क्या देश की राजनीति वैचारिक संकट से गुजर रही है? क्या राजनीति में स्वार्थ ही सर्वोपरि हो गया है? क्या जन सेवा राजनीति में केवल सुविधा का तर्क होकर रह गयी है। इस तरह के दर्जनों सवाल आज राजनीतिक विश्लेष्कों के लिये चिन्तन का विषय बन गये हैं। यह सवाल ज्योतिरादित्य सिन्धिया के अठारह वर्ष कांग्रेस मे केन्द्रिय मन्त्री से लेकर संगठन में विभिन्न पदों पर रहने के बाद भाजपा में शामिल होने से उठ खड़े हुए हैं क्योंकि उन्होंने कांग्रेस छोड़ने का कारण अपनी अनदेखी होना कहा है। मान-सम्मान और पहचान को सर्वोपरि बताते हुए उन्होंने यह कहा है कि कांग्रेस में रहकर अब जनसेवा करना संभव नही रह गया है। सिन्धिया के कांग्रेस छोड़ने पर कांग्रेस के भीतर भी आत्मनिरीक्षण किये जाने की मांग कुछ लोगों ने की है। बहुत लोगों ने कांग्रेस नेतृत्व की क्षमता पर सवाल उठाते हुए कांग्रेस का नेतृत्व गांधी परिवार से बाहर ले जाने की बात की है। आज देश जिस तरह के राजनीतिक परिदृश्य से गुजर रहा है उसमें सिन्धिया के पार्टी बदलने पर उठे सवाल महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
सिन्धिया के कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल होते ही भाजपा ने उन्हे राज्यसभा के लिये उम्मीदवार बना दिया है। राज्यसभा सदस्य बनने के बाद केन्द्र में मन्त्री बनने की भी चर्चा है। पूरे मन्त्री बनते है या राज्य मन्त्री और उससे उनका सम्मान कितना बहाल रहता है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। सिन्धिया के साथ छः मन्त्रीयों सहित बाईस कांग्रेस विधायकों ने भी पार्टी छोड़ी है। बाईस विधायकों के पार्टी छोड़ने से कांग्रेस की कमलनाथ सरकार गिर जाती है या बची रहती है यह भी आने वाला समय ही बतायेगा। भाजपा के कितने मूल नेता इस दल बदल के लिये अपने राजनीतिक हितों की बलि देने के लिये सही मे तैयार हो जाते हैं यह भी आने वाले दिनों में ही सामने आयेगा। क्योंकि यह सवाल अन्ततः उठेगा ही कि भाजपा ने अपनी सत्ता के बल पर जो कांग्रेस सरकार को गिराने का प्रयास किया है वह सही में नैतिक है या नही। यदि इस सबके बावजूद भी सरकार नही गिरती है तब यह भाजपा के अपने ही भीतर एक बड़े विस्फोटक का कारण भी बन सकता है। इस समय भाजपा की सबसे बड़ी राजनीतिक उपलब्धियां जम्मू कश्मीर से धारा 370 और 35 ए तथा तीन तलाक समाप्त करना रहा है। राममन्दिर पर आये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को भी भाजपा अपनी उपलब्धि मान रही है। लेकिन इन सारी उपलब्धियों के सहारे भी भाजपा दिल्ली और झारखण्ड चुनाव हार गयी। इससे पहले मध्यप्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़ हार गयी। हरियाणा में अपने दम पर बहुमत नही मिल पाया। महाराष्ट्र में शिव सेना साथ छोड़ गयी। यह ऐसे राजनीतिक घटनाक्रम है जो यह सोचने पर बाध्य करते हैं कि इन राज्यों में भाजपा की हार क्यों हुई। जिस धार्मिक ध्रुवीकरण के सहारे केन्द्र की सत्ता मिली उसी के कारण राज्यों में हार जाना एक बहुत बड़ा सवाल है। भाजपा की हार का लाभ उस कांग्रेस को मिला है जिसके नेतृत्व के खिलाफ पूरा अभियान चला हुआ है। इस परिदृश्य में यह देखना महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या धारा 370, तीन तलाक और राममन्दिर से भी बड़े ऐसे कौन से मुद्दे आ गये हैं जो जनता को सीधे प्रभवित कर रहे हैं।
इस पर अगर नज़र दौड़ाई जाये तो मोदी सरकार का सबसे बडा फैसला नोटबंदी था। इस फैसले के जो भी लाभ गिनाये गये थे वह सब धरातल पर प्रमाणित नही हो पाये हैं क्योंकि 99.6% पुराने नोट नये नोटों से बदले गये हैं। इससे कालेधन और इसके आतंकी गतिविधियों में लगने के सारे आकलन हवाई सिद्ध हुए उल्टे यह नोट बदलने में जो समय लगा उससे सारा कारोबार प्रभावित हो गया। नोटबंदी के बाद जीएसटी का फैसला आ गया इस फैसले से जो राजस्व इकट्ठा होने के अनुमान थे वह भी पूरे नही हो पाये क्योंकि कारोबार प्रभावित हो गया था। इन्ही फैसलों के साथ बैंकों का एनपीए बढ़ता चला गया। बैंको में आरबीआई से लेकर पैसा डाला गया। लेकिन बैंकों द्वारा कर्ज वसूली के लिये कड़े माध्यम से राईट आफ करना शुरू कर दिया गया। पंजाब और महाराष्ट्र बैंक के बाद अब यस बैंक संकट मे आ गया है। आरबीआई के पास बैंको में लोगों के जमा धन पर ब्याज दरें घटाने के अतिरिक्त और कोई उपाय नही रह गया है। लेकिन जमाधन पर ब्याज दर घटाने के साथ कर्ज पर भी ब्याज दर घटायी जा रही है इसका लाभ फिर उद्योगपति उठा रहा है। उद्योगपति कर्ज लौटाने की बजाये एनपीए के प्रावधानों का लाभ उठा रहा है। इस तरह कुल मिलाकर स्थिति यह हो गयी है कि मंहगाई और घटती ब्याज दरों से बैंकों के साथ ही आम आदमी प्रभावित होना शुरू हो गया। क्योंकि वह साफ देख रहा है कि बड़े कर्जदार कर्ज वापिस लेने के उपाय करने की बजाये तो सरकार अपने अदारे बेचने की राह पर चल रही है। इससे रोज़गार का संकट लगातार गंभीर होता जा रहा है। यह एक बुनियादी सच्चाई है कि जब आदमी का पैसा डूबने के कगार पर पहुंच जाता है तब शासन-प्रशासन का हर आश्वासन उसे धोखा लगता है।
आज संयोगवश आर्थिक संकट के साथ ही सरकार एनआरसी, एनपीआर, सीएए में भी उलझ गयी है। इन मुद्दों पर सरकार के अपने ही मन्त्रियों के अलग-अलग ब्यानों से स्थिति और गंभीर हो गयी है। ऊपर से सर्वोच्च न्यायालय में यह मुद्दा लम्बा ही होता जा रहा है। इससे यह धारणा बनती जा रही है कि सरकार आर्थिक सवालों को टालने के लिये दूसरे मुद्दों को जानबूझ कर गंभीर बनाती जा रही है। इस तरह जो भी वातावरण बनता जा रहा है उसका अन्तिम प्रभाव राजनीति पर ही होगा यह तय है। सरकार की इस कार्यप्रणाली पर आज आम आदमी दूसरे राजनीतिक दलों से इस सब में उनकी जनता के प्रति भूमिका को लेकर सवाल पूछने लग गया है। जिस कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्याय मानकर जनता ने सत्ता से बाहर किया आज उसी कांग्रेस नेतृत्व से जनता यह मांग करने लग गयी है कि वह उसकी रक्षा में सामने आये। हालात ने एकदम कांग्रेस को फिर से सार्थक बना दिया है। भाजपा भी इस स्थिति को समझ रही है और संभवतः इसी कारण से कांग्रेस की सरकारों को अस्थिर करना उसकी राजनीतिक आवश्यकता बन गयी है। इसी कारण से गांधी परिवार के नेतृत्व को लगातार कमजोर और अनुभवहीन प्रचारित किया जा रहा है। इस परिदृश्य में यह देखना बहुत बड़ा सवाल होगा कि सिन्धिया का जाना कांग्रेस के लिये घातक होता है या भाजपा के लिये अर्थहीन।