दिल्ली के विधानसभा चुनावों में हर बार फिर भाजपा को हार का समाना करना पड़ा है। राजनीति में चुनावी हार-जीत चलती रहती है और इसका कोई बड़ा अर्थ भी नही रह जाता है। लेकिन शायद इस हार को इस तरह सामान्य लेकर नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता और न ही इसका कोई अर्थ रह जाता है कि अबकी बार भाजपा का मत प्रतिशत तथा सीटे दोनो बढ़ी हैं। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि यह हार देश की राष्ट्रीय राजनीति के लिये कुछ ऐसे गंभीर सवाल छोड़ गयी है जिन पर तत्काल प्रभाव से विचार करना आवश्यक हो जाता है। भाजपा की इस हार को 2014 के चुनावी परिदृश्य से लेकर आज के राजनीतिक परिवेश के साथ जोड़कर देखना आवश्यक हो जाता है। 2014 की राजनीतिक परिस्थितियों का निर्माण भ्रष्टाचार, कालाधन, बेरोजगारी और मंहगाई के मुद्दों पर हुआ था। भ्रष्टाचार के टूजी स्कैम जैसे कई मुद्दे जनहित याचिकाओं के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय मे पहुंचे और शीर्ष अदालत ने भी उन्हें गंभीरता से लेते हुए इनमें जांच के आदेश दिये। जांच के परिणामस्वरूप कई राजनेता, बड़े नौकरशाह और उद्योग जगत के कई लोग गिरफ्तार हुए। सरकार को भ्रष्टाचार का पर्याय प्रचारित किया गया। इसी भ्रष्टाचार को लेकर लोकपाल की मांग उठी और अन्ना हजारे के जनान्दोलन का यह केन्द्रिय बिन्दु बन गया। इसी के साथ कालेधन को लेकर कई बड़े बड़े आंकड़े जनता में परोसे गये। इस सारे जनान्दोलन के संचालन का राजनीतिक श्रेय भाजपा को मिला। दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना के आन्दोलन में केजरीवाल और उनके साथियों की भूमिका सर्वविदित है। यह भी सब जानते है कि केन्द्र सरकार ने लोकपाल को लेकर सिविल सोसायटी की बात मान ली और आन्दोलन की समाप्ति की घोषणा कर दी गयी तब उसमें अन्ना के साथ आन्दोलन के संचालकों और टीम केजरीवाल में मतभेद पैदा हुए थे। अन्ना इस सबसे दुखी होकर ममता के सहयोग से उन्हें आन्दोलन का आह्वान किया और बुरी तरह असफल हुए।
तब इस आन्दोलन ने राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को राजनीतिक विकल्प और मोदी को इसका राष्ट्रीय नायक के रूप में सफलता से चुनावों में स्थापित कर दिया। इन चुनावों में भाजपा और उसके सहयोगियों को प्रचण्ड बहुमत मिला। लेकिन इसी चुनाव के बाद जब दिल्ली विधानसभा के चुनाव हुए तो उसी जगह भाजपा को शर्मनाक हार मिली जो अन्ना आन्दोलन का केन्द्र थी। लोकसभा चुनावों के एक वर्ष के भीतर ही ऐसी हार क्यों मिली थी कोई आकलन आज तक सामने नही आया है जबकि इस दौरान सरकार की ओर से ऐसा कई बड़ा फैसला भी नही आया था जिससे जनता के नाराज होने की कोई वजह बनती लेकिन फिर भी भाजपा हार गयी क्योंकि इसी दौरान भाजपा के संघ की पृष्ठभूमि वाले नेताओं ने हिन्दु ऐजैण्डे के तहत अपने हर विरोधी को पाकिस्तान समर्थक होने और पाकिस्तान जाने की नसीहत देनी शुरू कर दी थी। हालांकि प्रधानमंत्री समय समय पर ऐसे नेताओं को ऐसे ब्यान देने से परहेज करने की बातें करते रहे। परन्तु प्रधानमन्त्री की यह नाराज़गी रस्म अदायगी से अधिक कुछ भी प्रमाणित नही हो सकी। बल्कि इस नाराज़गी के बाद ऐसे ब्यानों पर विराम लगने की बजाये यह और बढ़ते चले गये। इसका असर दिल्ली की हार के रूप में सामने आया। क्योंकि दिल्ली ही देश का एक मात्र ऐसा राज्य है जिसमें ग्रामीण क्षेत्र नहीं के बराबर है। दिल्ली अधिकांश में कर्मचारियों/अधिकारियों और, व्यापारियों का प्रदेश है। यह लोग हर चीज को अपने तरीके से समझते और परखते हैं। दिल्ली सामाजिक और धार्मिक विविधता का केन्द्र है सौहार्द का प्रतीक है। यह सौहार्द बिगड़ने के परिणाम क्या हो सकते हैं दिल्ली वासी इसे अच्छी तरह समझते हैं। इसीलिये उन्होंने भाजपा को उसी समय हरा दिया।
लेकिन इस हार के बाद भी भाजपा की मानसिकता नही बदली। उसका हिन्दु ऐजैण्डा आगे बढ़ता रहा। इसी ऐजैण्डे के प्रभाव में जनता नोटबंदी जैसे फैसले पर भी ज्यादा उत्तेजित नही हुई। व्यापारी वर्ग ने जीएसटी पर भी बड़ा विरोध नही दिखाया। संघ/भाजपा और सरकार इसे जनता का मौन स्वीकार मानती रही। 2019 के चुनावों से पहले घटे पुलवामा और बालाकोट मे धार्मिक धु्रवीकरण को और धार दे दी। इस धार के परिणाम और तीन तलाक, धारा 370 और 35A खत्म करने, एनआरसी पूरे देश में लागू करने तथा उसके सीएए, एनपीआर जैसे फैसलों के रूप में सामने आये। जनता का एक बड़ा वर्ग इन फैसलों के विरोध में सड़कों पर आ गया। शाहीन बाग जैसे धरना प्रदर्शन आ गये। इसी सबके परिदृश्य में दिल्ली विधानसभा के चुनाव आ गये। यह चुनाव जीतने के लिये भाजपा ने प्रधानमंत्री से लेकर राज्यों के मुख्यमन्त्रीयों तक को इस चुनाव प्रचार में लगा दिया। अनुराग ठाकुर और प्रवेश वर्मा जैसे नेताओं के ब्यानों के माध्यम से सारी हताशा सामने आ गयी। लेकिन इस सबका अन्तिम परिणाम फिर शर्मनाक हार के रूप में सामने आया। चुनाव हारने के बाद अमित शाह ने इन ब्यानों को भी हार का बड़ा कारण कहा है। अमित शाह का यह कहना अपनी जगह सही है क्या निश्चित रूप से इन ब्यानों से जनता में और रोष उभरा है। लेकिन क्या अब भाजपा इन ब्यानवीरो के खिलाफ कारवाई करेगी? क्या हिन्दु ऐजैण्डे पर पुनर्विचार होगा? क्या एनपीआर और सीएए को वापिस लिया जायेगा? यदि यह कुछ भी नही होता है और सरकार अपने ऐजैन्डे पर ऐसे ही आगे बढ़ती रहती है तो पूरा परिदृश्य आगे चलकर क्या शक्ल लेता है यह ऐसे गंभीर सवाल होंगे जिनपर चिन्ता और चिन्तन को लम्बे समय तक टाला नही जा सकता।
दिल्ली की हार के बाद भी संघ/भाजपा का सोशल मीडिया ग्रुप हिन्दु ऐजैण्डे की वकालत में और तेज हो गया है। हर तरह के तर्क परोसे जा रहे हैं। इन तर्को के गुण दोष और प्रमाणिकता की बात को यदि छोड़ भी दिया जाये और यह मान लिया जाये की भारत भी पाकिस्तान की तर्ज पर धार्मिक देश बन जाता है तो तस्वीर कैसी होगी। इस पर नजर दौड़ाने की आवश्यकता है। जब संविधान में हम धर्म पर आधारित हिन्दु राष्ट्र हो जाते हैं तब हमारी शासन व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था क्या होगी? क्या हम तब आज वाला ही लोकतन्त्र रह पायेंगे? क्या उसमें समाज के हर वर्ग को एक बराबर अधिकार हासिल रहेंगे? क्या वह व्यवस्था हिन्दु धर्म के सिविल कोड मनु स्मृति के दिशा निर्देशों पर नही चलेगी? क्योंकि विश्व का धर्म आधारित हर देश अपने अपने धर्म के निर्देशों पर ही चलता है औ उसमें उदारवाद के लिये बहुत कम स्थान रह जाता है। आज हिन्दु राष्ट्र की वकालत करने वालों से आग्रह है कि वह इन सवालों का जवाब देश की जनता के सामने रखें। जिस मुस्लिम धर्म से हमारा गहरा मतभेद है उसमें एक सवाल संघ/भाजपा के उन बड़े नेताओं से भी हैं जिनके परिवारों के मुस्लिम परिवारों के साथ शादी-ब्याह के रिश्ते हैं। ऐसे नेताओं की एक लम्बी सूची और सार्वजनिक है। आज जो लोग धर्म के आधार पर मुस्लिम समुदाय के विरोध में खड़े हैं वह इन बड़े नेताओं के अपने परिवारों के भीतर और बाहर के धार्मिक चरित्र पर भी ईमानदारी से विचार करके इन सवालों का जवाब दें।
केन्द्र सरकार के वर्ष 2019-20 के बजट में यह कहा गया था कि इस वर्ष सरकार की कुल राजस्व आय 27,86,349 करोड़ रहेगी लेकिन संशोधित अनुमानों में इसे घटाकर 26,98,522 करोड़ पर लाया गया है। यही स्थिति खर्च में भी रही है। बजट अनुमानों के मुताबिक कुल 27,86,349 करोड़ माना गया था जिसे संशोधित करके 26,98,522 करोड़ पर लाया गया है इसके परिणामस्वरूप जो घाटा 4,85019 करोड़ आंका गया था वह संशोधित में 4,99,544 करोड़ हो गया है। वर्ष 2019-20 के इन बजट आंकड़ों से यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार के आय, व्यय और घाटे के सारे आकलन और अनुमान जमीनी हकीकत पर पूरे नही उतर पाये हैं। इसी गणित में जो आंकड़े वित्तिय वर्ष 2020-21 के लिये दिये गये हैं जिनमें कुल 3042230 करोड़ का आय और व्यय दिखाया गया है वह कितना सही उतर पायेगा यह विश्वास करना कठिन हो जाता है। इस वस्तुस्थिति में जनता को वायदों और ब्यानों के मायाजाल में उलझाये रखने के अतिरिक्त तन्त्र के पास कुछ शेष नही रह जाता है। आज अगले वित्त वर्ष में सरकार ने दो लाख करोड़ से अधिक के विनिवेश का लक्ष्य रखा है जो पिछले वर्ष एक लाख करोड़ था। स्वभाविक है कि विनिवेश में सरकारी उपक्रमों को निजिक्षेत्र को दिया जायेगा। इसमें भारत पैट्रोलियम, एलआईसी, बीएसएनएल, आईटीबीआई, एयर इण्डिया और इण्डियन रेलवे जैसे उपक्रम सूचीबद्ध कर लिये गये हैं। अभी बीएसएनएल में करीब 93000 कर्मचारियों को इकट्ठे सेवानिवृति दी गयी है क्योंकि उसे नीजिक्षेत्र को सौंपना है। ऐसा ही अन्य उपक्रमों में भी होगा। नीजिक्षेत्र में जाने की प्रक्रिया का पहला असर वहां काम कर रहे कर्मचारियों पर होता है। क्योंकि सरकार की नीति लाभ से ज्यादा रोज़गार देने पर होती है जबकि नीतिक्षेत्र में लाभ कमाना ही मुख्य उद्देश्य होता है रोजगार देना नहीं। स्वभाविक है कि जब नीजिकरण की यह प्रक्रिया चलेगी तो इससे रोज़गार के अवसर कम होंगे जिसका सीधा असर देश के युवा पर पडे़गा और वह कल सरकार की नीतियों के विरोध में सड़क पर आने के लिये विवश हो जायेगा।
आर्थिक मुहाने पर ऐसे बहुत सारे बिन्दु हैं जहां सरकार की आर्थिक नीतियों /फैसलों पर खुले मन से सार्वजनिक चर्चा की आवश्यकता है। अभी सरकार नै बैंकों में आम आदमी के जमा पैसे की इन्शयोरैन्स की राशी एक लाख से बढ़ा कर पांच लाख की है। पहले केवल एक लाख ही बैंक में सुरक्षित रहता था जो अब पांच लाख हो गया है। यह स्वागत योग्य कदम है लेकिन इसी के साथ बैंकों को रैगुलेट करने के लिये आरबीआई से हटकर जो अथाॅरिटी बनाने की बात वित्त मन्त्री ने की है उसके तहत बैंक का घाटा उस बैंक में जमा बचत खातों से पूरा करने का जो प्रावधान किये जाने की बात है क्या उस पर सर्वाजनिक चर्चा की आवश्यकता नही है। वित्त मन्त्री ने कहा है कि इस संबंध में शीघ्र ही विधेयक लाया जायेगा। इस समय सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए लाखों करोड़ हो चुका है। बहुत सारे कर्जधारक देश छोड़कर विदेशों में जा बैठे हैं उनसे पैसा वसूलने और उन्हें वापिस लाने की प्रक्रियाएं चल रही हैं जिनका कोई परिणाम सामने नही आया है और इस पर कोई सार्वजनिक बहस भी उठाने नहीं दी जा रही है। बल्कि यह आरोप लग रहा है कि आर्थिक असफलताओं पर बहस को रोकने के लिये ही एनआरसी, एनपीआर और सीएए जैसे मुद्दे लाये गये हैं। ऐसे में यह स्पष्ट है कि जब इन मुद्दों के साथ आर्थिक असफलता जुड़ जायेगी तो उसके परिणाम बहुत ही घातक होंगे।
शाहीन बाग में विरोध पर बैठे लोगों की मांग है कि सरकार उनकी बात सुने। कानून मन्त्री रवि शंकर प्रसाद ने जब यह ब्यान दिया कि सरकार इन लोगों से बात करने के लिये तैयार है लेकिन फिर उसी दिन प्रधानमन्त्री का ब्यान आ जाता है कि भाजपा को इस पर आक्रमकता से अपनी बात रखनी होगी। प्रधानमन्त्री का यह ब्यान भाजपा कार्यकर्ताओं और नेताओं को एक निर्देश है। प्रधानमन्त्री और गृहमन्त्री ने जब विरोधियों पर आरोप लगाया कि यह लोग टुकड़े-टुकड़े गैंग का समर्थन कर रहे हैं तो निश्चित रूप से इससे बड़ा कोई आरोप नही हो सकता। ऐसे लोग सही में राष्ट्रद्रोही कहे जा सकते हैं। जब देश का प्रधानमन्त्री और गृहमन्त्री इतना बड़ा आरोप लगाये तो स्वभाविक है कि यह आरोप तथ्यों पर आधारित होगा। क्योंकि तब किसी के खिलाफ इस निष्कर्ष पर पहंुचेंगे कि वह देश के टुकड़े-टुकड़े करने की बात कर रहा है तो तय है कि यहां तक पहुंचने से पहले देश की गुप्तचर ऐजैन्सीयों ने इस संद्धर्भ में सारे प्रमाण जुटा लिये होंगे। इसके लिये मानदण्ड तय कर लिये गये होंगे कि किस आधार पर किसी का ऐसा वर्गीकरण किया जायेगा। प्रधानमन्त्री और गृहमन्त्री के इन आरोप पर जब गृह मन्त्रालय से आरटीआई के माध्यम से यह सूचना मांगी गयी कि टुकड़े-टुकड़े गैंग को लेकर सरकार के पास क्या जानकारी है। क्या इसके लिये कोई मानदण्ड बनाये गये हैं। क्या इसकी कोई सूची उपलब्ध है। इस तरह की सारी जानकारियां एक अंग्रेजी दैनिक एक्सप्रैस के पत्रकार ने मांगी थी। लेकिन गृह मंत्रालय ने इस टुकड़े-टुकड़े गैंग को लेकर पूरी अनभिज्ञता जाहिर की। उसके गृह मन्त्रालय के पास कोई जानकारी ही नही है। अखबारों ने अपने पहले पन्ने पर यह खबर छापी है। जिस पर किसी का कोई खण्डन नही आया है। इस तरह आरटीआई के जवाब से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस तरह का संबोधन/आरोप बिना किसी प्रमाण के ही लगा दिया गया। आज हर छोटा-बड़ा नेता इस आरोप को हवा दे रहा है।
दिल्ली चुनावों के प्रचार में जब अनुराग ठाकुर और प्रवेश वर्मा के ब्यानों का कड़ा संज्ञान लेते हुय चुनाव आयोग ने उन पर प्रतिबन्ध लगाया तो भाजपा ने इस प्रतिबन्ध का विरोध करते हुए चुनाव आयोग में इस पर आपति दर्ज करवाई। यह आपति दर्ज करवाने का अर्थ है कि भाजपा प्रवेश वर्मा और अनुराग ठाकुर के ब्यानों का समर्थन करती है। आज जब प्रधानमन्त्री ने पार्टी को निर्देश दिया है कि वह आक्रामक होकर इस संशोधन पर अपना पक्ष रखें तो स्वभाविक है कि अनुराग और प्रवेश वर्मा की तर्ज के कई और ऐसे ही ब्यान देखने को मिलंेगे। जिस तरह से जामिया और शाहीन बाग में दो छात्रों ने गोली चलायी है ऐसे ही कई और छात्र देश के अन्य भागों में भी देखने को मिल जायें तो क्या उससे कोई हैरानी होगी क्योंकि इस मुद्दे पर तर्क तो सर्वोच्च न्यायालय में ही सामने आयेगा जहां सरकार और याचिकाकर्ता खुलकर अपना-अपना पक्ष रखेंगे। अभी इस संशोधन पर उभरा विरोध थमा नही है और इसी बीच शाहीन बाग में संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा तैयार किये गये भारतीय संविधान को लेकर भी चर्चा उठ गयी है। यह आरोप लगाया गया है कि यह नया संविधान हिन्दु धर्म पर आधारित है। इसके मुताबिक भारत को एक हिन्दु राष्ट्र घोषित कर दिया जायेगा। इस कथित संविधान का संक्षिप्त प्रारूप सोशल मीडिया के मंच पर आ चुका है। लेकिन इस कथित संविधान को लेकर सरकार और संघ की ओर से कोई स्पष्टीकरण/खण्डन जारी नही किया गया है। यह संविधान पूरी तरह मनुस्मृति पर आधारित है। आज पूरे देश में ही नही बल्कि यूरोपीय यूनियन के मंच तक नागरकिता संशोधन अधिनियम चर्चा और विवाद का विषय बन चुका है। ऐसे में इसी समय इस सविंधान की चर्चा उठना और बड़े गंभीर संकेत और संदेश देता है जिस पर समय रहते कदम उठाने की आवश्यकता है।
शाहीन बाग में विरोध पर बैठे लोगों की मांग है कि सरकार उनकी बात सुने। कानून मन्त्री रवि शंकर प्रसाद ने जब यह ब्यान दिया कि सरकार इन लोगों से बात करने के लिये तैयार है लेकिन फिर उसी दिन प्रधानमन्त्री का ब्यान आ जाता है कि भाजपा को इस पर आक्रमकता से अपनी बात रखनी होगी। प्रधानमन्त्री का यह ब्यान भाजपा कार्यकर्ताओं और नेताओं को एक निर्देश है। प्रधानमन्त्री और गृहमन्त्री ने जब विरोधियों पर आरोप लगाया कि यह लोग टुकड़े-टुकड़े गैंग का समर्थन कर रहे हैं तो निश्चित रूप से इससे बड़ा कोई आरोप नही हो सकता। ऐसे लोग सही में राष्ट्रद्रोही कहे जा सकते हैं। जब देश का प्रधानमन्त्री और गृहमन्त्री इतना बड़ा आरोप लगाये तो स्वभाविक है कि यह आरोप तथ्यों पर आधारित होगा। क्योंकि तब किसी के खिलाफ इस निष्कर्ष पर पहंुचेंगे कि वह देश के टुकड़े-टुकड़े करने की बात कर रहा है तो तय है कि यहां तक पहुंचने से पहले देश की गुप्तचर ऐजैन्सीयों ने इस संद्धर्भ में सारे प्रमाण जुटा लिये होंगे। इसके लिये मानदण्ड तय कर लिये गये होंगे कि किस आधार पर किसी का ऐसा वर्गीकरण किया जायेगा। प्रधानमन्त्री और गृहमन्त्री के इन आरोप पर जब गृह मन्त्रालय से आरटीआई के माध्यम से यह सूचना मांगी गयी कि टुकड़े-टुकड़े गैंग को लेकर सरकार के पास क्या जानकारी है। क्या इसके लिये कोई मानदण्ड बनाये गये हैं। क्या इसकी कोई सूची उपलब्ध है। इस तरह की सारी जानकारियां एक अंग्रेजी दैनिक एक्सप्रैस के पत्रकार ने मांगी थी। लेकिन गृह मंत्रालय ने इस टुकड़े-टुकड़े गैंग को लेकर पूरी अनभिज्ञता जाहिर की। उसके गृह मन्त्रालय के पास कोई जानकारी ही नही है। अखबारों ने अपने पहले पन्ने पर यह खबर छापी है। जिस पर किसी का कोई खण्डन नही आया है। इस तरह आरटीआई के जवाब से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस तरह का संबोधन/आरोप बिना किसी प्रमाण के ही लगा दिया गया। आज हर छोटा-बड़ा नेता इस आरोप को हवा दे रहा है।
दिल्ली चुनावों के प्रचार में जब अनुराग ठाकुर और प्रवेश वर्मा के ब्यानों का कड़ा संज्ञान लेते हुय चुनाव आयोग ने उन पर प्रतिबन्ध लगाया तो भाजपा ने इस प्रतिबन्ध का विरोध करते हुए चुनाव आयोग में इस पर आपति दर्ज करवाई। यह आपति दर्ज करवाने का अर्थ है कि भाजपा प्रवेश वर्मा और अनुराग ठाकुर के ब्यानों का समर्थन करती है। आज जब प्रधानमन्त्री ने पार्टी को निर्देश दिया है कि वह आक्रामक होकर इस संशोधन पर अपना पक्ष रखें तो स्वभाविक है कि अनुराग और प्रवेश वर्मा की तर्ज के कई और ऐसे ही ब्यान देखने को मिलंेगे। जिस तरह से जामिया और शाहीन बाग में दो छात्रों ने गोली चलायी है ऐसे ही कई और छात्र देश के अन्य भागों में भी देखने को मिल जायें तो क्या उससे कोई हैरानी होगी क्योंकि इस मुद्दे पर तर्क तो सर्वोच्च न्यायालय में ही सामने आयेगा जहां सरकार और याचिकाकर्ता खुलकर अपना-अपना पक्ष रखेंगे। अभी इस संशोधन पर उभरा विरोध थमा नही है और इसी बीच शाहीन बाग में संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा तैयार किये गये भारतीय संविधान को लेकर भी चर्चा उठ गयी है। यह आरोप लगाया गया है कि यह नया संविधान हिन्दु धर्म पर आधारित है। इसके मुताबिक भारत को एक हिन्दु राष्ट्र घोषित कर दिया जायेगा। इस कथित संविधान का संक्षिप्त प्रारूप सोशल मीडिया के मंच पर आ चुका है। लेकिन इस कथित संविधान को लेकर सरकार और संघ की ओर से कोई स्पष्टीकरण/खण्डन जारी नही किया गया है। यह संविधान पूरी तरह मनुस्मृति पर आधारित है। आज पूरे देश में ही नही बल्कि यूरोपीय यूनियन के मंच तक नागरकिता संशोधन अधिनियम चर्चा और विवाद का विषय बन चुका है। ऐसे में इसी समय इस सविंधान की चर्चा उठना और बड़े गंभीर संकेत और संदेश देता है जिस पर समय रहते कदम उठाने की आवश्यकता है।
लेकिन क्या सही में इतनी सी ही बात है? नहीं यह सब कुछ इससे कहीं ज्यादा बड़ा है। यह मसला असम में एनआरसी लागू होने से शुरू हुआ। असम में 1971 में पाकिस्तान विभाजन से बने बंग्लादेश से लाखों की संख्या में आये बंगलादेशी शरणार्थीयों से शुरू होता है। क्योंकि बहुत सारे लोग वापिस बंगलादेश जाने की बजाये यहीं रह गये थे। इन लोगों के यहीं रह जाने से असम के मूल लोग प्रभावित हुए और इन लोगों को वापिस बंगलादेश भेजने के लिये असम के युवाओं और छात्रों ने बड़ा आन्दोलन किया। इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप तत्कालीन केन्द्र सरकार ने इन आन्दोलनरत छात्रों के साथ समझौता किया कि 24 मार्च 1971 के बाद आये बंगलादेशीयों को वापिस भेजा जायेगा। असम गण परिषद की सरकार इसी आन्दोलन के परिणामस्वरूप बनी थी। इस समझौते को लागू करवाने के लिये सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका तक दायर हुई। इस याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने असम में ऐसे लोगों की सूची तैयार करने के निर्देश दिये। इन निर्देशों पर अमल करते हुए जो सूची तैयार की गयी उसमें करीब 20 लाख लोग गैर नागरिक पाये गये। असम में जब एनआरसी की यह प्रक्रिया चल रही थी तभी गृहमन्त्री ने संसद में यह कह दिया कि एनआरसी पूरे देश में लागू होगा। असम मे जो बीस लाख लोग गैर नागरिकों की सूची में आये उनमें ज्यादा जनसंख्या हिन्दुओं की है। हिन्दुओं की संख्या ज्यादा होने और एनआरसी के विरोध के चलते असम के सवाल को यहीं पर खड़ा कर दिया गया है।
असम की समस्या का कोई हल निकालने के स्थान पर नागरिकता संशोधन अधिनियम ला दिया गया और इसमें अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा बंगलादेश से आये गैर मुस्लिमों को नागरिकता देने का प्रावधान कर दिया गया। इस नागरिकता के लिये आधार तैयार करने का काम एनपीआर से शुरू कर दिया गया। एनपीआर हर उस व्यक्ति की गणना करेगा जो किसी स्थान पर छः माह से रह रहा है या रहना चाह रहा है। यह जनसंख्या का रजिस्टर है नागरिकों का नहीं। इसमें हर व्यक्ति गिनती में आयेगा चाहे वह नागरिक है या नही। जो व्यक्ति यहां का नागरिक है उसे अपनी नागरिकता के प्रमाण में दस्तावेज देने होंगे। उसे अपने पैरेन्टस और ग्रैन्ड पैरेन्टस का प्रमाण देना होगा। इसमें गलत सूचना देने पर दण्ड का भी प्रावधान है। यह भी प्रावधान है कि कोई भी आपके ऊपर सन्देह जता सकता है। सन्देह जताने से आप सन्देहशील की सूची में आ जायेंगे। इस सूची में आने से ही समस्याएं खड़ी हो जायेंगी। एनपीआर पर कारवाई शुरू हो गयी है। सर्वोच्च न्यायालय में नागरिकता संशोधन को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई के दौरान यह सामने आ चुका है कि उत्तर प्रदेश के उन्नीस जिलों में एनपीआर में 49 लाख सन्देहशील श्रेणी में आ गये हैं। ममता बैनर्जी के अनुसार चैदह लाख दार्जलिंग में प्रभावित हो रहे हैं। इस तरह यह माना जा रहा है कि एनपीआर के माध्यम से करोड़ों लोग सन्देहशील नागरिकों की श्रेणी में आ जायेंगे। अब देखना यह है कि इसमें किस समुदाय के कितने लोग आते हैं और उनकी आर्थिक स्थिति क्या होती है। एनपीआर में आने वाले लोग डाटा के आधार पर ही एनआरसी और नागरिकता संशोधन का काम आगे बढ़ेगा।
सरकार को संसद में मिले प्रचण्ड बहुमत के आधार पर अपने ऐजैण्डे को आगे बढ़ा रही और उसका ऐजैण्डा भारत को भी धर्म के आधार पर हिन्दु राष्ट्र बनाने का है यह हर रोज सार्वजनिक होता जा रहा है। धर्म की मादकता के आगे तर्क गौण हो चुका है। आज देश लोकतन्त्र के हर स्थापित मानक पर नीचे आता जा रहा है। विश्व समुदाय की नजर मे भारत की साख लगातार गिरती जा रही है। सर्वोच्च न्यायालय भी महत्वपूर्ण सवालों को लंबित रखने की नीति पर चल रहा है। जम्मू कश्मीर पर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई चल रही है लेकिन वहां के तीनों पूर्व मुख्यमन्त्री अभी तक नजऱबन्द चल रहे हैं। देश के मीडिया का सच कोबरा पोस्ट के स्टिंग आप्रेशन के माध्यम से सामने आ चुका है। जिसमें तीन दर्जन से अधिक बड़े मीडिया संस्थान कैसे बिकने को तैयार और किस हद तक विपक्ष के बडे नेताओं का सुनियोजित चरित्र हनन करने पर सहमत हो जाते हैं इससे देश की स्थिति का पता चल जाता है। आर्थिक तौर पर देश कितना कमजोर हो चुका है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सरकार फिर आरबीआई से पैसे की मांग कर रही है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या एनआरसी, एनपीआर और नागरिकता संशोधन पर टकराव बढ़ा कर आर्थिक असफलता को लम्बे अरसे तक छुपाया जा सकेगा? शायद नही। हर विरोध को राष्ट्रद्रोह कहकर चुप नही कराया जा सकता। आज टुकड़े-टुकड़े गैंग के सवाल पर आरटीआई में सूचना के बाद प्रधानमन्त्री और गृहमंत्री का कद बहुत छोटा हो गया है।