हिमाचल प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल 7 जनवरी और गुजरात विधानसभा का 22 जनवरी 2018 को समाप्त हो रहा है। पांच वर्ष पूर्व दोनों राज्यों की विधानसभाओं के लिये चुनावों की घोषणा 3 अक्तूबर 2012 को एक साथ कर दी गयी थी। 2012 में हिमाचल में मतदान 4 नवम्बर को और गुजरात में 13 और 17 दिसम्बर को हुआ था। मतगणना दोनो राज्यों में 20 दिसम्बर को हुई थी। लेकिन इस बार चुनाव आयोग ने हिमाचल के लिये तो 12 अक्तूबर को चुनावों की घोषणा का दी परन्तु गुजरात के लिये नही की। आयोग की घोषणा के मुताबिक हिमाचल में 9 नवम्बर को मतदान होगा और 18 दिसम्बर को मतगणना होगी। हिमाचल के लिये चुनाव कार्यक्रम कर घोषणा करते हुए गुजरात के संद्धर्भ में आयोग ने इतना ही कहा कि वहीं पर भी 18 दिसम्बर से पहले चुनाव करवा लिये जायेंगे। परन्तु उसके लिये चुनाव तिथियों की घोषणा बाद में की जायेगी।
हिमाचल और गुजरात के बाद फरवरी, मार्च 2018 में मेघालय नागालैंड और त्रिपुरा विधान सभाओं के चुनाव होने है। स्वभाविक है कि इन राज्यों के लिये चुनाव कार्यक्रम की घोषणा हिमाचल - गुजरात के परणिामों के करीब एक पखवाडे़ के बाद कर दी जायेगी। अभी कुछ दिन पहले ही चुनाव आयोग ने यह घोषणा की थी कि सितम्बर 2018 तक वह राज्यों की विधान सभाओं और लोक सभा के लिये एक साथ चुनाव करवाने के लिये तैयार होगा। स्मरणीय है कि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने संसद में यह मंशा जाहिर की थी कि लोक सभा और राज्यों की विधानसभाओं के लिये एक साथ चुनाव होने चाहिये और इसके लिये वह प्रयास करेंगे। स्वभाविक है कि प्रधानमन्त्री की इसी मंशा को अमली जामा पहनाने के लिये चुनाव आयोग ने इस दिशा में तैयारी करने के बाद मीडिया से यह विचार सांझा किये होंगे। विधान सभाओ और लोकसभा के चुनाव के एक साथ हो यह एक अच्छा कदम होगा। इससे चुनाव खर्च में कमी आयेगी। 1952 में हुए पहले चुनाव के बाद काफी समय तक एक साथ यह चुनाव होते रहे हैं लेकिन ऐसा करने के पीछे मंशा क्या है यह समझना महत्वपूर्ण और आवश्यक होगा क्योंकि इसमें निष्पक्षता ही सबसे आवश्यक मानदण्ड है।
लेकिन जहां 2018 में चुनाव आयोग इतने बड़े कार्यक्रम के लिये अपने को तैयार कर रहा हैै तो क्या उसके लिये आज इन 5 राज्यों के लिये एक साथ चुनाव करवाने की पहल नही कर लेनी चाहिये थी? परन्तु चुनाव आयोग तो आज हिमाचल और गुजरात के चुनाव एक साथ नही करवा पा रहा है। चुनाव आयोग की घोषणा के साथ ही हिमाचल में तो आचार संहिता लागू हो गयी है। इस घोषणा के साथ ही गुजरात को यह तो स्पष्ट हो गया है कि वहां भी चुनाव 18 दिसम्बर से दो-चार दिन पहले हो जायेंगे क्योंकि परिणाम दोनो ही राज्यों के एक साथ आयेंगे। लेकिन इससे गुजरात सरकार को अभी किसी भी तरह के लोक लुभावन फैसले लेने की सुविधा प्राप्त रहेगी। अभी प्रधानमन्त्री दो दिन के गुजरात दौरे पर जा रहे हैं और वह केन्द्र सरकार की ओर से राज्य को कुछ भी दे आयेंगे। चुनाव आयेाग ने हिमाचल के साथ ही गुजरात के चुनाव कार्यक्रम की घोषणा न करने का यह तर्क दिया है कि वहां की सरकार ने बरसात में वर्षा, बाढ़ से हुए नुकसान की मुरम्मत आदि के कार्यो को पूरा करने के लिये उसे कुछ समय चाहिए कि आयोग से मांग की है। आयोग ने सरकार के इस आग्रह को स्वीकार करते हुए चुनाव तारीखों की घोषणा कुछ समय के लिये टाल दी है। आयोग का यह तर्क अपने में बहुत कमज़ोर ही नही बल्कि काफी हास्यस्पद भी लगता है। क्योंकि सभी जानते हैं कि आचार संहिता लागू होने के बाद पुराने चले हुए कार्यो को पूरा करने पर कोई बंदिश नही होती है केवल एकदम नयी घोषणाएं नही की जा सकती है। आयोग के इस आचरण से उसकी निष्पक्षता पर स्वभाविक रूप से सन्देह उभरते हैं।
हिमाचल में 9 नवम्बर को मतदान होे जाने के बाद यहां का परिणाम 18 दिसम्बर को निकालने तक करीब चालीस दिन तक यहां की सरकार और पूरा प्रशासन पंगू बना रहेगा। आयोग ने मतदान से परिणाम तक इतना लम्बा समय इसलिये किया है ताकि हिमाचल का परिणाम पहले घोषित कर देने से इसका असर गुजरात पर न पड़े। गुजरात विधानसभा का कार्यकाल 22 जनवरी को पूरा हो रहा है जिसका अर्थ है कि वहां पर जनवरी में भी मतदान करवाया जा सकता है ऐसे में चुनाव आयोग को अपनी निष्पक्षता स्थापित करने के लिये हिमाचल का परिणाम मतदान के दो दिन बाद ही घोषित कर देना चाहिए ताकि यहां सरकार बनकर वह जन कार्यों में लग जाये और गुजरात के लिये चुनाव कार्यक्रम की घोषणा ही 15 दिसम्बर के बाद करनी चाहिये।
मोदी सरकार के आर्थिक फैसलों को लेकर छिड़ी बहस का जवाब देते हुए प्रधानमन्त्री ने इन फैसलो के आलोचकों पर नकारात्मकता फैलाने को आरोप लगाया है। लेकिन इसी के साथ यह भी स्वीकारा है कि आर्थिक विकास दर में कमी आयी है। प्रधानमन्त्री ने यह स्वीकारते हुए यह भी दावा किया है कि जल्द ही विकास दर में तेजी आयेगी। इसके लिये उन्होने उनकी सरकार और स्वयं उन पर भरोसा रखने को कहा है। मोदी जी और उनकी सरकार पर 2019 के चुनावों तक आम आदमी के पास उन पर
लेकिन जीएसटी के बाद पैट्रोल, डीजल और रसोई गैस सिलेण्डर की कीमतों के बढ़ने से हर आदमी इस पर अब रोष में है। ऊपर से केन्द्र के एक मन्त्री का यह ब्यान आना कि मोटर साईकिल और कार चलाने वाला इससे मर नही जायेगा यह दर्शाता है कि मोदी की सरकार और उसके मन्त्री कितने संवेदनशील है क्योंकि इस ब्यान की प्रधानमन्त्री या पार्टी अध्यक्ष अमितशाह किसी एक ने भी इसकी निन्दा नही की है। कड़वा सच यह है कि मोदी सरकार आने के बाद खाद्य पदार्थों की कीमतों में लगातार बढ़ौत्तरी ही देखने को मिली है। ऐसे में अब यह सवाल उठना शुरू हो गया है कि ऐसा क्या हो गया है जिसके कारण यह कीमतें बढ़ी है। क्योंकि पिछले चार वर्षों में ऐसी कोई प्राकृतिक आपदा देश पर नही आयी है जिसके कारण सारे संसाधन नष्ट हो गये हो। उत्पादन बन्द हो गया, सरकार को अपने कोष के दरवाजे आम आदमी को राहत देने के लिये खोलने पड़े हों। इसलिये जब वित्त मन्त्री अरूण जेटली ने यह कहा कि जब सरकारी कोष में पर्याप्त राजस्व आ जायेगा तो उसके बाद जीएसटी की दरों में कमी दी जायेगी। आज केन्द्र राज्यों को पैट्रोल, डीजल पर अपना वैट कम करने के लिये कह रहा है। यदि राज्य सरकारें ऐसा नही करेगी तो फिर इस मंहगाई के लिये राज्यों को जिम्मेदार ठहरा दिया जायेगा। जबकि पैट्रोल डीजल को जीएसटी के दायरे में लाकर इसका हल निकाला जा सकता था। लेकिन केन्द्र ऐसा नही कर रहा है। न ही वित्त मन्त्री ने देश को यह बताया है कि सरकार को कितना राजस्व चाहिए और राजस्व की कमी के लिये कौन जिम्मेदार है क्योंकि सरकारी बैंकोे के कर्मचारियों और अधिकारियों की यूनियनों ने जब केन्द्र के बैंक सुधारों को जन विरोधी करार दिया तब उन्होने यह सामने लाया कि जब इस सरकार नेे सत्ता संभाली थी तब बैंकों का एनपीए 60 हजार करोड़ था जो अब बढ़ कर 6 लाख करोड़ पहुंच गया है
स्वभाविक है कि सरकारी बैंकों के इस बढ़तेे एनपीए के कारण नये निवेश के लिये पर्याप्त धन नही है। फिर नोटबंदी से जो लाभ अपेक्षित थे वह मिलने की बजाये उससे केवल नुकसान ही हुआ है। आरबीआई ने देश को यह तो बता दिया कि उसके पास 99% पुराने नोट वापिस आ गये हैं। लेकिन यह अभी तक नही बताया जा रहा है कि कालाधन कितना पकड़ा गया और ऐसे धन के कितने धारकों का कितना नुकसान हुआ है। बल्कि आज अरूण शौरी जैसे पूर्व मन्त्री ने नोटबंदी को सबसे बड़ा मनीलाॅंडरिंग स्कैम करार दिया है। क्योंकि नोटबंदी से पहले तक स्वामी रामदेव जैसे लोग जो लाखों करोड़ के कालेधन के आंकड़े आयेे दिन देश को परोस रहे थेे वह सब लोग नोटबंदी के बाद इस विषय पर एकदम मौन हो गये है। बल्कि नोटबंदी के माध्यम से आम आदमी की बचत का सारा पैसा बैंको के पास आ गया है। बैंको के पास इस तरह से ज्यादा पैसा आ जाने से बचत पर ब्याज दरों में कटौती कर दी गयी। ऐसे में नोटबंदी से लेकर जनधन खाता योजना और जीएसटी तक के सारे फैसलों से मंहगाई में तो कोई कमी नही आई है। क्योंकि आम आदमी के आंकलन का सबसे सुलभ पैमाना तो मंहगाई ही है। हो सकता है कि इस मंहगाई से सरकारी और नीजि क्षेत्र का कर्मचारी तथा छोटा-बड़ा उद्योगपति, शहर से लेकर गांव तक फैला दुकानदार इतना प्रभावित न हो जितना की आम आदमी। लेकिन इन लोगों का कुल प्रतिशत आय के मुकाबले में अभी तक 25% भी नही है। आज भी देश का 75% आदमी इस मंहगाई और बेरोजगारी से बुरी तरह त्रस्त है। इसलिये आज यह 75% आम आदमी सरकार के आर्थिक फैसलों के गुण दोष परखने लग पड़ा है। वह उसके अनदेखे भविष्य की आस में अपनेे वर्तमान को बली चढ़ाने के लिये तैयार नही है। उसे बुलेट ट्रेन के फैसले से प्रलोभित कर पाना संभव नही होगा। उसे अपने खेत की उपज का वाजिब दाम और उसे बाज़ार तक लेकर जाने का साधन चाहिये जिसकी उसे दूर- दूर तक आस नही दिख रही है। इसलिये मोदी सरकार के आर्थिक फैसलों पर उठने वाले सवालों को नकारात्मकता का आरोप लगाकर दबाना संभव नही होगा।
शिमला/शैल। किसी भी सरकार की प्रमुख कसौटी उसके आर्थिक फैसले होते हैं क्योंकि इन फैसलों का सीधा प्रभाव देश के हर नागरिक पर पड़ता है। कोई भी व्यक्ति ज्यादा देर तक इन फैसलों पर तटस्थ नही रह सकता है। यदि वह प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष में सरकार का समर्थक होगा तो इन फैसलों को जायज ठहराने के लिये तर्क तलाश लेगा। लेकिन जो व्यक्ति किसी भी दल का सदस्य नही होगा वह इन फैसलों पर अपनी बेबाक प्रतिक्रिया व्यक्त करेगा। 2014 में जब लोकसभा चुनाव हुए थे उस समय पूरा देश मंहगाई बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलित था। अन्ना का आन्दोलन उस रोष का प्रखर मूर्त रूप था। उस समय देश कांग्रेस और यू.पी.ए. के शासन का विकल्प तलाश रहा था।
इन नारों के प्रलोभन से बनी मोदी सरकार ने जब देश के सामने अपनी आर्थिक सोच और कार्यक्रम रखे और इन्हे अमली जामा पहनाने के लिये फैसले लेने शुरू किये तब मंहगाई, बेरोजगारी को लेकर बुने गये सारे सपनों की हवा निकल गयी। मंहगाई और बेरोजगारी घटने की बजाये और बढ़ गयी। भ्रष्टाचार के खिलाफ भी तीन वर्षों में कोई ठोस परिणाम सामने नही आये हैं। क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ की गयी हर कारवाई के पीछे अब शुद्ध राजनीतिक की गंध आने लगी है। हमारे ही मुख्यमन्त्री के मामले में वीरभद्र के साथ सह अभियुक्त बने उनके एल.आई.सी. एजैन्ट आनन्द चैहान एक वर्ष से अधिक से ईडी की हिरासत में चल रहे हैं और वीरभद्र के खिलाफ अभी तक ईडी अनुपूरक चालान तक दायर नही कर पायी है। यही नही वीरभद्र सिंह के चुनाव शपथ पत्र को लेकर आयी दिल्ली उच्च न्यायालय की टिप्पणी पर अब तक कोई कारवाई न होना तथा दिल्ली से लेकर शिमला तक पूरे भाजपा नेतृत्व का इस पर खामोश रहना भाजपा की ईमानदारी और हल्की राजनीतिक का एक प्रत्यक्ष प्रमाण है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भाजपा भ्रष्टाचार पर केवल राजनीतिक करना चाहती है कारवाई नही।
मोदी सरकार का सबसे बड़ा आर्थिक फैसला नोटबंदी रहा है। इस फैसले से आंतकवाद और कालेधन की कमर तोड़ने के दावे किये गये थे। लेकिन इस फैसले के बाद भी आंतकी घटनाओं में कोई कमी नही आयी है। जाली नोट नये कंरसी के जारी होने के साथ ही बाज़ार में आ गये थे। रिजर्व बैंक ने स्वयं स्वीकारा है कि 500 ओर 1000 के पुराने नोट 99% उसके पास वापिस आ गये हैं। स्वभाविक है कि इन पुराने नोटों के बदले में इनके धारकों को नये नोट दिये गये हैं क्योंकि आर.बी.आई. ने यह नही दावा किया है कि पुराने 99% वापिस आये नोटों में इतने कालेधन के नोट थे ओर उनके बदले में नये नोट नही दिये गये हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि या तो कालेधन को लेकर किये जा रहे स्वामी रामदेव जैसे लोगों के सारे आंकलन और दावे कोरे बकवास थे या फिर नोट बंदी के माध्यम से सारे कालेधन को सफेद करने का अवसर मिल गया। इस नोटबंदी से आर्थिक विकास की दर में कमी आयी है यह देश के सामने स्पष्ट हो चुका है। बल्कि पुरानी कंरसी को नयी कंरसी के साथ बदलने में जो देश का खर्च हुआ है आज उसे जीएसटी जैसे फैसलों से भरने का प्रयास किया जा रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रचार अभियान को हाइटैक करने के लिये जो साधन मोदी को अंबानी और अदानी समूहों द्वारा उपलब्ध करवाये गये थे आज उसकी कीमत चुकाने के लिये हर बड़े व्यापारिक फैसले का लाभार्थी इन उद्योग घरानों को बनाया जा रहा है। यह भी अब देश के सामने स्पष्ट हो चुका है।
आज संभवतः इसी कारण से वित्त मन्त्री अरूण जेटली के फैसलों को लेकर बाजपेयी के समय रहे वित्त मन्त्री यशवन्त सिन्हा ने विवश होकर अपना मुंह खोला है। सिन्हा के स्वर के साथ ही शत्रुघन सिन्हा और डा. स्वामी भी जेटली को असफल वित्त मन्त्री करार दे चुके हैं। बल्कि कुछ लोग तो नागपुर में पिछले दिनों हुई संघ के पूर्व प्रचारकों की बैठक के बाद एक नये आर.एस.एस के पंजीेकरण के लिये जनार्दन मून के नागपुर के सहायक चैरिटी कमीशनर के यहां से आये पंजीकरण के आवेदन को भी इसी दिशा में देख रहे हैं। क्योंकि संघ का गठन तो 27 सितम्बर 1925 को हो गया था और 47 देशों में संघ की मौजूदगी है। लेकिन इसका अपने ही देश में कोई पंजीकरण नही है और शायद इसकी अधिकांश लोगों को तो जानकारी भी नहीं है। ऐसे में आज 90 वर्ष बाद अचानक इस सवाल का नागपुर में ही उठना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि संघ के ही कुछ भागों में सरकार की नीतियों और नीयत को लेकर गंभीर मतभेद पैदा हो चुके हैं।
शिमला/शैल। प्रदेश विधानसभा के चुनाव नवम्बर में होने तय हैं। इस चुनाव में भी मुकाबला सत्तारूढ़ कांग्रेस और मुख्य विपक्षी दल भाजपा के बीच ही रहेगा यह भी तय है। क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनावों में मिली करारी हार के बाद कांग्रेस को पंजाब के अतिरिक्त कोई सफलता नही मिली है। इसी सफलता का परिणाम है कि आज राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री ओर लोकसभा अध्यक्ष तक देश के चारों शीर्ष पदों पर सत्तारूढ़ भाजपा का कब्जा है। भाजपा को यह सफलता क्यों और कैसे मिली है। इस पर यहां चर्चा का कोई औचित्य नही है। लेकिन यहां यह महत्वपूर्ण है कि इस सफलता से
मोदी सरकार देश के युवाओं को मेक-इन-इण्डिया का एक सूत्र दिया है लेकिन इस सूत्र की व्यवहारिकता आज पूरी तरह सवालों मंे आ खड़ी हुई है। क्योकि सरकार के इस संद्धर्भ में लिये गये फैसलो की हकीकत इसके एकदम उल्ट है। बुलेट ट्रैन के फैसले को कार्यान्वित करेगा जापान। यह कहा गया है कि इस पर होने वाला करीब 1.50 लाख करोड़ का निवेश मामूली ब्याज पर जापान भारत को देगा और इसे 50 वर्षो में जापानी मुद्रा में वापिस किया जायेगाा। उस समय रूपये की कीमत जापानी मुद्रा के मुकाबले में क्या रहेगी? क्या उस समय यही एक लाख करोड़ पचास लाख करोड़ नही बन जायेगा। क्योंकि जो ऋण भारतीय मुद्रा में लिया जाता है और उसे जब ऋण देने वाले देश की मुद्रा में वापिस किया जाता है तब सारा आर्थिक संतुलन बिगड़ जाता है। इसलिये ऐसे बड़े फैसले वर्तमान की व्यवहारिकता को देखकर लिये जाने चाहिये। आज सरदार पटेल की मूर्ति हम चीन से बनवा रहे हैं। स्मार्ट सिटी के लिये स्वीडन और मेक-इन-इण्डिया का ‘‘लोगो’’ तक तो हम खुद न बना कर स्वीटज़रलैण्ड से बनवा रहे हैं। प्रधानमन्त्री की अपनी बुलेट प्रुफ कार ही जर्मनी की बनी हुई है। ऐसे बहुत सारे फैसले ऐसे है जहां सरकार स्वयं अपनी ही मेक-इन-इण्डिया की धारणा के खिलाफ काम कर रही है। क्योंकि अभी देश इस तरह के फैसलों के लिये पूरी तरह तैयार नही है लेकिन सरकार का पूरा जोर इन फैसलों को सही प्रचारित-प्रसारित करने का एक तरह से अभियान छेड़ा गया है। जबकि आर्थिक फैसलों की कसौटी मंहगाई और बेरोजगारी का कम होना ही होता है। माना जा सकता है कि बेरोजगारी कम होने में थोड़ा समय लग सकता है लेकिन मंहगाई तो तुरन्त प्रभाव से रूकनी चाहिये जो लगातार बढ़ती जा रही है।
इसलिये आज जब जनता के पास फिर से सरकार चुनने का अवसर है तो उसे उसके सामने आने वाले उम्मीदवारों से इन सवालों पर खुलकर जवाब मांगना चाहिये। जनता को यह जानने का पूरा अधिकार है कि कैसे उसका प्रतिनिधि जनता पर बिना कोई नया टैक्स लगाये और सरकार पर कर्ज का बोझ डाले बिना कैसे मंहगाई और बेरोजगारी की समस्याओं को हल करेगा। क्योंकि आज प्रदेश पूरी तरह कर्ज के जाल में फंस चुका है। एक लम्बे अरसे से कोई बड़ा उद्योग प्रदेश में नही आया है। जिस प्रदेश को एक विद्युत राज्य के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया गया था आज इन्ही विद्युत परियोजनाओं के कारण प्रदेश का आर्थिक सन्तुलन बुरी तरह बिगड़ गया है। क्योंकि प्रदेश में विद्युत के उत्पादन में कार्यरत नीजिक्षेत्र से सरकार को मंहगी दरों पर अनुबन्धों के कारण बिजली खरीदनी पड़ रही है लेकिन मुनाफा तो दूर उन्ही दरों पर आगे बिक नही रही है। इसी के कारण सरकार-विद्युत बोर्ड के अपने स्वामित्व वाली परियोजनाओं में हर वर्ष हजा़रों- हज़ार घन्टो का शट डाऊन चल कर इनमें उत्पादन बन्द कर रखा गया है। यह स्थिति पिछले एक दशक से अधिक समय से चली आ रही है लेकिन सरकारी तन्त्र इस संद्धर्भ में आयी शिकायतों के वाबजूद इस ओर कोई कारवाई नही कर रहा है। आज भाजपा जिस तरह से चुनावी मुद्दे लेकर आ रही है उनमें भ्रष्टाचार सबसे बड़े मुद्दे के रूप में उछाला गया है। भ्रष्टाचार सबसे बड़ा रोग है और इस पर अंकुश लगाना चाहिये इसमे कोई दो राय नही हो सकती। लेकिन यहां भाजपा को यह बताना होगा कि उसने अपने पहले के दोनो ही शासनकालों में भ्रष्टाचार के खिलाफ क्या किया? क्योंकि पिछला रिकार्ड यह प्रमाणित करता है कि भाजपा ने अपने ही सौंपे आरोप पत्रों पर कोई कारवाई नही की है इसके दस्तावेजी प्रणाम आने वाले दिनों मे हम पाठकों के सामने रखेंगे। इसलिये आज प्रदेश की जनता से यह अपेक्षा है कि वह इस चुनाव में पार्टीयों के ऐजैण्डे को प्रमुखता और गंभीरता देने की बजाये उन आर्थिक सवालों पर चिन्तन करें जो हमने पाठकों के सामने रखें है और फिर अपने समर्थन का फैसला ले।
शिमला/शैल। पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ने से केन्द्र सरकार के फैसलों को लेकर एक बार फिर वैसी ही बहस छिड़ गयी है जो नोटबंदी के फैसले के बाद उभरी थी। यह बहस इसलिये उठी है क्योंकि पिछले तीन वर्षों की तुलना में यह कीमतें अपने उच्चतम स्तर तक पहुच गयी हैं। जबकि 2014 में जब मोदी ने देश की बागडोर संभाली थी और उस समय अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की जो कीमत थी उसके मुकाबले में आज 2017 में इस कीमत में 58% की कमी आयी है। अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार की कीमतों को सामने रखते हुए तो पेट्रोल-डीजल की कीमत आधी रह जानी चाहिये थी लेकिन
लेकिन जब इसी के साथ जुड़े दूसरे यह पक्ष सामने आते हैं कि सरकार के इन फैसलों का लाभ आम आदमी की बजाये कुछ उद्योग घरानों को ज्यादा हो रहा है तो सरकार की नीयत और नीति दोनों पर संदेह होने लगता है। क्योंकि जब सरकार के बड़े फैसलों पर नजर जाती है तब सबसे पहले डिजिटल इण्डिया का नारा सामने आता हैं परन्तु डिजिटल इण्डिया का अगुआ सरकार के उपक्रम बीएसएनएल या एमटीएनएल न बनकर रिलांयस ‘जियो’ बना। कैशलैस इकोनाॅमी का लीडर एनपीसीआई के ‘‘रूपये ’’ की जगह ’’पेटीएम’’ हो गया। फ्रांस के राफेल जेट का भागीदार हिन्दुस्तान एरोनाटिक्स के स्थान पर रिलांयस का ‘‘पिपावा डिफैंस’’ हो गया। भारतीय रेल को डीजल की सप्लाई का ठेका इण्यिन आॅयल कारपोरेशन की जगह रिलांयस पैट्रोकेमिकल्स को मिल गया। आस्ट्रेलिया की खानों का टैण्डर सरकार चाहती तो सरकारी उपक्रम एमएमटीसी को एसबीआई की बैंक गांरटी पर मिल सकता था। लेकिन यह अदानी ग्रुप को मिला। इन कुछ फैसलों से यह गंध आती है कि क्या जानबूझकर सरकारी उपक्रमों को एक योजनाबद्ध तरीके से निज़िक्षेत्र का पिछलगू बनाया जा रहा है । क्योंकि जब निजिक्षेत्र केा इस तरह के लाभ पहुंचाये जाते है तो उनसे बदले में पार्टीयों को चुनावी चंदा मिल जाता है जो सरकारी उपक्रमों से संभव नही हो सकता। और इससे आम आदमी तथा सरकार दोनों का नुकसान होता है। यदि निजिक्षेत्र की जगह सरकारी उपक्रमों को आगे बढ़ाया जायेगा तो इससे सीधा लाभ सरकार को होगा। जो लाभ रिलांयस और अदानी ग्रुप को दे दिये गये हैं यदि यही लाभ सरकारी क्षेत्र को मिलते तो एक्साईज डूयटी बढ़ाकर तेल की कीमतें बढ़ाने की आवश्यकता नही पड़ती।
आज आम आदमी काफी जागरूक हो चुका है वह सरकार के फैसलों को समझने लगा है। उसे जो अच्छे दिन आने का सपना दिखाया गया था वह अब पूरी तरह टूट गया है क्योंकि उसके लिये अच्छे दिनों का एक ही व्यहारिक मानक है कि मंहगाई कितनी कम हुई है। उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आज हर चीज को आधार से लिंक कर दिया गया है। उसे क्या खाना और पहनना चाहिये यह तय करना सरकार का काम नही है। सरकार का काम है एक सुचारू व्यवस्था स्थापित करना और वह अभी तक हो नही पायी है। क्योंकि हर फैंसला कहीं-ना कहीं आकर विवादित होता जा रहा है। जिस आधार लिंककिंग पर इतना जोर दिया गया उस आधार को लेकर सर्वोच्च अदालत ने जो प्रश्न उठाये है उससे पूरा परिदृश्य ही बदल गया है। नोटबंदी के फैसले से लाभ होने की बजाये नुकसान हुआ है क्योंकि जब पुराने नोट वापिस लेकर उनके बदले में नये नोट वापिस देने पड़े हे तो इस फैसले का सारा घोषित आधार ही धराशायी हो जाता है। नोटबंदी के बाद अब जीएसटी लाया गया। ‘‘एक देश एक टैक्स’’ का नारा दिया गया लेकिन इस फैसले के बाद चीजो की कीमतों में कमी आने की बजाये और बढ़ी है क्योंकि टैक्स की दर बढ़ा दी गयी जो पहले अधिकतम 15% प्रस्तावित थी उसे 28% कर दिया गया। यह टैक्स कहां किस चीज पर कितना है इसको लेकर न तो दुकानदार को और न ही उपभोक्ता को पूरी जानकारी दी गयी है क्योंकि इसे लागू करने वाला तन्त्र स्वयं ही इस पर स्पष्ट नही है। सरकार के सारे महत्वपूर्ण फैसलों पर यही धारणा बनती जा रही है कि जिस तेजी से यह फैसले लाये जा रहे हैं उनके लिये उसी अनुपात में वातावरण तैयार नही किया जा रहा है। यह नही देखा जा रहा है कि इनका व्यवहारिक पक्ष क्या है। बल्कि यह गंध आ रही है कि यह फैसले कुछ उन उद्योग घरानों को सामने रखकर लिये जा रहे हैं जिन्होने पिछले चुनावों के प्रचार अभियान में मोदी जी को विशेष सहयोग प्रदान किया था। लेकिन देश केवल कुछ उद्योग घराने ही नही है और आम आदमी इसे अब समझने लगा है।