Wednesday, 17 December 2025
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धूर्तता और धोखे के सहारे राजनीति कब तक

राजनीति संभावनाओं का पिटारा और धूर्तता का अन्तिम पड़ाव होती है यह महाराष्ट्र के घटनाक्रम ने एक बार फिर प्रमाणित कर दिया है। चुनाव पूर्व शिवसेना और भाजपा ने गठबन्धन करके चुनाव लड़ा तथा बहुमत हासिल किया। लेकिन जब सरकार बनाने की बात आयी तब शिवसेना ने अढ़ाई वर्ष उनका भी मुख्यमन्त्री बनाये जाने की बात रखी जिसका भाजपा ने विरोध किया। शिवसेना ने भाजपा पर झूठ बोलने का आरोप लगाया और भाजपा ने इस आरोप का जवाब देने की बजाये राष्ट्रपति शासन लागू करवा दिया। परिणामस्वरूप गठबन्धन टूट गया और लगा कि भाजपा शायद इस बार सिद्धान्त की राजनीति करने जा रही है क्योंकि उसने साफ कहा था कि उनके पास बहुमत का आंकड़ा नही है। इसी के साथ यह भी कहा था कि जिसके पास आंकड़ा हो वह सरकार बना ले। अन्यों को सरकार बनाने के लिये स्वभाविक था कि शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस सब आपस में मिलकर सरकार बनाये। इसके लिये प्रयास शुरू हुए तीनों दलों में सहमति बनी और संयुक्त रूप से तीनों दलों द्वारा राज्यपाल को पत्र सौंपने की स्थिति आ गयी। लेकिन जब यह स्पष्ट हो गया था कि अब तीनो दलों की ही सरकार बनने जा रही है तभी रात को एनसीपी के घर में सेंध लगाकर अजीत पवार को तोड़ा गया। अजीत पवार ने एनसीपी विधायकों के उन हस्ताक्षरों को राज्यपाल को सौंपा जो उन्होंने बैठक में आने की उपस्थिति के नाम पर किये थे। सुबह भी बैठक के नाम पर अजीत ने विधायकों को बुलाया और सीधे राजभवन ले गया। जितने में यह विधायक इस खेल को समझ पाते उतने में शपथ ग्रहण ही संपन्न हो गया। यह सब तीन विधायकों ने शरद पवार के साथ एक पत्रकार वार्ता में कहा है। अजीत पवार को एनसीपी से निकाल भी दिया गया है। शरद पवार ने कहा कि सबकुछ जानकारी में था। इसमें सच क्या है इसको बाहर आने में समय लगेगा। लेकिन जो कुछ अजीत ने किया है वह राजनीतिक धूर्तता ही कहलाता है।
भाजपा ने जो कुछ किया है क्या उसे राजनीतिक संभावना कहा जा सकता है? शायद नहीं। क्योंकि एनसीपी के साथ सरकार बनना तब राजनीतिक संभावना माना जाता यदि उसके विधायक खुलेआम शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होते और इस आश्य का वाकायदा सार्वजनिक ब्यान जारी करके आते। लेकिन ऐसा नही हुआ है इस गणित में भी यह आचरण धूर्तता में ही आता है। लेकिन इस सब में यह समझना महत्वपूर्ण हो जाता है कि अजीत पवार को यह सब क्यों करना पड़ा और येनकेन प्रकारेण सरकार बनाना भाजपा की विवशता क्यों थी। महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे जिसमें हरियाणा में सारे दावे के बावजूद भाजपा को सरकार बनाने का बहुमत नही मिल पाया। अब झारखण्ड के चुनाव में एलजेपी ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला लिया है। यह सब राजनीतिक संद्धर्भो में इसलिये महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि मई में हुए लोकसभा चुनावों में मिले प्रचण्ड बहुमत के यह सब एकदम उल्ट है। इसपर भाजपा का चिन्तित होना स्वभाविक है। इस चिन्ता के निराकरण के लिये उसे अपने प्रबन्धकीय कौशल का ही संदेश देना राजनीतिक बाध्यता बन जाती है।
 लेकिन इसी सब में यह सवाल फिर अपनी जगह खड़ा रह जाता है कि महाराष्ट्र में घटे पंजाब एण्ड महाराष्ट्र बैंक प्रकरण में प्रदेश के करोड़ों लोगों का पैसा डूब गया है। पन्द्रह लोगों ने अपनी जान गंवा दी है। इस प्रकरण की जांच में भाजपा से ही ताल्लुक रखने वाले नेताओं की गिरफ्तारीयां हुई हैं। इसी बैंक के प्रकरण में अजीत पवार का नाम आया है। इस प्रकरण की जांच चल ही रही है। ऐसे में यह सीधा संदेश जाता है कि अजीत ने इस प्रकरण की जांच में आने वाली आंच से बचने के लिये यह पासा बदल लिया है। इससे पहले भी कई राज्यों के ऐसे नेता भाजपा में शामिल हो चुके हैं जिनके खिलाफ ईडी और सीबीआई में जांच चल रही थी। इसलिये आज राजनीतिक दलों से यह अपेक्षा करना कि वह सिद्धान्त की राजनीति करेंगे और कम से कम भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं आने देंगे एकदम गलत होगा। महाराष्ट्र का सारा खेल अप्रत्यक्ष में इसी भ्रष्टाचार के गिई घूम रहा है लेकिन इस खेल का सबसे भयानक पक्ष यह है कि इसमें लोकतान्त्रिक परम्पराओं की बलि दी जा रही है और जब यह प्रंसग शीर्ष अदालत तक पंहुच जाते हैं तब इसमें न्यायपालिका भी कई बार एक पक्षकार जैसा ही आचरण कर जाती है। अब यह प्रकरण भी शीर्ष अदालत में जा पहुंचा है। शीर्ष अदालत ने मामले को गंभीर मानते हुए रविवार को ही सुनवाई करके इसमें सभी पक्षों को नोटिस जारी करके सोमवार को सुनवाई जारी रखने का आदेश दिया है। कर्नाटक में भी इसी तरह की परिस्थितयां बनी थी और शीर्ष अदालत ने उसमें येदुरप्पा को बहुमत साबित करने का समय सीमित कर दिया था। शीर्ष अदालत ने बहुमत के दावे के आधार के प्रमाण तलब कर लिये हैं।
आज जो कुछ यह घट रहा है और 2014 के बाद तो इसमें जिस तरह के बढ़ौत्तरी हुई है उसके परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि ऐसा कब तक चलता रहेगा और क्या इसको रोका नही जा सकता है। आज की राजनीति एकदम सत्ता होकर ही रह गयी है। यदि आपके पास सत्ता है तो आप राजनीति में प्रसांगिक हैं अन्यथा नहीं फिर यह सत्ता केवल पैसे के बल पर ही हासिल की जा सकती है। इस पैसे के लिये राजनेता को या तो स्वयं उद्योगपति होना पड़ता है या फिर उद्योगपति का पक्षकार। आज सारी राजनीति इसी के गिर्द केन्द्रित होकर रह गयी है क्योंकि प्रत्यक्ष सत्ता के लिये चुनाव की सीढ़ी चढ़कर आना पड़ता है और हर बार बढ़ते चुनाव खर्च से यह सीढ़ी ऊंची ही होती जा रही है। यही खेल भ्रष्टाचार को अंजाम देता है। ऐसे में जबतक चुनाव को खर्च से मुक्त नही किया जाता तब तक सत्ता के राजनेता को भ्रष्ट होने से नहीं बचाया जा सकता है। मेरा मानना है कि चुनाव को खर्च से मुक्त किया जा सकता है। इसके लिये एक व्यवहारिक मुहिम छेड़ने की आवश्यकता है। इसके लिये क्या किया जा सकता है इसकी चर्चा आगे करूंगा।

राजनीति के बाद पत्रकारिता भी विश्वसनीयता के संकट में

क्या आज की पत्रकारिता विश्वसनीयता के संकट से गुजर रही है। यह सवाल राष्ट्रीय प्रैस दिवस के अवसर पर सूचना एवम् जन संपर्क विभाग हिमाचल सरकार द्वारा इस संद्धर्भ में आयोजित एक कार्यक्रम संबोधित करते हुए मुख्यमन्त्री जयराम के संबोधन से उभरा है। मुख्यमन्त्री ने अपने संबोधन में यह स्वीकारा कि आज की राजनीति अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है। इस स्वीकार के साथ ही मुख्यमन्त्री ने उसी स्पष्टता के साथ ही पत्रकारों और पत्रकारिता को भी यह नसीहत दी कि वह तो अपनी विश्वसनीयता बचाये रखने का प्रयास करें। मुख्यमन्त्री पिछले पच्चीस वर्षों से सक्रिय राजनीति में है इसलिये उनके इस कथन को एक ईमानदार स्वीकारोक्ति के साथ ही गंभीरता से लेना होगा। राजनीति और पत्रकारिता सामाजिक संद्धर्भों में एक दूसरे के पूरक हैं और इसी नाते एक -दूसरे के ह्रास के लिये भी बराबर के जिम्मेदार हैं। यह सही है कि आज की राजनीति पर ‘‘धूर्तता का अन्तिम पड़ाव’’ होने की कहावत पूरी तरह चरितार्थ होती है और इसी का परिणाम है कि संसद से लेकर राज्यों की विधानसभाओं तक में अपराधियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। हर राजनीतिक दल अपराधियों को ‘‘माननीयों’’ बनवाने में बराबर का भागीदार है। एक तरफ यह भागीदारी हर चुनाव के बाद बढ़ रही है तो दूसरी ओर हर दल अपराध और भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी जीरो टालरैन्स की प्रतिबद्धता भी लगातार दोहराता जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी 2014 में यह घोषणा की थी कि वह संसद को अपराधियों से मुक्ति दिलायेंगें प्रधानमंत्री के इस दावे को सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह आदेष पारित करके अपना समर्थन दिया था कि  ‘‘माननीया के मामलों का एक वर्ष के भीतर निपटारा किया जाये’’। लेकिन प्रधान और सर्वोच्च  न्यायालय दोनो ही इस संद्धर्भ में पूरी तरह असफल हुए हैं। जब जब यह सब व्यवहारिक रूप में सामने आयेगा तो हर संवदेनशील ईमानदार व्यक्ति को यह कहना और मानना ही पड़ेगा कि सही में राजनीति अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है।
 अब पत्रकारिता भी विश्वसनीयता के इसी संकट से गुजर रही है। पत्रकारिता के इस संकट का सबसे बड़ा कारण यह है कि आज अधिकांश समाचार पत्र और न्यूज चैनल अंबानी -अदानी जैसे बड़े उद्योग घरानों की मलकीयत हो गये हैं। पत्रकार इनका नौकर होकर रह गया है क्योंकि उसे मालिक की नीयत और नीति दोनो की ही अनुपालना करने की बाध्यता हो जाती है। और उद्योग के हित सीधे सरकार से जुड़े ही नहीं बल्कि पोषित होते हैं। उद्योग घरानों को सरकार से अपना एनपीए खत्म करवाना होता है। अपनी ईच्छानुसार अपनी कंपनी को दिवालिया घोषित करवाना होता है। पत्रकार यह सब जानकारी रखते हुए इसे मालिक हित में जनता के साथ सांझी नही कर पाता है। यहीं से उसकी विश्वसनीयता का संकट शुरू हो जाता है क्योंकि यदि वह मालिक सरकार और नौकरशाह के नापाक गठजोड़ को जनता के सामने रखने का साहस दिखाता है तो इसके लिये उसे नौकरी से हाथ धोना पड़ता है। सरकारें भी ऐसे कड़वे सच को स्वीकारने का साहस नही रखती है बल्कि उनका अपना दमनचक्र शुरू हो जाता है। ऐसे में पत्रकार के पास अपनी दशा-दिशा पर चिन्तन मनन करने का अवसर ही नही रह जाता है। इस तरह के चिन्तन मनन का अवसर प्रैस दिवस के माध्यम से मिलता था।  लेकिन आज जब प्रैस दिवस पर इस चिन्तन मनन के स्थान पर क्रिकेट मैच पत्रकारों की प्राथमिकता हो जायेगा तब यह प्रैस दिवस न होकर प्रैसरात्रि बन जायेगी।   
 क्योंकि आज की पत्रकारिता का यह सरोकार ही नही रह गया है कि ‘‘गर तोप मुकाबिल होतो अखबार निकालो’’ राष्ट्रीय प्रैस दिवस का आयोजन राष्ट्रीय प्रैस परिषद राज्य सरकारों के सहयोग से करवाती है और प्रैस की आज़ादी सुनिश्चित करना उसका दायित्व रहता है। लेकिन क्या प्रैस परिषद यह दायित्व निभा पा रही है। अभी जब जम्मू कश्मीर में धारा 370 हटाई गयी और मीडिया पर भी कुछ प्रतिबन्ध लगाये गये तब इन प्रतिबन्धों को कश्मीर टाईमज़ ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। कश्मीर टाईमज़ की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने प्रैस परिषद से भी जवाब मांगा था। प्रैस परिषद ने अपने जवाब में इन प्रतिबन्धों को जायज़ ठहराया। इस पर जब हंगामा हुआ तब परिषद ने अपना स्टैंड बदला इसी के बाद उत्तर प्रदेश में कुछ घटनाएं सामने आयी जहां पुलिस ने पत्रकारों के खिलाफ कारवाई करते हुए गिरफ्तारीयां तक की। यह मामले भी शीर्ष अदालत तक पहुंचे। हिमाचल में भी कुछ मामले नालागढ आदि में सामने आये थे जहां पुलिस ने कारवाई की थी और उसके खिलाफ प्रदर्शन हुए। इसी कड़ी में हिमाचल का वह मामला जिसमें सोशल मीडिया में किसी गुमनाम कार्यकर्ता का पूर्व मुख्यमन्त्री शान्ता कुमार के नाम लिखा पत्र जब वायरल हुआ तब उस पत्र में लगाये गये आरोपों की कोई प्रत्यक्ष/ अप्रत्यक्ष जांच करवाये बिना ही उसमें पुलिस कारवाई को अजांम दे दिया गया और अभी तक यह जांच चल रही है।
यह सारे मामले ऐसे हैं जहां सरकार और पत्रकार/पत्रकारिता का सीधा रिश्ता संद्धर्भ मे आता है। सरकार और जनता के बीच संबंध और संवाद की भूमिका अदा करता है पत्रकार। कुछ हद तक यही भूमिका सरकार का गुप्तचर विभाग भी अदा करता है। दोनों में फर्क सिर्फ इतना है कि गुप्तचर अपनी सारी जानकारी फाईल में बन्द करके सरकार के सामने रखता है जबकि पत्रकार उसी जानकारी को जनता के सामने रखता है। जब जनता में सीधे रखी गयी जानकारी सरकारी दावों और वायदो से हटकर होती है तो उस पत्रकार को सरकार का विरोधी करार दे दिया जाता है उसकी बेबाक आवाज को दबाने का प्रयास किया जाता है और यहीं से विश्वसनीयता का सरोकार खड़ा हो जाता है। अभी पिछले दिनों महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के चुनावों में जीत के जो दावे और आंकड़े सत्तापक्ष जनता में रख रहा था उन्हीं आंकडा़े और दावों पर ही मीडिया अपनी मोहर लगाता जा रहा था लेकिन जब चुनाव के परिणाम सामने आये तो यह आंकड़े और दावे सभी हवा-हवाई सिद्ध हुए। इन अनुमानों का गलत साबित होना राजनीतिक दलों से ज्यादा मीडिया की साख पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। इससे पत्रकारिता की विश्वसनीयता अपने आप सवालों में आ जाती है।
आज की राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों में राजनीति के बाद न्यायपालिका और पत्रकारिता की विश्वसनीता पर प्रश्नचिन्ह लगने शुरू हो गये हैं। यही आने वाले समय का सबसे बड़ा संकट होने वाला है। ऐसे समय में एक मुख्यमन्त्री का बेबाक स्वीकार अपने में प्रशंसनीय है। लेकिन इसी के साथ मुख्यमन्त्री से ही यह उम्मीद भी की जानी चाहिये कि वह अपने राज्य में तो राजनीति और पत्रकारिता दोनों की विश्वसनीयता बनाये रखने के लिये ईमानदारी से प्रयास करेंगे।

अब तो धर्म की राजनीति पर विराम लगना चाहिये

क्या अब धर्म और मन्दिर-मस्जिद की राजनीति पर विराम लग जायेगा? यह सवाल सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद आयी कुछ प्रतिक्रियाओं के परिदृष्य में उभरता है। संघ परिवार के कुछ घटकों ने इस फैसले का स्वागत इस अन्दाज में किया है कि यह उनकी एक बहुत बड़ी जीत है। इस स्वागत के अन्दाज से यह आशंका उभरना स्वभाविक है कि क्या आन वाले समय में काशी-मथुरा जैसे अन्य स्थलों को लेकर भी इसी तरह का कुछ देखने को मिल सकता है। क्योंकि पिछले दिनों जब भाजपा नेता डा. स्वामी शिमला आये थे तब उनकी पत्राकार वार्ता में इसी तरह के संकेत उभरे थे। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को मुस्लिम नेता औबैसी ने अपनी प्रतिक्रिया में तथ्यों पर आस्था की जीत करार दिया है। कुछ मुस्लिम हल्कों में इस फैसले पर पुनर्विचार याचिका तक दायर करने की बातें की जा रही हैं। राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद मुद्दा देश के लिये कितना संवदेनशील रहा है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1992 में जब यह मस्जिद गिरायी गयी थी तब चार राज्यों की सरकारें इसकी भेंट चढ़ गयी थीं और वहां पर राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा था।
 यह मसला आज भी उतना ही संवदेनशील है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जिन पांच माननीय न्यायधीशों ने यह मामला 41 दिनों तक सुना और इस पर 1045 पन्नो का फैसला दिया है इस फैसले का लेखक कौन सा न्यायधीश है इसे गोपनीय रखा गया है जबकि आज तक यह प्रथा रही है कि जब भी कोई मामला किसी पीठ के समक्ष होता है तो उस पर फैसला लिखने की जिम्मेदारी कोई एक जज ही निभाता है। यही नहीं इसी फैसले में एक न्यायधीश ने सौ पन्नों का अनुबन्ध लिखा है लेकिन उस जज का नाम भी सार्वजनिक नहीं किया गया है। फैसला लिखने में ही इतनी गोपनीयता बरती जाना मामले की संवदेनशीलता को ही सामने लाता है। इस मामले में तीन पक्षकार थे रामलल्ला विराजमान, सुन्नी सैन्ट्रल वक्फ बोर्ड और निर्मोही अखाड़ा/ विवाद का विषय था कि विवादित स्थल 2.77 एकड़ जमीन पर मालिकाना हक किसका है। इसमें निर्मोही अखाड़ा की याचिका को ‘‘तय समय के बाद आयी’’ कह कर खारिज कर दिया गया है।  2.77 एकड़ पर सुन्नी वक्फ बोर्ड का भी  मालिकाना हक नही माना गया है। विवादित स्थल पर रामलल्ला विराजमान के मालिकासना हक को मानते हुए शीर्ष अदालत ने केन्द्र सरकार को निर्देश दिये हैं कि वह तीन माह के भीतर यहां पर मन्दिर निर्माण के लिये एक व्यापक योजना तैयार करे। यह योजना 1993 के अयोध्या विशेष एरिया अधिग्रह अधिनियम की धारा 6 और 7 के प्रावधानों के अनुरूप तैयार की जायेगी और इसी में इस निर्माण और फिर उसके संचालन के लिये एक ट्रस्ट बनाने के निर्देश दिये गये हैं। इस ट्रस्ट में निर्मोही अखाड़ा को भी उचित प्रतिनिधित्व देने के निर्देश है। शीर्ष अदालत ने संविधान की धारा 142 के तहत प्रदत ‘‘राजाज्ञा’’अधिकारों का प्रयोग करते हुए सरकार को निर्देश दिये हैं कि सुन्नी वक्फ बोर्ड को भी मस्जिद बनाने के लिये पांच एकड़ भूमि किस प्रमुख स्थान पर उपलब्ध करवाये। इस तरह शीर्ष अदालत ने निर्मोही अखाड़ा को ट्रस्ट में शामिल करने और सुन्नी वक्फ बोर्ड को पांच एकड़ भूमि दिये जाने के आदेश पारित करके इस मामले से जुड़े इन पक्षकारों के हितों की भी पूरी -पूरी रक्षा की है। पिछले 134 वर्षों से अदालतों के बीच फंसे रहे इस मामले का इससे अच्छा अदालती फैसला और कुछ नहीं हो सकता था यह सबको मानने से एतराज नही होना चाहिये।
इस समय जिस तरह की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियां देश की हैं उनमें शीर्ष अदालत ने केन्द्र सरकार को इस निर्माण के लिये ट्रस्ट बनाने की जिम्मेदारी देकर बहुत बड़ा और अच्छा काम किया है। क्योंकि इसी सरकार पर यह आरोप लग रहे हैं कि वह देश को हिन्दु राष्ट्र बनाना चाहती है। भारत एक बहुविद्य देश है और यह विविधता ही इसकी विशेषता है। इसी विविधता को ध्यान में रखकर संविधान निर्माताओं ने देश को धर्म निरपेक्ष रखा है। क्योंकि यहां पर कई धर्माें और जातियों के लोग रहते हैं इसीलिये सरकार किसी एक ही धर्म की पैरोकार होकर काम नहीं कर सकती। आज इस धर्मनिरपेक्ष सौहार्द को बनाये रखने की जिम्मेदारी सरकार की है। इस मन्दिर निर्माण के लिये ट्रस्ट बनाये जाने के निर्देश एक तरह से सरकार की परख की कसौटी सिद्ध होंगे। यह सरकार को ही सुनिश्चित करना होगा कि आने वाले दिनों में किसी और धार्मिक स्थल को लेकर इस तरह का कोई विवाद न उभरने पाये। क्योंकि इस तरह के विवादों का असर जब देश की आर्थिकी पर पड़ता है तब आम आदमी के लिये मन्दिर और मस्जिद बहुत गौण हो जाते हैं। उस समय उसके लिये रोज़ी-रोटी ही सबसे प्रमुख होते हैं और जो भी शासन व्यवस्था इस पर प्रश्नचिन्ह लगने की स्थितियां पैदा करती हैं लोग उसके खिलाफ बिना नेतृत्व के भी खड़े हो जाते हैं महाराष्ट्र और हरियाणा में जो भी घटित हुआ है वह इसी तरह की कार्यशैली का परिणाम है। इसलिये अब धर्म और मन्दिर की राजनीति पर विराम लग जाना चाहिये।

माननीयों को पैन्शन क्यों?

विधायकों/सांसदों को पैन्शन दिये जाने का विरोध पिछले कुछ समय से ज्यादा मुखर होता जा रहा है। हिमाचल विधानसभा के मानसून सत्र में जब विधायकों/पूर्व विधायकों का यात्रा भत्ता बढ़ गया था तो इस पर किस कदर लोगों में नकारात्मक प्रतिक्रियाएं उभरी थी यह हम सबने देखा है। पैन्शन विरोध के आशय की सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिकाएं तक दायर हो चुकी हैं। सोशल मीडिया के मंचों के माध्यम से इन याचिकाओं पर जन सहयोग की अपील की गयी है। इस संबंध में ज्यादा से ज्यादा लोगों को इस बारे में जागरूक करने का आग्रह किया गया है। अभी दिल्ली में देश के विभिन्न भागों से कर्मचारियों की पुरानी पैन्शन योजना बहाल करने को लेकर किये प्रदर्शनों में भी विधायको/सांसदों को पैन्शन दिये जाने का प्रखर विरोध किया गया है। इन प्रदर्शनों में आरोप लगाया गया है कि यदि कोई व्यक्ति पहले पार्षद बनता है और पार्षद से विधायक तथा विधायक से सांसद बन जाता है तो वह व्यक्ति पार्षद विधायक व सांसद तीनो पैन्शनों का हकदार हो जाता है। इसी तरह पैन्शन के अतिरिक्त मिलने वाली अन्य सुविधाओं जिनमें 4% पर मकान बनाने के लिये मिलने वाले ऋण आदि का भी विरोध होना शुरू हो गया है। बल्कि यह पूछा जा रहा है कि क्या यह लोग सस्ता ऋण लेकर मकान आदि बनाते भी हैं या नहीं। या फिर इस ऋण का भी दुरूपयोग किया जा रहा है। कुल मिलाकर इस समय इन माननीयों का विरोध एक मुद्दा बनने जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय इस संद्धर्भ में आयी जनहित याचिकाओं पर क्या फैसला देता है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन इस उभरते विरोध से यह सवाल तो खड़ा हो ही गया है कि आखिर यह विरोध क्यों और इसका अन्तिम परिणाम क्या होगा।
 इस विरोध में यह सवाल उठाया जा रहा है कि क्या राजनीति एक नौकरी है या स्वेच्छा से अपनाई गयी जन सेवा है। नौकरी में व्यक्ति 58/60 वर्ष की आयु तक नौकरी करता है उसके बाद सेवानिवृत होकर वह पैन्शन का पात्र बनता हैं नौकरी के लिये उसे परीक्षा/साक्षात्कार आदि से गुजरना पड़ता है और प्रतिवर्ष उसके काम की एक रिपोर्ट लिखि जाती है। नौकरी में आने के लिये न्यूनतम/अधिकतम आयु और शैक्षणिक योग्यताएं तय रहती हैं। लेकिन इसके विपरीत सांसद/विधायक बनने के लिये अधिकतम आयु की कोई सीमा नही है और न ही न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता की कोई अनिवार्यता है। फिर यह लोग अपने वेतन भत्ते आदि स्वयं तय करते हैं। इस तरह की बहुत सारी चीजें हैं जिनके नियन्ता यह स्वयं होते है। नौकरी में तो सेवा से जुड़े कई नियम रहते है जिनकी अनुपालना न करने पर व्यक्ति को सज़ा दी जा सकती है। सेवा में व्यक्ति का काम तय रहता है और वह काम न करने पर व्यक्ति के खिलाफ कारवाई की जा सकती है। लेकिन इन माननीयों के लिये ऐसा कोई नियम या सेवा शर्त नही है जिसकी अनुपालना न करने पर इन्हे दण्डित किया जा सके। जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की जब अभिकल्पना की गयी थी तब इस तरह का किसी के विचार में ही नहीं आया है कि आने वाले समय में सांसद/विधायक बनना एक ऐसा पेशा बन जायेगा जिसमें एक ही आवश्यकता होगी कि आप जनता से वोट कैसे हासिल करते हैं। उसके लिये धन बल और बाहुबल दोनों का प्रयोग आप खुले मन से कर सकते हैं। इसी का परिणाम है कि आज राज्यों की विधान सभाओं से लेकर संसद तक में हर बार अपराधियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। ऐसे लोगों के सामने कानून और अदालत दोनों बौने पड़ते जा रहे हैं। चुनाव आयोग हर बार चुनाव खर्च की सीमा बढ़ा देता है जो किसी भी ईमानदार आदमी के लिये अपने जायज़ संसाधनों से जुटा पाना संभव नही है। राजनीतिक दल एकदम कारपोरेट घरानों की तर्ज पर काम कर रहे हैं। फिर चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों के चुनाव खर्च पर कोई सीमा नहीं लगा रखी है वह कुछ भी खर्च कर सकते है। अब चुनावी बाॅण्ड के माध्यम से कारपोरेट घरानों और राजनीतिक दलों में पैसा इक्क्ठा करना और भी आसान हो गया है। चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन आज तक दण्डनीय अपराध की श्रेणी से बाहर है। इसको लेकर चुनाव के बाद केवल चुनाव याचिका ही दायर की जा सकती है लेकिन ऐसी याचिका का फैसला कितने समय मे आ जायेगा यह कोई तय नही है। इस तरह आज चुनाव पैसे और अपराध तथा अयोग्यता का एक ऐसा गठजोड़ बन गया है जिसके प्रति पैन्शन आदि के विरोध के माध्यम से जनाक्रोश एक स्वर लेने लगा है।
विधायक/ सांसद कानून निर्माता माने जाते हैं क्योंकि संसद और विधानसभा ही कानून बनाती है। उच्च न्यायालय/सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों को केवल यह सदन ही बदल सकते हैं और पिछले दिनों यह सबकुछ देखने को मिला है। यही सदन और इनमें बैठे माननीय देश की आर्थिक और सामाजिक नीतियां तय करते हैं क्योंकि माननीयों को इसी काम के लिये चुनकर भेजा जाता है। इनकी बनाई हुई नीतियों से देश का कितना भला हो रहा है या आम आदमी का जीवन यापन और कठिन होता जा रहा है इसको लेकर कभी भी कोई सार्वजनिक चर्चा तक नहीं की जाती है। हां यह अवश्य देखने को मिलता है कि जो एक बार संसद/विधानसभा तक पहुंच जाता है उसकी कई पीढ़ीयों तक का आर्थिक भविष्य सुरक्षित हो जाता है। लेकिन आज आम आदमी इनकी नीतियों के कारण जिस धरातल तक पहुंच गया है वहां पर उसके पास इनके ऊपर नज़र रखने के अतिरिक्त और कोई बड़ा काम बचा नहीं है। क्योंकि आज आम आदमी मंहगाई और बेरोज़गारी से व्यक्तिगत रूप से प्रभावित होने लग पड़ा है। उसका यही प्रभावित होना भविष्य की रूपरेखा तय करेगा।

केन्द्र की नीतियों पर सीधा प्रश्न चिन्ह है यह चुनाव परिणाम

अभी हुए दो राज्यों के विधान सभा चुनावों में हरियाणा में भाजपा को जनता ने सरकार बनाने लायक बहुमत नही दिया है। महाराष्ट्र में भी 2014 से कम सीटें मिली हैं। अनय राज्यों में भी जहां जहां उप चुनाव हुए हैं वहां पर अधिकांष में सतारूढ़ सरकारों कें पक्ष में ही लोगों ने मतदान किया हैं । यह चुनाव पांच माह पहले हुये लोकसभा चुनावों के बाद हुए हैं और इनके परिणाम उनसे पूरी तरह उल्ट आये हैं। क्योंकि लोकसभा में हरियाणा की सभी दस सीटों पर भाजपा ने जीत हासिल की थी और इसी जीत के दम पर विधान सभा चुनावों में 90 में से कम से कम 75 सीटे जीतने का लक्ष्य घोषित किया था। अंबानी और अदानी की मलकीयत वाला मीडिया तो हरियाणा में कांग्रेस को चार पांच और महाराष्ट्र में आठ से दस सीटें दे रहा था। इसी मीडिया के प्रभाव में अधिकांश सोशल मीडिया भी इसी तरह के आकलन परोसने लग गया था। ऐसा शायद इसलिये था कि लोकसभा चुनावों में विपक्ष को ऐसा अप्रत्याशित हार मिली थी जिसका किसी को भी अनुमान नही था। इस हार से विपक्ष एक तरह से मनोवैज्ञानिक तौर पर ही हताशा में चला गया था। एक बार फिर विपक्षी दलों के लोग पासे बदलने लग गये थे।  इसी के साथ ईडी और सीबीआई की सक्रियता भी बढ़ गई कई महत्वपूर्ण नेताओं को जेल के दरवाजे दिखा दिये गये। कुल मिलाकर नयी स्थिति यह उभरती चली गई कि भाजपा अब कांग्रेस मुक्त नही बल्कि विपक्ष मुक्त भारत का सपना देखने लग गई थी । विपक्ष की एकजुटता की संभावनाएं पूरी तरह ध्वस्त हो गई थी। कांग्रेस में राहूल गांधी एक तरह से हार के बाद अकेले पड़ गये थे क्योंकि हार कि जिम्मेदारी लेने के लिये पार्टी का कोई भी बड़ा नेता उनके साथ खड़े नही हुआ। राहूल को अकेले ही यह जिम्मेदारी लेनी पड़ी और त्याग पत्र देना पड़ा। इस त्याग पत्र के बाद कांग्रेस के ही कई नेता अपरोक्ष में उनके खिलाफ मुखर होने लग गये थे। अन्य विपक्षी दल तो एकदम पूरे सीन से ही गायब हो गये थे। भाजपा संघ को कोई चुनौती देने वाला नजर नही आ रहा था।

भाजपा ने इसी परिदृश्य का लाभ उठाते हुये तीन तलाक विधेयक को फिर से संसद में लाकर पारित करवा लिया। इसके बाद जम्मू- कश्मीर से धारा 370 और 35 A को हटाकर जम्मू- कश्मीर को दो केन्द्र शासित राज्यों में बांट दिया। पूरी घाटी में हर तरह के नीगरिक प्रतिबन्ध लगा दिये गये। पूरा प्रदेश एक तरह से सैनिक शासन के  हवाले कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने भी नागरिक अधिकारों के हनन को लेकर आयी याचिकाओं पर तत्काल प्रभाव से सुनवाई करने से इन्कार कर दिया। जिन बुद्धिजीवियों ने भीड़ हिसां के खिलाफ राष्ट्रपति को सामूहिक पत्र लिखकर अपना विरोध प्रकट किया था उनक खिलाफ पटना में एक अदालत के आदेशों पर एफ आई आर तक दर्ज कर दी गयी। इससे सार्वजनिक भय का वातावरण और बढ़ गया। नवलखा के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के करीब आधा दर्जन न्यायाधीशों द्वारा मामले की सुनवाई से अपने को अलग करना न्यायपालिका की भूमिका पर अलग से सवाल खड़े करता है। धारा 370 हटाने पर विश्व समुदाय के अधिकांश देशों द्वारा समर्थन का दावा इसी का परिचायक था कि ‘‘ King does no Wrong ’’  स्वभाविक है कि जब इस तरह के एक पक्षीय राजनीतिक वातावरण में कोई चुनाव आ जाये तो उनके परिणाम भी एकतरफा  ही रहने का दावा करना कोई आश्चर्यजनक नही लगेगा।
ऐसे राजनीतिक परिदृश्य क बाद भी यदि जनता हरियाणा जैसे जनादेश दे तो यह अपने में एक महत्वपूर्ण चिन्तन का विषय बन जाता है। जब सब कुछ सता पक्ष क पक्ष में जा रहा था तो ऐसा क्या घट गया कि जनता विपक्ष के अभाव में भी ऐसा जनादेश देने पर आ गई। इसकी अगर तलाश की जाये तो यह सामने आता हैं कि राजनीतिक फैसलों का मुखौटा ओढ़कर जो आर्थिक फैसले लिये वह जनता पर भारी पड़ गये। जो सरकार चुनाव की पूर्व सन्धया पर किसानों को छः छः हजार प्रतिवर्ष देकर लुभा रही थी उसे सरकार बनते ही रिजर्व बैंक से 1.76 लाख करोड़ लेना पडा इसके बाद 1.45 लाख करोड़ का राहत पैकेज कारपोरेट जगत को देना पड़ा और इसक बावजूद भी आर्थिक मन्दी में कोई सुधार नही आ पाया। आटोमोबाईल और टैक्सटाईल क्षेत्रों में कामगारों की छटनी नही रूक पायी उनके उतपादो की बिक्री नही बढ़ पायी। रेलवे बी एस एन एल और एम टी एन एल मे विनिवेश की घोषणाओं से रोजगार के संकट उभरने के संकेतो से एकदम महंगाई का बढ़ना आम आदमी क लिये काफी था। उसे इतनी बात तो समझ आ ही जाती है कि मंहगाई और बेरोजगारी पर नियन्त्रण रखना हमेशा समय का सतारूढ़ सरकार का दायित्व होता है। जिसमें यह सरकार लगातार असफल होती जा रही है। आर्थिक क्षेत्र की असफलताओं का ढकने के लिये जब प्रधानमंत्री ने विधान सभा चुनावों में विपक्ष को यह कह कर चुनौति दी कि यदि उसमें साहस है तो वह 370 का फिर लागू करने का दावा करे। इन विधान समभा चुनावों में धारा 370 विपक्ष का कोई मुद्दा ही नही था क्योंकि इसका चुनावों के साथ कोई सीधा संबंध ही नही था। लेकिन प्रधानमंत्री का विपक्ष को इस मुद्दे पर लाने का प्रयास करना ही यह स्पष्ट करता है कि सता पक्ष के पास अब ऐसा कुछ नही बचा  है जो आर्थिक मन्दी पर भारी पड़ जाये । क्योंकि सारे धर्म स्थलों को भी यदि राम मन्दिर बना दिया जाये और सारे गैर हिन्दु भी यदि हिन्दु बन जाये तो भी बेरोजगारी और मंहगाई से जनता को निजात नही मिल पायेगी। क्योंकि 3000 करोड़ खर्च करके पटेल की प्रतिमा स्थापित करने से यह समस्याएं हल नही हो सकती यह तह है।
इस परिदृश्य में यह स्पष्ट हो जाता है कि आज के आर्थिक परिवेश ने हर आदमी को हिलाकर रख दिया है। आम आदमी जान चुका है कि कल तक स्वदेशी जागरण मंच खडा करके एफ डी आई का विरोध करने वाला सता पक्ष जब रक्षा जैसे क्षेत्र में एफ डी आई को न्योता दे चुका है तो यह प्रमाणित हो जाता है कि यह सब उसकी राजनीतिक चालबाजी से अधिक कुछ नही था। जंहा वैचारिक विरोध को देशद्रोह की संज्ञा दी जायेगी तो ऐसी राजनीतिक मान्यताएं ज्यादा देर तक टिकी नही रह सकती हैं। आज देश की सबसे बड़ी प्रशासनिक सेवा के अधिकारी भी इस तरह के मुद्दों पर मुखर होने लग गये हैं और केन्द्र सरकार से उन अधिकारियों को केंन्द्र से वापिस राज्यों में भेजना शुरू  कर दिया है जो आंख बन्द करके उसकी  हां में हां मिलाने को   तैयार नही है। आज विपक्ष को इन उभरते संकेतों को समझने और अपनी हताशा से बाहर निकलने की आवश्यकता है। क्योंकि पांच माह में ही इस तरह का खंडित जनादेश किसी भी गणित में सता के पक्ष में नही जाता है शायद इसीलिये प्रधानमंत्री को हरियाणा और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्रीयों के साथ खड़ा होना पड़ा है कि कहीं वह इस जनादेश का ठिकरा केन्द्र के सिर न फोड़ दें।

 

 

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