लिये राजनीतिक पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर विचार करना आवश्यक होगा।

जो जनादेश आज आया है इसके बीज अन्ना आन्दोलन में बोये गये थे जिनकी पहली फसल लोकसभा चुनाव परिणामों के रूप में सामने और दूसरी अब। अन्ना आन्दोलन का मुख्य बिन्दु था भ्रष्टाचार समाप्त करना और इसके लिये व्यवस्था परिवर्तन को इसका साधन बताया गया। लेकिन जब व्यवस्था परिवर्तन के लिये राजनीतिक मंच के गठन करने की बात उठी तो पूरा अन्ना आन्दोलन विखर गया। आन्दोलन के संचालको और आयोजकों में उभरे मतभदों से खिन्न होकर अन्ना ने ममता के सहारे अलग मंच का जो प्रयास किया वह शक्ल लेने  से पहले ही ध्वस्त हो गया। अन्ना की यह असफलता स्वभाविक थी या प्रायोजित यह प्रश्न आज तक अनुतरित है। लेकिन इस आन्दोलन का बड़ा फल मोदी और भाजपा को मिल गया तथा छोटा फल केजरीवाल को। मोदी और भाजपा के पास संघ परिवार की वैचारिक जमीन थी। केन्द्र में सरकार बनने के बाद इस जमीन की ऊवर्श  शक्ति को और बढ़ाने के लिये मोदी के मन्त्रीयों ने अपने भाषणों में अपनी सोच का खूलकर प्रचार जारी रखा। भले ही मोदी ने राजधर्म निभाते हुए अपने मन्त्रीयों को संयम बरतने की सलाह दी। लेकिन इस सलाह का संज्ञान लेने की बजाये यह लोग अपने कर्म में लगे रहे और इस कर्म का परिणाम उत्तर प्रदेश के जनादेश के रूप में सामने है। संघ परिवार की वैचारिक सोच स्पष्ट है वह भारत को हिन्दु राष्ट्र देखना और बनाना चाहते हैं। इसका माध्यम सता होता है और सता उसको मिल गयी है। हिन्दु राष्ट्र की अवाधारणा देश की वर्तमान परिस्थितियों में कितनी प्रसांगिक और वांच्छित हो सकती है उसके लिये संघ की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विचारधारा को समझना आवश्यक होगा। इस विचारधारा को  समझे बिना इस पर यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि यह स्वीकार्य है या नही। संघ और भाजपा अपने ऐजैन्डा को लेकर पूरी तरह स्पष्ट है और उसपर उनका काम जारी है क्योंकि उनको यह अवसर देश की जनता ने अपने प्रचण्ड जनादेश के माध्यम से दिया है।
 दूसरी ओर कांग्रेस के पास जो वैचारिक धरोहर थी उस पर भ्रष्टाचार की दीमक इतनी हावि हो गयी है कि भ्रष्टाचार कांग्रेस के संगठन से बड़ा होकर देश की जनता के सामने है। कांग्रेस शासन पर राज्यों से लेकर केन्द्र तक भ्रष्टाचार के जो आरोप लगे हैं उनका इतना प्रचार प्रयास हो चुका है कि कांग्रेस अब भ्रष्टाचार का पर्याय मानी जा रही है। कांग्रेस नेतृत्व इतना कमजोर और लाचार हो गया है कि भ्रष्टाचार के एक भी आरोपी के खिलाफ संगठन के स्तर पर कभी कोई कारवाई नहीं हो पायी है। सारे आरोपों और आरोपीयों को अदालत के सिर पर छोड़ दिया जाता है और अदालतों से ऐसे मामलों पर दशकों तक फैसले नही आते हैं। लेकिन जब एक सीमा के बाद यह आरोप जन चर्चा का रूप ले लेते हैं तो उसका परिणाम यह चुनाव नतीजे बनते हैं। कांग्रेस जब तक संगठन के स्तर पर अपने भीतर फैले भष्टाचार से लड़ने का फैसला नही लेगी तब तक उसका उभरना संभव नही होगा।
आम आदमी पार्टी की केजरीवाल सरकार अन्ना आन्दोलन का प्रतिफल है। लेकिन आज पंजाब और गोवा की हार संगठन और दिल्ली सरकार का प्रतिफल है। संगठन के स्तर पर आम आदमी पार्टी अभी तक राज्यों में अपनी ईकाईयां स्थापित नही कर पायी है। क्योंकि विचारधारा के नाम पर आप कुछ सामने नही ला पायी है। स्वराज की जो कार्यशैली परिभाषित की जा रही है वह एक स्वतन्त्र राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक चिन्तन का स्तर नही ले पा रही है। भ्रष्टचार के खिलाफ लड़ना और  भ्रष्टाचार के वैचारिक धरातल पर चोट करना दो अलग-अलग विषय हैं। आज भाजपा और संघ का विकल्प होने के लिये उसी के बराबर विचारधारा को बहस में लाना होगा और इस बहस के लिये एक स्वस्थ विचारधारा तैयार करनी होगी। क्योंकि यह देश वाम विचारधारा को आज तक स्वीकार नही कर पाया है। बल्कि यह कहना ज्यादा प्रसांगिक होगा कि यदि वामपंथी विचारधारा चर्चा के लिये उपलब्ध न होगी तो शायद दक्षिण पंथी विचारधारा आज सता के इस मुकाम तक न पहुंच पाती।

सवालों में घिरती न्यायपालिका

शिमला/शैल। अरूणाचल के पूर्व मुख्यमन्त्री स्व. कालीखो पुल ने अपनी मौत से पहले साठ पन्नों का विस्तृत और हस्ताक्षित नोट लिखा है। यह नोट लिखने के दूसरे ही दिन कालीखो पुल अपने आवास पर मृत पाये गये थे। उनकी मौत के बाद सामने आये इस नोट में उन्होने प्रदेश और देश की राजनीति मे फैले भ्रष्टाचार को पूरी बेबाकी से बेनकाब किया है। राजनीति में फैले भ्रष्टाचार के साथ न्यायपालिका कैसे परोक्ष/अपरोक्ष में सहयोगी और भागीदार बन गयी है इसका भी पूरा खुलासा इस नोट में है। पृल के इस नोट में लगाये गये गंभीर आरोपों पर कहीं से कोई जबाव नही आया है। राजनेंताओं पर आरोप लगना कोई नयी बात नहीं है। क्योंकि राजनीति में हर राजनीतिक दल की प्राय यही हकीकत है कि चुनावों में वह दागी छवि के लोगों को अपनी-अपनी पार्टी के टिकट पर चुनावों में उतारते ही हैं। इसी कारण आज संसद से लेकर राज्यों की विधानसभाओं तक गंभीर अपराधी छवि के लोग माननीय बनकर बैठे हैं। आपराधिक मामले झेल रहे जनप्रतिनिधियों के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने अधीनस्थ अदालतों को ऐसे मामलों को एक वर्ष के भीतर निपटाने के निर्देश दे रखे हैं। लेकिन इन निर्देशों की कितनी अनुपालना हो पायी है इस बारे में कोई रिपोर्ट सामने नहीं आयी है क्योंकि इस पर अमल नही हुआ है। अधीनस्थ अदालतों में आज भी जनप्रतिनिधियों के मामले कई वर्षों से लंबित चले आ रहे हैं। हिमाचल में ऐसे लंबित चल रहे मामले सबके सामने हैं। इससे यह प्रामणित होता है कि भ्रष्टाचार के प्रति गंभीरता के आईने में न्यायपालिका और व्यवस्थापिका दोनों के ही चेहरे एक बराबर प्रश्नित हैं।
स्व. कालीखो पुल के बाद जस्टिस करनन का किस्सा सामने है। जस्टिस करनन और सर्वोच्च न्यायालय में आमने-सामने की स्थिति आ गयी है। जस्टिस करनन को मानहानि के मामले में किस तरह से पेश आना चाहिये? उनकी और सर्वोच्च न्यायालय की वैधानिक सीमायें क्या हैं इस बारे में आम आदमी को कुछ लेना देना नही है इस संबंध में जो भी कानून है उसकी अनुपालना की जानी चाहिये उसमें किसी का भी अनाधिकारिक दखल नही हो सकता। लेकिन जो आरोप जस्टिस करनन ने कुछ न्यायधीशों पर लगाये हैं आम आदमी की चिन्ता का विषय यह है। क्योंकि न्यायपालिका के शीर्ष न्यायधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने से आम आदमी का न्यायपालिका पर विश्वास बनाये रखना कठिन हो जायेगा। जस्टिस करनन के आरोपों की ही तरह स्व. कालीखो पुल द्वारा लगाये गये आरोप हंै। इन दोनों के आरोपों को यदि इक्कठा रखकर देखा जाये तो स्थिति बेहद चिन्ताजनक हो जाती है। कालीखो पुल के आरोपों को वहां के राज्यपाल ने भी गंभीर माना था क्योंकि उनके पास स्थानीय एसडीएम की रिपोर्ट आ चुकी थी। केन्द्र के धन का दुरूपयोग किया गया है। केन्द्र के धन के दुरूपयोग के आरोपों पर मोदी सरकार का भी चुप्प बैठ जाना अपने में ही कई और सवाल खडे कर देता है।
स्व. कालीखो पुल और जस्टिस करनन ने जिन लोगों के खिलाफ आरोप लगाये हैं उनकी ओर से भी इस पर कोई प्रतिक्रिया नही आयी है। किसी ने भी यह कहने का साहस नही किया है कि यह आरोप गल्त हैं। जस्टिस करनन का यह कहना कि वह दलित हैं इसलिय उनके साथ यह ज्यादती की जा रही है यह तर्क किसी भी तरह स्वीकार्य नही हो सकता। क्योंकि वह दलित होने के बाद ही उच्च न्यायालय के न्यायधीश के पद तक पहुचे हैं। इसीलिये दलित होने का तर्क जायज नहीं ठहराया जा सकता। इसी के साथ जिस तरह वरिष्ठ अधिवक्ता जेठमलानी ने उनकी निन्दा की है उसे भी स्वीकारा नही जा सकता। किसका कानूनी अधिकार क्षेत्र कितना और क्या है? किसे क्या प्रक्रिया अपनानी चाहिये थी क्या नहीं? यह सारे प्रश्न आरोपों की गंभीरता के आगे बौने पड़ जाते हैं। आम आदमी इन आरोपों की एक निष्पक्ष जांच चाहता है। जिससे आरोपों की सत्यता प्रमाणित हो सके। ऐसे आरोपों की जांच के लिये वही प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिये जो आम आदमी के लिये अपनायी जाती है। अर्थात जांच ऐजैन्सी में विधिवत मामला दर्ज करके जांच शुरू की जाये। स्व. कालीखो पुल ने जो आरोप लगाये हैं उनसे जुडे़ सारे प्रमाण वहां राज्य में मौजूद हैं। स्व. पुल के नोट को डांईंग डक्लारेशन मानकर जांच की जानी चाहिये। जस्टिस करनन ने जिनके खिलाफ आरोप लगाये हैं उनसे आरोपों के बारे में पूरी गंभीरता से पूछा जाना चाहिये और जस्टिस करनन तथा आरोपीयों से आमने-सामने सवाल-जबाव होने चाहिये। यदि न्यायपालिका पर विश्वास बनाये रखना है तो यह अति आवश्यक है कि आम आदमी के सामने सच्चाई आये। यदि ऐसा न हुआ तो अराजकता का एक ऐसा दौर शुरू होगा जिसकी कल्पना करना भी कठिन होगा।

बेरोजगारी भत्ता विकल्प नहीं है

शिमला/शैल।मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह ने वर्ष 2017-18 का बजट सदन में रखते हुए प्रदेश के उन बेरोजगार युवाओं को बेरोजगारी भत्ता देने की घोषणा की है जिनकी शैक्षिणक योग्यता जमा दो या इससे अधिक होगी। बेरोजगारी भत्ता देने का वायदा कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र में था इस वायदे को लेकर कांग्रेस सरकार और संगठन में किस तरह की बहस होती रही है यह जगजाहिर है। इस वायदे को पूरा करने के लिये जी एस बाली और विपल्व ठाकुर जैसे नेताओं ने वीरभद्र पर जो दबाव बनाया था वीरभद्र सिंह उस दबाव के आगे झुके नहीं थे। यहां तक की जब 8 मार्च को मुख्यमंत्री ने राज्यपाल के अभिभाषण पर हुई बहस का जबाव दिया तब भी कहा कि जब सरकार के पास संसाधन होंगे तब बेरोजगारी भत्ते के देने पर विचार करेंगें। स्पष्ट है कि राज्यपाल अभिभाषण पर हुई बहस का जबाव देते वक्त तक वीरभद्र यह भत्ता दिये जाने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन बजट भाषण पढ़ते समय इसकी घोषणा कर दी गयी। इस परिपेक्ष में यह सवाल उठता है कि दो दिन के भीतर राज्य सरकार के संसाधनों मे कोई वृद्धि नही हुई है इसका प्रमाण 2017-18 के बजट में दर्ज चार हजार करोड़ अधिक के घाटे की स्वीकारोक्ति है। ऐसे में स्वाभाविक है कि इस घोषणा के शुद्ध राजनीतिक कारण हैं। पांच राज्यों की विधानसभाओं के लिये हुए चुनावों के इग्जिपोल जब आने शुरू हुए तो उन नतीजों में कांग्रेस के लिये कहीं से भी कोई सुखद संकेत नही मिला। हिमाचल में भी इसी वर्ष के अन्त में विधानसभा चुनाव होने है और इस नाते यह इस कार्यकाल का आखिरी बजट सत्र है। इसलिये ऐसी घोषणा इसी समय पर की जा सकती थी जो कि हो गयी। यह योजना कैसे लागू की जायेगी इसके लिये नियम आने वाले दिनो में बनेंगे। इस घोषणा से यह तय है कि बेरोजगारी भत्ते का बोझ अब आने वाली सरकारों को उठाना ही पडे़गा सरकार चाहे जिसकी भी बने।
राजनेता और राजनीतिक दल अपने सत्ता स्वार्थों के आगे कुछ भी दांव पर लगा सकते  है अपने रराजनीतिक स्वार्थ के लिये कोई भी फैसला जनता पर थोप देगें भले ही उसे पूरा करने के लिये संसाधन कर्ज लेकर ही जुटाने पड़े। आज हिमाचल प्रदेश में संसाधनों के नाम पर 31 मार्च 2016 को राज्य का कर्जभार करीब 39000 करोड़ दिखाया गया है। इसमें वर्ष 2016-17 का कर्ज जोडकर यह आंकडा 45000 हजार करोड़ से ऊपर हो जायेगा। इस इतने भारी भरकम कर्ज से सरकार ने क्या संपति खडी की है? प्रदेश में कौन सा उद्योग सरकारी क्षेत्र में स्थापित हुआ है। जिससे सरकार को नियमित आय हो रही है? ऐसा कुछ भी नजर नही आता है। कर्ज का ब्याज अदा करने के लिये कर्ज लेना पड़ रहा है। प्रदेश में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है रोजगार कार्यालयों में दर्ज संख्या के अनुुसार यह आंकडा 8,24,478 है। इसके मुताबिक इनको बेरोजगारी भत्ता देने के लिये 800 करोड़ से अधिक का बोझ सरकार पर पडे़गा। लेकिन यह बेरोजगारी भत्ता देने से समस्या हल हो जायेगी? क्या इनके लिये रोजगार के अवसर नही पैदा करने पडेंगे? इस समय सरकार ही प्रदेश में रोजगार का सबसे बडा स्त्रोत है हर व्यक्ति रोजगार देखता है। सरकार के पास अपने कर्मचारियों की कुल संख्या कारपोरेट सैक्टर को मिलाकर तीन लाख के करीब है। प्रदेश के निजिक्षेत्र में भी करीब 2.50 लाख कर्मचारी है। ऐसे में सरकारी और निजि क्षेत्र में एक ही दिन में पुराने कर्मचारियो को निकालकर नये कर्मचारी भर्ती कर दिये जाये तो भी रोजगार कार्यालयों में दर्ज करीब आधा आंकड़ा बेरोजगारों का शेष रह जाता है इसका अर्थ है कि इस दिशा में जो भी नीति और नियम रहे हैं उन्हे तुरन्त प्रभाव से बदलने की आवश्यकता है।
आज प्रदेश में जितने भी प्रशिक्षण संस्थान खोले गये  है उनमें प्रशिक्षित युवाओं का अगर यह आंकलन किया जाये कि उनमें से कितनों को रोजगार उपलब्ध हो पाया है तो यह आंकडा भी 20% से नीचे ही रहता है। आज कौशल विकास के नाम पर भी जो योजना अमल में है उसमें भी कालान्तर में रोजगार मिल पायेगा इसको लेकर गंभीर शंकायें उठ खडी हुई हैं। क्योंकि सरकार की स्र्टाटअप येाजना से आकर्षित होकर जितने लोग इसमें आये थे उसको लेकर जो सर्वे हुए हैं उनकी रिपोर्ट के मुताबिक जो आंकड़े आये  हैं उनमें सफलता का प्रतिशत दस से कम है। स्र्टाटअप छोड़कर यह लोग वापिस नौकरी की तलाश कर रहे  हैं। आईटी का जो सैक्टर तेजी से उभरा था उसमें सबसे ज्यादा छंटनी की तलवार चल पडी है। बैंकिग क्षेत्र में भी ऐसी स्थिति की आंशका उभर गयी है। इसलिये आज इस राष्ट्रीय परिदृश्य को समाने रखकर बेरोजगारी की समस्या का हल खोजना होगा। इस संद्धर्भ में कृषि से बड़ा कोई क्षेत्र नही है। जिसमें रोजगार के अवसर अन्य क्षेत्रों से कहीं अधिक हैं। लेकिन इस क्षेत्र की ओर सबसे कम ध्यान दिया जा रहा है। कृषि को उद्योग का दर्जा देकर उसके उत्पादों को मुल्य निधार्रण ओद्यौगिक उत्पादों के समकक्ष लाना होगा। मूल्य निर्धारण में अप्रंसागिकता के कारण आज कृषि को अन्तिम विकल्प के रूप में लिया जाता है जबकि रोजगार के चयन में कृषि को पहली पंसद बनाये जाने की आवश्यकता है।

सत्ता की बिसात पर राजधानी का पासा

शिमला/शैल। वीरभद्र मन्त्रीमण्डल ने वीरभद्र की धर्मशाला को दूसरी राजधानी बनाने की घोषणा पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगा दी है। मन्त्रीमण्डल की स्वीकृत के बाद सरकार का यह फैसला वाकायदा अधिसूचित हो जायेगा। फैसला अधिसूचित होने के साथ ही मन्त्रीमण्डल में रखे गये इस आश्य के प्रस्ताव की Statement of  objects भी सामने आ जायेगी। उससे सरकार की नीयत और नीति साफ हो जायेगी कि यह दूसरी राजधानी अंशकालिक है या नियमित। क्योकि अभी तक जो सामने आया है उसके मुताबिक सर्दीयों के दो माह ही धर्मशाला में राजधानी रेहगी। यदि दो माह ही धर्मशाला में यह राजधानी रहनी है तो सरकार का यह फैसला दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि जब राजधानी अधीसूचित हो जायेगी तब सरकार के सारे कार्यालय मुख्यसचिव से लेकर नीचे तक वहां स्थित होने आवश्यक हो जायेंगे। इसमें हर विभाग का निदेशालय और उससे जुड़ा सचिवालय प्रभाग रहेगा। इस समय सरकार के साठ से अधिक विभाग हैं जिनके अपने -अपने निदेशालय होते है। सचिव स्तर पर तो एक सचिव के पास कई विभाग हो सकते हैं लेकिन एक ही निदेशालय अन्य निदेशालयों का काम नहीं कर सकता। इसलिये प्रशासनिक अर्थो में राजधानी एक संपूर्ण ईकाई है जिसे खण्डों में विभाजित नही किया जा सकता। यदि सचिव स्तर के अधिकारी ही बिना उनके निदेशालयों के वहां बिठाये जायेंगे तो उससे कोई लाभ नहीं होगा और केवल दो माह के लिये निदेशालय से लेकर सचिवालय स्तर तक सारा कुछ स्थानान्तरित कर पाना या करना न तो व्यवहारिक होगा और न ही संभव। इस तरह का प्रयोग और प्रयास केवल वित्तिय बोझ बढ़ाना ही होगा।
मन्त्रीमण्डल ने इन सारे पक्षों पर विचार किया है या नहीं? मन्त्रीमण्डल के सामने रखे गये प्रस्ताव में संबधित प्रशासन ने यह सारी स्थिति रिकार्ड पर लायी है या नही। इसका खुलासा तो आने समय में ही होगा। लेकिन इस समय प्रदेश की जो वित्तिय स्थिति है उसके मुताबिक प्रदेश का कर्जभार 31 मार्च को 50 हजार करोड़ तक पहुंच जाने की संभावना है क्योंकि 2016-17 को जब बजट सदन में पारित किया गया था उसमें 69084 करोड़ ऋण के माध्यम से जुटाया जाना दर्शाया गया था। अब इसी वर्ष के लिये 3940 करोड़ की अनुपूरक मांगे पारित की गयी है। जिसका अर्थ है कि यह खर्च पहले पारित हुए अनुमानों से बढ़ गया है। स्वाभाविक है कि बढ़े हुए खर्च के लिये धन या तो जनता पर कर लगाकर किया गया है या फिर कर्ज लेकर। इसका खुलासा भी आने वाले बजट दस्तावेजों में सामने आ जायेगा। कुल मिलाकर प्रदेश कर्ज के बोझ तले इतना डूब चुका है कि यदि यह चलन न रूका तो भविष्य कठिन हो जायेगा। ऐसी स्थिति मे हर तरह के अनुत्पादक खर्चों को रोका जाता है न कि बढ़ाया जाता है। प्रदेश की वित्तिय स्थिति किसी भी तर्क से इस समय यह अनुमति नहीं देती है कि केवल दो माह के लिये धर्मशाला को राजधानी बनाया जाये।
प्रशासनिक और वित्तिय पक्षों के बाद केवल राजनीतिक पक्ष रह जाता है। राजनीतिक वस्तुस्थिति का यदि निष्पक्षता से आकलन किया जाये तो इस समय केन्द्र में भाजपा की सरकार है और लोक सभा की चारों सीटें कांग्रेस वीरभद्र के नेतृत्व में बुरी तरह से हारी हुई है। वीरभद्र और उनका परिवार आय से अधिक संपति को लेकर आयकर सीबीआई और ईडी की जांच झेल रहा है। जबकि भाजपा और धूमल शासन के कार्यकाल को लेकर जो भी मामले वीरभद्र सरकार ने बनाये है उनमें एक भी मामले में सफलता नही मिली है। बल्कि कुछ मामलों में तो सर्वोच्च न्यायालय में हार का मुंह देखना पड़ा है। बाबा रामदेव के मामलें में वीरभद्र ने जो यूटर्न लिया है उससे तो वीरभद्र सरकार ने स्वयं मान लिया है कि यह मामले गलत बनाये गये थे। राजनीति के इस व्यवहारिक पक्ष मेें भी कांग्रेस और वीरभद्र भाजपा धूमल के सामने बहुत कमजोर सिद्ध होते है। फिर प्रदेश की राजनीति में डा. परमार के बाद कोई भी सरकार रिपिट नहीं हो पायी है। ऐसे में आज कांग्रेस वीरभद्र सिंह को जो सातवी बार मुख्यमन्त्री की शपथ दिलाने का जो दावा कर रही है उस दिशा में धर्मशाला को दूसरी राजधानी बनाकर प्रदेश के सबसे बडे़ जिले कांगड़ा को प्रभावित करने के लिये यह पासा फैंक रही है। लेकिन इससे शिमला, सोलन और सिरमौर के लोग नाराज होंगे। मण्डी में भी यह मांग उठेगी की दूसरी राजधानी यहां क्यों नही। वीरभद्र यह फैंसला कांग्रेस को चुनावी लाभ देने की बजाये नुकसान देने वाला सिद्ध हो सकता है क्योंकि जब अब एक बार दूसरी राजधानी बनाये जाने के लिये मन्त्रीमण्डल के स्तर पर फैसला ले लिया गया है तो आने वाले समय में भी हर सरकार को इस दिशा में आगे ही बढ़ना होगा। कोई भी सरकार इस फैसले को राजनीति के चुनावी गणित के साथ जोड़कर ही देखगी। जैसे की धर्मशाला में स्थित विधानसभा भवन की कोई सही उपयोगिता आज तक नही हो पायी है। सभी इसे एक अवांच्छित फैसला करार देते रहे है लेकिन इसे बदलने का प्रस्ताव आज तक कोई नहीं ला पाया है। ऐसा ही इस राजधानी के नाम पर होगा यह तय है।

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