Tuesday, 16 December 2025
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क्या नोटबंदी चुनाव पर असर डालेगी?

शिमला/शैल। प्रदेश विधानसभा के लिये 9 नवम्बर को मतदान होने जा रहा है और 8 नवम्बर को नोटबंदी के फैसले को लागू हुए एक वर्ष पूरा हो रहा है। विपक्ष ने 8 नवम्बर का ब्लैक डे तो सत्तापक्ष ने इसे कालेधन का प्रहार के रूप मे मनाने का फैसला लिया है। इस परिदृश्य में नोटबंदी के फैसले की समीक्षा किया जाना आवश्यक हो जाता है। रिजर्व बैंक ने स्वीकार किया है कि नोटबंदी के बाद 99% पुराने नोट उसके पास वापिस आ गये है और इसी के साथ यह भी स्वीकारा है कि इस फैसले के बाद जीडीपी में कमी आयी है। नोटबंदी के बाद ही ‘‘एक देश एक टैक्स’’ के तहत जीएसटी का फैसला लागू हुआ है। नोटबंदी के फैसले की समीक्षा करना, उस पर प्रतिक्रिया देना आम आदमी के लिये आसान नही है। लेकिन जीएसटी के फैसले से जिस कदर आम आदमी प्रभावित हुआ है उसका असर इसी सेे
लगाया जा सकता है कि अभी कुछ दिन पहले ही भारत सरकार के राजस्व सचिव आढ़िया ने एक ब्यान मे माना कि जीएसटी को रिस्ट्रक्चर करने की आवश्यकता है। भारत सरकार के स्वास्थ्य मन्त्री जेपी नड्डा से जब इस बारे में एक पत्रकार वार्ता में पूछा गया तो उन्होने जीएसअी लागू करने के लिये एनडीए सरकार की बजाये जीएसटी कांऊसिल को पूरी तरह जिम्मेदार ठहराया जबकि इसे लागू करते समय मोदी की एनडीए सरकार ने इसे एक बड़ी उपलब्धि करार दिया था। जीएसटी पर जिस तरह मोदी सरकार जिम्मेदारी से बचने का प्रयास कर रही है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि नोटबंदी और जीएसटी के फैसलों से हुए नुकसान और आम आदमी को मिली पेरशानी से अब मोदी सरकार बैकफुट पर आ गयी है।
इन फैसलों का अभी हिमाचल और गुजरात के चुनावों पर क्यों और क्या असर पड़ेगा। इसकी पड़ताल करने से पहले यह समझना बहुत जरूरी है कि जब यह फैसले लिये गये थे उस समय की आर्थिक स्थिति क्या थी? किसी देश की अर्थव्यवस्था में करंसी उस देश के जीडीपी के अनुपात में छापी जाती है। चीन हमारे से बड़ा देश है उसका जीडीपी दस लाख करोड़ अमेरीकी डाॅलर है और हमारा दो लाख करोड़ अमेरीकी ड़ाॅलर है। चीन में करंसी 9% तथा भारत में 10.6 के अनुपात में छापी जाती है। रिजर्व बैंक इस सन्तुलन को बनायेे रखता है। रिजर्व बैंक की साईट पर आये मनी स्टाक के आंकड़ो के मुताबिक जुलाई 2016 को 17,36,177 करोड़ की कुल करंसी परिचालन में थी। इसमें से 475034 करोड़ बैंको की तिजोरी में थी और 16,61,143 करोड़ बैंको के बाहर जनता के पास थी। लेकिन जनता के पास इतनी ज्यादा कंरसी होने के वाबजूद जनता खरीददारी नही कर रही थी। बैंको के पास पैसा आ नही रहा था। बैंक भुगतान के संकट में आ गये थेे ऊपर से सरकार और बैंको को मार्च 2019 तक ब्रेसल-3 के मानक परे करने थे। इसके लिये प्रोविज़निग की जानी थी जिसके लिये पांच लाख करोड़ की नकदी चाहिये थी। इस स्थिति को सरकार ने यह माना कि जब जनता इतनी कंरसी होने के वाबजूद खरीददारी नही कर रही है तो निश्चित रूप से इतना पैसा लोगों के पास कालेधन के रूप में है। यह कुल कंरसी का 86% था। इससे उबरने के लियेे एक तरीका यह था कि जो कर्ज दिया गया है उसकी सख्ती से वसूली की जाए। लेकिन ज्यादा कर्ज बड़े उद्योगपतियों के पास था और सरकार उन पर सख्ती नही करना चाहती थी। इसलिये सरकार ने नोटबंदी का फैसला लिया। सरकार को विश्वास था कि 500 और 1000 के नोटों का परिचालन बंद करके उसे नये सिरे से 86% कंरसी छापने का अधिकार मिल जायेगा और पुराने नोट क्योंकि कालाधन है तो वह उसके पास वापिस नही आयेंगे। इस तरह नयी कंरसी के सहारे वह बड़े घरानों के कर्ज भी माफ कर देगी और बैंक भी संकट से निकल जायेेंगे। इसीलिये नोटबंदी की घोषणा के साथ ही यह कहा गया 2.5 लाख से ज्यादा जमा करवाने पर जांच की जायेगी। जब जनधन खातों में पैसा जमा होने लगा तो इन खातों में पुराने नोटे जमा करवाने पर पाबंदी लगा दी। एफडी इन्दिरा विकास पत्र आदि बचत खातोें में पुराने नोटों पर पाबंदी लगा दी। ग्रामीण क्षेत्र के सहकारी बैंको में पुराने नोट बदलने में रोक लगा दी। पहले कहा 30 दिसम्बर 2016 के बाद 31 मार्च 2017 तक रिर्जब बैंक में पुराने नोट जमा करवा सकते हैं लेकिन बाद में कहा कि केवल विदेशी ही करवा सकते हैं।
इस तरह पुरानी करंसी को वापिस आने से रोकेने के लिये किये गये सारे प्रयास असफल हो गये। क्योंकि आयकर विभाग की एक रिपोर्ट के मुताबिक नकद कंरसी के रूप में कालाधन केवल 5 से 6 प्रतिशत ही रहता है। सरकार का इस तरह सारा आंकलन फेल हो गया और 99% पुरानी कंरसी उसके पास वापिस आ गयी । लेकिन बड़े घरानो का कर्ज वापिस नही आया अब बैंको को संकट से बचाने के लिये प्रोविजनिंग करने हेतु तथा ब्रेसल -3 के मानको को पूरा करने के लिये 5 लाख करोड़ की आवश्यकता है जिसे इस तरह से जीएसटी आदि के माध्यम से पूरा करने की योजना पर काम किया जा रहा है फिर सरकार ने स्मार्ट सिटी, मेक-इन-इण्डिया, डिजिटल इन्डिया और स्र्टाट अप जैसी जितनी भी विकास योजनाएं घोषित की हैं वह सब विदेशी कर्जे पर आधारित हैं। लेकिन विदेशी निवेशकों ने यह निवेश करने से पहले आम आदमी को दी जाने वाली सब्सिडि आदि की सरकारी राहतों को तुरन्त बन्द करने की शर्ते रखी हैं। विदेशी निवेशक बैंको का निजिकरण चाहता है। सरकार द्वन्द में फंसी हुई है। वित्त मन्त्री ने बार-बार घोषणा की हैं कि चुनावों का वित्तिय सुधारों पर कोई असर नही पड़ेगा वह जारी रहेंगे।अब आम आदमी को सरकार के इन फैसलों का प्रभाव व्यवहार रूप में देखने को मिल रहा है। माना जा रहा है कि इसका असर इन चुनावों पर अश्वय पड़ेगा।

सामूहिक नेतृत्व से कुछ प्रश्न

हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिये भाजपा और कंाग्रेस दोनों के उम्मीदवारों की सूचियां आ चुकी हैं। नामांकन भरे जा रहे हंै। कांग्रेस यह चुनाव वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में लड़ रही है। यह कांग्रेस हाईकमान घोषित कर चुकी है। तय है कि यदि कांग्रेस सत्ता में आती है तो उसकेे अगले मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह ही होंगे। दूसरीे ओर भाजपा हाईकमान नेे किसी को भी नेता घोषित नहीे किया है। कल को यदि भाजपा को बहुमत मिलता है तो उसका मुख्यमन्त्राीे कौन होेगा यह किसीे को भी आज की तारीख में मालूम नही है। भाजपा सामूहिक नेतृत्व के साये तले यह चुनाव लड़ने जा रही है। इस सामूहिक नेतृत्व का अर्थ होता है कि एक नेता विशेष के व्यक्तित्व और सोच/दर्शन के स्थान पर पार्टी की सोच/दर्शन के नाम पर यह चुनाव लड़ा जायेगा। पार्टी के आगे व्यक्ति गौण हो जाता है यह सामूहिक नेतृत्व का स्वभाविक गुण होता है।
प्रदेश में इससे पहले तीन बार भाजपा की सरकारें रह चुकी हैं। 1990 में शान्ता कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया और सरकार बनी भले ही वह बावरी मस्जिद राम मन्दिर विवाद के चलते पूरा कार्यकाल नही चला पायी। उसके बाद 1998 और 2007 में धूमल के नेतृत्व में चुनाव लड़े गये और दोनांे बार सरकारें बनी तथा पूरा कार्यकाल चली। लेकिन केन्द्र मंे मोदी सरकार से पहलेे भाजपा अकेलेे अपने दम पर सरकार नही बना पायी। इस समय केन्द्र मंे प्रचण्ड बहुमत के साथ भाजपा की सरकार है। इसी बहुमत के कारण राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के दोनों पद भी भाजपा को मिल पाये हैं। आज केन्द्र में भाजपा की स्पष्ट सरकार होने के कारण पार्टी अपनेे आर्थिक राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दर्शन को अमली शक्ल देने की पूरी स्थिति में है तथा वह ऐसा कर भी रही है। इसलिये आज पंचायत से लेकर संसद तक के हर चुनाव में पार्टी की विचारधारा ही मुख्य भूमिका में रहेगी। भाजपा संघ परिवार की एक राजनीतिक इकाई है यह सब जानते हंै इसलियेे विचारधारा के नाम पर संघ का ही दर्शन प्रभावी और हावि रहेगा। इस नाते प्रदेश विधानसभा चुनावों में भाजपा का पूरा अभियान इसी दर्शन के गिर्द केन्द्रित रहेगा यह स्वभाविक है। क्योंकि कांग्रेस और वीरभद्र के जिस भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने का प्रयास किया गया था वह सुक्ख राम परिवार के भाजपा में शामिल होने से अब अप्रभावीे हो गया है।
इसलिये आज केन्द्र सरकार के आर्थिक फैंसले और उसकी दूसरी नीतियां चुनावी चर्चा बनेगे यह तय है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि प्रदेश मंे यह चुनाव अनचाहे हीे मोदी बनाम वीरभद्र बन जायेगा भले ही वीरभद्र इससे लाख इन्कार करते रहें। क्योंकि केन्द्र की ओर से प्रदेश को जो कुछ दिया गया है या घोषित किया गया है उसे भुनाना भाजपा की आवश्यकता होगी। लेकिन जब यह सब भुनाया जायेगा तब केन्द्र के फैसलेे भी जन चर्चा में आयेंगे जिनका प्रभाव पूरे देश पर पड़ा है और जनता में एक रोष की स्थिति पैदा होती जा रही है। किसी भी सरकार की सफलता का सबसे बड़ा मानक उसके आर्थिक फैसले होते हंै। आज केन्द्र की भाजपा सरकार के मुखिया मोदी जी हैं। प्रधानमंत्री बनने से पहले गुजरात के मुख्यमन्त्री थे। वहां वह लगातार तीसरी बार जीत गये थे। वैसे लगातार तीसरी बार जीतने वालों में भाजपा के शिव राज सिंह चैहान और डा. रमण सिंह भी आते हंै। लेकिन क्योंकि मोदी संघ के प्रचारक भी रह चुके हंै इसलिये संघ ने केन्द्रिय नेतृत्व के लिये उन्हें चुना। मोदी के कार्याकाल में गुजरात में कितना विकास हुआ है इसका एक अनुमान तो इसी से लगाया जा सकता है कि अभी गुजरात के चुनाव की तारीखें घोषित होनी है और मोदी को वहां के लिये एक ही दौरे में 22500 करोड़ की घोषणाएं करनी पड़ी हंै। अभी ऐसी ही और घोषणाएं भी हो सकती हैं। सभंवतः इन्ही घोषणाआंे के लिये हीे हिमाचल के साथ वहां के चुनाव घोषित नही किये गये हैं। इन घोषणाओ में सबसेे दिलचस्प तो यह रहा है कि मोदी को अपने ही गृह नगर बड़नगर में स्वास्थ्य सुविधायंे उपलब्ध करवाने के लिये 500 करोड़ की घोषणा करनी पड़ी है। क्या इससे यह प्रमाणित नही हो जाता कि बतौर मुख्यमन्त्री वह अपने गृह नगर को समुचित स्वास्थ्य सुविधा तक नही दे पाये हंै।
इससे भी महत्वपूर्ण तो यह है कि मोदी के कार्याकाल में गुजरात सरकार का कर्जभार रिर्जब बैंक की एक स्टडी के मुताबिक 2.1 लाख करोड़ से अधिक जा पहुंचा था गुजरात विधानसभा में वहां के वित्तमन्त्री नितिन पटेल 2015-16 के बजट अनुमान प्रस्तुत करते हुए हाऊस को यह जानकारी दी थी कि इस वर्ष सरकार का कर्जभार 1,82,098 करोड़ हो चुका है। इस पर कांग्रेस विधायक अनिल जोशियारा के प्रश्न पर प्रश्नकाल के दौरान यह बताया गया कि 2014-15 में यह कर्ज 1,63,451 करोड़ था जो अब 18,647 करोड़ बढ़ गया है। इसी पर अनुपूरक प्रश्न के उत्तर मंे बताया गया कि इससे पूर्व के दो वर्षो में 19,454 और 24,852 करोड़ का कर्ज लिया गया। इसी जानकारी में यह भी बताया गया कि 2013-14 में 13061 करोड़ ब्याज और 5509 करोड़ मूलधन वापिस किया गया। 2015-16 में 14.495 करोड़ ब्याज और 6205 करोड़ मूलधन कें रूप में लौटाया गया। इन आंकडो से यह समझ आता है कि जो प्रदेश जितना प्रतिवर्ष ब्याज अदा कर रहा है मूलधन की किश्त तो उसके आधे सेे भी कम वापिस की जा रही है ऐसे पूरा कर्ज लौटाने में कितना समय लग जायेगा। इसी के साथ यह भी प्रश्न उठता है कि जब अपने ही गृह नगर को मोदी आज केन्द्र के पैसे से स्वास्थ्य सुविधा दे रहे हैं तो फिर यह दो लाख करोड़ का कर्ज कहां निवेश हुआ। क्या इस कर्ज से कुछ बड़े औद्यौगिक घरानों के लिये ही सुविधायें जुटायी गयी है। क्योंकि आज केन्द्र के सारे बड़ेे आर्थिक फैसलों का लाभ भी इन्ही बडे़ घरानों को मिलता दिख रहा है और आम आदमी के हिस्से केवल जीएसटी से कीमते बढ़ना, पैट्रोल डीजल और रसोई गैस के दाम बढ़ना ही हिस्से में आयेगा। आज आम आदमी से अनुरोध है कि इस चुनाव में वह इन जवलन्त प्रश्नों पर नेताआंे सेे जवाब मांगेे। पार्टीयों के ऐजैण्डे की जगह अपने इन सवालों पर चुनाव को केन्द्रित करे।

चुनाव आयोग की निष्पक्षता सवालों में

हिमाचल प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल 7 जनवरी और गुजरात विधानसभा का 22 जनवरी 2018 को समाप्त हो रहा है। पांच वर्ष पूर्व दोनों राज्यों की विधानसभाओं के लिये चुनावों की घोषणा 3 अक्तूबर 2012 को एक साथ कर दी गयी थी। 2012 में हिमाचल में मतदान 4 नवम्बर को और गुजरात में 13 और 17 दिसम्बर को हुआ था। मतगणना दोनो राज्यों में 20 दिसम्बर को हुई थी। लेकिन इस बार चुनाव आयोग ने हिमाचल के लिये तो 12 अक्तूबर को चुनावों की घोषणा का दी परन्तु गुजरात के लिये नही की। आयोग की घोषणा के मुताबिक हिमाचल में 9 नवम्बर को मतदान होगा और 18 दिसम्बर को मतगणना होगी। हिमाचल के लिये चुनाव कार्यक्रम कर घोषणा करते हुए गुजरात के संद्धर्भ में आयोग ने इतना ही कहा कि वहीं पर भी 18 दिसम्बर से पहले चुनाव करवा लिये जायेंगे। परन्तु उसके लिये चुनाव तिथियों की घोषणा बाद में की जायेगी।
हिमाचल और गुजरात के बाद फरवरी, मार्च 2018 में मेघालय नागालैंड और त्रिपुरा विधान सभाओं के चुनाव होने है। स्वभाविक है कि इन राज्यों के लिये चुनाव कार्यक्रम की घोषणा हिमाचल - गुजरात के परणिामों के करीब एक पखवाडे़ के बाद कर दी जायेगी। अभी कुछ दिन पहले ही चुनाव आयोग ने यह घोषणा की थी कि सितम्बर 2018 तक वह राज्यों की विधान सभाओं और लोक सभा के लिये एक साथ चुनाव करवाने के लिये तैयार होगा। स्मरणीय है कि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने संसद में यह मंशा जाहिर की थी कि लोक सभा और राज्यों की विधानसभाओं के लिये एक साथ चुनाव होने चाहिये और इसके लिये वह प्रयास करेंगे। स्वभाविक है कि प्रधानमन्त्री की इसी मंशा को अमली जामा पहनाने के लिये चुनाव आयोग ने इस दिशा में तैयारी करने के बाद मीडिया से यह विचार सांझा किये होंगे। विधान सभाओ और लोकसभा के चुनाव के एक साथ हो यह एक अच्छा कदम होगा। इससे चुनाव खर्च में कमी आयेगी। 1952 में हुए पहले चुनाव के बाद काफी समय तक एक साथ यह चुनाव होते रहे हैं लेकिन ऐसा करने के पीछे मंशा क्या है यह समझना महत्वपूर्ण और आवश्यक होगा क्योंकि इसमें निष्पक्षता ही सबसे आवश्यक मानदण्ड है।
लेकिन जहां 2018 में चुनाव आयोग इतने बड़े कार्यक्रम के लिये अपने को तैयार कर रहा हैै तो क्या उसके लिये आज इन 5 राज्यों के लिये एक साथ चुनाव करवाने की पहल नही कर लेनी चाहिये थी? परन्तु चुनाव आयोग तो आज हिमाचल और गुजरात के चुनाव एक साथ नही करवा पा रहा है। चुनाव आयोग की घोषणा के साथ ही हिमाचल में तो आचार संहिता लागू हो गयी है। इस घोषणा के साथ ही गुजरात को यह तो स्पष्ट हो गया है कि वहां भी चुनाव 18 दिसम्बर से दो-चार दिन पहले हो जायेंगे क्योंकि परिणाम दोनो ही राज्यों के एक साथ आयेंगे। लेकिन इससे गुजरात सरकार को अभी किसी भी तरह के लोक लुभावन फैसले लेने की सुविधा प्राप्त रहेगी। अभी प्रधानमन्त्री दो दिन के गुजरात दौरे पर जा रहे हैं और वह केन्द्र सरकार की ओर से राज्य को कुछ भी दे आयेंगे। चुनाव आयेाग ने हिमाचल के साथ ही गुजरात के चुनाव कार्यक्रम की घोषणा न करने का यह तर्क दिया है कि वहां की सरकार ने बरसात में वर्षा, बाढ़ से हुए नुकसान की मुरम्मत आदि के कार्यो को पूरा करने के लिये उसे कुछ समय चाहिए कि आयोग से मांग की है। आयोग ने सरकार के इस आग्रह को स्वीकार करते हुए चुनाव तारीखों की घोषणा कुछ समय के लिये टाल दी है। आयोग का यह तर्क अपने में बहुत कमज़ोर ही नही बल्कि काफी हास्यस्पद भी लगता है। क्योंकि सभी जानते हैं कि आचार संहिता लागू होने के बाद पुराने चले हुए कार्यो को पूरा करने पर कोई बंदिश नही होती है केवल एकदम नयी घोषणाएं नही की जा सकती है। आयोग के इस आचरण से उसकी निष्पक्षता पर स्वभाविक रूप से सन्देह उभरते हैं।
हिमाचल में 9 नवम्बर को मतदान होे जाने के बाद यहां का परिणाम 18 दिसम्बर को निकालने तक करीब चालीस दिन तक यहां की सरकार और पूरा प्रशासन पंगू बना रहेगा। आयोग ने मतदान से परिणाम तक इतना लम्बा समय इसलिये किया है ताकि हिमाचल का परिणाम पहले घोषित कर देने से इसका असर गुजरात पर न पड़े। गुजरात विधानसभा का कार्यकाल 22 जनवरी को पूरा हो रहा है जिसका अर्थ है कि वहां पर जनवरी में भी मतदान करवाया जा सकता है ऐसे में चुनाव आयोग को अपनी निष्पक्षता स्थापित करने के लिये हिमाचल का परिणाम मतदान के दो दिन बाद ही घोषित कर देना चाहिए ताकि यहां सरकार बनकर वह जन कार्यों में लग जाये और गुजरात के लिये चुनाव कार्यक्रम की घोषणा ही 15 दिसम्बर के बाद करनी चाहिये।

नकारात्मकता का आरोप बहुत कमजोर तर्क है

मोदी सरकार के आर्थिक फैसलों को लेकर छिड़ी बहस का जवाब देते हुए प्रधानमन्त्री ने इन फैसलो के आलोचकों पर नकारात्मकता फैलाने को आरोप लगाया है। लेकिन इसी के साथ यह भी स्वीकारा है कि आर्थिक विकास दर में कमी आयी है। प्रधानमन्त्री ने यह स्वीकारते हुए यह भी दावा किया है कि जल्द ही विकास दर में तेजी आयेगी। इसके लिये उन्होने उनकी सरकार और स्वयं उन पर भरोसा रखने को कहा है। मोदी जी और उनकी सरकार पर 2019 के चुनावों तक आम आदमी के पास उन पर भरोसा रखने के अलावा और कोई विकल्प भी नही है। इस हकीकत को मोदी और आम आदमी दोनो ही समझते हैं। उत्तर प्रदेश पंजाब और उत्तराखण्ड राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों क बाद देश पर जीएसटी का फैसला आया है। इस फैसले से देश का हर व्यक्ति/परिवार प्रत्यक्षतः उसी तरह प्रभावित हुआ है जिस तरह आपातकाल के दौरान नसबंदी से लोग प्रभावित हुए थे। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि जीएसटी का प्रभाव नसबंदी से कई गुणा बड़ा है और इसका परिणाम भी उससे बड़ा ही होगा। इन राज्यों के चुनावों से पहले जो नोटबंदी का फैसला आया था उसकी पूरी समझ तो शायद अब तक भी नही आई है। क्योंकि आरबीआई को ही नोटबंदी से जुड़े आंकड़ो को देश के सामने रखने में करीब एक वर्ष का समय लग गया है। यशवंत सिन्हा और अरूण शौरी जैसे पूर्व मन्त्री भी नोटबंदी के प्रभावों और परिणामों पर अब मुखर हो पाये हैं।
लेकिन जीएसटी के बाद पैट्रोल, डीजल और रसोई गैस सिलेण्डर की कीमतों के बढ़ने से हर आदमी इस पर अब रोष में है। ऊपर से केन्द्र के एक मन्त्री का यह ब्यान आना कि मोटर साईकिल और कार चलाने वाला इससे मर नही जायेगा यह दर्शाता है कि मोदी की सरकार और उसके मन्त्री कितने संवेदनशील है क्योंकि इस ब्यान की प्रधानमन्त्री या पार्टी अध्यक्ष अमितशाह किसी एक ने भी इसकी निन्दा नही की है। कड़वा सच यह है कि मोदी सरकार आने के बाद खाद्य पदार्थों की कीमतों में लगातार बढ़ौत्तरी ही देखने को मिली है। ऐसे में अब यह सवाल उठना शुरू हो गया है कि ऐसा क्या हो गया है जिसके कारण यह कीमतें बढ़ी है। क्योंकि पिछले चार वर्षों में ऐसी कोई प्राकृतिक आपदा देश पर नही आयी है जिसके कारण सारे संसाधन नष्ट हो गये हो। उत्पादन बन्द हो गया, सरकार को अपने कोष के दरवाजे आम आदमी को राहत देने के लिये खोलने पड़े हों। इसलिये जब वित्त मन्त्री अरूण जेटली ने यह कहा कि जब सरकारी कोष में पर्याप्त राजस्व आ जायेगा तो उसके बाद जीएसटी की दरों में कमी दी जायेगी। आज केन्द्र राज्यों को पैट्रोल, डीजल पर अपना वैट कम करने के लिये कह रहा है। यदि राज्य सरकारें ऐसा नही करेगी तो फिर इस मंहगाई के लिये राज्यों को जिम्मेदार ठहरा दिया जायेगा। जबकि पैट्रोल डीजल को जीएसटी के दायरे में लाकर इसका हल निकाला जा सकता था। लेकिन केन्द्र ऐसा नही कर रहा है। न ही वित्त मन्त्री ने देश को यह बताया है कि सरकार को कितना राजस्व चाहिए और राजस्व की कमी के लिये कौन जिम्मेदार है क्योंकि सरकारी बैंकोे के कर्मचारियों और अधिकारियों की यूनियनों ने जब केन्द्र के बैंक सुधारों को जन विरोधी करार दिया तब उन्होने यह सामने लाया कि जब इस सरकार नेे सत्ता संभाली थी तब बैंकों का एनपीए 60 हजार करोड़ था जो अब बढ़ कर 6 लाख करोड़ पहुंच गया है
स्वभाविक है कि सरकारी  बैंकों के इस बढ़तेे एनपीए के कारण नये निवेश के लिये पर्याप्त धन नही है। फिर नोटबंदी से जो लाभ अपेक्षित थे वह मिलने की बजाये उससे केवल नुकसान ही हुआ है। आरबीआई ने देश को यह तो बता दिया कि उसके पास 99% पुराने नोट वापिस आ गये हैं। लेकिन यह अभी तक नही बताया जा रहा है कि कालाधन कितना पकड़ा गया और ऐसे धन के कितने धारकों का कितना नुकसान हुआ है। बल्कि आज अरूण शौरी जैसे पूर्व मन्त्री ने नोटबंदी को सबसे बड़ा मनीलाॅंडरिंग स्कैम करार दिया है। क्योंकि नोटबंदी से पहले तक स्वामी रामदेव जैसे लोग जो लाखों करोड़ के कालेधन के आंकड़े आयेे दिन देश को परोस रहे थेे वह सब लोग नोटबंदी के बाद इस विषय पर एकदम मौन हो गये है। बल्कि नोटबंदी के माध्यम से आम आदमी की बचत का सारा पैसा बैंको के पास आ गया है। बैंको के पास इस तरह से ज्यादा पैसा आ जाने से बचत पर ब्याज दरों में कटौती कर दी गयी। ऐसे में नोटबंदी से लेकर जनधन खाता योजना और जीएसटी तक के सारे फैसलों से मंहगाई में तो कोई कमी नही आई है। क्योंकि आम आदमी के आंकलन का सबसे सुलभ पैमाना तो मंहगाई ही है। हो सकता है कि इस मंहगाई से सरकारी और नीजि क्षेत्र का कर्मचारी तथा छोटा-बड़ा उद्योगपति, शहर से लेकर गांव तक फैला दुकानदार इतना प्रभावित न हो जितना की आम आदमी। लेकिन इन लोगों का कुल प्रतिशत आय के मुकाबले में अभी तक 25% भी नही है। आज भी देश का 75% आदमी इस मंहगाई और बेरोजगारी से बुरी तरह त्रस्त है। इसलिये आज यह 75% आम आदमी सरकार के आर्थिक फैसलों के गुण दोष परखने लग पड़ा है। वह उसके अनदेखे भविष्य की आस में अपनेे वर्तमान को बली चढ़ाने के लिये तैयार नही है। उसे बुलेट ट्रेन के फैसले से प्रलोभित कर पाना संभव नही होगा। उसे अपने खेत की उपज का वाजिब दाम और उसे बाज़ार तक लेकर जाने का साधन चाहिये जिसकी उसे दूर- दूर तक आस नही दिख रही है। इसलिये मोदी सरकार के आर्थिक फैसलों पर उठने वाले सवालों को नकारात्मकता का आरोप लगाकर दबाना संभव नही होगा।

मोदी सरकार के आर्थिक फैसलों पर उठते सवाल

शिमला/शैल। किसी भी सरकार की प्रमुख कसौटी उसके आर्थिक फैसले होते हैं क्योंकि इन फैसलों का सीधा प्रभाव देश के हर नागरिक पर पड़ता है। कोई भी व्यक्ति ज्यादा देर तक इन फैसलों पर तटस्थ नही रह सकता है। यदि वह प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष में सरकार का समर्थक होगा तो इन फैसलों को जायज ठहराने के लिये तर्क तलाश लेगा। लेकिन जो व्यक्ति किसी भी दल का सदस्य नही होगा वह इन फैसलों पर अपनी बेबाक प्रतिक्रिया व्यक्त करेगा। 2014 में जब लोकसभा चुनाव हुए थे उस समय पूरा देश मंहगाई बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलित था। अन्ना का आन्दोलन उस रोष का प्रखर मूर्त रूप था। उस समय देश कांग्रेस और यू.पी.ए. के शासन का विकल्प तलाश रहा था। उस समय पूरा रजनीतिक ध्रुवीकरण एन.डी.ए. और यू.पी.ए. की शक्ल में सामने था। इनका कोई तीसरा कारगर विकल्प देश के सामने नही था। इसलिये यू.पी.ए. का विकल्प एन.डी.ए में सारा सत्ता समीकरण केवल भाजपा के गिर्द ही केन्द्रित होकर रह जायेगा यह शायद एन.डी.ए. के घटक दलों को भी अन्दाजा नही था। भाजपा क्योंकि एन.डी.ए. का केन्द्र बिन्दु बन गयी और मोदी कैसे उसके एक मात्र केन्द्रित नेता बन गये इसके कई कारण रहे हैं। लेकिन सत्ता परिवर्तन में ‘‘अच्छे दिन आयेंगे’’ ‘‘काला धन वापिस आने से हर व्यक्ति के खाते मे पन्द्रह लाख आयेंगे’’- इन नारों ने बड़ी प्रमुख भूमिका निभाई है।
इन नारों के प्रलोभन से बनी मोदी सरकार ने जब देश के सामने अपनी आर्थिक सोच और कार्यक्रम रखे और इन्हे अमली जामा पहनाने के लिये फैसले लेने शुरू किये तब मंहगाई, बेरोजगारी को लेकर बुने गये सारे सपनों की हवा निकल गयी। मंहगाई और बेरोजगारी घटने की बजाये और बढ़ गयी। भ्रष्टाचार के खिलाफ भी तीन वर्षों में कोई ठोस परिणाम सामने नही आये हैं। क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ की गयी हर कारवाई के पीछे अब शुद्ध राजनीतिक की गंध आने लगी है। हमारे ही मुख्यमन्त्री के मामले में वीरभद्र के साथ सह अभियुक्त बने उनके एल.आई.सी. एजैन्ट आनन्द चैहान एक वर्ष से अधिक से ईडी की हिरासत में चल रहे हैं और वीरभद्र के खिलाफ अभी तक ईडी अनुपूरक चालान तक दायर नही कर पायी है। यही नही वीरभद्र सिंह के चुनाव शपथ पत्र को लेकर आयी दिल्ली उच्च न्यायालय की टिप्पणी पर अब तक कोई कारवाई न होना तथा दिल्ली से लेकर शिमला तक पूरे भाजपा नेतृत्व का इस पर खामोश रहना भाजपा की ईमानदारी और हल्की राजनीतिक का एक प्रत्यक्ष प्रमाण है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भाजपा भ्रष्टाचार पर केवल राजनीतिक करना चाहती है कारवाई नही।
मोदी सरकार का सबसे बड़ा आर्थिक फैसला नोटबंदी रहा है। इस फैसले से आंतकवाद और कालेधन की कमर तोड़ने के दावे किये गये थे। लेकिन इस फैसले के बाद भी आंतकी घटनाओं में कोई कमी नही आयी है। जाली नोट नये कंरसी के जारी होने के साथ ही बाज़ार में आ गये थे। रिजर्व बैंक ने स्वयं स्वीकारा है कि 500 ओर 1000 के पुराने नोट 99% उसके पास वापिस आ गये हैं। स्वभाविक है कि इन पुराने नोटों के बदले में इनके धारकों को नये नोट दिये गये हैं क्योंकि आर.बी.आई. ने यह नही दावा किया है कि पुराने 99% वापिस आये नोटों में इतने कालेधन के नोट थे ओर उनके बदले में नये नोट नही दिये गये हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि या तो कालेधन को लेकर किये जा रहे स्वामी रामदेव जैसे लोगों के सारे आंकलन और दावे कोरे बकवास थे या फिर नोट बंदी के माध्यम से सारे कालेधन को सफेद करने का अवसर मिल गया। इस नोटबंदी से आर्थिक विकास की दर में कमी आयी है यह देश के सामने स्पष्ट हो चुका है। बल्कि पुरानी कंरसी को नयी कंरसी के साथ बदलने में जो देश का खर्च हुआ है आज उसे जीएसटी जैसे फैसलों से भरने का प्रयास किया जा रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रचार अभियान को हाइटैक करने के लिये जो साधन मोदी को अंबानी और अदानी समूहों द्वारा उपलब्ध करवाये गये थे आज उसकी कीमत चुकाने के लिये हर बड़े व्यापारिक फैसले का लाभार्थी इन उद्योग घरानों को बनाया जा रहा है। यह भी अब देश के सामने स्पष्ट हो चुका है।
आज संभवतः इसी कारण से वित्त मन्त्री अरूण जेटली के फैसलों को लेकर बाजपेयी के समय रहे वित्त मन्त्री यशवन्त सिन्हा ने विवश होकर अपना मुंह खोला है। सिन्हा के स्वर के साथ ही शत्रुघन सिन्हा और डा. स्वामी भी जेटली को असफल वित्त मन्त्री करार दे चुके हैं। बल्कि कुछ लोग तो नागपुर में पिछले दिनों हुई संघ के पूर्व प्रचारकों की बैठक के बाद एक नये आर.एस.एस के पंजीेकरण के लिये जनार्दन मून के नागपुर के सहायक चैरिटी कमीशनर के यहां से आये पंजीकरण के आवेदन को भी इसी दिशा में देख रहे हैं। क्योंकि संघ का गठन तो 27 सितम्बर 1925 को हो गया था और 47 देशों में संघ की मौजूदगी है। लेकिन इसका अपने ही देश में कोई पंजीकरण नही है और शायद इसकी अधिकांश लोगों को तो जानकारी भी नहीं है। ऐसे में आज 90 वर्ष बाद अचानक इस सवाल का नागपुर में ही उठना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि संघ के ही कुछ भागों में सरकार की नीतियों और नीयत को लेकर गंभीर मतभेद पैदा हो चुके हैं।

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