प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने अपने मन्त्रीमण्डल में उस समय फेरबदल और विस्तार किया है जब देश मंहगाई, बेरोज़गारी और महामारी से जूझ रहा है। अब मन्त्रीमण्डल की कुल संख्या 77 हो गयी है। इतने बड़े मन्त्रीमण्डल से यह सामने आ गया है कि एक समय जो यह कहा गया था कि सरकार ‘‘मिनीमम गवर्नमैन्ट और मैक्सिमम गवर्नैन्स’’ के सिन्द्धात पर चलेगी उससे प्रधानमन्त्री को समझौता करना पड़ गया है। क्योंकि पहले उससे लगभग आधे मन्त्री थे। यही नहीं प्रधानमन्त्री ने देश की जनता से वायदा किया था कि वह संसद को अपराधीयों से मुक्त करवा देंगे। अब इस वायदे से भी पीछे हटना पड़ा है और ऐसे व्यक्ति को गृह राज्य मन्त्री बनाना पड़ा जिसके अपने ही शपथ पत्र के मुताबिक उसके खिलाफ ग्याहर आपराधिक मामले अब तक लंबित हैं। बंगाल से राज्यमन्त्री बनाये गये निशीथ प्रमाणिक के खिलाफ ग्याहर आपराधिक मामले दर्ज हैं जिनमें हत्या तक का भी आरोप है। प्रमाणिक ने यह जानकारी स्वयं चुनाव आयोग को सौंपे शपथ पत्र में दी है और यह मामले अभी तक लंबित है एक न्यूज साईट ने यह खुलासा किया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ किये गये दावों और वायदों का सच भी इसी तरह का है क्योंकि जिस नारायण राणे के खिलाफ कभी स्वयं आरोप लगाये थे वह अब कैबिनेट मन्त्री है। इसलिये यह कहना कि जिन मन्त्रीयों को हटाया गया है वह नान परफारमिंग थे और जिनको लाया गया है वह जनता को मंहगाई और बेरोज़गारी से निजात दिला देंगे ऐसा मानना एकदम गलत होगा। यह सारा फेरबदल और विस्तार केवल रातनीतिक बाध्यताओं का परिणाम है। क्योंकि इसमें ए डी आर रिपोर्ट के अनुसार 42% मन्त्री ऐसे हैं जिनके खिलाफ मामले हैं। इससे यही संदेश गया है कि प्रधानमन्त्री और भाजपा सत्ता के लिये किसी भी हद तक समझौते कर सकते हैं।
सत्ता के पहले कार्यकाल में भी प्रधानमन्त्री ने अपनी मन्त्री परिषद में तीन बार विस्तार किया था और हर बार यह फेरबदल कुछ राज्यो में चुनावों को ध्यान में रख कर किया गया था। लेकिन तब इतना बड़ा आकार नहीं हुआ था। तब भी कई मन्त्रीयों की छुट्टी करके उनके स्थान पर नये लोगों को लाया गया था। लेकिन तब यह चर्चाएं नहीं उठी थी कि अमुक मन्त्री के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं। इसलिये यह समझना आवश्यक हो जाता है कि इस बार प्रधानमन्त्री को अपराध और भ्रष्टाचार के खिलाफ समझौते करने की आवश्यकता क्यों आ खड़ी हुई। यह सही है कि अगले वर्ष कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और चुनावों के परिदृश्य में राजनीतिक ताजपोशीयां होना कोई नयी बात भी नहीं है। लेकिन बंगाल के परिणामों ने जिस तरह से देश की राजनीति को प्रभावित किया है उसके बाद सारे राजनीतिक फैसलों को उसी आईने से देखना आवश्यक हो जाता है। आज बंगाल और केन्द्र हर रोज़ किसी न किसी मुद्दे पर टकराव में आ रहे हैं। लेकिन बंगाल की जिस हिंसा को आधार बनाकर वहां सरकार गिराने का वातावरण तैयार किया जा रहा है क्या वही हिंसा यू पी में आकर वैध हो जाती है? क्या यू पी की हिसां पर भी बंगाल जैसी ही चिन्ता नहीं की जानी चाहिये? भले ही सरकार के मानदण्ड दोनों जगह अलग अलग हैं लेकिन मंहगाई और बेरोज़गारी से त्रस्त आम आदमी अब राजनीति के इस खेल को समझने लग पड़ा है।
मन्त्री परिषद का यह विस्तार उस समय आया है जब संयुक्त राष्ट्र संघ जैसा मंच भी स्टेन स्वामी की जेल में हुई मौत पर नाराज़गी व्यक्त कर रहा था और फ्रांस में राफेल सौदे की जांच शुरू हो गयी है। इन दोनो मुद्दों पर अन्तर्राष्ट्रीय जगत में देश की प्रतिष्ठा पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं और भारत सरकार इनमें कुछ भी गलत न होने की बातें कर रही हैं। यह मुद्दे अब देश के अन्दर भी चर्चा का विषय बनते जा रहे हैं। इनका प्रभाव आने वाले दिनों में सरकार पर पड़ना तय है और उस समय एनडी के शेष बचे सहयोगी भी शिवसेना तथा अकालीदल के रास्ते न अपना लें इसलिये इस विस्तार में सहयोगी दलों को स्थान दिया गया है। सत्ता की सुरक्षा के लिये किये गये इन समझौतों ने भाजपा तथा मोदी को अन्य दलों की बराबरी में लाकर खड़ा कर दिया है और यही इसके लिये आगे घातक सिद्ध होगा।