Friday, 19 September 2025
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नागरिकता के मुद्दे पर क्या मोदी-शाह में मतभेद है

नागरिकता संशोधन अधिनियम पर उभरा जन विरोध देश के कई भागों में फैल गया है। सभी जगह शाहीन बाग की तर्ज पर धरना प्रदर्शन शुरू हो गये हैं। गैर भाजपा शासित राज्यों ने अधिकांश में वाकायदा अपनी-अपनी विधान सभाओं में इसके खिलाफ प्रस्ताव पारित करके इसे अपने राज्यों में लागू न करने के फैसले किये हैं। यह एक अपनी ही तरह की स्थिति बन गयी है जहां राज्य केन्द्र में टकराव पैदा हो गया है। केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा का यह तर्क है कि उसे जनता ने अपना समर्थन देकर सत्ता सौंपी है और वह उसी समर्थन के आधार पर यह फैसले ले रही है। सरकार ने स्पष्ट कहा है कि वह किसी भी दबाव के आगे नही झूकेगी और एनआरसी, एनपीआर तथा सीएए पूरे देश में लागू होगे। लेकिन इसमें एक रोचक तथ्य यह भी सामने है कि इन मुद्दों पर प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और उनके गृहमन्त्री अमित शाह दोनों अलग-अलग बात कर रहे हैं। इनमें से कौन झूठ बोल रहा है और कौन सच या यह दोनों ही रणनीति के तहत परस्पर विरोधी ब्यान दे रहे हैं यह तो आने वाले समय में पता चलेगा। लेकिन इन ब्यानों से स्थिति और उलझ गयी है। संभवतः इन्ही ब्यानों के कारण गैर भाजपा शासित राज्यों ने इसके विपरीत फैसला लिया है। क्योंकि जिस जनता ने केन्द्र में भाजपा को सत्ता सौंपी है उसी ने राज्यों में गैर भाजपा दलों को सत्ता दी है। भारत राज्यों का संघ है और इस नाते राज्य के लोगों के हितों की रक्षा करना उसका अधिकार ही नही बल्कि कर्तव्य है। फिर अभी तक भारत संविधान के तहत धर्मनिरपेक्ष राज्य है हिन्दु राष्ट्र नही है।
राज्यों और केन्द्र में उभरा यह टकराव कहां तक जायेगा और इसका अन्त क्या होगा यह कहना अभी आसान नही है लेकिन यह तय है कि इससे देश का बहुत नुकसान हो जायेगा। सरकार अपने स्टैण्ड पर अढ़िग है तो इसके विरोधीयों के पास आन्दोलन के अतिरिक्त और कोई विकल्प नही है। सर्वोच्च न्यायालय में जिस तरह की याचिकाएं इसके विरोध में आ चुकी हैं उनमें प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी, गृहमन्त्री अमितशाह और अन्य नेताओं के परस्पर विरोधी ब्यानों का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। क्योंकि इन ब्यानों से यही झलकता है कि या तो मोदी के अपने मन्त्रीयों से सही में अन्दर से मतभेद पैदा हो गये हैं या फिर सब मिलकर जनता को उलझाने का सुनियोजित प्रयास कर रहे हैं। हकीकत कोई भी हो दोनों ही स्थितियां देश के लिये घातक हंै। संघ ने नागरिकता संशोधन और एनपीआर पर अभी तक खुलकर कुछ नही कहा है केवल एनआरसी पर अपना स्टैण्ड स्पष्ट किया है कि ‘‘घर में अवैध रूप से घुस आये’’ को बाहर निकालना ही पड़ता है। यह पूरी स्थिति जिस तरह हर रोज़ जटिल होती जा रही है उसके आर्थिक और राजनीतिक परिणाम क्या होंगे यह अब चिन्ता और चिन्तन का विषय बनता जा रहा है। जब किसी सरकार को आरबीआई से रिजर्व धन लेने के बाद राष्ट्रीय संपतियां बेचने की नौबत आ जाये और रसोई गैस जैसी आवश्यक वस्तुओं के हर माह दाम बढ़ाने पड़ जायें तो एक साधारण नागरिक भी उसकी हालत का अन्दाजा लगा सकता है। क्योंकि तीन तलाक खत्म करने और धारा 370 हटाने के फैसले ऐसे नही रहे हैं जिन पर हजारों करोड ़का निवेश करना पड़ा हो। विदेशों में भारत की छवि क्या होगी इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि अमेरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को मंच तक जिस मार्ग से ले जाया जा रहा है उसके दोनों ओर सात फीट ऊंची दीवार खड़ी कर दी गयी है ताकि उन्हे सड़क किनारे बसे लोगों की झोंपड़ीयां नजर न आ सकें। जिस गुजरात में पन्द्रह वर्ष तक मोदी मुख्यमन्त्री रहे हैं उसी गुजरात में अगर विदेशी मेहमान को ऐसे मंच तक ले जाना पड़े तो मोदी के विकास माॅडल को समझने में देरी नही लगेगी। शायद इन्ही कारणों से वहां मोदी शासन में लोकायुक्त की नियुक्ति तक नही की गयी थी।
इस परिदृश्य में जो सवाल उभरते हैं उनमें सबसे पहले यह आता है कि यदि हिन्दु ऐजैण्डा नाम का कुछ भी है तो उसे अमलीशक्ल देने का समय कब है। क्योंकि 2014 से आज तक लोकसभा से लेकर राज्यों की विधानसभाओं तक किसी भी मुस्लिम को भाजपा द्वारा चुनावी टिकट न दिया जाना पार्टी की देश की दूसरी बड़ी जनसंख्या के प्रति सोच को स्पष्ट करता है। इसी सोच का परिणाम अब धार्मिक प्रताड़ना के नाम पर नागरिकता संशोधन अधिनियम के रूप में सामने आया है। संघ-भाजपा की मुस्लिम सोच के बारे में कहीं कोई संशय नही रह जाता है। इस कड़ी में दूसरा सवाल आता है कि एनआरसी, एनपीआर और सीएए को यदि सरकार वापिस नही लेती है और सर्वोच्च न्यायालय का फैसला भी राम मन्दिर की तर्ज पर ही आता है तो इसका राजनीतिक परिणाम क्या होगा। अभी दिल्ली चुनावों में स्पष्ट हो गया है कि इस सबसे भाजपा को नुकसान हुआ है। अभी आरक्षण में क्रीमीलेयर के मानदण्ड बदलने से ओबीसी कोटे में आईएएस में पास हुए 314 उम्मीदवारों के भविष्य पर तलवार लटक गयी है इससे ओबीसी और एससी, एसटी वर्गाें में रोष आ गया है। यदि इस सबमें मुस्लिम, ओबीसी और एससी इकट्ठे होकर एक राजनीतिक फ्रन्ट बन जायें तो इसका सीधा नुकसान भाजपा को होगा। संध-भाजपा भी इस तथ्य को समझते हैं और इन संभावित समीकरणों के फलस्वरूप वह सत्ता भी नही खोना चाहेंगे। अब तक जिस तरह का धु्रवीकरण धर्म के माध्यम से घट सका है इसका राजनीतिक लाभ भाजपा ले चुकी हैै। आगे सत्ता में बने रहने के लिये आर्थिक क्षेत्र में तो कोई क्रान्ति संभव नही लग रही है इसलिये एक बार फिर बड़े स्तर का धु्रवीकरण नियोजित करना होगा। जिस तरह का राष्ट्रवाद पुलवामा और बालाकोट के प्रसंग में उभरा था वैसा ही राष्ट्रवाद अब पीओके पर कोई कारवाई करके ही उभारने का प्रयास किया जा सकता है।  कुछ हिन्दु ऐजैण्डा समर्थक इस तरह की भाषा बोलने भी लग गये हैं। इनकी भाषा का अगर विश्लेषण किया जाये तो यह संकेत उभर रहे हैं कि नागरिकता संशोधन अधिनियम पर उभरे विरोध को बढ़ाये रखने के लिये हिन्दु राष्ट्र के ऐजैण्डा को संसद के माध्यम से लागू कर दिया जाये। इस पर विरोध को पीओके पर कारवाई करके एक अलग जमीन दे दी जाये। इसी पृष्ठभूमि में ‘‘एक देश एक चुनाव’’ का हथियार चलाकर संसद और विधानसभाओं को भंग करके जनता को नये सिरे से फैसले की परीक्षा में डाल दिया जाये। ऐसा इसलिये लग रहा है कि न तो सरकार अपना फैसला वापिस ले रही है और न ही आन्दोलन रूक रहा है ऐसे में सत्ता में बने रहने के लिये इसी तरह का प्रयोग शेष बचता है। अन्यथा जिस तरह का जनाक्रोश लगातार बढ़ता जा रहा है उसमें सत्ता में बने रहना कठिन हो जायेगा। फिर आज मोदी और उनके मन्त्री इन मुद्दों पर अलग-अलग भाषा बोल रहे हैं उसमें अन्ततः यही सामने आयेगा कि मोदी के संघ तथा अपने सहयोगियों से सही में मतभेद गहराते जा रहे हैं। मेरा मानना है कि अगले दो तीन माह के भीतर देश के अन्दर कुछ महत्वपूर्ण घटेगा। क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय भी अभी अस्पष्टता में ही उलझा हुआ है।

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