बिहार विधानसभा और उसी के साथ हुए अन्य राज्यों के उपचुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा नही रहा है। इन परिणामों के बाद कांग्रेस में फिर एक विवाद खड़ा हो गया है। पूर्व मन्त्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने आरोप लगाया है कि इन चुनावों को गंभीरता से नही लिया गया। कपिल सिब्बल के आरोप का जबाव तो लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन और राजस्थान के मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत ने दिया है। कपिल सिब्बल के बाद राज्यसभा में दल के नेता गुलाम नवी आज़ाद ने भी कहा है कि कांग्रेस का संपर्क आम आदमी से टूट गया है। कांग्रेस के अन्दर जो यह स्वर उठने लगे हैं उससे आम आदमी का ध्यान भी इस ओर आकर्षित हुआ है क्योंकि बिहार विधानसभा चुनावों से पहले भी कांग्रेस के करीब दो दर्जन नेताओं ने सोनिया गांधी को एक पत्र लिखकर कुछ सवाल खड़े किये थे। लेकिन जैसे ही यह पत्र वायरल हुआ था तब कई नेताओं का इस पर स्पष्टीकरण भी आ गया था। बिहार विधानसभा या अन्य राज्यों में हुए उपचुनावों की कोई अधिकारिक समीक्षा पार्टी की ओर से अभी तक सामने नही आई है। बिहार में पार्टी का गठबन्धन आर जे डी और अन्य दलों के साथ था। महागठबन्धन बनाकर तेजस्वी यादव के नेतृत्व में यह चुनाव लड़ा गया था। महागठबन्धन के चुनाव हारने को चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली को दोषी ठहराया गया है। जिस तरह के साक्ष्य इस संद्धर्भ में सामने आये हैं उनसे चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल उठते हैं।
ईवीएम की विश्वसनीयता को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने अक्तूबर 2013 को भाजपा नेता डा. स्वामी की याचिका पर दिये फैसले में ईवीएम के साथ वी वी पैट लगाये जाने का फैसला विश्वसनीयता के सन्देहों को दूर करने के लिये ही दिया था। यह सुनिश्चित किया था कि चुनाव परिणाम पर सवाल उठने के बाद वी वी पैट की पर्चीयांें की गिनती सुनिश्चित की जायेगी। बिहार चुनाव में यह आरोप लगा है कि कुछ मतगणना केन्द्रों में वी वी पैट की पर्चीयां ही गायब मिली हैं। इसका नुकसान आर जे डी और कांग्रेस दोनों के उम्मीदवारों को हुआ है। इसको लेकर आर जे डी अदालत में जाने का रास्ता देख रही है। आपराधिक छवि के लोगों को उम्मीदवार बनाने और उनके अपराधों की सूची को समुचित रूप से प्रचारित न करने तथा ऐसे लोगों को पार्टी का उम्मीदवार बनाने के कारणों को सार्वजनिक करने के लिये मुख्य चुनाव आयुक्त और बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी के खिलाफ आयी अदालत की अवमानना की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने नोटिस जारी कर दिया है क्योंकि शीर्ष अदालत ने इस आशय के आदेश इसी वर्ष दे रखे हैं। इन आदेशों की अनुपालना न किया जाना भी चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठाता है।
चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर 2014 में हुए लोकसभा चुनावों से लेकर आज बिहार विधानसभा तक हुए हर चुनाव पर सवाल उठे हैं। ईवीएम को लेकर आधा दर्जन से अधिक याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय मेें लंबित है। ईवीएम पर उठे सवालों से हर चुनाव परिणाम का आकलन किसी भी राजनीतिक दल की लोकप्रियता के रूप मेें किया जाना एकदम आप्रसांगिक हो गया है। फिर कांग्रेस के लिये तो उसके अपने ही नेताओं के ब्यानों ने हर चुनाव में कठिनाईयां पैदा की हैं। कभी शशी थरूर तो कभी सैम पित्रोदा जैसे नेताओं के ब्यानों पर कांग्रेस के विरोधीयों ने बवाल खडे किये हैं। अभी इन्ही चुनावों में कमलनाथ के ब्यान से पार्टी के लिये परेशानी खड़ी हुई है। इसलिये आज बिहार की हार के बाद यह कहना कि इन चुनावों को गंभीरता से नही लिया गया या पार्टी आम आदमी से कट गयी है यह सही आकलन नही होगा। क्योंकि इन चुनावों से ठीक पहले सामने आये पार्टी के वरिष्ठ तेईस नेताओं के पत्र से ही इस हार की पटकथा लिख दी गयी थी यह कहना ज्यादा संगत होगा।
आज जब तक ईवीएम की विश्वनीयता पर उठते सवालों का अन्तिम जबाव नही आ जाता है तब तक चुनाव परिणाम इसी तरह के रहेंगे यह स्पष्ट है। इसलिये आज पहली आवश्यकता ई वी एम के प्रयोग पर फैसला लेने की है। क्योंकि कोरोना काल में लाॅकडाऊन के कारण परेशानीयां झेल चुके मतदाता से यह उम्मीद करना कि उसने फिर उसी व्यवस्था को समर्थन दिया होगा यह उस प्रवासी मजदूर के साथ ज्यादती होगी। बिहार विधानसभा के चुनाव परिणामों में हार जीत का जो अन्तराल सामने आया है और उस पर जिस तरह के सवाल उठे हैं उससे चुनाव आयोग पर उठते सन्देहों को और बल मिलता है। इस परिदृश्य में आज कांग्रेस नेताओं को नेतृत्व पर परोक्ष/अपरोक्ष में सवाल उठाने से पहले इन बड़े सवालों पर विचार करना होगा। 2014 के चुनावों से पहले अन्ना आन्दोलन के माध्यम से भ्रष्टाचार के जो आरोप लगाये गये थे क्या उनमें से कोई भी छः वर्षों में प्रमाणित हो पाया है। क्या आम आदमी को सरकार के इस चरित्र के प्रति जागरूक करना आवश्यक नही है? आज राहुल गांधी के अतिरिक्त कांग्रेस के और कितने नेता हैं जो सरकार से सवाल पूछने का साहस दिखा रहे हैं। राहुल गांधी की छवि बिगाड़ने के लिये मीडिया में किस तरह से कितना निवेश किया गया है यह कोबरा पोस्ट के स्टिंग आप्रेशन से सामने आ चुका है लेकिन कांग्रेस के कितने नेताओं ने इसे मुद्दा बनाया है इस समय भाजपा जिस तरह के वैचारिक धरातल पर काम कर रही है उसका जबाव उसे उसी वैचारिकता की तर्ज पर देना होगा। इसलिये आज जिस तरह के सवाल कांग्रेस का एक वर्ग उठा रहा है उससे न तो संगठन का और न ही समाज का भला होगा।




जब संवैधानिक संस्थाओं पर से विश्वास उठने लग जाता है तब आम के पास सत्ता की निरंकुशता को रोकने के लिये आन्दोलन के अतिरिक्त कोई विकल्प नही रह जाता है। चुनाव आयोग पर हर बार गंभीर सवाल उठ रहे हैं लेकिन कोई जवाब नही आया है। इन सवालों को सर्वोच्च न्यायालय की चैखट पर ला दिया गया लेकिन वहां भी कोई जवाब नही मिल रहा है। इस समय उच्च न्यायालयों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक करीब एक दर्जन याचिकाएं ईवीएम को लेकर लंबित हैं । ईवीएम पर से आम आदमी का विश्वास पूरी तरह से उठ चुका है क्योंकि सत्ता पक्ष से जुडे़ ही कई नेता और कार्यकर्ता यह कह चुके हैं कि ईवीएम का साथ तो उन्हें ही हासिल है। हरियाणा विधानसभा चुनावों के दौरान एक जिम्मेदार नेता का ऐसा ब्यान बहुत चर्चा में रहा है जिसका कोई खण्डन नही आया है। जनता और सारा विपक्ष ईवीएम की जगह वैलेट पेपर की पुरानी व्यवस्था की मांग कर रहा है। अधिकांश देश ईवीएम का त्याग कर चुके हैं लेकिन हमारे यहां चुनाव आयोग, सरकार और सर्वोच्च न्यायालय तक इसे सुनने को तैयार नही है। लेकिन अब बिहार चुनाव ने संभवतः इसके लिये ज़मीन तैयार कर दी है।
इस ज़मीन को सर्वोच्च न्यायालय के अनर्ब गोस्वामी को राहत दिये जाने को लेकर आये फैसले से और हवा मिल जाती है। गोस्वामी को अन्तरिम जमानत देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह से व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिये अपनी प्रतिबद्धता दोहराई है वह अतिप्रशंसनीय है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस संद्धर्भ में उच्च न्यायालयों की भूमिका पर भी सवाल उठाये हैं। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से यह बहस भी छिड़ गयी है कि क्या इस तरह की त्वरित राहत केवल प्रभावशाली व्यक्तियों को ही मिलेगी औरों को नही। गोस्वामी के पक्ष में सारी भाजपा और केन्द्र से लेकर राज्यों तक की सरकारों के मन्त्री सामने आ गये थे। लेकिन भाजपा की सरकारों में ही जो पत्रकारों के खिलाफ मामले बनाये जा रहे हंै उन पर भाजपा की चुप्पी एक अलग ही तस्वीर पैदा करती है। हिमाचल में ही उन्नीस पत्रकारों के खिलाफ मामले बना दिये गये हैं। उत्तर प्रदेश में पत्रकारों के खिलाफ दर्जनों मामले दर्ज हैं। हाथरस जाते हुए केरल के पत्रकार कटपन्न के खिलाफ बनाये गये मामले को तो वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल सर्वोच्च न्यायालय ले गये थे लेकिन उसे राहत देने की बजाये निचली अदालत में भेज दिया गया था। कई वांमपंथी, बुद्धिजीवी जेलों में बन्द हैं लेकिन उनके मामलों में सुनवाई नही हो रही है। अभी कुणाल कामरा के खिलाफ बनाया गया अदालत की अवमानना का मामला इसका ताजा उदाहरण है। इस समय सरकार की नीतियों पर सवाल उठाना अपराध बन गया है। न्यायपालिका में भी जब केवल सत्ता के पक्षधर लोगों को ही त्वरित मिल पायेगा और आम आदमी को नही तब कानून की नजर में सबके बराबर होने की बात केवल कागज़ी होकर ही रह जाती है। सर्वोच्च न्यायालय के अर्नब गोस्वामी पर आये फैसले के बाद बार एसोसियेशन के प्रधान दुशयन्त दबे ने जो पत्र सर्वोच्च न्यायालय को इस संद्धर्भ में लिखा है उस पर शीर्ष अदालत की चुप्पी आम आदमी के विश्वास को जो ठेस पहुंचायेगी उसका अंदाजा लगाना कठिन है। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि आज आम आदमी का विश्वास व्यवस्था पर से पूरी तरह उठ चुका है और विश्वास का यह उठना ही आन्दोलन की ईवारत लिखेगा।



प्रधानमन्त्री ने अपने संबोधन में उम्मीद जताई है कि अगले वर्ष फरवरी तक इसकी वैक्सीन आ जायेगी। लेकिन यह संभावना है पक्का नहीं। कोरोना काल में पहली बार कोई विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। फिर बिहार में प्रवासी मज़दूर सबसे ज्यादा हैं। यह प्रवासी मज़दूर वह वर्ग है जिसने कोरोना-लाकडाऊन की भयानकता को स्वयं भोगा है। लाकडाऊन में यही प्रवासी मज़दूर सैंकड़ों मील पैदल चल कर घर पहुंचा है। सरकारी व्यवस्थाएं कितनी कारगर और कितनी लचर रही है इसका अनुभव इस मज़दूर से ज्यादा किसी को नहीं है। इस कोरोना और लाकडाऊन में आपसी रिश्ते सोशल डिस्टैसिन्ग के नाम पर कैसे व्यवहारिक दूरीयों में बदल गये हैं। कैसे लोग एक दूसरे की खुशी और गमी में शरीक नही हो पाये हैं यह हर आदमी ने स्वयं अनुभव किया है। कैसे अस्पतालों में हर बिमारी का ईलाज बन्द कर दिया गया और कोरोना मरीजों के ईलाज के भी कितने पुख्ता प्रबन्ध थे तथा यह ईलाज कितना मंहगा था यह सब आम आदमी ने देखा और भोगा है। गोदी मीडिया ने किस तरह से महामारी में तब्लिगी समाज़ के नाम पर मुस्लिम समुदाय के खिलाफ एकतरफा अभियान चला रखा था। यह सब आम आदमी ने देखा और भोगा है। गोदी मीडिया के प्रचार पर सरकार एक दम खामोश रहकर उसका समर्थन कर रही थी और अदालतों ने भी इस पर प्रतिबन्ध लगाने से मना कर दिया था यह सब इसी कोरोना काल में घटा है। शीर्ष अदालत ने कितने अरसे बाद प्रवासी मज़दूरों के हालात पर विचार करना शुरू किया था। यह सब आम आदमी के जहन में है। सरकार के सारे दावे और वायदे कितने खोखले साबित हुए हैं यह खुलकर सामने आ चुका है। शायद आज़ादी के बाद ऐसा पहली बार हुआ है कि महामारी और आर्थिक मार दोनों को एक साथ झेलना पड़ा है।
ऐसे संकट के काल में भी जब सरकार कानून बनाकर मज़दूर से उसका हड़ताल का हक छीन ले और किसी ने कारपोरेट घरानों का गुलाम बनाने का खेल रच दे तो उससे सरकार की नीयत और नीति दोनों एकदम समझ आ जाती है। जब आम आदमी रोज़ी रोटी के संकट से जूझ रहा हो तब चुनाव आयोग चुनावी खर्च में दस प्रतिशत की बढ़ौत्तरी कर दे तो यह समझ आ जाता है कि इस संकट में भी नेता नाम का एक वर्ग है जिसे लाभ हुआ है। ऐसे परिदृश्य में जब किसी प्रदेश की विधानसभा का चुनाव हो रहा हो तो यह कैसे माना जा सकता है कि इसी व्यवस्था के हाथों पीड़ित और प्रताड़ित बेरोज़गार होकर बैठा प्रवासी मज़दूर उसी व्यवस्था को अपना समर्थन देकर फिर से सत्ता सौंप देगा। आज बिहार के चुनाव में जो हर रोज़ तपस्वी यादव और राहुल की सभाओं में भीड़ बढ़ रही है वह आदमी की पीड़ा का प्रमाण है शायद सत्तापक्ष को भी पटना से लेकर दिल्ली तक यह बात समझ आ गयी है कि आम आदमी अब उससे दूर हो चुका है। इसलिये पहले पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने नागरिकता अधिनियम को लागू करने की बात की। शायद यह उम्मीद थी कि नागरिकता पर उभरा आन्दोलन जो लाकडाऊन की आड़ में बन्द करवाया गया था फिर से उभर जायेगा और उससे नये सिरे से धु्रवीकरण की राह आसान हो जायेगी। लेकिन ऐसा नही हो पाया। इसीलिये अब वित्तमन्त्री सीता रमण को यह ऐलान करना पड़ा कि बिहार में कोरोना वायरस का वैक्सीन मुफ्त में जनता को उपलब्ध करवाया जायेगा। वित्तमन्त्री की इस घोषणा का अर्थ है कि आप बिमार आदमी को यह कह रहे हैं कि पहले तुम मेरा वोट देकर समर्थन करो और मैं तुम्हारा मुफ्त में ईलाज करूंगा। महामारी से तो पूरा देश पीड़ित है हरेक की वित्तिय स्थिति प्रभावित हुई है। ऐसे में क्या हर आदमी को वैक्सीन की उपलब्धता बिहार की तर्ज पर मुफ्त में नहीं की जानी चाहिये। यदि इस समय भाजपा विपक्ष मे होती तो ऐसे ब्यान पर सरकार संकट में आ जाती। चुनाव आयोग से लेकर शीर्ष अदालत तक सब पर इसका संज्ञान लेने का दवाब बना दिया जाता। वित्तमन्त्री का यह ऐलान राजनीतिक शुचिता के सारे मानदण्डों के खिलाफ है और इसे हताशा का ही परिणाम माना जा रहा है। इससे चुनाव आयोग की निष्पक्षता भी सवालों के घेरे में आ खड़ी होती है।



अब सवाल यह उठना है कि क्या जीडीपी की इस गिरावट का कारण कोरोना महामारी ही है या यह गिरावट नोटबन्दी के फैसले से ही शुरू हो गयी थी जो कोरोना काल के कारण अब खुलकर सामने आ गयी। नोटबन्दी एक गलत फैसला था इसे अब आरबीआई के पूर्व गवर्नर उर्जित पटेल ने भी मान लिया है जिनके समय में नोटबन्दी लागू की गयी थी। पटेल ने माना है कि नोटबन्दी में नौ लाख करोड़ का घपला हुआ। नोटबन्दी से रियल एस्टेट और ओटो मोबाईल दो क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित हुए थे। इन्हें उबारने के लिये आर्थिक पैकेज भी दिये गये और यह सब कोरोना काल से पहले ही हो गया था। इसी से स्पष्ट हो जाता है कि आर्थिक मंदी बहुत पहले शुरू हो गयी थी। आज तो स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि केन्द्र के पास राज्यों को उनके हिस्से का पैसा देने में भी कठिनाई आ रही है। राज्यों को कर्ज लेने की राय दी जा रही है। खर्चे कम करने के लिये सरकार के बार-बार के निर्देशों के बावजूद नये कर्ज देने में असमर्थता व्यक्त कर रहे है। चक्रवृद्धि ब्याज तक मुआफ नही किया गया मामला शीर्ष अदालत तक जा पहुंचा है। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से साफ कहा है कि यह उसके हाथ में है कि लोग दिवाली कैसे मनायें। बहुत सारी योजनाएं पहली अक्तूबर सक ही बंद कर दी गयी है। लेकिन इसी सबके बीच एक बड़ा सच यह भी है कि जब सरकार आर्थिक मंदी का सामना कर रही थी तब इसी देश के अंबानी जैसे बड़े कारपोरेट घरानो की सम्पति इन्ही कानूनों के सहारे बहुत तेजी बढ़ती जा रही थी। एक बार के कानूनों से सरकार तो गरीब और कर्ज में डुबती जा रही थी लेकिन अंबानी कर्ज मुक्त होकर नम्बर वन बनते जा रहे थे। इस परिप्रेक्ष में यह समझना आवश्यक हो जाता है कि ऐसा कैसे संभव हुआ? क्या जानबूझ कर पूरी सोच के साथ ऐसे नियम कानून बनाये गये जिनका लाभ कारपोरेट घरानों को मिले। आज जिस तरह से कृषि उपज कानूनो और श्रम कानूनों को बदला गया है उसका लाभ किसान और मजदूर की बजाये सिर्फ उद्योगपतियों को मिलेगा। एक उपज एक बाज़ार के नाम पर मूल्य नियन्त्रण हटाना और भण्डारण की छूट देने से किसी भी उपभोक्ता का भला नही होगा। इस समय कोरोना काल में करीब 14 करोड़ लोगों का रोज़गार छिन गया जिसकी निकट भविष्य में भरपाई संभव नहीं लगती है। कोरोना का डर अपनी जगह बना ही हुआ है। ऐसे में सारी कारोबारी गतिविधियों को फिर से अपने पुराने स्वरूप में आने में वक्त लगेगा क्योंकि समाज के एक बड़े हिस्से के पास पैसा है ही नहीं। आज केवल सरकार से नियमित वेतन और पैन्शन लेने वाला ही अपने को कुछ हदतक सुरक्षित मान सकता है। इनकी संख्या कुल आबादी का 15% भी नही है। इनके साथ बड़े छोटे उद्योगपतियों को भी जोड़ दिया जाये तो यह सारा आंकड़ा 30% से आगे नहीं बढ़ता है। इसका अर्थ है कि समाज के करीब 70% जनसंख्या असुरक्षित है। इस 70% में नये सिरे से व्यवस्था के प्रति विश्वास पैदा करना एक बड़ी चुनौती है। इसी अविश्वास के कारण हम बंग्लादेश और पाकिस्तान से भी पिछे जाते नज़र आ रहे है।
इस परिदृश्य में यह और बड़ा सवाल खड़ा होता है कि जब मनमोहन सिंह के कार्यकाल में अर्थव्यवस्था ठीक से चल रही थी तो फिर मोदी के छः वर्षों में ऐसी बदत्तर हालत क्यों और कैसे हो गयी? आज आम आदमी का उच्च न्यायपालिका और मीडिया पर से भी भरोसा खत्म होता जा रहा है। यदि इन सवालों के परिदृश्य में बीते छः वर्षों का आकलन किया जाये तो सामने आता है कि जिन बड़े उद्योग घरानों ने इस दौरान बैंको से बड़ा कर्ज लिया उसे वापिस नहीं किया और दस लाख करोड़ ज्यादा का एनपीए हो गया। उद्योगपति सरकार के सामने-सामने देश छोड़कर चले गये और सरकार गो रक्षा, लव जिहाद, आरक्षण के खिलाफ ब्यान देने, तीन तलाक खत्म करने और नागरिकता कानून में संशोधन करने और उससे उपजे आन्दोलन को दबाने के कार्यक्रमों में लगी रही। 2014 का चुनाव भ्रष्टाचार और कालेधन की वापसी के नाम पर जीत लिया। 2019 का चुनाव सरकारी कोष से कुछ वर्गों को राहत देने और हिन्दु राष्ट्र के ऐजैण्डे को आगे बढ़ने और सरकार की नीतियों पर सवाल उठाने वालों के देशद्रोही करार देने के नाम पर जीत लिया। आज भी बिहार में यह कहा जा रहा है कि यदि भाजपा गठबन्धन उभरता है तो इस हार पर पाकिस्तान में जश्न मनाया जायेगा। भाजपा और सरकार के हर काम में हिन्दु -मुस्लिम का भेद स्वतः उभर कर सामने आ जाता है। भाजपा शासन में एकदम यह प्रचारित हो जाता है कि हिन्दु खतरे में है। भाजपा अपनी सोच में हिन्दु-मुस्लिम ऐजैण्डे से बाहर निकल ही नहीं पाती है। देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करना कभी उसकी प्राथमिकता नहीं रही। बल्कि महत्वपूर्ण सरकारी साधनों को विनिवेश के नाम पर प्राईवेट सैक्टर के हवाले करना ही उसका ऐजैण्डा रहा है। इसी ऐजैण्डे के परिणाम स्वरूप विदेशी कंपनीयां सैंकड़ो की संख्या में देश में बैठ गयी है। आज जीडीपी की गिरावट को रोकने के लिये कर्ज लेने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं बचा है। यह कर्ज देने वालों की शर्तों पर मिलेगा लेने वालों की शर्तों पर नहीं और यही देश के लिये सबसे घातक सिद्ध होगा।




इसी दौरान फिल्म अभिनेता सुशान्त सिंह राजपूत की मौत का मामला आ गया। इस मौत को आत्महत्या की बजाये हत्या करार दिये जाने लगा इसके तार ड्रग माफिया से जुड़े होने के खुलासे होने लगे। देश की सारी जांच एजैन्सीयां इसी मामले की जांच मे लग गयी। ड्रग्ज़ के लिये कुछ लोगों की गिरफ्तारियां तक हो गयी। पूरे मामले को बिहार, महाराष्ट्र प्रौजैक्ट किया जाने लगा। अभिनेत्री कंगना रणौत ने तो यहां तक कह दिया कि यह हत्या का मामला है और इसके सबूत उसके पास हैं। यदि वह अपने आरोपों को प्रमाणित नही कर पायेंगी तो पद्मश्री लौटा देंगी। न्यूज चैनलों से अन्य सारे मुद्दे गायब हो गये। केवल सुशान्त सिंह राजपूत और कंगना रणौत ही प्रमुख मुद्दे बन गये। केन्द्र ने कंगना को वाई प्लस सुरक्षा प्रदान कर दी। हिमाचल भाजपा ने तो कंगना के पक्ष में हस्ताक्षर अभियान प्रदेशभर में छेड़ दिया। लेकिन इसी बीच जब एम्ज़ की विशेषज्ञ कमेटी ने सुशान्त सिंह की मौत को हत्या की बजाये आत्महत्या करार दिया तब इस मामले का भी पूरा परिदृश्य ही बदल गया। इस बदलाव पर एनबीएसए भी गंभीर हुआ। उसने आजतक, एबीपी इण्डिया टीवी और न्यूज 18 जैसे कई चैनलों को सुशान्त राजपूत केस में गलत जानकारीयां देने तथ्यों को छुपाने और तोड़ मरोड़ कर पेश करने जैसे कई गंभीर आरोपों का दोषी पाते हुए कुछेक को एक-एक लाख तक का जुर्माना लगाया है। एनबीएसए न्यूज चैनलों का अपना एक शिखर संगठन है। इस संगठन द्वारा भी इन चैनलो को देाषी करार देना अपने में ही मीडिया की विश्वसनीयता पर एक बड़ा सवाल बन जाता है। फिर इसी बीच मुंबई पुलिस न्यूज चैनलों के टीआरपी घोटाले का अनाचरण कर देती है इसमें चार लोगों की गिरफ्तारी हो जाती है। रिपब्लिक टीवी को भी इस प्रकरण में नोटिस जारी किया गया है। इस तरह मीडिया के इन सारे मामलों को अगर इकट्ठा करके देखा जाये तो निश्चित रूप से यह बड़ा सवाल जवाब मांगता है कि क्या इस चैथे खम्बे के सहारे लोकतन्त्र कितनी देर खड़ा रह पायेगा?
मीडिया पर उठी यह बहस अभी शुरू ही हुई है कि आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमन्त्री जगन रेड्डी ने सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश को एक छः पन्नो का पत्र भेजकर शीर्ष अदालत के ही दूसरे वरिष्ठतम जज रम्मन्ना के खिलाफ आरोप लगाकर लोकतन्त्र के एक और खम्बे न्यायपालिका को हिलाकर रख दिया है। जगन रेड्डी स्वयं आपराधिक मामले झेल रहे हैं और जस्टिस रम्मन्ना ने ही माननीयों के खिलाफ देशभर में चल रहे मामलों को प्राथमिकता के आधार पर शीघ्र निपटाने के आदेश पारित किये हैं। ऐसे में रेड्डी में इस पत्र को न्यायपालिका बनाम व्यवस्थापिका में एक बड़े संघर्ष का संकेत माना जा रहा है। क्योंकि रेड्डी स्वयं मुख्यमन्त्री हैं और उनके कहने लिखने का भी एक अर्थ है। दिल्ली उच्च न्यायालय के भी एक जज के खिलाफ पूर्व मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह, आनन्द चैहान के माध्यम से ऐसे ही आरोप एक समय लगा चुके है। तब इसकी ओर ज्यादा ध्यान आकर्षित नही हुआ था और आज यह पत्र संस्कृति सर्वोच्च न्यायालय में दस्तक दे चुकी है। कार्यपालिका और व्यवस्थापिका तो बहुत अरसा पहले ही जन विश्वास खो चुकी है और अब मीडिया तथा न्यायपालिका की अस्मिता भी सवालों के घेरे में आ खड़ी है। ऐसे में यदि समय रहते लोकतन्त्र के इन खम्बों पर उठते सवालों के जवाब न तलाशे गये तो यह तय है कि लोकतन्त्र नहीं बच पायेगा।