Wednesday, 17 December 2025
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क्या फिर मण्डल बनाम कमण्डल होगा

संविधान में हुए 127वें संशोधन से राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की सूची बनाने का अधिकार मिल गया है। इस अधिकार से वह इन वर्गों की अपने राज्य की सूची बनाने के लिये स्वतन्त्र होंगे। इससे अब संविधान की धारा 356(26c) और 338 b(9) में भी संशोधन हो जायेगा। इस संशोधन के राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव क्या होंगे यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा। लेकिन अभी यह उल्लेखनीय है कि जब 7 अगस्त 1990 को तत्कालीन प्रधानमन्त्री वी.पी.सिंह ने संसद में मण्डल आयोग कि सिफारिशें लागू करके अन्य पिछड़ा वर्ग को 27% आरक्षण सरकारी नौकरीयों मेें देने की घोषणा की थी तब पूरे देश में इसका भयानक विरोध हुआ था। देशभर में करीब 200 युवाओं ने आत्मदाह के प्रयास किये थे और 62 की तो मौत भी हो गयी थी। दिल्ली के देशबन्धु कॉलिज का छात्र राजीव गोस्वामी पहला छात्र था जिसने आत्मदाह का प्रयास किया था। दिल्ली के ही एक बारह वर्षीय सातवीं कक्षा के छात्र अतुल अर्ग्रवाल ने भी आत्मदाह का प्रयास किया था। वह 55% तक जल गया था लेकिन उसे बचा लिया गया। बाद में इसी छात्र ने यह स्वीकार किया था कि उसका यह कदम मूर्खतापूर्ण था। शिमला में भी आत्मदाह के प्रयास हुए थे। शायद यह आत्मदाह करने वाले तो यह जानते भी नहीं थे कि आरक्षण का मुद्दा क्या था। मण्डल सिफारिशों पर उभरे इस विरोध का परिणाम यह हुआ कि भाजपा ने वी.पी.सिंह सरकार से अपना समर्थन वापिस ले लिया। इससे सरकार गिर गयी और यह विरोध भी समाप्त हो गया। तभी से आरक्षण के विरोध में एक वर्ग खड़ा हो गया और यह धारणा बन गयी कि इस विरोध को भाजपा का संरक्षण और समर्थन हासिल है। इसी आधार पर स्वर्ण आयोग की मांग उठी जो आज विधानसभा के सदन तक पहुंच चुकी है।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि बहुत सारी स्वर्ण जातियां अपने लिये भी आरक्षण की मांग करती आ रही है। 2014 के बाद से यह मांग ज्यादा मुखर और नियोजित होकर उठी है। हर मांग में यह कहा गया कि या तो हमें भी आरक्षण दो या सबका आरक्षण खत्म करो। आर.एस.एस. प्रमुख डा.मोहन भागवत बड़े खुले शब्दों में यह कह चुके हैं कि आरक्षण पर नये सिरे से विचार होना चाहिये। स्वभाविक है कि जिन परिवारों के बच्चे मण्डल विरोध में आत्मदाह का प्रयास कर चुके हैं और जो इसमें अपने प्राण गंवा चुके हैं वह कभी नहीं चाहेंगे कि आरक्षण कायम रहे। यह उम्मीद इन लोगों को भाजपा से ही है क्योंकि उस समय मण्डल के विरोध में उभरे कमण्डल आन्दोलन को इसी भाजपा का प्रायोजित कहा गया था। इस पृष्ठभूमि में यदि इस पूरे विषय पर निष्पक्षता से विचार करें तो आज तो स्थिति 127वें संविधान संशोधन तक पहुंच गयी है। इस संबंध में उल्लेखनीय है कि समाज के पिछड़े वर्गों की चिन्ता और उन पर चिन्तन का काम तो 1906 से ही शुरू हो गया था जब जातियों की सूची तैयार की गयी थी। आज़ादी के बाद सरकार के सामने यह चिन्ता और चिन्तन सबसे पहला कार्य था। इसीलिये 29 जनवरी 1953 को काका कालेलकर की अध्यक्षता में पहला आयोग गठित किया गया और शैक्षणिक और सामाजिक तौर पर पिछड़ों की पहचान की गयी। इस पहचान के लिये 22 मानक तय किये गये। जिस जाति वर्ग के कुल अंक 11 से बढ़ गये उसे ही इसमें शामिल किया गया। इस आयोग ने 2399 ऐसी कुल जातियों की पहचान की और उसमें से 837 को अति पिछड़े का दर्जा दिया। आयोग ने मार्च 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। लेकिन अपने ही आवरण पत्र में इन सिफारिशों को लागू न करने की बात की। तर्क था कि इससे प्रशासन का काम प्रभावित होगा। यह सुझाव दिया कि इनको मुख्यधारा में लाने के लिये आर्थिक सुधारों और कृषि सुधारों पर जोर देना होगा।
काका कालेलकर आयोग के बाद जनवरी 1979 में इसी आश्य का दूसरा आयोग बिहार के पूर्व मुख्यमन्त्री पी.वी.मण्डल की अध्यक्षता में गठित किया गया। इसकी रिपोर्ट 31 दिसम्बर 1980 को आयी तब मोरारजी देसाई सरकार गिर कर इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बन चुकी थी। इस सरकार में इस रिपोर्ट पर कोई कारवाई नही हुई। इसके 1989 में केन्द्र में वी.पी.सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी। इस सरकार ने मण्डल की सिफारिशों को सरकार की आहूति देकर लागू किया। लेकिन तभी से आरक्षण का विरोध भी चलता आ रहा है जो आज स्वर्ण आयोग की मांग तक पहुंच चुका है। मण्डल की सिफारिशों को 1992 में सर्वाेच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी। लेकिन सर्वाेच्च न्यायालय ने मण्डल की सिफारिशों को तर्क संगत माना। इन्दिरा सहानी फैसला एक मील का पत्थर बन गया क्योंकि इस फैसले में सर्वाेच्च न्यायालय ने क्रीमी लेयर का मानक जोड़ दिया। यह कहा कि जो लोग क्रीमी लेयर में आ जायें उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। 1993 में क्रीमी लेयर में आय का मानक एक लाख रखा गया। जिसे 2004 में बढ़ाकर अढ़ाई लाख 2008 में साढ़े चार लाख और अब 2015 में आठ लाख कर दिया गया है। इसी दौरान जब सर्वाेच्च न्यायालय ने पदोन्नतियों मेें आरक्षण का लाभ न दिया जाने का फैसला दिया और इसका विरोध हुआ तब इस फैसले को मोदी सरकार ने संसद में पलट दिया। अब संविधान में संशोधन करके राज्यों को ओबीसी सूचियां बनाने का अधिकार दे दिया है। इस अधिकार के तहत जब इन सूचियों का आकार बढ़ेगा तब क्या और आरक्षण की मांग नही आयेगी। इस मांग को पूरा करने के लिये आरक्षण का प्रतिशत और बढ़ाना पड़ेगा। यह एक स्वभाविक परिणाम होगा अभी 2017 में जो रोहिणी आयोग गठित किया गया है उसकी रिपोर्ट आनी है। उसमें पिछड़े वर्गाे को भी तीन भागों में बांटा जा रहा हैं पिछड़ा, अति पिछड़ा और सर्वाधिक पिछड़ा। इन्हें इसी 27% में समायोजित किया जायेगा और 7%, 11% और 9% में बांटा जायेगा। इसलिये अभी यह देखना रोचक होगा कि इस 127वें संविधान संशोधन और फिर रोहिणी आयोग की सिफारिशों और स्वर्ण आयोग की मांग में तालमेल कैसे बैठेगा।

क्या जासूसी से हासिल होगा विश्वास

पैगासस जासूसी प्रकरण पर चार देशों ने अपने अपने यहां जांच आदेशित कर दी है। भारत सरकार इस मामले को कोई गंभीर विषय ही नहीं मान रही है। संसद में पैगासस और किसान आन्दोलन को लेकर रोज़ हंगामा हो रहा है। सरकार किसान आन्दोलन को भी गंभीर मुद्दा नहीं मान रही है। इन मुद्दों पर भाजपा नेता राज्यपाल सत्य पाल मलिक पूर्व राज्यपाल कप्तान सिंह सोलंकी और बिहार के मुख्यमन्त्री एनडीए के महत्वपूर्ण सहयोगी सरकार को राय दे चुके हैं कि पैगासस की जांच की जाये तथा किसानों की मांगो को हल्के से न लिया जाये। किसानों का मुद्दा भी सर्वोच्च न्यायालय के पास लंबित है और अब नौ याचिकायें पैगासस को लेकर भी सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच चुकी हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार का पक्ष जानने के लिये नोटिस जारी करते हुए कहा है कि यदि सामने आ रही रिपोर्टें सही है तो यह मुद्दा बहुत गंभीर है। रिपोर्टों का सही होना पूर्व आईटी मन्त्री रविशंकर प्रसाद के इस ब्यान से ही स्पष्ट हो जाता है जब उन्होने संसद में यह कहा कि इसमें कुछ भी गैर कानूनी तरीके से नहीं हुआ है। रविशंकर प्रसाद के ब्यान से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जो कुछ भी हुआ है वह सरकार के संज्ञान में रहा है। मैने पिछले लेख में आशंका व्यक्त की थी कि यदि राज्य सरकारें भी ईजरायल से यह जासूसी उपकरण खरीद ले तो किस तरह से हालात देश में बन जायेंगे। अब जब यह खुलासा सामने आ गया है कि 2019 के चुनावों के दौरान महाराष्ट्र सरकार ने भी अपने अधिकारियों की एक टीम इसी आश्य से ईजरायल भेजी थी तो यह आशंका सही सिद्ध हो जाती है। महाराष्ट्र प्रकरण को लेकर मुंबई उच्च न्यायालय में एक याचिका भी दायर हो चुकी है।
अब जब भाजपा के अन्दर से भी इन मुद्दों पर जांच की बात उठना शुरू हो गयी है तो यह तय है कि जैसे -जैसे इसकी गंभीरता का ज्ञान समाज को होना शुरू हो जायेगा तो उसी अनुपात में आम आदमी का भरोसा सरकार पर से उठता जायेगा। क्योंकि नोटबंदी से लेकर आज तक जितने भी आर्थिक फैसले इस सरकार ने लिये उनसे आम आदमी की हालत लगातार बिगड़ती चली गयी है। अब आम आदमी को यह समझ आने लग गया है कि वह इस मंहगाई और बेरोज़गारी के सामने ज्यादा देर तक टिका नहीं रह पायेगा। कैसे उसकी जमा पूंजी पर ब्याज दरें कम होती गयी? क्यों जीरो बैलेंस के नाम खोले गये खातों पर न्यूनतम बैलेन्स न होने पर जुर्माना लगना शुरू हो गया। क्यों रसोई गैस पर मिलने वाली सब्सिडी मजा़क बन गयी है। जिस अनुपात में मंहगाई बढ़ी उसी अनुपात में रोज़गार के साधन खत्म होते गये हैं। इन सवालों पर से ध्यान हटाने के लिये आईटी सैल के कर्मचारी कार्यकर्ता जिस अनुपात में हिन्दु- मुस्लिम करते जा रहे हैं उसी अनुपात में समाज अब इस सबके प्रति सजग होता जा रहा है। शायद इसी सजगता का परिणाम है बंगाल का चुनाव और उसके नतीजे। बंगाल के बाहर इस आईटी सैल ने पूरी सफलता से यह फैला दिया था कि ममता हार रही है। लेकिन परिणाम सबके सामने है और इसी से इस प्रचार तन्त्र की प्रमाणिकता स्पष्ट हो जाती है। इसी के कारण अब राज्यों के चुनाव मुख्यमन्त्रीयों के चेहरे पर लड़ने की नीति अपनाई जा रही है। जो कुछ घट रहा है और उससे जिस तरह आम आदमी प्रभावित और पीड़ित होता जा रहा है उसके अन्तिम परिणाम क्या होंगे यह कहना कठिन है। लेकिन इस सबसे आम आदमी ‘‘बुभुक्षितः किम न करोति पापम’’ के मुकाम पर पुहंचता जा रहा है। आज आम आदमी सरकार की बजाये विपक्ष से सवाल करने लग गया है कि वह चुप क्यों है। क्योंकि सरकार ने कामगार से उसका हड़ताल का हक छीन लिया है, कामगार को उद्योगपति के रहम पर आश्रित कर दिया है। किसान से उसकी किसानी छीनने का पूरा प्लान तैयार है। ऐसे में जब किसान और कामगार देनों मिलकर अपने हक के लिये सड़कों पर आ जायेंगे तब उनके सामने सत्ता बहुत हल्की पड़ जायेगी। अब जब सत्ता पक्ष के बीच से ही पैगासस और किसान को लेकर सवाल उठने शुरू हो गये हैं तो यह तय है कि बहुत जल्दी बहुत कुछ बदलने जा रहा है। किसान और मज़दूर के गठजोड़ के सामने राजनीति का कोई छदम ज्यादा देर खड़ा नहीं रह पायेगा। आर्थिक पीड़ा को कोई हिन्दु-मुस्लिम करके या छदम् विरोध का लवादा ओढ़ कर कोई क्षत्रप राष्ट्रीय राजनीतिक विकल्प नहीं बन पायेगा। आज पूरा देश देख रहा है कि वह कौन सा राजनेता है जो राष्ट्रीय आशंकाओं पर पहले ही दिन से पूरी स्पष्टता के साथ मुखर रहा है। देश यह भी देख रहा है कि पूरा सत्ता पक्ष किसको पूरे परिवार सहित लगातार गाली देता आ रहा है। इस लगातार गाली ने स्वतः ही वह स्थिति ला खड़ी कर दी है कि आम आदमी उस नेता को समझने और पुकारने लग गया है। परिवर्तन के इस संकेत को रोकना अब शायद किसी के भी वश में नहीं रह गया है। यह जन विश्वास खोने के संकेत हैं।

अवैधताओं और अतिक्रमणों का परिणाम है यह प्रकोप

इस बार भारी वर्षा के कारण जितना नुकसान हुआ है इतना शायद पहले कभी नहीं हुआ है। दो सौ से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। चार सौ से अधिक पशु मर गये हैं। सैंकड़ो कच्चे-पक्के मकानों का नुकसान हुआ है। कई पुल, सड़कें और पेयजल योजनाएं तबाह हो गई हैं। लोक निर्माण और जल शक्ति विभागों का ही अब तक 63289 लाख से अधिक का नुकसान हो चुका है। आम आदमी का कितना नुकसान हुआ है उसका अभी पूरा आकलन नहीं किया जा सका है। जिन परिवारों के लोगों का नुकसान हुआ है उसकी भरपाई शायद कोई भी मुआवजा़ नहीं कर पायेगा। इस नुकसान को देखकर यह सवाल खड़ा होना स्वभाविक है कि क्या इस नुकसान को कम किया जा सकता था। यह सही है कि वर्षा को रोका नहीं जा सकता। लेकिन क्या उसके पानी को चैनेलाईज़ भी नही किया जा सकता? इस सवाल पर विचार करते हुए जब यह सच्चाई सामने आती है कि विकास के नाम पर तो हमने स्वयं कई नदियों के प्राकृतिक बहाव के मार्गो को रोक दिया है। धर्मशाला के पास जब अचानक हुई भारी बारिश से पानी का बाहव बदला और उससे भयानक तबाही हुई तब यह सामने आया के उस पानी के प्राकृतिक मार्ग पर तो कई स्थानों पर अतिक्रमण किया जा चुका था। यदि यह अतिक्रमण न हुआ होता तो शायद इस नुकसान से काफी हद तक बचा जा सकता था। सिरमौर में राष्ट्रीय राज मार्ग 707 के टूटने का कारण भी भू-गर्भ विशेषज्ञों ने इसके निर्माण में आवश्यकता से अधिक भारी मशीनों के इस्तेमाल को बताया है। जहां-जहां भी नुकसान हुआ है यदि वंहा पर उसके कारणों की समीक्षा की जायेगी तो अधिकांश स्थानों पर प्रकृति से ज्यादा मानव निर्मित कारण सामने आयेंगे।
प्रदेश उच्च न्यायालय ने इन दिनों भी प्रदेश के विभिन्न स्थानों पर हो रहे अतिक्रमणों का कड़ा संज्ञान लिया है। चम्बा के एक व्यक्ति की याचिका पर उच्च न्यायालय ने प्रदेश भर में हुए अतिक्रमणों का ब्यौरा प्रशासन ने तलब किया है। उच्च न्यायालय इससे पूर्व भी ऐसे मामलों पर अपनी नाराज़गी जता चुका है। अवैध निर्माणों के बिजली, पानी के कनैक्शन काटने के आदेश दिये गये थे। उस समय प्रदेश भर में 35000 से भी अधिक ऐसे निर्माण सामने आये थे जिनमें नक्शे पास करवाना तो दूर बल्कि नक्शे संवद्ध प्रशासन को सौंपे ही नहीं गये थे। प्रदेश में अवैध निर्माणों और वनभूमि पर अवैध कब्जों के मामले अदालत से लेकर एनजीटी तक के संज्ञान में लगातार रहे हैं और इन पर कड़ी कारवाई करने के प्रशासन को निर्देश भी जारी हुए हैं लेकिन परिणाम यह रहा है कि सरकारें इन अवैधताओं को नियमित करने के लिये रिटैन्शन पॉलिसीयां लाती रहीं। जब अदालत ने इसका संज्ञान लिया तो प्लानिंग एक्ट में ही संशोधन कर दिया गया। जब यह संशोधन राज्यपाल के पास पहुंचा और उन्होंने इसे रोक लिया तब भाजपा का एक प्रतिनिधि मण्डल राज्यपाल से मिला तथा संशोधन को स्वीकार करने का आग्रह किया। इस आग्रह के बाद यह संशोधन पारित होकर अधिसिचत हो गया। फिर उच्च न्यायालय में इसके खिलाफ याचिकाएं आयी और अदालत ने संशोधन को निःरस्त कर दिया। उच्च न्यायालय ने अपने इस फैसले में सरकार के दायित्वों को लेकर जो टिप्पणीयां की हैं उनसे हमारे माननीयों और प्रशासनिक तन्त्रा की कार्य प्रणाली पर जो स्वाल खड़े हुये हैं वह काफी चौकाने वाले हैं। लेकिन अन्त में यह सब एक रिकार्ड बनकर ही रह गया है। इस पर कोई अमल नहीं हुआ है। बल्कि जयराम सरकार ने इसी तरह का संशोधन सदन से पारित करवा लिया है।
अब तक की सारी सरकारें इस हमाम में बराबर की नंगी रही हैं। हद तो यह है कि प्रदेश सरकार के प्रशासन द्वारा ही तैयार की गयी रिपोर्ट पर एनजीटी का चर्चित फैसला आधारित है लेकिन वही प्रशासन अपनी ही रिपोर्ट पर अमल नहीं कर पाया है। जब कोई सरकार अवैधताओं और अतिक्रमणों को बोझ से इतनी दब जाये कि वह किसी भी अदालत तथा अपनी ही रिपोर्ट पर अमल करने से बचने के उपाय खोजने लग जाये तो ऐसी आपदाओं में जान और माल की हानि होने से कोई नहीं बचा सकता।

सच से क्यों भाग रही है मोदी सरकार

जब सरकार ही सच का सामना करने का साहस न कर पाये जो सामने दिवार पर साफ-साफ लिखा है उस पर आंखे बन्द कर ले और यह सब लोकतान्त्रिक सरकार में हो जाये तो क्या लोकतन्त्र को बचाया रखा जा सकेगा? आज यह सवाल हर संवेदलशील बुद्धिजीवी के लिये एक प्रमुख मुद्दा बना हुआ है क्योंकि आज सरकार यह कह रही है कि इस कोरोना में आक्सीजन की कमी से कोई मौत नहीं हुई है। किसी भी राज्य सरकार या केन्द्रशासित प्रदेश से ऐसी कोई जानकारी कोई आंकड़ा उसके पास आया ही नहीं है। आक्सीजन के लिये किस तरह का हाहाकार पूरे देश में मचा हुआ था यह पूरा देश जानता है। दिल्ली की केजरीवाल सरकार और केन्द्र की मोदी सरकार किस तरह आक्सीजन के मसले पर सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गये थे यह पूरा देश जानता है बल्कि देश के लगभग सभी उच्च न्यायालयों ने इस संकट का संज्ञान लेकर सरकारों से सवाल पूछे हैं और समय- समय पर रिपोर्टें तलब की हैं यह सब रिकार्ड उपलब्ध है। जब राज्य सरकारें इस संकट से जूझ रही थी और आक्सीजन की सप्लाई केन्द्र से हो रही थी क्या तब केन्द्र सरकार का राज्यों से यह जानना फर्ज नहीं था कि कहीं आक्सीजन की कमी से कोई मौतें तो नहीं हो रही है। आज जब केन्द्र सरकार यह कह रही है कि राज्यों ने ऐसी कोई रिपोर्ट ही नहीं भेजी है तब क्या केन्द्र को राज्यों से यह पूछना-जानना नहीं चाहिये था। क्या आज राज्यों पर जिम्मेदारी डालकर उनको लोगों का दर्द कम किया जा सकता है जिन्होंने आक्सीजन के कारण अपनों को खोया हैं क्या केन्द्र सरकार का यह इन्कार उन लोगों के जख्मों पर नमक छिड़कना नहीं हो जायेगा? इस समय मौत के आंकड़ो को लेकर केन्द्र और अन्य ऐजेन्सीयों के आंकड़ों में जो अन्तर सामने आ रहा है उससे सरकार की विश्वसनीयता पर और गंभीर प्रश्नचिन्ह लगते जा रहे हैं। क्योंकि सरकार का आंकड़ा अभी चार लाख बीस हजार तक ही पहुंचा है जबकि अन्यों के मुताबिक यह आंकड़ा चालीस लाख से अधिक है। इन अन्यों में एक अध्ययन करने वाले इसी सरकार के पूर्व आर्थिक सलाहकार रहे हैं। कोरोना के प्रबन्धन में सरकारों की असफलता झेल रहे आम आदमी के सामने जब मौतों पर भी सरकार का इन्कार सामने आया है तब उसकी हालात क्या हो रही होगी इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। क्योंकि जब मौतों को भी सरकार राजनीति का विषय बना दे तो ऐसी सरकार का केवल मतदान के दिन ही सच से सामना करवाया जा सकता है।
इसी तरह जासूसी प्रकरण में भी सरकार अपनी भूमिका से इन्कार कर रही है। सरकार और भाजपा का हर नेता केन्द्र से लेकर राज्यों तक सरकार का पक्ष रखते हुए इस प्रकरण को बाहरी ताकतों की साजिश करार दे रहा है। इस प्रकरण मे जो अब तक खुलासे सामने आये हैं उनके मुताबिक इसमें पत्रकारों, राजनेताओं, सरकारी अधिकारियो,ं उद्योगपतियां और न्यायपालिका तक के फोनटैप हुए हैं। इन लोगों की जासूसी की गयी है। इस जासूसी के लिये इजरायल की एक कम्पनी एनओएस का पैगासस स्वाईवेय इस्तेमाल हुआ है। मोदी सरकार के दो मन्त्रीयों की भी जासूसी हुई है। सरकार यह जासूसी होने से इन्कार नहीं कर रही है केवल यह कह रही है कि इसमें उसका हाथ नहीं है। भाजपा नेता पूर्व मन्त्री डा़ स्वामी ने यह कहा है कि जासूसी करने वाली कंपनी एनओएस पैसे लेकर जासूसी करती है। इजरायल का कहना है कि यह स्पाईवेयर केवल सरकारों को ही बेचा जाता है। भारत सरकार इसे देश के खिलाफ विदेशी ताकतों की साजिश करार दे रही है। ऐसे में क्या यह सवाल उठना स्वभाविक नहीं हो जाता कि जब कोई बाहरी ताकत देश के खिलाफ ऐसा षडयन्त्र कर रही है तो भारत सरकार को तुरन्त प्रभाव से इसकी जांच करनी चाहिये। लेकिन मोदी सरकार यह जांच नहीं करवाना चाहती। जब सरकार ने यह जासूसी नहीं करवाई है तो वह जांच करवाने से क्यों भाग रही है। जासूसी हुई है इससे सरकार इन्कार नहीं कर रही है। सरकार ने की नहीं है। तब क्या यह सरकार की जिम्मेदारी नहीं बन जाती है कि इस प्रकरण की जांच करे। सरकार का जांच से भागना देश और सरकार दोनों के ही हित में नहीं होगा।
आक्सीजन की कमी से हुई मौतों से इन्कार करना और इतने बड़े जासूसी प्रकरण के घट जाने पर जांच से भागना ऐसे मुद्दे आज देश के सामने आ खड़े हुए हैं जिन पर हर आदमी को अपने और अपने बच्चों के भविष्य को सामने रख कर विचार करना होगा और अपने बच्चों के भविष्य को सामने रखकर विचार करना होगा। क्योंकि ऐसे ही इन्कारों का परिणाम है मंहगाई और बेरोज़गारी।

क्या अपराधियों और करोड़पतियों के हाथों जनहित सुरक्षित रह सकते हैं

केन्द्र में जब से मोदी सरकार ने सत्ता संभाली है तब से लेकर अब तक करीब तीन सौ मामले देशद्रोह के दायर हुए हैं। इन मामलों में करीब पांच सौ लोगों की गिरफ्तारी हुई है। परन्तु अदालत में केवल नौ लोगों को ही दोषी करार दिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने आज आजा़दी के बाद भी देशद्रोह के कानून को चलाये रखने पर हैरानी व्यक्त की है। केन्द्र सरकार से इस पर जवाब मांगा है। जब यह मामला अदालत में पहली बार सुनवायी के लिये आया तब अटार्नी जनरल ने यह कहा है कि अभी इस प्रावधान को खत्म नहीं किया जाना चाहिये। सरकार इस पर क्या जवाब देती है और अदालत का इस पर क्या फैसला आता है यह तो आने वाले दिनों में ही पता चलेगा। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान से इस पर एक बड़ी बहस की शुरूआत अवश्य हुई है। जिन लोगों के खिलाफ देशद्रोह के मामले बनाये गये हैं उनमें अधिकांश में बुद्धिजीवि और पत्रकार रहे हैं। इन लोगों के खिलाफ यह मामले बनाये जाने का आधार प्रायः किसी भी विषय पर सरकार से भिन्न राय रखना या सरकार से तीखे सवाल पूछना रहा है। इससे यही स्पष्ट होता है कि इस सरकार में शायद वैचारिक मत भिन्नता के लिये कोई स्थान नही है। जब कोई सरकार यह मान लेती है कि जनहित को लेकर उससे बेहत्तर सोचने वाला और कोई हो ही नहीं सकता है तब जब भी मत भिन्नता का कोई सवाल सामने आ जाता है तब वह अस्वीकार्य ही नहीं बल्कि देशद्रोह करार दे दिया जाता है। सरकार से भिन्न राय रखना आज देशद्रोह बनता जा रहा है। अभी जिस तरह से ईज़रायल की ऐजैन्सी के माध्यम से पत्रकारों, जजों और विपक्ष के नेताओं की जासूसी करवाने का प्रकरण सामने आया है। उससे यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि सवाल पूछने का साहस रखने वालों से सरकार किस कदर परेशान है। अभी संसद का सत्र चल रहा है और पहले ही दिन यह जासूसी प्रकरण सामने आ गया है। संसद में इस पर किस तरह के सवाल उठते हैं और सरकार का जवाब क्या रहता है यह देखना दिलचस्प होगा।
इस समय देश में महंगाई और बेरोज़गारी दोनां अपने चरम पर रहे हैं। यह सब सरकार की नीतियों का परिणाम है। यदि सरकार की नीतियों पर सवाल न भी उठाया जाये तो क्या यह मंहगाई और बेरोज़बारी समाप्त हो जायेगी? क्या इससे सिर्फ सरकार से मत भिन्नता रखने वाले ही प्रभावित हैं और दूसरे नहीं? हर आदमी इससे प्रभावित है लेकिन सरकार से सहमति रखने वालों की प्राथमिकता हिन्दुत्व है। हिन्दुत्व के इस प्रभाव के कारण यह लोग यह नही देख पा रहे हैं कि इन नीतियों का परिणाम भविष्य में क्या होगा? मंहगाई और बेरोज़गारी का एक मात्र कारण बढ़ता निजिकरण है? 1990 के दशक में निजिक्षेत्र की वकालत में सरकारी कर्मचारी पर यह आरोप लगाया गया था कि वह भ्रष्ट और कामचोर है। तब कर्मचारी और दूसरे लोग इसे समझ नही पाये थे। इसी निजीकरण का परिणाम है कि एक-एक करके लाभ कमाने वाले सरकारी अदारों को बड़े उद्योगपतियों को कोड़ियो के भाव में बेचा जा रहा है। यही नहीं इन उद्योगपतियों को लाखों करोड़ का कर्ज देकर उन्हें दिवालिया घोषित होने का प्रावधान कर दिया गया है। इस दिवालिया और एनपीए के कारण लाखों करोड़ बैकों का पैसा डूब गया है बैंकों ने इसकी भरपायी करने के लिये आम आदमी के जमा पर ब्याज घटा दिया है। सरकार अपना काम चलाने के लिये मंहगाई बढा़ रही है क्योंकि उससे टैक्स मिल रहा है। इसी के लिये तो मंहगाई और जमाखोरी पर नियन्त्रण करने के कानून को ही खत्म कर दिया गया है।
आज जिस तरह के संकट से देश गुजर रहा है उस पर संसद में कितनी चिन्ता और चर्चा हो सकेगी इसको लेकर निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। क्योंकि आज की संसद तो अपराधियों और करोड़पतियों से भरी हुई है। इस समय लोकसभा में ही 83% सांसद करोड़पति है। 539 में से 430 करोड़पति है। इन्हीं 539 सांसदों में 233 के खिलाफ आपराधिक मामले हैं। इनमें 159 के खिलाफ तो गंभीर अपराधों के मामले दर्ज हैं। 2014 में 542 में से 185 के खिलाफ मामले थे और 2009 में केवल 162 के खिलाफ मामले थे। जिस संसद में करोड़पतियों और अपराधियों का इतना बड़ा आंकड़ा हो वहां पर आम गरीब आदमी के हित में कैसे नीतियां बन पायेंगी यह अन्दाजा लगाया जा सकता है। मोदी ने कहा था कि वह संसद को अपराधियों से मुक्त करवायेंगे। परन्तु यह आंकड़े गवाह है कि उनके नेतृत्व में 2009 से 2014 में और फिर 2019 में यह आंकड़ा लगातार बढ़ता गया है। आज तो मन्त्रीमण्डल में गृह राज्य मन्त्री ग्यारह आपराधिक मामले झेलने वाला व्यक्ति बन गया है। इस परिदृश्य में अब यह आम आदमी पर निर्भर करता है कि वह इस पर क्या सोचता और करता है क्योंकि उसी के वोट से यह लोग यहां पहुंचे हैं।

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