क्या कोरोना के नये वायरस ओमीक्रॉन के बढ़ते संक्रमण के कारण पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव कुछ समय के लिये टाल दिये जायेंगे। यह सवाल इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक आदेश के बाद चर्चा में आया हैं क्योंकि इस आदेश में चुनाव आयोग और प्रधानमंत्री से निर्देश पूर्ण आग्रह किया गया है। इस पर क्या फैसला लिया जाता है यह आने वाले कुछ दिनों में सामने आ जायेगा। लेकिन जिस तरह से ओमीक्रॉन के बढ़ने और उसी अनुपात में सरकारों द्वारा कर्फ्यू आदि के कदम उठाये जा रहे हैं इससे एक बार फिर लॉकडाउन की संभावनाएं और आशंकाएं बढ़ती जा रही हैं। पिछले 2 वर्ष से देश इस महामारी के संकट से जूझ रहा है। इस दौरान जो कुछ घटा है और सरकार ने जो कदम उठाये हैं उसके परिदृश्य में कुछ सवाल उभरते हैं जिन पर एक सार्वजनिक बहस की अब आवश्यकता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च 2020 को लॉकडाउन लगाकर इस महामारी से निपटने का पहला कदम उठाया था। लॉकडाउन की घोषणा अचानक हुई थी। लोगों की लॉकडाउन झलेने की कोई तैयारी नहीं थी। जबकि महामारी अधिनियम 1897 में यह प्रावधान है कि जब कोई बीमारी सरकार के आकलन में महामारी लगे और उससे निपटने के लिये अलग से कुछ कदम उठाने पड़े तो उसके लिए जनता को सार्वजनिक रूप से अग्रिम सूचना देनी पड़ती है। लेकिन लॉकडाउन लगाते समय कुछ नहीं किया गया। लॉकडाउन में किस तरह का नुकसान आम आदमी को उठाना पड़ा है उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है। नवम्बर 2016 में की गयी नोटबंदी से जो नुकसान आर्थिकी को पहुंचा था लॉकडाउन ने उसे कई गुना बढ़ा दिया है। इस दौरान राजनीतिक गतिविधियों के अतिरिक्त बाकी सारी आर्थिक गतिविधियां शुन्य हो गयी। 2020 में कोरोना के लिये कोई वैक्सीन या अन्य कोई दवाई बाजार में नहीं आयी। आज भी इसकी कोई दवाई उपलब्ध नहीं है। इस वर्ष जनवरी से जो वैक्सीन लगाई जा रही है वह केवल एक प्रतिरोधक उपाय है। इसकी प्रतिरोधक क्षमता भी केवल छः माह तक कारगर है। इसके बाद पुनः इसकी डोज लेनी पड़ेगी। ऐसा कब तक करते रहना पड़ेगा इसको लेकर कुछ भी स्पष्ट नहीं है। वैक्सीन की इस व्यवहारिक स्थिति के कारण ही सर्वाच्च न्यायालय में केंद्र सरकार ने एक शपथ पत्र देकर यह कहा है की वैक्सीन लगवाना अनिवार्य नहीं किया गया है। इसे एैच्छिक ही रखा गया है। 2020 में आरोग्य सेतु ऐप आया था। इसको लेकर कितने दावे किये गये थे और उन्हीं दावों के आधार पर इसे अनिवार्य बना दिया गया था। लेकिन जब एक आर.टी.आई. में इससे जुड़ी जानकारियां मांगी गयी तब ऐप को लेकर ही अनभिज्ञता जता दी गयी। इससे आम आदमी के विश्वास को कितना आघात पहुंचा है इसका अंदाजा लगाना कठिन है।
1897 में महामारी अधिनियम आने के बाद से लेकर आज तक का रिकार्ड यह बताया है कि हर दस-बारह वर्ष के अंतराल पर कोई न कोई महामारी आती रही है लेकिन इससे निपटने के इस तरह के उपाय पहली बार किये गये हैं जिनमें शुरुआत में ही यह कहा गया कि अस्पताल भी ना जायें। इस निर्देश में यह ध्यान नहीं रखा गया कि जो लोग आ.ेपी.डी. में आ रहे हैं या अस्पताल में दाखिल होकर इलाज करवा रहे हैं और अब उनका इलाज बंद हो गया है उनमें से यदि कोई संक्रमित हो जाता है तो उसका बचाव कैसे होगा। आज तक इस पर कोई अध्ययन नहीं किया गया है कि जब 24 मार्च को लॉकडाउन के कारण अस्पताल भी बंद हो गये थे तब अस्पताल आने वाले कितने लोग संक्रमित हुए और उनकी स्थिति क्या रही। जब लॉकडाउन हुआ था उसके बाद एक याचिका सर्वाच्च न्यायालय में डॉ कुनाल साहा की आई थी उसमें संभावित प्रस्तावित दवाइयों और वैक्सीन के साइड इफेक्ट को लेकर कुछ चिन्ताएं व्यक्त की गयी थी। जिनका आज तक जवाब नहीं आया है। इसके बाद कुछ वैज्ञानिकों और फिर कुछ पूर्व वरिष्ठ नौकरशाहों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कुछ जानकारीयां इस महामारी को लेकर मांगी थी जिनका जवाब नहीं आया है। अब डॉक्टर जैकब पुलियेल की याचिका पर यह शपथ पत्र आ गया कि वैक्सीनेशन अनिवार्य नहीं की गयी है यह एैच्छिक है। लेकिन व्यवहार में जिस तरह की बंदिशों के आदेश/निर्देश सामने आ रहे हैं वह रिकॉर्ड पर आ चुकी स्थिति से एकदम भिन्न है। इस भिन्नता के कारण ही यह आशंकाएं उभर रही हैं कि कहीं इस महामारी का कोई राजनीतिक लाभ तो नहीं उठाया जा रहा है। क्योंकि जन्म और मृत्यु के आंकड़े संसद में गृह विभाग की ओर से हर वर्ष रखे जाते हैं। क्योंकि हर जन्म और मृत्यु का पंजीकरण होता है। मृत्यु के इन आंकड़ों के अनुसार पिछले कुछ वर्षों से इसमें प्रतिवर्ष दस बारह लाख की बढ़ोतरी हो रही है। 2018 में यह आंकड़ा 69 लाख था और आज भी यह 7.27 प्रति हजार है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि व्यवहार और प्रचार में कितना अंतर है।






इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद यह चर्चा चल पड़ी है कि क्या सरकार पांच राज्यों में होने वाले चुनावों को टालने की योजना बना रही है। उत्तर प्रदेश की चुनावी अहमियत इसी धारणा से पता चल जाती है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। जिस उत्तर प्रदेश में 2017 और 2019 के चुनावों के बाद यह कहा जाने लगा था कि उसे वहां पर कोई चुनौती ही नहीं बनी है वहां पर आज जिस तरह की भीड़ अखिलेश यादव, प्रियंका गांधी और राहुल गांधी की जनसभाओं में उमड रही है उससे भाजपा के माथे पर चिंता की लकीरें साफ उभरना शुरू हो गयी हैं। क्योंकि इसी अनुपात में अब प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और पार्टी अध्यक्ष नड्डा की सभाओं में खाली कुर्सियां दिखनी शुरू हो गयी है। प्रियंका और राहुल के प्रयासों से कांग्रेस ने मुकाबले को तिकोना बना दिया है। फिर अयोध्या, काशी और मथुरा के प्रयोगों से भी धार्मिक और जातीय धुव्रीकरण नहीं बन पाया है। लखीमपुर खीरी काण्ड के बाद भी किसान आंदोलन में हिंसा न हो पाना इसी कड़ी में देखा जा रहा है। बल्कि इस काण्ड पर आई एस.आई.टी. की रिपोर्ट के बाद गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा भाजपा का नैगेटिव बनता जा रहा है। राम मंदिर के लिये की गई जमीन में लगे घोटाले के आरोपों का अभी तक कोई जवाब नहीं आया है। महंगाई और बेरोजगारी से जिस कदर आम आदमी पीड़ित हो उठा है उससे किसी भी तरह के धुव्रीकरण के प्रयास सफल नहीं हो रहे हैं। ऊपर से अब कृषि मंत्री तोमर का यह ब्यान कि सरकार कृषि कानूनों को लेकर फिर से एक प्रयास करेगी से स्थिति और उलझ गयी है। बल्कि इस ब्यान के बाद ममता बनर्जी के लिये भी अदानी के साथ बन रहे रिश्तों पर जवाब देना कठिन हो जायेगा। इस सब को अगर एक साथ मिलाकर देखा जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि यू.पी. में भाजपा की राह लगातार कठिन होती जा रही है और इससे एकदम बाहर निकलने के लिए ओमीक्राम के खतरे के नाम पर चुनाव टालने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं रह जाता है।
पांच राज्यों के लिये हो रहे चुनावों को लेकर सर्वे आ रहे हैं उनके मुताबिक कहीं भी भाजपा सुखद स्थिति में नहीं है। उत्तराखंड में भाजपा के कई मंत्री और विधायक कांग्रेस में वापसी कर चुके हैं। पंजाब में भाजपा को उस अमरिंदर सिंह का दामन थामना पड़ रहा है जो कांग्रेस छोड़ने के बाद पटियाला में ही अपने आदमी को मेयर का चुनाव नहीं जीतवा पाये। बंगाल की हार से प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत साख को जो धक्का पहुंचा है उससे अभी तक बाहर नहीं निकल पाये हैं। इस लिए अभी ओमीक्राम के नाम पर छः माह के लिए चुनाव टालने की भूमिका बनाई जा रही है। कुछ राज्यों द्वारा रात्रि कर्फ्यू लगाया जाना इसी दिशा का प्रयास है। यदि एक बार चुनाव टाल दिये जाते हैं तो इन राज्यों में अपने आप ही राष्ट्रपति शासन लागू होने की स्थिति आ जायेगी। जिसे आगे बढ़ाया जा सकता है। ऐसे में महामारी अधिनियम और महामारी की व्यवहारिकता को लेकर एक चर्चा की आवश्यकता हो जाती है और इसे अगले अंक में उठाया जायेगा।






बैंकिंग देश की रीढ़ की हड्डी मानी जाती है लेकिन इस सरकार के कार्यकाल में 2014 -15 से 2020-2021 तक कमर्शियल बैंकों का एनपीए दो लाख करोड़ से बढ़कर 25.24 लाख करोड़ तक पहुंच गया। लेकिन इनमें रिकवरी केवल 593956 करोड़ ही हो पायी है जबकि 10,72116 करोड़ की कर्ज माफ कर दिया गया। इसी तरह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए इसी अवधि में 1904350 करोड़ को पहुंच गया जिसमें रिकवरी सिर्फ 448784 करोड़ और इसमें 807488 करोड़ का कर्ज इसमें माफ किया गया है। यह सारे आंकड़े आरबीआई से 13.8.21 की एक आरटीआई के माध्यम से सामने आये हैं। इन आंकड़ों से यह सामने आया है कि इस सरकार के कार्यकाल में करीब बीस लाख करोड़ का कर्ज माफ कर दिया गया। इसी कर्ज माफी का परिणाम है कि बैंकों में जमा पूंजी पर लगातार ब्याज कम होता जा रहा है और बैंकों की सेवाएं लगातार महंगी होती जा रही हैं। महंगाई और बेरोजगारी भी इसी सबका परिणाम है। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिस दिन यह चिन्हित अदारे पूरी तरह से प्राइवेट सैक्टर के हवाले हो जायेंगे उस दिन महंगाई और बेरोजगारी का आलम क्या होगा।
इस सारे खुलासे के बाद यह सवाल जवाब मांगते हैं कि क्या इस सब पर देश के अंदर एक सार्वजनिक बहस नहीं हो जानी चाहिये थी? सरकारी संपत्तियों को प्राइवेट सैक्टर के हवाले करके कितनी देर देश को चलाया जा सकेगा? जिस देश के बैंकों की हालत यहां तक पहुंच गयी है कि 22219 ब्रांचों वाले स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को 60 ब्रांचों वाले अदानी कैपिटल को अपना लोन पार्टनर बनाना पड़ा है यदि वहां के बैंक प्राइवेट हाथों में चले जायें तो आम आदमी का पैसा कितनी देर सुरक्षित रह पायेगा? प्राइवेट बैंक गरीब आदमी को क्यों और किन शर्तों पर कर्ज उपलब्ध करावायेगा? क्या इस वस्तुस्थिति का देर-सवेर हर आदमी पर असर नहीं पड़ेगा? क्या इन सवालों को हिन्दू-मुस्लिम करके नजरअंदाज किया जा सकता है? क्या राम मंदिर, काशी विश्वनाथ कॉरीडोर और मथुरा में कृष्ण मूर्ति रखने से महंगाई और बेरोजगारी के प्रश्न हल हो जायेंगे? आज जो नेता और राजनीतिक दल इन सवालों पर मौन धारण करके बैठ गये हैं क्या उनके हाथों में देश सुरक्षित रह पायेगा? क्या ऐसे परिदृश्य में आज संसद से लेकर हर गली चौराहे तक इन सवालों पर बहस नहीं होनी चाहिये?
घातक होगा सार्वजनिक सवालों पर बहस से भागनावोटर आईडी को आधार कार्ड से जोड़ने का विधेयक लोकसभा में बिना बहस के पारित हो गया है। इसे चुनाव सुधारों की दिशा में एक बड़ा कदम कहा जा रहा है। इस विधेयक को लोकसभा में लाये जाने से पहले चुनाव आयोग और पीएमओ के बीच एक बैठक होने का विवाद भी उभरा था। इस विवाद के परिदृश्य में यदि इस चुनाव सुधार पर संसद में बहस हो जाती तो अच्छा होता। लेकिन ऐसा हो नही पाया। शायद इस सरकार की यह संस्कृति ही बन गयी है कि विपक्ष की कोई भी बात सुननी ही नहीं है। जिस तरह से प्रधानमंत्री भी केवल अपने मन की ही बात जनता को सुनाने के सिद्धांत पर चलते आ रहे हैं उनकी सरकार भी उन्हीं के नक्शे कदम पर चल रही है। दर्जनों उदाहरण इस चलन के नोटबंदी से लेकर कृषि कानूनों के पास होने से लेकर उनके वापिस होने तक के मौजूद हैं। इस चलन में सबसे बड़ी कमी यही होती है कि आप हर बार हर समय ठीक नहीं हो सकते। आर्थिक क्षेत्र में जितने भी फैसले लिये गये हैं उनका ठोस लाभ केवल 10ः समृद्ध लोगों को ही मिला है और बाकी के नब्बे प्रतिश्त के तो साधन ही कितने चले गये हैं। सरकार जिस तरह से बड़े पूंजीपतियों की पक्षधर होकर रह गयी है उसका सबसे बड़ा प्रमाण सरकार की विनिवेश योजना है। जिसके तहत अच्छी आय देने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों, रेलवे ट्रैक, रेलवे स्टेशन, ट्रेन, हवाई अड्डे, बंदरगाह, ऊर्जा उत्पादन और ट्रांसमिशन, तेल और गैस पाइपलाइनज, टेलीकॉम इंफ्र्रास्ट्रक्चर तथा खनिज और खानों को निजी क्षेत्र में सौंपकर इससे छःलाख करोड़ जुटाने की योजना है। इसी विनिवेश के तहत सरकारी बैंकों को भी प्राइवेट सैक्टर को देने का विधेयक लाया जा रहा था जिसे बैंक कर्मचारियों की हड़ताल और पांच राज्यों में होने वाले चुनावों में इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ने की आशंका से टाल दिया गया। लेकिन देश के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के साथ अदानी कैपिटल की हुई हिस्सेदारी से इसका श्रीगणेश कर दिया गया है। बैंकिंग देश की रीढ़ की हड्डी मानी जाती है लेकिन इस सरकार के कार्यकाल में 2014 -15 से 2020-2021 तक कमर्शियल बैंकों का एनपीए दो लाख करोड़ से बढ़कर 25.24 लाख करोड़ तक पहुंच गया। लेकिन इनमें रिकवरी केवल 593956 करोड़ ही हो पायी है जबकि 10,72116 करोड़ की कर्ज माफ कर दिया गया। इसी तरह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए इसी अवधि में 1904350 करोड़ को पहुंच गया जिसमें रिकवरी सिर्फ 448784 करोड़ और इसमें 807488 करोड़ का कर्ज इसमें माफ किया गया है। यह सारे आंकड़े आरबीआई से 13.8.21 की एक आरटीआई के माध्यम से सामने आये हैं। इन आंकड़ों से यह सामने आया है कि इस सरकार के कार्यकाल में करीब बीस लाख करोड़ का कर्ज माफ कर दिया गया। इसी कर्ज माफी का परिणाम है कि बैंकों में जमा पूंजी पर लगातार ब्याज कम होता जा रहा है और बैंकों की सेवाएं लगातार महंगी होती जा रही हैं। महंगाई और बेरोजगारी भी इसी सबका परिणाम है। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिस दिन यह चिन्हित अदारे पूरी तरह से प्राइवेट सैक्टर के हवाले हो जायेंगे उस दिन महंगाई और बेरोजगारी का आलम क्या होगा। इस सारे खुलासे के बाद यह सवाल जवाब मांगते हैं कि क्या इस सब पर देश के अंदर एक सार्वजनिक बहस नहीं हो जानी चाहिये थी? सरकारी संपत्तियों को प्राइवेट सैक्टर के हवाले करके कितनी देर देश को चलाया जा सकेगा? जिस देश के बैंकों की हालत यहां तक पहुंच गयी है कि 22219 ब्रांचों वाले स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को 60 ब्रांचों वाले अदानी कैपिटल को अपना लोन पार्टनर बनाना पड़ा है यदि वहां के बैंक प्राइवेट हाथों में चले जायें तो आम आदमी का पैसा कितनी देर सुरक्षित रह पायेगा? प्राइवेट बैंक गरीब आदमी को क्यों और किन शर्तों पर कर्ज उपलब्ध करावायेगा? क्या इस वस्तुस्थिति का देर-सवेर हर आदमी पर असर नहीं पड़ेगा? क्या इन सवालों को हिन्दू-मुस्लिम करके नजरअंदाज किया जा सकता है? क्या राम मंदिर, काशी विश्वनाथ कॉरीडोर और मथुरा में कृष्ण मूर्ति रखने से महंगाई और बेरोजगारी के प्रश्न हल हो जायेंगे? आज जो नेता और राजनीतिक दल इन सवालों पर मौन धारण करके बैठ गये हैं क्या उनके हाथों में देश सुरक्षित रह पायेगा? क्या ऐसे परिदृश्य में आज संसद से लेकर हर गली चौराहे तक इन सवालों पर बहस नहीं होनी चाहिये?






नरेंद्र मोदी को केंद्र की सत्ता संभाले सात वर्ष हो गये हैं। इन सात वर्षों में 2014 के मुकाबले महंगाई और बेरोजगारी कहां पहुंच गयी है इसका दंश अब हर आदमी झेल रहा है। देश जिस आर्थिक स्थिति में पहुंच चुका है वहां पर महंगाई और बेरोजगारी के कम होने की सारी संभावनाएं समाप्त हो चुकी है क्योंकि यह सब सरकार के गलत आर्थिक फैसलों का परिणाम है। 2014 में यूपीए को भ्रष्टाचार का पर्याय करार दिया गया था इस नाते आज सरकार से यह पूछना हर व्यक्ति का कर्तव्य बन जाता है कि भ्रष्टाचार के कौन से मामले की जांच सात वर्षों में पूरी होकर मामला अदालत तक पहुंचा है। जिस सीएजी विनोद राय ने टूजी में 1,76,000 करोड़ का घपला होने का आंकड़ा देश को परोसा था और यह आरोप लगाया था कि कुछ सांसदों ने उन्हें यह आग्रह किया था कि इसमें प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का नाम नहीं आना चाहिये। इस आरोप के लिए विनोद राय ने अदालत में लिखित में माफी मांग ली है। 1,76,000 करोड़ के घपले को आकलन की गलती मान कर यह कह दिया है कि कोई घपला हुआ ही नही है। क्या इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि 2014 में बड़े योजनाबद्ध तरीके से सरकार के खिलाफ अन्ना, रामदेव आन्दोलन प्रायोजित किये गये थे। क्यों मोदी सरकार डॉ. मनमोहन सरकार के खिलाफ कोई श्वेत पत्रा नहीं ला पायी है। आज जिस हालत में देश खड़ा हुआ है हर संवेदनशील व्यक्ति के लिये चिन्ता और चिन्तन का विषय होना आवश्यक है। क्योंकि आना आने वाला समय हर आदमी से हर घर में यह सवाल पूछेगा कि संकट के इस दौर में उसकी भूमिका क्या रही है।
अन्ना आन्दोलन के प्रतिफल रहे हैं नरेंद्र मोदी अरविन्द केजरीवाल और ममता बनर्जी। क्योंकि यह सभी अन्ना के आंदोलन के साथ परोक्ष-अपरोक्ष में जुड़े रहे हैं। यह ममता बनर्जी ही थी जिन्होंने अन्त में अन्ना के लिए आयोजन रखा था। यह दूसरी बात है कि पंडाल में जनता के न आने से अन्ना आयोजन स्थल तक जाने का साहस नहीं कर पाये थे। इसीलिए मोदी के आर्थिक फैसलों का विरोध यह लोग नहीं कर पाये हैं। नोटबंदी पहला और सबसे घातक फैसला रहा है क्योंकि जब 99.6% पुराने नोट नये नोटो के साथ बदल लिये गये तो वहीं से काले धन और टेरर फंडिंग के दावे हवा-हवाई सिद्ध हो गये। उल्टा नये नोट छापने और उनको ट्रांसपोर्ट करने का करीब 38,000 करोड़ का खर्च पड़ा। जून 2014 में बैंकों का एन पी ए जो करीब 2,52,000 करोड़ का था वह आज 2021 में दस खरब करोड़ तक कैसे पहुच गया। कारपोरेट घरानों का दस लाख करोड़ का कर्ज क्यों और कैसे माफ हो गया। क्या इन्ही फैसलों का परिणाम नही है कि आज सरकारी बैकों को प्राइवेट सैक्टर को सौंपने के लिये संसद के इसी सत्र में संशोधन लाया जा रहा है। आज किसानों की आय दो गुणी करने के लिये एस.बी.आई. और अदानी में समझौता हुआ है। अब एस.बी.आई. के माध्यम से अदानी किसानों को कर्ज बांटेगा। जिस अंबानी- अदानी को कृषि कानूनों का कारण माना जा रहा था आज वही अदानी कृषि कानून वापिस होने के बाद किसानों को कर्ज बांटेगा और एस.बी.आई. उसमें सहयोग करेगा। जबकि अदानी तो एस.बी.आई. का एक बड़ा कर्जदार है। क्या यह कृषि क्षेत्र पर अदानी के कब्जे का मार्ग प्रशस्त करने का पहला कदम नहीं माना जाना चाहिये।
एस.बी.आई. देश का सबसे बड़ा बैंक है। इस बैंक को अदानी कैपिटल प्रा. लि. के साथ मिलकर किसानों को ट्रैक्टर और कृषि मशीनों की खरीद के लिये कर्ज देने का पार्टनर बनाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? एस.बी.आई. अदानी की इस डील पर ममता की चुप्पी क्यों है? क्या अदानी ने ममता से मिलकर बंगाल के कृषि क्षेत्र में ही इस तरह से निवेश की कोई बड़ी योजना तो नहीं बना रखी है? यह सारे सवाल इस डील और मुलाकात के बाद प्रसांगिक हो उठे हैं। क्योंकि इस सब को एक महज संयोग मानकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।






इस पृष्ठभूमि में आ रहे इन विधेयकों को लाने की आवश्यकता क्यों अनुभव हुई और इससे किसको क्या लाभ मिलेगा यह विचारणीय सवाल हैं। बैंकिंग अधिनियम में प्रस्तावित संशोधन पर बैंक कर्मचारी संगठनों ने तो ‘‘बैंक बचाओ देश बचाओ’’ के बैनर तले 1 दिन का प्रदर्शन करके यह कहा है कि इस संशोधन से सरकारी बैंकों को प्राइवेट सैक्टर को देने की योजना है। इससे बैंकिंग सेवाएं महंगी हो जाएंगी। यह भी जानकारी दी है कि अब तक 500 बैंक दिवालिया हो चुके हैं। जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था तब भी यही सबसे बड़ा कारण था कि उस समय भी कई बैंक डूब चुके थे। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के कारण ही आज तक देश के बैंक सुरक्षित चल रहे थे और जनता का विश्वास इन पर बना हुआ था। अब जब यह बैंक प्राइवेट सैक्टर के पास चले जाएंगे तो आम आदमी इन में अपना पैसा रखते हुए डरेगा। वैसे ही जब मोदी सरकार ने सत्ता संभाली थी तब जून 2014 में बैंकों का एनपीए करीब अढ़ाई लाख करोड़ था जो आज बढ़कर सितंबर 2021 में 10 खरब करोड़ हो चुका है। इससे सरकार की नीतियों का पता चलता है।
इसी परिदृश्य में क्रिप्टोकरंसी को लेकर विधेयक लाया जा रहा है एक समय आर बी आई ने क्रिप्टोकरंसी पर प्रतिबंध लगाने की बात की थी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रतिबंध को यह कहकर रद्द कर दिया था कि जब इसको लेकर आपके पास कोई कानून ही नहीं है तो प्रतिबंध का अर्थ क्या है। अब वित्त मंत्री ने यह कहा है कि क्रिप्टो पर प्रतिबंध नहीं लगाकर इसको रैगुलेट किया जाएगा। और इस नियमन की जिम्मेदारी सैबी की होगी। इसी के साथ ही यह भी कहा है कि क्रिप्टो लीगल टेंडर नहीं होगा। यहीं से आशंकाएं उठनी शुरू हो जाती है क्योंकि करंसी विनिमय का माध्यम होता है। करंसी से वस्तुएं और सेवाएं खरीदी जा सकती हैं। करंसी पर सरकार का नियंत्रण और अधिकार रहता है। करंसी से आप बैंक में खाता खोल सकते हैं। बैंक इस खाते का लेजर रखता है परंतु क्रिप्टो का बैंक से कोई संबंध ही नहीं है। इसका सारा ऑपरेशन डिजिटल है जो उच्च क्षमता के कंप्यूटर से संचालित होगा । एक कोड से ऑपरेट होगा। इस समय करीब एक दर्जन क्रिप्टोकरंसी प्रचलन में हैं। लेकिन सरकार के पास कोई नियन्त्रण नहीं है। ऐसे में क्रिप्टो पर कोई भी रैगुलेशन लाने से पहले इसके बारे में जनता को जागरूक किया जाना चाहिये। क्योंकि यह एक डिजिटल कैश प्रणाली है। जो कंप्यूटर एल्गोरिदम पर बनी है। यह सिर्फ डिजीट के रूप में ही ऑनलाइन रहती है। इस पर किसी देश या सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। एक तरह से यह गुप्त रूप से पैसा रखने की विधा है। इसलिए इस संबंध में कोई भी रैगुलेशन लाने का औचित्य तब तक नहीं बनता जब तक इसे सामान्य लेन देन की प्रणाली के रूप में मान्यता नहीं दे दी जाती। इसके बिना यह काले धन और उसके विदेश में निवेश की संभावनाओं को बढ़ाने का ही माध्यम सिद्ध होगा। इसलिए आज जिन आर्थिक परिस्थितियों में देश चल रहा है उनमें बैंकों को प्राइवेट सैक्टर को सौंपने की योजना और क्रिप्टो को रैगुलेट करने के अधिनियम लाना कतई देश के हित में नहीं होगा। इससे आम आदमी भी बैंक बचाओ देश बचाओ में कूदने पर विवश हो जायेगा।