अभी जयराम सरकार ने सस्ते राशन के तहत मिलने वाली दालों चने और माश की कीमतों में दो रुपए की बढ़ोतरी की घोषणा की है। इसका सीधा असर करीब 19 लाख लोगों पर पड़ेगा। इससे पहले खाद्य तेलों की कीमतें बढ़ाई गयी थी। यह कीमतें उस समय बढ़ाई गयी हैं जब प्रदेश में उपचुनावों का चुनाव प्रचार पूरे जोरों से चल रहा है क्योंकि तीस अक्तूबर को मतदान होना है। महंगाई पहले ही चुनाव में केंद्रीय मुद्दा बन चुकी है इसके बावजूद इन कीमतों का बढ़ाया जाना यह प्रमाणित करता है कि ऐसा कुछ जरूर है जिसके ऊपर सरकार चाह कर भी नियंत्रण नहीं कर पा रही है। इन कीमतों का असर सस्ता राशन लेने वालों पर ही नही वर्ण प्रदेश की 72 लाख जनता पर पड़ेगा ही तय है। केंद्र सरकार को हर रोज पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाने पड़ रहे हैं इसलिए राज्य सरकारों को भी चीजों की कीमतें बढ़ानी पड़ेगी। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि यह कीमतें क्यों बढ़ानी पड़ रही हैं पाठकों को याद होगा कि जब मैंने ‘बैड बैंक’ क्यों बनाना पढ़ा लिखा था तब यह आशंका जताई थी कि महंगाई और बेरोजगारी पर नियंत्रण करना असंभव हो जाएगा वह आशंका सही सिद्ध हो रही है। सरकार के कुछ मंत्रियों और अन्य लोगों ने कीमतें बढ़ने को कोरोना के लिए खरीदी गयी वैक्सीन को कारण बताया है क्योंकि वैक्सीन लोगों को मुफ्त लगाई गई है। यह भी तर्क दिया गया है कि कांग्रेस शासन में भी तो महंगाई हुई थी। उत्तर प्रदेश के एक मंत्री ने तो बढ़ोतरी की तुलना प्रति व्यक्ति आय में हुई वृद्धि के साथ करते हुए यहां तक कह दिया है चीजें महंगी नहीं सस्ती हुई जब सरकार के मंत्री अर्थशास्त्र के इतने ज्ञाता हो जाएंगे तो फिर जनता को और महंगाई के लिए तैयार रहना ही होगा।
इस संद्धर्भ में यदि जयराम सरकार की कुछ कारगुजारी पर नजर डालें तो यह मानना पड़ेगा कि या तो यह सरकार कर्ज लेकर घी पीने के मार्ग पर चल निकली है जिससे पीछे मुड़ना कठिन हो गया है या फिर इस सरकार के मित्र और अफसरशाही इसे बुरी तरह गुमराह कर रहे हैं। क्योंकि अभी उपचुनाव के दौरान ही पहले खाद्य तेलों और अब दालों के दाम बढ़ाये गये है। इस उपचुनाव के दौरान नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री ने मुख्यमंत्री पर यह आरोप लगाया कि उन्हें हवा में उड़ने की आदत हो गई है वह सड़क मार्ग से यात्रा ही नहीं करते। इसीलिए अपने चुनाव क्षेत्र में छः हेलीपैड बना लिए हैं। एक पंचायत से दूसरी पंचायत में हेलीकॉप्टर से ही जाते हैं। विधायक विक्रमादित्य ने इन हेलीपैडों की संख्या चौदह बताई है। सरकार इस संख्या का खंडन नहीं कर पायी है। जिन लोगों को यह जानकारी है कि मुख्यमंत्री ने अपने सरकारी दो मंजिला आवास ओक ओवर में भी आने जाने के लिए लिफ्ट का निर्माण करवा लिया है वह हेलीपैडों की संख्या पर अविश्वास नहीं कर पायेंगे। इस सरकारी आवास में पहले के सारे मुख्यमंत्री रह चुके हैं और वह सभी आयु में इनसे बड़े थे। यह लिफ्ट और इतने हेलीपैड बनवाने पर यह सवाल उठना स्वभाविक है कि कर्ज लेकर किए गए यह निर्माण किसी भी तर्क से विकास नहीं ठहराया जा सकता। फिर कल को इन हेलीपैडां की संभाल करने के लिए पैसा कहां से आ आयेगा। क्या आगे वाले मुख्यमंत्री सिराज को इतना समय दे पायेंगे कि हर हेलीपैड पर वह हेलीकॉप्टर लेकर पहुंच जायेंगे। मुख्यमंत्री के हर बजट में ऐसी कई-कई घोषणाएं हैं जो कर्ज लेकर ही पूरी की जा सकेंगी और उनसे राजस्व में कोई आय नहीं होगी।
इस समय देश ऐसे आर्थिक संकट से गुजर रहा है की जब बैंकों का एनपीए दस ट्रिलियन करोड़ हो गया तो सरकार को इसकी रिकवरी के लिए बैड बैंक बनाना पड़ा। लेकिन इस बैड बैंक को भी अभी तक 10 प्रतिश्त सफलता नहीं मिल पाई है। इसी कारण से सरकार को बैंकों में बीस हजार करोड़ डालना पड़ा है ताकि उनकी बैलेंस शीट में सुधार आ सके। आने वाले दिनों में बैंक की रिस्क मनी में और बढ़ौतरी होने की संभावना है। यह सब कूछ नोटबंदी के फैसले के बाद के परिणाम हैं। नोटबंदी के बाद ऑटोमोबाइल और रियल स्टेट सेक्टरों को जो आर्थिक पैकेज दिये गये थे उनसे कोई सुधार नहीं हुआ। फिर 2019 के लोकसभा चुनाव जीतने के लिए प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना में बिना गारंटी के कर्ज दिये गये। फिर कोरोना काल के सारे आर्थिक पैकेजों में कर्ज लेने के लिए प्रोत्साहित किया गया। इन सारे फैसलों का परिणाम है बैड बैंक की स्थापना और अब इससे वेतन और पेंशन के प्रभावित होने की संभावना है। इस आर्थिक संकट के लिए पूर्व सरकारों को जिम्मेदार ठहराना कठिन हो जायेगा। क्योंकि इससे समर्थक और विरोधी सभी एक साथ और एक सम्मान प्रभावित होंगे।







इस लखीमपुर प्रकरण से यह प्रमाणित हो गया है कि किसान आन्दोलन को किसी भी तरह की हिंसा से दबाना संभव नही होगा। 26 जनवरी को भी इसी तरह का प्रयास हुआ था। उससे पहले जिस तरह सड़क पर कीलें गाडकर रोकने का प्रयास किया गया था वह भी सारे देश ने देखा है। जो आन्दोलन जायज मुद्दों पर आधारित होते हैं और हर छोटे-बडे़ को एक समान प्रभावित करते हैं ऐसे आन्दोलन किसी भी डर से उपर हो जाते हैं। ऐसे आन्दोलन को राजनीति से प्रेरित करार देना अपने आपको धोखा देना हो जाता है। राजनीति द्वारा प्रायोजित आन्दोलन और उनके नेतृत्व का अन्तिम परिणाम अन्ना आन्दोलन जैसा होता है। नेता आन्दोलन स्थल तक आने का साहस नही कर पाता है। अन्ना और ममता के साथ यही हुआ था। इसलिये आज सरकार और उसके हर समर्थक को यह अहसास हो गया होगा कि किसानों की मांगे मानने के अतिरिक्त और कोई विकल्प शेष नही रह गया है। क्योंकि इस सरकार के सारे आर्थिक फैसले केवल कुछ अमीर लोगों को और अमीर बनाने वाले ही प्रमाणित हुए हैं। मोदी सरकार ने मई 2014 में अच्छे दिन लाने के साथ देश की सत्ता संभाली थी। लेकिन आज यह अच्छे दिन पैट्रोल सौ रूपये और रसोई गैस एक हजार रूपये से उपर हो जाने के रूप में आये हैं। 2014 में बैंक जमा पर जो ब्याज देते थे वह आज 2021 में उससे आधा रह गया है। आज भी 19 करोड़ से ज्यादा लोग रात को भूखे सोते हैं और इस सच को पूर्व केन्द्रीय मन्त्री शान्ता कुमार ने अपनी आत्म कथा में स्वीकारा है। सरकार की आर्थिकी नीतियों ने सरकार को बैड बैंक बनाने पर मजबूर कर दिया है। किसी भी सरकार के आर्थिक प्रबन्धन पर बैड बैंक के बनने से बड़ी लानत कोई नही हो सकती है।
इस परिप्रेक्ष में यदि कृषि कानूनों पर नजर डालें तो जब यह सामने आता है कि सरकार ने कीमतों और होर्डिंग पर से अपना नियन्त्रण हटा लिया है तो और भी स्पष्ट हो जाता है कि गरीब आदमी इस सरकार के ऐजैण्डों मे कहीं नही है। जो पार्टी किसी समय स्वदेशी जागरण मंच के माध्यम से एफ डी आई का विरोध करती थी आज उसी की सरकार रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में भी एफ डी आई ला चुकी है। आज सैंकड़ों विदेशी कम्पनियां देश के आर्थिक संसाधनों पर कब्जा कर चुकी हैं। कृषि में कान्ट्रैक्ट फारमिंग लाकर इस क्षेत्र को भी मल्टीनेशनल कम्पनियों को सौंपने की तैयारी की गई है। इसलिये आज इन कृषि कानूनों का विरोध करना और सरकार को इन्हें वापिस लेने पर बाध्य करना हर आदमी का नैतिक कर्तव्य बन जाता है। आर्थिकी को प्रभावित करने वाले फैसलों को राम मन्दिर, तीन तलाक, धारा 370 हटाने के फैसलों से दबाने का प्रयास आत्मघाती होगा। बढ़ती कीमतों और बढ़ती बेरोजगारी ने आम आदमी को यह समझने के मुकाम पर ला दिया है कि सरकार की इन उपलब्धियां का कीमतों के बढ़ने से कोई संबंध नही है। इसलिये सरकार को यह कानून वापिस लेने का फैसला लेने में देरी करना किसी के भी हित में नही होगा।





दूसरी ओर अब इस कर्ज को वसूलने की सारी जिम्मेवारी बैड बैंक की हो जाती है। बैड बैंक कर्जदार की समंपत्तियां बेचे या गांरटी देने वालां से वसूली करे यह सब बैड बैंक की अपनी कार्यशैली पर निर्भर करता है। यह सब करने के बावजूद भी यदि कुछ कर्ज की वसूली न हो पाये तो इसकी भरपाई करने की गांरटी सरकार की होती है। इस तरह बैड बैंक बैड लोन की वसूली करने का एक और मंच बन जाता है। ऐसे में जो सवाल खडें होते हैं कि जब किसी सरकार को बैड बैंक बनाने की स्थिति खडी हो जाती है तो उसका अर्थ होता है कि अधिकांश बैंक फेल होने के कगार पर पहुंच गये हैं। यह बैंक अपना काम जारी रख पाने की स्थिती में नहीं रह गये हैं। इन्हें लोगों के जमा पर ब्याज घटाने और कर्ज देने की ब्याज दर बढ़ाने की अनिवार्यता हो जाती है। बल्कि नये कारोबार के लिए यह ऋण देने की स्थिती में नहीं रह गए होते हैं। ऐसी स्थिती में ही मंहगाई और बेरोजगारी लगातार बढ़ती चली जाती है। इस समय देश ऐसी ही स्थिती से गुजर रहा है। यह मंहगाई और बेरोजगारी सरकार के नियंत्रण से पूरी तरह बाहर हो जायेगी। इस स्थिति पर कैसे नियंत्रण पाया जाए इस पर विचार करने से पहले कर्ज और एन पी ए के आंकडो पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है।
वर्तमान सरकार ने 2014 में सत्ता संभाली थी। उस समय केंद्र सरकार का कर्ज 53.11 लाख करोड़ था जो आज बढ़कर 150 लाख करोड़ से उपर हो गया है। उस समय बैंकों का कुल एन पी ए 2,24,542 करोड़ था जो आज बढ़कर दस खरब करोड़ हो गया है। दिसम्बर 2017 में यह एन पी ए 7,23,513 करोड़ था। यह आंकडे आर टी आई में सामने आये है। 2018 में सरकार ने एक योजना शु़रू की थी प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना। इसमें 59 मिनट में एक करोड़ का कर्ज देने की घोषणा की गयी थी। इस योजना के तहत 2019 के मध्य तक खुले मन से बैंको ने एम एस एम ई के लिये कर्ज बांटे हैं। 2019 में ही लोकसभा के लिये चुनाव हुए जिनमें भारी बहुमत से भाजपा फिर सता में आ गयी। अब जो आर टी आई में एन पी ए की सूचना आयी है उसके मुताबिक एम एस एम ई के लिए प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना में जो कर्ज दिया गया है उसी के कारण दिसम्बर 2017 का सात लाख करोड़ का एन पी ए सितंबर 2021 में ऐसोचेम की रिपोर्ट के मुताबिक दस खरब को पहुंच गया है। प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना में बांटे गए ऋण के अधिकांश लाभार्थियों की तो पूरी जानकारी भी बैंकों के पास नहीं है। हर प्रदेश में ऐसे ऋण दिये गये हैं इनकी वसूली लगभग अंसभव हो गयी है। इसी वसूली के लिये बैड बैंक बनाना पडा है। इसके माध्यम से भी यह वसूली हो पायेगी यह असंभव है। यह भी तय है कि जब बैंक इस हालत तक पहुंच गये हैं तो इसका असर मंहगाई और बेरोजगारी पर पडेगा। अभी आम आदमी को यह जानकारी नहीं है कि सता में बने रहने के लिये ही प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना शुरू की गयी थी जो 2019 में ही बंद कर दी गयी अब इस एन पी ए से उभरने के लिए ही कर्ज को बेचने की योजना बैड बैंक के माध्यम से लायी गयी है। आर्थिकी की समझ रखने वालों की नजर में बैड बैंक की नौबत आना एक बडे़ खतरे का संकेत है और इसके प्रभावों से बाहर आ पाना आसान नही होगा।





लेकिन इसी सबमें यह समझना महत्वपूर्ण हो जाता है कि सत्तारूढ़ भाजपा और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस उस समय अपने मुख्यमन्त्री बदलने की रणनीति पर क्यों आ गये हैं। इस बदलाव का इनके संगठनो और जनता पर क्या प्रभाव पड़ेगा। इसके लिये सत्ता पक्ष से इसका आकलन शुरू करना ज्यादा प्रसांगिक होगा। क्योंक कि इस समय भाजपा इतने बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज है जहां पर उसे कोई भी विधेयक पास करवाने मे किसी भी दूसरे दल के सहयोग की आवश्यकता ही नही हैं इसीलिये बिना किसी बहस के कानून बनते जा रहे हैं और सर्वोच्च न्यायालय तक इस पर चिन्ता जता चुके हैं। 2014 से भाजपा की जीत की जो लहर चल रही थी उसे 2021 में आकर बंगाल में ब्रेक लगी है। बंगाल के चुनावों में प्रधान मन्त्री नेरन्द्र मोदी, गृह मन्त्री अमित शाह अैर राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की सक्रियता जितनी बड़ी हो गयी थी उसके परिदृश्य में इसके परिणामों की भी सीधी जिम्मेदारी इन्ही पर आ जाती हैं भले ही इस बारे योगी आदित्यनाथ के अतिरिक्त किसी ने भी परोक्ष/ अपरोक्ष में सवाल उठाने का सहास न किया हो। बंगाल का हार में पार्टी के मनोबल और मोदी पर अति आस्था दोनों को गहरा धक्का पहुचाया है यह एक स्थापित सच है। यह सर्वेक्षेणों ने ही सामने ला दिया है। कि मोदी की लोकप्रियता 66%से घटकर 24% तक आ पहुंची है। इस घटती लोकप्रियता का असर आने वाले चुनावों पर न पडे यह सबसे बड़ी चिन्ता बन चुकी है। इस घटाव का कारण अब तक लिये आर्थिक फैसले हैं। इन फैसलों पर उपजी लोकप्रियता को हिन्दु मुस्लिम के गुणा-भाग में दबा दिया जा रहा था। लेकिन किसान आन्दोलन ने इस गुणा-भाग पर जिस तरह पर्दा खींचा है उससे भीतर का नंगा सच एकदम बाहर आ गया है । किसान आन्दोलन में सारे प्रयासों के बावजूद भी हिन्दू- मुस्लिम न खड़ा हो पाना एक ऐसा सच बन गया है जिसने सारे किले को ध्वस्त करके रख दिया है। इस गिरते प्रभाव से बचने के लिये अभी से राज्यों में मुख्यमन्त्री बदलने की रणनीति पर चलने की लाईन ली गयी है। इससे 2024 तक आते-आते इस अलोकप्रियता को कितना रोका जा सकेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा।
इस समय किसान आन्दोलन हर राजनीतिक दल के लिये केन्द्रिय बिन्दु बन चुका है। सत्ता पक्ष और उससे परोक्ष- अपरोक्ष में सहानुभूति रखने वालों के लिये इस आन्दोलन को असफल करना पहला काम हैं सारे विपक्ष के लिये किसान आन्दोलन को सफल बनाना पहली प्राथमिकता है। इस आन्दोलन ने देश की 80ः जनता को आन्दोलन के मुद्दों पर सक्रिय सोच में लाकर खडा कर दिया है। क्योंकि भण्डारण और कीमतों पर से नियन्त्रण हटाना सबको समझ आता जा रहा है। किसान आन्दोलन की सबसे बड़ी जमीन पंजाव है क्योंकि यह किसान और किसानी का केन्द्र हैं । ऐसे में जब पंजाब में कांग्रेस की सरकार होते हुए वहां का मुख्यमन्त्री पंजाब के किसानों को वहां से धरने प्रदर्शन बन्द करने और अंबानी-अदाणी को सुरक्षा देने की बात करे तो क्या यह कदम एक तरह से पूरी पार्टी के खिलाफ राष्ट्रीय षडयन्त्र नही बन जाता है। कैप्टन अमरेन्द्र सिंह के किसान आन्दोलन के विरोध मे आये ब्यान सभी के संज्ञान में हैं। बल्कि यह माना जा रहा है कि कांग्रेस हाई कमान को यह कदम बहुत पहले उठा लेना चाहिये था। 2014 से लेकर आज 2012 तक यदि भाजपा शासन में कोई सबसे ज्यादा प्रताडित रहा है तो उसमें सबसे पहले नाम दलित ओर मुस्लिम समूदाय के ही रहे हें। आज कांग्रेस ने चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमन्त्री बनाकर न केवल भूल सुधार की है बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर एक सकारात्मक सन्देश भी दिया है। इस सन्देश का लाभ न केवल कांग्रेस बल्कि पूरे देश को होगा।