इस समय देश कोरोना संकट से जूझ रहा है। कोरोना का फैलाव रोकने के लिये पूरे देश में 24 मार्च से लाक डाऊन लागू कर दिया गया था। लाक डाऊन में जो जहां है वह वहीं रहेगा के निर्देश जारी किये गये। इन निर्देशों का पूरी ईमानदारी और सख्ती से पालन किया गया। लाक डाऊन के दौरान हर तरह की छोटी-बड़ी आर्थिक गतिविधियों पर पूरी तरह से विराम लग गया था। इस विराम के कारण कई करोड़ लोग बेरोज़गार होकर बैठ गये हैं। करीब दो करोड़ लोगों का तो नियमित रोज़गार छिन गया है। लाक डाऊन के कारण सबसे ज्यादा बुरा प्रभाव तो मज़दूरों पर पड़ा है। क्योंकि इनका रोज़गार, खत्म होने के साथ ही इन्हे दो वक्त की रोटी मिलना भी कठिन हो गया था। सैंकड़ों लोगों की भूख से जान चली गयी है। इस संकट में यदि समाज सेवी संगठनों और कुछ सरकारों ने इन प्रवासियों के लिये मुफ्त भोजन की व्यवस्था न की होती तो शायद भूख से मरने वालों का आंकड़ा कोरोना के संक्रमितों से कहीं ज्यादा बढ़ जाता। इस संकट ने यह कड़वा सच पूरी नग्नता के साथ देश के सामने रख दिया है कि आज भी देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को यह रोटी नसीब नही है। ऐसे वक्त में जब सरकार आत्मनिर्भर भारत के नाम पर आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन करके अनाज, दलहन-तिलहन, खाद्य तेल, आलू और प्याज को आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर कर दे तो बहुत सारे सवालों का खड़ा होना स्वभाविक हो जाता है। आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में लाया गया था। इस अधिनियम को लाने से पहले भू सुधारों को अजांम दे दिया गया था। बड़ी जिमिदारी प्रथा समाप्त करके जोत का आकार बढ़ाने, भूस्वामित्व की परिसीमा बांधने तथा लगान को उत्पादन से जोड़ने के प्रयास किये गये थे। इस परिदृश्य में आवश्यक वस्तु अधिनियम लाकर यह सुनिश्चित किया गया था कि आवश्यक खाद्य वस्तुओं का कोई आवश्यकता से अधिक भण्डारण न कर सके। इन वस्तुओं की कीमतें इतनी बढ़ा दे कि इनकी खरीद आम आदमी की पहंुच से बाहर हो जाये। बल्कि इसके बाद सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से इस व्यवस्था को और मजबूत किया गया। सरकार पीडीएस के लिये स्वयं आवश्यक वस्तुओं की खरीद करने लगी ताकि गरीब आदमी को सस्ती दरों पर राशन उपलब्ध करवाया जा सके। किसान को भी नुकसान न हो उसके लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य की अवधारणा लायी गयी। लेकिन आज मोदी सरकार ने एक झटके में 1955 से चले आ रहे आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन करके इन खाद्य पदार्थों को आवश्यक सूची से बाहर कर दिया है। यह संशोधन करके एक देश- एक कृषि बाज़ार का मार्ग प्रशस्त कर दिया गया है। अब किसान अपनी उपज को कहीं भी अपनी मनचाही कीमत पर बेचने के लिये स्वतन्त्र होगा। इसी के साथ किसान अपनी उपज का किसी भी सीमा तक भण्डारण करने के लिये भी स्वतन्त्र होगा। कीमत और भण्डारण पर सरकार का दखल केवल अकाल, युद्ध, प्राकृतिक आपदा आदि की स्थिति में ही रहेगा। सामान्य स्थितियों में बाजार पूरी तरह स्वतन्त्र रहेगा। किसान की आजतक यह मांग थी कि जब सरकार उसकी उपज का न्यूतम समर्थन मूल्य तय करती है जब यह मूल्य उसकी लागत के अनुरूप होना चाहिये। क्योंकि कृषि के लिये जो उपकरण, खाद और बीज आदि उसको चाहिये होते हैं उनकी कीमतों पर उसका कोई नियन्त्रण नही रहता है। स्वामीनाथन आयोग ने भी इन सारे संवद्ध पक्षों पर विचार करके ही अपनी सिफारिशे सरकार को सौंपी थी। इस आयोग की सिफारिशों पर अमल करने की मांग ही किसान संगठन उठाते रहे हैं बल्कि सरकारों ने जो किसानों के ऋण समय समय पर माफ किये हैं और मोदी सरकार ने भी जो किसान सम्मान राशी देने की पहल की है यह सब स्वमीनाथन आयोग की सिफारिशों का ही अपरोक्ष में प्रतिफल था। लेकिन आज राज्य सरकारों से विचार विमर्श किये बगैर ही जो आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन कर दिया गया है उससे किसान और उपभोक्ता दोनो का ही भला होने वाला नही है। इस संशोधन के बाद जब किसान के लिये बाजार खुला छोड़ दिया गया है तो सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य क्यों तय करेगी। जब किसान अपनी उपज अपनी मनचाही कीमत पर कहीं भी बेचने या भण्डारण करने के लिये स्वतन्त्रा है तो फिर पीडीएस और मिड-डे-मील जैसी योजनाओं के तहत मंहगी कीमतों पर क्यों खरीद करेगी। इस संशोधन के बाद तो किसान और उपभोक्ता के बीच सरकार की कोई भूमिका ही नहीं रह जायेगी। किसान को अपनी उपज के लिये खरीददार स्वयं खोजना पड़ेगा। यदि बड़ा व्यापारी किसान की कीमत पर उसकी उपज खरीदने के लिये तैयार नही होता है तो किसान कितनी मण्डीयों में जाकर खरीददार की तलाश कर पायेगा। मनचाही कीमत पर उपज न बिकने की सूरत में किसान कितनी देर तक उपज का भण्डारण कर पायेंगे। क्योंकि किसान के पास सुरिक्षत भण्डारण की व्यस्था ही नही है। फिर खाद, बीज और अन्य चीजों के लिये जो उसे तत्काल पैसा चाहिये वह कहां से आयेगा। यह एक ऐसी स्थिति कालान्तरण में बन जायेगी कि किसान व्यापारी के आगे विवश हो जायेगा। दूसरी ओर यदि यह मान लिया जाये कि किसान को अपनी मनचाही कीमत भी मिल जाती है तो स्वभाविक है कि उसकी कीमत मौजूदा कीमत से कम से दोगुणी तो हो ही जायेगी। ऐसी सूरत में इस उपज की कीमत किसान से उपभोक्ता तक पहुंचने में कितने गुणा बढ़ जायेगी। इसका अन्दाजा लगाना कठिन नही है। पिछले दिनों जब प्याज की कीमतों में उछाल आया था तब कितनी परेशानी हुई थी यह सब देख चुके हैं। ऐसे में सरकार गरीब के लिये सस्ता राशन कैसे उपलब्ध करवा पायेगी। खुले बाजार से राशन लेकर सस्ती दरों पर गरीब को कैसे और कितनी देर तक दिया जा सकेगा। खुले बाजार का अर्थ है कि हर उपभोक्ता अपना प्रबन्ध स्वयं करे। खुले बाजार के नाम पर सरकार आसानी से अपनी जिम्मेदारी से बाहर हो जाती है। आज जब अर्थव्यस्था इस मोड़ पर आ खड़ी हुई है कि सरकार को इस बजट में घोषित सारी नयी योजनाएं एक वर्ष के लिये स्थगित करनी पड़ी हैं और करोड़ों लोग बेरोजगार हो कर बैठ गये हैं ऐसे वक्त में यह संशोधन किसान और उपभोक्ता दोनो के लिये घातक सिद्ध होगा।
इस समय देश की अर्थव्यस्था एक ऐसे में मोड़ पर पहुंच चुकी है कि कोरोना महामारी से भी बड़ा संकट बनता नज़र आ रहा है। लाकडाऊन के कारण बेरोज़गारी का राष्ट्रीय आंकड़ा कुल जनसंख्या का करीब 25%हो गया है। कुछ राज्यों में तो बेरोज़गारी 40% से लेकर 49% तक पहुंच गयी है। 130 करोड़ की जनसंख्या में से 30 करोड़ जब बेरोजगार होंगे तो उस समय स्थिति क्या और कैसी होगी इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। यह सब क्यों और कैसे हो गया आज इस पर बहस करने से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि इसका हल कैसे होगा। किसी भी समस्या का समाधान खोजने के लिये यह आवश्यक होता है कि उसका आकलन कितना सही है। इस आकलन का पता इससे चलेगा कि जिन लोगों पर इसका हल खोजने की जिम्मेदारी है वह इस बारे में क्या सोचते हैं। इस पर उनकी समझ क्या है। आज तक यह जिम्मेदारी सबसे पहले देश के प्रधानमन्त्री पर आती है और उसके बाद वित्त मन्त्री पर। प्रधानमन्त्री ने जब इस संकट में बीस लाख करोड़ के राहत पैकेज की घोषणा की और इसका विस्तृत विवरण देश के सामने रखा तो उन्ही के दिये आंकड़े के अनुसार यह बीस लाख करोड़ न होकर केवल ग्याहर लाख करोड़ निकला। इस ग्याहर लाख करोड़ को भी अर्थव्यस्था की रेंटिग करने वाली ऐजैन्सीयों ने 1.8 लाख करोड़ बताया है और इसका कोई खण्डन वित्त मन्त्रालय की ओर से नही आया है। देश के सामने ऐसी गलत ब्यानी क्यों की गयी इसका भी जवाब नही आया है।
वित्त मन्त्राी ने जब बीस लाख करोड़ के आंकड़े के डिटेल सामने रखे है तब यह सामने आया है कि जिस एमएसएम ई क्षेत्र के लिये 50,000 करोड़ का इक्विटी फण्ड जारी किया गया है उसमें सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग की परिभाषा भी बदल दी गयी है। इस बदली परिभाषा के अनुसार अब एक करोड़ के निवेश वाला उद्योग सूक्ष्म 10 करोड़ का निवेश लघु और 20 करोड़ के निवेश वाला मध्यम उद्योग होगा। वित्तमन्त्री के मुताबिक एमएसएम ई क्षेत्र में 45 लाख उद्योग ईकाईयां पंजीकृत हैं। अब जो 30 करोड़ लोग बेरोज़गार हैं यदि उनमें से आधे लोग भी सूक्ष्म उद्योग लगाकर अपना रोज़गार शुरू करना चाहें तो उन्हे क्या एक करोड़ प्रति व्यक्ति के हिसाब से ऋण मिल पायेगा? क्या इतना पैसा बैंकों और सरकार के पास है? क्या आज एक करोड़ बेरोज़गार को एक करोड़ प्रति व्यक्ति देने की स्थिति है? शायद यह कभी संभव नही हो सकता। लेकिन घोषणा कर दी गयी है क्योंकि इस पर यह सवाल पूछने वाला नही है कि ऐसी अव्यवहारिक घोषणाएं करके समाज को ठगा क्यों जा रहा है।
उद्योगों की इस परिभाषा के बाद वित्त्मन्त्री ने समाज के लोअर मिडिल क्लास की परिभाषा सामने रखी है। उनके मुताबिक छः लाख से अठारह लाख कमाने वाला व्यक्ति लोअर मिडिल क्लास में आता है। वित्तमन्त्री के मुताबिक कम से कम छः लाख प्रतिवर्ष अर्थात 50,000/-रूपये प्रमिमास कमाने वाला लोअर मिडिल क्लास में आता है। वित्तमन्त्री के इस आकलन से यह सवाल उठना स्वभाविक है कि आज कितने लोग ऐसे है जो पचास हजार प्रतिमाह कमा पा रहे हैं। इससे यह सवाल उठता है कि समाज को लेकर सरकार का आकलन कतई व्यवहारिक नही है। शायद इन्ही आकलनों के आधार पर बीपीएल और एपीएल के मानक बदले गये हैं और एपीएल परिवारों को सस्ते राशन की पात्रता से बाहर कर दिया गया है।
इन आकलनों के बाद वित्तमन्त्री ने देश के बैंकों से कहा है कि उन्हे सीबीआई, सीबीसी और सीएजी से डरने की आवश्यकता नही। बैंकों को यह अभयदान देते हुए वित्तमन्त्री ने यह निर्देश दिये हैं कि वह बिना किसी डर के लोगों को ऋण उपलब्ध करवायें। यदि यह ऋण एनपीए भी हो जाते हैं तो कोई भी बैंक प्रबन्धन को इसके लिये जिम्मेदार नही ठहरायेगा क्योंकि इसकी गांरटी सरकार देगी। अभी जो राहत पैकेज घोषित किया गया है उसमें सभी वर्गों को ऋण सुविधा ही दी गयी है। बैंको को खुले मन से ऋण देने के निर्देश दिये गये हैं। अब ऐसे में कितना ऋण बंट जायेगा और फिर इसमें से कितना वापिस आ पायेगा वह भी तब जब एनपीए होने पर गांरटी सरकार ले रही है। इससे स्पष्ट है कि अब बड़े स्तर पर बैंकों में अधिकारिक तौर पर एनपीए होने के लिये भूमिका बना दी गयी है। इससे पहले भी प्रधानमन्त्री मुद्रा ऋण योजना के तहत दस लाख करोड़ से अधिक के ऋण बांटे गये हैं जिनमें से 70% से अधिक एनपीए हो चुके हैं। ऐसे में अब जो कुछ वित्तमन्त्री के इन निर्देशों के बाद घटेगा उसकी कल्पना की जा सकती है। इससे अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी या कुछ लोग ही इससे लाभान्वित हो पायेंगे इसका पता तो आने वाले समय में ही लगेगा। लेकिन इससे यह बड़ा सवाल खड़ा होता है कि क्या इन निगरान ऐजैन्सीयों को इस तरह से पंगू बनाना देशहित में होगा या नही। क्योंकि यह स्वभाविक है कि जब निगरान ऐजैन्सीयों का डर न तो ऋण देने वालो पर रहेगा और न ही ऋण लेने वालों पर तब स्वतः ही एक अराजकता का वातावरण तैयार नही हो जायेगा।
इस समय तात्कालिक आवश्यकता तो उस प्रवासी मज़दूर की है जो सड़कों पर है। क्योंकि उसके पास घर पहुंचने का कोई भी साधन नही है। उसे तो तत्काल उसके हाथ में नकद पैसा चाहिये था और वह ही उसे नही दिया गया। इसमें तो राहत के नाम पर भविष्य की योजनाओं का एक सपना दिखाया गया है जो इस समय उसके किसी काम का नही है। इससे हटकर भी यह राहत का पैकेज भविष्य के लिये आर्थिक सुधारों की एक रूप रेखा है। इसमें भी जिस तरह से हर क्षेत्र में प्राईवेट सैक्टर को आमन्त्रित किया गया है उससे यह लगता है कि सरकार इस समय राहत उपायों से ज्यादा भविष्य के आर्थिक सुधारों की रूप रेखा तैयार करने में लगी है। यह प्रस्तावित आर्थिक सुधार देश की आवश्यकता है या नहीं इस पर एक व्यापक सार्वजनिक बहस की आवश्यकता होगी। क्योंकि जिस देश में जनसंख्या जितनी अधिक होगी वहां पर सबसे पहले हर पेट को भरपूर भोजन की आवश्यकता है। इसके बाद कपड़ा और मकान तथा शिक्षा और स्वास्थ्य आते हैं। आज भी इस देश के 20 लाख से अधिक बच्चे सड़कों पर हैं जिन्हे भोजन तक उपलब्ध नही है। इन्हीं लोगों के लिये सामुदायिक किचन की व्यवस्था करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर हुई थी। जिस पर राज्य सरकारों ने समय पर अदालत में जवाब तक दायर नही किया और इसके लिये शीर्ष अदालत में जुर्माना तक भरा। हिमाचल भी जुर्माना भरने वाले प्रदेशों में शामिल है। इससे शासन और प्रशासन की संवदेनशीलता का पता चल जाता है। आज प्रवासी मज़दूरों की सहायता के लिये सरकारों की बजाये आम जनता इसी संवदेनशीलता के कारण ज्यादा सामने आयी है। इसलिये आज की पहली चिन्ता तो यह होनी चाहिये कि हर हाथ को काम कैसे सुनिश्चित हो पायेगा। क्योंकि यदि काम ही नहीं होगा तो उसे रोटी नसीब नही होगी और रोटी के अभाव में हिंसा ही उसके पास एक मात्र विकल्प रह जायेगा। लेकिन सरकार की प्राथमिकता शायद यह सब नही है वह तो इस आपदा को सुधारो का एक अवसर मानकर चल रही है।
आपदा को अवसर मानने की मानसिकता का परिणाम है कि सरकार हर क्षेत्र में प्राईवेट सैक्टर को आमन्त्रित कर रही है। इस आमन्त्रण के लिये सरकारी उपक्रमों को विनिवेश के लिये खोल दिया गया है। जबकि हर प्रधानमन्त्री के काल में सरकारी उपक्रम जोडे गये। 1952 के नेहरू काल से लेकर डा.मनमोहन सिंह के काल तक जो 195 सरकारी उपक्रम खड़े किये गये हैं उन्हें बनाने में हर प्रधानमन्त्री ने योगदान दिया है। लेकिन इन उपक्रमों को बेचने का सिलसिला अब मोदी काल में शुरू हुआ है। अब तक 2,79,619 करोड़ विनिवेश से कमा लिये गये हैं और दो लाख करोड़ तो 2020-21 के बजट में लक्ष्य ही रखा गया है। हो सकता है कि आपदा के चलते यह लक्ष्य और बढ़ा दिया जाये। सबसे बड़ी बात तो यह है कि यही आरएसएस एक समय स्वदेशी जागरण मंच के माध्यम से एफडीआई का विरोध करता था परन्तु आज रक्षा उत्पादन में भी 74% एफडीआई के फैसले पर एकदम खामोश बैठा है। इससे यह सवाल उठता है कि क्या संघ के विचारक तब सही थे या आज सही हैं। क्योंकि दोनों ही समय में ठीक होना संभव नही है। आज सबसे गंभीर पक्ष तो यह है कि सरकार ने शिक्षा और स्वास्थ्य में प्राईवेट सैक्टर के लिये और छूट दे दी है। इस महामारी के संकट में जब प्राईवेट सैक्टर के अस्पतालों को कोविड का टैस्ट मुफ्त करने के लिये कहा गया था तब इसका कितना विरोध इन्होने किया था यह सबके सामने है। भविष्य में भी इनका सहयोग इसी तरह रहेगा यह तय है। ऐसे में यह स्वभाविक है कि प्रवासी मज़दूरों की शक्ल में देश की आबादी का जो आधा भाग सामने आया है इस वर्ग को इस प्राईवेट क्षेत्र द्वारा संचालित स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी आवश्यकताओं की आपूर्ति में कोई सहयोग नही मिल पायेगा। लेकिन डिजिटल भारत का सपना परोसने वाली सरकार के सामने तो यह मज़दूर वर्ग कहीं है ही नही। इसकी आवश्यकता तो केवल वोट के लिये है जो किसी भी नये नारे के हथियार से हथिया लिया जायेगा।
किसी भी सकरार की वित्तिय सेहत को समझने के लिये सबसे प्रमाणिक साक्ष्य उसका बजट दस्तावेज होता है। क्योंकि इस दस्तावेज में यह दर्ज रहता है कि एक वित्तिय वर्ष में सरकार का कुल खर्च, कुल आय और कुल ऋण दायित्व कितना है। इस संद्धर्भ में वित्तिय वर्ष 2020-21 के लिये जो बजट संसद द्वारा पारित किया गया उस पर नज़र डालना आवश्यक हो जाता है। इस वर्ष के बजट दस्तावेजों के अनुसार वर्ष 2020-21 में सरकार का कुल खर्च 37,14,893.47 करोड़ होगा। इसमें स्थापना का खर्च 6,09,584.79 करोड़ पैन्शन 2,10,682 करोड़ और ब्याज भुगतान 7,08,203 करोड़ रहेगा। यह कुल खर्च ही 15,28,469.79 करोड़ हो जाता है और शायद इस खर्च में कोई कटौती करना संभव नही होता है। ऐसे में यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार को इस आपदा में अपनी ओर से 20 लाख करोड़ की राहत प्रदान करने के लिये अपने सारे विकासात्मक खर्चों पर पूर्ण विराम लगाना पड़ता है। लेकिन अभी तक सरकार ने ऐसा कुछ भी देश को नही बताया है कि वह अपने कौन से खर्चों में कटौती करने जा रही है। बल्कि 20 हज़ार करोड़ के सैन्ट्रल बिस्टा कार्यक्रम को रोकने का फैसला नही लिया गया है जबकि पुराना संसद भवन एकदम ठीक है। उसके स्थान पर नया भवन बनाने की कोई आवश्यकता नही है। ऐसे कई प्रौजैक्ट हैं जिन्हें वर्तमान हालात में शुद्ध रूप से अनुपादक खर्चे कहा जा सकता है। इस वित्तिय वर्ष में सरकार की कुल अनुमानित आय 30,95,232.91 करोड़ है लेकिन आय के यह अनुमान जब लगाये गये थे तब देश में कोई कोरोना नहीं था कोई तालाबन्दी नही थी। जबकि 24 मार्च को तालाबन्दी लगाने से एक सप्ताह में ही कर संग्रह में 6000 करोड़ की कमी आई है। अप्रैल में यह कितनी और कम हुई है इसके आंकड़े अभी तक नही आये हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार की जो वित्तिय स्थिति इन बजट दस्तावेजों से सामने आती है उनके आधार पर 20 लाख करोड़ सरकारी कोष से दे पाना किसी भी गणित से संभव नही है।
इस आपदा में सबसे ज्यादा मज़दूर वर्ग प्रभावित हुआ है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 23 करोड़ प्रवासी मज़दूर सरकार के रिकार्ड पर हैं। संभव है कि इतने ही और होंगे जो शायद सरकार के रिकार्ड से बाहर हैं। यह लोग अपने घरों को वापिस जाना चाहते हैं लेकिन इनके पास किराया तक नही है। जो 20 लाख करोड़ की राहत का पैकेज दिया गया है उसमें से इन मज़दूरों के लिये सिर्फ एक हज़ार करोड़ है। यह एक हज़ार करोड़ 23 करोड़ मज़दूरों में यदि बांटा जाये तो प्रत्येक के हिस्से में 50 रूपये भी नही आते है। फिर अभी सरकार ने लेबर नियमों में बदलाव कर दिया है। इस बदलाव से मज़दूरों को आठ घन्टे की जगह बारह घन्टे काम करना पड़ेगा। इस तरह के फैसलों का व्यवहारिक पक्ष क्या रहेगा इसका पता आने वाले दिनों में लगेगा। यह मज़दूर गांव वापिस आ रहे हैं यह उम्मीद है कि इन्हें मनरेगा में तो काम मिल जायेगा। लेकिन मनरेगा का सच यह है कि वर्ष 2019-20 में इसके लिये 71002 करोड़ का प्रावधान था और 2020-21 में इसे घटाकर 61500 करोड़ कर दिया गया है और अब पैकेज में भी इसमें कोई और बढ़ौत्तरी नही की गयी है। राहत पैकेज में किसी भी वर्ग को हाथ में कैश नही दिया गया है। किसान और रेहड़ी फड़ी वाले से लेकर उद्योगपति तक को बैंको से ऋण सुविधा का प्रावधान किया गया है कुछ को बिना किसी गंारटी के यह ऋण लेने का प्रावधान किया है। एक साल तक किस्त न चुकाने की सुविधा रहेगी। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या बैंकों के पास इतना पैसा है कि वह यह सारे ऋण दे पायेंगे। फिर देश में ऋण माफी का ऐजैण्डा तो 1977 मेें बनी जनता पार्टी की सरकार से शुरू हो गया था। यह ऐजैण्डा तब से लेकर अब तक किसी न किसी शक्ल में चल ही रहा है। बल्कि आज तो दिवालिया कानून के तहत बड़े बड़े उद्योग घराने हज़ारों करोड़ के ऋण खत्म करवा चुके हैं।
ऐसे में यह सवाल फिर अपनी जगह खड़ा रह जाता है कि क्या सरकार का यह राहत पैकेज आने वाले दिनों मेे बैंकों के लिये एक बड़ा संकट पैदा करने वाला है। क्योंकि 2018 में जो मुद्रा ऋण योजना शुरू की गयी थी उसमें लाखों करोड़ का ऋण बिना किसी गांरटी के दिया गया था जिसमें से शायद 70%से भी अधिक एनपीए हो चुका है। हिमाचल में भी इस योजना के तहत 2500 करोड़ से अधिक के ऋण दिये गये थे लेकिन इसमें से कितने एनपीए हो चुके हैं इसका कोई रिकार्ड सरकार के पास अब तक नही है। इसलिये फिर यह सवाल खड़ा रहता है कि जब सरकार के पास पैसा नही है बैंक पहले ही एनपीए के संकट में हैं तब प्रधानमन्त्री के इस ऐलान को अमली जामा कैसे पहनाया जायेगा यह सवाल उठना स्वभाविक है। फिर जो पैकेज दिया गया है यदि उस पर ईमानदारी से अमल किया जाये तो उससे उत्पादन ही बढ़ेगा जबकि आवश्यकता तो मांग के बढ़ने की है। मांग तब बढे़गी जब उपभोक्ता की क्रय शक्ति बढ़ेगी। परन्तु यह जो करोड़ों प्रवासी मज़दूर है यह उपभोक्ता का सबसे बड़ा आंकड़ा हैं और इसकी क्रय शक्ति पांच किलो अनाज़ से तो बढे़गी ही नही। फिर जिन हालात में इसे अब निकलना पडा़ है उससे इसका मनोबल एकदम टूट गया है। यह मज़दूर पूराने काम पर आसानी से लौट आयेगा इसकी संभावना इन परिस्थितियों में एकदम नही के बराबर है। ऐसे में इसका कोई जवाब नही दिखता है कि पैकेज से मांग कैसे बढ़ेगी। क्योंकि ऐसे पैकेज तो उद्योग के विभिन्न क्षेत्रों को कोरोना से बहुत पहले से दिये जाते रहे हैं और उनसे मांग पर कोई असर नही पड़ा है उल्टा आम आदमी के जमा पर बैंक लगातार ब्याज दरें कम करते आये हैं और संभव है कि इस पैकेज के बाद फिर इस जमा पर ब्याज दरें कम की जाये क्योंकि बैंकों के पास यही जमा आज आसानी से उपलब्ध है।
आज जब कोरोना को रोकने के लिये तालाबन्दी का कदम उठाया गया था तब इसके मामलों का आंकड़ा 500 का था जो अब बढ़कर 50,000 से पार हो गया है। अभी और बढ़ने की आशंका है। तालाबन्दी से करीब चालीस करोड़ लोग वह प्रभावित हुए है जो प्रवासी मज़दूरों की संज्ञा में आते हैं। अब जब इन प्रवासी मज़दूरों को अपने घर वापिस जाने की सुविधा दी गयी तब यह जिस संख्या और तरह से बाहर निकले हैं उससे सबसे पहला प्रश्न तालाबन्दी की सार्थकता पर लगा। इसके बाद जब बाज़ार खोले गये तब जिस तरह की लाईने शराब की दुकानों के बाहर देखने को मिली हैं उससे भी तालाबन्दी के फैसले पर ही सवाल खड़े हुए हैं। अब पूरे प्रदेश में व्यवहारिक स्थिति यह हो गयी है कि तालाबन्दी चाहे और कड़ी कर दी जाये तो भी स्वाईनफ्लू ही की तरह कोरोना एक लम्बे समय तक रहेगा ही। क्योंकि यदि यह मान भी लिया जाये कि तालाबन्दी से इसके फैलाव की चेन को रोकने में सफलता मिली थी तो आज उस सफलता को सरकार ने स्वयं ही असफलता में बदल दिया है। क्योंकि कोरोना को लेकर जो भी जानकारी अब तक उपलब्ध है उसमें दो तथ्य महत्वपूर्ण हैं पहला यह है कि 40% मामले ऐसे हैं जिनका कोई सोर्स नही रहा है कोई ट्रैबल हिस्ट्री नही रही है। दूसरा यह है कि जो मौतें हुई है उनमें भी अधिकांश आंकड़ा यह है कि इन लोगों को कोरोना के अतिरिक्त और भी गंभीर बिमारीयां थी। ऐसे में डाक्टर अभी तक इसका कोई निश्चित पैटर्न तय नही कर पाये हैं। क्योंकि यह भी सामने रहा है कि परिवार में एक आदमी को तो हो गया परन्तु दूसरे बचे रहे। इस परिप्रेक्ष में और अहम सवाल हो जाता है कि इस महामारी के साथ ही देश को गंभीर आर्थिक संकट में डालने का औचित्य क्या है। जब से तालाबन्दी हुई है तब से सारा कारोबार बन्द पड़ा है। अब जब सरकार ने मज़दूरों को अपने घर गांव वापिस जाने की सुविधा दी तब जाने वाले मज़दूरों की संख्या रहने वालों से कई गुणा ज्यादा है जबकि कई उद्योगों को काम काज की अनुमति मिल चुकी है। लेकिन अधिकांश लोग काम पर लौटने की बजाये घर वापिस जाने को ही प्राथमिकता दे रहे हैं। ऐसा इसलिये हो रहा है कि इस बिमारी में भी जिस तरह से कुछ लोगों ने हिन्दु, मुस्लिम का सवाल खड़ा कर दिया है उससे उनका विश्वास ही टूट गया है। इस विश्वास को बनने में वर्षों लगेंगे क्योंकि सरकार की ओर से इस दिशा में कोई कारगर और व्यवहारिक कदम नही उठाये जा रहे हैं। एक तरह से आम आदमी का विश्वास शासन और प्रशासन से लगातार उठता जा रहा है। बल्कि यह कहना ज्यादा संगत होगा कि अविश्वास का जो वातावरण नागरिकता संशोधन अधिनियम के परिदृश्य में पैदा हुआ था उसे इस बिमारी ने और बढ़ा दिया है। यह तय है कि आने वाले लम्बे समय तक देश की अर्थव्यस्था को सामान्य होने में कठिनाई आयेगी। क्योंकि मज़दूर अपने घरों को वापिस चले गये हैं उनका लौटना आसानी से संभव नही होगा।
इस समय यदि आर्थिक संकट के आकार का आकलन किया जाये तो यह इस महामारी से कई गुणा बड़ा हो गया है। करोड़ो लोग बेरोज़गार हो गये हैं। बल्कि यह कहना ज्यादा सही है कि नोटबन्दी से जो कारोबार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा अभी तक सारा बाज़ार उससे ही बाहर नही निकल पाया था कि इस तालाबन्दी ने न केवल पुरानी यादों को ताजा कर दिया हैं बल्कि और गहरा दिया है। जब सरकार को महामारी के नाम पर जनता से सहयोग मांगना पड़ जाये, कर्मचारियों के वेत्तन में कटौती करनी पड़ जाये तो आर्थिक स्थिति का अनुमान लगाना आसान हो जाता है। लेकिन जब इन सबके साथ यह सामने आये कि सरकार बीस हज़ार करोड़ खर्च करके नया संसद भवन और अन्य कार्यालय बनाने जा रही है तो उससे सरकार की नीयत और नीति दोनो पर सवाल खड़े हो जाते हैं। जब सरकार पंतजलि उद्योग जैसों का हजारों करोड़ो का कर्जा बट्टे खाते मे डाल सकती है तो सरकार की समझ से ज्यादा उसकी नीयत पर सवाल खड़े होते है। क्योंकि यह बुनियादी बात है कि जब कर्ज की वसूली नही की जायेगी तो एक दिन आपका सारा भण्डार खत्म हो जायेगा यह तय है। आज शायद हालात इस मोड़ पर पहुंच गये हैं । सरकार की प्राथमिकताओं पर सवाल खड़े हो गये हैं। यह लग रहा है कि गरीब और मध्यम वर्ग उसके ऐजैण्डे से बाहर है। कुछ अमीर लोगों की हित पोषक होकर रह गयी है सरकार इसीलिये वह बुलेट ट्रेन और सैन्ट्रल बिस्टा जैसे कार्यक्रम को रोकने के स्थान पर कर्मचारीयों तथा पैन्शनरों के मंहगाई भत्त्ते रोकने को प्राथमिकता दे रही है। विश्वभर में कच्चे तेल की कीमतों में कमी आयी है लेकिन भारत में इसके दाम घटने की बजाये बढ़ते जा रहे हैं। तेल पर 69% टैक्स लिया जा रहा है इसके दाम बढने का अर्थ है कि है कि चीज मंहगी हो जायेगी। यह शायद इसलिये किया जा रहा है क्योंकि चुनाव जीतने के लिये जिस तरह से विभिन्न वर्गों को आर्थिक सहायता दी जाती है उसे पूरा करने के लिये इस तरह के कदम उठाये जाते हैं। आम आदमी सरकार की इस अमीरी प्रस्ती के बारे में सोच ही न सके इसलिये उसे हिन्दु मुस्लिम और मन्दिर मस्जिद के झगड़ों में उलझा दिया जाता है। यही कारण है कि 2014 के चुनाव से पहले जो भ्रष्टाचार के मामले उठाये गये थे उन्हे बाद में गो रक्षा, भीड़, हिंसा और लव जिहाद के नाम पर दबा दिया गया। फिर जब चुनावों मे ई वी एम पर विवाद उठा और सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गया तब उससे बड़ा नागरिकता संशोधन मुद्दा खड़ा हो गया। लेकिन सबके दौरान बैंको में आम आदमी के जमा पर लगातार ब्याज में कटौती होती गयी और बड़ों का 6.60 लाख करोड़ का कर्ज बट्टे खाते में डाल दिया गया। लेकिन इसे मुद्दा नही बनने दिया गया। इस वस्तुस्थिति में यह तय है कि जब तक आम आदमी ऐसी महामारी में भी हिन्दु-मुस्लिम में बंटा रहेगा तो कालान्तर मे वह पकौड़े तलने के अतिरिक्त और कुछ करने लायक नही रहेगा।