Wednesday, 17 December 2025
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क्या बैंको में आम आदमी का पैसा सुरक्षित है?

पिछले कुछ अरसे से देश की आर्थिक स्थिति लगातार चिन्तन और चिन्ता का विषय बनी हुई है। जब से पी एम सी और लक्ष्मी विलास बैंक के कारोबार पर आरबीआई ने रोक लगायी तब से यह चिन्ता और बढ़ गयी है। लोगों में यह भय व्याप्त हो गया है कि बैकों में रखा उनका पैसा सुरक्षित है या नहीं। बैंकों की यह स्थिति लगातार बढ़ते एनपीए और फ्राड की घटनाओं के कारण हो रही है। संसद के मानसून सत्र में यह आंकड़ा सामने आ चुका है कि बैंकों का साढ़े आठ लाख करोड़ का एनपीए राइट आॅफ कर दिया गया है। इसी के साथ यह भी सामने आया है कि मोदी सरकार के कार्यकाल में अब तक करीब पौने दो लाख करोड़ के बैंक फ्राड घट गये हैं जबकि डा.मनमोहन सिंह की सरकार में 2009 से 2014 तक कुल 29000 हजार करोड़ के बैंक फ्राड हुए हैं। लेकिन इसकी तुलना में मोदी सरकार में तो वित्तिय वर्ष 2019 -20 के पहले तीन माह में ही 31000 करोड़ से कुछ अधिक के फ्राड घट गये हैं। लेकिन मोदी सरकार लोगों की इस चिन्ता को लेकर कोई आश्वासन नही दे पा रही है। आरबीआई इस अस्पष्ट स्थिति के कारण आर्थिक विकास दर का कोई एक लक्ष्य तय नही कर पायी है। इसी कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण ही सरकार को रिर्जव बैंक से सुरक्षित धन लेना पड़ा है और कारपोरेट जगत को 1.45 लाख करोड़ की कर राहत देनी पड़ी है। इसी के परिणामस्वरूप सरकार को अपने उपक्रम निजिक्षेत्र को देने की योजना बनानी पड़ी है। विनिवेश मंत्रालय इस काम पर लगा हुआ है। यह तय है कि जिस दिन बड़े उपक्रम प्राईवेट सैक्टर में चले जायेंगे तभी बड़े पैमाने पर नौकरियों का संकट सामने आयेगा।

देश व्यवहारिक रूप से इस संकट के दौर से गुज़र रहा है लेकिन अभी तक सरकार इस स्थिति को स्वीकार करने के लिये तैयार नही हो रही है। सरकार अभी भी देश को धारा 370 और 35 ए तथा तीन तलाक जैसे मुद्दों के गिर्द ही घुमाये रखने का प्रयास कर रही है। प्रधानमंत्री और गृहमन्त्री विधान सभाओं के चुनावों को भी इन्ही मुद्दों के गिर्द केन्द्रित रखने का प्रयास कर रहे हैं। क्योंकि बढ़ती बेरोज़गारी और मंहगाई के सामने सरकार के पास और कुछ भी आम आदमी के सामने परोसने के लिये नहीं है। बेरोज़गारी और मंहगाई दो ऐसे मुद्दे हैं जो देश की 90ः आबादी को सीेधे प्रभावित करते हैं। सरकार आर्थिक स्थिति के लिये अभी कांग्रेस को ही दोषी ठहराने का प्रयास कर रही है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश को सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी बहुत कुछ ब्यान कर जाती है कि वहां पर सरकार नही जंगल राज है।
इस परिदृश्य में यह सवाल अब लगातार चर्चा का विषय बनता जा रहा है कि आखिर इस सबका अन्त होगा क्या। आर्थिक मंदी से निकट भविष्य में बाहर निकलने की कोई संभावना नहीं दिख रही है। क्योंकि सरकार का हर उपाय केवल उद्योगपति को ही लाभ पहुंचाता नजर आ रहा है इससे उपभोक्ता की हालत में कोई सुधार नही हो रहा है बल्कि जब उत्पादक को कर राहत दी जाती है तो उससे सरकारी कोष को ही नुकसान पहुंचता है क्योंकि सरकार को मिलने वाले राजस्व में कमी आ जाती है। इस कमी को पूरा करने के लिये आम आदमी की जमा पूंजी पर ब्याज दरें कम कर दी जाती है 2014 से ऐसा लगातार हो रहा है। हर आदमी को ब्याज दरें घटने से नुकसान हुआ है। राजनीतिक दल इस पर खामोश बैठे हुए हैं क्योंकि विरोध के हर स्वर को देशद्रोह करार दिया जा रहा है। जब इकबाल की प्रार्थना मदरसे में गाये जाने पर सज़ा दी जा सकती है तो फिर उससे आगे कुछ भी बोलने को शेष नहीं रह जाता है। आज राजनीतिक दलों से ज्यादा तो आम आदमी की सहन शक्ति परीक्षा की कसौटी पर आ गयी है। क्योंकि जब आम आदमी की बैंकों में रखी जमा पंूजी पर असुरक्षा की तलवार लटक जाती है तब उसके पास व्यवस्था के खिलाफ खड़ा होने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता है। न्यायपालिका जब सरकार के खिलाफ यह टिप्पणी करने लग जाये कि वहां पर कानून और व्यवस्था की जगह अराजकता ने ले ली है तब आम आदमी का विश्वास का अन्तिम सहारा भी चूर चूर हो जाता है। आज दुर्भाग्य से देश उसी स्थिति की ओर धकेला जा रहा है जो आजादी से पहले थी तब भी देश की पंूजी कुछ ही लोगों के हाथों में केन्द्रित थी और आज भी वैसा ही होने जा रहा है।

 

विपक्ष अभी भी हताशा में क्यों

लोकसभा चुनावों में पूरे विपक्ष को जिस तरह की शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है शायद उसकी उम्मीद सत्ता पक्ष के अतिरिक्त किसी को भी नही थी। यह हार इतनी अप्रत्याशित थी कि इसके कारणों की औपचारिक समीक्षा तक कोई दल नही कर पाया है। इस समीक्षा के अभाव का ही परिणाम है कि विपक्ष अब तक न तो सामूहिक तौर पर और न ही अपने-अपने तौर पर कोई आन्दोलन खड़ा कर पाया है। लोकसभा चुनावों से पहले पूरा विपक्ष ईवीएम के मुद्दे पर एक था। चुनाव आयोग से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक में सबने इकट्ठे दस्तक दी थी। आज देश आर्थिक मंदी के ऐसे दौर से गुजर रहा है जिसमें सरकार द्वारा रिजर्व बैंक से 1.76 लाख करोड़ लेकर बाजार में डालने और फिर 1.45 लाख करोड़ की कर राहत कारपोरेट जगत को देने के बावजूद स्थिति संभलने की बजाये और बिगड़ गयी है। बीएसएनएल, एमटीएनएल और रेलवे को बड़े पैमाने पर विनिवेश करने की तैयारी की जा रही है इस आश्य की घोषणाएं कभी भी सुनने को मिल सकती हैं। इस सबका परिणाम नौकरियां जाने और मंहगाई के बढ़ने के रूप में सामने आयेगा। आम आदमी की बचतों और एफडी पर ब्याज दरें कम होती जा रही हैं जिसका सीधा प्रभाव उसकी क्रय शक्ति पर पड़ेगा। नोटबंदी से भिखारी से लेकर अमीर तक सभी का सारा पैसा बैंकों के पास आ गया था और नोट बदलते समय सारा पैसा एकमुश्त वापिस भी नही मिला था। जब सारा पैसा नोटबंदी के माध्यम से बैंकों के पास आ गया था तो फिर अब अचानक यह पैसा चला कहां गया? निवेश के लिये आरबीआई से लेने और काॅरपोरेट जगत को कर राहत देने की नौबत क्यों और कैसे आ गयी? यह सब बहुत गंभीर सवाल हैं जिनका असर तो हर आदमी पर पड़ रहा है परन्तु हर आदमी की समझ से यह सब बाहर है।

 ‘‘ऐसे मुद्दे जो प्रभावित तो सबको करें परन्तु सबकी समझ न आ सके’’ जब समाज में ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है तब राजनीतिक दलों की आवश्यकता और उनकी भूमिका महत्वूपर्ण हो जाती है। क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में आम आदमी को उसी के हाल पर छोड़ देने से काम नही चलता। ऐसी वस्तुस्थिति में पूरी निष्पक्षता के साथ यह आकलन करना पड़ता है कि जो घट रहा है वह कहीं नीतियों की कुटिलता का परिणाम है या नीतियों में ना समझी का प्रतिफल है। क्योंकि नासमझी को तो समझ से दूर किया जा सकता है। जबकि कुटिलता पूरी समझ के साथ, नीयत के साथ की जाती है। ऐसी कुटिलता को जायज ठहराने के लिये साम, दाम, दण्ड और भेद जैसी सारी चाले चली जाती हैं। इस कुटिलता और नासमझी में विवेक करना ही राजनीतिक दलों का धर्म और कर्तव्य है। लेकिन आज विपक्ष इस मानदण्ड पर खरे नही उतर रहे हैं। बल्कि पूरी तरह विमुखनजर आ रहे हैं। ऐसे में यह सवाल उठना भी स्वभाविक है कि ऐसा क्यों हो रहा है। क्या विपक्ष मनोवैज्ञानिक तौर पर ही हताश या निराश हो गया है या उसमें वैचारिक विश्लेषण का संकट आ खड़ा हुआ है। इस संद्धर्भ में यह भी ध्यान में रखना आवश्यक है कि भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले ही देश को कांग्रेस मुक्त करने का लक्ष्य घोषित कर दिया था जो शायद 2019 के चुनावों के बाद विपक्ष मुक्त भारत बन गया है। देश कांग्रेस मुक्त हो जाये या विपक्ष मुक्त यह इतना महत्वपूर्ण नही है इसमें महत्वपूर्ण यह है कि इसमें आम आदमी कहां खड़ा होगा।
 इस समय मंहगाई का आलम यह है कि जिस प्याज को लेकर कभी नरेन्द्र मोदी ने ही यह तंज कसा था कि अब प्याज को तिजोरी में रखना पड़ेगा आज वही प्याज उन आंकड़ों से भी आगे निकल गया है लेकिन कहीं से कोई संगठित विरोध सामने नही आ रहा है। जिस व्यवस्था में भीड़ हिंसा पर सवाल उठाने के लिये अदालत सवाल उठाने वालों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के आदेश दे वहां की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। जब देश के कानून मंत्री आर्थिक मंदी को फिल्म की कमाई के तराजू पर तोलने लगे तो उसकी मानसिकता का अनुमान लगाया जा सकता है। जहां विरोध को दबाने के लिये ईडी और सीबीआई जैसी ऐजैन्सीयों का खुलकर उपयोग होने लगे वहां के हालात को समझना आम आदमी के बस की बात नही रह जाती है। सत्ता पक्ष के पास एक विचारधारा है यह विचारधारा भारत जैसे बहुविध समाज के लिये कितनी हितकर हो सकती है? विश्व की दूसरी बड़ी जनसंख्या वाले देश में निजि क्षेत्र के हवाले ही सब कुछ छोड़ देना कितना हितकर हो सकता है। इन सवालों पर आज साहस पूर्ण सार्वजनिक बहस की आवश्यकता है लेकिन यह बहस अंबानी और अदानी के खरीदे हुए चैनलों के मंच से संभव नही है। इसके लिये कांग्रेस जैसे बड़े दल को ही आगे आना होगा। कांग्रेस और उसके नेतृत्व को यह तय करना होगा कि उसके पास खुली लड़ाई लड़ने के अतिरिक्त और कोई विकल्प शेष नही रह गया है। इस लड़ाई के लिये एक बार फिर गांधी और नेहरू की वैचारिक विरासत को विस्तार देना होगा। कांग्रेस जनो और आम आदमी को यह समझना होगा कि नेहरू और डाक्टर प्रशांत चन्द्र महाल नोबिस ने विकास की जो परिकल्पना दूसरी पंचवर्षीय योजना में की थी आज भी वही अवधारणा प्रसांगिक है इस अवधारणा का मूल गांधी की विचारधारा थी कि जिस देश में मैन पावर जितनी अधिक होती है उसका मशीनीकरण बहुत सोच समझकर करना होता है। लाभ की अवधारणा पर आधारित विकास कालान्तर में समाज के लिये घातक होता है यह एक स्थापति सत्य है।

 

मोदी की अमरीका यात्रा के बाद दवाईयों की कीमतों मे बढौतरी क्यों

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अमरीका यात्रा के बाद नैशनल न्यूज चैनल ने एक वीडियो जारी किया है। इस वीडियो में प्रधानमन्त्री मोदी के साथ ब्रेकफास्ट में अमरीका की कुछ कंपनीयों के सीईओ शामिल हैं। न्यूज चैनल के खुलासे के मुताबिक यह सीईओ वहां की कुछ दवा निर्माता कंपनीयों के हैं और इनकी कंपनीयां भारत की कुछ कंपनीयों के साथ मिलकर भारत में भी कारोबार कर रही हैं। चैनल के खुलासे के अनुसार प्रधानमन्त्री की इस यात्रा के बाद इन कंपनीयों द्वारा बनाई जा रही 108 दवाईयों के दाम भारत में मंहगे हो गये हैं। मंहगाई का स्तर यह हो गया है कि कैंसर की जो दवाई पहले 8500 रूपये में मिलती थी अब उसकी कीमत एक लाख आठ हजार हो गयी है। ऐसे ही अन्य दवाईयों में भी कई गुणा बढ़ौत्तरी हुई है। यदि चैनल का खुलासा सही है तो अब गंभीर बिमारियों का ईलाज करवा पाना आम आदमी के बस के बाहर हो जायेगा। चैनल में दिखाये गये वीडियो का कोई खण्डन भारत सरकार द्वारा नही किया गया है और खण्डन न होने से इस वीडियो और उससे जुड़े खुलासे को सही मानने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नही रह जाता है। क्योंकि इन सीईओज़ के साथ प्रधानमन्त्री के ब्रेकफास्ट को सारे प्रशंसक चैनलों ने भी एक बड़ी उपलब्धि के रूप में दिखाया हुआ है। इन चैनलों ने इसके पीछे का सच नही दिखाया था अन्तर सिर्फ इतना ही है।
प्रधानमन्त्री की अमरीका यात्रा और यूएन में उनके भाषण के बाद कुछ चैनलों ने मोदी जी को विश्व विजेता और फादर आफ नेशन तक के संबोधन दिये हैं। इन चैनलों की राय ऐसी हो सकती है और उन्हे ऐसी राय रखने का अधिकार भी है। मैं उनके इस अधिकार पर कोई आपति नही उठा रहा हूं भले ही ओवैसी ने फादर आॅफ नेशन पर अपनी आपति दर्ज कराई है। मेरा यहां पर मोदी जी और उनके प्रशंसक चैनलों से इतना ही आग्रह है कि मोदी और ट्रंप की घनिष्ठ दोस्ती सबके सामने आ चुकी है। यदि इस दोस्ती के लाभ के रूप में ट्रंप भारतीय निर्यात पर लगाये गये उस शुल्क को वापिस ले लेते जिसके कारण देश के व्यापार को 38000 करोड़ का नुकसान उठाना पड़ा हैं मैं यह आग्रह इस आधार पर कर रहा हूं कि जब मोदी जी ट्रंप के लिये ‘‘अब की बार ट्रंप सरकार ’’ का वातावरण बनाकर आये हैं और मोदी के इस नारे पर अमेरीकी भारतीयों ने भी अपनी मोहर लगा दी है तो बदले में देश को यह राहत तो मिलनी ही चाहिये थी। क्योंकि ऐसे अवसर बार-बार नही मिलते हैं और अब ट्रंप के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया भी शुरू हो गयी है और उससे यह आशंका बढ़ भी गयी है।
मोदी जी ने इस यात्रा में यू एन को संबोधित करते हुए पूरे विश्व को यह बताया है कि भारत में सब कुछ अच्छा है। विश्व को यही बताया जाना चाहिये था। इमरान खान ने यू एन में अपने 50 मिनट का भाषण में कश्मीर को लेकर जो कुछ विश्व को बताया है उसका व्यवहारिक जवाब मोदी जी को अपने देश में अपने आचरण से देना होगा। कश्मीर के हालात क्या हैं उसके बारे में देशवासी अपने तौर पर जानते हैं। देशवासी जानते हैं कि प्रधानमन्त्री का यू एन संबोधन शेष विश्व के लिये था। देश जानता है कि कश्मीर में अभी तक भी प्रतिबन्ध यथास्थिति बने हुए हैं। वहां कालेज और विश्वविद्याालय अभी तक बन्द चल रहे हैं। अभी भी संचार सेवायें पूरी तरह बहाल नहीं हुई हैं। फारूख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी पर गृहमन्त्री के संसद में ब्यान और बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका के बाद आये ब्यान में विरोधाभास खुल कर सामने आ चुका है। बंदी प्रत्यक्षीकरण पर मसूद अहमद भट्ट को लेकर उसकी पत्नी की याचिका पर जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय के जस्टिस अली मोहम्मद मैगरे के 25-9-19 को सुनाये फैसले से वहां प्रशासन की कार्यप्रणाली पर बहुत ही गंभीर सवाल खड़े हो जाते हैं। अदालत ने भट्ट की तुरन्त रिहाई के आदेश दिये हैं। दो नाबालिगों को भी इसी तरह बंदी बनाये जाने पर उच्च न्यायालय ने जम्मू कश्मीर सरकार से जवाब तलब किया है। ऐसे दर्जनों मामले जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक आये हुए हैं। ऐसे मामलों को देर तक लंबित रखने से अदालत की साख पर भी प्रश्न चिन्ह लगने की स्थिति आ जायेगी। भाजपा ने जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाये जाने के औचित्य को देश की जनता को समझाने के लिये पिछले दिनों संगठन की जिम्मेदारी लगाई थी और संगठन ने ऐसा हर राज्य में किया भी है। माना जा रहा है कि संगठन के इस प्रयास के बाद राज्य में हालात एकदम सामान्य हो जायेंगे और वहां से हर तरह के प्रतिबन्ध हटा लिये जायेंगे। लेकिन ऐसा हो नहीं सका है जिससे साफ हो जाता है कि इस सम्बन्ध में दिया जा रहा स्पष्टीकरण पूरी तरह लागों के गले नहीं उतर रहा है।
इस परिदृश्य मे यह सवाल उठना स्वभाविक है कि यह सब कुछ कब तक ऐसे चलता रहेगा और इसका अन्तिम परिणाम क्या होगा। आज जिस तरह से भ्रष्टाचार के नाम पर ई.डी. और सी.बी.आई. की सक्रियता कुछ विधानसभा चुनाव की पूर्व संध्या पर बढ़ती नज़र आ रही है उससे भी जनता में कोई अच्छा संकेत नहीं जा रहा है। क्योंकि आजम खान के मामले में बकरी चोरी, किताब चोरी और पेड़ चोरी जैसे आरोप लगने से संवद्ध प्रशासन की कार्यशैली पर ही सवाल उठने लगे हैं। चिन्मयानन्द के मामले में पीड़िता लड़की का जेल में होना इन्हीं सवालों की कड़ी को आगे बढ़ाता है। इसलिये आवश्यक है कि सारे राजनैतिक पूर्वाग्रहों को छोड़कर सारी वस्तुस्थिति पर समय रहते निष्पक्षता से विचार कर लिया जाये।

उत्पादक की क्षमता से पहले उपभोक्ता की क्रय शक्ति बढ़ानी होगी

इस समय देश एक ऐसे दौर से गुज़र रहा है जहां किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिये ज्यादा देर तक तटस्थता की भूमिका में रह पाना संभव नही होगा। जिस तरह से आर्थिक मंदी और उससे निपटने के उपाय सामने आ रहे हैं उनसे हर आदमी सीधे तौर से प्रभावित हो रहा है। भले ही वह उस प्रभाव के बारे में सजग है या नही। क्योंकि इस आर्थिक मंदी से उत्पादन का हर क्षेत्र प्रभावित हुआ है और उसका सीधा प्रभाव रोज़गार पर पड़ा है। करोड़ो लोग परोक्ष/अपरोक्ष रूप से बेरोज़गार हुए हैं। सरकार ने इस कड़वे सच को स्वीकारते हुए उद्योगों को 1.45 लाख करोड़ की राहत प्रदान की है। यह राहत जीएसटी और कुछ अन्य टैक्सों की दरें कम करने के रूप में दी गयी है। इस राहत से सरकारी कोष में 1.45 लाख करोड़ के राजस्व की कमी आयेगी। यह कमी कैसे पूरी की जायेगी इसका कोई विकल्प सीधे रूप में सामने नहीं रखा गया है। माना जा रहा है कि इस कमी को विनिवेश के माध्यम से पूरा किया जायेगा जिसका अर्थ होगा कि कुछ और सरकारी संपत्तियों को नीजिक्षेत्र को सौंपा जायेगा। क्योंकि जीएसटी के माध्यम से जितना राजस्व आने की उम्मीद थी उसमें भी करीब दो लाख करोड़ की कमी रहने की उम्मीद है। सरकार 1.45 लाख करोड़ की राहत की घोषणा से पहले ही आरबीआई से 1.76 लाख करोड़ ले चुकी है। अब इस राहत के बाद स्वभाविक है कि राजस्व में कमी आयेगी इसलिये सरकार इस कमी को कहां से कैसे पूरा करेगी और इसका आम आदमी पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह पहला सवाल है।
सरकार की 1.45 लाख करोड़ की राहत के साथ बाज़ार में खुशी की लहर देखने को मिली है। बाज़ार में निवेश में एकदम उछाल आया है। इस राहत से उत्पादन में जो कमी आयी थी वह रूक जायेगी उसमें बढ़ौत्तरी भी आ जायेगी और रोज़गार जाने का जो संकट पैदा हो गया था उसमें भी कुछ रोक लग जायेगी। मोटर गाड़ियां और हाऊसिंग का निर्माण फिर पुरानी चाल पर आ जायेगा यह माना जा रहा है। लेकिन इस सबसे खरीद पर भी असर पड़ेगा इसको लेकर संशय है। बाज़ार में 55 हजार करोड़ की गाड़ियां पहले से मौजूद हैं लेकिन उन्हे खरीदने वाला कोई नहीं था इसलिये आटोमोबाईल क्षेत्र में मंदी आयी थी। इसी तरह बाज़ार में 18 लाख घर बनकर तैयार हैं परन्तु लेने वाला कोई नही है। मंदी की तो परिभाषा ही यह है कि आपके पास बेचने के लिये तो सामान तैयार है परन्तु लेने वाला कोई नही हैं। इसका पता इसी से चल जाता है कि आरबीआई पांच बार ऋण की ब्याज दरों पर कटौती की घोषणाएं कर चुका है। यह घोषणाएं यह प्रमाणित करती है कि निवेशक और उपभोक्ता दोनो ही ऋण लेने से कतरा रहे हैं। क्योंकि दोनों के पास ऋण वापिस करने के पर्याप्त साधन नही हैं और बैंक भी एनपीए का और बोझ उठाने की स्थिति में नही हैं।
इस परिदृश्य में यह सवाल उठता है कि आखिर यह हालात पैदा क्यों और कैसे हो गये? क्या सरकार की प्राथमिकताएं अव्यवहारिक हो गयी हैं। सरकार जब छोटे किसानों और दुकानदारों को पैन्शन तथा गरीबों को ईलाज के लिये आयुष्मान भारत जैसी योजनाएं लाने की बात करती है तो इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह मानती है कि उसकी योजनाओं से समाज के इस वर्ग का जीवन यापन कठिन हो गया है। यह वर्ग सरकार की योजनाओं के गुण दोषों का आकलन करने न लग जाये इसलिये उसे इस तरह की राहतें देकर कुछ समय के लिये शांत रखने का उपाय किया गया है। लेकिन यहां यह सवाल उठता है कि आखिर ऐसा कब तक किया जा सकता है। आज एक वर्ग को 1.45 लाख करोड़ की राहत देकर मंदी से बाहर निकालने का उपाय किया गया है लेकिन जिस ढंग से सरकारी निकायों का विनिवेश किया जा रहा है और सभी सरकारी उपक्रमों के 75% सरप्लस संसाधनों को समेकित निधि में शामिल करने के लिये आदेश किये जा चुके हैं क्या उससे आने वाले समय में यह सरकारी उपक्रम स्वतः ही बन्द होने की कगार पर नही आ जायेंगें तब बेरोज़गारों का एक और बड़ा वर्ग नहीं पैदा हो जायेगा? क्योंकि आज तो कोरपोरेट टैक्स घटाकर उद्योगपति को राहत दे दी गया है लेकिन उस राहत से उपभोक्ता की क्रय शक्ति नहीं बढ़ रही है और जिस तरह की योजनाएं चल रही हैं उससे यह क्रय शक्ति भविष्य में भी बढ़ने की कोई संभावना नज़र नहीं आ रही है।
आम आदमी के पास आय के सामान्य संसाधन क्या रह गये हैं? आज भी देश की 70% आबादी कृषि पर निर्भर है और यह प्रमाणित सत्य है कि जब तक कृषि पर आत्मनिर्भरता नहीं बनेगी तब तक औद्यौगिक निर्भरता का कोई बड़ा अर्थ नहीं रह जाता है। कृषि पर आधारित किसान आत्महत्या करने पर मजबूर होता जा रहा है और उद्योगपत्ति हज़ारों करोड़ का एनपीए डकार कर भी सुरक्षित और सम्मानित घूम रहा है। नोटबंदी के पांच दिन बाद ही 63 अरबपतियों का 6000 करोड़ का कर्ज माफ कर दिया गया था। उसी दौरान की एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक कुछ अरबपति बैंकों का आठ लाख करोड़ डकार गये थे और मोदी सरकार ने इसमें से 1,14,000 करोड़ तो माफ कर दिये थे। उस समय केजरीवाल ने वाकायदा एक पोस्टर के माध्यम से यह आरोप लगाये थे लेकिन आजतक इन आरोपों का कोई जवाब नही आया है। ऐसे ही कई और आरोप हैं जिनके जवाब नही आये हैं जिनमें कपिल सिब्बल का जाली नोटों को लेकर लगाया गया आरोप बहुत ही गंभीर है। आरोपों का जब सार्वजनिक रूप से जवाब नही आता है और न ही आरोप लगाने वाले के खिलाफ कोई कारवाई की जाती है तब आम आदमी के पास आरोपों को सच मानने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता है। आज सरकार इसी कगार पर पहुंचती जा रही है। इसलिये आर्थिक मंदी को रोकने के लिये उत्पादक से पहले उपभोक्ता की क्रय शक्ति को बढ़ाने की आवश्यकता है। आर्थिकी एक ऐसा पक्ष है जिस पर हर आदमी अपनी-अपनी तरह चिन्ता और चिन्तन करता है क्योंकि भूखे आदमी के हर सवाल का जवाब केवल रोटी ही होता है।

भामाशाही अवधारणा का परिणाम है आर्थिक मंदी

इस समय देश आर्थिक मंदी के दौर से गुज़र रहा है क्योंकि मांग और उत्पादन दोनों में अचानक कमी आ गयी है। इस मंदी के कारण न केवल रोजगार पर असर पड़ा है बल्कि बहुत सारे छोटे और मध्यम स्तर के कामगारों का लगा हुआ रोजगार छिन गया है। आर्थिक मंदी का असर मंहगाई पर भी पड़ा है। किचन से लेकर स्कूल और स्वास्थ्य तक सभी क्षेत्रों में मंहगाई बढ़ी है। कई लोग देश की आर्थिक मंदी को वैश्विक मंदी से जोड़कर देख रहे हैं। कुल मिलाकर अभी तक इस मंदी के सार्वजनिक साधारण समझ में आने के कारण चिन्हित नहीं हो पाये हैं। क्योंकि आटोमोबाईल सैक्टर में आयी मंदी के लिये जब देश की वित्तमंत्री उबर और ओला जैसी सर्विस प्रदाता कंपनीयों को जिम्मेदार ठहरायेगी तो यह मानना पड़ेगा कि बीमारी का निदान सही नही है। उबर और ओला का आम आदमी के वाहन स्कूटर और किसान के खेत में चलने वाले ट्रैक्टर तथा माल ढोने वाले ट्रक के उत्पादन और उसकी बिक्री से कोई संबंध नही है। स्कूटर, ट्रैक्टर और ट्रक सबकी बिक्री में कमी आयी है। देश के तीस बड़े शहरों में अठाहर लाख मकान बिकने के लिये लम्बे अरसे से खड़े हैं लेकिन कोई खरीददार नही है।
सरकार ने इस मंदी से बाहर निकलने के लिये बाजार में अतिरिक्त पूंजी उपलब्ध करवाई है। बैंकों को ऋणों पर ब्याज दरें कम करने के आदेश किये हैं। इन आदेशों के बाद बैंकों ने ब्याज दरें कम भी की है लेकिन ऋणों पर ब्याज दरें कम करने के साथ ही लोगों की हर तरह की जमा पूंजी पर भी यह दरें कम हुई हैं। इसी के साथ सरकार ने आटो सैक्टर को उबारने के लिये सरकार द्वारा वाहन खरीद पर बल दिया है। क्या सरकार द्वारा नये वाहन खरीदने से यह उत्पादन में आयी मंदी दूर हो पायेगी इसको लेकर संशय बना हुआ है। क्योंकि आज केन्द्र से लेकर राज्य तक हर सरकार कर्ज के चक्रव्यूह में फंसी हुई है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि सरकार के पास पैसा कहां से आयेगा। सरकार ने बिल्डरों को राहत देते हुए उन्हें बीस हजार करोड़ की पूंजी उपलब्ध करवाई है। इस पूंजी से उन बिल्ड़रों को राहत दी जायेगी जिनके भवन निर्माण 60% तक हो चुके हैं लेकिन अगला काम पैसों के अभाव में रूक गया है। ऐसे 3.5 लाख निर्माण चिन्हित किये गये हैं जिन्हे इससे लाभ मिलेगा। इनके लिये शर्त रखी गयी है कि यह बिल्डर एनपीए में न आ गये हों और न ही अदालत में ऐसी कोई कारवाई चल रही हो। लेकिन पिछले दिनों यह आंकड़ा आया है कि इस समय देश के तीस बड़े शहरों में 18 लाख मकान तैयार खड़े हैं जिनके लिये कोई खरीददार सामने नहीं आ रहे हैं।
आज बाज़ार में हर क्षेत्र में मंदी का दौर चल रहा है कपड़ा उद्योग ने तो एक विज्ञापन छापकर अपनी मंदी की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया है। इस विज्ञापन के अनुसार अकेले कपड़ा उद्योग में ही परोक्ष-अपरोक्ष रूप से एक करोड़ रोजगार प्रभावित हुए हैं। इस वस्तुस्थिति में यह अहम सवाल खड़ा होता है कि बाजार में एकदम पूंजी की कमी क्यों आ गयी? पैसा चला कहां गया। इसका कोई जवाब अभी तक सरकार की ओर से नही आया है। जबकि देश के अन्दर ऐसी कोई प्राकृतिक आपदा नही आयी है जिससे एक ही झटके में लाखों करोड़ का नुकसान हो गया हो। बिना किसी आपदा के बाजा़र से पूंजी का गायब होना कई सवाल खड़े करता है। क्योंकि यह सब सरकार की नीतियों का ही परिणाम होता है और सरकार की नीतियों को उसकी सोच प्रभावित करती है। इस समय देश में केन्द्र से लेकर अधिकांश राज्यों तक भाजपा की सरकार है। भाजपा की हर सोच का केन्द्र आरएसएस है और आरएसएस का आर्थिक चिन्तन भामाशाही अवधारणा पर आधारित है। इस सोच के मुताबिक हर शिवाजी के लिये एक भामाशाही चाहिये और इस भामाशाही के लिये संसाधनों की स्वायतता चाहिये। इसी अवधारणा का परिणाम है विनिवेश मंत्रालय और सेवाओं का आऊट सोर्स किया जाना। यह विनिवेश मंत्रालय पहली बार वाजपेयी सरकार में सामने आया था। तब से लेकर अब तक भाजपा सरकारों का केन्द्र से राज्यों तक यह नीति निर्धारिक बिन्दु बन गया है। इसी का परिणाम है कि जिस संघ ने एक समय स्वदेशी जागरण मंच तले एफडीआई का विरोध किया था आज उसी की सरकार का एफडीआई एक बड़ा ऐजैण्डा बना हुआ है। इसी के लिये आज रोजगार की जगह स्वरोजगार का नारा दिया जा रहा है।
स्वभाविक है कि जब आर्थिक क्षेत्र में इस तरह का नीतिगत बदलाव लाया जायेगा तो उसमें कई तरह के जोखिम भी शामिल रहेंगे। इस तरह की आर्थिक सोच इतने बड़े लोकतांत्रिक देश के लिये कैसे लाभदायक सिद्ध हो सकती है इसके लिये एक लम्बी सार्वजनिक बहस की आवश्यकता है। खेत और कारखाने में से किसे प्राथमिकता दी जाये यह चयन करना होगा और यह चयन करते हुए यह दिमाग में स्पष्ट रखना होगा कि अनाज का विकल्प अभी तक किसी भी कम्प्यूटर में सामने नही आया है। इसीलिये आज भी गरीब के ईलाज में आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं की आवश्यकता आ खड़ी हुई है और इस आयुष्मान भारत के लाभार्थी वर्ग के लिये बुलेट ट्रैन और चन्द्रयान का कोई महत्व नही रह जाता है। आज यह सोचने की आवश्यकता है कि हमारी बुलेट ट्रैन जैसी योजनाएं कितने प्रतिशत लोगों की आवश्यकता है। जिस देश में स्वास्थ्य के लिये आयुष्मान भारत और शिक्षा के लिये मुफ्त बर्दी, मुफ्त स्कूल बैग और मीड डे मील जैसी योजनाओं की आवश्यकता मानी जा रही है उसमें आर्थिक क्षेत्र में भामाशाही अवधारणा कतई प्रसांगिक नही हो सकती यह स्पष्ट है। इस परिदृष्य मे यह सवाल और भी गंभीर हो जाता है कि बाजार में पूंजी का ऐसा अभाव कैसे आ गया कि सरकार को आरबीआई से पैसा लेना पड़ा और सार्वजनिक उपक्रमों के 75% अधिशेष संसाधन राज्य की समेकित निधि में ट्रांसफर करवाने पड़े। इसी के साथ नोटबंदी के बाद 8.5 लाख करोड़ का एनपीए बटटे खाते में डालने और 3.10 लाख करोड़ की जाली कंरसी का फिर से आ जाना सरकार के प्रयासों पर सवाल उठाता है। इस जाली करंसी पर कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने जो आरोप लगाये हैं उनपर सरकार की खामोशी पूरे मामले को और भी गंभीर बना देती है।

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