Wednesday, 17 December 2025
Blue Red Green
Home सम्पादकीय

ShareThis for Joomla!

आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन के बाद तेल की कीमतें बढ़ना क्या एक संयोग है

क्या पैट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ना आत्मनिर्भर योजना का ही एक हिस्सा है? क्या कीमतों का बढ़ना संकट को अवसर में बदलना है? इस तरह के कई सवाल इन कीमतों के बढ़ने से एक साथ खड़े हो गये हैं। क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमतें बहुत कम हैं। ऐसे में यह की कीमतें इसलिये बढ़ रही हैं कि सरकार को इससे सबसे अधिक टैक्स मिल रहा है। ऐसा देश में पहली बार हुआ है कि डीजल की कीमत पैट्रोल से बढ़ गयी हो। तेल की कीमतों के बढ़ने की बिसात उस समय बिछ गयी थी जब इसमें  ईथनौल मिलाना शुरू किया गया था। 2014 में मोदी सरकार आने से पहले जब तेल की कीमतों में बढ़ौत्तरी हुई थी तब भाजपा ने राष्ट्रीय स्तर पर किस तरह से धरने प्रदर्शन आयोजित किये थे और स्वयं नरेन्द्र मोदी ने उस समय सरकार पर क्या-क्या आरोप लगाये थे देश उस सबको भूला नही है। आज सरकार की ओर से जब केन्द्रिय मन्त्री रवि शंकर प्रसाद ने यह कहा कि तेल की कीमतों का बढ़ना सरकार के हाथ में नही है तब यही सवाल उनसे पूछा जाना चाहिये कि क्या 2014 से पहले कांग्रेस सरकार के हाथ में यह सब था। रविशंकर प्रसाद ने यह भी कहा है कि अमेरीका और ईरान तथा कुछ अन्य देशों में हालात गड़बड़ हैं इसलिये भारत में तेल में की कीमतें बढ़ रही हैं। लेकिन यह नही बताया कि इन देशों के खराब हालात का भारत में तेल की कीमतों के बढ़ने के साथ क्या संबंध है। क्या यह देश कह रहे हैं कि तेल की कीमतें बढ़ा लो। सरकार का इस तरह का तर्क एकदम असंगत और अस्वीकार्य है।
 तेल की कीमतें बढ़ने से रसोई से लेकर कारखाने तक सब जगह मंहगाई बढ़ेगी यह तय है। बल्कि सरकार के इस तरह के तर्क से और भी बहुत सारे फैसलों पर नज़र डालने की आवश्यकता हो जाती है। पिछले दिनों सरकार ने 1955 से आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन करके अनाज और कई अन्य वस्तुओं को इस अधिनियम के दायरे से बाहर कर दिया है। इस संशोधन को दो अध्यादेश जारी करके लागू भी कर दिया है। इसके मुताबिक अब इन चीजों की कीमतों और उनके भण्डारण पर सरकार का कोई नियन्त्रण नही रहेगा। इस संशोधन के लिये तर्क तो यह दिया गया कि इससे किसान अपनी उपज को अपने मनचाहे दामों पर कहीं भी बेचने के लिये स्वतन्त्र है और किसी भी मात्रा में उसका भण्डारण कर सकता है। जो लोग इसका व्यवहारिक पक्ष समझतें हैं वह जानते हैं कि इससे किसान को एक तरह से आढ़ती के हाथ में गिरवी रख दिया गया है। क्योंकि यदि किसान को मनचाही कीमत नही मिल पायेगी तो उसके पास भण्डारण करने का साधन कोल्ड स्टोर अपना नही है। ऐसे में यदि किसान को यह उपज एक मण्डी से दूसरी मण्डी ले जानी पड़े तो उसका लागत मूल्य और बढ़ जायेगा। तब उसको वांच्छित कीमत मिलना और भी कठिन हो जायेगा। ऐसे में जब उसे मण्डी में खरीददार के लिये चार दिन इन्तजार करना पड़ेगा तो वह आढ़ती के आगे विवश हो जायेगा और उसी की शर्तों पर उसे यह उपज बेचनी पड़ेगी। इस संशोधन के खिलाफ पंजाब में रोष व्याप्त हो गया है और देश के अन्य भागों में भी शीघ्र ही इसका असर देखने को मिलेगा यह तय है।
 अब जब डीज़ल की कीमत पैट्रोल से बढ़ गयी है तो स्वभाविक है कि खेत से लेकर बाज़ार और अन्तिम उपभोक्ता तक सब स्तरों पर कीमतें बढ़ाने का रास्ता सबको मिल गया है। आढ़ती किसान के कुछ बढ़े हुए दाम दे देगा और अन्त में उपभोक्ता से सब वसूल लेगा। सरकार किसान को खुला बाज़ार उपलब्ध करवाने के नाम पर सारी जिम्मेदारी से मुक्त हो जायेगी। क्योंकि जब आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन कर दिया गया है तब कानून की दृष्टि से किसान -बागवान और उपभोक्ता के बीच सरकार का कोई दखल नही रह जाता है। क्योंकि अब सरकार केवल युद्ध और प्राकृतिक आपदा के समय ही कीमतों और भण्डारण पर दखल दे सकती है। अधिनियम में संशोधन के बाद किसी भी उपज का समर्थन मूल्य तय करना शायद कानूनन संभव नही हो सकेगा। क्योंकि समर्थन मूल्य एक तरह से निम्नतम मूल्य होता है उपज का और इसलिये तय किया जाता है कि किसान बागवान का नुकसान न हो। इसी मकसद से सरकार स्वयं खरीद करती थी। लेकिन अब संशोधन के बाद भी क्या सरकार खरीद करती रहेगी? यदि समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद दोनो रहते हैं तो उस स्थिति में किसान के लिये खुले बाज़ार और इस संशोधन का कोई अर्थ नही रह जाता है। केन्द्र सरकार ने इस संशोधन से पहले विपक्ष, राज्य सरकारों और किसान संघो से कोई विचार विमर्श नही किया है। लेकिन अब जब एपीएल परिवारों को सस्ते राशन की योजना से बाहर कर दिया गया है और साथ ही बीपीएल को भी गरीबी की रेखा से बाहर लाने की घोषणाएं की जा रही है। तब यह संकेत स्पष्ट हो जाते हैं कि आने वाले दिनों में मंहगाई अपना पूरा विकराल रूप लेकर सामने आने वाली है। आज आवश्यक वस्तु अधिनियम में हुए संशोधन और अब डीजल की कीमतों का पैट्रोल से आगे निकलना एक ही समय में घटने वाले कोई सहज संयोग नही है। बल्कि एक सुनियोजित योजना का हिस्सा है। इस पर कोरोना के डर के चलते कोई समझने और प्रतिक्रिया देने की स्थिति में नही है।

देश को सच जानने का हक है

कोरोना को लेकर जब देश भर में लाॅकडाउन का दिया गया था तब राजनीति को छोडकर अन्य सभी गतिविधियों पर विराम लग गया था। जैस-जैसे लाॅकडाउन का अवधि बढ़ती गयी तो उसी अनुपात में आर्थिक स्थिति की वास्तविकता भी सामने आती चली गयी। आम आदमी में खास तोर पर वह वर्ग जो अपने पैतृक स्थानों से दूर रोजी रोटी की तलाश में निकला हुआ था और दिहाड़ी मजदूरी करके अपना और परिवार का पेट पाल रहा था वह सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ। इस वर्ग को प्रवासी की संज्ञा दी गयी। यह स्थिति आ गयी कि इसके भोजन की व्यवस्था करना कोरोना से निपटने से भी बड़ी चुनौति बन गयी। केन्द्र सरकार को आर्थिक स्थिति को संभालने के लिये 20 लाख करोड़ का आर्थिक पैकेज घोषित करना पड़ा। जैसे-जैसे इस आर्थिक पैकेज का खुलासा सामने आता गया और यह निकला कि इसमें हर वर्ग को ण सुविधा उपलब्ध करवाने पर ज्यादा जो़र दिया गया है बजाये इसके की सीधे कैश गरीब आदमी को उपलब्ध करवाया जाता। ऋण देने के लिये देश की वित्तमन्त्री को बैंकों को यहां तक कहना पड़ा कि वह खुले मन से ऋण दें और सीबीसी सीबीआई तथा सीएजी से न डरें। प्रधानमन्त्री तीन बार यह कह चुके हैं कि इस संकट को अवसर में बदलना होगा लेकिन इसका असर नही हो पाया है। आर्थिक स्थिति को लेकर सरकार के नोटबंदी से लेकर अब तक के सारे आर्थिक फैसलों पर चर्चा होने लग पड़ी है। इसी वस्तुस्थिति में लाॅकडाऊन के बाद अनलाॅक उस समय शुरू करना पड़ा जब कोेरोना के मामले हर रोज़ बढ़ते चले गये। अभी यह भी स्पष्ट नही हो पा रहा है कि यह प्रकोप कब तक सहना पड़ेगा। कब इसका घटाव शुरू होगा। लाॅकडाऊन के समय जो यह निर्देश जारी किये गये थे कि जो जहां है वह वहीं रहे कोई अनावश्यक रूप से घरों से बाहर न निकले। इन निर्देशों को बदलना पड़ा क्योंकि जो प्रवासी मज़दूर रोटी के संकट में आ गये थे उन्होने बाहर सड़को पर आना शुरू कर दिया। सैंकड़ो मील पैदल चलकर अपने अपने घर पहुंचने को निकल पड़े। इन मज़दूरों की हालत पर जब सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाएं आयी तब शीर्ष अदालत ने इनपर सुनवाई से इन्कार कर दिया। जो सरकार ने कहा और गोदी मीडिया ने जो दिखाया उसी पर बिना किसी शपथ पत्र के विश्वास कर लिया लेकिन जब कुछ राज्यों के उच्च न्यायालयों ने प्रवासी मज़दूरों की स्थिति का संज्ञान लेना शुरू कर दिया और कई सेवानिवृत न्यायधीशों ने सर्वोच्च न्यायालय से तीखे सवाल पूछे तब सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस स्थिति का संज्ञान लिया और केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों को निर्देश दिये कि वह इन प्रवासी मज़दूरों को अपने अपने घर पहुंचाने का पन्द्रह दिनों में प्रबन्ध करें। अब ऐसे मज़दूरो और अन्य लोगों को अपने घरों तक पहुंचाने का काम शुरू हुआ है लेकिन इसी के साथ इन बाहर से आये लोगों के कारण हर राज्य में कोरोना के मामले बढ़ते जा रहे हैं। सरकार और सर्वोच्च न्यायालय के लाॅकडाऊन के शुरू में अपनाये रूख तथा लिये गये फैसलों पर आज के रूख और फैसलों के परिदृश्य में सवाल उठने शुरू हो गये हैं। क्योंकि लाॅकडाऊन शुरू करते समय जो दिशानिर्देश जारी किये गये थे उनसे जो डर जनता में परोसा गया था वह डर हर रोज़ बढ़ते आंकड़ों से पुख्ता होता चला गया। इस डर का असर सामाजिक और पारिवारिक रिश्तों तक पर पड़ा। लोग अपनों की ही खुशी और गमी में शरीक नही हो पाये। लोग अपने ही परिजनों के अन्तिम संस्कार तक करने का साहस नहीं जुटा पाये। यह काम भी प्रशासन को करना पड़ा।
लेकिन इसी सबके बीच राजनीति अपनी जगह बराबर जारी रही। विधायकों का पासे बदलना जारी रहा। सभी राजनीतिक दलों के नेतृत्व को अपने -अपने विधायकों को सुरक्षा के नाम पर एक दूसरे की पहुंच से दूर रखना पड़ा। सरकार अपना एक वर्ष का कार्यकाल पूरा होने का का जश्न मनाने के लिये वर्चुअल रैलियों का आयोजन करने लग पड़ी। बढ़ते कोरोना मामलों के बीच रैलियों का यह आयोजन चर्चा का विषय बनना शुरू हो गया। स्वभाविक था कि भाजपा और सरकार का यह आयोजन आने वाले दिनों में एक बड़ी राजनैतिक नैतिकता का विषय बन जाता। लेकिन इसी बीच भारत चीन सीमा विवाद में देश के बीस सैनिकों की हत्या ने एक और बड़ा सवाल देश के सामने खड़ा कर दिया है। इन सैनिकों की शहादत को मैं हत्या का संज्ञान इसलिये दे रहा हॅंू क्योंकि यह निहत्थे थे इनके पास कोई शस्त्र नही था। इनका निहत्था होना विदेश मन्त्री के उस ब्यान से पुष्ट हो जाता है जिसमें उन्होंने 1964 के समझौते का जिक्र किया था कि इसके मुताबिक शस्त्रों का प्रयोग नही किया जा सकता था। विदेश मन्त्री के इस तर्क को सेना के ही पूर्व वरिष्ठ अधिकारियों ने समझौते के क्लाज छः का संद्धर्भ उठाकर खारिज कर दिया है। अब इस पूरे प्रकरण पर रक्षामन्त्री, विदेश मन्त्री और प्रधानमन्त्री के जो ब्यान आये हैं वह एक दूसरे से मेल नही खाते हैं। फिर छः वर्ष के कार्यकाल में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी में अठाहर बार मुलाकात हो चुकी है। नरेन्द्र मोदी स्वयं पांच बार चीन की यात्रा कर चुके हैं। शी दंपति भी भारत आ चुके हैं। दोनों नेताओं ने एक दूसरे को लेकर जो कुछ देश की जनता में कह रखा है उससे यही संकेत और संदेश उभरता है कि इनके रिश्ते राजनीति से आगे निकलकर व्यक्तिगत एवम् पारिवारिक हो चुके हैं शायद इन्ही रिश्तों के कारण आज चीन का देश के व्यापार में एक बहुत बड़ी हिस्सेदारी हो चुकी है। चीन से जो आयात किया जाता है उसके मुकाबले हमारा चीन को निर्यात बहुत ही कम है। आज चीन की सैंकड़ो कम्पनियां भारत में कारोबार कर रही हैं। चीन का निवेश दो लाख करोड़ से भी शायद बढ़ गया है। दूर संचार के क्षेत्र में 70% तक चीन का कब्जा हो चुका है। आज चीन के सामान का बहिष्कार करने का आन्दोलन खड़ा किया जा रहा है। अन्य सारे मुद्दों को छोड़कर देश का ध्यान इस पर केन्द्रित करने के प्रयास में भी मीडिया और भक्तों का एक बड़ा वर्ग लग गया है। लेकिन सरकार की ओर से इसपर अभी तक चुप्पी चली हुई है। विपक्ष सही स्थिति देश के सामने रखने के लिये सरकार से लगातार सवाल पूछ रहा है। इन सवालों को राष्ट्र की एकता के नाम पर दबाने का प्रयास किया जा रहा है। जबकि यह सवाल प्रधानमन्त्री, रक्षा मन्त्री और विदेशमन्त्री के परस्पर विरोधी ब्यानों से उभरे हैं। ऐसे में यह बहुत आवश्यक हो जाता है कि देश को सच्चाई बतायी जाये और यह जिम्मेदारी सरकार और सत्ता पक्ष की है। विपक्ष यह सवाल पूछकर अपना काम जिम्मेदारी से कर रहा है। क्योंकि नेताओं के सैनिकों की शहादत पर आने वाले ब्यान कुछ ही समय तक प्रासंगिक रहते हैं और शहादत से उभरा संकट परिवारों को स्वयं ही सहना और भुगतना पड़ता है।

क्या मोदी सरकार असफल हो गयी है

दिल्ली और तेलंगाना में डाक्टरों को दो महीने से वेतन नही मिल पाया है। यहां पर डाक्टरों ने सामूहिक त्यागपत्र देने की घोषणाएं कर दी हैं। इस आश्य के समाचार कुछ न्यूज़ चैनलों के माध्यम से सामने आये हैं और सरकार इनका खण्डन नहीं कर पायी है। नगर निगम दिल्ली ने कहा है कि लाॅकडाऊन के कारण उसे राजस्व नही मिल पा रहा है, इस कारण से वह डाक्टरों को वेतन नही दे पा रहा है। कुछ समय पहले दिल्ली सरकार ने भी केन्द्र से पांच हज़ार करोड़ मांगे थे उसका कहना था कि उसके पास कर्मचारियों को वेतन देने के लिये पैसे नही हैं। आज लगभग हर राज्य में कोई न कोई कर्मचारी वर्ग ऐसा मिल जायेगा जिसे नियमित रूप से वेतन नही मिल रहा है और इसमें सबसे ज्यादा पीड़ित कान्ट्रैक्ट तथा आऊट सोर्स पर रखा कर्मचारी है। अभी सरकार ने बीस लाख करोड़ का राहत पैकेज देश के लिये घोषित किया है। इस पैकेज के बाद यह घोषित किया गया कि वित्तिय वर्ष  2020-21 के लिये घोषित सारी नई योजनाओं पर कार्यान्वयन मार्च 2021 तक स्थगित कर दिया गया है। इस दौरान केवल कोरोना और आपात सेवाओं से जुड़ेे कार्य ही किये जायेंगे। यदि सरकार द्वारा की गयी यह सारी घोषणाएं सही हैं और इस सबके बावजूद डाक्टरों को भी वेतन देने के लिये पैसे नहीं हैं तो यह सोचना और समझना आवश्यक हो जाता है कि आखिर देश की सही तस्वीर है क्या। क्योंकि सरकार की यह सारी घोषणाएं और डाक्टरोें तक को वेतन न मिल पाना यह सब स्वतः विरोधी हो जाता है। आज जिस मोड़ पर देश की आर्थिक स्थिति पहुंच गयी है वहां ऐसा लग रहा है कि सरकार की हालत भी एक दिहाड़ीदार मजूदर की तरह हो गयी है। मज़दूर दिन में अगर कमायेगा नही तो रात को उसका चुल्हा नही जलेगा। सरकार को भी यदि हर रोज़ राजस्व नही मिल पा रहा है तो वह अपने कर्मचारी को वेतन नही दे पायेगी। अब सवाल यह खड़ा होता है कि क्या यह सबकुछ एकदम कोरोना के कारण हो गया या यह सब कोरोना के बिना भी होना ही था। इस स्थिति को समझने के लिये हालात  को कोरोना से पहले और कोरोना के बाद दो-हिस्सों मे बांटकर देखना होगा। कोरोना के कारण देश में 24 मार्च से पूर्ण तालाबन्दी घोषित कर दी गयी थी जो 30 मई तक जारी रही। इसके बाद पहल जून से आनलाॅक-1 शुरू हुआ और नये सिरे से आर्थिक गतिविधियां शुरू हुई हैं। दो माह तक आर्थिक गतिविधियों पर विराम रहा है और इसी से यह हालात हो गये कि डाक्टरों को भी वेतन नहीं मिल पाया है। इसमें यह सवाल आता है कि कोरोना के लिये इतना क्या निवेश कर दिया गया कि जिस पर सारा खजाना खाली हो गया। कोरोना की अभी कोई दवाई सामने नहीं आयी है इसलिये दवाई पर तो खर्च हुआ नही है। बिना दवाई के तो मास्क, सैनेटाईज़र, पीपीई किट्स और वैंटिलेटर पर ही खर्च हुआ है। क्योंकि इस दौरान नये अस्तपालों का तो निर्माण हुआ नही है। अस्पतालों में कोरोना के अतिरिक्त अन्य बिमारीयों को ईलाज लगभग बन्द ही था। फिर कोरोना के लिये पीएम केयर में जितना पैसा लोगों ने दान दिया है वही पैसा भी शायद इन उपकरणों पर सारा खर्च नही हुआ है। कर्मचारियों, पैन्शनरों तक को मंहगाई भत्ते की अदायगी नही की गयी है। कर्मचारियों से हर माह एक-एक दिन का वेतन दान में लिया जा रहा है। सांसद और विधायक क्षेत्र विकास निधियां स्थगित कर दी गयी हैं। इनके वेतन में भी 30% की कमी की गयी है। इन सब उपायों के बाद भी वेतन न दे पाने की स्थिति आना अपने में अलग ही सवाल खड़े करता है। क्योंकि यह नही माना जा सकता कि जिस बीमारी की दवा तक अभी न बन पायी है उसी के कारण सारी अर्थव्यवस्था दो माह में ही चौपट हो जाये।
 लाॅकडाऊन के कारण सबसे ज्यादा प्रवासी मज़दूर प्रभावित हुए। इन लोगों को पहले तो अपने गांवों में सोशल डिस्टैन्सिंग के नाम पर जाने नही दिया गया, परिवहन के सारे साधन बन्द कर  दिये गये। जब इन लोगों के भूखे मरने की नौबत आ गयी और सैंकड़ों, हज़ारों मील पैदल चलने पर विवश हो गये तब इन्हे जाने की अनुमति दे दी गयी। सर्वोच्च न्यायालय ने भी प्रवासी मज़दूरों पर आयी याचिकाओं को  सुनने से इन्कार कर दिया और सरकार बिना शपथ पत्र के भी जो कुछ बोलती रही उसी को ब्रहम वाक्य मानती रही। इस पर जब रोष फैलने लगा तब शीर्ष अदालत ने सरकारों को निर्देश दिये की इन मज़दूरों को पन्द्रह दिन में अपने घर पहुंचाने का प्रबन्ध किया जाये। लेकिन न तो सरकार ने यह माना कि उसका पहला फैसला गलत था और न ही अदालत ने यह कहा। अब जब प्रतिदिन यह केस बढ रहे हैं तब पहले के प्रतिबन्धों को हटाया जा रहा है। गतिविधियां फिर शुरू करने की अनुमतियां दी जा रही हैं। अब यह सलाह दी जा रही है कि लम्बे समय तक कोरोना के साथ जीने की आदत डालनी होगी। सरकार की इस सलाह से यह स्पष्ट हो जाता है कि कोरोना को लेकर अबतक का सारा आकलन और फैसले गलत थे।  यह अलग सवाल है कि यह गलती सरकार से स्वभाविक सहजता में हो गयी या पूरे सोच विचार के साथ योजना के तहत की गयी है। क्योंकि जिस ढंग से केस बढ़ते जा रहे हैं उसके मुताबिक तो लाॅकडाऊन और सोशल डिस्टैसिंग की जरूरत अब थी फिर कोरोना को लेकर अब तक कोई दवाई तो सामने आयी नही है और दवाई के अभाव में सरकार ने आयुर्वेद के काढ़े की राय लोगों को दी थी। कोरोना जो लक्षण सामने आये हैं उनमें यह काढा सबसे ज्यादा उपयोगी है इसमें कोई दो राय नहीं है। यह काढ़ा बड़े अधिकारियों, सांसदो, विधायकों और कुछ स्वास्थ्य तथा पुलिस कर्मियों कई जगह सरकार ने मुफ्त में बांटा है। लेकिन अन्य कर्मचारियों और आम आदमी को यह उपलब्ध नही है। सरकार इसकी उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिये कुछ नही कर रही है जबकि यह काढ़ा हर आदामी को उपलब्ध करवाया जाना चाहिये था। लेकिन सरकार ऐसा कर नही रही है इससे भी सरकार की गंभीरता पर ही सवाल उठते हैं।
इस परिदृश्य में यह सवाल और ज्यादा गंभीर और सापेक्ष हो जाता है कि आखिर सरकार का पैसा चला कहां गया। क्योंकि बीस लाख करोड़ के राहत पैकेज में कैश-इन- हैण्ड तो बहुत कम लोगों को और बहुत ही कम राशी में दिया गया है। बल्कि सारा जोर बैंकों के ऋण पर है। लेकिन अब बैंक सहजता से ऋण दे नही रहे है। यह शायद इसलिये है कि अब बैंकों के पास जनता का ही जमा धन रह गया है। सरकार ने जिस तरह से बैंकों को थ्री सी से न डरने का अभयदान दिया है उससे स्पष्ट है कि यह ऋण भी यदि दे दिया जाता है तो एनपीए ही होगा। जिस तरह प्रधानमन्त्री मुद्रा ऋण में हुआ है। अब यह देखना शेष है कि बैंक कितना ऋण दे पाते हैं। लेकिन पिछले एनपीए पर सरकार की गंभीरता का इसी से पता चल जाता है कि विजय माल्या को भारत वापिस लाने के लिये यहां तक खबरें छप गयी कि हवाई जहाज चला गया है और कभी भी लैण्ड कर सकता है। परन्तु यह खबर ही रह गयी हकीकत नही बन पायी। इससे यह स्पष्ट होता है कि आर्थिक हालात शायद नोटबन्दी के बाद से ही बिगडने लग गये थे। आज यदि कोरोना न भी होता तो भी शायद यही स्थिति होती।

घातक होगा आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन

इस समय देश कोरोना संकट से जूझ रहा है। कोरोना का फैलाव रोकने के लिये पूरे देश में 24 मार्च से लाक डाऊन लागू कर दिया गया था। लाक डाऊन में जो जहां है वह वहीं रहेगा के निर्देश जारी किये गये। इन निर्देशों का पूरी ईमानदारी और सख्ती से पालन किया गया। लाक डाऊन के दौरान हर तरह की छोटी-बड़ी आर्थिक गतिविधियों पर पूरी तरह से विराम लग गया था। इस विराम के कारण कई करोड़ लोग बेरोज़गार होकर बैठ गये हैं। करीब दो करोड़ लोगों का तो नियमित रोज़गार छिन गया है। लाक डाऊन के कारण सबसे ज्यादा बुरा प्रभाव तो मज़दूरों पर पड़ा है। क्योंकि इनका रोज़गार, खत्म होने के साथ ही इन्हे दो वक्त की रोटी मिलना भी कठिन हो गया था। सैंकड़ों लोगों की भूख से जान चली गयी है। इस संकट में यदि समाज सेवी संगठनों और कुछ सरकारों ने इन प्रवासियों के लिये मुफ्त भोजन की व्यवस्था न की होती तो शायद भूख से मरने वालों का आंकड़ा कोरोना के संक्रमितों से कहीं ज्यादा बढ़ जाता। इस संकट ने यह कड़वा सच पूरी नग्नता के साथ देश के सामने रख दिया है कि आज भी देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को यह रोटी नसीब नही है। ऐसे वक्त में जब सरकार आत्मनिर्भर भारत के नाम पर आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन करके अनाज, दलहन-तिलहन, खाद्य तेल, आलू और प्याज को आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर कर दे तो बहुत सारे सवालों का खड़ा होना स्वभाविक हो जाता है। आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में लाया गया था। इस अधिनियम को लाने से पहले भू सुधारों को अजांम दे दिया गया था। बड़ी जिमिदारी प्रथा समाप्त करके जोत का आकार बढ़ाने, भूस्वामित्व की परिसीमा बांधने तथा लगान को उत्पादन से जोड़ने के प्रयास किये गये थे। इस परिदृश्य में आवश्यक वस्तु अधिनियम लाकर यह सुनिश्चित किया गया था कि आवश्यक खाद्य वस्तुओं का कोई आवश्यकता से अधिक भण्डारण न कर सके। इन वस्तुओं की कीमतें इतनी बढ़ा दे कि इनकी खरीद आम आदमी की पहंुच से बाहर हो जाये। बल्कि इसके बाद सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से इस व्यवस्था को और मजबूत किया गया। सरकार पीडीएस के लिये स्वयं आवश्यक वस्तुओं की खरीद करने लगी ताकि गरीब आदमी को सस्ती दरों पर राशन उपलब्ध करवाया जा सके। किसान को भी नुकसान न हो उसके लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य की अवधारणा लायी गयी। लेकिन आज मोदी सरकार ने एक झटके में 1955 से चले आ रहे आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन करके इन खाद्य पदार्थों को आवश्यक सूची से बाहर कर दिया है। यह संशोधन करके एक देश- एक कृषि बाज़ार का मार्ग प्रशस्त कर दिया गया है। अब किसान अपनी उपज को कहीं भी अपनी मनचाही कीमत पर बेचने के लिये स्वतन्त्र होगा। इसी के साथ किसान अपनी उपज का किसी भी सीमा तक भण्डारण करने के लिये भी स्वतन्त्र होगा। कीमत और भण्डारण पर सरकार का दखल केवल अकाल, युद्ध, प्राकृतिक आपदा आदि की स्थिति में ही रहेगा। सामान्य स्थितियों में बाजार पूरी तरह स्वतन्त्र रहेगा। किसान की आजतक यह मांग थी कि जब सरकार उसकी उपज का न्यूतम समर्थन मूल्य तय करती है जब यह मूल्य उसकी लागत के अनुरूप होना चाहिये। क्योंकि कृषि के लिये जो उपकरण, खाद और बीज आदि उसको चाहिये होते हैं उनकी कीमतों पर उसका कोई नियन्त्रण नही रहता है। स्वामीनाथन आयोग ने भी इन सारे संवद्ध पक्षों पर विचार करके ही अपनी सिफारिशे सरकार को सौंपी थी। इस आयोग की सिफारिशों पर अमल करने की मांग ही किसान संगठन उठाते रहे हैं बल्कि सरकारों ने जो किसानों के ऋण समय समय पर माफ किये हैं और मोदी सरकार ने भी जो किसान सम्मान राशी देने की पहल की है यह सब स्वमीनाथन आयोग की सिफारिशों का ही अपरोक्ष में प्रतिफल था। लेकिन आज राज्य सरकारों से विचार विमर्श किये बगैर ही जो आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन कर दिया गया है उससे किसान और उपभोक्ता दोनो का ही भला होने वाला नही है। इस संशोधन के बाद जब किसान के लिये बाजार खुला छोड़ दिया गया है तो सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य क्यों तय करेगी। जब किसान अपनी उपज अपनी मनचाही कीमत पर कहीं भी बेचने या भण्डारण करने के लिये स्वतन्त्रा है तो फिर पीडीएस और मिड-डे-मील जैसी योजनाओं के तहत मंहगी कीमतों पर क्यों खरीद करेगी। इस संशोधन के बाद तो किसान और उपभोक्ता के बीच सरकार की कोई भूमिका ही नहीं रह जायेगी। किसान को अपनी उपज के लिये खरीददार स्वयं खोजना पड़ेगा। यदि बड़ा व्यापारी किसान की कीमत पर उसकी उपज खरीदने के लिये तैयार नही होता है तो किसान कितनी मण्डीयों में जाकर खरीददार की तलाश कर पायेगा। मनचाही कीमत पर उपज न बिकने की सूरत में किसान कितनी देर तक उपज का भण्डारण कर पायेंगे। क्योंकि किसान के पास सुरिक्षत भण्डारण की व्यस्था ही नही है। फिर खाद, बीज और अन्य चीजों के लिये जो उसे तत्काल पैसा चाहिये वह कहां से आयेगा। यह एक ऐसी स्थिति कालान्तरण में बन जायेगी कि किसान व्यापारी के आगे विवश हो जायेगा। दूसरी ओर यदि यह मान लिया जाये कि किसान को अपनी मनचाही कीमत भी मिल जाती है तो स्वभाविक है कि उसकी कीमत मौजूदा कीमत से कम से दोगुणी तो हो ही जायेगी। ऐसी सूरत में इस उपज की कीमत किसान से उपभोक्ता तक पहुंचने में कितने गुणा बढ़ जायेगी। इसका अन्दाजा लगाना कठिन नही है। पिछले दिनों जब प्याज की कीमतों में उछाल आया था तब कितनी परेशानी हुई थी यह सब देख चुके हैं। ऐसे में सरकार गरीब के लिये सस्ता राशन कैसे उपलब्ध करवा पायेगी। खुले बाजार से राशन लेकर सस्ती दरों पर गरीब को कैसे और कितनी देर तक दिया जा सकेगा। खुले बाजार का अर्थ है कि हर उपभोक्ता अपना प्रबन्ध स्वयं करे। खुले बाजार के नाम पर सरकार आसानी से अपनी जिम्मेदारी से बाहर हो जाती है। आज जब अर्थव्यस्था इस मोड़ पर आ खड़ी हुई है कि सरकार को इस बजट में घोषित सारी नयी योजनाएं एक वर्ष के लिये स्थगित करनी पड़ी हैं और करोड़ों लोग बेरोजगार हो कर बैठ गये हैं ऐसे वक्त में यह संशोधन किसान और उपभोक्ता दोनो के लिये घातक सिद्ध होगा।

क्या सरकार दिशा भटक रही है

इस समय देश की अर्थव्यस्था एक ऐसे में मोड़ पर पहुंच चुकी है कि कोरोना महामारी से भी बड़ा संकट बनता नज़र आ रहा है। लाकडाऊन के कारण बेरोज़गारी का राष्ट्रीय आंकड़ा कुल जनसंख्या का करीब 25%हो गया है। कुछ राज्यों में तो बेरोज़गारी 40% से लेकर 49% तक पहुंच गयी है। 130 करोड़ की जनसंख्या में से 30 करोड़ जब बेरोजगार होंगे तो उस समय स्थिति क्या और कैसी होगी इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। यह सब क्यों और कैसे हो गया आज इस पर बहस  करने से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि इसका हल कैसे होगा। किसी भी समस्या का समाधान खोजने के लिये यह आवश्यक होता है कि उसका आकलन कितना सही है। इस आकलन का पता इससे चलेगा कि जिन लोगों पर इसका हल खोजने की जिम्मेदारी है वह इस बारे में क्या सोचते हैं। इस पर उनकी समझ क्या है। आज तक यह जिम्मेदारी सबसे पहले देश के प्रधानमन्त्री पर आती है और उसके बाद वित्त मन्त्री पर। प्रधानमन्त्री ने जब इस संकट में बीस लाख करोड़ के राहत पैकेज की घोषणा की और इसका विस्तृत विवरण देश के सामने रखा तो उन्ही के दिये आंकड़े के अनुसार यह बीस लाख करोड़ न होकर केवल ग्याहर लाख करोड़ निकला। इस ग्याहर लाख करोड़ को भी अर्थव्यस्था की रेंटिग करने वाली ऐजैन्सीयों ने 1.8 लाख करोड़ बताया है और इसका कोई खण्डन वित्त मन्त्रालय की ओर से नही आया है। देश के सामने ऐसी गलत ब्यानी क्यों की गयी इसका भी जवाब नही आया है।
वित्त मन्त्राी ने जब बीस लाख करोड़ के आंकड़े के डिटेल सामने रखे है तब यह सामने आया है कि जिस एमएसएम ई क्षेत्र के लिये 50,000 करोड़ का इक्विटी फण्ड जारी किया गया है उसमें सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग की परिभाषा भी बदल दी गयी है। इस बदली परिभाषा के अनुसार अब एक करोड़ के निवेश वाला उद्योग सूक्ष्म 10 करोड़ का निवेश लघु और 20 करोड़ के निवेश वाला मध्यम उद्योग होगा। वित्तमन्त्री के मुताबिक एमएसएम ई क्षेत्र में 45 लाख उद्योग ईकाईयां पंजीकृत हैं। अब जो 30 करोड़ लोग बेरोज़गार हैं यदि उनमें से आधे लोग भी सूक्ष्म उद्योग लगाकर अपना रोज़गार शुरू करना चाहें तो उन्हे क्या एक करोड़ प्रति व्यक्ति के हिसाब से ऋण मिल पायेगा? क्या इतना पैसा बैंकों और सरकार के पास है? क्या आज एक करोड़ बेरोज़गार को एक करोड़ प्रति व्यक्ति देने की स्थिति है? शायद यह कभी संभव नही हो सकता। लेकिन घोषणा कर दी गयी है क्योंकि इस पर यह सवाल पूछने वाला नही है कि ऐसी अव्यवहारिक घोषणाएं करके समाज को ठगा क्यों जा रहा है।
उद्योगों की इस परिभाषा के बाद वित्त्मन्त्री ने समाज के लोअर मिडिल क्लास की परिभाषा सामने रखी है। उनके मुताबिक छः लाख से अठारह लाख कमाने वाला व्यक्ति लोअर मिडिल क्लास में आता है। वित्तमन्त्री के मुताबिक कम से कम छः लाख प्रतिवर्ष अर्थात 50,000/-रूपये प्रमिमास कमाने वाला लोअर मिडिल क्लास में आता है। वित्तमन्त्री के इस आकलन से यह सवाल उठना स्वभाविक है कि आज कितने लोग ऐसे है जो पचास हजार प्रतिमाह कमा पा रहे हैं। इससे यह सवाल उठता है कि समाज को लेकर सरकार का आकलन कतई व्यवहारिक नही है। शायद इन्ही आकलनों के आधार पर बीपीएल और एपीएल के मानक बदले गये हैं और एपीएल परिवारों को सस्ते राशन की पात्रता से बाहर कर दिया गया है।
इन आकलनों के बाद वित्तमन्त्री ने देश के बैंकों से कहा है कि उन्हे सीबीआई, सीबीसी और सीएजी से डरने की आवश्यकता नही। बैंकों को यह अभयदान देते हुए वित्तमन्त्री ने यह निर्देश दिये हैं कि वह बिना किसी डर के लोगों को ऋण उपलब्ध करवायें। यदि यह ऋण एनपीए भी हो जाते हैं तो कोई भी बैंक प्रबन्धन को इसके लिये जिम्मेदार नही ठहरायेगा क्योंकि इसकी गांरटी सरकार देगी। अभी जो राहत पैकेज घोषित किया गया है उसमें सभी वर्गों को ऋण सुविधा ही दी गयी है। बैंको को खुले मन से ऋण देने के निर्देश दिये गये हैं। अब ऐसे में कितना ऋण बंट जायेगा और फिर इसमें से कितना वापिस आ पायेगा वह भी तब जब एनपीए होने पर गांरटी सरकार ले रही है। इससे स्पष्ट है कि अब बड़े स्तर पर बैंकों में अधिकारिक तौर पर एनपीए होने के लिये भूमिका बना दी गयी है। इससे पहले भी प्रधानमन्त्री मुद्रा ऋण योजना के तहत दस लाख करोड़ से अधिक के ऋण बांटे गये हैं जिनमें से  70% से अधिक एनपीए हो चुके हैं। ऐसे में अब जो कुछ वित्तमन्त्री के इन निर्देशों के बाद घटेगा उसकी कल्पना की जा सकती है। इससे अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी या कुछ लोग ही इससे लाभान्वित हो पायेंगे इसका पता तो आने वाले समय में ही लगेगा। लेकिन इससे यह बड़ा सवाल खड़ा होता है कि क्या इन निगरान ऐजैन्सीयों को इस तरह से पंगू बनाना देशहित में होगा या नही। क्योंकि यह स्वभाविक है कि जब निगरान ऐजैन्सीयों का डर न तो ऋण देने वालो पर रहेगा और न ही ऋण लेने वालों पर तब स्वतः ही एक अराजकता का वातावरण तैयार नही हो जायेगा।

Facebook



  Search