Tuesday, 16 December 2025
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निर्दलीय विधायकों से एक सवाल

इस बार प्रदेश विधानसभा के लिये देहरा और जोगिन्द्रनगर से दो निर्दलीय विधायक जीत कर आये हैं। इन दोनों विधायकों ने विधायक के तौर पर शपथ ग्रहण से पहले ही भाजपा का सहयोगी सदस्य बनने के प्रयास शुरू कर दिये हैं। इनके इन प्रयासों का देहरा और जोगिन्द्रनगर के भाजपा मण्डलों ने तो विरोध किया है लेकिन भाजपा विधायक दल और पार्टी के अध्यक्ष या अन्य पदाधिकारियों ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नही दी है। इनके इस प्रयास पर कांग्रेस की ओर से भी कोई प्रतिक्रिया नही आयी है। यह प्रतिक्रिया का सवाल मैं इसलिये उठा रहा हूं क्योंकि पिछले सदन में भी कुछ निर्दलीय चुनकर आये थे। सरकार कांग्रेस ने बनाई थी और यह सभी लोग कांग्रेस के सहयोगी सदस्य बन गये थे। इनके सहयोगी सदस्य बनने को भाजपा ने अपने मुख्य सचेतक अब शिक्षा मन्त्री सुरेश भारद्वाज के माध्यम से विधानसभा अध्यक्ष के पास दलबदल कानून के तहत चुनौती दी थी । इनकी सदस्यता रद्द करने की गुहार लगायी थी। क्योंकि दलबदल कानून के तहत एक निर्दलीय विधायक भी इस तरह से किसी दल की सदस्यता ग्रहण नही कर सकता। ऐसा करने के लिये उसे अपनी सदस्यता छोड़नी होती है यह कानूनी बाध्यता है।
पिछली बार जो याचिका दायर हुई थी उसका फैसला चुनावों से कुछ समय पूर्व ही आया था। बल्कि उस समय तक दो विधायक बलवीर वर्मा और मनोहर धीमान तो औपचारिक रूप से ही कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो चुके थे लेकिन हमारे विधानसभा अध्यक्ष ने यह याचिका रद्द कर दी थी। उन्होने अपने फैसले में साफ कहा है कि याचिकाकर्ता अपनी याचिका को प्रमाणित करने के लिये पर्याप्त साक्ष्य नही दे पाये हैं। इस बार भी यदि यह निर्दलीय विधायक ऐसा करते हैं और कांग्रेस इसको चुनौती देती है तो तय है कि उस याचिका का फैसला भी पहले जैसा ही आयेगा क्योंकि न तो अध्यक्ष इतना नैतिक साहस दिखा पायेंगे कि वह इनके खिलाफ फैसला देकर इनकी सदस्यता को रद्द कर दें और न ही यह विधायक इतनी नैतिकता दिखा पायेंगे कि अपनी-अपनी सदस्यता से त्यागपत्र देकर दोबारा भाजपा के टिकट पर चुनाव जीत कर आयें।
राजनीति में नैतिकता की नेताओं से उम्मीद करना शायद स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री के बाद से समाप्त ही हो गया है। आज राजनीति में सविधानुसार इस तरह से सहायक सदस्य बनना और मन्त्रीयों के अतिरिक्त संसदीय सविच या मुख्य संसदीय नियुक्त किया जाना एक सामान्य राजनीतिक आचरण बन गया है। भले ही इस सबके खिलाफ संसद कानून बना चुकी है और वह लागू भी हो चुके हैं। जिन सांसदो/विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले हैं उन मामलों को एक वर्ष के भीतर निपटाने के निर्देश सर्वोच्च न्यायालय बहुत पहले दे चुका है। इस बार तो इन्हे पुनः दोहरा कर मार्च में इस संद्धर्भ में विशेष अदालतें गठित करके ऐसे मामलों को एक वर्ष के भीतर निपटाने की बात की गयी है। सर्वोच्च न्यायालय के अब के निर्देश पर व्यवहारिक तौर पर कितना अमल हो पायेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। इस बार हमारे सदन में ही करीब एक दर्जन विधायक ऐसे हैं जिनके खिलाफ आपराधिक मामलें दर्ज हैं। यदि वास्तव में ही इनके मामलों पर एक वर्ष के भीतर फैसले आ जाते हैं तो निश्चित तौर पर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य ही बदल जायेगा। इसलिये आज मीडिया से लेकर आम आदमी तक को यह भूमिका निभानी होगी कि वह इस संद्धर्भ में जन दबाव बनाये रखे ताकि अदालत में तय समय सीमा के भीतर यह मामले अपने अंजाम तक पहुंच जायें।
इसी संद्धर्भ में इन निर्दलीय विधायकों से भी यह अनुरोध और अपेक्षा है कि जब आप भाजपा और कांग्रेस दोनों को हराकर आये हैं तो स्पष्ट है कि आपके क्षेत्र की जनता ने इन दलों की बजाये आपके ऊपर भरोसा करके आपको समर्थन दिया है। इस समर्थन के लिये आपने अपनी जनता से जो भी वायदा किया होगा जनता ने उस पर विश्वास किया है, क्या आपने उस समय जनता से यह वायदा किया था कि चुनाव जीतने के बाद आप भाजपा या कांग्रेस के सहयोगी सदस्य बन जायेंगें क्या आज आप विधित रूप से सदस्यता फार्म भरकर भाजपा की सदस्यता लेने के लिये तैयार है और इसके लिये नये सिरे से चुनाव लड़ने को तैयार है। यदि आप में यह करने का साहस है तो यह करके दिखायें आपका स्वागत होगा। यदि यह नहीं कर सकते हैं तो जनता के विश्वास को ऐसे आघात मत पहुंचायें। आप अपने साधनों से चुनाव जीतकर आये हैं। भाजपा का सहयोगी सदस्य बनकर भी आप मन्त्री या अन्य कोई पद पा नही सकेंगे। ऐसे में यदि आज आप प्रदेश की सामाजिक और आर्थिक स्थिति का सही अध्ययन करके एक राजनीतिक विकल्प बनने का प्रयास करोगे तो शायद जनता आपको उचित समर्थन देगी। क्योंकि प्रदेश में एक तीसरे विकल्प की बहुत आवश्यकता है और इसके लिये आपके पास समय और सामर्थय दोनों ही है। जब आप सक्रिय राजनीति में आ ही गये हैं तो इस राजनीति को ईमानदारी से अध्ययन करने का प्रयास तो करें। अन्यथा आप भी राजनीतिक भीड़ का एक हिस्सा बनकर ही रह जाओगे।

धूमल के स्पष्टीकरण के मायने

शिमला/शैल।  हिमाचल में जयराम ठाकुर की सरकार ने पूरी तरह से काम संभाल लिया है। मन्त्रिमण्डल की दो बैठकें भी हो चुकी है। धर्मशाला में नई विधानसभा का पहला सत्र होने जा रहा है। इस सत्र में विधानसभा का नया अध्यक्ष और उपाध्यक्ष भी चुन लिया जायेगा। राज्यपाल सत्र को संबोधित भी करेंगे और उनके संबोधन से भी काफी कुछ संकेत मिले जायंेगे कि उनकी सरकार आगे किस तरह से काम करने जा रही है। मुख्यमन्त्री ने प्रशासनिक फेरबदल को भी अजांम दे दिया है। इस तरह नयी सरकार को अपना काम सुचारू रूप से चलाने के लिये प्रशासनिक स्तर पर जो कुछ वांच्छित था उसे पूरा कर लिया गया है। 44 सीटें जीतकर यह सरकार सत्ता में आयी है। इसलिये राजनीतिक स्तर पर उसेे किसी तरह का कोई खतरा नही है। अब सरकार का कामकाज ही जनता में उसकी छवि का आंकलन करने का आधार बनेगा।
  लेकिन अभी पूर्व मुख्यमन्त्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता प्रेम कुमार धूमल ने एक ब्यान जारी करके स्पष्टीकरण दिया है कि आरएसएस उनकी हार के लिये कतई भी जिम्मेदार नही है। उन्होने संघ/भाजपा के प्रति आभार व्यक्त किया है कि आज उन्हें जो भी मान सम्मान मिला है वह केवल संघ/भाजपा के कारण ही है। धूमल ने जोर देकर कहा है कि संघ तो सदैव राष्ट्रनिमार्ण के कार्य में संलग्न रहा है। राजनीतिक और प्रशासनिक हलकों में धूमल के इस स्पष्टीकरण के कई अर्थ निकाले ज रहें है। यह अर्थ क्यों निकाले जा रहे हैं और यह चर्चा क्यों और कैसे उठी कि संघ कुछ लोगों की हार के लिये जिम्मेदार है। भाजपा की इस बड़ी चुनावी जीत के बाद संघ के हवाले से मीडिया में यह रिपोर्ट आयी कि इन चुनावों में संघ के तीस हजार कार्यकर्ता सक्रिय रूप सेे चुनाव के कार्य में लगे हुए थे। आज प्रदेश का कोई भी विधानसभा क्षेत्र ऐसा नही है जहां संघ की शाखाएं न लगती हों। संघ परिवार की हर इकाई विधानसभा क्षेत्रवार स्थापित है इस दृष्टि से चुनावों में संघ कार्यकर्ताओं की सक्रिय भूमिका होने के दावे को नकारा नही जा सकता है। इस परिदृश्य में यह प्रश्न हर राजनीतिक कार्यकर्ता के सामने खड़ा होता ही है कि इतनी बड़ी जीत में भाजपा के यह बड़े नेता कैसे अपने क्षेत्रों में हार गये? भाजपा के जो भी बेड़े नेता हारे हैं क्या उनके क्षेत्रों में संघ के चुनावी कार्यकर्ताओं की सक्रियता कम थी या उन क्षेत्रों से इन कार्यकर्ताओं को हटा ही लिया गया था। भाजपा बड़े नेताओं की हार के कारणों का आंकलन क्या करती है इसका खुलासा तो आने वाले समय में ही होगा। लेकिन यह स्पष्ट है कि इन बडे नेताओं की हार के बाद पार्टी के आन्तरिक समीकरणों में काफी बदलाव आये हैं। यह बदलाव आने वाले लोकसभा चुनावों में क्या प्रभाव दिखाते हैं यह तो चुनावों में ही पता लगेगा। परन्तु यह तो स्पष्ट है कि यदि यह बड़े नेता अपने -अपने कारणों से चुनाव हारे हैं तो फिर इनके स्थान पर नये नेताओं का चयन पार्टी को अभी से करने की आवश्यकता होगी क्योंकि इस हार से हमीरपुर, ऊना और बिलासपुुर में काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है जिसका असर हमीरपुर लोकसभा सीट पर भी पड़ सकता है।
 पार्टी अभी से 2019 के लोकसभा चुनावों की तैयारी में जुट गयी है। इसके लिये मिशन मोदी 2019 के नाम से एक मंच का भी गठन हो चुका है। 24-11-17 को शिमला के होटल हिमलैण्ड ईस्ट में हुई बैठक में इसकी 25 सदस्यीय प्रदेश ईकाई का भी गठन कर दिया गया है। इस गठन के मौके पर नागपुर स्थित संघ मुख्यालय के प्रतिनिधियों सहित देश के अन्य भागों से भी नेता शामिल रहे हैं। मिशन मोदी 2019 को मोदी सरकार की नीतियों और उसके बडे फैसलों की मार्किटिंग की जिम्मेदारी सौंपी गयी है। यह मिशन प्रदेश के हर भाग में इन फैसलों और नीतियों को जनता तक ले जाने के लिये बैठकों और सैमिनारों का आयोजन करेगा। जहां पार्टी 2019 के लोकसभा चुनावों के लिये अभी से इतनी सतर्क और सक्रिय हो गयी है वहीं पर धूमल जैसे बड़े नेता को इस तरह से स्पष्टीकरण देने पर आना इन सारी तैयारीयों के लिये एक गंभीर सवाल भी खड़ा कर जाता है जबकि यह मिशन इसपर भी जन मानस को टटोलेगा कि लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाने के बारे में आम आदमी की राय क्या रहती है। क्योंकि एक समय तक तो यह दोनो चुनाव एक साथ होते ही रहे हैं। यदि आम आदमी  की राय का बहुमत दोनो चुनाव एक साथ करवाने की ओर होता है तो हो सकता हैं कि मोदी सरकार इस आश्य का संसद में संशोधन लाकर यह बड़ा फैसला ले ले। यह फैसला जो भी रहेगा वह तो आने वाले समय में सामने आ ही जायेगा लेकिन इस परिदृश्य में धूमल के स्पष्टीकरण के राजनीतिक मायने और गंभीर हो जाते हैं।                              

फैसलों पर पुनर्विचार से आगे क्या?

शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री नामित होने के बाद अपनी पहली पत्रकार वार्ता में जयराम ठाकुर ने प्रदेश की वित्तिय स्थिति को लेकर पूछे गये एक प्रश्न के उत्तर में यह कहा था कि उनकी सरकार वीरभद्र सरकार के अन्तिम तीन माह में लिये गये फैसलों पर पुनर्विचार करेगी लेकिन शपथ ग्रहण के बाद हुई मन्त्री परिषद् की पहली ही बैठक में यह अवधि तीन माह से बढ़कर छः माह कर दी गयी है। अब पिछले माह में लिये गये फैसलों पर फिर से विचार किया जायेगा। स्वभाविक है कि जब औपचारिक तौर पर सरकार की जिम्मेदारी संभाली गयी तब जो जो फीडबैक उन्हे प्रशासन की ओर से मिला होगा उस पर विचार करने के बाद ही छः माह के भीतर लिये गये फैसलों पर फिर से विचार की बात आयी होगी। प्रदेश की वित्तिय स्थिति बड़ी गंभीर है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले दो माह में कर्मचारियों के वेतन का भुगतान करने के लिये भी कर्ज लेना पड़ा है। मैडिकल काॅलेज मण्डी में तैनात नर्सों को समय पर अपने वेत्तन का भुगतान करवाने के लिये प्रदेश उच्च न्यायालय से आदेश करवाने पड़े है। सामाजिक सुरक्षा पैंन्शन का भुगतान भी समय पर करने के लिये प्रदेश उच्च न्यायालय को निर्देश जारी करने पड़े हैं।
भारत सरकार के वित्त विभाग ने 27 मार्च 2017 को प्रदेश के वित्त सचिव के नाम भेजे पत्र में स्पष्ट कहा था कि राज्य सरकार वर्ष 2016-17 में केवल 3540 करोड़ का ही ट्टण ले सकती है। बजट दस्तावेजों के मुताबिक 31 मार्च 2015 को कुल कर्जभार 35151.50 करोड़ था और उसके बाद 2015-16, 2016-17 और 2017-2018 में बजट आंकड़ो के मुताबिक यह कर्ज पन्द्रह हजार करोड़ के करीब लिया गया और 31 मार्च 2018 को निश्चित रूप से यह आंकड़ा 50 हजार करोड़ से ऊपर हो जायेगा। जबकि दूसरी ओर से प्रतिवर्ष सरकार की टैक्स और गैर टैक्स आय में कमी होती जा रही है। वर्ष 2012-13 में प्रदेश की गैर कर आय कुल राजस्व का 46.28% थी जो कि 2016-17 में घटकर 41.95% रह गयी है। इसी तरह से 2012-13 में करों से आये कुल राजस्व का 5.68% थी जो कि 2016- 17 में घटकर 4.59% रह गयी है। यह सारे आंकड़े विधानसभा मेें प्रस्तुत बजट दस्तावेजों में दर्ज है। शायद इन बजट दस्तावेजों को हमारी माननीय इतनी गंभीरता से ना तो पढ़ते है और न ही समझने का प्रयास करते है। लेकिन अब जब सरकार चलने की जिम्मेदारी आयी है तब इन दस्तावेजों और उनमें दर्ज आंकड़ो का पढ़ना और समझना आवश्यक हो जायेगा। क्योंकि इनको विस्तार और गंभीरता से समझे बिना यह पता लगाना कठिन होगा कि संकट पूर्ण होती जा रही वित्तिय स्थिति को नियन्त्रण में कैसे किया जाये।
इस लेख में मैं इन आंकड़ो और दस्तावेजो का संद्धर्भ इसलिये उठा रहा हूं कि यह सरकार पिछली सरकार के अन्तिम छः माह में लिये गये फैसलों पर फिर से विचार करने जा रही है। बहुत संभव है कि इस पुनर्विचार में बहुत से फैसलों को रद्द कर दिया जाये। लेकिन क्या महज रद्द कर देने से ही यह प्रवृति रूक जायेगी? यदि ऐसा होता तो शायद आज प्रदेश कर्ज के चक्रव्यूह में न दबा होता। आज जो स्थिति बन गयी है उससे केवल सरकार के फैसले ही जिम्मेदार हैं क्योंकि गलत फैसलें लेने के लिये न तो कभी संबधित राजनीतिक नेतृत्व को और न ही प्रशासनिक तन्त्र को जिम्मेदार ठहराया गया। मेरा स्पष्ट मानना है कि जब तक किसी को सीधे दोषी नही ठहराया जायेगा तब तक यह स्थिति नही सुधरेगी। आज जब पिछलेे फैसलों पर फिर से विचार किया जायेगा तब इसके लिये किसी को देाषी ठहराने की भी बात हो सकती है। इसके लिये यह समझना आवश्यक है कि जब विकास और सुविधा देने के नाम पर कोई फैसला लिया जाता है तब सबसे पहले उसकी प्रासंगिकता की प्रशासनिक रिपोर्ट तैयार की जाती है फिर उसे वित्त विभाग की अनुमति के लिये भेजा जाता है। आज जब कोई फैसला रद्द किया जायेगा। तब उसके लिये यही दो आधार बनाये जायेंगे। जहां यह दोनों आधार सही रहे होंगे वहां उन फैसलों का बदलना केवल राजनीतिक दुर्भावना मानी जायेगी। लेकिन जहां इन आधारों को नज़र अन्दाज करके कोई फैसला लिया गया होगा वहां उसकी किसी पर जिम्मेदारी डालना भी अपेक्षित रहेगा। लेकिन यदि ऐसी जिम्मेदारी नही डाली जाती है तो यह सारी कवायद ही बेमानी होकर रह जायेगी। यह सरकार के लिये एक बहुत बड़ी परीक्षा भी होगी।
अभी सरकार को अवैध निर्माणों और वनभूमि पर हुए अतिक्रमणों के मामले में आये उच्च न्यायालय और एनजीटी के फैसलों पर अमल करना एक बड़ी चुनौती होगा। इसी चुनौती के साथ सरकार को सांसदों /विधायकों के खिलाफ दर्ज आपराधिक मामलों के निपटारों के लिये पहली मार्च से विशेष अदालतें गठित करने के फैसले पर अमल करना होगा। इस कड़ी में भाजपा के राजीव बिन्दल और कांग्रेस की आशा कुमारी के मामले सरकार के लिये पहला टैस्ट साबित होंगे। क्योंकि राजीव बिन्दल का नाम तो अगले विधानसभा अध्यक्ष के लिये भी प्रस्तावित है। ऐसे में यह बड़ा सवाल खड़ा होगा जय राम ठाकुर के लिये। क्योंकि राजीव बिन्दल और वीरभद्र के मामले एक ही धरातल पर है ऐसे में जब भाजपा वीरभद्र से पद त्यागने की मांग करती आयी है तो क्या अब उसी आधार और भाषा में बिन्दल को विधानसभा अध्यक्ष बनाना राजनीतिक नैतिकता का सवाल नही बन जायेगा। इन संद्धर्भो में खरा उत्तरना जय राम सरकार के लिये एक कड़ी परीक्षा होगा।

प्रधानमन्त्री के आश्वासन पर कितना भरोसा किया जाये

शिमला/शैल। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने एफ. आर. डी. आई. के प्रस्तावित विधेयक पर उठी शंकाओं को निराधार करार देते इन्हें पूरी अफवाह कहा है कि इसी के साथ यह भी आश्वासन दिया है कि लोगों का बैंको में जमा धन सुरक्षित रहेगा। प्रधानमन्त्री के इस आश्वासन से पहले वित्तमन्त्री अरूण जेटली और उनके वित विभाग ने भी ऐसा ही आश्वासन दिया है और यह कहा है कि लोगों का एक लाख का जमा धन सुरक्षित रहेगा। स्मरणीय है कि एक लाख तक की सुरक्षा तो 1961 में संसद में एक बिल लाकर दे दी गयी थी लेकिन एक लाख से अधिक के जमा की सरुक्षा का क्या होगा और यह सुरक्षा कैसे सुनिश्चित रहेगी इस पर कुछ नही कहा गया है। जबकि संसद के माध्यम से 1961 में दी गयी एक लाख की सुरक्षा की सीमा को तो आज तक बढ़ाया नही गया। यह प्रस्तावित विधेयक संसद में लंबित है और सत्र शुरू हो गया है। माना जा रहा है कि इसी सत्र में पारित हो जायेगा क्योंकि प्रधानमन्त्री और वित्त मन्त्री ने अपने आश्वसनों में यह नही कहा है कि इस प्रस्तावित विधेयक को अभी लंबित रखा जायेगा या इसे वापिस ले लिया जायेगा। इस कारण से प्रधानमन्त्री और वित्तमन्त्री के आश्वासनों पर भरोसा करने की कोई ठोस वजह नही रह जाती है। बल्कि बैंकों के जिस बढ़ते एन.पी.ए. के कारण यह विधेयक लाया गया है अब उस एन.पी.ए. को भी प्रधानमन्त्री नेे यूपीए शासन का एक सबसे बडा घोटाला करार दिया है।
बैकों का एन.पी.ए. किसके कारण इसके लिये एक अलग आंकलन की आवश्यकता है क्योंकि जब चुनाव लगातार मंहगा होता जा रहा है बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि जब चुनाव केवल पैसे के दम पर ही लड़ा और जीता जायेगा तब स्वभाविक है कि इस पैसे का प्रबन्ध सिर्फ उद्योगपतियों के पैसे से ही हो पायेगा क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल अपने राजनीतिक कार्यकर्ताओं के चन्दे से तो इतने पैसे का जुगाड़ नही कर सकता। कार्यकर्ताओं के चन्दे से चुनाव प्रचार के लिये हैलीकाॅप्टरों का प्रबन्ध नही हो सकता। हैलीकाॅप्टर केवल उद्योगपति ही उपलब्ध करवाता है और इस हैलीकाॅप्टर के बदले में उसे सरकारी बैंक से लाखों करोड़ का कर्ज तथा सरकार से यह आश्वासन है कि वह इस कर्ज की वसूली के लिये उसे राहत का पैकेज देगी न कि एन.पी.ए. होने की सूरत में उसके संसाधनों की नीलामी करके इस कर्ज को वसूला जाये। प्रधानमन्त्री ने यहां इस एनपी.ए. के लिये यू.पी.ए. सरकार को दोषी ठहराया है वहां यह नही बताया है कि इस एन.पी.ए. की वसूली कैसे की जायेगी। क्योंकि 2016 में बैंकरपटसी और इनसाल्बैनसी कोड लाया गया और फिर उसे एक अध्यादेश लाकर विलफुल डिफाॅलटर के प्रति और कड़ा गया था। अब इस प्रस्तावित एफ.आर.र्डी.आइ. विधेयक के माध्यम से उसकी धार को भी कुन्द कर दिया गया है। 2014 में जब मोदी सरकार ने सत्ता संभाली थी उस समय यह एन.पी.ए. करीब तीन लाख करोड़ कहा गया था जो अब बैंक यूनियनों के मुताबिक ग्यारह लाख करोड़ को पंहुच गया है। इसका सीधा सा अर्थ यही है कि मोदी सरकार ने भी इसे वसूलनेे के लिये कड़े कदम उठाने की बजाये इसे बढ़ने दिया।
आज यह बैंको का एन.पी.ए. ही सारे संकट की जड़ है इस समय स्थिति यह हो चुकी है। कि एक अबानी/अदानी जैसे बड़े उद्योग घराने के संकट से पूरे देश कीे व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है कई बड़ी कंपनीयां पब्लिक लि॰ से प्राईवेटे हो चकी हैं और यह एक बड़े संकट का संकेत है। वित्तमन्त्री ने 2016 के बजट भाषण में वित्तिय अनुशासन लाये जाने का संकेत दिया था और उसके बाद ही अतिरिक्त सचिव की अध्यक्षता में कमेटी गठित हुई जिसकी रिर्पोट पर यह एफआर.र्डी.आइ. विधेयक लाया गया है। लेकिन इसी रिपोर्ट के बाद नवम्बर में नोटबंदी लायी गयी तो क्या इस नोटबंदी के संकेत इस रिर्पोट में थे? यदि इसकी चर्चा छोड़ भी दी जाये तब भी यह सवाल तो अपनी जगह खड़ा रहेगा कि नोटबंदी भी इसी एन.पी.ए. के कारण लायी गयी। क्योंकि नोटबंदी के माध्यम से सरकार को भरोसा था कि उसे 86% नयी कंरसी छापने की सुविधा मिल जायेगी। यदि पुराने नोट 99% की जगह 40 या 50% तक ही वापिस आते तो नोटबंदी का प्रयोग सफल हो जाता। क्योंकि जो आधी नयी कंरसी उपलब्ध रहती उसे यह एन.पी.ए. आसानी से राईटआॅफ हो जाता जिससे पूरा उद्योग जगत बिना शर्त सरकार के साथ खड़ा हो जाता बल्कि कुछ दूसरे वर्गों को भी राहत मिल जाती लेकिन नोटबंदी का प्रयोग अफसल रहने के कारण ही आज इन एन.पी.ए. धारको को बचाने के लिये ही एफ.आर.डी.आई. में ‘‘बेलइन’’का प्रावाधान किया गया है।
क्योंकि नोटबंदी का प्रयोग सबसे पहले 1946 में आरबीआई ने अपनाया था और उस समय 1000 और 10,000 के नोट जारी किये गये थे। उसके बाद 1954 में 1000,5000,10,000 के नये नोट जारी किये। फिर 1978 में जनता पार्टी की मोरार जी भाई की सरकार में आरबीआई ने इन नोटों को चलन से बाहर कर दिया। लेकिन हर बार यह फैंसले आरबीआई के स्तर पर घोषित हुए। उस समय बैंकों और उद्योगपतियों को राहत देने के लिये ‘‘बेलइन’’जैसे प्रावधान नही लाये गये थे। आज यदि सरकार इस प्रस्तावित विधेयक को वापिस नही लेती है और उद्योगपतियों को प्रति सख्त नही होती है तो इसके परिणाम बहुत अच्छे नही रहने वाले है यह तय है।

अभद्रता का हथियार कब तक चलेगा

शिमला/शैल। कांग्रेस के निलंबित नेता मणीशंकर अय्यर के ब्यान के बाद गुजरात के चुनाव प्रचार अभियान की तर्ज बदल गयी है क्योंकि इस ब्यान पर जिस तरह की प्रतिक्रिया प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और अन्य भाजपा नेताओं की आयी है। उससेे यह सोचने पर विवश होना पड़ रहा है कि क्या अब अभद्र भाषा चुनावी राजनीति का एक सबसे बड़ा हथियार बनती जा रही है। अभद्र भाषा का प्रयोग राजनीति में किस कदर आता जा रहा है यदि इसका एक निष्पक्ष आंकलन किया जाये तो स्पष्ट हो जाता है। कि ऐसी भाषा के प्रयोग के बाद वह सारे मुद्दे /प्रश्न चुनाव प्रचार अभियान के बाद गौण हो जाते हैं जो सीधे आम आदमी के साथ जुडे हुए होते हैं। जबकि चुनाव इतना महत्वपूर्ण कार्यक्रम है जिससे संबधित देश /प्रदेश का भविष्य तय होता है। आने वाले समय में सत्ता का सही हकदार कौन है? किसके हाथ में प्रदेश का भविष्य सुरक्षित रहेगा यह सब इस चुनाव की प्रक्रिया से तय होता है। इसके लिये आम आदमी से जुड़े मुद्दों पर जहां सार्वजनिक बहस होनी चाहिये वहीं पर इससे बचने के लिये एक ब्यान में एक बहुअर्थी अभद्रशब्द का प्रयोग पूरे परिदृश्य को बदल कर रख देता है। मतदाता को यह समझने ही नही दिया जाता है कि ऐसे शब्दों के प्रयोग से कैसे बड़ी चालाकी से उसका ध्यान गंभीर मुद्दों की ओर से भटका दिया जाता हैै।
मणीशंकर अय्यर ने प्रधानमन्त्री द्वारा स्वर्गीय जवाहर लाल नेहरू के संद्धर्भ में दी गयी प्रतिक्रिया को लेकर यह कहा कि ऐसी प्रतिक्रिया कोई नीच किस्म का व्यक्ति ही दे सकता है। नीच किस्म का व्यक्ति होना और नीच होने के अर्थो में दिन रात का अन्तर है लेकिन इस अन्तर को नजरअन्दाज़ करके इसका सारा संद्धर्भ ही बदल दिया गया। स्व. जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी को लेकर जिस तरह के पोस्टर सोशल मीडिया में आते रहे हैं और आ रहे हैं वह सब क्या नीचता के दायरे में नही आते हैं? क्या उस पर सरकार की ओर से कोई निन्दा और कारवाई नही कि जानी चाहिये? पूरे नेहरू -गांधी परिवार को लेकर जो कुछ अनर्गल प्रचार चल रहा है क्या उसकी प्रंशसा की जानी चाहिये या उसके खिलाफ कड़ी कारवाई होनी चाहिये? लेकिन केन्द्र सरकार इस संद्धर्भ में एकदम मोन रही है। बल्कि यहां तक सामने आ गया है कि ऐसे अनर्गल प्रचार के लिये सरकार की साईटस का प्रयोग किया जा रहा है। इस परिदृश्य में यह भी स्मरणीय है कि 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद जिस स्तर तक कई भाजपा नेताओं की भाषा मर्यादा की सारी सीमाएं लांघ गयी थी तब प्रधानमन्त्री को ऐसे नेताओ को यह हिदायत देनी पड़ी थी कि ऐसी ब्यानबाजी न करेें। प्रधानमन्त्री की इस हिदायत का भले ही इन नेताओं पर कोई असर न हुआ हो लेकिन प्रधानमन्त्री ने निंदा की औपचारिकता तो निभाई थी। आज कांग्रेस ने अय्यर को पार्टी से निलंबित कर दिया है लेकिन प्रधानमन्त्री ने अय्यर पर यहां तक आरोप लगाया है कि अय्यर ने उनके लिये पाकिस्तान में सुपारी दी है। प्रधानमन्त्री का यह आरोप बहुत गंभीर है। यदि यह आरोप वास्तव में ही सच है तो इस पर केन्द्र सरकार को कारवाई करनी चाहिये और देश के सामने इसका खुलासा रखना चाहिये। यदि यह आरोप महज़ एक राजनीतिक ब्यान मात्र ही है तो इससे प्रधानमन्त्राी की छवि आम आदमी के सामने क्या रह जायेगी और उसका परिणाम क्या होगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है। क्योंकि कांग्रेस ने जहां अय्यर को पार्टी से निलंबित कर दिया है वहीं पर भाजपा से भी यह मांग की जाने लगी है कि वह अपने भी उन नेताओं के खिलाफ कड़ी कारवाई करे जो अभद्र भाषा को प्रयोग करते रहे हैं और आज भी कर रहे हैं।
अय्यर के ब्यान पर कांग्रेस की कारवाई के बाद प्रधानमन्त्री ने इस ब्यान को एक बड़ा मुद्दा बनाकर गुजरात के प्रचार अभियान में उछाल दिया है। लेकिन क्या इस उछालने से वहां के मुद्दे गौण हो जायेंगे? गुजरात में भाजपा पिछले बाईस वर्षों से सत्ता में है और आज इस प्रदेश का कर्जभार दो लाख करोड़ से अधिक का हो चुका है। यह दो लाख करोड़ कहां निवेशित हुआ है और इससे प्रदेश के खजाने को कितनी नियमित आय हो रही है आम आदमी को इस कर्ज से क्या लाभ हुआ है? यह सवाल इस चुनाव में उठने शुरू हो गये थे। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गंाधी ने भाजपा सरकार से इन बाईस वर्षों का हिसाब मांगते हुए प्रतिदिन प्रधानमन्त्री से प्रश्न पूछने शुरू किये हैं जिनका कोई जवाब नही आया है। चुनाव के दौरान पूछे जाने वाले सवालों का जवाब नहीं आता है। हिमाचल मे भी भाजपा ने वीरभद्र से हिसाब मांगा था जो नही मिला। लेकिन चुनाव में पूछे गये सवालों का परिणाम गंभीर होता है। बशर्ते कि हिसाब मांगने वाले का अपना दामन साफ हो। ऐसे में यह स्वभाविक हो जाता है कि जब तीखे सवालों का कोई जवाब नही रहता है तब उन सवालों का रूख मोड़ने के लिये ऐसे बहुअर्थी अभद्र शब्दों का सहारा लेकर स्थितियों को पलटने का प्रयास किया जाता है। गुजरात में अय्यर का ब्यान प्रायोजित था या नही यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन इस ब्यान ने एक सुनियोजित भूमिका अदा की है। इसमें कोई दो राय नही है। परन्तु अन्त में फिर यह सवाल अपनी जगह खड़ा रहता है कि यह अभद्रता का हथियार कब तक चलेगा।

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