Thursday, 18 September 2025
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जीएसटी-सही वक्त पर सही फैसला

कर राजस्व सरकार की आय का सबसे बड़ा साधन होता है और इसी कर की चोरी से काला धन पैदा होता है जिसके एक बड़े हिस्से का निवेश आतंक और नशीले पदार्थो की तस्करी में होता है। यह एक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत जमीनी सच्चाई है। अन्तर्राष्ट्रीय संसद, संयुुक्त राष्ट्र संघ, इससे उत्पन्न समस्याओें और इसके समाधान पर लम्बे समय से चर्चा करता रहा है और इसी चर्चा के परिणामस्वरूप मनीलाॅंड्रिंग नियम जैसे कदम भी सामने आये हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ में उठी चर्चाओं के परिदृश्य में ही हमारी संसद में मनीलाॅंड्रिंग 2001-02 में मनीलाॅंड्रिंग अधिनियम को एक स्वरूप दिया गया जिसमें जनवरी 2013 में कुछ संशोधन करके उसे और भी कड़ा किया गया। जब मनीलाॅंड्रिंग पर संसद में चर्चा आयी थी उसी दौरान पूरे देश में एक ही सरल कर प्रणाली की आवश्यकता अनुभव करते हुए पहली बार जीएसटी का विचार सामने आया था। क्योंकि  जब कर प्रणाली जटिल हो जाती है तो उससे ही यह शेष समस्याएं पैदा होती है। हमारे देश में पंचायत से लेकर राज्यों की विधान सभाओं और केन्द्र में संसद तक को कर लगाने के स्वतन्त्र अधिकार हासिल थे। इन्ही अधिकारों के चलते करों पर कर लगाने और उगाहने की स्थिति पैदा हो चुकी थी। इस कर प्रणाली को सरल बनाने और इसमें एकरूपता लाने के जब भी प्रयास हुए तो न केवल व्यापारी वर्ग ही बल्कि राजनीतिक दलों और नेताओं ने भी इसका विरोध किया। इसी विरोध और स्वीकार के कारण ही इस ‘‘एक कर एक राष्ट्र और एक बाजार’’ की अवधारणा को जमीनी हकीकत बनने में डेढ़ दशक से भी ज्यादा समय लग गया। आज भी कुछ व्यापारी वर्ग और कुछ राजनीतिक दलों ने इसका विरोध किया है। लेकिन विरोध के बावजूद वित्तमन्त्री अरूण जेटली और प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी इसे आकार देने में सफल हुए हैं इसके लिये वह प्रंशसा के हकदार हैं। इनके साथ ही वह राज्य विधान सभाएं भी प्रशंसा की पात्र हैं जिन्होने इसे  रैक्टीफाई  करने में देरी नहीं लगाई।
राज्य सरकारों को केन्द्रीय करों में से अपना हिस्सा पहले भी मिलता था और अब भी यह हिस्सा कुल के आधे भाग के रूप में मिलता रहेगा। इसलिये राज्यों को अपने कर राजस्व में कोई हानि नही होगी यह तय है। जीएसटी के दायरे में 1207 वस्तुओं को लाया गया है। इन पर लगने वाले कर के पांच स्लैव हैं। पहला स्लैव 5% का है जिसमें 263 वस्तुएं रखी गयी हैं, 12% के स्लैब में 242, 18% के स्लैब में 458 और 28% कर दायरे में 228 आईटमें रखी गयी हैं। इसके अतिरिक्त सोना, चांदी कीमती पत्थर आदि 18 चीजों पर 3% कर लगेगा। पहले इन पर कुल 2% टैक्स लगता था। इसी तरह बिना तराशे हीरे आदि की तीन चीजों पर 0.125% टैक्स लगेगा। इसी के साथ बिना पैकिंग के खुली बिना ब्रांड की बिकने वाली खाद्य सामाग्री को कर मुक्त रखा गया है। इसमें जिस वस्तु पर 5% टैक्स लगना है उस पर कश्मीर से कन्याकुमारी तक टैक्स की दर में कोई बदलाव नही आयेगा। कोई भी उपभोक्ता अपने उपयोग की चीजों की एक बार सूची बनाकर यह सुनिश्चित कर सकता है कि उसकी कितनी चीजें कर के किस-किस स्लैव में आती हैं। इसमें कालान्तर में उसे कोई कठिनाई सामने नहीं आयेगी। लेकिन बिना पैकिंग के खुले में बिकने वाली बिना कर की चीजों की गुणवत्ता सुनिश्चित करना सरकार के लिये एक बड़ी चुनौती होगी। क्योंकि आज सरकार द्वारा संचालित सस्ते राशन की दुकानों में से सामान लेने वाले बीपीएल और एपीएल उपभोक्ताओं को राशन कार्ड पर मिलने वाली खाद्य सामाग्री पर यह सवाल रहेगा कि यदि उसे पैकिंग में दिया जाता है तो उस पर जीएसटी लागू होगा और खुले में बिना टैक्स के उसकी गुणवत्ता कौन सुनिश्चित करेगा यह बड़ा सवाल रहेगा। आज 18% से 28% के टैक्स स्लैव में 1207 में से 681 वस्तुएं रखी गयी है। यह वस्तुएं संभवतः पहले से मंहगी मिलेंगी। इसका आम आदमी पर नाकारात्मक प्रभाव पेड़गा। फिर सबसे बड़ा सवाल है कि पैट्रोल और डीजल को जीएसटी के बाहर रखा गया है। उत्पादक से उपभोक्ता तक वस्तु ट्रांसपोर्ट के माध्यम से ही पहुंचेगी। इसका कीमतों के अन्तिम निर्धारण पर असर पडे़गा। इस समय पैट्रोल-डीजल पर एक्साईज और वैट मिलाकर 57% टैक्स लिया जा रहा है। यदि इन्हे भी जीएसटी के दायरे में ला दिया जाता तो यह टैक्स केवल 28% ही लगता और इससे उपभोक्ता को भी लाभ मिलता और मूल्य की गणना में भी सरलता रहती। सेवा कर के दायरे में आने वाले अधिवक्ता वर्ग को जीएसटी के दायरे से बाहर रखना भी आने वाले दिनों में विवाद और चर्चा का केन्द्र बनेगा क्योंकि इसको लेकर अभी से कानाफूसी शुरू हो गयी है। 

अब जब जीएसटी लागू हो गया है तो इसके लिये हर छोटे बड़े दुकानदार उद्यमी को कम्पयूटर की आवश्कता रहेगी। कम्पयूटर आप्रेशन के लिये नैटवर्क सिंगलन और विद्युत आपूर्ति की निर्वाध उपलब्धता सुनिश्चित करना आवश्यक होगा। जबकि इस समय देश की राजधानी दिल्ली में बिजली की 24x7 उपलब्धता सुनिश्चित नही है। ऐसे मे ‘‘एक कर, एक देश और एक बाजार’’ की अवधारणा को सफल बनाने के लिये इन व्यवहारिक पक्षों पर ध्यान देना आवश्यक होगा।

दलित राजनीति के आईने में राष्ट्रपति का चयन

शिमला/शैल।  देश के राष्ट्रपति के लिये सत्तारूढ़ एनडीए ने बिहार के पूर्व राज्यपाल रामनाथ कोविंद को तो विपक्ष ने बिहार की ही बेटी पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को अपना उम्मीदवार घोषित किया है। दोनों ही उम्मीदवार दलित वर्ग से ताल्लुक रखते हैं। लेकिन रामनाथ कोविंद के नाम पर जिस अन्दाज में केन्द्र सरकार के ही वरिष्ठ मन्त्री और लोजपा के शीर्ष नेता रामविलास पासवान ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है उससे यह चयन दलित राजनीति का केन्द्र बनकर रह गया है। क्योंकि पासवान ने एन डी ए द्वारा रामनाथ कोविंद का नाम पेश किये जाने को उन लोगों के गाल पर तमाचा करार दिया जो भाजपा को दलित विरोधी मानते हैं। पासवान की इसी प्रतिक्रिया का परिणाम है कि विपक्ष ने भी दलित वर्ग से ही कोविंद से भी बड़ा चेहरा उतारने का फैसला लिया और मीरा कुमार के रूप में यह नाम सामने आया है। लेकिन जिस तरह से यह बहस बढ़ाई गयी है उससे यह लगने लगा है कि शायद यह पद इस बार अनुसूचित जाति के लिये आरक्षित है और यही इस बहस का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष है जहां इस सर्वोच्च प्रतिष्ठित पद को भी दलित राजनीति के मानक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
लेकिन इसी बहस से एक बड़ा सवाल यह भी खड़ा होता है कि क्या पासवान ने इस बहस को एक मकसद के साथ तो नहीं मोड़ा है इस ओर? क्योंकि पिछले एक लम्बे अरसे से देश के विभिन्न राज्यों से आरक्षण को लेकर आन्दोलन उठे हैं। हार्दिक पटेल से लेकर जाट आन्दोलन तक देश ने देखे हैं। इन आन्दोलनो में या तो इन वर्गों के लिये भी आरक्षण की मांग की गई या फिर सारे आरक्षण को सिरे से समाप्त करने की मांग उठाई गयी है। इस समय अनुसूचित जातियों के लिये 15 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के लिये 7.5 प्रतिशत और अन्य पिछड़े वर्गों के लिये 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। आजादी के बाद 1957 में काका कालेलकर कमेटी की रिपोर्ट के बाद जब सरकार ने पहली बार अनुसूचित जातियों की सूची प्रकाशित की थी उसमें ऐसी 1100 जातियों का उल्लेख है। इसके बाद 1980 में आयी मण्डल आयोग की रिपोर्ट में 3743 अन्य पिछड़ी जातियों का उल्लेख है जिसके लिये आरक्षण की सिफारिश की गयी थी। अनुसूचित जातियों के लिये पहली बार अंग्रेज शासन के दौरान जब राजा राम मोहन राय और स्वामी विवेकानन्द तथा गांधी जैसे समाज सुधारकों के विचारों से प्रभावित होकर समाज सुधार और दलितोंद्धार राष्ट्रीय आन्दोलन के अंग बन गये। अंग्रेजों ने इस स्थिति को भांपते हुए पूना पैकट के तहत आरक्षण का सिद्धान्त स्वीकार कर लिया और 1935 के भारत सरकार अधिनियम में अनुसूचित जातियों के लिये प्रांतों की विधान सभाओं के अन्दर 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान कर दिया। 1935 से शुरू हुआ यह राजनीतिक आरक्षण आज तक चल रहा है। यह राजनीतिक आरक्षण अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिये है लेकिन अन्य पिछड़ी जातियों के लिये नही है। काका कालेलकर और फिर मण्डल आयोग की रिपोर्टों के परिणामस्वरूप इनके लिये सरकारी नौकरियों और शिक्षा के लिये शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण का प्रावधान कर दिया गया।
संविधान के अनुच्छेद 15, 16, 38, 46, 164, 275, 330, 332, 334, 335, 338, 340, 341, 342 और 366 में सार्वजनिक सेवाओं में अवसर की समानता के साथ-साथ पिछड़े वर्गों के लिये राज्यों की सेवाओं, शैक्षणिक संस्थानों और व्यवस्थापिकाओं में स्थान आरक्षित करने की भी अनुमति दी गयी है। अनुच्छेद 16(4) के मूल प्रारूप में नागरिकों के किसी भी वर्ग के लिये आरक्षण की बात रखी गयी थी। परन्तु डा. अम्बेडकर ने इसके साथ पिछड़ा शब्द जुड़वा दिया ताकि आरक्षण की शर्त और दशा स्पष्ट हो सके। लेकिन मण्डल आयोग की सिफारिशों पर अमल 1989 में वी.पी. सिंह सरकार के समय हुआ। इस अमल का विरोध इतने बड़े स्तर पर हुआ कि यह आन्दोलन हिंसक तक हो गया। कई राज्यों में आन्दोलनकारियों ने आत्मदाह तक किये। इसी आरक्षण विरोधी आन्दोलन के परिणामस्वरूप वी.पी.सिंह की सरकार गयी और सरकार जाने के साथ ही आन्दोलन भी समाप्त हो गया। इस आरक्षण विरोधी आन्दोलन को आर.एस.एस. का संरक्षण और समर्थन प्राप्त था यह जगजाहिर है। इस आन्दोलन के बाद आज तक आरक्षण का विरोध उस तर्ज पर सामने नहीं आया है जबकि आरक्षण की व्यवहारिक स्थिति वैसी ही बनी हुई है। इस समय केन्द्र में भाजपा को अपने दम पर प्रचण्ड बहुमत हासिल है। इस दौरान जहां आरक्षण को लेकर कुछ आन्दोलन सामने आये हैं वहीं पर संघ नेतृत्व की ओर से भी कई ब्यान आ चुके हैं। आरक्षण प्राप्त वर्गों से ‘‘क्रिमी लेयर’’ को बाहर करने का फैसला सर्वोच्च न्यायालय बहुत पहले दे चुका है परन्तु इस फैसले पर सही अर्थों में अमल नहीं हो पाया है क्योंकि इस लेयर का दायरा हर बार बढ़ा दिया जाता है। आज तक आरक्षण से सम्पन्न हो चुके किसी भी परिवार की ओर से यह सामने नहीं आया है कि उसने अपने को आरक्षण से बाहर कर दिये जाने का आग्रह किया हो। पासवान, मीरा कुमार या कोविंद कोई भी हो सबको चुनाव आरक्षित सीट से ही लड़ना है। राष्ट्रपति को संविधान में इन वर्गों के लिये विशेष अधिकारी का अधिकार भी प्राप्त है और इसी अधिकार के तहत पिछड़ा वर्ग आयोग गठित हुए हैं।
इस समय आरक्षण को लेकर जो स्थिति परोक्ष/अपरोक्ष में उभर रही है वह एक बार फिर 1991-1992 जैसे स्वरूप में कब सामने आ जाये इसकी संभावना बराबर बनी हुई है। आज इस संभावित परिदृश्य में राष्ट्रपति की भूमिका भी महत्वपूर्ण होगी यह तय है। ऐसे में आज बहस का रूख इस आकर्षित करने की दिशा में यह प्रयास पाठकों के सामने है।

किसान की उपेक्षा क्यों

भारत कृषि प्रधान देश है। इसके करीब 70% लोग आज भी गांवों में रहते हैं और खेतीबाड़ी करते हैं। यह आज भी हकीकत है और इसी के साथ जुड़ी एक बड़ी हकीकत है कि खाने की हर चीज खेत से ही निकलती है। इसका कोई विकल्प किसी मशीन से अब तक तैयार नहीं हुआ है। फिर जिस क्षेत्र पर 70% आबादी आश्रित हो उससे बड़ा रोजगार का कोई और साधन हो नही सकता लेकिन क्या शासन और प्रशासन इसे स्वीकार करने के लिये तैयार है। यदि सरकार इस सीधी सच्चाई को स्वीकार कर ले तो बहुत सारी समस्याएं आसानी से समाप्त हो जाती हैं। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज कृषि का स्थान सबसे अन्त में धकेल दिया गया है। एक समय यह माना जाता था कि ‘‘ उत्तम खेती, मध्यम व्यापार, निकृष्ट चाकरी.....।’’ लेकिन आज इस धारणा को एकदम उल्ट दिया गया है और इस उल्टने का ही परिणाम है कि आज देश का किसान आन्दोलन के रास्ते पर निकलने को मजबूर हो गया है। क्योंकि दूसरो का अन्नदाता आज स्वयं आत्महत्या के कगार पर पहुंच गया है। आज आन्दोलन के दौरान पुलिस की गोली से होने वाली मौतें  भी उसके आन्दोलन के संकल्प को हिला नही पा रही है।
इस किसान आन्दोलन को समझने के लिये थोड़ा इसकी पृष्ठभूमि में जाने की जरूरत है। शासन का खर्च लगान से चलता है और इस लगान का मुख्य स्त्रोत किसान और उसका खेत होता है यह एक स्वीकृत सच्चाई है। आज इस लगान का पर्याय टैक्स है। एक समय था जब यह लगान सीधे पैदा हुए अन्न के रूप में ही उगाहया जाता था। लेकिन अंग्रेज शासन के दौरान यह लगान अन्न से हटकर सीधे नकद के रूप मे बसूला जाने लगा । इस नकद बसूली के कारण किसान को साहूकार से कर्ज लेने की आवश्यकता पड़ी और जब इस नकद कर्ज को वह समय पर नही लौटा सका तो उसके खेत निलाम होने लग गये। 1861 के आसपास किसान और साहूकार के रिश्ते इस मोड़ पर आ गये कि किसानों ने साहूकारों का घेराव करना शुरू कर दिया। साहूकारों के घर में घुसकर उनसे कर्ज के कागजात छीन कर उनको जला दिया जाने लगा। इस स्थिति को देख कर अंग्रेज शासन साहूकार की सहायता के लिये आगे आ गये और उस जमाने में करीब तीन हजार किसानों की गिरफ्तारी हुई थी। किसानों की गरीबी पर बासुदेव बलवंत फड़के और ज्योतिवा फुले ने सबसे पहले बड़े विस्तार से चर्चाएं उठायी थी और इन्हीं चर्चाओं के परिणामस्वरूप आजादी के बाद सहकारिता और किसान आन्दोलन के लिये वैचारिक धरातल तैयार हुआ।
1980-81 में पूना के निंपाणी में तम्बाकू उत्पादक किसानों का आन्दोलन किसान आन्दोलनों के इतिहास में पहला सफल आन्दोलन रहा है जब मार्च 81 में चालीस हजार किसानों ने अपनी बैलगाड़ीयां लेकर पूना-बंगलौर राजमार्ग को पूरी तरह जाम कर दिया था। 23 दिन चले इस आन्दोलन पर पुलिस ने आंसू गैस और गोली चलाई जिसके कारण 12 किसान इसमें शहीद हुए लेकिन इस आन्दोलन से देश के हर हिस्से में बैठा किसान अपनी स्थिति के प्रति जागरूक हुआ और उसने अपनी उपज के उचित मूल्य की मांग समाज और सरकार के सामने रखी। 1981 के पूना के इस आन्दोलन का ही प्रभाव है उसके बाद पंजाब हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसान भी अपने उत्पाद के उचित मूल्य की मांग करने लगे है। आज किसान आन्दोलन महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राज्यस्थान से निकलकर पंजाब हरियाणा में अपनी दस्तक देने वाला है। किसान गरीब है और कर्ज के बोझ तले दबा हुआ है क्योंकि उसे बाजार में उसकी उपज का उचित मूल्य नही मिल पा रहा है। इसके लिये किसान इस कर्जे से मुक्ति के लिये कर्ज माफी और उसकी उपज के लिये मूल्य निर्धारण की मांग कर रहा है। आज उत्पादक किसान और उपभोक्ता के बीच मूल्य को लेकर इतना बड़ा अन्तर है जिसके कारण दोनों ही अपने-अपने स्थान पर हताश और पीड़ित हैं। उत्पादक किसान आत्महत्या के कगार पर है और उपभोक्ता बढ़ती कीमतों से पेरशान होकर उनका उपयोग-उपभोग छोड़ने को विवश है। लेकिन दोनों के बीच का जो अन्तराल है इसे समझने और पाटने में शासन और प्रशासन पूरी तरह आॅंख बन्द करके बैठा है। आज कुछ राज्य सरकारों ने किसान का कर्जा माफ करने की घोषणाएं की है लेकिन इन घोषणाओं के साथ ही केन्द्र के वित्त मन्त्राी अरूण जेटली ने राज्य सरकारों को स्पष्ट कर दिया है कि किसानों की कर्ज माफी की जिम्मेदारी राज्य सरकारों को अपने संसधनों से उठानी होगी। केन्द्र इसमें कोई सहायता नही करेगा। लेकिन हर राज्य सरकार भारी भरकम कर्ज के बोझ तले है। यह कर्जभार जीडीपी के 3% की सीमा से कहीं अधिक हो चुका है। लेकिन इस कर्ज पर नजर दौडाई जाये तो यह कर्ज विभिन्न उद्योगों की स्थापना और फिर उनको राहत की शक्ल में दिये गये पैकेजो का परिणाम है। उद्योग पैकेजों के बाद इस कर्ज से समाज के कुछ वर्गों को सस्ता राशन , वृद्धावस्था, विधवा बेरोजागारी आदि के लिये दी जाने वाली पैन्शन दी जा रही है। लेकिन सरकारों के इस बढ़ते कर्ज से किसान को कुछ नही मिला है यह स्पष्ट है। फिर जिस अनुपात में उद्योगों को पैकेज दिये जा रहे हैं उस अनुपात में यह उद्योग रोजगार के अवसर पैदा नही कर पाये हैं।
इस परिदृश्य में आज किसान और उद्योग आमने-सामने खड़े होने के कगार पर पहुंच गये हैं। कारखाने को कच्चा माल तो किसान के खेत से जा रहा है या उसके खेत के नीचे दबे खनिज से। लेकिन सरकार इन उद्योगपतियों का तो कई लाख करोड़ का कर्ज माफ करने को तैयार बैठी है लेकिन किसान के लिये नही। आज किसान सरकारों की इस नीयत और नीति को समझ चुका है इसलिये उसे अब और अधिक नजर अन्दाज कर पाना संभव नही होगा।

न्यायिक जवाबदेही की ओर

शिमला के उप-नगर संजौली के समिट्री में 20 अक्तूबर 2011 को घरेलू नौकर अमन चौधरी ने 95 साल के एक बुजुर्ग अंबादत्त धांटा को घर में अकेला पाकर उसका कत्ल कर दिया था। हत्या के बाद अमन चौधरी फरार हो गया था। पुलिस ने मामला दर्ज करके उसे बिहार से गिरफ्तार किया अन्ततः अदालत में धारा 302 के तहत चालान दायर कर दिया। चालान अदालत में आने के बाद अमन चैाधरी ने दलील दी कि वह नाबालिग है। इस पर यह मामला हाईकोर्ट आ गया और हाईकोर्ट ने विशेष जज वन को निर्देश दिये कि वह कानून के मुताबिक आरोपी की उम्र तय करे। इस पर विशेष जज ने आईजीएमसी के मैडिकल अधीक्षक को मैडिकल बोर्ड गठित करके आरोपी की उपरोक्त तिथि को उम्र निर्धारित करने के आदेश दिये। मैडिकल बोर्ड ने आरोपी की जांच करके अपनी रिपोर्ट अदालत को सौंप दी और कहा कि हत्या के दिन आरोपी की उम्र बीस साल से ज्यादा थी। यह रिपोर्ट 21 दिसम्बर 2016 को सौंपी गयी थी। इसके बाद 11 जनवरी 2017 को आरोपी ने व्यक्तिगत तौर पर विशेष जज के पास अर्जी दायर की कि उसकी उम्र का सही-सही पता लगाने के लिये दोबारा पीजीआई से मैडिकल करवाने की अनुमति दी जाये। आरोपी की इस अर्जी को अदालत ने स्वीकार कर लिया। इस अर्जी का सरकारी वकील ने भी विरोध नहीं किया। विशेष जज इस फैसले का हाईकोर्ट के जस्टिस त्रिलोक सिंह चौहान ने कड़ा संज्ञान लेेते हुए इसे प्रथम दृष्टया सही नही पाया। विशेष जज वन ने कैसे यह अर्जी सुन ली जबकि इसमें यह भी जिक्र नही था कि यह किस प्रावधान के तहत दायर की गयी है। उच्च न्यायालय ने कहा है कि सैशन जज की शक्तियां बेलगाम नही है। सीआरपीसी की धारा 482 केे तहत भी असीमित शक्तियां नही है। जस्टिस चौहान ने कहा है कि Therefore in such cricumstances both Learned Session Judge  (Forests) Shimla and Public Prosecutor owe an explanation Learned Session Judge( forests) shimla owes a duty explain as to under what authority of law he passed the order dated. 11.1.2017 and at the same time the Public Prosecutor owes a duty to explain as to why he had not opposed such as application. 
जस्टिस चौहान ने जिस तरह से विशेष जज वन से जवाब तलब किया है और सरकारी वकील के खिलाफ जांच किये जाने का निर्देश गृह सचिव को दिया है उसे न्याययिक अधिकारियों की न्याययिक जवाब देही तय किये जाने की दिशा मेें एक बड़ा कदम करार दिया जा सकता है। न्यायपालिका की भी जवाबदेही तय होनी चाहिये इसको लेकर एक लम्बे अरसे से बहस चली आ रही हैै। केन्द्र सरकार के पास यह जवाबदेही का विधेयक अभी विचाराधीन चल रहा है। जिस तरह का संज्ञान जस्टिस चौहान ने लिया है। ऐसा कोई प्रावधान आम आदमी के पास नही है। कत्ल हुए अंबादत्त धांटा के परिजन ऐसा कोई आग्रह नही कर सकते थे जबकि इस हत्या से पीड़ित वह है। ऐेसे दर्जनों मामले पाये जा सकते है जहां शक्तियों  के अतिक्रमण के कारण इन्साफ न मिल पाया हो और अन्याय को चुपचाप बर्दाश्त कर लिया गया हो।
सामान्यतः निचली अदालत के फैसले को जब ऊपरी अदालत में चुनौती दी जाती है तो कई बार यह फैसले बरकरार रह जाते है परन्तु कई बार बदल जाते है। लेकिन फैसला बदलने की सूरत में निचली अदालत के जज या मामले की पैरवी कर रहे वकील के खिलाफ कोई कारवाई करने का या उससे जवाब तलब करने को कोई प्रत्यक्ष प्रावधान आम आदमी के पास नही है। जबकि आज न्यायपालिका पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगने शुरू हो गये है ऐसे कई मामले सामने भी आ चुके हैं बल्कि पिछले दिनो अरूणाचल के पूर्व मुख्यमन्त्री स्व कालिखो पुल के मरने से पहले लिखे गये पत्र के सामने आने के बाद न्यायपालिका को लेकर एक गंभीर बहस ही नही परन्तु उसकी विश्वसनीयता और निष्पक्षता को लेकर भी गंभीर सवाल उठ खड़े हुए है। न्यायपालिका पर से आम आदमी का भरोसा टूटना समाज के लिये बड़ा नुकसान देह होगा। क्योंकि जब न्यायपालिका पर से भरोसा खत्म हो जायेगा तो समाज में अराजकता फैल जायेगी और फिर जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत चरितार्थ हो जायेगी।
इसलिये आज न्यायपालिका को विश्वसनीयता और भरोसे के संकट से उबारने के लिये यदि कहीं से कोई पहल होनी है तो स्वयं न्यायपालिका को ही शुरूआत करनी होगी। इस परिदृश्य में जस्टिस चौहान का विशेष जज से यह जवाब तलब करना कि किस प्रावधान/शक्ति के तहत ऐसा किया गया यह अपने में एक महत्वपूर्ण पहल साबित होगा। इसी साथ जिस सरकारी वकील ने इसका विरोध करने की जगह मौन रहकर इसको स्वीकृति दे दी उसके खिलाफ जांच के आदेश देना पूरी वकील बरादरी को एक बड़ा सन्देश माना जायेगा क्योंकि प्रायः यह देखा जा रहा है कि बरसों तक अदालत में बिना किसी कारवाई के वकील केवल पेशीयां  लेकर ही समय निकाल देते है। इस समय इस तरह की प्रवृतियों  पर रोक लगाने की आवश्यकता है और वह जस्टिस चैहान जैसे साहसिक फैसलों से ही लगेगी।

गोवंश की राजनीति

शिमला/शैल।  गोवंश रक्षा इन दिनो राजनीति का एक बड़ा मुद्दा बनाता जा रहा है। गोरक्षा के नाम पर पिछले कुछ अरसे में देश के विभिन्न भागों में गोरक्षकों के अति उत्साह के हिंसक तक हो जाने के कई प्रकरण सामने आ चुके हैं। गो रक्षकों के हिंसक उत्साह का शिकार कई स्थानों पर मुस्लिम और दलित समाज के लोग हुए हैं। गोरक्षकों के हिंसक होने का तर्क रहा है कि यह लोग गोवंश को मारने के लिये बूचड़खानों में ले जा रहे थे और उन्हे ऐसा करने से रोकने के प्रयास में यह दुर्घटनाएं हुई हैं। उत्तर प्रदेश में तो योगी सरकार बनने के बाद बूचड़खानों को बन्द करवाने की जो मुहिम चली थी उसका अन्त उच्च न्यायालय के आदेशों के बाद हुआ। उच्च न्यायालय ने बन्द करवायेे गये कई बूचड़खानों को फिर से खुलवाया क्योंकि यह कारवाई कानून की नजर में अवैध थी। गोरक्षा के नाम पर उठे इस उत्साह को केन्द्र सरकार से लेकर राज्यों की भाजपा सरकारों का परोक्ष/अपरोक्ष समर्थन रहा है यह पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है। गोरक्षा आन्दोलन आज जिस तरह से शक्ल ले रहा है वैसा ही आन्दोलन साठ के दशक में भी देश देख चुका है। उस समय इसकी अगुवाई देश का साधू समाज कर रहा था और इसके लिये स्व. गुलजारी लाल नन्दा को अपना पद तक त्यागना पड़ा था। इसी आन्दोलन का परिणाम था कि सरकार को उस समय पशु क्रुरता प्रतिबन्ध अधिनियम 1960 लाना पड़ा था। उस दौरान गोरक्षा आन्दोलन को कोई राजनीतिक अर्थ नहीं दिया गया था। लेकिन आज गोरक्षकों की कार्यशैली से राजनीति की गन्ध आ रही है और यही सबसे अधिक नुकसान देह है।
1960 में जो पशु क्रुरता प्रतिबन्ध अधिनियम आया था उसके तहत पशुओं पर होने वाली हिंसा को रोका जा सकता है लेकिन अभी जो पशु बाजारों मे गोवंश व अन्य पशुओं की खरीद-बेच पर प्रतिबन्ध का जो नया अधिनियम केन्द्र सरकार लायी है उसके मुताबिक इन बाजारों/मेलों से कटाने के लिये पशुओं को नहीं खरीदा जा सकता। इस नये कानूनों के मुताबिक राज्य की सीमा के 25 किमी और अन्र्तराष्ट्रीय सीमा के 50 किमी के भीतर पशु बाजार नही लगाया जा सकता। इस नये कानून पर देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग -अलग प्रतिक्रियाएं उभरी है। मद्रास और केरल में इसका विरोध हुआ है। मद्रास हाईकोर्ट ने केन्द्र के इस कानून पर रोक लगाते हुए राज्य सरकार और केन्द्र सरकार से चार सप्ताह के भीतर जबाव मांगा है। दूसरी और राजस्थान हाईकोर्ट ने केन्द्र से भी दो कदम आगे जाते हुए गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने का निर्देश दिया है। गोहत्या के अपराधियों को आजीवन कारावास का आदेश दिया है। केरल के मुख्यमन्त्री विजयन ने इसे लोकतन्त्र विरोधी करार दिया है तो बंगाल में ममता बेनर्जी ने इसे मानने से इन्कार कर दिया है क्योंकि यह राज्य सरकार का विषय है। मेघालय के सांसद  और पूर्व मन्त्री पाला ने मोदी सरकार को पत्र लिखकर इस नये कानून को वापिस लेने का आग्रह किया है। देश के दो हाईकोर्टों की इस संद्धर्भ में जब अलग-अलग राय है तो निश्चित रूप से यह विषय इतना सरल नही है और न ही इस पर उठे विरोध को आसानी से नजर अन्दाज किया जा सकता है।
इस परिदृश्य में पूरे मुद्दे को निष्पक्षता से परखने की आवश्यकता है। गाय दूध देने वाला पशु है। गाय के साथ ही भैंस और बकरी भी दूध देते हैं। इसमें कई और पशु भी आ जाते हैं। दूध हर जीवधारी की आवश्यकता है इसमें कोई दो राय नहीे है। इन जीवधारियों में मानव की सबसे ऊपर है इसलिये सारा सरोकार इसी मानव के गिर्द केन्द्रित हो जाता है। मानव जीवन के लिये दूध के अतिरिक्त रोटी और अन्य खाद्य पदार्थ भी बहुत आवश्यक हैं लेकिन दूध की आवश्यकता जन्म लेते ही शुरू हो जाती है। मां के दूध के बाद सबसे ज्यादा पोषक तत्व गाय के दूध में होते हैं संभवतः इसी कारण से गाय को धर्म का प्रतीक बनाकर हमारे ऋषियों ने उनकी रक्षा का विधान खड़ा किया है। गो हत्या को पाप की संज्ञा देेना इसी रक्षा के प्रयास का गणित है। इसीलिये हर गृहस्थ को गो पालन आवश्यक था। गाय का दूध अन्य पशुओं की अपेक्षा ज्यादा श्रेष्ठ है और उसके गोबर तथा गोमूत्रा में भी गुण हैं इसलिये गोरक्षा की आवश्यकता बड़ी बन जाती है। लेकिन क्या आज हर गृहस्थ गो पालन का धर्म निभा पा रहा है? बल्कि जो लोग गो रक्षक बनकर सामने आ रहे हैं उनके अपने घरों में भी शायद गो पालन नही हो रहा है। आज आवारा पशुओं में भी गाय सबसे अधिक देखने को मिलती है जिसका अर्थ है कि जब दूध नही है तो गाय को आवारा छोड़ दिया जाता है। इन आवारा पशुओं का गो सदन में भी पूरा प्रबन्ध नही हो पा रहा है। जिस राजस्थान के हाईकोर्ट ने गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने का आदेश दिया है उसी राजस्थान की सरकारी गोशाला का हाल देश के सामने आ चुका है।
इस परिदृश्य में आज यह आवश्यक है कि कोई भी पशु आवारा/अनुपयोगी होकर सड़क पर न छोड़ा जाये। सारे पशुओं के पालन की व्यवस्था सुनिश्चित की जाये। जब यह व्यवस्था सुनिश्चित हो जायेगी तभी हर तरह के पशुओं पर क्रूरता रोकी जा सकेगी। आज पशु व्यापार को ऐसे प्रतिबन्धों सेे रोकने के प्रयास से केवल राजनीतिक मुद्दे ही बनेंगे। बल्कि इसे धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण के प्रयास की संज्ञा दे दी जायेगी। इसलिये आज पशु व्यापार पर इस तरह के नियम थोपने की बजाये पशुओं के पालन की व्यवस्था सुनिश्चित करने और इसके लिये एक मानसिकता तैयार करने की आवश्यकता है। इस व्यवस्था के बाद ही यह सुनिश्चित करना आसान होगा कि किस पशु की कब क्या उपयोगिता है और उसके बाद उसका क्या प्रबन्ध किया जाना चाहिये।

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