Friday, 19 September 2025
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क्या अब आम आदमी को भी आन्दोलन में कूदना पडेगा

सरकार और किसानों में अब तक सारी वार्ताएं असफल रही हैं। बल्कि ऐसा लगने लगा है कि सरकार इस आन्दोलन को लम्बा खींचने के प्रयास कर रही है। क्योंकि इस बार जिस तरह से किसानों को सर्वोच्च न्यायालयों में जाने का सुझाव दिया गया उससे यही संकेत उभरता है। शायद सरकार को यह भरोसा है कि शीर्ष अदालत का फैसला कानूनों के पक्ष में ही आयेगा। इस तरह का भरोसा पूर्व में आये कई फैसलों का परिणाम है। इसी कारण से किसानों ने इस सुझाव को नहीं माना है। सरकार का पूरा तन्त्र प्रधानमन्त्री से लेकर नीचे तक जिस तरह से इन कानूनों के फायदे गिनाने मे लगा है उससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि प्रधानमन्त्री मोदी ने जो अपने मन में तय कर रखा है उस पर सरकार और संगठन में किसी सुझाव /संवाद की गुंजाईश नहीं है। वहां भी मोदी अपने ही मन की करते हैं। इन कानूनों के संद्धर्भ में मोदी का मन अदानी/अंबानी से किस कदर प्रभावित है इसका खुलासा इसी से हो जाता है कि एफ सी आई ने 2016 मे सत्ताईस स्थानों पर गोदाम बनाने का ठेका अदानी की जिस कंपनी को दिया गया था उसका पंजीकरण ही 2017 में हुआ है। यह तथ्य सार्वजनिक हो चुका है और इस पर कोई खण्डन तक नहीं आया है। अंबानी -अदानी को लेकर ऐसे कई प्रमाण हैं जो यह स्पष्ट करते हैं कि इनका सरकार के फैसलों पर कितना प्रभाव है। इस परिदृश्य में महत्वपूर्ण सवाल यह हो जाता है कि प्रधानमन्त्री मोदी कब तक किसानों को नज़रअन्दाज करते रहेंगे और उसका अन्तिम परिणाम क्या होगा।
इस वर्ष आरबीआई और सांख्यिकी विभाग के सरकार के अपने ही आंकड़ों के मुताबिक जीडीपी शून्य से 7.7% नीचे रहेगी। आईएमएफ और अन्य रेटिंग एजैन्सीयों का आकलन तो शून्य से 10% तक नीचे रहने का अनुमान है। जीडीपी के इन आकलनों से स्पष्ट हो जाता है कि विकास दर कितना नीचे आ गयी है और उसका प्रभाव किन किन क्षेत्रों में और सेवाओं पर पड़ा है। कितना रोज़गार प्रभावित हुआ है। जिन उद्योग क्षेत्रों को विषेश पैकेज देकर उभारने का प्रयास किया गया था उसके कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आये हैं। क्योंकि उत्पादक को पैकेज देने से उपभोक्ता की क्रय शक्ति नहीं बढ़ती है। दुर्भाग्य से इस सरकार की अधिकांश नीतियां ऐसी रही हैं जिनसे पांच प्रतिशत को तो लाभ मिला। लेकिन उसी लाभ की कीमत शेष 95% को चुकानी पड़ी और उसकी क्रय शक्ति कमजा़ेर हो गयी। इसी स्थिति का असर आने वाले दिनो में देखने को मिलेगा क्योंकि सरकार के पास आयुष्मान भारत, पीडीएस की कमी और मनरेगा जैसी योजनाओं को चलाये रखने के लिये धन की कमी आने की आशंकाएं उभर चुकी हैं। ऐसे में कृषि जैसे क्षेत्र को इन कानूनों से जिस तरह प्रभावित किये जाने का नक्शा बना दिया गया है उसके परिणाम इतने घातक होंगे जिनकी आज कल्पना करना भी कठिन होगा।
आवश्यक वस्तु अधिनियम को किसान के नाम पर रद्द किया गया है कहा जा रहा है कि इससे किसान अपनी ऊपज को मन चाहे दामों पर जहां चाहे वहां बेच सकेगा। उचित कीमत मिलने पर वह चाहे तो ऊपज का भण्डारण कर सकता है और भण्डारण पर कोई सीमा नहीं होगी। क्या व्यवहारिक रूप में यह संभव है? यदि यह संभव भी हो जाये तो क्या इसका प्रभाव अन्तिम उपभोक्ता पर नहीं पडे़गा? क्या इससे कीमतें नहीं बढ़ेंगी। जो लोग इसका समर्थन कर हरे हैं क्या उन्होंने इन पक्षों पर विचार किया है? यही स्थिति न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर है। सरकार कह रही है कि इससे किसान को बड़ा बाज़ार मिल जायेगा और उसका प्रभाव फिर उपभोक्ता पर पड़ेगा। बडे बाज़ार तक पहुंचाना क्या हर किसान के लिये संभव है? क्या इससे सही में किसान की आय दो गुणी हो पायेगी? आज जो छः हजार रूपया किसान को दिया जा रहा है वह कब तक दिया जा सकेगा और कितनों को दिया जायेगा? यह पैसा आयेगा कहां से? क्या इसका अन्तिम असर भी आम उपभोक्ता पर नहीं पड़ेगा? न्यूनतम समर्थन मूल्य देने से किसान और उपभोक्ता दोनों का एक बराबर लाभ है। कान्ट्रैक्ट फार्मिंग में क्या किसान अपनी ही जमीन का मालिक होने के बावजूद कंपनी का नौकर होकर रह जायेगा। पंजाब में पैप्सी, कोला और आलू उत्पादकों का अनुभव क्या कान्ट्रैक्ट फार्मिंग के हित में कहा जा सकता है शायद नहीं। आज यदि इन कानूनों पर निष्पक्षता से विचार किया जाये तो यह कानून बडे सरमायेदार के अतिरिक्त और किसी के भी पक्ष में नही है। इन कानूनों का दुष्प्रभाव -प्रभाव सामने आने में पांच सात वर्षों का समय लग जायेगा और सरकार इसी का लाभ उठाना चाह रही है।
किसान आन्दोलन में पचास से अधिक लोग अपना बलिदान दे चुके हैं। हर गुज़रते दिन के साथ आन्दोलन गंभीर और बढ़ता जा रहा है। करनाल में मनोरह लाल खट्टर जन सभा नहीं कर पाये हैं। पंजाब और हरियाणा में आने वाले समय में भाजपा की सरकारें बनना संभव नहीं है यह भाजपा हाईकमान समझती है। इसलिये यह और भी गंभीर हो जाता है कि इन राज्यों की कीमत पर भी मोदी सरकार किसानों की बात मानने को क्यों तैयार नहीं है। स्पष्ट है कि सरकार बड़े उद्योगपतियों के इतने दबाव में है कि वह अपनी साख को दांव पर लगा रही है। यदि सरकार और किसानों में यह गतिरोध और कुछ दिन जारी रहा तो इसमें राजनीतिक दलों और आम आदमी को इस आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जायेगा।

अपने ही मन की सुनने का परिणाम है...

कमजोर आर्थिकी की कोख से जन्में 2020 का अन्त महामारी के जिस कड़वे सच में हो रहा है उससे 2021 के प्रति भी शंकित होना स्वभाविक हो गया है। क्योंकि अभी इस महामारी से राहत पाने के लिये जो दवाईयां सामने आ रही हैं उनमें एक से 70% और दूसरी से 95% परिणामों का ही दावा किया गया है। इस दावे से ही स्पष्ट हो जाता है कि इसके प्रयोग करने वाले हर आदमी को इससे लाभ मिलेगा ही यह तय नहीं है। ऐसे में इसका प्रयोग करने से पहले ही जो आशंका/डर सामने आ गया है। उसमें इसके प्रयोग के लिये कोई आसानी से कैसे तैयार हो पायेगा यह एक बड़ा सवाल खड़ा हो सकता है क्योंकि हरियाणा के मन्त्री अनिल विज का उदाहरण सामने हैं जो टैस्ट डोज़ लेने के बाद मेदान्ता पहुंच गये हैं। फिर इस महामारी का जो दूसरा स्टरेन सामने आया है वह पहले से भी ज्यादा घातक बताया गया है। इस तरह न चाहे ही डर का ऐसा साया सामने आ खड़ा हुआ है जिससे बाहर निकल पाना आसान नहीं लग रहा है। इस पर से आम आदमी को बाहर निकालने के सरकार और प्रशासन के शीर्ष पर बैठे हुए लोगों को अनिल विज की तरह आगे आना होगा अन्यथा यह सब निरर्थक होकर रह जायेगा। इसलिये आज प्राथमिकता यह महामारी होनी चाहिये।
2020 को कमजोर आर्थिकी की विरासत मिली है यह भी एक कड़वा सच है क्योंकि नोटबंदी और फिर जीएसटी जैसे फैसलों से जीडीपी को जो धक्का लगा था उससे निकलने के लिये 2019 तक पहुंचते पहुंचते आटोमोबाईल और रियल एस्टेट जैसे क्षेत्रों को पैकेज देने की नौबत आ गयी। लेकिन यह करने से इन क्षेत्रों को कितना लाभ मिला इसका कोई आकलन हो पाने से पहले ही कोरोना का लाकडाऊन आ गया। इस लाकडाऊन से जी डी पी को कितना नुकसान पहुंचा इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि फिर बीस लाख करोड़ का पैकेज देना पड़ा। यह बीस लाख करोड़ सही में कितना था यदि इस बहस में ना भी जाया जाये तो भी यह सच्च अपनी जगह खड़ा रह जाता है कि इस पैकेज से व्यवहारिक रूप ये कितना लाभ पहुंचा है इसका कोई आकलन नहीं हो पाया है। लाकड़ाऊन में लोगों का रोजगार छीना है और अभी तक पूरी तरह बहाल नहीं हो पाया है यह भी कड़वा सच्च है। कोरोना और लाकडाऊन से आम आदमी जितना प्रभावित हुआ है क्या उसी अनुपात में सरकार भी प्रभावित हुई है या नहीं। यह एक और बड़ा सवाल बन जाता है क्योंकि सरकार ने इस दौरान जो जो फैसले लिये हैं उनसे यह प्रभाव नहीं झलकता है।
लाकडाऊन का पहला असर नागरिकता संशोधन अधिनियम को लेकर चल रहे आन्दोलन को असफल करने के रूप में सामने आया। इसी दौरान नयी शिक्षा नीति लाई गयी जिस पर एक दिन भी चर्चा नहीं हुई। इसी अवधि में श्रम कानूनों में बदलाव किया गया और किसी मंच पर कोई बहस नहीं हुई। कृषि कानून बदले गये और किस तरह इन्हें राज्य सभा में भी पारित किया गया यह भी पूरे देश ने देखा है। इसी कारोना में बिहार विधानसभा के चुनाव हो गये। हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में भाजपा का शीर्ष नेतृत्व चुनाव प्रचार में पहुंच गया। जम्मू- कश्मीर में हुए चुनावों को 370 को हटाने में जन समर्थन करार दिया गया जबकि यह चुनाव भाजपा बनाम गुपकार प्रचारित किये गये थे और परिणामों में भाजपा 74 और गुपकार 107 रहे हैं। अभी बंगाल के चुनावों की तैयारी चल रही है। हरियाणा में निकाय चुनाव हो गये हैं और हिमाचल में चुनावों की प्रक्रिया चल रही है। कोरोना काल में लिये गये फैसले और इस दौरान अंजाम दिये गये चुनावी कार्यक्रमों से यह सवाल देर सवेर उठना स्वभाविक है कि परदे के पीछे का सच्च क्या है। क्योंकि इसी दौरान जिस तरह से भाजपा शासित राज्यों में अन्तर्धार्मिक शादियों को लेकर कानून बनाये जा रहे हैं उससे भाजपा की प्राथमिकताओं का एक अलग ही पक्ष सामने आता है।
इस समय जो किसान आन्दोलन चल रहा है उसे असफल बनाने के लिये सरकार किस हद तक जा चुकी है इसको दोहराने की आवश्यकता नहीं है। इसके लिये सरकार अपनी चुनावी जीतों को यह सब करने के लिये अपने पक्ष में फतवा मानकर चल रही है। 2020 में देश की शीर्ष न्यायपालिका और मीडिया के प्रति जिस तरह की जनधारणा सामने आयी है उसके परिदृश्य में 2021 कैसा बीतेगा इसकी कल्पना करना भी कठिन लगता है क्योंकि जब सरकार कुछ औद्योगिक घरानों के पचास लाख करोड़ के ऋण माफ कर दे और धन की कमी पूरी करने के लिये संसाधनों के दरवाजे मुक्त हाथ से नीजिक्षेत्र के लिये खोल दे तो आकलन का हर मानक फेल हो जाता है।

आवश्यक वस्तु अधिनिमयम चर्चा प्रस्तावों से बाहर क्यों

भारत एक कृषि प्रधान देश है इसकी 80% जनता आज भी खेती पर निर्भर करती है। यह किसान आन्दोलन ने प्रमाणित कर दिया है। क्योंकि शायद यह आज़ाद भारत का पहला आन्दोलन है जो किसी भी राजनीतिक दल द्वारा परोक्ष या अपरोक्ष रूप से प्रायोजित नही है। इसका संचालन किसान नेता स्वयं कर रहे हैं। यह आन्दोलन किसी राजनीतिक दल द्वारा संचालित नही है। इसीलिये सरकार और भाजपा इसे कांग्रेस, वाम दलों और समूचे विपक्ष द्वारा प्रेरित करार दे रही है। किसान नेताओं को खालिस्तानी, आतंकी, पाक और चीन से वितपोषित तक करार दे दिया गया। इतने सारे आरोपों के बाद भी पूरा आन्दोलन शान्ति पूर्वक चल रहा है। इसी से प्रमाणित हो जाता है कि इसमें राजनीतिक दलों का कोई दखल नही है। सरकार और भाजपा जिस तरह से इन कानूनों को किसानों के हित में बता रही है उससे उसकी नीयत और नीति दोनों स्पष्ट हो जाते हैं कि वह इन कानूनों को वापिस लेने के लिये तैयार नही है। जनसंघ से लेकर आज भाजपा तक इसे वणियों/व्यापारियों की पार्टी कहा जाता है और व्यापारी छोटा हो या बड़ा वह लाभ की अवधारणा पर ही काम करता है यह एक स्थापित सच है। जब तक भाजपा को वर्तमान जैसा प्रचण्ड बहुमत संसद में नही मिला था तब तक उसे छोटे व्यापारी की भी आवश्यकता थी। तब इस छोटे व्यापारी को ईन्स्पैक्टरी राज से राहत दिलाने का नारा दिया जाता था। लेकिन जब 2014 के चुनावों में प्रचार के लिये अंबानी की हवाई यात्राओं का लाभ मिला तब से अंबानी-अदानी जैसे बड़े घराने इसकी प्राथमिकता बन गये जो आज पूरा देश इनके हवाले करने के लिये इस तरह से कानून बनाने तक आ गये।
यह कानून किसी के भी हक में नही है। शैल नौ जून से इस पर कटाक्ष कर लिखता आ रहा है। आज सरकार किसानों से बातचीत के लिये जिस तरह के प्रस्ताव भेज रही है। उनमें आवश्यक वस्तु अधिनियम का कोई जिक्र नही किया जा रहा है। क्योंकि इसी कानून के माध्यम से कीमतों और वस्तुओं के भण्डारण पर अंकुश लगाया जाता है। 1955 से चले आ रहे इस कानून को अब रद्द कर दिया गया है। अब अकाल महामारी और युद्ध की परिस्थिति में ही सरकार भण्डारण और कीमतों पर रोक लगा पायेगी। क्या इससे आने वाले समय में कीमतें नही बढ़ेंगी? 2014 में ही शान्ता कमेटी गठित की गयी थी जिसकी सिफारिशों का परिणाम है यह कानून। तभी से अदानी ने भण्डारण के लिये सीलो गोदाम बनाने शुरू कर दिये थे। आज करीब दस लाख मिट्रिक टन के भण्डारण की क्षमता अकेले उसी ने तैयार कर ली है। शान्ता कमेटी ने अपनी सिफारिशों में साफ कहा है कि एफसीआई की जगह अजान भण्डारण में प्राइवेट सैक्टर को लाया जाना चाहिये। जब प्राइवेट सैक्टर में एक बड़ा व्यापारी इस तरह का असिमित भण्डारण कर लेगा तो क्या उसका असर कीमतों पर नही पड़ेगा। अवश्य पड़ेगा और तब इन कथित सुधारों की असलियत सामने आयेगी। इसमें किस गणित से भाजपा आम आदमी का हित देख रही है? इसका खुलासा क्यों नही किया जा रहा है। इसे प्रस्तावित प्रस्तावों से बाहर क्यों रखा जा रहा है।
यदि इसी अकेले सवाल पर विचार किया जाये तो यह आशंका उभरना स्वभाविक है कि क्या सरकार आवश्यक वस्तु अधिनियम को चर्चा से ही बाहर रखने का वातावरण अपरोक्ष में तैयार कर रही है। क्योंकि यदि किसान को न्यूतनम समर्थन मूल्य की कानूनी गांरटी दे भी दी जाये और भण्डारण तथा कीमतों पर नियन्त्रण न किया जाये तो किसान को तो बतौर उत्पादक कोई फर्क नही पडेगा उसे तो न्यूनतम कीमत मिल जायेगी। इसमें हर उस उपभोक्ता पर असर पड़ेगा जो सीधे खेत नही जोत रहा है। इसका असर सस्ते राशन की खरीद योजना पर पड़ेगा। क्योंकि अदानी-अंबानी जैसे एम एस पी पर खरीद करके भण्डारण करने और कीमतें बढ़ाने के लिये स्वतन्त्र रह जाते हैं। अदानी-अंबानी की पहली आवश्यकता ही यही है कि उन्हे तो सारे अनाज का भण्डारण करके अपनी कीमतों पर बेचने की छूट चाहिये जो इस कानून से उन्हे मिल जाती है। इस वस्तुस्थिति को समझने और उसका आकलन करने की आवश्यकता राजनीतिक दलों को है क्योंकि किसानों और आम आदमी जो सस्ते राशन के डिपो के सहारे हैं सभी का वोट चाहिये। इसके लिये आम आदमी को यह समझने और समझाने की आवश्यकता है कि गरीब का नाम लेकर जितनी भी योजनाएं इस सरकार के कार्यकाल में शुरू हुई हैं उनमें अन्त में सबसे अधिक नुकसान इसी गरीब का हुआ है। जो उसे एक हाथ से दिया गया दूसरे हाथ से उससे उसका दो गुणा छीन लिया गया और उसे समझ भी नही आने दिया गया। नोटबंदी से लेकर आज इन कथित कृषि सुधारों तक सभी का भोक्ता वही है। नोटबंदी में उसकी सारी जमापंूजी बैंक तक पहुंचा दी। जनधन में जीरों बैलेन्स के खाते खुलवाकर न्यूनतम की शर्त लगाकर जुर्माना तक लगा दिया। हर तरह के जमा पर ब्याज घटा दिया। किसी भी योजना और फैसले का आकलन इसी बिन्दु पर पहंुचता है। आवश्यक वस्तुअधिनियम को खत्म करना इस दिशा में अन्तिम प्रहार है।

सभी के लिये घातक है यह कानून

इस समय आन्दोलन को लेकर जिस तरह की परिस्थितियां बनती जा रही है उनमें यह आवश्यक हो गया है कि हर व्यक्ति या तो आन्दोलन के विरोध में या फिर उसके पक्ष में खड़ा हो। इसमें तटस्थता के लिये शायद कोई स्थान नहीं बचा है। यह कानून केवल किसान को ही प्रभावित नहीं करते बल्कि हर आदमी पर इनका प्रभाव पड़ेगा क्योंकि रोटी हर आदमी की पहली आवश्यकता है और यह कानून अपरोक्ष में रोटी को ही प्रभावित करते हैं। किसान इस रोटी का पहला माध्यम है क्योंकि उसके खेत में अनाज पैदा होता है। इन कानूनों से यदि वह कुप्रभावित होता है तो वह अपने गुजारे लायक ही खेती करेगा और इससे अन्ततः अनाज का उत्पादन कम होता जायेगा। यदि यह कानून सही में उसके लिये लाभदायक सिद्ध होते हैं उसे उसकी ईच्छानुसार दाम मिल जाते हैं तो भी इससे उपभोक्ता प्रभावित होगा। उसे यह अनाज महंगा मिलेगा और हर चीज के दाम बढ़ेंगे। यह एक साधारण और स्थापित सच है इस वस्तुस्थिति का। क्योंकि यह स्थापित हो चुका है कि आज की सरकार हर क्षेत्र में प्राईवेट सैक्टर को लाने की पक्षधर है क्योंकि उसके आर्थिक चिन्तन का आधार भामाशाही अवधारणा है। भामाशाही चिन्तन की बुनियाद ही प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और स्वामित्व प्राईवेट सैक्टर के हवाले करना है। इस चिन्तन में समाज के अतिसंपन्न वर्ग के हितों की रक्षा करना पहली प्राथमिकता रहती है।
यदि इस सरकार के छः वर्षों के कार्यकाल में लिये गये फैसलों पर एक आम नजर भी डाली जाये तो यह प्रमाणित हो जाता है कि हर फैसले का अन्तिम लाभार्थी कोई बड़ा उद्योग घराना ही रहा है। किसानों को ही जब छः हजार किसान सम्मान दिया गया था तब किसको आभास हुआ था कि इससे बालमार्ट, अंबानी और अदानी जैसे घरानों के लिये जमीन तैयार कि जा रही है। जब सेवाओं को आऊट सोर्स करके प्रदाता कंपनी को बैठे बिठाये भारी भरकम कमीशन दिया जाने लगा था, तब किसने सोचाा था कि इससे नियमित सरकारी नौकरी के अवसर कम होते जायेंगे। जब बैंकों में जमा राशीयों पर ब्याज कम किया जा रहा था और जीरों बैलेन्स के नाम पर खोले गये खातों में न्यूनतम बैलेन्स न होने पर जुर्माना लगाने का प्रावधान किया जा रहा था तब किसे पता था कि इससे एनपीए हो चुके बड़े कर्जदारों को और निवेश उपलब्ध करवाने का रास्ता निकाला जा रहा है। इससे बैंक डूबने के कगार पर आ जायेंगे और आरबीआई इन्हें प्राईवेट सैक्टर के हवाले करने के फैसले पर अपनी सहमति जता देगा। ऐसे दर्जनों छोटे बडे फैसलें हैं जो यह प्रमाणित करते हैं कि इस सरकार की प्राथमिकता केवल प्राईवेट सैक्टर के हितों की रक्षा करना है। आज एक वर्ग अंबानी अदानी की वकालत करने पर लग गया है लेकिन इन बड़े घरानों के रिटेल में आने से 80% से भी ज्यादा छोटा बड़ा दुकानदार बेरोजगार हो जायेगा यह समझने को कौन तैयार है।
यह एक ऐसी वस्तुस्थिति बना दी गयी है जिसमें उसके निमार्ताओं को ही अहसास नहीं है कि जिसकी वह वकालत कर रहे हैं वह भी एक दिन स्वयं उसके शिकार होंगे। आज जब प्रधानमन्त्री ने किसान आन्दोलन के खिलाफ स्वयं कमान संभाल ली है तो यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार अपने कदम पीछे हटाने को तैयार नहीं है। जिस नेतृत्व को भी पीछे हटना संभव नहीं रह जाता है ऐसे में यह और भी आवश्यक हो जाता है कि आम आदमी इसमें अपनी भूमिका तय करे। सरकार का तर्क है कि उसे जनता का समर्थन हासिल है क्योंकि हर चुनाव में उसे जीत हासिल हुई है। इसमें वह ताजा उदाहरण बिहार का दे रही है। बंगाल में टीएमसी छोड़कर लोग भाजपा में आने शुरू हो गये हैं। ऐसे में 2014 से लेकर बिहार के चुनाव तक जो सवाल ईवीएम को लेकर उठते आये हैं और सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच चुके हैं उन सवालों पर भी अब फैसले की घड़ी आ गयी है। क्योंकि हर बड़े फैसले पर सार्वजनिक बहस को टालने और विपक्ष की राय को नज़रअन्दाज करने का सबसे बड़ा हथियार चुनाव परिणाम को बना लिया गया है। कल तक भाजपा एफडीआई की सबसे बड़ी विरोधी थी और आज डिफैन्स से स्पेस तक सबमें इसके दरवाजे खोल दिये गये हैं। आज किसान जो सवाल उठा रहे हैं वही सवाल अरूण जेटली, सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह और स्वयं मोदी उठा चुके हैं। भाजपा में ‘‘बांटो और शासन करो ’’ की नीति पर चल रही है। यह समझने में अकाली को ही पचास वर्ष से अधिक का समय लग गया है जबकि 1967 से अकाली-भाजपा सत्ता में भागीदारी करने आ रहे है।
इस परिदृश्य में जब किसान और सरकार में टकराव के आसार लगातार बनते जा रहे हैं तब आन्दोलन का दायरा बढ़ने की भी पूरी-पूरी संभावना बनती जा रही है। क्योंकि सरकार पर अविश्वास बढ़ने के साथ ही शीर्ष न्यायपालिका को लेकर भी स्थिति बेहतर नहीं है। वहां भी एक ही विषय पर अलग-अलग बैंच अलग-अलग फैसला दे रहे हैं। मीडिया पर गोदी मीडिया होने का आरोप लग रहा है। इस सबमें हिन्दु ऐजैण्डा के लिये काम करने का जो आरोप सरकार पर लग रहा है वह ऐजैण्डा है क्या? क्या आज के समाज में उसकी कल्पना की जा सकती है? यह ऐसे सवाल हैं जिन पर लम्बे समय तक बहस टालना संभव नहीं होगा। ऐसे में बहुत आवश्यक है कि विपक्ष में बैठे सारे राजनीतिक दलों का नेतृत्व अपने अपने पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपनी अपनी भूमिका तय करते हुए इस आन्दोलन का फलक बड़ा करते हुए सक्रिय भागीदारी निभाये। इसमें कांग्रेस की भूमिका सबसे अहम हो जाती है क्योंकि देश के हर गांव में उसका नाम लेने वाला कोई न कोई मिल जाता है।

घातक होगा किसान और सरकार में टकराव

भारत को कृषि प्रधान देश माना जाता है। क्योंकि आज भी 70% जनसंख्या खेती पर निर्भर है। प्रधानमन्त्री ने किसानों की आय को 2023 तक दोगुणी करने का नारा दिया है। इसके लिये सरकार से तीन अधिनियम कृषि उपज को लेकर पारित किये हैं। संसद में जब यह विधेयक लाये गये थे तब इन पर कोई विस्तृत चर्चा नही हुई थी यह पूरा देश जानता है। संयुक्त राष्ट्र महासंघ के अनुसार जब भी कोई देश इस आशय का कोई कानून बनाने का प्रयास करेगा तो उसे वहां के किसान संगठनों से विचार विर्मश करके ही ऐसा करना होगा। भारत संयुक्त राष्ट्र महासंघ के इन प्रस्तावों पर अपनी सहमति दे चुका है और इस नाते इन्हे मानने के लिये वचनबद्ध है। परन्तु जब यह कानून पारित किये गये थे तब न तो इन पर संसद में चर्चा हुई और न ही संसद से बाहर किसान संगठनों से कोई मन्त्रणा की गयी। संभवतः इसी कारण से कनाड़ा, आमेरीका, ब्रिटेन और संयुक्त राष्ट्र संघ तक भारत के किसानों की मांगों को अप्रत्यक्षतः अपना समर्थन जता चुके है। शायद इसी समर्थन की प्रतिक्रिया में यहां का सत्ता पक्ष इसे चीन और पाकिस्तान से प्रेरित और समर्थित बता रहा है।
इस परिदृश्य में देशभर का किसान इन कानूनों के विरोध मे आन्दोलन की राह पर है। सरकार और किसानों में सारी बातचीत विफल हो चुकी है। किसान सरकार के किसी भी आश्वासन पर विश्वास करने को तैयार नही है। सरकार इन कानूनों को किसानों के हित में बता रही है और इसके लिये एक 106 ई पन्नों का दस्तावेज भी जारी किया गया है। इस दस्तावेज का स्त्रोत मीडिया रिपोर्ट को बताया गया है इसलिये इसमें दर्ज किये गये आंकड़ों की प्रमाणिकता पर कुछ नही कहा जा सकता। इसी दस्तावेज के साथ-साथ सरकार ने पूरे देश में कृषि कानूनों पर उठती शंकाओं और सवालों का जवाब देने के लिये पत्रकार वार्ताएं आदि आयोजित करने की भी घोषणा की है। सरकार के इन प्रयासो से स्पष्ट हो जाता है कि वह इन कानूनों को वापिस लेने के लिये कतई तैयार नही है। उधर किसान भी आन्दोलन से पीछे हटने को तैयार नही है। ऐसे में इस आन्दोलन का अंत क्या होगा यह कहना आसान नही होगा। कृषि का कानून शान्ता कुमार कमेटी की सिफारिशों का प्रतिफल हैं यह पिछले अंक मे कमेटी की सिफारिशों के साथ रखा जा चुका है। इसके बाद शान्ता कुमार का एक प्रैस ब्यान भी आया हैं इस ब्यान के संद्धर्भ में इन कानूनों के कुछ पक्षो पर अलग से चर्चा की जा रही है। इसलिये यहां एक अलग बिन्दु पर चर्चा उठाई जा रही है। किसान सरकार पर विश्वास करने को तैयार नही हैं। इसलिये यह देखना और समझना आवश्यक हो जाता है कि कौन से फैसले रहे है जिनके कारण यह अविश्वास की स्थिति पैदा हुई है। 2014 में जब मोदी सरकार ने सत्ता संभाली थी तब चुनावों से पहले अन्ना आन्दोलन के माध्यम से जिस भ्रष्टाचार को उजागर किया गया था उसमें सबसे बड़ा घोटाला 1,76,000 करोड़ का टू जी स्कैम था। इसमें डा. मनमोहन सिंह के कार्याकाल में कुछ गिरफ्तारियां भी हुई थी। सरकार बदलने के बाद इसे मुकाम तक पहुंचाना मोदी सरकार का काम था। लेकिन इस सरकार के समय में अदालत में यह रखा गया कि यह घपला हुआ ही नही है। इसमें गणना करने में भूल हुई है। जिस विनोद राय ने गणना करके 1,76,000 करोड़ का आंकड़ा दिया था उससे मोदी सरकार ने एक सवाल तक नही पूछा और एक बड़ी जिम्मेदारी से उसे नवाज़ा गया। इससे पाठक स्वयं अन्दाजा लगा सकते हैं कि यह क्या था। इसी के साथ दूसरा बड़ा सवाल यह है कि 2014 में बैंकों में हर तरह के जमा पर जो ब्याज़ मिलता था आज 2020 में वह उसके आधे से भी कम हो गया है क्यों? क्या इस पर सवाल नही पूछा जाना चाहिये? क्या इससे हर आदमी प्रभावित नही हुआ है? क्या ऐसा करने का कोई चुनावी वायदा किया गया था? इस दौरान जो जीरो बैलेन्स के नाम पर बैंकों में खाते खुलवाये गये थे इनमें अब न्यूनतम बैलेन्स न रहने पर जुर्माने का प्रावधान है। डाकघरों में भी न्यूनतम बैलेन्स 500 न रहने पर सौ रूपये जुर्माने का प्रावधान कर दिया गया है। इस तरह हजारों करोड़ रूपया देश के आम गरीब आदमी का अनिवार्यतः बैंको के पास आ गया है। खाता धारक इस न्यूनतम बैलेन्स का अपने लिये कोई उपयोग नही कर सकता है यह पैसा एक बड़े औद्योगिक घराने को सहज में ही निवेश के लिये उपलब्ध हो गया। वहां से यह पैसा वापिस आ पायेगा या एनपीए हो जायेगा इसका ज्ञान उस खाताधारक को कभी नही हो सकेगा जिसका यह पैसा है। ऐसे में क्या इस नीति को आम आदमी के हित में कहा जा सकता है शायद नही। लेकिन नीति तो बना दी गयी। इस तरह आम आदमी की राहत के लिये उज्जवला जैसी जितनी भी योजनाएं बनाई गयी हैं उनका असली लाभकारी अन्त में एक बड़ा घराना ही निकलता है। जिसको योजना के नाम पर एक बड़ा और सुनिश्चित बाज़ार उपलबध हो जाता है। लेकिन ऐसी किसी भी योजना की घोषणा किसी भी चुनाव घोषणा पत्र में जो नही की गयी है।
आज बैंकिंग क्षेत्र में प्राईवेट सैक्टर के लिये दरवाज़े खोल दिये गये है। आरबीआई ने भी इसके लिये हरी झण्डी दे दी है। जबकि दूसरी ओर सहकारी क्षेत्र के कई बैंक डूब चुके हैं और बहुत सारे दूसरे बैंक डूबने के मुकाम पर पहंुच चुके हैं इसके लिये कभी भी ससंद से लेकर किसी अन्य मंच तक कोई चर्चा नही उठाई गयी है। न ही किसी चुनाव में यह घोषणा की गयी कि सरकार भविष्य में ऐसी कोई नीति लाने जा रही है। ऐसी कई नीतियां है जिन्हे बिना किसी पूर्व सूचना के लाकर जनता पर लागू कर दिया गया है और इन योजनाओं का अन्तिम लाभकारी परोक्ष/अपरोक्ष में कोई बड़ा घराना ही निकलता है। इसलिये आज इन कृषि कानूनों का भी अन्तिम लाभकारी कोई अंबानी-अदानी ही निकलेगा यह आशंका आम किसान में पक्का घर कर चुकी है। इसी कारण से किसान सरकार पर अपना विश्वास बनाने के लिये इन कानूनों को वापिस लेने के अतिरिक्त कोई विकल्प नही बचा है।

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