Wednesday, 17 December 2025
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आवश्यक वस्तु अधिनिमयम चर्चा प्रस्तावों से बाहर क्यों

भारत एक कृषि प्रधान देश है इसकी 80% जनता आज भी खेती पर निर्भर करती है। यह किसान आन्दोलन ने प्रमाणित कर दिया है। क्योंकि शायद यह आज़ाद भारत का पहला आन्दोलन है जो किसी भी राजनीतिक दल द्वारा परोक्ष या अपरोक्ष रूप से प्रायोजित नही है। इसका संचालन किसान नेता स्वयं कर रहे हैं। यह आन्दोलन किसी राजनीतिक दल द्वारा संचालित नही है। इसीलिये सरकार और भाजपा इसे कांग्रेस, वाम दलों और समूचे विपक्ष द्वारा प्रेरित करार दे रही है। किसान नेताओं को खालिस्तानी, आतंकी, पाक और चीन से वितपोषित तक करार दे दिया गया। इतने सारे आरोपों के बाद भी पूरा आन्दोलन शान्ति पूर्वक चल रहा है। इसी से प्रमाणित हो जाता है कि इसमें राजनीतिक दलों का कोई दखल नही है। सरकार और भाजपा जिस तरह से इन कानूनों को किसानों के हित में बता रही है उससे उसकी नीयत और नीति दोनों स्पष्ट हो जाते हैं कि वह इन कानूनों को वापिस लेने के लिये तैयार नही है। जनसंघ से लेकर आज भाजपा तक इसे वणियों/व्यापारियों की पार्टी कहा जाता है और व्यापारी छोटा हो या बड़ा वह लाभ की अवधारणा पर ही काम करता है यह एक स्थापित सच है। जब तक भाजपा को वर्तमान जैसा प्रचण्ड बहुमत संसद में नही मिला था तब तक उसे छोटे व्यापारी की भी आवश्यकता थी। तब इस छोटे व्यापारी को ईन्स्पैक्टरी राज से राहत दिलाने का नारा दिया जाता था। लेकिन जब 2014 के चुनावों में प्रचार के लिये अंबानी की हवाई यात्राओं का लाभ मिला तब से अंबानी-अदानी जैसे बड़े घराने इसकी प्राथमिकता बन गये जो आज पूरा देश इनके हवाले करने के लिये इस तरह से कानून बनाने तक आ गये।
यह कानून किसी के भी हक में नही है। शैल नौ जून से इस पर कटाक्ष कर लिखता आ रहा है। आज सरकार किसानों से बातचीत के लिये जिस तरह के प्रस्ताव भेज रही है। उनमें आवश्यक वस्तु अधिनियम का कोई जिक्र नही किया जा रहा है। क्योंकि इसी कानून के माध्यम से कीमतों और वस्तुओं के भण्डारण पर अंकुश लगाया जाता है। 1955 से चले आ रहे इस कानून को अब रद्द कर दिया गया है। अब अकाल महामारी और युद्ध की परिस्थिति में ही सरकार भण्डारण और कीमतों पर रोक लगा पायेगी। क्या इससे आने वाले समय में कीमतें नही बढ़ेंगी? 2014 में ही शान्ता कमेटी गठित की गयी थी जिसकी सिफारिशों का परिणाम है यह कानून। तभी से अदानी ने भण्डारण के लिये सीलो गोदाम बनाने शुरू कर दिये थे। आज करीब दस लाख मिट्रिक टन के भण्डारण की क्षमता अकेले उसी ने तैयार कर ली है। शान्ता कमेटी ने अपनी सिफारिशों में साफ कहा है कि एफसीआई की जगह अजान भण्डारण में प्राइवेट सैक्टर को लाया जाना चाहिये। जब प्राइवेट सैक्टर में एक बड़ा व्यापारी इस तरह का असिमित भण्डारण कर लेगा तो क्या उसका असर कीमतों पर नही पड़ेगा। अवश्य पड़ेगा और तब इन कथित सुधारों की असलियत सामने आयेगी। इसमें किस गणित से भाजपा आम आदमी का हित देख रही है? इसका खुलासा क्यों नही किया जा रहा है। इसे प्रस्तावित प्रस्तावों से बाहर क्यों रखा जा रहा है।
यदि इसी अकेले सवाल पर विचार किया जाये तो यह आशंका उभरना स्वभाविक है कि क्या सरकार आवश्यक वस्तु अधिनियम को चर्चा से ही बाहर रखने का वातावरण अपरोक्ष में तैयार कर रही है। क्योंकि यदि किसान को न्यूतनम समर्थन मूल्य की कानूनी गांरटी दे भी दी जाये और भण्डारण तथा कीमतों पर नियन्त्रण न किया जाये तो किसान को तो बतौर उत्पादक कोई फर्क नही पडेगा उसे तो न्यूनतम कीमत मिल जायेगी। इसमें हर उस उपभोक्ता पर असर पड़ेगा जो सीधे खेत नही जोत रहा है। इसका असर सस्ते राशन की खरीद योजना पर पड़ेगा। क्योंकि अदानी-अंबानी जैसे एम एस पी पर खरीद करके भण्डारण करने और कीमतें बढ़ाने के लिये स्वतन्त्र रह जाते हैं। अदानी-अंबानी की पहली आवश्यकता ही यही है कि उन्हे तो सारे अनाज का भण्डारण करके अपनी कीमतों पर बेचने की छूट चाहिये जो इस कानून से उन्हे मिल जाती है। इस वस्तुस्थिति को समझने और उसका आकलन करने की आवश्यकता राजनीतिक दलों को है क्योंकि किसानों और आम आदमी जो सस्ते राशन के डिपो के सहारे हैं सभी का वोट चाहिये। इसके लिये आम आदमी को यह समझने और समझाने की आवश्यकता है कि गरीब का नाम लेकर जितनी भी योजनाएं इस सरकार के कार्यकाल में शुरू हुई हैं उनमें अन्त में सबसे अधिक नुकसान इसी गरीब का हुआ है। जो उसे एक हाथ से दिया गया दूसरे हाथ से उससे उसका दो गुणा छीन लिया गया और उसे समझ भी नही आने दिया गया। नोटबंदी से लेकर आज इन कथित कृषि सुधारों तक सभी का भोक्ता वही है। नोटबंदी में उसकी सारी जमापंूजी बैंक तक पहुंचा दी। जनधन में जीरों बैलेन्स के खाते खुलवाकर न्यूनतम की शर्त लगाकर जुर्माना तक लगा दिया। हर तरह के जमा पर ब्याज घटा दिया। किसी भी योजना और फैसले का आकलन इसी बिन्दु पर पहंुचता है। आवश्यक वस्तुअधिनियम को खत्म करना इस दिशा में अन्तिम प्रहार है।

सभी के लिये घातक है यह कानून

इस समय आन्दोलन को लेकर जिस तरह की परिस्थितियां बनती जा रही है उनमें यह आवश्यक हो गया है कि हर व्यक्ति या तो आन्दोलन के विरोध में या फिर उसके पक्ष में खड़ा हो। इसमें तटस्थता के लिये शायद कोई स्थान नहीं बचा है। यह कानून केवल किसान को ही प्रभावित नहीं करते बल्कि हर आदमी पर इनका प्रभाव पड़ेगा क्योंकि रोटी हर आदमी की पहली आवश्यकता है और यह कानून अपरोक्ष में रोटी को ही प्रभावित करते हैं। किसान इस रोटी का पहला माध्यम है क्योंकि उसके खेत में अनाज पैदा होता है। इन कानूनों से यदि वह कुप्रभावित होता है तो वह अपने गुजारे लायक ही खेती करेगा और इससे अन्ततः अनाज का उत्पादन कम होता जायेगा। यदि यह कानून सही में उसके लिये लाभदायक सिद्ध होते हैं उसे उसकी ईच्छानुसार दाम मिल जाते हैं तो भी इससे उपभोक्ता प्रभावित होगा। उसे यह अनाज महंगा मिलेगा और हर चीज के दाम बढ़ेंगे। यह एक साधारण और स्थापित सच है इस वस्तुस्थिति का। क्योंकि यह स्थापित हो चुका है कि आज की सरकार हर क्षेत्र में प्राईवेट सैक्टर को लाने की पक्षधर है क्योंकि उसके आर्थिक चिन्तन का आधार भामाशाही अवधारणा है। भामाशाही चिन्तन की बुनियाद ही प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और स्वामित्व प्राईवेट सैक्टर के हवाले करना है। इस चिन्तन में समाज के अतिसंपन्न वर्ग के हितों की रक्षा करना पहली प्राथमिकता रहती है।
यदि इस सरकार के छः वर्षों के कार्यकाल में लिये गये फैसलों पर एक आम नजर भी डाली जाये तो यह प्रमाणित हो जाता है कि हर फैसले का अन्तिम लाभार्थी कोई बड़ा उद्योग घराना ही रहा है। किसानों को ही जब छः हजार किसान सम्मान दिया गया था तब किसको आभास हुआ था कि इससे बालमार्ट, अंबानी और अदानी जैसे घरानों के लिये जमीन तैयार कि जा रही है। जब सेवाओं को आऊट सोर्स करके प्रदाता कंपनी को बैठे बिठाये भारी भरकम कमीशन दिया जाने लगा था, तब किसने सोचाा था कि इससे नियमित सरकारी नौकरी के अवसर कम होते जायेंगे। जब बैंकों में जमा राशीयों पर ब्याज कम किया जा रहा था और जीरों बैलेन्स के नाम पर खोले गये खातों में न्यूनतम बैलेन्स न होने पर जुर्माना लगाने का प्रावधान किया जा रहा था तब किसे पता था कि इससे एनपीए हो चुके बड़े कर्जदारों को और निवेश उपलब्ध करवाने का रास्ता निकाला जा रहा है। इससे बैंक डूबने के कगार पर आ जायेंगे और आरबीआई इन्हें प्राईवेट सैक्टर के हवाले करने के फैसले पर अपनी सहमति जता देगा। ऐसे दर्जनों छोटे बडे फैसलें हैं जो यह प्रमाणित करते हैं कि इस सरकार की प्राथमिकता केवल प्राईवेट सैक्टर के हितों की रक्षा करना है। आज एक वर्ग अंबानी अदानी की वकालत करने पर लग गया है लेकिन इन बड़े घरानों के रिटेल में आने से 80% से भी ज्यादा छोटा बड़ा दुकानदार बेरोजगार हो जायेगा यह समझने को कौन तैयार है।
यह एक ऐसी वस्तुस्थिति बना दी गयी है जिसमें उसके निमार्ताओं को ही अहसास नहीं है कि जिसकी वह वकालत कर रहे हैं वह भी एक दिन स्वयं उसके शिकार होंगे। आज जब प्रधानमन्त्री ने किसान आन्दोलन के खिलाफ स्वयं कमान संभाल ली है तो यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार अपने कदम पीछे हटाने को तैयार नहीं है। जिस नेतृत्व को भी पीछे हटना संभव नहीं रह जाता है ऐसे में यह और भी आवश्यक हो जाता है कि आम आदमी इसमें अपनी भूमिका तय करे। सरकार का तर्क है कि उसे जनता का समर्थन हासिल है क्योंकि हर चुनाव में उसे जीत हासिल हुई है। इसमें वह ताजा उदाहरण बिहार का दे रही है। बंगाल में टीएमसी छोड़कर लोग भाजपा में आने शुरू हो गये हैं। ऐसे में 2014 से लेकर बिहार के चुनाव तक जो सवाल ईवीएम को लेकर उठते आये हैं और सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच चुके हैं उन सवालों पर भी अब फैसले की घड़ी आ गयी है। क्योंकि हर बड़े फैसले पर सार्वजनिक बहस को टालने और विपक्ष की राय को नज़रअन्दाज करने का सबसे बड़ा हथियार चुनाव परिणाम को बना लिया गया है। कल तक भाजपा एफडीआई की सबसे बड़ी विरोधी थी और आज डिफैन्स से स्पेस तक सबमें इसके दरवाजे खोल दिये गये हैं। आज किसान जो सवाल उठा रहे हैं वही सवाल अरूण जेटली, सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह और स्वयं मोदी उठा चुके हैं। भाजपा में ‘‘बांटो और शासन करो ’’ की नीति पर चल रही है। यह समझने में अकाली को ही पचास वर्ष से अधिक का समय लग गया है जबकि 1967 से अकाली-भाजपा सत्ता में भागीदारी करने आ रहे है।
इस परिदृश्य में जब किसान और सरकार में टकराव के आसार लगातार बनते जा रहे हैं तब आन्दोलन का दायरा बढ़ने की भी पूरी-पूरी संभावना बनती जा रही है। क्योंकि सरकार पर अविश्वास बढ़ने के साथ ही शीर्ष न्यायपालिका को लेकर भी स्थिति बेहतर नहीं है। वहां भी एक ही विषय पर अलग-अलग बैंच अलग-अलग फैसला दे रहे हैं। मीडिया पर गोदी मीडिया होने का आरोप लग रहा है। इस सबमें हिन्दु ऐजैण्डा के लिये काम करने का जो आरोप सरकार पर लग रहा है वह ऐजैण्डा है क्या? क्या आज के समाज में उसकी कल्पना की जा सकती है? यह ऐसे सवाल हैं जिन पर लम्बे समय तक बहस टालना संभव नहीं होगा। ऐसे में बहुत आवश्यक है कि विपक्ष में बैठे सारे राजनीतिक दलों का नेतृत्व अपने अपने पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपनी अपनी भूमिका तय करते हुए इस आन्दोलन का फलक बड़ा करते हुए सक्रिय भागीदारी निभाये। इसमें कांग्रेस की भूमिका सबसे अहम हो जाती है क्योंकि देश के हर गांव में उसका नाम लेने वाला कोई न कोई मिल जाता है।

घातक होगा किसान और सरकार में टकराव

भारत को कृषि प्रधान देश माना जाता है। क्योंकि आज भी 70% जनसंख्या खेती पर निर्भर है। प्रधानमन्त्री ने किसानों की आय को 2023 तक दोगुणी करने का नारा दिया है। इसके लिये सरकार से तीन अधिनियम कृषि उपज को लेकर पारित किये हैं। संसद में जब यह विधेयक लाये गये थे तब इन पर कोई विस्तृत चर्चा नही हुई थी यह पूरा देश जानता है। संयुक्त राष्ट्र महासंघ के अनुसार जब भी कोई देश इस आशय का कोई कानून बनाने का प्रयास करेगा तो उसे वहां के किसान संगठनों से विचार विर्मश करके ही ऐसा करना होगा। भारत संयुक्त राष्ट्र महासंघ के इन प्रस्तावों पर अपनी सहमति दे चुका है और इस नाते इन्हे मानने के लिये वचनबद्ध है। परन्तु जब यह कानून पारित किये गये थे तब न तो इन पर संसद में चर्चा हुई और न ही संसद से बाहर किसान संगठनों से कोई मन्त्रणा की गयी। संभवतः इसी कारण से कनाड़ा, आमेरीका, ब्रिटेन और संयुक्त राष्ट्र संघ तक भारत के किसानों की मांगों को अप्रत्यक्षतः अपना समर्थन जता चुके है। शायद इसी समर्थन की प्रतिक्रिया में यहां का सत्ता पक्ष इसे चीन और पाकिस्तान से प्रेरित और समर्थित बता रहा है।
इस परिदृश्य में देशभर का किसान इन कानूनों के विरोध मे आन्दोलन की राह पर है। सरकार और किसानों में सारी बातचीत विफल हो चुकी है। किसान सरकार के किसी भी आश्वासन पर विश्वास करने को तैयार नही है। सरकार इन कानूनों को किसानों के हित में बता रही है और इसके लिये एक 106 ई पन्नों का दस्तावेज भी जारी किया गया है। इस दस्तावेज का स्त्रोत मीडिया रिपोर्ट को बताया गया है इसलिये इसमें दर्ज किये गये आंकड़ों की प्रमाणिकता पर कुछ नही कहा जा सकता। इसी दस्तावेज के साथ-साथ सरकार ने पूरे देश में कृषि कानूनों पर उठती शंकाओं और सवालों का जवाब देने के लिये पत्रकार वार्ताएं आदि आयोजित करने की भी घोषणा की है। सरकार के इन प्रयासो से स्पष्ट हो जाता है कि वह इन कानूनों को वापिस लेने के लिये कतई तैयार नही है। उधर किसान भी आन्दोलन से पीछे हटने को तैयार नही है। ऐसे में इस आन्दोलन का अंत क्या होगा यह कहना आसान नही होगा। कृषि का कानून शान्ता कुमार कमेटी की सिफारिशों का प्रतिफल हैं यह पिछले अंक मे कमेटी की सिफारिशों के साथ रखा जा चुका है। इसके बाद शान्ता कुमार का एक प्रैस ब्यान भी आया हैं इस ब्यान के संद्धर्भ में इन कानूनों के कुछ पक्षो पर अलग से चर्चा की जा रही है। इसलिये यहां एक अलग बिन्दु पर चर्चा उठाई जा रही है। किसान सरकार पर विश्वास करने को तैयार नही हैं। इसलिये यह देखना और समझना आवश्यक हो जाता है कि कौन से फैसले रहे है जिनके कारण यह अविश्वास की स्थिति पैदा हुई है। 2014 में जब मोदी सरकार ने सत्ता संभाली थी तब चुनावों से पहले अन्ना आन्दोलन के माध्यम से जिस भ्रष्टाचार को उजागर किया गया था उसमें सबसे बड़ा घोटाला 1,76,000 करोड़ का टू जी स्कैम था। इसमें डा. मनमोहन सिंह के कार्याकाल में कुछ गिरफ्तारियां भी हुई थी। सरकार बदलने के बाद इसे मुकाम तक पहुंचाना मोदी सरकार का काम था। लेकिन इस सरकार के समय में अदालत में यह रखा गया कि यह घपला हुआ ही नही है। इसमें गणना करने में भूल हुई है। जिस विनोद राय ने गणना करके 1,76,000 करोड़ का आंकड़ा दिया था उससे मोदी सरकार ने एक सवाल तक नही पूछा और एक बड़ी जिम्मेदारी से उसे नवाज़ा गया। इससे पाठक स्वयं अन्दाजा लगा सकते हैं कि यह क्या था। इसी के साथ दूसरा बड़ा सवाल यह है कि 2014 में बैंकों में हर तरह के जमा पर जो ब्याज़ मिलता था आज 2020 में वह उसके आधे से भी कम हो गया है क्यों? क्या इस पर सवाल नही पूछा जाना चाहिये? क्या इससे हर आदमी प्रभावित नही हुआ है? क्या ऐसा करने का कोई चुनावी वायदा किया गया था? इस दौरान जो जीरो बैलेन्स के नाम पर बैंकों में खाते खुलवाये गये थे इनमें अब न्यूनतम बैलेन्स न रहने पर जुर्माने का प्रावधान है। डाकघरों में भी न्यूनतम बैलेन्स 500 न रहने पर सौ रूपये जुर्माने का प्रावधान कर दिया गया है। इस तरह हजारों करोड़ रूपया देश के आम गरीब आदमी का अनिवार्यतः बैंको के पास आ गया है। खाता धारक इस न्यूनतम बैलेन्स का अपने लिये कोई उपयोग नही कर सकता है यह पैसा एक बड़े औद्योगिक घराने को सहज में ही निवेश के लिये उपलब्ध हो गया। वहां से यह पैसा वापिस आ पायेगा या एनपीए हो जायेगा इसका ज्ञान उस खाताधारक को कभी नही हो सकेगा जिसका यह पैसा है। ऐसे में क्या इस नीति को आम आदमी के हित में कहा जा सकता है शायद नही। लेकिन नीति तो बना दी गयी। इस तरह आम आदमी की राहत के लिये उज्जवला जैसी जितनी भी योजनाएं बनाई गयी हैं उनका असली लाभकारी अन्त में एक बड़ा घराना ही निकलता है। जिसको योजना के नाम पर एक बड़ा और सुनिश्चित बाज़ार उपलबध हो जाता है। लेकिन ऐसी किसी भी योजना की घोषणा किसी भी चुनाव घोषणा पत्र में जो नही की गयी है।
आज बैंकिंग क्षेत्र में प्राईवेट सैक्टर के लिये दरवाज़े खोल दिये गये है। आरबीआई ने भी इसके लिये हरी झण्डी दे दी है। जबकि दूसरी ओर सहकारी क्षेत्र के कई बैंक डूब चुके हैं और बहुत सारे दूसरे बैंक डूबने के मुकाम पर पहंुच चुके हैं इसके लिये कभी भी ससंद से लेकर किसी अन्य मंच तक कोई चर्चा नही उठाई गयी है। न ही किसी चुनाव में यह घोषणा की गयी कि सरकार भविष्य में ऐसी कोई नीति लाने जा रही है। ऐसी कई नीतियां है जिन्हे बिना किसी पूर्व सूचना के लाकर जनता पर लागू कर दिया गया है और इन योजनाओं का अन्तिम लाभकारी परोक्ष/अपरोक्ष में कोई बड़ा घराना ही निकलता है। इसलिये आज इन कृषि कानूनों का भी अन्तिम लाभकारी कोई अंबानी-अदानी ही निकलेगा यह आशंका आम किसान में पक्का घर कर चुकी है। इसी कारण से किसान सरकार पर अपना विश्वास बनाने के लिये इन कानूनों को वापिस लेने के अतिरिक्त कोई विकल्प नही बचा है।

पर्यटकों को क्लीन चिट और शादी समारोहों को दोष

कोरोना के बढ़ते मामलों का संज्ञान लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय से लेकर कई प्रदेशों के उच्च न्यायालयों ने इस पर चिन्ता जताई है। सभी ने इस पर सरकारों से इस संद्धर्भ में उनकी तैयारी को लेकर रिपोर्ट तलब की है। सरकार की तैयारीयों पर सवाल भी उठाये हैं और निर्देश भी दिये हैं। इन निर्देशों में मास्क पहनने और सोशल डिस्टैन्सिंग की अनुपालना करने पर सभी ने एक बराबर जोर दिया है। इनकी अनुपालना न होने पर जुर्माना लगाने के आदेश भी दिये गये हैं। लेकिन यह सवाल कहीं नहीं उठाया गया है कि जब 24 मार्च को पूरे देश में बिना किसी पूर्व सूचना के लाकडाऊन कर दिया गया था तब उसके परिणामस्वरूप सारे अस्पतालों में तुरन्त प्रभाव से व्यवहारिक रूप से सारा ईलाज बन्द हो गया था। उस समय अस्पतालों में जो मरीज दाखिल थे उन्हें घर भेज दिया गया था। ओपीडी बन्द कर दी गयी थी। इसके कारण वह मरीज बिना ईलाज के हो गये थे। बल्कि यह कहना ज्यादा सही और व्यवहारिक होगा कि आज भी कोरोना के अतिरिक्त अन्य बिमारियों का ईलाज पूरी तरह बहाल नहीं हो पाया है। लोग अभी भी अस्पतालों में ईलाज के लिये जाने से डर रहे हैं। लोगों में यह डर कितना और किस कदर घर कर गया है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस कोरोना काल में शिमला के एक शमशान घाट में कोरोना मृतकों के हुए अन्तिम संस्कारों में से पांच दर्जन से अधिक मृतकों की अस्थियां लेने कोई परिजन वहां नहीं आया है। प्रबन्धकों के सामने यह एक समस्या खड़ी हो गयी है कि वह इन अस्थियों का विसर्जन कहां और कैसे करें।
हिन्दु संस्कारों में अस्थि विसर्जन की अपनी एक प्रक्रिया और महता है। लेकिन इससे इन संस्कारों की प्रसांगिकता पर सवाल खड़ा हो जाता है। क्योंकि कोरोना से जिन लोगों की शिमला में मृत्यु हो गयी थी, उनका अन्तिम संस्कार शिमला में ही करने के आदेश थे। ऐसे शवों को उनके पैतृक स्थानों पर नहीं ले जाया गया। इनका अन्तिम संस्कार भी प्रशासन की नामजद टीम ने किया। आधी रात को भी संस्कार कर दिये जाने की घटना यहीं पर हुई थी। इस पर जांच तक बैठी थी। यह सब इसलिये हुआ क्योंकि आम आदमी को सरकार की व्यवस्था ने इतना डरा दिया कि वह अपनों के संस्कार में शामिल होने से भी डरा और आज उनकी अस्थियां लेने का भी साहस नहीं कर पा रहा है। ऐसे में क्या यह सवाल उठना स्वभाविक नहीं है कि इस डर से आम आदमी को बाहर कौन निकालेगा और कैसे निकालेगा। जिन मरीजों का ईलाज लाकडाऊन के कारण एक दम बन्द हो गया था यदि उनमें से 25% भी गंभीर रहे हों और उनमें से किसी को भी कोरोना का संक्रमण हो गया हो तो उसकी हालत क्या हुई होगी, क्या वह जिन्दा रह पाया होगा? क्या इसके लिये किसी की जिम्मेदारी नहीं बनती है?
आज प्रदेश में कोरोना के बढ़ते मामलों पर चिन्ता व्यक्त करते हुए प्रदेश उच्च न्यायालय ने सरकार को यह निर्देश दिया था कि प्रदेश में आने वाले हर व्यक्ति का कोरोना टैस्ट करवाया जाये। ताकि इसके फैलाव को रोका जा सके। उच्च न्यायालय के इन निर्देशों पर होटल व्यवसायियों ने आपत्ति जताई और मुख्यमन्त्री ने इस चिन्ता को अधिमान देते हुए यह टैस्ट करवाने से छूट दे दी है। मुख्यमन्त्री ने कोरोना के बढ़ते फैलाव के लिये शादी आदि समारोहों के आयेाजनों को जिम्मेदार ठहराया है। क्योंकि उच्च न्यायालय ने भी आम आदमी द्वारा लापरवाही बरतने को जिम्मेदार माना है। इस तरह आम आदमी का व्यवहार मुख्यमन्त्री और उच्च न्यायालय दोनों की नज़र में दोषी है। सरकार के निर्देशों के बाद शादी आदि समारोहों का निरीक्षण करना भी प्रशासन ने शुरू कर दिया है। कुल्लु, मनाली मेें तो एक ऐसे आयोजक की गिरफ्तारी भी की गयी है। प्रशासन के इस कदम से आम आदमी में डर और कितना बढ़ेगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है। लेकिन यहां पर यह सवाल उठना भी स्वभाविक है कि सरकार ने यह कैसे मान लिया कि प्रदेश मेे आने वाले पर्यटक कोरोना के वाहक नही हो सकते। एक पर्यटक का ठहराव प्रदेश में होता ही कितना हैं शायद एक सप्ताह से ज्यादा नहीं। फिर उसके कारण किसी को संक्रमण हुआ है या वह स्वयं संक्रमित हुआ है इसकी जानकारी तो शायद एक सप्ताह के भीतर नहीं आ पाती है। यहां पर कोरोना के मामले तब बढ़ने शुरू हुए थे जब प्रदेश में बाहर से आने वालों को अनुमति दी गयी थी। तब तो शादी समारोह भी शुरू नहीं हुए थे। फिर मुख्यमन्त्री सहित आधे से ज्यादा मन्त्री संक्रमित हो चुके हैं। एक दर्जन से ज्यादा विधायक और इतने ही अधिकारी संक्रमित हो चुके हैं। पुलिस के साथ पर्यटकों की बदतमीज़ी के कई मामले मास्क आदि न पहनने को लेकर शिमला में ही घट चुके हैं। ऐसे में होटल मालिकों के दबाव में पर्यटकों को क्लीन चिट देना व्यवहारिक नहीं होगा।

एक राष्ट्र-एक चुनाव के मायने

पीठासीन अधिकारियों के 80वें सम्मेलन को संबोधित करते हुए महामहिम राष्ट्रपति ने यह चिन्ता व्यक्त की है कि संसद से लेकर राज्यों तक की विधानसभाओं में सार्थक और रचनात्मक संवाद नही हो रहा है जबकि यह विचार विमर्श ही है जो विवाद पैदा नही होने देता है। इसी अवसर पर उपराष्ट्रपति ने तो यहां तक कह दिया कि न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका सभी अपने अधिकारों का अतिक्रमण कर रहे हैं। इसी सम्मेलन को संबोधित करते हुए प्रधानमन्त्री ने फिर एक राष्ट्र-एक चुनाव की आवश्यकता पर बल देते हुए तर्क दिया है कि ज्यादा चुनाव विकास में बाधा पहुंचाते हैं। देश के तीन शीर्षस्थ व्यक्तियों ने जो चिन्ताएं व्यक्त की हैं उन्हे नकारा नही जा सकता है। यह इस समय के कड़वे सच हैं। लेकिन इसी के साथ यह सवाल भी खड़ा होता है कि क्या इन सवालों के हल की प्रक्रिया भी इन्ही तीनों के स्तर पर ही शुरू नही होनी चाहिये? यदि आज संसद से लेकर विधानसभाओं तक में सार्थक और रचनात्मक संवाद नही हो रहा है तो इसके लिये जिम्मेदार कौन है? क्या इसका दोष देश की जनता को दिया जाना चाहिये जो अपने प्रतिनिधि चुनकर भेजती है? या उस व्यवस्था को दोष दिया जाना चाहिये जिसके तहत ऐसे आपराधिक छवि के माननीयों की संख्या बहुत ज्यादा हैं। इनके मामलों को प्राथमिकता के आधार पर निपटने की कई व्यवस्थाएं शीर्ष अदालत दे चुकी है। लेकिन परिणाम क्या रहा है शायद कुछ भी नही। इस बार जब आपराधिक छवि के लोगोें पर चुनाव लड़ने से प्रतिबन्ध लगाने की एक याचिका सर्वोच्च न्यायालय में आयी तो उस पर कोई भी व्यवस्था देने से शीर्ष अदालत ने यह कह कर इन्कार कर दिया कि यह अधिकार केवल संसद के पास है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने 2014 में ही देश से वायदा किया था कि वह संसद को अपराधियों से मुक्त करायेंगे। लेकिन इस दिशा में कोई सार्थक कदम उठाने की बजाये अपनी पार्टी में ही यह नही कर पाये हैं कि भाजपा ही किसी अपराधी को संसद या विधानसभाओं में अपना उम्मीदवार न बनाती। लेकिन ऐसा किया नही गया है।
इस परिप्रेक्षय में यदि इन चिन्ताओं का आकलन किया जाये तो जो अहम सवाल उभरकर सामने आते हैं कि जब इस शीर्ष पर बैठे हुए व्यक्ति ऐसा मान रहे है लेकिन इसे बदलने के लिये कुछ कर नही पा रहे हैं तो फिर इनके बाद ऐसा कौन है जिसके कुछ करने से यह स्थितियां बदलेंगी? अपराधियों को माननीय बनने से रोकने में शीर्ष अदालत ने दखल देने से इन्कार कर दिया है। प्रधानमन्त्री वायदा करके कोई कदम उठा नही पाये हैं। तो क्या यह मान लिया जाये कि सही में अराजकता की स्थिति बन गयी है या फिर शीर्ष पर बैठे यह लोग जानबूझ कर इसे बदलने का प्रयास नही कर रहे हैं यह दोनों ही स्थितियां घातक होंगी। क्योंकि इस सबका असर आम आदमी पर पड़ रहा है उसका विश्वास सारे स्थापित संस्थानों पर से उठता जा रहा है। चुनाव आयोग की विश्वसनीयता लगातार सन्देह के दायरे में चल रही है और अब इसी कड़ी में उच्च न्यायापालिका भी आ खड़ी हुई है।
ऐसे में जब प्रधानमन्त्री फिर एक राष्ट्र-एक चुनाव की बात करते हैं तो फिर यह सवाल खड़ा होता है कि यदि सही में प्रधानमन्त्री ऐसा मानते हैं तो उन्हे ऐसा करने से रोक कौन रहा है। इस समय जो कानून लागू हंै उसके अनुसार सारी विधानसभाओं और लोक सभा के चुनाव एक साथ नही करवाये जा सकते। क्योंकि वर्तमान नियमों के तहत किसी भी विधानसभा या केन्द्र में लोकसभा का कार्यकाल पांच वर्ष से आगे नही बढ़ाया जा सकता है। इस कार्यकाल को कम करके चुनाव तय समय से पहले करवाने की सिफारिश तो की जा सकती है कार्यकाल बढ़ाने की नही। इसके लिये अलग से संसद में एक नया अधिनियम लाना होगा। लेकिन यदि सही में यह मंशा हो कि स्थिति में सुधार लाना है तो उसके लिये सर्वोच्च न्यायालय में इस समय दो याचिकाएं लंबित हैं। इनमें एक याचिका में यह आग्रह किया गया है कि आगे आने वाले सभी चुनाव ईवीएम की बजाये बैलेट पेपर से करवाये जायें। सर्वोच्च न्यायालय ने 2013 में जब ईवीएम के साथ वीवीपैट जोड़ने का आदेश किया था तभी यह मान लिया था कि ईवीएम के परिणाम पूरी तरह विश्वसनीय नही है। इसलिये आज बैलेट पेपर से चुनाव करवाने की मांग को मान लिय जाना चाहिये। इसी के साथ आपराधियों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने को शीर्ष अदालत संसद का अधिकार क्षेत्र करार दे चुकी है। प्रधानमन्त्री ने भी संसद को अपराधियों से मुक्त करवाने का वायदा देश से कर रखा है। अब इस वायदे को पूरा करने का समय आ गया है। अब जब प्रधानमन्त्री ने एक राष्ट्र एक चुनाव की बात फिर से दोहरायी है तब इसे अमली जामा पहनाने से पहले इन दो लंबित आग्रहों को कानूनों की शक्ल दे दी जानी चाहिये। यदि ऐसा हो जाता है तो इसी से बहुत सारी समस्याओं का समाधान हो जाता है। अन्यथा ऐसे सारे ब्यान चाहे वह किसी भी स्तर से आये हो केवल जनता का ध्यान भटकाने के प्रयास ही माने जायेंगे।

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