शिमला/शैल। अरूणाचल के पूर्व मुख्यमन्त्री स्व. कालीखो पुल ने अपनी मौत से पहले साठ पन्नों का विस्तृत और हस्ताक्षित नोट लिखा है। यह नोट लिखने के दूसरे ही दिन कालीखो पुल अपने आवास पर मृत पाये गये थे। उनकी मौत के बाद सामने आये इस नोट में उन्होने प्रदेश और देश की राजनीति मे फैले भ्रष्टाचार को पूरी बेबाकी से बेनकाब किया है। राजनीति में फैले भ्रष्टाचार के साथ न्यायपालिका कैसे परोक्ष/अपरोक्ष में सहयोगी और भागीदार बन गयी है इसका भी पूरा खुलासा इस नोट में है। पृल के इस नोट में लगाये गये गंभीर आरोपों पर कहीं से कोई जबाव नही आया है। राजनेंताओं पर आरोप लगना कोई नयी बात नहीं है। क्योंकि राजनीति में हर राजनीतिक दल की प्राय यही हकीकत है कि
स्व. कालीखो पुल के बाद जस्टिस करनन का किस्सा सामने है। जस्टिस करनन और सर्वोच्च न्यायालय में आमने-सामने की स्थिति आ गयी है। जस्टिस करनन को मानहानि के मामले में किस तरह से पेश आना चाहिये? उनकी और सर्वोच्च न्यायालय की वैधानिक सीमायें क्या हैं इस बारे में आम आदमी को कुछ लेना देना नही है इस संबंध में जो भी कानून है उसकी अनुपालना की जानी चाहिये उसमें किसी का भी अनाधिकारिक दखल नही हो सकता। लेकिन जो आरोप जस्टिस करनन ने कुछ न्यायधीशों पर लगाये हैं आम आदमी की चिन्ता का विषय यह है। क्योंकि न्यायपालिका के शीर्ष न्यायधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने से आम आदमी का न्यायपालिका पर विश्वास बनाये रखना कठिन हो जायेगा। जस्टिस करनन के आरोपों की ही तरह स्व. कालीखो पुल द्वारा लगाये गये आरोप हंै। इन दोनों के आरोपों को यदि इक्कठा रखकर देखा जाये तो स्थिति बेहद चिन्ताजनक हो जाती है। कालीखो पुल के आरोपों को वहां के राज्यपाल ने भी गंभीर माना था क्योंकि उनके पास स्थानीय एसडीएम की रिपोर्ट आ चुकी थी। केन्द्र के धन का दुरूपयोग किया गया है। केन्द्र के धन के दुरूपयोग के आरोपों पर मोदी सरकार का भी चुप्प बैठ जाना अपने में ही कई और सवाल खडे कर देता है।
स्व. कालीखो पुल और जस्टिस करनन ने जिन लोगों के खिलाफ आरोप लगाये हैं उनकी ओर से भी इस पर कोई प्रतिक्रिया नही आयी है। किसी ने भी यह कहने का साहस नही किया है कि यह आरोप गल्त हैं। जस्टिस करनन का यह कहना कि वह दलित हैं इसलिय उनके साथ यह ज्यादती की जा रही है यह तर्क किसी भी तरह स्वीकार्य नही हो सकता। क्योंकि वह दलित होने के बाद ही उच्च न्यायालय के न्यायधीश के पद तक पहुचे हैं। इसीलिये दलित होने का तर्क जायज नहीं ठहराया जा सकता। इसी के साथ जिस तरह वरिष्ठ अधिवक्ता जेठमलानी ने उनकी निन्दा की है उसे भी स्वीकारा नही जा सकता। किसका कानूनी अधिकार क्षेत्र कितना और क्या है? किसे क्या प्रक्रिया अपनानी चाहिये थी क्या नहीं? यह सारे प्रश्न आरोपों की गंभीरता के आगे बौने पड़ जाते हैं। आम आदमी इन आरोपों की एक निष्पक्ष जांच चाहता है। जिससे आरोपों की सत्यता प्रमाणित हो सके। ऐसे आरोपों की जांच के लिये वही प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिये जो आम आदमी के लिये अपनायी जाती है। अर्थात जांच ऐजैन्सी में विधिवत मामला दर्ज करके जांच शुरू की जाये। स्व. कालीखो पुल ने जो आरोप लगाये हैं उनसे जुडे़ सारे प्रमाण वहां राज्य में मौजूद हैं। स्व. पुल के नोट को डांईंग डक्लारेशन मानकर जांच की जानी चाहिये। जस्टिस करनन ने जिनके खिलाफ आरोप लगाये हैं उनसे आरोपों के बारे में पूरी गंभीरता से पूछा जाना चाहिये और जस्टिस करनन तथा आरोपीयों से आमने-सामने सवाल-जबाव होने चाहिये। यदि न्यायपालिका पर विश्वास बनाये रखना है तो यह अति आवश्यक है कि आम आदमी के सामने सच्चाई आये। यदि ऐसा न हुआ तो अराजकता का एक ऐसा दौर शुरू होगा जिसकी कल्पना करना भी कठिन होगा।