प्रधानमन्त्री ने जो 20 लाख करोड़ का राहत पैकेज घोषित किया है उसका विस्तृत ब्योरा वित्तमन्त्री ने पांच पत्रकार वार्ताओं के माध्यम से देश के सामने रखा है। इस ब्योरे में एक तथ्य तो यह सामने आया है कि आर बी आई ने जो 9,94,403 करोड़ के पैकेज इस घोषणा से बहुत पहले ही जारी कर रखे थे वह भी इस 20 लाख में फिर से जोड़ दिये गये हैं। इस तरह यह घोषणा केवल 11,02,650 करोड़ की ही रह जाती है। इस 20 लाख की घोषणा मेें यह दावा किया गया था कि यह राहत जीडीपी का 10% है जबकि रेटिंग ऐजैन्सी फिच्च के मुताबिक यह राहत 10% न होकर केवल 1.8% ही है। प्रधानमन्त्री ने जब 20 लाख करोड़ की घोषणा की थी तब उन्होने अपने ब्यान में यह भी देश को बताया था कि कोरोना आपदा के बाद ही यहां पर पीपीई किट्स का निर्माण शुरू हुआ है। जबकि इस आपदा से पहले ही भारत से यह किट्स निर्यात किये जा रहे थे और यह निर्यात अब 24 मार्च के बाद बन्द हुआ है और सभी इसे जानते हैं। ऐसे में प्रधानमन्त्री की पीपीई किट्स और 20 लाख करोड़ के आंकड़े को लेकर देश के सामने रखी गयी जानकारियां तथ्यों के आधार पर सही नही हैै। स्वभाविक है कि प्रधानमन्त्री को ऐसी जानकारी प्रशासन की ओर से ही दी गयी होगी और उन्होने इसे देश के सामने वैसे ही रख दिया। ऐसी आपदा के समय पर भी जब देश के सामने तथ्यहीन जानकारियां रखी जायेंगी तो उसका सीधा प्रभाव प्रधानमन्त्री की व्यक्तिगत छवि पर पडेगा और यह संदेश जायेगा कि या तो प्रधानमन्त्री को प्रशासन की ओर से सही तथ्य ही उपलब्ध नही करवाये जा रहे हैं या वह जनता को बहुत ही हल्के से ले रहे हैं। लेकिन यह दोनों ही स्थितियां देश और प्रधानमंत्री के लिये भी अच्छी नही हैं।
इस समय तात्कालिक आवश्यकता तो उस प्रवासी मज़दूर की है जो सड़कों पर है। क्योंकि उसके पास घर पहुंचने का कोई भी साधन नही है। उसे तो तत्काल उसके हाथ में नकद पैसा चाहिये था और वह ही उसे नही दिया गया। इसमें तो राहत के नाम पर भविष्य की योजनाओं का एक सपना दिखाया गया है जो इस समय उसके किसी काम का नही है। इससे हटकर भी यह राहत का पैकेज भविष्य के लिये आर्थिक सुधारों की एक रूप रेखा है। इसमें भी जिस तरह से हर क्षेत्र में प्राईवेट सैक्टर को आमन्त्रित किया गया है उससे यह लगता है कि सरकार इस समय राहत उपायों से ज्यादा भविष्य के आर्थिक सुधारों की रूप रेखा तैयार करने में लगी है। यह प्रस्तावित आर्थिक सुधार देश की आवश्यकता है या नहीं इस पर एक व्यापक सार्वजनिक बहस की आवश्यकता होगी। क्योंकि जिस देश में जनसंख्या जितनी अधिक होगी वहां पर सबसे पहले हर पेट को भरपूर भोजन की आवश्यकता है। इसके बाद कपड़ा और मकान तथा शिक्षा और स्वास्थ्य आते हैं। आज भी इस देश के 20 लाख से अधिक बच्चे सड़कों पर हैं जिन्हे भोजन तक उपलब्ध नही है। इन्हीं लोगों के लिये सामुदायिक किचन की व्यवस्था करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर हुई थी। जिस पर राज्य सरकारों ने समय पर अदालत में जवाब तक दायर नही किया और इसके लिये शीर्ष अदालत में जुर्माना तक भरा। हिमाचल भी जुर्माना भरने वाले प्रदेशों में शामिल है। इससे शासन और प्रशासन की संवदेनशीलता का पता चल जाता है। आज प्रवासी मज़दूरों की सहायता के लिये सरकारों की बजाये आम जनता इसी संवदेनशीलता के कारण ज्यादा सामने आयी है। इसलिये आज की पहली चिन्ता तो यह होनी चाहिये कि हर हाथ को काम कैसे सुनिश्चित हो पायेगा। क्योंकि यदि काम ही नहीं होगा तो उसे रोटी नसीब नही होगी और रोटी के अभाव में हिंसा ही उसके पास एक मात्र विकल्प रह जायेगा। लेकिन सरकार की प्राथमिकता शायद यह सब नही है वह तो इस आपदा को सुधारो का एक अवसर मानकर चल रही है।
आपदा को अवसर मानने की मानसिकता का परिणाम है कि सरकार हर क्षेत्र में प्राईवेट सैक्टर को आमन्त्रित कर रही है। इस आमन्त्रण के लिये सरकारी उपक्रमों को विनिवेश के लिये खोल दिया गया है। जबकि हर प्रधानमन्त्री के काल में सरकारी उपक्रम जोडे गये। 1952 के नेहरू काल से लेकर डा.मनमोहन सिंह के काल तक जो 195 सरकारी उपक्रम खड़े किये गये हैं उन्हें बनाने में हर प्रधानमन्त्री ने योगदान दिया है। लेकिन इन उपक्रमों को बेचने का सिलसिला अब मोदी काल में शुरू हुआ है। अब तक 2,79,619 करोड़ विनिवेश से कमा लिये गये हैं और दो लाख करोड़ तो 2020-21 के बजट में लक्ष्य ही रखा गया है। हो सकता है कि आपदा के चलते यह लक्ष्य और बढ़ा दिया जाये। सबसे बड़ी बात तो यह है कि यही आरएसएस एक समय स्वदेशी जागरण मंच के माध्यम से एफडीआई का विरोध करता था परन्तु आज रक्षा उत्पादन में भी 74% एफडीआई के फैसले पर एकदम खामोश बैठा है। इससे यह सवाल उठता है कि क्या संघ के विचारक तब सही थे या आज सही हैं। क्योंकि दोनों ही समय में ठीक होना संभव नही है। आज सबसे गंभीर पक्ष तो यह है कि सरकार ने शिक्षा और स्वास्थ्य में प्राईवेट सैक्टर के लिये और छूट दे दी है। इस महामारी के संकट में जब प्राईवेट सैक्टर के अस्पतालों को कोविड का टैस्ट मुफ्त करने के लिये कहा गया था तब इसका कितना विरोध इन्होने किया था यह सबके सामने है। भविष्य में भी इनका सहयोग इसी तरह रहेगा यह तय है। ऐसे में यह स्वभाविक है कि प्रवासी मज़दूरों की शक्ल में देश की आबादी का जो आधा भाग सामने आया है इस वर्ग को इस प्राईवेट क्षेत्र द्वारा संचालित स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी आवश्यकताओं की आपूर्ति में कोई सहयोग नही मिल पायेगा। लेकिन डिजिटल भारत का सपना परोसने वाली सरकार के सामने तो यह मज़दूर वर्ग कहीं है ही नही। इसकी आवश्यकता तो केवल वोट के लिये है जो किसी भी नये नारे के हथियार से हथिया लिया जायेगा।



किसी भी सकरार की वित्तिय सेहत को समझने के लिये सबसे प्रमाणिक साक्ष्य उसका बजट दस्तावेज होता है। क्योंकि इस दस्तावेज में यह दर्ज रहता है कि एक वित्तिय वर्ष में सरकार का कुल खर्च, कुल आय और कुल ऋण दायित्व कितना है। इस संद्धर्भ में वित्तिय वर्ष 2020-21 के लिये जो बजट संसद द्वारा पारित किया गया उस पर नज़र डालना आवश्यक हो जाता है। इस वर्ष के बजट दस्तावेजों के अनुसार वर्ष 2020-21 में सरकार का कुल खर्च 37,14,893.47 करोड़ होगा। इसमें स्थापना का खर्च 6,09,584.79 करोड़ पैन्शन 2,10,682 करोड़ और ब्याज भुगतान 7,08,203 करोड़ रहेगा। यह कुल खर्च ही 15,28,469.79 करोड़ हो जाता है और शायद इस खर्च में कोई कटौती करना संभव नही होता है। ऐसे में यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार को इस आपदा में अपनी ओर से 20 लाख करोड़ की राहत प्रदान करने के लिये अपने सारे विकासात्मक खर्चों पर पूर्ण विराम लगाना पड़ता है। लेकिन अभी तक सरकार ने ऐसा कुछ भी देश को नही बताया है कि वह अपने कौन से खर्चों में कटौती करने जा रही है। बल्कि 20 हज़ार करोड़ के सैन्ट्रल बिस्टा कार्यक्रम को रोकने का फैसला नही लिया गया है जबकि पुराना संसद भवन एकदम ठीक है। उसके स्थान पर नया भवन बनाने की कोई आवश्यकता नही है। ऐसे कई प्रौजैक्ट हैं जिन्हें वर्तमान हालात में शुद्ध रूप से अनुपादक खर्चे कहा जा सकता है। इस वित्तिय वर्ष में सरकार की कुल अनुमानित आय 30,95,232.91 करोड़ है लेकिन आय के यह अनुमान जब लगाये गये थे तब देश में कोई कोरोना नहीं था कोई तालाबन्दी नही थी। जबकि 24 मार्च को तालाबन्दी लगाने से एक सप्ताह में ही कर संग्रह में 6000 करोड़ की कमी आई है। अप्रैल में यह कितनी और कम हुई है इसके आंकड़े अभी तक नही आये हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार की जो वित्तिय स्थिति इन बजट दस्तावेजों से सामने आती है उनके आधार पर 20 लाख करोड़ सरकारी कोष से दे पाना किसी भी गणित से संभव नही है।
इस आपदा में सबसे ज्यादा मज़दूर वर्ग प्रभावित हुआ है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 23 करोड़ प्रवासी मज़दूर सरकार के रिकार्ड पर हैं। संभव है कि इतने ही और होंगे जो शायद सरकार के रिकार्ड से बाहर हैं। यह लोग अपने घरों को वापिस जाना चाहते हैं लेकिन इनके पास किराया तक नही है। जो 20 लाख करोड़ की राहत का पैकेज दिया गया है उसमें से इन मज़दूरों के लिये सिर्फ एक हज़ार करोड़ है। यह एक हज़ार करोड़ 23 करोड़ मज़दूरों में यदि बांटा जाये तो प्रत्येक के हिस्से में 50 रूपये भी नही आते है। फिर अभी सरकार ने लेबर नियमों में बदलाव कर दिया है। इस बदलाव से मज़दूरों को आठ घन्टे की जगह बारह घन्टे काम करना पड़ेगा। इस तरह के फैसलों का व्यवहारिक पक्ष क्या रहेगा इसका पता आने वाले दिनों में लगेगा। यह मज़दूर गांव वापिस आ रहे हैं यह उम्मीद है कि इन्हें मनरेगा में तो काम मिल जायेगा। लेकिन मनरेगा का सच यह है कि वर्ष 2019-20 में इसके लिये 71002 करोड़ का प्रावधान था और 2020-21 में इसे घटाकर 61500 करोड़ कर दिया गया है और अब पैकेज में भी इसमें कोई और बढ़ौत्तरी नही की गयी है। राहत पैकेज में किसी भी वर्ग को हाथ में कैश नही दिया गया है। किसान और रेहड़ी फड़ी वाले से लेकर उद्योगपति तक को बैंको से ऋण सुविधा का प्रावधान किया गया है कुछ को बिना किसी गंारटी के यह ऋण लेने का प्रावधान किया है। एक साल तक किस्त न चुकाने की सुविधा रहेगी। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या बैंकों के पास इतना पैसा है कि वह यह सारे ऋण दे पायेंगे। फिर देश में ऋण माफी का ऐजैण्डा तो 1977 मेें बनी जनता पार्टी की सरकार से शुरू हो गया था। यह ऐजैण्डा तब से लेकर अब तक किसी न किसी शक्ल में चल ही रहा है। बल्कि आज तो दिवालिया कानून के तहत बड़े बड़े उद्योग घराने हज़ारों करोड़ के ऋण खत्म करवा चुके हैं।
ऐसे में यह सवाल फिर अपनी जगह खड़ा रह जाता है कि क्या सरकार का यह राहत पैकेज आने वाले दिनों मेे बैंकों के लिये एक बड़ा संकट पैदा करने वाला है। क्योंकि 2018 में जो मुद्रा ऋण योजना शुरू की गयी थी उसमें लाखों करोड़ का ऋण बिना किसी गांरटी के दिया गया था जिसमें से शायद 70%से भी अधिक एनपीए हो चुका है। हिमाचल में भी इस योजना के तहत 2500 करोड़ से अधिक के ऋण दिये गये थे लेकिन इसमें से कितने एनपीए हो चुके हैं इसका कोई रिकार्ड सरकार के पास अब तक नही है। इसलिये फिर यह सवाल खड़ा रहता है कि जब सरकार के पास पैसा नही है बैंक पहले ही एनपीए के संकट में हैं तब प्रधानमन्त्री के इस ऐलान को अमली जामा कैसे पहनाया जायेगा यह सवाल उठना स्वभाविक है। फिर जो पैकेज दिया गया है यदि उस पर ईमानदारी से अमल किया जाये तो उससे उत्पादन ही बढ़ेगा जबकि आवश्यकता तो मांग के बढ़ने की है। मांग तब बढे़गी जब उपभोक्ता की क्रय शक्ति बढ़ेगी। परन्तु यह जो करोड़ों प्रवासी मज़दूर है यह उपभोक्ता का सबसे बड़ा आंकड़ा हैं और इसकी क्रय शक्ति पांच किलो अनाज़ से तो बढे़गी ही नही। फिर जिन हालात में इसे अब निकलना पडा़ है उससे इसका मनोबल एकदम टूट गया है। यह मज़दूर पूराने काम पर आसानी से लौट आयेगा इसकी संभावना इन परिस्थितियों में एकदम नही के बराबर है। ऐसे में इसका कोई जवाब नही दिखता है कि पैकेज से मांग कैसे बढ़ेगी। क्योंकि ऐसे पैकेज तो उद्योग के विभिन्न क्षेत्रों को कोरोना से बहुत पहले से दिये जाते रहे हैं और उनसे मांग पर कोई असर नही पड़ा है उल्टा आम आदमी के जमा पर बैंक लगातार ब्याज दरें कम करते आये हैं और संभव है कि इस पैकेज के बाद फिर इस जमा पर ब्याज दरें कम की जाये क्योंकि बैंकों के पास यही जमा आज आसानी से उपलब्ध है।



आज जब कोरोना को रोकने के लिये तालाबन्दी का कदम उठाया गया था तब इसके मामलों का आंकड़ा 500 का था जो अब बढ़कर 50,000 से पार हो गया है। अभी और बढ़ने की आशंका है। तालाबन्दी से करीब चालीस करोड़ लोग वह प्रभावित हुए है जो प्रवासी मज़दूरों की संज्ञा में आते हैं। अब जब इन प्रवासी मज़दूरों को अपने घर वापिस जाने की सुविधा दी गयी तब यह जिस संख्या और तरह से बाहर निकले हैं उससे सबसे पहला प्रश्न तालाबन्दी की सार्थकता पर लगा। इसके बाद जब बाज़ार खोले गये तब जिस तरह की लाईने शराब की दुकानों के बाहर देखने को मिली हैं उससे भी तालाबन्दी के फैसले पर ही सवाल खड़े हुए हैं। अब पूरे प्रदेश में व्यवहारिक स्थिति यह हो गयी है कि तालाबन्दी चाहे और कड़ी कर दी जाये तो भी स्वाईनफ्लू ही की तरह कोरोना एक लम्बे समय तक रहेगा ही। क्योंकि यदि यह मान भी लिया जाये कि तालाबन्दी से इसके फैलाव की चेन को रोकने में सफलता मिली थी तो आज उस सफलता को सरकार ने स्वयं ही असफलता में बदल दिया है। क्योंकि कोरोना को लेकर जो भी जानकारी अब तक उपलब्ध है उसमें दो तथ्य महत्वपूर्ण हैं पहला यह है कि 40% मामले ऐसे हैं जिनका कोई सोर्स नही रहा है कोई ट्रैबल हिस्ट्री नही रही है। दूसरा यह है कि जो मौतें हुई है उनमें भी अधिकांश आंकड़ा यह है कि इन लोगों को कोरोना के अतिरिक्त और भी गंभीर बिमारीयां थी। ऐसे में डाक्टर अभी तक इसका कोई निश्चित पैटर्न तय नही कर पाये हैं। क्योंकि यह भी सामने रहा है कि परिवार में एक आदमी को तो हो गया परन्तु दूसरे बचे रहे। इस परिप्रेक्ष में और अहम सवाल हो जाता है कि इस महामारी के साथ ही देश को गंभीर आर्थिक संकट में डालने का औचित्य क्या है। जब से तालाबन्दी हुई है तब से सारा कारोबार बन्द पड़ा है। अब जब सरकार ने मज़दूरों को अपने घर गांव वापिस जाने की सुविधा दी तब जाने वाले मज़दूरों की संख्या रहने वालों से कई गुणा ज्यादा है जबकि कई उद्योगों को काम काज की अनुमति मिल चुकी है। लेकिन अधिकांश लोग काम पर लौटने की बजाये घर वापिस जाने को ही प्राथमिकता दे रहे हैं। ऐसा इसलिये हो रहा है कि इस बिमारी में भी जिस तरह से कुछ लोगों ने हिन्दु, मुस्लिम का सवाल खड़ा कर दिया है उससे उनका विश्वास ही टूट गया है। इस विश्वास को बनने में वर्षों लगेंगे क्योंकि सरकार की ओर से इस दिशा में कोई कारगर और व्यवहारिक कदम नही उठाये जा रहे हैं। एक तरह से आम आदमी का विश्वास शासन और प्रशासन से लगातार उठता जा रहा है। बल्कि यह कहना ज्यादा संगत होगा कि अविश्वास का जो वातावरण नागरिकता संशोधन अधिनियम के परिदृश्य में पैदा हुआ था उसे इस बिमारी ने और बढ़ा दिया है। यह तय है कि आने वाले लम्बे समय तक देश की अर्थव्यस्था को सामान्य होने में कठिनाई आयेगी। क्योंकि मज़दूर अपने घरों को वापिस चले गये हैं उनका लौटना आसानी से संभव नही होगा।
इस समय यदि आर्थिक संकट के आकार का आकलन किया जाये तो यह इस महामारी से कई गुणा बड़ा हो गया है। करोड़ो लोग बेरोज़गार हो गये हैं। बल्कि यह कहना ज्यादा सही है कि नोटबन्दी से जो कारोबार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा अभी तक सारा बाज़ार उससे ही बाहर नही निकल पाया था कि इस तालाबन्दी ने न केवल पुरानी यादों को ताजा कर दिया हैं बल्कि और गहरा दिया है। जब सरकार को महामारी के नाम पर जनता से सहयोग मांगना पड़ जाये, कर्मचारियों के वेत्तन में कटौती करनी पड़ जाये तो आर्थिक स्थिति का अनुमान लगाना आसान हो जाता है। लेकिन जब इन सबके साथ यह सामने आये कि सरकार बीस हज़ार करोड़ खर्च करके नया संसद भवन और अन्य कार्यालय बनाने जा रही है तो उससे सरकार की नीयत और नीति दोनो पर सवाल खड़े हो जाते हैं। जब सरकार पंतजलि उद्योग जैसों का हजारों करोड़ो का कर्जा बट्टे खाते मे डाल सकती है तो सरकार की समझ से ज्यादा उसकी नीयत पर सवाल खड़े होते है। क्योंकि यह बुनियादी बात है कि जब कर्ज की वसूली नही की जायेगी तो एक दिन आपका सारा भण्डार खत्म हो जायेगा यह तय है। आज शायद हालात इस मोड़ पर पहुंच गये हैं । सरकार की प्राथमिकताओं पर सवाल खड़े हो गये हैं। यह लग रहा है कि गरीब और मध्यम वर्ग उसके ऐजैण्डे से बाहर है। कुछ अमीर लोगों की हित पोषक होकर रह गयी है सरकार इसीलिये वह बुलेट ट्रेन और सैन्ट्रल बिस्टा जैसे कार्यक्रम को रोकने के स्थान पर कर्मचारीयों तथा पैन्शनरों के मंहगाई भत्त्ते रोकने को प्राथमिकता दे रही है। विश्वभर में कच्चे तेल की कीमतों में कमी आयी है लेकिन भारत में इसके दाम घटने की बजाये बढ़ते जा रहे हैं। तेल पर 69% टैक्स लिया जा रहा है इसके दाम बढने का अर्थ है कि है कि चीज मंहगी हो जायेगी। यह शायद इसलिये किया जा रहा है क्योंकि चुनाव जीतने के लिये जिस तरह से विभिन्न वर्गों को आर्थिक सहायता दी जाती है उसे पूरा करने के लिये इस तरह के कदम उठाये जाते हैं। आम आदमी सरकार की इस अमीरी प्रस्ती के बारे में सोच ही न सके इसलिये उसे हिन्दु मुस्लिम और मन्दिर मस्जिद के झगड़ों में उलझा दिया जाता है। यही कारण है कि 2014 के चुनाव से पहले जो भ्रष्टाचार के मामले उठाये गये थे उन्हे बाद में गो रक्षा, भीड़, हिंसा और लव जिहाद के नाम पर दबा दिया गया। फिर जब चुनावों मे ई वी एम पर विवाद उठा और सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गया तब उससे बड़ा नागरिकता संशोधन मुद्दा खड़ा हो गया। लेकिन सबके दौरान बैंको में आम आदमी के जमा पर लगातार ब्याज में कटौती होती गयी और बड़ों का 6.60 लाख करोड़ का कर्ज बट्टे खाते में डाल दिया गया। लेकिन इसे मुद्दा नही बनने दिया गया। इस वस्तुस्थिति में यह तय है कि जब तक आम आदमी ऐसी महामारी में भी हिन्दु-मुस्लिम में बंटा रहेगा तो कालान्तर मे वह पकौड़े तलने के अतिरिक्त और कुछ करने लायक नही रहेगा।


स्वाईनफ्लू के इन आंकड़ों और आज के कोरोना के आंकड़ों को एक साथ रखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वाईनफ्लू की गंभीरता कोरोना से कम नहीं थी। वह भी उतना ही मारक रहा है जितना कोरोना है। लेकिन स्वाईनफ्लू के समय कोई तालाबन्दी नही की गयी थी। कोई कफ्र्यू नही लगाया गया था। क्या उस समय शासन प्रशासन ने स्वाईनफ्लू की गंभीरता का आकलन करने में कोई चूक की थी? क्या 8000 मौतें हो जाने के बाद इसकी भयानकता समझ आयी है? स्वाईनफ्लू के रोगियों का ईलाज और उनकी देखभाल करने वाले डाक्टर तथा अन्य स्वास्थ्य कर्मी मास्क पहनने, सोशल डिस्टैसिंग रखने तथा सैनेटाईजेशन की अनुपालना करते थे। लेकिन उस समय समाज में इसका भय आज की तरह प्रभावित और प्रसारित नही किया गया था। आज भी बुहत सारे डाक्टर और कई पूर्व वरिष्ठ नौकरशाह यह कह रहे हैं कि इससे इस तरह आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन जिस तरह से तालाबन्दी लागू की गयी और उनकी अनुपालना सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी पुलिस को दी गयी तथा अवेहलना करने वालों के खिलाफ आपराधिक मामले बनाये गये हैं उससे सारी स्थिति इतनी भयावह हो गयी है कि कोई किसी की खुशी और गम में शरीक नही हो पा रहा है। सोशल डिस्टैंसिंग मानसिक डिस्टैसिंग बन गयी है।
24 मार्च को तालाबन्दी घोषित की गयी। उस समय किसी को भी इतना समय नही मिला कि कोई आवश्यक वस्तुएं जुटाकर रख पाता। ‘जो जहां है वह वहीं रहे’ का नियम लागू हो गया। करोडो़ लोग एक झटके में बेकार और बेरोज़गार होकर बैठ गये क्योंकि एक छोटी दुकान से लेकर बड़े से बड़ा कारखाना तक बन्द हो गया। लोगों को खाने का संकट खड़ा हो गया। लोग अपने घरों को वापिस जाना चाहते थे लेकिन अनुमति नही दी गयी। क्योंकि एक दूसरे के साथ मिलने से हर एक के संक्रमित होने का व्यक्तिगत डर बैठ गया था। इसी समय जब दिल्ली के निजा़मुद्दीन मरकज़ में तबलीगी समाज का आयोजन सामने आया तो उससे स्थिति की गंभीरता और बढ़ गयी। इन लोगों को इसका वाहक करार दे दिया गया। आंकडे़ इस ढंग से सामने आये की इन्ही के कारण कोरोना फैल रहा है। सोशल मीडिया पर ऐसे-ऐसे विडियोज़ वायरल हो गये जिनसे पूरा मुस्लिम समाज कटघरे में खड़ा कर दिया गया। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इसको लेकर कड़ी प्रतिक्रियाएं सामने आयी हैं। लेकिन इस सबके वाबजूद देश के लोगों ने इसे स्वीकार कर लिया। सरकार के दिशा निर्देशों पर कोई एतराज नही उठाया। लेकिन अब जब सरकार ने प्रवासी मजदूरों और छात्रों को अपने घरों अपने राज्यों में लौटने की राहत दे दी तब पहली बार सरकार के फैसले पर सवाल उठे हैं।
तालाबन्दी से करोड़ो लोग प्रभावित हुए हैं। कोरोना की जो वस्तुस्थिति 24 मार्च को थी आज उसमें कोई सुधार नही हुआ है। तालाबन्दी के वाबजूद इसके मामले बढे़े हैं। ईलाज के नाम पर मास्क पहनना, सोशल डिस्टैसिंग रखना, सैनेटाईज़र का उपयोग करने का ही परेहज उपलब्ध है। आज सरकार ने इन मज़दूरों को आने जाने की अनुमति दे दी है लाखों का आना जाना हो भी गया है। एक ही शर्त रखी गयी है कि आने जाने वाले का परीक्षण किया जाये और संगरोधन में रखा जाये। बहुत सारे भाजपा नेताओं ने ही सरकार के इस फैसले पर सवाल भी खडे किये हैं। क्योंकि इतने सारे लोगों का परीक्षण करना और उनको संगरोधन में रख पाना व्यवहारिक रूप से ही संभव नही है। क्योंकि आज देश में परीक्षण के लिये जितने भी उपकरण उपलब्ध है यदि उन सबका इस्तेमाल दिन में तीन शिफ्टों में भी किया जाये तब एक टैस्ट करने में कितना समय लगेगा। इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है फिर अब तक 40% मामले तो ऐसे पाये गये हैं जिनमें प्रत्यक्ष लक्षण रहे ही नही है। इसलिये आज जब इन मजदूरों को आने जाने की अनुमति दे दी गयी है तब इनके संक्रमित होने इनसे संक्रमण फैलने की संभावना नही बनी रहेगी? क्या सरकार को इसका कोई अहसास ही नही हो पाया है या फिर सोच समझ कर यह फैसला लिया गया है। क्या इस फैसले से सरकार स्वयं ही तबलीगी समाज की कतार में ही नही खड़ी हो जाती है। यह सवाल लम्बे समय तक सरकार की नीयत और नीति पर प्रश्नचिन्ह खड़े करता रहेगा।
अब सरकार ने आरोग्य सेतु ऐप डाऊनलोड़ करना अनिवार्य कर दिया है। लेकिन इसके डाऊनलोड़ करने से आपका डाटा चोरी होने का डर है यह चेतावनी हिमाचल के डीजीपी ने दी है उन्होने इसको बडे़ सावधानी से डाऊनलोड़ करने की राय दी है। इस ऐप से आपके ऊपर निगरानी रखी जायेगी यह आशंका कांग्रेस नेता राहूल गांधी ने भी व्यक्त की है जिस पर रविशंकर प्रसाद ने कड़ा एतराज उठाया है। लेकिन पिछले दिनों सरकार ने टैलिकाॅम कंपनीयों से मोबाईल कालिंग का रिकार्ड मांगा था। इस पर शायद एयरटेल ने एतराज जताया था कि वह ऐसा किस नियम के तहत कर सकते हैं। उसी दौरान सोशल मीडिया में यह चर्चा उठी थी कि एक ऐसा ऐप तैयार किया जा रहा है जिसके माध्यम से संबंधित व्यक्ति के बारे में सारी जानकारी जुटा ली जायेगी जो एनपीआर के माध्यम से लेने का प्रयास किया जा रहा है। इस चर्चा का कोई खण्डन आज तक आया नही है और यह माना नही जा सकता कि सरकार को इसकी जानकारी न रही हो। आज सरकार ने प्रवासी मज़ूदरों के आने जाने में परीक्षण की शर्त लगाई है। लेकिन जब इसी आग्रह की एक याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दायर हुई थी तब उसकी सुनवाई के समय शीर्ष अदालत ने उसे यह कहकर नही सुना था कि इसमें राजनीति की गंध आ रही है। इस पर बहुत सारे हल्कों पर प्रतिक्रियाएं भी उभरी थी क्योंकि इसी याचिका में पीएम केयर फण्ड पर भी सवाल उठाया गया था। आज देश की आर्थिक स्थिति एक प्रलय के मुहाने पर पहंुच गयी है। यह चेतावनी प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के आर्थिक सलाहकार रहे अरविन्द सुब्रहमण्यम ने दी है। आरटीआई के माध्यम से यह सामने आ चुका है कि कैसे अब तक 6.60 लाख करोड़ के ऋण बट्टे खाते में डाले जा चुके हैं। इन खुलासों से यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब स्वाईनफ्लू के दौर में तालाबन्दी जैसे कदमों की आवश्यकता नही समझी गयी थी तो अब कोरोना के समय क्यों?



कोरोना को लेकर सरकारी स्तर पर चिन्ताएं 14-15 मार्च को सामने आयी थी जब शैक्षणिक, धार्मिक और अन्य सार्वजनिक स्थलों को बन्द कर दिया गया था। 22 मार्च को प्रधानमन्त्री के आह्वान पर एक दिन के कफ्रर्यू की अनुपालना की गयी थी1 24 मार्च से पूरे देश में लाकडाऊन चल रहा है। कुछ राज्यों ने तो कफ्रर्यू तक लगा रखा है। सारी आर्थिक गतिविधियों पर पूरा विराम लगा हुआ है। विपक्ष भी इस आपदा में पूरी तरह सरकार के साथ खड़ा है। कहीं से यह सवाल नही उठ रहा है कि आर्थिक गतिविधियों को पूरी तरह बन्द कर देना संकट का हल कैसे हो सकता है। इस महामारी से लड़ने के लिये सरकार की तैयारियों पर कोई सवाल नही उठाया गया है। इस समय सरकार के साथ एक-जुटता से खड़े होना ही सबकी प्राथमिकता बनी हुई है। लेकिन इसी दौरान जब दिल्ली के निजामुद्दीन मरकज में मुस्लिम समाज के तबलीगी समुदाय का एक सम्मेलन हुआ तक उस सम्मेलन के बाद तबलीगी समुदाय को ऐसे प्रचारित किया गया कि देश में शायद कोराना इन्ही के कारण फैला है। पूरे देश में तबलीगीयों को चिन्हित करने उन्हे पकड़ने की मुहिम शुरू हो गयी। सैकड़ो लोगों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज कर लिये गये। सोशल मीडिया से लेकर इलैक्ट्रानिक मीडिया के एक बड़े हिस्से ने इन्हें कोरोना बम और तालिबानी के संबोधन तक दे दिये। कई जगहों पर हिंसा तक हो गयी।
मीडिया के एक बड़े वर्ग में जब इस समुदाय के खिलाफ एक सुनियोजित प्रचार चल रहा था तब सरकार की ओर से इस प्रचार को रोकने के लिये कोई कदम नही उठाये गये। सरकार की इस तटस्थता के बाद सर्वोच्च न्यायालय में कुछ मुस्लिम संगठनों की ओर से एक याचिका दायर हुई। इस याचिका में ऐसे प्रचार के खिलाफ कारवाई करने और मीडिया को दिशा निर्देश जारी करने का आग्रह किया गया था। याचिका में पूरे दस्तावेजी प्रमाण संलग्न किये गये थे। लेकिन इस याचिका पर कोई विशेष कारवाई नही हुई । फेक न्यूज़ को लेकर कुछ दिशा निर्देश जारी हुए और प्रैस कांऊसिल आफ इण्डिया से भी याचिका में लगाये गये आरोपों पर जवाब मांग लिया गया है। इन आरोपों की प्रमाणिकता का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है जब 17 अप्रैल को दैनिक जागरण ने यह खबर छापी की मेरठ के कैंसर अस्पताल ने यह नोटिस चिपका रखा है कि मुस्लिम रोगी तभी यहां आये जब उसे कोरोना नैगेटिव घोषित कर दिया गया हो। उसी दिन एक्सप्रैस के अहमदाबाद संस्करण में भी यह छपा कि अहमदाबाद के अस्पताल में भी हिन्दु और मुस्लिम के लिये अलग-अलग वार्ड बना दिये गये हैं और यह सरकार के निर्देशों के अनुसार हुआ है। इन समाचारों का कोई खण्डन नही आया। बल्कि 18 अप्रैल को भारत सरकार के संयुक्त सचिव ने अपनी दैनिक ब्रिफिंग में आकड़े रखते हुए यह बताया की 14378 मामलों में से 4291 मामले तबलीगी समाज से हैं। तमिलनाडू के 84% दिल्ली के 63% तेलंगाना के 79% उत्तर प्रदेश के 59% और आंध्रप्रदेश के 61% मामले तबलीगी से जुडे़ हैं। आकंडो के इस तरह के विवरण से यह और पुख्ता हो गया कि यही समाज इस बिमारी का एक मात्र कारण होता जा रहा है।
इन खुलासों के बाद मुस्लिम समुदाय के खिलाफ जो नफरत का वातावरण बना है वह केवल भारत तक ही सीमित नही रहा है। बल्कि मुस्लिम देशो में बैठे कई उग्र हिन्दुवाद के समर्थक भारतीय, ईस्लाम और मुस्लिमों के खिलाफ घिनौने प्रचार में लग गये हैं। ईस्लामिक देशों के संगठनों ने इस प्रचार का कड़ा संज्ञान लिया है। बहुत सारे ऐसे दुष्प्रचारक अपनी पोस्टों में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी का फोटो भी अपने साथ डालकर यह संकेत दे रहे हैं कि उन्हे प्रधानमन्त्री का आर्शीवाद प्राप्त है। वहां की सरकारों ने इसको गंभीरता से लिया है कि जो समर्थक यहां रोज़ी, रोटी कमाते हुए भी ईस्लाम और मुस्लिमों के खिलाफ ऐसा प्रचार कर रहे हैं वह अपने देश में क्या-क्या कर रहे होंगे । इन देशो में भीरतीयों के खिलाफ वातावरण बनना शुरू हो गया है। भारतीयों को वापिस भेजने की मांग उठनी शुरू हो गयी है। ऐसे एक दर्जन कट्टरवादीयों के खिलाफ कारवाई करते हुए उन्हे नौकरी से भी निकाल दिया गया है। संकेत और संदेश स्पष्ट है कि यदि मुस्लिमों के खिलाफ यह नफरत प्रचार बन्द न हुआ तो विदेशों में बैठे भारतीय गंभीर संकट में पड़ जायेंगे।