जयराम सरकार के सत्ता में दो वर्ष पूरे हो गये हैं। यह दो वर्ष पूरे होने पर सरकार ने शिमला के रिज़ पर एक बड़ी रैली का भी आयोजन किया जिसमें केन्द्रिय गृह मन्त्री राष्ट्रीय अध्यक्ष अमितशाह और कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा तथा केन्द्रिय वित्त राज्य मन्त्री अनुराग ठाकुर ने भाग लिया। इस रैली का आयोजन सरकार का रिपोर्ट कार्ड प्रदेश की जनता के सामने रखने के नाम पर किया गया था। इस रैली में प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री और अनुराग ठाकुर के पिता प्रेम कुमार धूमल भी शामिल हुए। लेकिन प्र्रदेश के वरिष्ठ नेता पूर्व मुख्यमन्त्री शान्ता कुमार रैली से गायब रहे। रैली के सभी बड़े वक्तांओं ने सरकार की पूरी पूरी प्रंशसा की। अमितशाह ने जयराम और मोदी के संबंधों को सरकार की सफलता का बड़ा कारण बताया। अनुराग ने जयराम को बड़ा भाई और जयराम ने अनुराग को छोटा भाई बताया। एक बड़ी रैली में अपना रिपोर्ट कार्ड जनता के सामने रखते हुए सरकार और संगठन को एक दूसरे की जो भी औपचारिक प्रंशसा करनी चाहिये थी वह रस्म अदायगी पूरी तरह से निभाई गयी। गोदी मीडिया ने भी अपना ‘‘ जिसकी डफली उसी का राग’’ का धर्म पूरी निष्ठा से निभाया है और शायद इसी के चलते सरकार को गुड गवर्नैन्स का प्रमाण पत्र भी मिला है।
किसी भी सरकार के सत्ता के पहले दो वर्ष प्राईम टाईम माने जाते हैं। क्योंकि नीतिगत महत्वपूर्ण फैसले इसी शुरू के समय में लिये जाते हैं। अगले दो वर्षों में उन फैसलों पर अमल किया जाता है। अन्तिम वर्ष चुनाव का होता है और तब इस सब का परिणाम जनता के सामने स्वतः ही आ जाता है। इसलिये अक्सर दो वर्ष के बाद भी सरकारों को लेकर उनका सर्वे किये जाने का चलन भी आ चुका है। जयराम सरकार का भी एक ऐसा ही सर्वे सामने आया है। इस सर्वे में कहा गया है कि यदि आज चुनाव हो जायें तो भाजपा को 25 से 27 सीटें ही मिल पायेंगी। इसी सर्वे के मुताबिक इन्वैस्टर मीट का असर केवल 14% जनता पर ही है। भाजपा के उच्च सूत्रों के मुताबिक यह सर्वे हाईकमान में भी चर्चित हुआ है। सूत्रों का दावा है कि जिस तरह की राष्ट्रीय परिस्थितियां आज बनती जा रही हैं उन्हें सामने रखते हुए इस तरह के सर्वे अन्य प्रदेशों को लेकर भी करवाये गये हैं। ‘‘आई विटनैस’’ के इस सर्वे का यदि प्रदेश की परिस्थितियों के संद्धर्भ में आकलन किया जाये तो यह सर्वे जमीनी हकीकत के बहुत नजदीक लगता है।
आज मीडिया और सरकारों में जिस तरह के संबंध बन चुके हैं और इन संबंधों के कारण सरकारों को जो श्रेष्ठता के प्रमाणपत्र मिल रहे हैं उनकी विश्वसनीयता भी उसी अनुपात में प्रश्नित हो चुकी है। पूर्व की धूमल और वीरभद्र सरकारों को थोक में यह श्रेष्ठता प्रमाण पत्र मिले हैं। यदि यह प्रमाण पत्र हकीकत के थोड़ा भी नजदीक होते तो यह सरकारें सत्ता में वापसी करती। लेकिन एक भी सरकार ऐसा नही कर पायी है। इससे सबसे ज्यादा मीडिया की अपनी विश्वसनीयता पर ही सवाल उठे हैं। इसलिये जयराम सरकार भी इस दिशा में कोई अपवाद सिद्ध नही हो पायेगी यह तय है। सरकार ने प्रदेश की जनता को इन दो वर्षों में क्या दिया है जिसका रिपोर्ट कार्ड लेकर यह सरकार जनता के सामने लेकर गयी है यदि उस पर निष्पक्षता से नजर डाली जाये तो स्थितियां बहुत निराशाजनक तस्वीर सामने रखती हैं। आम आदमी को रोजगार और मंहगाई सबसे ज्यादा प्रभावित करती है। क्योंकि इन्ही के कारण उसकी रसोई, शिक्षा और स्वास्थ्य का बजट प्रभावित होता है। सरकार ने कितने लोगों को दो वर्षों में रोजगार उपलब्ध करवाया है इसको लेकर विधानसभा के हर सत्र में सवाल आये हैं। इन सवालों के जवाब में कब क्या आंकड़े दिये गये है और कितनी बार यह कहा गया है कि सूचना एकत्रित की जा रही है। इसी को अगर इकठ्ठा रखकर कोई भी मंत्री या अधिकारी देखेगा तो शायद वह स्वयं ही शर्मसार महसूस करेगा क्योंकि यह सब कुछ सांख्यिकी विभाग द्वारा प्रकाशित अधिकारिक सूचनाओं से मेल नही खाता है। शैल यह सारे दस्तावेजी प्रमाण अलग-अलग समय पर पाठकों के सामने रख चुका है। शिक्षा और स्वास्थ्य की सही हालत क्या है इसका खुलासा प्रदेश उच्च न्यायालयों में आयी याचिकाओं से लग जाता है जहां अदालत को संबंधित सचिवों को व्यक्तिगत रूप से अदालत में उपस्थित रहने के फरमान देने पड़े हैं। मंहगाई के प्रति सरकार की गंभीरता इसी से पता चल जाती है जब रसोई गैस और पैट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाये गये तथा प्याज कम खाने की नसीहत दी गयी। लेकिन जो रिपोर्ट कार्ड जनता के सामने रखा गया उसमें इन मुद्दों का जिक्र तक नही किया गया।
विकास की स्थिति यह है कि प्रदेश के लिये केन्द्र द्वारा घोषित राष्ट्रीय राज मार्ग अभी तक सिद्धान्त रूप से आगे नही बढ़े हैं। प्रदेश की सड़कों और अन्य कार्यों के लिये केन्द्र से चैहद हजार करोड़ की मांग की गयी है। लेकिन अपने लिये दो सौ से ज्यादा गाड़ियां खरीद ली गयी। अपने वेतन भत्ते बढ़ा लिये गये और उस पर उठे जन रोष के बाद भी उसे वापिस नही लिया गया। सरकार के खर्चे चलाने के लिये हर माह कर्ज लिया जा रहा है। बजट से पहले और बजट के बाद टैक्स लगाये जाते रहे हैं लेकिन बजट को टैक्स फ्री घोषित/प्रचारित किया जाता है। जब सार्वजनिक जीवन में इतनी भी सुचिता नही रह जायेगी कि हम अपनी जनता से स्पष्ट ब्यानी कर सकें तो फिर ऐसे आयोजनों से क्या लाभ मिलेगा। इसीलिये इन आयोजनों को कर्ज लेकर घी पीने की संज्ञा दी जा रही है। ऐसे में जब सरकार बजट के लिये सुझाव आमन्त्रित करने की बात करती है तब यही लगता है कि सरकार कैसे जनता को ना समझ मानकर चलती है। पिछले कई वर्षों से हर बजट टैक्स फ्री बजट दिया जाता रहा है और इसके बावजूद वस्तुओं और सेवाओं के दाम तथा सरकार की आय बढ़ती रही है। जयराम सरकार ने भी बजट के लिये सुझाव मांगे है ऐसे में सरकार से आग्रह है कि आप तो टैक्स फ्री बजट का झूठ अब जनता को न परोसने का साहस दिखायें। इसी के साथ यह सच्च भी स्वीकारें की बजट में दिखायी गयी पूंजीगत प्राप्तियां शुद्ध ऋण होती हैं और इस ऋण के साथ सरकार के कर्ज का आंकड़ा जनता के सामने रखने का साहस करें।
नागरिकता संशोधन अधिनियम को लेकर देश के हर राज्य में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गये हैं। कई जगह इन प्रदर्शनों में हिंसा भी हो रही है। इस हिंसा के परिणाम स्वरूप कुछ लोग मारे भी गये हैं और सार्वजनिक संपति को नुकसान भी पहुंचा है। प्रदर्शनकारी इस अधिनियम को वापिस लेने की मांग कर रहे हैं। अधिनियम को देश के संविधान की मूल भावना के खिलाफ माना जा रहा है। हमारा संविधान धर्मनिरपेक्षता पर आधारित है जबकि यह अधिनियम पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के इन अल्पसंख्यक हिन्दु, सिक्ख, पारसी, जैन, बौद्ध तथा ईसाई समुदायों के लोगों को भारत की नागरिकता देनेे का प्रावधान करता है जिनके साथ वहां धर्म के आधार पर प्रताड़ना हुई हो। इस प्रताड़ना में अन्य धर्मो के लोगों को छोड़ दिया गया है। यही नही इनमें अन्य पड़ोसी देशों श्रीलंका, वर्मा, मयंमार और नेपाल को तो पूरी तरह छोड़ा दिया गया है। इस छोड़ने को संविधान की समानता की धारणा के खिलाफ माना का रहा है और इस पर उठते सवालों का कोई जवाब नही दिया जा रहा है। इसी के साथ संशय का एक बड़ा कारण एनआरसी है जिसके अनुसार सारे घुसपैठीयों को देश से बाहर किया जायेगा। आसाम में एनआरसी के तहत उन्नीस लाख घुसपैठीये चिन्हित हुए हैं। इनमें जो हिन्दु, सिक्ख, पारसी, बौद्ध, जैन और ईसाई होंगे वह तो संशोधित नागरिकता अधिनियम के दायरे में आने से नागरिकता पा जायेंगे दूसरे नही। उत्तर में यही सबसे बड़ा मुद्दा है इसको लेकर बवाल मचा हुआ है। एनआरसी पूरे देश में लागू किया जायेगा। गृहमंत्री अमितशाह के बाद अब भाजपा के कार्यकारी अध्यक्ष जगम प्रकाश नड्डा ने भी इसकी घोषणा कर दी है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि एनआरसी और संशोधित नागरिकता अधिनियम दोनों का आपरेशन एक साथ चलेगा। इससे और स्पष्ट हो जाता है कि गैर हिन्दुओं को बड़े ही रणनीतिक तरीके से कालान्तर में देश से बाहर कर दिया जायेगा। नड्डा-शाह के ब्यानों से भाजपा की नीयत और नीति दोनों साफ हो जाती हैै।
इस समय देश में करोड़ों की संख्या में गैर हिन्दु हैं। जो वातावरण एनआरसी और संशोधित नागरिकता अधिनियम से देश में बन गया है क्या उसको सामने रखते हुए इन करोड़ों गैर हिन्दुओं की आशंका एकदम आधारहीन कही जा सकती है? आसाम में राष्ट्रीय रजिस्ट्रर से बाहर हुए लाखों लोगों को बंग्लादेशी कहा जा रहा है। बंग्लादेश ने ऐसे लोगों की अधिकारिक सूची भारत से मांगी है। यदि कल को बंग्लादेश भी ऐसे लोगों को अपने यहां से आया हुआ मानने से इन्कार कर देता है तो उसका अन्तिम परिणाम क्या होगा? क्या यह एक चिन्ता और चिन्तन का विषय नही बन जाता है। अभी संशोधित नागरिकता अधिनियम की प्रक्रिया तय करने वाले नियम बनने है। यह स्पष्ट होना है कि धार्मिक प्रताड़ना तय करने का पैमाना क्या होगा? इसके लिये कानूनी प्रक्रियाएं क्या होंगी? यह सब कुछ अभी स्पष्ट होना बाकि शेष है। संसद में जब इस पर बहस चल रही थी तब इसका विरोध कर रहे सांसदो की अपतियां भी इसी तर्ज पर थी। इस सबको बहुमत के तर्क से नकार दिया गया। अब सर्वोच्च न्यायालय में भी उसके पास आयी याचिकाओं पर तब तक सुनवाई न करने की बात की है जब तक कि प्रदर्शनों में हिंसा नही रूक जाती है। सिद्धान्त रूप में यह तर्क सही है क्योंकि हिंसा कहीं भी स्वीकार्य नही हो सकती लेकिन जब संसद में विरोध के तर्काें को नकार दिया गया तो स्वभाविक है कि संसद के बाहर भी उन्हे आसानी से नही सुना जायेगा। फिर जब एनआरसी को लेकर यह कहा गया था कि पूरे देश में इसे लागू करने से पूर्व सबको सुना जायेगा तो फिर इस आन्दोलन के बीच संगठन के शीर्ष पर बैठे नड्डा जैसे नेता के ब्यान का क्या अर्थ लगाया जाये। क्या ऐसे ब्यान आग में घी डालने का कारक नही बनेगे।
इस वस्तुस्थिति को सामने रखते हुए यह सवाल उठता है कि आन्दोलनकारी प्रधानमन्त्री और उनकी पूरी सरकार के आश्वासनों पर विश्वास क्यों नही कर रहे है? इसके लिये शायद यही लोग जिम्मेदार है क्योंकि 2014 से लेकर आज तक जो वायदे किये गये उनमें से पूरे क्या हुए। अच्छे दिन और पन्द्रह लाख का परिणाम है कि मंहगाई और बेरोजगारी आज शिखर पर है। जीडीपी 5% से नीचे आ गया है। कमाई वाले सारे उपक्रमों को प्राईवेट सैक्टर के हवाले किया जा रहा है। स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे क्षेत्रों का बजट हर वर्ष घटता जा रहा है। सरकार की हर बड़ी योजना का लाभार्थी अंबानी अदानी होता जा रहा है। फास्ट टैग जैसी योजना से भी लाखों करोड़ का लाभ इन उद्योग घरानों को दिया जा रहा है सारे आंकड़े बाहर आ चुके हैं। जब सरकार जनता का ध्यान बांटने के लिये हर रोज कुछ नया मुद्दा लेकर आती रहेगी तो क्या वह युवा जिसका भविष्य दाव पर लगा हुआ है वह इस सबके निहित मंतव्य को नही समझेगा? जब इस युवा की सरकार बनाने में अहम भूमिका रही है तब इसे सरकार को समझने की समझ भी आने लगी है। क्योंकि भव्य राम मन्दिर के निर्माण और तीन तलाक तथा धारा 370 को हटाने से उसे रोजगार नही मिल पाया है। इससे प्याज और आलू की कीमतें कम नही हो पायी है। जब भाजपा ने 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में धार्मिक ध्रुवीकरण की नीयत से एक भी मुस्लमान को चुनाव का टिकट नही दिया तो क्या उससे राजनीतिक नीति सामने नही आ जाती है। एनआरसी के बाद नागरिकता संशोधन को लाना क्या परोक्ष में हिन्दु-मुस्लिम के बीच भेद को जन्म नही देता है? यदि आने वाले दिनों इस सबके परिणाम स्वरूप करोड़ों मुस्लिमों के सामने नागरिकता का सवाल आ खड़ा होता है तब उसका हल क्या होगा? क्या उन्हें पाकिस्तान, बंग्लादेश और अफगानिस्तान अपने यहां जगह देंगे? क्या तब हम अनचाहे ही एक और बंटवारे को आमन्त्रण नही दे बैठेंगे? आज समय इन सवालों पर राजनीतिक पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर सोचने की आवश्यकता है। आज विज्ञान और तकनीक के युग में धर्म के आधार पर राष्ट्रों की स्थापना नही की जा सकती। क्योंकि हमारे ही देश के एक हिस्से में रावण पूज्य हैं तो दूसरे हिस्से में उसे जलाया जाता है। ऐसे में कौन हिन्दु है और कितना श्रेष्ठ है यह भेद करना कठिन हो जायेगा।




आज रेप और हत्या के जो आंकड़े प्रतिदिन सामने आ रहे हैं उसको लेकर क्या कोई भी जिम्मेदार आदमी चुप बैठा रह सकता है। यदि संसद में इसके दोषीयों को जनता के हवाले करने की मांग आ सकती है तो क्या विपक्ष के जिम्मेदार नेता राहुल गांधी जनता के मंच पर ऐसे मामलों पर किसी भाषा में प्रतिक्रिया देंगे। क्या उन्हें मोदी को मेक इन इण्डिया के नारे के सामने यह याद नही दिलाना होगा कि जिसे आप मेक इन इण्डिया बनाने जा रहे थे वह तो रेप इन इण्डिया बनता जा रहा है। जब हर पन्द्रह मिनट के बाद एक रेप होने का आंकड़ा कड़वा सच बनता जा रहा है तो इस पर प्रतिक्रिया की भाषा क्या होनी चाहिये। ऐसे में जब राहुल गांधी ने रेप इन इण्डिया कह कर मोदी से उसकी खामोशी पर सवाल उठाया है तो इस पर स्मृति ईरानी के बवाल को कैसे जायज ठहराया जा सकता है क्या भाजपा के इन लोगों पर आरोप नही है और नेतृत्व खामोश बैठा रहा है। स्मृति ईरानी का गुस्सा क्या उनकी वैज्ञाणिक योग्यता के अलग- अलग रिकार्ड सामने आने पर उठे सवालों का प्रतिफल तो नही है। क्योंकि जो बात राहुल गांधी आज कह रहे हैं वही बात तो मोदी ने 2013 में कह दी थी। क्या स्मृति ईरानी मोदी के 2013 के ब्यान पर कोई प्रतिक्रिया देंगी। स्मृति जी आप आज सत्ता में हैं इस नाते इन बढ़ते अपराधों पर अंकुश लगाना आपकी जिम्मेदारी है जिसमें आपकी सरकार लगातार असफल हो रही है। ऐसे में राहुल की प्रतिक्रिया को मुद्दा बनाकर आप सच्चाई से भाग नही सकती है। राहुल ने हकीकत ब्यान की है उस पर माफी की मांग करके आप अपना ही पक्ष कमज़ोर कर रही हैं।
आज जब नागरिकता संशोधन अधिनियम पर देशभर में रोष उभर गया है। अमरीका और ब्रिटेन के मानवाधिकार संगठनों ने भारत के गृहमन्त्री पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग की है। ढाका ने भारत के गृहमन्त्री पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग की है। ढाका ने भारत के राजपूत को तलब कर लिया है। तब यह चिन्ता करना स्वभाविक हो जाता है कि भारत के इस कदम का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर असर पड़ने जा रहा है। क्योंकि पहली बार भारत ने अपने पड़ोसी देशों पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान में अल्पसंख्यकों के खिलाफ धर्म के आधार पर प्रताड़ना होने की बात की है। यह प्रताड़ना हिन्दु, सिखों, पारसीयों, जैन, बौद्ध और ईसाईयों के खिलाफ हो रही है और यह लोग इस प्रताड़ना से पीड़ित होकर भारत में आ गये हैं यह हम नागरिकता संशोधन अधिनियम में कह रहे हैं। इस प्रताड़ना से बचाने के लिये हम इन्हें भारत की नागरिकता देने जा रहे हैं। लेकिन इसके लिये जब 31 दिसम्बर 2014 की तारीख की लकीर खींच दी जाती है तभी हमारी नीयत और नीति पर सवाल उठ खड़े होते हैं। इस तारीख के बाद क्या इन देशों में यह प्रताड़ना बन्द हो गयी है? क्या इसके लिये भारत ने इन देशों के साथ यह मुद्दा उठाया था जिसमें यह तय हुआ हो कि अब तुम यह प्रताड़ना बन्द कर दो और पहले से ऐसे प्रताड़ितों को हम अपने देश में नागरिकता दे देंगें क्या भारत के अन्य पड़ोसी देशों श्रीलंका, वर्मा, म्यांमार, भूटान आदि में ऐसी प्रताड़ना नही हो रही है। इस प्रताड़ना के लिये पड़ोसी मुस्लिम देश ही क्यों चुने गये? ऐसे बहुत सारे सवाल जिनके जवाब आने जरूरी हैं। फिर सरकार ने एनआरसी पूरे देश में लागू करने की बात की है। अकेले असम में ही 19 लाख लोग इस रजिस्टर के दायरे से बाहर हो गये हैं। पूरे देश में यह संख्या करोड़ों में पहुंच जायेगी यह स्वभाविक है। तब क्या नागरिकता संशोधन अधिनियम के तहत ऐसे लोगों को नागरिकता देने की बात नहीं आयेगी। क्या तब उन्हें देश से बाहर जाने की बात की जायेगी। आने वाले दिनों में ऐसे दर्जनों सवाल जवाब मांगेंगे। जब भी किसी देश में इस तरह की परिस्थितियां बनती हैं तब सबसे पहले अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है। आज ही अर्थव्यवस्था गंभीर सकंट से गुजर रही है। मंहगाई और बेरोजगारी इसके सीधे प्रतिफल हैं। आज आम आदमी भी इसके लिये सरकार को दोषी मानने लग गया है और यही सरकार का सबसे बड़ा डर है। राहुल से माफी की मांग को इसी ध्यान भटकाने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है।




शिमला कांड के बाद उन्नाव कांड सामने आया। इसमें एक विधायक और उसके लोगों पर आरोप हैं। पीड़िता को मारने के प्रयास किये गये। अन्ततः जब उसे पेशी पर ले जाया जा रहा था तब उस पर तेल छिड़क कर आग लगा दी गयी। इस आग में झुलसने के तीसरे दिन दिल्ली के अस्पताल में वह दम तोड़ गयी। इस कांड पर जनाक्रोश तब भी उभरा था और अब मौत के बाद भी उभरा है। इस कांड के दोषी विधायक को सांसद साक्षी महाराज का आशीर्वाद हासिल है जिसके लिये यह सांसद भी जनाक्रोश के दायरे में आ गये हैं। इस कांड की पीड़िता की मौत हो गयी है और यही कथित दोषी चाहते थे। ऐसे में अब अदालत किसको कब क्या सज़ा देती है या कोई सांसद इसमें भी दोषीयों को जनता के हवाले करने की मांग करता है अब इस पर निगाहें रहेंगी।
अब जब हैदराबाद की डाक्टर के साथ रेप और हत्या का प्रकरण सामने आया तो फिर जनाक्रोश उभरा क्योंकि अब डाक्टर के परिजनों ने उसके गुम होने की शिकायत घटना से दो दिन पहले पुलिस को दी थी तब उस पर कोई कारवाई नही की गयी। यह आरोप लगा कि यदि पुलिस ने शिकायत पर गंभीरता दिखाते हुए उस पर कारवाई की होती तो शायद यह कांड न घट पाता। स्वभाविक है कि इस परिदृश्य में पुलिस पर सवाल उठने ही थे जो संसद तक जा पहुंचे और वहां जया बच्चन जैसी महिला सांसदों ने आक्रोश में कथित आरोपियों को जनता के हवाले करने तक की बात कर दी। संसद में हुई इस चर्चा के बाद पुलिस ने भी आरोपियों को घटनास्थल पर लाकर मुठभेड़ में उन्हें मार गिराया। पुलिस ने इस मुठभेड़ को जायज ठहराते हुए यह तर्क दिया कि आत्म रक्षा में गोली चलानी पड़ी। आक्रोषित जनता ने भी पुलिस के इस तर्क को स्वीकार कर लिया और मुठभेड़ पर फूल बरसाते हुए स्वागत कर दिया। भीड़ का तर्क और मनोविज्ञान अपना अलग ही होता है क्योंकि उसके लिये किसी एक हो व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। लेकिन क्या पुलिस भी भीड़ ही हो सकती है? क्या भीड़ और जनाक्रोश का तर्क पुलिस ले सकती है शायद नहीं। क्योंकि यदि पुलिस को भी भीड़ होने का लाईसैन्स दे दिया जाये तो फिर पुलिस की आवश्यकता ही कहां रह जाती है। पुलिस और सीबीाआई के कई एनकांऊटर फर्जी सिद्ध हो चुके हैं जिसके लिये उसे दड़ित भी किया गया है। इसलिये एनकांऊटर को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने विस्तृत दिशा निर्देश जारी किये हुए हैं जिनके तहत हर मुठभेड़ पर एफआईआर दर्ज किया जाना आवश्यक है। हैदराबाद मुठभेड़ पर क्या कारवाई होती है यह तो आने वाले समय में ही सामने आयेगा। लेकिन यह तो स्पष्ट है कि पुलिस को इस तरह के कृत्य की कतई स्वीकारोक्ति नहीं दी जा सकती।
यह जो सारे प्रकरण घटे है और हरेक में पुलिस /सीबीआई की कार्यप्रणाली सवालों में घिर गयी है। इससे एक बार फिर सार्वजनिक बहस की आवश्यकता आ खड़ी हुई है। क्योंकि अब तक जो भी प्रावधान इस दिशा मे किये गये हैं वह सब नाकाफी साबित हुए हैं उनसे समाज में कोई डर नहीं बन पाया है इसलिये यह विचार करना आवश्यक हो जाता है कि आखिर ऐसी मानसिकता पनप ही क्यों रही है। वह कौन से कारण हैं जो इस तरह की मनोवृति को जन्म दे रहे हैं। जबकि हमारी सांस्कृतिक विरासत के मानदण्ड तो बिल्कुल अलग रहे हैं। जिस समाज में ‘‘भोजन, भजन, वस्त्र और नारी यह सब परदे के अधिकारी’’ यत्र पूजयते नारी, रमन्ते तत्र देवता’’ जैसी मान्यतांए रही हों वहां पर गैंगरेप अैर हत्या सामाजिक मूल्यों पर सवाल खड़े करेंगे ही। क्योंकि अपराध विज्ञान भी यह मानता है कि हर मानसिकता के पनपने की निश्चित पृष्ठभूमि रहती है। इसके लिये शैक्षणिक ढांचे से लेकर सोशल मीडिया जैसे मंचों की भूमिका पर भी विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि सोशल मीडिया के कुछ मंचों में जिस तरह से सैक्स को व्यवसायिकता का आवरण दिया जा रहा है। उसका प्रतिफल ऐसे अपराधों की शक्ल में ही समाज को भुगतना पड़ेगा।
पुलिस और अदालत को ऐसे अपराधों का निपटारा ट्रायल कोर्ट से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक को एक तय समय सीमा तक करने का प्रावधान किया जाना चाहिये। इसके लिये संसद को एकजुट होकर कानून बनाना होगा। बलात्कार और हत्या तथा भ्रष्टाचार के अपराधों के लिये एक जैसा ही प्रावधान किया जाना चाहिये क्योंकि जब भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे जनप्रतिनिधियों के मामलों का निपटारा दशकों तक नही हो पाता है तो उससे समाज में अन्ततः अराजकता ही पनपती है और तब पुलिस मुठभेड़ों को भी समाज स्वागत और स्वीकार करने लग जाता है।
क्या महाराष्ट्र में भाजपा सत्ता से अन्ततः बाहर हो गयी है। इस बाहर होने के संकेत तभी उभर गये थे जब शिवसेना ने आधे कार्यकाल के लिये अपने मुख्यमन्त्री की मांग रखी थी और भाजपा ने इससे इन्कार कर दिया था। इस इन्कार के बाद शिवसेना एनसीपी और कांग्रेस में सहमति बनाने के प्रयास हुए। जब यह प्रयास सफल हो गये तभी रातों रात फिर खेल बदला और सुबह भाजपा के फडनवीस तथा एनसीपी के अजीत पवार की मुख्यमन्त्री तथा उप मुख्यमन्त्री के रूप में शपथ हो गयी। इस शपथ ग्रहण के बाद फिर खेल बदला और मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहंुच गया। सर्वोच्च न्यायालय ने जब फ्लोर टैस्ट के आदेश दिये तब इस टैस्ट में सफल/असफल होने से पहले ही अजीत पवार और फड़नवीस ने अपने पदों से त्यागपत्र दे दिया। क्योंकि फड़नवीस के पास वांच्छित बहुमत नही था। सत्ता के इस खेल में क्या-क्या कैसे घटा यह सब देश ने देखा है। कौन सा गठनबन्धन कितना सिद्धान्तों पर आधारित रहा है यह गौण हो गया है। इस सबको धूर्तता की पराकाष्टा कहा जाये तो कोई अत्युक्ति नही होगी।
महाराष्ट्र में जो कुछ यह घटा है उसने कुछ बुनियादी सवाल भी खड़े किये हैं। यह सवाल उठता है कि जब शिवसेना की शर्त न मानकर भाजपा ने सरकार बनाने के इन्कार कर दिया था और प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया था तब ऐसी क्या विवशता आ खड़ी हुई कि सबुह-सुबह ही शपथ ग्रहण समारोह करवा दिया गया? क्या उस समय राजनेताओं से हटकर गुप्तचर ऐजैन्सीयों ने भी यह जानकारी नहीं दी कि अजीत पवार के जिस पत्र को आधार बनाया जा रहा है वह वास्तव में ही सही नही है? गुप्तचर ऐजैन्सीयों की यही जिम्मेदारी होती है कि वह हर घटना की तथ्यों सहित सही जानकारी अपने वरिष्ठों के सामने रखें। यहीं पर एक और सवाल खड़ा होता है कि क्या गुप्तचर ऐजैन्सीयां सही जानकारी ही नहीं दे पायीं या फिर उनकी जानकारी को नजरअन्दाज किया गया। इसमें जो भी स्थिति रही हो वह देश के लिये हितकर नही हो सकती यह स्पष्ट है। क्योंकि ऐजैन्सी का आकलन गलत होना या उसे नजरअन्दाज कर दिया जाना देश की सुरक्षा के लिये हानिकारक हो सकता है। यदि यह मान लिया जाये कि ऐजैन्सियों का आकलन सही था लेकिन उसे राजनैतिक आकाओं ने अपने स्वार्थों के कारण नहीं माना तो इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अब राजनीतिक नेतृत्व अहंकार में आ चुका है और नेतृत्व का अहंकार संगठन और राष्ट्र दोनों के लिये कालान्तर में नुकसान देह साबित होता है।
महाराष्ट्र में जो कुछ घटा है उसकी समीक्षा एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में की जानी आवश्यक है क्योंकि इस समय देश एक गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा है। विकास दर का आकलन अब पांच प्रतिशत से भी नीचे आ गया है जिस मुद्रा लोन योजना के माध्यम से बड़ा सपना संजोया गया था कि एक घण्टे में एक करोड़ का लोन देकर देश का कायाकल्प हो जायेगा वह योजना एनपीए का सबसे बड़ा आंकड़ा हो गया है क्योंकि 3.63 करोड़ खाते डिफाल्ट हो गये हैं। आर्थिक स्थिति को सुधारने का सरकार का हर उपाय असफल हो गया है। स्थिति एक ऐसे मोड़ पर पहंुच गयी है जहां हर व्यक्ति इससे व्यक्तिगत तौर पर प्रभावित होना शुरू हो गया है। यह वह आम आदमी है जिसके पास कोई नियमित आय किसी वेतन, पैन्शन या दुकान से नही है और इसकी संख्या 80% से भी अधिक है। इसके लिये राममन्दिर, हिन्दु-मुस्लिम, तीन तलाक और धारा 370 से बड़ा सवाल उसकी रोज़ी-रोटी हो जाती है। जब यह आदमी प्रभावित होता है तब यह बिना किसी दल और नेतृत्व के अपनी नाराज़गी सत्ता के खिलाफ मतदान करके अपनी नाराज़गी प्रकट करता है। हरियाणा विधानसभा के चुनाव परिणाम इसी स्थिति का प्रतिफल है। इसी का परिणाम है कि महाराष्ट्र में एकदम विरोधी विचारधाराओं के लोगों को इकट्ठा होना पड़ा है। आज हिन्दुत्व को एक राजनीतिक ऐजैण्डे के रूप में लेने के स्थान पर ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम’’ के रूप में लेना होगा।
महाराष्ट्र जहां 288 सदस्यों के सदन में 176 सदस्यों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले हों वहां पर यह लोग सीबीआई और ईडी के खौफ को दरकिनार करके इकट्ठे होने को बाध्य हो गये हों तो ऐसी स्थिति को राजनीति में नये समीकरणों की आहट के रूप में लेना होगा। क्योंकि पिछले कुछ समय में जो कुछ याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में आयी हैं वह सीधे रूप में नये उभरते जन सरोकारों और जनाक्रोश की ही अभिव्यक्ति हैं। एक जनहित याचिका में विधायकों/सांसदो को पैन्शन दिये जाने का विरोध किया गया है। एक याचिका में राजनीति दलों द्वारा आपराधिक मामला झेल रहे व्यक्ति को चुनाव में उम्मीदवार न बनाये जाने के लिये चुनाव आयोग से इस संद्धर्भ में नियम बनाने की मांग की गयी है। अश्वनी उपाध्याय की इस याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने तीन माह में जवाब मांगा है। एडीआर और कामन काज की याचिका में पिछले लोकसभा चुनावों में 347 लोकसभा क्षेत्रों में वीवी पैट और ईवीएम में आयी विसंगतियों पर कुछ स्थायी प्रावधान बनाये जाने की मांग करते हुए कई और गंभीर विषयों पर ध्यान आकर्षित किया गया है। बीस लाख ईवीएम मशीनों के गायब होने पर पहले ही याचिकाएं लंबित चल रही हैं। इन सारी याचिकाओं में उठाये गये मुद्दे आने वाले दिनो में सार्वजनिक चर्चा का विषय बनेंगे यह तय है। यह मुद्दे और देश की वर्तमान आर्थिक स्थिति दोनो का सांझा प्रभाव राजनीति में नये समीकरणों का कारक बनेगा यह निश्चित है और महाराष्ट्र को इसका पहला प्रयोग माना जा सकता है।