Wednesday, 17 December 2025
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सिन्धिया कांग्रेस के लिये घातक होंगे या भाजपा के लिये अर्थहीन

क्या देश की राजनीति वैचारिक संकट से गुजर रही है? क्या राजनीति में स्वार्थ ही सर्वोपरि हो गया है? क्या जन सेवा राजनीति में केवल सुविधा का तर्क होकर रह गयी है। इस तरह के दर्जनों सवाल आज राजनीतिक विश्लेष्कों के लिये चिन्तन का विषय बन गये हैं। यह सवाल ज्योतिरादित्य सिन्धिया के अठारह वर्ष कांग्रेस मे केन्द्रिय मन्त्री से लेकर संगठन में विभिन्न पदों पर रहने के बाद भाजपा में शामिल होने से उठ खड़े हुए हैं क्योंकि उन्होंने कांग्रेस छोड़ने का कारण अपनी अनदेखी होना कहा है। मान-सम्मान और पहचान को सर्वोपरि बताते हुए उन्होंने यह कहा है कि कांग्रेस में रहकर अब जनसेवा करना संभव नही रह गया है। सिन्धिया के कांग्रेस छोड़ने पर कांग्रेस के भीतर भी आत्मनिरीक्षण किये जाने की मांग कुछ लोगों ने की है। बहुत लोगों ने कांग्रेस नेतृत्व की क्षमता पर सवाल उठाते हुए कांग्रेस का नेतृत्व गांधी परिवार से बाहर ले जाने की बात की है। आज देश जिस तरह के राजनीतिक परिदृश्य से गुजर रहा है उसमें सिन्धिया के पार्टी बदलने पर उठे सवाल महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
सिन्धिया के कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल होते ही भाजपा ने उन्हे राज्यसभा के लिये उम्मीदवार बना दिया है। राज्यसभा सदस्य बनने के बाद केन्द्र में मन्त्री बनने की भी चर्चा है। पूरे मन्त्री बनते है या राज्य मन्त्री और उससे उनका सम्मान कितना बहाल रहता है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। सिन्धिया के साथ छः मन्त्रीयों सहित बाईस कांग्रेस विधायकों ने भी पार्टी छोड़ी है। बाईस विधायकों के पार्टी छोड़ने से कांग्रेस की कमलनाथ सरकार गिर जाती है या बची रहती है यह भी आने वाला समय ही बतायेगा। भाजपा के कितने मूल नेता इस दल बदल के लिये अपने राजनीतिक हितों की बलि देने के लिये सही मे तैयार हो जाते हैं यह भी आने वाले दिनों में ही सामने आयेगा। क्योंकि यह सवाल अन्ततः उठेगा ही कि भाजपा ने अपनी सत्ता के बल पर जो कांग्रेस सरकार को गिराने का प्रयास किया है वह सही में नैतिक है या नही। यदि इस सबके बावजूद भी सरकार नही गिरती है तब यह भाजपा के अपने ही भीतर एक बड़े विस्फोटक का कारण भी बन सकता है। इस समय भाजपा की सबसे बड़ी राजनीतिक उपलब्धियां जम्मू कश्मीर से धारा 370 और 35 ए तथा तीन तलाक समाप्त करना रहा है। राममन्दिर पर आये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को भी भाजपा अपनी उपलब्धि मान रही है। लेकिन इन सारी उपलब्धियों के सहारे भी भाजपा दिल्ली और झारखण्ड चुनाव हार गयी। इससे पहले मध्यप्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़ हार गयी। हरियाणा में अपने दम पर बहुमत नही मिल पाया। महाराष्ट्र में शिव सेना साथ छोड़ गयी। यह ऐसे राजनीतिक घटनाक्रम है जो यह सोचने पर बाध्य करते हैं कि इन राज्यों में भाजपा की हार क्यों हुई। जिस धार्मिक ध्रुवीकरण के सहारे केन्द्र की सत्ता मिली उसी के कारण राज्यों में हार जाना एक बहुत बड़ा सवाल है। भाजपा की हार का लाभ उस कांग्रेस को मिला है जिसके नेतृत्व के खिलाफ पूरा अभियान चला हुआ है। इस परिदृश्य में यह देखना महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या धारा 370, तीन तलाक और राममन्दिर से भी बड़े ऐसे कौन से मुद्दे आ गये हैं जो जनता को सीधे प्रभवित कर रहे हैं।
इस पर अगर नज़र दौड़ाई जाये तो मोदी सरकार का सबसे बडा फैसला नोटबंदी था। इस फैसले के जो भी लाभ गिनाये गये थे वह सब धरातल पर प्रमाणित नही हो पाये हैं क्योंकि 99.6% पुराने नोट नये नोटों से बदले गये हैं। इससे कालेधन और इसके आतंकी गतिविधियों में लगने के सारे आकलन हवाई सिद्ध हुए उल्टे यह नोट बदलने में जो समय लगा उससे सारा कारोबार प्रभावित हो गया। नोटबंदी के बाद जीएसटी का फैसला आ गया इस फैसले से जो राजस्व इकट्ठा होने के अनुमान थे वह भी पूरे नही हो पाये क्योंकि कारोबार प्रभावित हो गया था। इन्ही फैसलों के साथ बैंकों का एनपीए बढ़ता चला गया। बैंको में आरबीआई से लेकर पैसा डाला गया। लेकिन बैंकों द्वारा कर्ज वसूली के लिये कड़े माध्यम से राईट आफ करना शुरू कर दिया गया। पंजाब और महाराष्ट्र बैंक के बाद अब यस बैंक संकट मे आ गया है। आरबीआई के पास बैंको में लोगों के जमा धन पर ब्याज दरें घटाने के अतिरिक्त और कोई उपाय नही रह गया है। लेकिन जमाधन पर ब्याज दर घटाने के साथ कर्ज पर भी ब्याज दर घटायी जा रही है इसका लाभ फिर उद्योगपति उठा रहा है। उद्योगपति कर्ज लौटाने की बजाये एनपीए के प्रावधानों का लाभ उठा रहा है। इस तरह कुल मिलाकर स्थिति यह हो गयी है कि मंहगाई और घटती ब्याज दरों से बैंकों के साथ ही आम आदमी प्रभावित होना शुरू हो गया। क्योंकि वह साफ देख रहा है कि बड़े कर्जदार कर्ज वापिस लेने के उपाय करने की बजाये तो सरकार अपने अदारे बेचने की राह पर चल रही है। इससे रोज़गार का संकट लगातार गंभीर होता जा रहा है। यह एक बुनियादी सच्चाई है कि जब आदमी का पैसा डूबने के कगार पर पहुंच जाता है तब शासन-प्रशासन का हर आश्वासन उसे धोखा लगता है।
आज संयोगवश आर्थिक संकट के साथ ही सरकार एनआरसी, एनपीआर, सीएए में भी उलझ गयी है। इन मुद्दों पर सरकार के अपने ही मन्त्रियों के अलग-अलग ब्यानों से स्थिति और गंभीर हो गयी है। ऊपर से सर्वोच्च न्यायालय में यह मुद्दा लम्बा ही होता जा रहा है। इससे यह धारणा बनती जा रही है कि सरकार आर्थिक सवालों को टालने के लिये दूसरे मुद्दों को जानबूझ कर गंभीर बनाती जा रही है। इस तरह जो भी वातावरण बनता जा रहा है उसका अन्तिम प्रभाव राजनीति पर ही होगा यह तय है। सरकार की इस कार्यप्रणाली पर आज आम आदमी दूसरे राजनीतिक दलों से इस सब में उनकी जनता के प्रति भूमिका को लेकर सवाल पूछने लग गया है। जिस कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्याय मानकर जनता ने सत्ता से बाहर किया आज उसी कांग्रेस नेतृत्व से जनता यह मांग करने लग गयी है कि वह उसकी रक्षा में सामने आये। हालात ने एकदम कांग्रेस को फिर से सार्थक बना दिया है। भाजपा भी इस स्थिति को समझ रही है और संभवतः इसी कारण से कांग्रेस की सरकारों को अस्थिर करना उसकी राजनीतिक आवश्यकता बन गयी है। इसी कारण से गांधी परिवार के नेतृत्व को लगातार कमजोर और अनुभवहीन प्रचारित किया जा रहा है। इस परिदृश्य में यह देखना बहुत बड़ा सवाल होगा कि सिन्धिया का जाना कांग्रेस के लिये घातक होता है या भाजपा के लिये अर्थहीन।

‘‘मोदी है तो अब मुमकिन नहीं है’’

दिल्ली विधानसभा चुनावों के बाद राजधानी के कुछ हिस्सों में उभरी हिंसा में मरने वालों का आंकड़ा चालीस से उपर चला गया है और यह कहां जाकर रूकेगा यह कहना कठिन है क्योंकि सैंकड़ो की संख्या में है घायल और गुमशुदा। इस हिंसा के लिये कौन जिम्मेदार है इसके लिये सत्तापक्ष और विपक्ष दोनो ने एक दूसरे को जिम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया है। इसमें अन्तिम सच क्या निकलेगा इसे सामने आने में समय लगेगा। अभी तक जो कुछ सामने आ चुका है उसके मुताबिक शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों के कारण यातायात में हो रही असुविधा के लिये सर्वोच्च न्यायालय में आयी याचिकाओं पर शीर्ष अदालत ने वास्तविक स्थिति का मौके पर जाकर पता लगाने के लिये कुछ लोगों की एक कमेटी बनाई थी और कमेटी को अपनी रिपोर्ट अदालत में रखने के निर्देश दिये थे। इन निर्देशों की अनुपालना में केमटी ने धरना स्थल का निरीक्षण करने के बाद अपनी रिपोर्ट अदालत को सौंप दी है। इसमें भारत सरकार के मुख्य सूचना आयुक्त रहे वजाहत हबीब ऊल्लाह ने वाकायदा शपथ पत्र के साथ यह कहा है कि प्रदर्शनकारियों के कारण लोगों को आने जाने में असुविधा नही हो रही है। बल्कि असुविधा का कारण वहां के अन्य मार्गों पर पुलिस द्वारा लगाये गये बैरिकेडज़ हैं जिनका धरना स्थल के साथ कोई लिंक ही नही है। उन्होंने शपथपत्र में यह भी कहा है कि यह पता लगाया जाना चाहिये कि पुलिस को यह बैरिकेडज़ लगाने के आदेश किसने दिये थे। यह शपथपत्र दायर होने के बाद धरना स्थल पर भाजपा नेता कपिल मिश्रा पहुंच जाते हैं। वहां वह बड़ा उत्तेजित भाषण देते हैं। वहां मौजूद पुलिस को साफ कहते हैं कि आप आज यह रास्ता खुलवा दो वरना हमें सड़क पर आना पड़ेगा। कपिल मिश्रा के इस भाषण के बाद रात को हिंसा शुरू हो जाती है। दिल्ली में भड़की हिंसा को रोकने में पुलिस तन्त्र बुरी तरह असफल रहा है। इस हिंसा की गुप्तचर ऐजैन्सीयों को कितनी जानकारी थी और कितना उन्होंने इसे बड़े अधिकारियों तथा शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व से शेयर किया था यह अभी सामने नही आया है।
इस हिंसा को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय में पहुंची याचिका पर रात को ही जस्टिस डा.एस मुरलीधर और जस्टिस तलवन्त सिंह की पीठ ने सुनवाई की और घायलों को अस्पतालों में पहुंचाने के निर्देश दिये। इन निर्देशों के बाद अलगी सुनवाई दूसरे दिने की और दिल्ली पुलिस को फटकार लगायी। अदालत में चुनाव प्रचार के दौरान अनुराग ठाकुर प्रवेश वर्मा और विधायक वर्मा तथा कपिल मिश्रा के भाषणों के वीडियो अदालत में प्ले हुए। अदालत ने पुलिस को इन भाषणों पर एफआईआर बनती है या नहीं यह निर्णय चैबीस घण्टों में लेने के निर्देश दिये। लेकिन उसी रात को यह निर्देश देने वाले जज को पंजाब हरियाण उच्च न्यायालय में तत्काल प्रभाव से पदग्रहण करने के सरकार ने निर्देश दे दिये। दूसरे दिन दिल्ली उच्च न्यायालय में इस मामले की सुनवाई करने के लिये लिये नया बैंच गठित कर दिया जाता है और यह बैंच दिल्ली पुलिस को एफआईआर का फैसला लेने के लिये एक माह का समय दे देता है। उच्च न्यायालय की नाराज़गी के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करते हैं। जब उनसे इस सब पर सवाल पूछे जाते हैं तो वह भी सेम पित्रोदा की ही भाषा में जवाब देते हैं कि ‘‘जो हो गया वह हो गया’’ एनएसए के बाद दिल्ली पुलिस कमीशनर प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करते हैं।
जब कपिल मिश्रा के भाषण को हिंसा का तात्कालिक कारण कहा जाने लगा तब भाजपा सांसद गौतम गंभीर ने मिश्रा के खिलाफ कारवाई की मांग कर दी। इस पर देश के कई भागों में हिन्दु समर्थकों ने गंभीर को काफी कोसा और कपिल मिश्रा के साथ खड़े होने की बात की। इस हिंसा पर कांग्रेस ने राष्ट्रपति को एक ज्ञापन सौंपकर गृह मन्त्री के त्यागपत्र की मांग कर दी। यह मांग आने के बाद हिन्दु समर्थक दिल्ली चुनावों के दौरान आये सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के भाषणों के वीडियो लेकर सामने आ गये। इनके खिलाफ एफआईआर किये जाने की मांग हो गयी। यही नहीं मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान के काल में वहां महाधिवक्ता रहे वकील ने इस आश्य की अदालत में शिकायत भी डाल दी और इस शिकायत पर इन्हें नोटिस भी जारी हो गया है। इस नोटिस के बाद कांग्रेस प्रवक्ता और वरिष्ठ वकील डा. सिंघवी ने एक पत्रकार वार्ता में सरकार से पन्द्रह सवाल पूछ लिये हैं। इन सवालों में पुलवामा प्रकरण पर जैशे मोहम्मद के संद्धर्भ में गृहमन्त्री और एनआईए चीफ के त्यागपत्र की मांग कर दी है। दिल्ली में हुई हिंसा के बाद भी प्रदर्शनकारियों ने धरना और धरना स्थल नही छोड़े हैं और इस हिंसा की यही सबसे बड़ी असफलता है। इसके बाद ही कानून मन्त्री रवि शंकर प्रसाद ने फिर कहा है कि सरकार अपने ऐजैण्डे पर अडिग है। विश्व के कुछ हिस्सों में इस हिंसा पर विरोध प्रदर्शन भी सामने आये हैं। इसी दौरान यह भी आरोप सामने आया है कि सरकार ने झारखण्ड में अंबानी-अदानी को चार चार हजार एकड़ जमीन दे दी है जिस पर आदवासी बैठे हैं। आदवासीयों से जमीन छुड़ाने के लिये एनपीआर का सहारा लिये जाने की योजना है। संभवतः बिहार में नीतिश सरकार ने इसी कारण से एनआरसी और एनपीआर के खिलाफ विधानसभा में प्रस्ताव पारित किया है जिसका वहां बैठी भाजपा विरोध नही कर पायी है। इस तरह आज स्थिति यहां आकर खड़ी हो गयी है कि एनआर सी, एनपीआर और सीएए को लेकर भाजपा के भीतर भी मतभेद उभरने शुरू हो गये हैं। बिहार भाजपा का विधानसभा में खामोश रहना भले ही आने वाले चुनावों के कारण हो लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर यह खामोशी राष्ट्रीय नेतृत्व के लिये एक बड़ी चुनौती है। अदालत में भड़काऊ भाषणों पर अन्ततः चर्चा आनी ही है। भाजपा नेता और वरिष्ठ वकील अश्वनी उपाध्याय ने विधि आयोग की 267 बी रिपोर्ट की सिफारिशों पर अमल करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय में याचिका डाल दी है। इस रिपोर्ट में ऐसे भाषणों से निपटने के लिये ही कहा गया है। इस परिदृश्य में भाजपा एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ी हुई है जहां उसे अपने हिन्दु ऐजैण्डे पर ईमानदारी से पुनर्विचार करने की आवश्यकता आ खड़ी हुई है। क्योंकि दिल्ली चुनाव में धारा 370, 35 A और तीन तलाक तथा राम मन्दिर फैसले आदि उपलब्धियों का कोई लाभ भाजपा को नही मिल पाया है। बल्कि भाजपा कार्यकताओं में जो धारणा आ गयी थी कि शाह की चुनावी योजना के आगे कोई न ही ठहर सकता तथा ‘‘मोदी है तो मुमकिन है’’ को जो धक्का लगा है उस आघात से उबरना बहुत कठिन है। जब नेतृत्व को लेकर बनी धारणा आधारहीन होना सिद्ध हो जाती है तब संगठन को बिना बदलाव के बड़ी देर तक एक स्थान पर खड़े रहना कठिन हो जाता है। बहुत संभव है कि इस जन नकार को नकारने में समय लगे और इसे पुनः खड़ा करने के लिये कट्टरता की आखिरी सीमा तक भी जाने का प्रयास हो। लेकिन आज जब हिंसा के बाद भी महिलायें शाहीन बाग में खड़ी हैं तब ‘‘मोदी है तो मुमकिन है’’ को पुन खड़ा करना असभंव है क्योंकि 1984 के दंगों की आंच अब तक सुलग रही है तो 2020 के दंगे कब तक सुलगते रहेंगे और किसके सिर इसकी गाज गिरेगी यह कहना कठिन नही होगा।

नागरिकता के मुद्दे पर क्या मोदी-शाह में मतभेद है

नागरिकता संशोधन अधिनियम पर उभरा जन विरोध देश के कई भागों में फैल गया है। सभी जगह शाहीन बाग की तर्ज पर धरना प्रदर्शन शुरू हो गये हैं। गैर भाजपा शासित राज्यों ने अधिकांश में वाकायदा अपनी-अपनी विधान सभाओं में इसके खिलाफ प्रस्ताव पारित करके इसे अपने राज्यों में लागू न करने के फैसले किये हैं। यह एक अपनी ही तरह की स्थिति बन गयी है जहां राज्य केन्द्र में टकराव पैदा हो गया है। केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा का यह तर्क है कि उसे जनता ने अपना समर्थन देकर सत्ता सौंपी है और वह उसी समर्थन के आधार पर यह फैसले ले रही है। सरकार ने स्पष्ट कहा है कि वह किसी भी दबाव के आगे नही झूकेगी और एनआरसी, एनपीआर तथा सीएए पूरे देश में लागू होगे। लेकिन इसमें एक रोचक तथ्य यह भी सामने है कि इन मुद्दों पर प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और उनके गृहमन्त्री अमित शाह दोनों अलग-अलग बात कर रहे हैं। इनमें से कौन झूठ बोल रहा है और कौन सच या यह दोनों ही रणनीति के तहत परस्पर विरोधी ब्यान दे रहे हैं यह तो आने वाले समय में पता चलेगा। लेकिन इन ब्यानों से स्थिति और उलझ गयी है। संभवतः इन्ही ब्यानों के कारण गैर भाजपा शासित राज्यों ने इसके विपरीत फैसला लिया है। क्योंकि जिस जनता ने केन्द्र में भाजपा को सत्ता सौंपी है उसी ने राज्यों में गैर भाजपा दलों को सत्ता दी है। भारत राज्यों का संघ है और इस नाते राज्य के लोगों के हितों की रक्षा करना उसका अधिकार ही नही बल्कि कर्तव्य है। फिर अभी तक भारत संविधान के तहत धर्मनिरपेक्ष राज्य है हिन्दु राष्ट्र नही है।
राज्यों और केन्द्र में उभरा यह टकराव कहां तक जायेगा और इसका अन्त क्या होगा यह कहना अभी आसान नही है लेकिन यह तय है कि इससे देश का बहुत नुकसान हो जायेगा। सरकार अपने स्टैण्ड पर अढ़िग है तो इसके विरोधीयों के पास आन्दोलन के अतिरिक्त और कोई विकल्प नही है। सर्वोच्च न्यायालय में जिस तरह की याचिकाएं इसके विरोध में आ चुकी हैं उनमें प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी, गृहमन्त्री अमितशाह और अन्य नेताओं के परस्पर विरोधी ब्यानों का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। क्योंकि इन ब्यानों से यही झलकता है कि या तो मोदी के अपने मन्त्रीयों से सही में अन्दर से मतभेद पैदा हो गये हैं या फिर सब मिलकर जनता को उलझाने का सुनियोजित प्रयास कर रहे हैं। हकीकत कोई भी हो दोनों ही स्थितियां देश के लिये घातक हंै। संघ ने नागरिकता संशोधन और एनपीआर पर अभी तक खुलकर कुछ नही कहा है केवल एनआरसी पर अपना स्टैण्ड स्पष्ट किया है कि ‘‘घर में अवैध रूप से घुस आये’’ को बाहर निकालना ही पड़ता है। यह पूरी स्थिति जिस तरह हर रोज़ जटिल होती जा रही है उसके आर्थिक और राजनीतिक परिणाम क्या होंगे यह अब चिन्ता और चिन्तन का विषय बनता जा रहा है। जब किसी सरकार को आरबीआई से रिजर्व धन लेने के बाद राष्ट्रीय संपतियां बेचने की नौबत आ जाये और रसोई गैस जैसी आवश्यक वस्तुओं के हर माह दाम बढ़ाने पड़ जायें तो एक साधारण नागरिक भी उसकी हालत का अन्दाजा लगा सकता है। क्योंकि तीन तलाक खत्म करने और धारा 370 हटाने के फैसले ऐसे नही रहे हैं जिन पर हजारों करोड ़का निवेश करना पड़ा हो। विदेशों में भारत की छवि क्या होगी इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि अमेरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को मंच तक जिस मार्ग से ले जाया जा रहा है उसके दोनों ओर सात फीट ऊंची दीवार खड़ी कर दी गयी है ताकि उन्हे सड़क किनारे बसे लोगों की झोंपड़ीयां नजर न आ सकें। जिस गुजरात में पन्द्रह वर्ष तक मोदी मुख्यमन्त्री रहे हैं उसी गुजरात में अगर विदेशी मेहमान को ऐसे मंच तक ले जाना पड़े तो मोदी के विकास माॅडल को समझने में देरी नही लगेगी। शायद इन्ही कारणों से वहां मोदी शासन में लोकायुक्त की नियुक्ति तक नही की गयी थी।
इस परिदृश्य में जो सवाल उभरते हैं उनमें सबसे पहले यह आता है कि यदि हिन्दु ऐजैण्डा नाम का कुछ भी है तो उसे अमलीशक्ल देने का समय कब है। क्योंकि 2014 से आज तक लोकसभा से लेकर राज्यों की विधानसभाओं तक किसी भी मुस्लिम को भाजपा द्वारा चुनावी टिकट न दिया जाना पार्टी की देश की दूसरी बड़ी जनसंख्या के प्रति सोच को स्पष्ट करता है। इसी सोच का परिणाम अब धार्मिक प्रताड़ना के नाम पर नागरिकता संशोधन अधिनियम के रूप में सामने आया है। संघ-भाजपा की मुस्लिम सोच के बारे में कहीं कोई संशय नही रह जाता है। इस कड़ी में दूसरा सवाल आता है कि एनआरसी, एनपीआर और सीएए को यदि सरकार वापिस नही लेती है और सर्वोच्च न्यायालय का फैसला भी राम मन्दिर की तर्ज पर ही आता है तो इसका राजनीतिक परिणाम क्या होगा। अभी दिल्ली चुनावों में स्पष्ट हो गया है कि इस सबसे भाजपा को नुकसान हुआ है। अभी आरक्षण में क्रीमीलेयर के मानदण्ड बदलने से ओबीसी कोटे में आईएएस में पास हुए 314 उम्मीदवारों के भविष्य पर तलवार लटक गयी है इससे ओबीसी और एससी, एसटी वर्गाें में रोष आ गया है। यदि इस सबमें मुस्लिम, ओबीसी और एससी इकट्ठे होकर एक राजनीतिक फ्रन्ट बन जायें तो इसका सीधा नुकसान भाजपा को होगा। संध-भाजपा भी इस तथ्य को समझते हैं और इन संभावित समीकरणों के फलस्वरूप वह सत्ता भी नही खोना चाहेंगे। अब तक जिस तरह का धु्रवीकरण धर्म के माध्यम से घट सका है इसका राजनीतिक लाभ भाजपा ले चुकी हैै। आगे सत्ता में बने रहने के लिये आर्थिक क्षेत्र में तो कोई क्रान्ति संभव नही लग रही है इसलिये एक बार फिर बड़े स्तर का धु्रवीकरण नियोजित करना होगा। जिस तरह का राष्ट्रवाद पुलवामा और बालाकोट के प्रसंग में उभरा था वैसा ही राष्ट्रवाद अब पीओके पर कोई कारवाई करके ही उभारने का प्रयास किया जा सकता है।  कुछ हिन्दु ऐजैण्डा समर्थक इस तरह की भाषा बोलने भी लग गये हैं। इनकी भाषा का अगर विश्लेषण किया जाये तो यह संकेत उभर रहे हैं कि नागरिकता संशोधन अधिनियम पर उभरे विरोध को बढ़ाये रखने के लिये हिन्दु राष्ट्र के ऐजैण्डा को संसद के माध्यम से लागू कर दिया जाये। इस पर विरोध को पीओके पर कारवाई करके एक अलग जमीन दे दी जाये। इसी पृष्ठभूमि में ‘‘एक देश एक चुनाव’’ का हथियार चलाकर संसद और विधानसभाओं को भंग करके जनता को नये सिरे से फैसले की परीक्षा में डाल दिया जाये। ऐसा इसलिये लग रहा है कि न तो सरकार अपना फैसला वापिस ले रही है और न ही आन्दोलन रूक रहा है ऐसे में सत्ता में बने रहने के लिये इसी तरह का प्रयोग शेष बचता है। अन्यथा जिस तरह का जनाक्रोश लगातार बढ़ता जा रहा है उसमें सत्ता में बने रहना कठिन हो जायेगा। फिर आज मोदी और उनके मन्त्री इन मुद्दों पर अलग-अलग भाषा बोल रहे हैं उसमें अन्ततः यही सामने आयेगा कि मोदी के संघ तथा अपने सहयोगियों से सही में मतभेद गहराते जा रहे हैं। मेरा मानना है कि अगले दो तीन माह के भीतर देश के अन्दर कुछ महत्वपूर्ण घटेगा। क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय भी अभी अस्पष्टता में ही उलझा हुआ है।

दिल्ली की हार के बाद उठते सवाल

दिल्ली के विधानसभा चुनावों में हर बार फिर भाजपा को हार का समाना करना पड़ा है। राजनीति में चुनावी हार-जीत चलती रहती है और इसका कोई बड़ा अर्थ भी नही रह जाता है। लेकिन शायद इस हार को इस तरह सामान्य लेकर नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता और न ही इसका कोई अर्थ रह जाता है कि अबकी बार भाजपा का मत प्रतिशत तथा सीटे दोनो बढ़ी हैं। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि यह हार देश की राष्ट्रीय राजनीति के लिये कुछ ऐसे गंभीर सवाल छोड़ गयी है जिन पर तत्काल प्रभाव से विचार करना आवश्यक हो जाता है। भाजपा की इस हार को 2014 के चुनावी परिदृश्य से लेकर आज के राजनीतिक परिवेश के साथ जोड़कर देखना आवश्यक हो जाता है। 2014 की राजनीतिक परिस्थितियों का निर्माण भ्रष्टाचार, कालाधन, बेरोजगारी और मंहगाई के मुद्दों पर हुआ था। भ्रष्टाचार के टूजी स्कैम जैसे कई मुद्दे जनहित याचिकाओं के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय मे पहुंचे और शीर्ष अदालत ने भी उन्हें गंभीरता से लेते हुए इनमें जांच के आदेश दिये। जांच के परिणामस्वरूप कई राजनेता, बड़े नौकरशाह और उद्योग जगत के कई लोग गिरफ्तार हुए। सरकार को भ्रष्टाचार का पर्याय प्रचारित किया गया। इसी भ्रष्टाचार को लेकर लोकपाल की मांग उठी और अन्ना हजारे के जनान्दोलन का यह केन्द्रिय बिन्दु बन गया। इसी के साथ कालेधन को लेकर कई बड़े बड़े आंकड़े जनता में परोसे गये। इस सारे जनान्दोलन के संचालन का राजनीतिक श्रेय भाजपा को मिला। दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना के आन्दोलन में केजरीवाल और उनके साथियों की भूमिका सर्वविदित है। यह भी सब जानते है कि केन्द्र सरकार ने लोकपाल को लेकर सिविल सोसायटी की बात मान ली और आन्दोलन की समाप्ति की घोषणा कर दी गयी तब उसमें अन्ना के साथ आन्दोलन के संचालकों और टीम केजरीवाल में मतभेद पैदा हुए थे। अन्ना इस सबसे दुखी होकर ममता के सहयोग से उन्हें आन्दोलन का आह्वान किया और बुरी तरह असफल हुए।
 तब इस आन्दोलन ने राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को राजनीतिक विकल्प और मोदी को इसका राष्ट्रीय नायक के रूप में सफलता से चुनावों में स्थापित कर दिया। इन चुनावों में भाजपा और उसके सहयोगियों को प्रचण्ड बहुमत मिला। लेकिन इसी चुनाव के बाद जब दिल्ली विधानसभा के चुनाव हुए तो उसी जगह भाजपा को शर्मनाक हार मिली जो अन्ना आन्दोलन का केन्द्र थी। लोकसभा चुनावों के एक वर्ष के भीतर ही ऐसी हार क्यों मिली थी कोई आकलन आज तक सामने नही आया है जबकि इस दौरान सरकार की ओर से ऐसा कई बड़ा फैसला भी नही आया था जिससे जनता के नाराज होने की कोई वजह बनती लेकिन फिर भी भाजपा हार गयी क्योंकि इसी दौरान भाजपा के संघ की पृष्ठभूमि वाले नेताओं ने हिन्दु ऐजैण्डे के तहत अपने हर विरोधी को पाकिस्तान समर्थक होने और पाकिस्तान जाने की नसीहत देनी शुरू कर दी थी। हालांकि प्रधानमंत्री समय समय पर ऐसे नेताओं को ऐसे ब्यान देने से परहेज करने की बातें करते रहे। परन्तु प्रधानमन्त्री की यह नाराज़गी रस्म अदायगी से अधिक कुछ भी प्रमाणित नही हो सकी। बल्कि इस नाराज़गी के बाद ऐसे ब्यानों पर विराम लगने की बजाये यह और बढ़ते चले गये। इसका असर दिल्ली की हार के रूप में सामने आया। क्योंकि दिल्ली ही देश का एक मात्र ऐसा राज्य है जिसमें ग्रामीण क्षेत्र नहीं के बराबर है। दिल्ली अधिकांश में कर्मचारियों/अधिकारियों और, व्यापारियों का प्रदेश है। यह लोग हर चीज को अपने तरीके से समझते और परखते हैं। दिल्ली सामाजिक और धार्मिक विविधता का केन्द्र है सौहार्द का प्रतीक है। यह सौहार्द बिगड़ने के परिणाम क्या हो सकते हैं दिल्ली वासी इसे अच्छी तरह समझते हैं। इसीलिये उन्होंने भाजपा को उसी समय हरा दिया।
लेकिन इस हार के बाद भी भाजपा की मानसिकता नही बदली। उसका हिन्दु ऐजैण्डा आगे बढ़ता रहा। इसी ऐजैण्डे के प्रभाव में जनता नोटबंदी जैसे फैसले पर भी ज्यादा उत्तेजित नही हुई। व्यापारी वर्ग ने जीएसटी पर भी बड़ा विरोध नही दिखाया। संघ/भाजपा और सरकार इसे जनता का मौन स्वीकार मानती रही। 2019 के चुनावों से पहले घटे पुलवामा और बालाकोट मे धार्मिक धु्रवीकरण को और धार दे दी। इस धार के परिणाम और तीन तलाक, धारा 370 और 35A खत्म करने, एनआरसी पूरे देश में लागू करने तथा उसके सीएए, एनपीआर जैसे फैसलों के रूप में सामने आये। जनता का एक बड़ा वर्ग इन फैसलों के विरोध में सड़कों पर आ गया। शाहीन बाग जैसे धरना प्रदर्शन आ गये। इसी सबके परिदृश्य में दिल्ली विधानसभा के चुनाव आ गये। यह चुनाव जीतने के लिये भाजपा ने प्रधानमंत्री से लेकर राज्यों के मुख्यमन्त्रीयों तक को इस चुनाव प्रचार में लगा दिया। अनुराग ठाकुर और प्रवेश वर्मा जैसे नेताओं के ब्यानों के माध्यम से सारी हताशा सामने आ गयी। लेकिन इस सबका अन्तिम परिणाम फिर शर्मनाक हार के रूप में सामने आया। चुनाव हारने के बाद अमित शाह ने इन ब्यानों को भी हार का बड़ा कारण कहा है। अमित शाह का यह कहना अपनी जगह सही है क्या निश्चित रूप से इन ब्यानों से जनता में और रोष उभरा है। लेकिन क्या अब भाजपा इन ब्यानवीरो के खिलाफ कारवाई करेगी? क्या हिन्दु ऐजैण्डे पर पुनर्विचार होगा? क्या एनपीआर और सीएए को वापिस लिया जायेगा? यदि यह कुछ भी नही होता है और सरकार अपने ऐजैन्डे पर ऐसे ही आगे बढ़ती रहती है तो पूरा परिदृश्य आगे चलकर क्या शक्ल लेता है यह ऐसे गंभीर सवाल होंगे जिनपर चिन्ता और चिन्तन को लम्बे समय तक टाला नही जा सकता।
दिल्ली की हार के बाद भी संघ/भाजपा का सोशल मीडिया ग्रुप हिन्दु ऐजैण्डे की वकालत में और तेज हो गया है। हर तरह के तर्क परोसे जा रहे हैं। इन तर्को के गुण दोष और प्रमाणिकता की बात को यदि छोड़ भी दिया जाये और यह मान लिया जाये की भारत भी पाकिस्तान की तर्ज पर धार्मिक देश बन जाता है तो तस्वीर कैसी होगी। इस पर नजर दौड़ाने की आवश्यकता है। जब संविधान में हम धर्म पर आधारित हिन्दु राष्ट्र हो जाते हैं तब हमारी शासन व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था क्या होगी? क्या हम तब आज वाला ही लोकतन्त्र रह पायेंगे? क्या उसमें समाज के हर वर्ग को एक बराबर अधिकार हासिल रहेंगे? क्या वह व्यवस्था हिन्दु धर्म के सिविल कोड मनु स्मृति के दिशा निर्देशों पर नही चलेगी? क्योंकि विश्व का धर्म आधारित हर देश अपने अपने धर्म के निर्देशों पर ही चलता है औ उसमें उदारवाद के लिये बहुत कम स्थान रह जाता है। आज हिन्दु राष्ट्र की वकालत करने वालों से आग्रह है कि वह इन सवालों का जवाब देश की जनता के सामने रखें। जिस मुस्लिम धर्म से हमारा गहरा मतभेद है उसमें एक सवाल संघ/भाजपा के उन बड़े नेताओं से भी हैं जिनके परिवारों के मुस्लिम परिवारों के साथ शादी-ब्याह के रिश्ते हैं। ऐसे नेताओं की एक लम्बी सूची और सार्वजनिक है। आज जो लोग धर्म के आधार पर मुस्लिम समुदाय के विरोध में खड़े हैं वह इन बड़े नेताओं के अपने परिवारों के भीतर और बाहर के धार्मिक चरित्र पर भी ईमानदारी से विचार करके इन सवालों का जवाब दें।

जनादेश का अर्थ आर्थिक असफलता नही है

केन्द्रिय वित्त मंत्री श्रीमति सीता रमण ने संसद में वर्ष 2020-21 का बजट प्रस्ताव रखते हुए यह कहा है कि मई 2019 में देश की जनता ने मोदी सरकार को जो भारी जनादेश दिया है वह केवल राजनीतिक स्थिरता के लिये ही नही दिया है बल्कि इसके माध्यम से सरकार की आर्थिक नीतियों में भी विश्वास व्यक्त किया है। देश की जनता जब भी किसी सरकार का चयन करती है तो इसी अपेक्षा के साथ करती है कि यह सरकार राजनीतिक स्थिरता और आर्थिक समृद्धि सुनिश्चित करे। 2014 मे भी यही विश्वास व्यक्त किया था क्योंकि तब सरकार ने विदेशों में जमा देश के कालेधन को वापिस लाकर हर आदमी के खाते में पन्द्रह लाख आ जाने का वायदा किया था। नवम्बर 2016 में जब नोटबंदी लागू की गयी थी तब भी यह कहा गया था कि इससे आतंकवाद और कालेधन पर अंकुश लगेगा। लेकिन नोटबंदी के माध्यम से कितना कालाधन पकड़ा गया या स्वतः ही खत्म हो गया यह आंकड़ा अभी तक देश की जनता के सामने नही आया है। बल्कि यह हुआ कि सरकार को आरबीआई से सुरक्षित धन लेना पड़ा। नोटबंदी से जो उद्योग प्रभावित हुए उन्हें पुनः मुख्य धारा में लाने के लिये विशेष सहायता पैकेज दिये गये। लेकिन यह पैकेज देने से सही में कितना लाभ हुआ और कितना रोज़गार बढ़ा इसका भी कोई आंकड़ा सामने नहीं आया है। उल्टे यह सामने आया कि इसके बाद मंहगाई और बेरोज़गारी दोनो बढ गयी। प्याज़ की कीमतें इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। यह चर्चा इसलिये उठा रहा हूं क्योंकि चुनावी चर्चाओं से यदि कोई चीज़ गायब रहती है तो वह केवल सरकार की आर्थिक नीतियां ही होती हैं क्योंकि राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणा पत्र/ संकल्प पत्र उस समय जनता में जारी करते हैं जब जनता भावनात्मक मुद्दों के गिई पूरी तरह केन्द्रित हो चुकी होती है। उसके पास राष्ट्र भक्ति और हिन्दु -मुस्लिम, मन्दिर-मस्जिद जैसे मुद्दे पूरी तरह अपना असर कर चुके होते हैं। इसलिये जनादेश को आर्थिक नीतियां पर मोहर मान लेना सही नही होगा।
केन्द्र सरकार के वर्ष 2019-20 के बजट में यह कहा गया था कि इस वर्ष सरकार की कुल राजस्व आय 27,86,349 करोड़ रहेगी लेकिन संशोधित अनुमानों में इसे घटाकर 26,98,522 करोड़ पर लाया गया है। यही स्थिति खर्च में भी रही है। बजट अनुमानों के मुताबिक कुल 27,86,349 करोड़ माना गया था जिसे संशोधित करके 26,98,522 करोड़ पर लाया गया है इसके परिणामस्वरूप जो घाटा 4,85019 करोड़ आंका गया था वह संशोधित में 4,99,544 करोड़ हो गया है। वर्ष 2019-20 के इन बजट आंकड़ों से यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार के आय, व्यय और घाटे के सारे आकलन और अनुमान जमीनी हकीकत पर पूरे नही उतर पाये हैं। इसी गणित में जो आंकड़े वित्तिय वर्ष 2020-21 के लिये दिये गये हैं जिनमें कुल 3042230 करोड़ का आय और व्यय दिखाया गया है वह कितना सही उतर पायेगा यह विश्वास करना कठिन हो जाता है। इस वस्तुस्थिति में जनता को वायदों और ब्यानों के मायाजाल में उलझाये रखने के अतिरिक्त तन्त्र के पास कुछ शेष नही रह जाता है। आज अगले वित्त वर्ष में सरकार ने दो लाख करोड़ से अधिक के विनिवेश का लक्ष्य रखा है जो पिछले वर्ष एक लाख करोड़ था। स्वभाविक है कि विनिवेश में सरकारी उपक्रमों को निजिक्षेत्र को दिया जायेगा। इसमें भारत पैट्रोलियम, एलआईसी, बीएसएनएल, आईटीबीआई, एयर इण्डिया और इण्डियन रेलवे जैसे उपक्रम सूचीबद्ध कर लिये गये हैं। अभी बीएसएनएल में करीब 93000 कर्मचारियों को इकट्ठे सेवानिवृति दी गयी है क्योंकि उसे नीजिक्षेत्र को सौंपना है। ऐसा ही अन्य उपक्रमों में भी होगा। नीजिक्षेत्र में जाने की प्रक्रिया का पहला असर वहां काम कर रहे कर्मचारियों पर होता है। क्योंकि सरकार की नीति लाभ से ज्यादा रोज़गार देने पर होती है जबकि नीतिक्षेत्र में लाभ कमाना ही मुख्य उद्देश्य होता है रोजगार देना नहीं। स्वभाविक है कि जब नीजिकरण की यह प्रक्रिया चलेगी तो इससे रोज़गार के अवसर कम होंगे जिसका सीधा असर देश के युवा पर पडे़गा और वह कल सरकार की नीतियों के विरोध में सड़क पर आने के लिये विवश हो जायेगा।
आर्थिक मुहाने पर ऐसे बहुत सारे बिन्दु हैं जहां सरकार की आर्थिक नीतियों /फैसलों पर खुले मन से सार्वजनिक चर्चा की आवश्यकता है। अभी सरकार नै बैंकों में आम आदमी के जमा पैसे की इन्शयोरैन्स की राशी एक लाख से बढ़ा कर पांच लाख की है। पहले केवल एक लाख ही बैंक में सुरक्षित रहता था जो अब पांच लाख हो गया है। यह स्वागत योग्य कदम है लेकिन इसी के साथ बैंकों को रैगुलेट करने के लिये आरबीआई से हटकर जो अथाॅरिटी बनाने की बात वित्त मन्त्री ने की है उसके तहत बैंक का घाटा उस बैंक में जमा बचत खातों से पूरा करने का जो प्रावधान किये जाने की बात है क्या उस पर सर्वाजनिक चर्चा की आवश्यकता नही है। वित्त मन्त्री ने कहा है कि इस संबंध में शीघ्र ही विधेयक लाया जायेगा। इस समय सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए लाखों करोड़ हो चुका है। बहुत सारे कर्जधारक देश छोड़कर विदेशों में जा बैठे हैं उनसे पैसा वसूलने और उन्हें वापिस लाने की प्रक्रियाएं चल रही हैं जिनका कोई परिणाम सामने नही आया है और इस पर कोई सार्वजनिक बहस भी उठाने नहीं दी जा रही है। बल्कि यह आरोप लग रहा है कि आर्थिक असफलताओं पर बहस को रोकने के लिये ही एनआरसी, एनपीआर और सीएए जैसे मुद्दे लाये गये हैं। ऐसे में यह स्पष्ट है कि जब इन मुद्दों के साथ आर्थिक असफलता जुड़ जायेगी तो उसके परिणाम बहुत ही घातक होंगे।

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