अन्य पिछड़ा वर्गो के लिये 1979 में जब तब की जनता पार्टी सरकार ने वीपी मण्डल की अध्यक्षता मे आयोगा का गठन किया था तब पूर्व जन संघ भी जनता पार्टी और उसकी सरकार में शामिल था। क्योंकि 1977 में कांग्रेस के विरोध में वाम दलों को छोड़कर अन्य लगभग सभी विपक्षी दलों ने अपने को विलय करके जनता पार्टी का गठन किया था। 1979 में जब मण्डल आयोग का गठन किया गया था तब जनता पार्टी में विलय हुए किसी भी घटक ने इसका विरोध नहीं किया था। यदि 1980 में मण्डल आयोग की रिपोर्ट आने से पहले ही जनता पार्टी की सरकार न गिर जाती तो शायद उसी दौरान मण्डल की सिफारिशें लागू हो जाती और कोई विरोध न होता। 1980 के बाद केन्द्र में गैर कांग्रेसी सरकार 1989 में वीपी सिंह की अध्यक्षता में बनी और जन संघ से बनी भाजपा भी इस सरकार में शामिल थी। इसलिये यह आशंका ही नहीं थी कि भाजपा मण्डल की सिफारिशों को विरोध करेगी। बल्कि मण्डल की सिफारिशों का प्रारूप सारी राज्य सरकारों को उनकी राय जानने के लिये भेजा गया था। शायद किसी भी राज्य सरकार ने इसका विरोध नहीं किया। कुछ ने इस पर खामोशी अपना ली भी जिनमें हिमाचल की शान्ता सरकार भी शामिल थी। इस परिदृश्य में जब यह सिफारिशें लागू की गयी तब जो विरोध हुआ उसे भाजपा का प्रायोजित विरोध माना गया जो वीपी सिंह की सरकार गिरने के साथ ही समाप्त हो गया।
इस तरह जो विरोध उस समय शुरू हुआ था वह आज तक किसी न किसी शक्ल में चलता आ रहा है। आरक्षण विरोधीयों में यह धारणा बन चुकी है कि भाजपा की सरकार ही इसे समाप्त करेगी। इसी धारणा के परिणामस्वरूप 2014 में जब से केन्द्र में भाजपा की सरकार आयी है तब से कई राज्यों में आरक्षण को लेकर आन्दोलन हो चुके हैं और यह मांग रही है कि या तो हमे भी आरक्षण दो या सबका बन्द करो। इसीके परिणामस्वरूप आज स्वर्ण आयोग गठित करने की मांग उठनी शुरू हो गयी है। जब कि भाजपा के इसी शासन में सर्वोच्च न्यायालय ने जब प्रोमोशन में आरक्षण पर रोक लगायी तब संसद में इस फैसले को पलट दिया। अब जब महाराष्ट्र सरकार के फैसले को शीर्ष अदालत ने संविधान के खिलाफ करार दिया तो इसे भी संसद में पलट कर राज्यों को अधिकार दे दिया कि वह ओबीसी की सूची अपने अनुसार तैयार कर सकते हैं। स्वभाविक है कि जब इस सूची में नये लोग जुड़ेंगे तब यह अपने लिये और आरक्षण की मांग करेंगे। तब तक रोहिणी आयोग की रिपोर्ट भी आ जायेगी और एक नया विवाद खड़ा हो जायेगा। आरक्षण जारी रहेगा और इसे कोई खत्म नही कर सकता। भाजपा ऐसा नहीं होने देगी इसकी स्पष्ट घोषणा गृहमन्त्री अमितशाह कर चुके हैं। 2014 से 2021 तक सरकार के आचरण पर यदि नजर डाली जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि भाजपा का हर कदम आरक्षण को संरक्षण देने का ही रहा है। इस परिदृश्य मे यह नहीं लगता कि भाजपा की मोदी सरकार स्वर्ण आयोग का गठन करके स्वर्णों के लिये अलग से आरक्षण की कोई व्यवस्था कर पायेगी। पिछले लेख में भी मैंने यह आशंका व्यक्त की थी। उस पर कई पाठकों ने इस समस्या का समाधान सुझाने का आग्रह किया है। इस पर कुछ कहने का प्रयास करूंगा।
स्मरणीय है कि जब इस संद्धर्भ में काका कालेलकर की अध्यक्षता में पहला आयोग 1953 में गठित हुआ था उसने 1955 में अपनी रिपोर्ट सौंपते हुए यह आग्रह किया था कि इस रिपोर्ट पर अमल न किया जाये। काका कालेलकर ने भी अपने पत्र में यह सुझाव दिया था कि इन जातियों/वर्गों को मुख्य धारा में लाने के लिये आरक्षण का नहीं वरन आर्थिक प्रोत्साहन देने का प्रयास किया जाये इसके कुछ सुझाव भी दिये थे। इसके बाद जब दूसरे आयोग की सिफारिशों को 1990 में लागू किया गया और उसका जमकर विरोध हुआ तब आरक्षण का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया। इन्दिरा साहनी मामले में इसका फैसला आया। सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण का आधार आर्थिक संपन्नता करने को कहा। इसके लिये क्रीमी लेयर तैयार करने की बात की और उस समय उसकी सीमा एक लाख रूपये रखी गयी। लेकिन आज मोदी सरकार के आने के बाद इस क्रीमी लेयर की सीमा 2015 में आठ लाख कर दी गयी है। इस पर आज तक चार बार इस सीमा में संशोधन किया गया है। इस पर अगर गंभीरता से विचार करे तो इसका अर्थ यह निकलता है कि हर वह आदमी जिसकी आय आठ लाख नहीं है वह आरक्षण का हकदार है। आज शायद प्राईवेट सैक्टर में काम/ नौकरी करने वाले 90% लोग ऐसे नहीं मिलेंगे जो एक साल में आठ लाख कमा पाते हो या पगार लेते हों। बल्कि सरकारी क्षेत्र में नौकरी करने वालो में भी शायद 80% ऐसे कर्मचारी होंगे जो 8 लाख की बचत नहीं कर पाते हैं। तब प्रति व्यक्ति आय ही अभी तक दो लाख नही हो पायी है तो आठ लाख होने मे तो और कई दशक निकल जायेंगे। जब क्रीमी लेयर की सीमा आठ लाख कर दी गयी है तब आरक्षण का प्रतिशत भी उसी अनुपात में होना चाहिये। जब क्रीमी लेयर की यह सीमा इसी सरकार ने 2015 में की है तब उस पर अमल करने में सरकार को परेशानी क्यों होनी चाहिये। क्या क्रीमी लेयर की इस सीमा का किसी ने विरोध किया है? क्या इसी में सारी जातियां अपने आप ही शामिल नहीं हो जाती। क्रीमी लेयर के मानक पर अमल करने से किसी भी जाति के लिये अलग से कोई व्यवस्था करने की आवश्यकता नहीं रह जाती है क्योंकि यह व्यवस्था तो सुप्रीम कोर्ट ने सुझायी है। आज तो स्वर्ण आयोग की मांग करने की बजाये क्रीमी लेयर पर अमल करवाने के लिये सारी जातियों को एक मंच पर आकर इसकी मांग करनी चाहिये। जब सरकार अपनी ही व्यवस्था पर अमल करने को तैयार न हो तो उससे समझ जाना खहिये की सरकार की नीयत क्या है। इस समय जब सब कुछ आऊट सोर्स किया जा रहा है तब सरकार के पास नौकरी देने के लिये बचेगा ही क्या।





रोटी, कपड़ा और मकान हर व्यक्ति की मूल आवश्यकताएं होती हैं। अब इन में शिक्षा और स्वास्थ्य भी जरूरी आवश्यकताओं में जुड़ गयी हैं। सभी नागरिकों को यह सुविधायें आसानी से और एक जैसी गुणवता की उपलब्ध हो रही हैं तथा इनको हासिल करने की क्रय शक्ति सभी की एक समान बढ़ी है यह सुनिश्चित करना सरकार का दायित्व तथा विकास का लक्ष्य होता है। यदि इन मानको पर कोई शासन व्यवस्था पूरी नही उतरती है तब उसकी नीतियों को लेकर सवाल उठने शुरू हो जाते हैं और ऐसे विकास को एक पक्षीय माना जाता है। इस सबकी परख संकट के समय में होती है। आज महामारी के संकट ने इस आकलन की ऐसी आवश्यकता और परिस्थिति लाकर खड़ी कर दी है जिसे कोई चाह कर भी नजर अन्दाज नही कर सकता है। महामारी के इस संकट काल में करोड़ो लोग ऐसे सामने आये हैं जिन्हें इन सुविधाओं की कमी आयी और न्यायपालिका को इसमें दखल देना पड़ा। कोई भी राज्य सरकार इससे अछूती नही रही है। ऐसे में जब इस तरह के समारोहों के अवसर आते हैं तब सभी संबद्ध पक्षों को जिसमें आम नागरिक से लेकर व्यवस्था के लिये उत्तरदायी चेहरों को एक सार्वजनिक संवाद स्थापित करके खुले मन से बिना किसी पूर्वाग्रह के एक चर्चा करनी चहिये थी जो हो नही सकी है।
आज प्रदेश के संद्धर्भ में इस चर्चा को लेकर कुछ सवाल उठने आवश्यक हो जाते हैं। 1948 से लेकर आज 2021 तक के सफर पर जब नजर जाती है तब पगडण्डीयों से शुरू हुई यह यात्रा जब महामार्गां तक पहुंच जाती है तो विकास का एक अहसास स्वतः ही हो जाता है। जब जिले में ही एक स्कूल होता था और आज हर पंचायत में ही दो-दो तीन-तीन विद्यालय हो गये हैं। हर पंचायत में कोई न कोई स्वास्थ्य संस्थान उपलब्ध है। हर घर में बिजली का बल्ब जलता है और हर गांव सड़क से जुड़ चुका है। विश्वविद्यालय और मैडिकल कालेज तक प्रदेश में उपलब्ध हैं। बड़ी बड़ी जल विद्युत परियोजनायें और बडे़ बड़े सीमेंट उद्योग सब कुछ प्रदेश में उपलब्ध हैं। लेकिन क्या ये सारी उपलब्धताएं उपलब्ध होने के बावजूद प्रदेश के आम नागरिक का जीवन आसान हो पाया है? क्या यह सारी उपलब्धताएं हासिल करने की समर्थता उसमें आ पायी है? बड़े उद्योग और उसमें बड़ा निवेश आने से राज्य के जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा तो बढ़ गया है पर इससे गरीबी की रेखा से भी नीचे रहने वालों का आंकड़ा समाप्त हो पाया है? क्या इससे सारे शिक्षण संस्थानों में सभी विषयों के अध्यापक उपलब्ध हो पायें हैं? क्या सारे स्वास्थ्य संस्थानों में पूरे डाक्टर और दूसरा स्टाफ उपलब्ध हो पाया है? क्या प्रदेश में ही पैदा होने वाला सीमेंट यहीं पर सबसे महंगा नही मिल रहा है? प्रदेश को बिजली राज्य का दर्जा हासिल होने के बावजूद बेरोजगारों का आंकड़ा क्यों बढ़ रहा है? ऐसे दर्जनों सवाल है जिन पर स्वर्ण जयन्ती पर चर्चा होनी चाहिये थी।
प्रदेश के इस विकास से जो कर्जभार बढ़ा है क्या उससे प्रदेश कभी बाहर आ पायेगा? प्रदेश में सारा सार्वजनिक क्षेत्र 1974 और उसक बाद स्थापित हुआ था। इसमें वित निगम जैसा संस्थान ही बन्द हो गया है। जिस सरकार का वित निगम ही बन्द हो जाये वहां के औद्योगिक विकास को कैसे आंका जाये ? प्रदेश पर 1980 तक शायद कोई कर्ज नही था ऐसा 1998 में आये श्वेत पत्र में दर्ज है। फिर चालीस वर्षों में ही यह कर्ज 70 हजार करोड़ पहुंच जाये तो क्या प्रदेश के कर्णधारों से यह सवाल नही पूछा जाना चाहिये की यह निवेश कहां हुआ है? क्योंकि यदि इसी गति से यह कर्ज बढ़ता रहा तो तो एक दिन सचिवालय का खर्च उठाना भी संभव नही रह जायेगा। इसका जबाव दूसरों के आंकड़ों की तुलना से नही वरन् अपनी क्षमता के ईमानदार आकलन से देना होगा।





इस परिदृश्य में 2014 से लेकर आज 2021 तक मोदी सरकार द्वारा लिये कुछ अहम फैसलों पर नजर दौडा़ना आवश्यक हो जाता है। सामाजिक और राजनीतिक संद्धर्भ में मुस्लिम समुदाय के माथे से तीन तलाक का कलंक मिटाना एक बड़ा फैसला रहा है और इस फैसले का स्वागत किया जाना चाहिये। राजनीतिक परिप्रेक्ष में जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाना जहां आवश्यक फैसला था वहीं पर इस प्रदेश से पूर्ण राज्य का दर्जा छीन इसे केन्द्र शासित राज्यों में बांटने से अच्छे फैसले पर स्वयं ही प्रश्नचिन्ह आमन्त्रित करना हो गया है। आयोध्या विवाद पर आये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर इसी अदालत के कुछ पूर्व जजों की आई प्रतिक्रियाओं ने ही इसे प्रश्नित कर दिया है। दूसरी ओर इसी दौरान जो आर्थिक फैसले लिये गये हैं उनमें सबसे पहले नोटबन्दी का फैसला आता है। इस फैसले से कितना कालाधन बाहर आया और आतंकवाद कितना रूका इसके कोई आंकडे आज तक सामने नहीं आये हैं। यही सामने आया है कि 99.6% पुराने नोट नये नोटों से बदले गये हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि नोटबन्दी के लिये कालेधन और आंतकवाद के तर्क आधारहीन थे। नोटबन्दी से जो कारोबार प्रभावित हुआ है वह आर्थिक पैकेज मिलने के बाद भी पूरी तरह से खड़ा नहीं हो पाया है। जीरो बैलेन्स के नाम पर जनधन में खोले गये बैंक खातों पर जब न्यनूतम बैलेन्स रखने की शर्त लगा दी गयी तब यह खाते खोलने का घोषित लाभ भी शून्य हो गया है।
इसके बाद जब कोरोना के कारण पूरे देश में लॉकडाऊन लगाया गया तब इसी काल में श्रम कानूनों में संशोधन करके श्रमिकों से हड़ताल का अधिकार छीन लिया गया। श्रम कानूनों में संशोधन के बाद इसी काल में विवादित कृषि कानून लाकर जमा खोरी और कीमतों पर नियन्त्रण हटाकर सबकुछ खुले बाजार के हवाले कर दिया गया है। इसी का परिणाम है कि डीजल-पैट्रोल से लेकर खाद्यानों तक की कीमतें बढ़ गयी हैं। इन कानूनों से कृषिक्षेत्र बुरी तरह प्रभावित होगा। इसी चिन्ता को लेकर देश का किसान आन्दोलन पर है और इन कानूनों को वापिस लेने की मांग कर रहा है। कोरोना के कारण लगाये गये लॉडाऊान से बीस करोड़ से अधिक श्रमिकों का रोज़गार खत्म हो गया है। जीडीपी शून्य से भी बहुत नीचे चला गया है। इस कोरोना काल में प्रभावित लोगों को मुफ्रत राशन देकर जिन्दा रहने का सहारा देना पड़ा है। एक ओर करोड़ों लोगों का रोज़गार छिन गया और सारे महत्वपूर्ण संसाधनों को मुद्रीकरण के नाम पर प्राईवेट सैक्टर के हवाले किया जा रहा है। राज्यों को भी मुद्रीकरण के निर्देश जारी कर दिये गये हैं जब यह सारे संसाधन पूरी तरह प्राईवेट सैक्टर के हवाले हो जायेंगे तब रोज़गार और मंहगाई की हालत क्या होगी इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है।
जहां सर्वोच्च न्यायालय भीख मांगने को भी जायज़ ठहराने को बाध्य हो जाये वहीं पर सैन्ट्रल बिस्टा और बुलेट ट्रेन जैसी योजनाएं कितने लोगों की आवश्यकताएं हो सकती है यह हर व्यक्ति को अपने विवेक से सोचना होगा। सरकार के इन आर्थिक फैसलों का देश के भविष्य पर कितना और कैसा असर होगा यह भी हरेक को अपने विवेक से सोचना होगा। क्या इन आर्थिक फैसलों को तीन तलाक, राम मन्दिर और धारा 370 हटाने के नाम पर नज़रअन्दाज किया जा सकता है? यह चुनाव इन्ही सवालों का फैसला करेंगे यह तय है।





लेकिन प्रधान न्यायधीश की इन चिन्ताओं को हलके से नहीं लिया जा सकता। फिर सर्वोच्च न्यायालय से बड़ा कोई मंच भी नही है जहां इन सवालों का कोई हल निकल सकता है। इसलिये इस संद्धर्भ में कुछ और सवाल तथा तथ्य सर्वोच्च न्यायालय के सामने रखना समय की मांग हो जाता है। तबलीगी समाज का जब यह सम्मलेन हुआ उससे पहले देश में नागरिकता कानून के विरोध में दिसम्बर 2019 से ही आन्दोल शुरू हो चुका था। 15 दिसम्बर से शाहीनबाग आन्दोलन स्थल बन चुका था। आन्दोलन का विरोध करने वाले और आन्दोलन के समर्थक एकदम आमने सामने की स्थिति में आ गये थे। इस स्थिति का अन्तिम परिणाम 23 फरवरी से 29 फरवरी तक दिल्ली दंगों के रूप में सामने आया जिसमें 53 लोगों की जान चली गयी। इसमें मरने वालों में 17 हिन्दु थे दो की पहचान नहीं हो सकी और शेष सब मरने वाले मुस्लिम थे। उस आन्दोलन में किन बड़े नेताओं ने कैसे कैसे नारे लगाये हैं यह पूरा देश जानता है। इन नेताओं के खिलाफ भड़काऊ भाषण देने के लिये कोई करवाई नहीं हुई है। यह भी सबके सामने है। दिल्ली दंगो के लिये जिन लोगों को गिरफ्रतार किया गया और जिनके खिलाफ मामले बनाये गये आज उन मामलों की सुनवाई में दिल्ली पुलिस की कितनी फजी़हत हो रही है यह भी आज देश के सामने आता जा रहा है।
इसी सारे परिदृश्य के बाद जब 24 मार्च को कोरोना से बचाव के लिये पूरे देश में लॉकडाऊन लागू कर दिया गया। इसी दौरान तबलीगी समाज का निजामुदीन मरकज में सम्मेलन हो रहा था। लॉकडाऊन के कारण यातायात के सारे साधन एकदम बन्द हो गये। इसके कारण इस सम्मलेन में आये करीब बारह सौ लोग वहीं मरकज में बंध कर रह गये। इनमें से करीब चौदह लोग कोरोना संक्रमित हो गये। इनके संक्रमित होने से इन्हें ही कोरोना का कारण मान लिया गया। यह लोग मुस्लिम थे और विदेशों से लेकर देश के हर राज्य से आये हुए थे, इसलिये जब इनकी अपने-अपने यहां को वापसी हुई तब इन्हें कोरोना का कारण मानते हुए कोरोना बंब कह कर हर मीडिया ने प्रचारित करना शुरू कर दिया। इसमें सोशल मीडिया के मंच ही नहीं वरन् प्रिन्ट और इलैक्ट्रानिक मीडिया के भी मंच शामिल हो गये। पूरे कोरोना काल में किस तरह मीडिया के माध्यम से हिन्दु -मुस्लिम को बांटा गया यह किसी से छिपा नहीं है। इसमें सभी तरह का अधिकांश मीडिया बेलगाम हो गया था यह एक कड़वा सच है।
लेकिन कडवा सच यह है कि आज सभी राजनीतिक दलों ने अपने- अपने आईटी सैल खोल रखे हैं। इनके माध्यम से अपने विरोधीयों के खिलाफ प्रचार करने के लिये दर्जनों वैबन्यूज पोर्टल इन दलों ने खोल रखे हैं। इनके माध्यम से बड़े- बड़े नेताओं और अन्य लोगों का चरित्र हनन किया जा रहा है। इन्ही के माध्यम से हिन्दु-मुस्लिम की दीवार खींची जा रही है जो पूरे देश के लिये घातक सिद्ध होती जा रही है। इसलिये सोशल मीडिया के मंचों पर नियन्त्रण रखने के लिये राजनीतिक दलों के आई टी सैलों पर भी नज़र रचाना बहुत ज़रूरी है। इस संद्धर्भ में राजनीतिक दलों और राजनेताओं के लिये एक अलग से सहिंता रहनी चाहिये। क्योंकि जिस तरह से एक धारा विशेष के लोग हिन्दु-मुस्लिम फैलाते जा रहे हैं उसके परिणाम हरेक के लिये घातक होंगे। क्योंकि योजनाबद्ध तरीके से हिन्दु और मुस्लिम हिन्दु और मुस्लिम में दरार पैदा की जा रही है। इसमें जब तक भड़काऊ भाषण देने वाले नेताओं को दण्डित नहीं किया जायेगा तब तक कोई भी मंच बेलगाम ही रहेगा।


सरकार के आश्वासन और विपक्ष के आरोप के परिप्रेक्ष में मौद्रीकरण की नीति और देश की आर्थिक स्थिति को समझना आवश्यक हो जाता है। मानेटरी पॉलिसी हर देश का केन्द्रिय बैंक लाता है। इस नाते इसकी घोषणा आरबीआई को करनी चाहिये थी परन्तु यह घोषणा वित्त मन्त्री के माध्यम से आयी है। मानेटरी पॉलिसी वह प्रक्रिया है जिसके तहत केन्द्रिय बैंक अर्थव्यवस्था में पैसे की आपूर्ति का प्रबन्ध करता है। इसके माध्यम से कीमतों और ग्रोथ में स्थिरता बनाये रखने का प्रयास किया जाता है। इसमें प्राईवेट सैक्टर का सहयोग लिया जाता है और इसका प्रभाव कर्ज के मंहगा होने तथा ब्याजदरों पर पड़ता है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक हो जाता है कि ऐसे क्या कारण हो गये कि अर्थव्यवस्था में पैसे की आपूर्ति करने के लिये सरकारी संपत्तियों का इस तरह मौद्रीकरण करने की अनिवार्यता आ खड़ी हुई है। क्या इन संपत्तियों से इस समय सरकार को आमदन नहीं हो रही थी? क्या इन संपत्तियों से छः लाख करोड़ जुटा कर अर्थव्यवस्था में डालने से यह संकट हमेशा के लिये टल जायेगा? जब प्राईवेट सैक्टर इनमें निवेश करके सरकार को भी छः लाख करोड़ देगा और अपने लिये भी निश्चित लाभ कमायेगा तो क्या इसका असर उपभोक्ता पर नहीं पड़ेगा? क्या इससे सड़क और रेल दोनों से यात्रा करना स्वभाविक रूप से ही मंहगा नहीं हो जायेगा। जब ट्रांसमिशन लाईने और विद्युत परियोजनाएं दोनो ही प्राईवेट के पास चली जायेंगी तो क्या यह सबकुछ और मंहगा नहीं होगा। क्या सरकार द्वारा इस नीति को मौद्रीकरण का नाम देने से इनकी मंहगाई का असर आम आदमी पर नहीं पड़ेगा। फिर जब चार वर्ष के लिये ही इन संपत्तियों को प्राईवेट सैक्टर को देने की बात की जा रही है तो यह सैक्टर इन्हे सुधारने के लिये इनमें निवेश ही क्यों करेगा?
मोदी सरकार ने जब 2014 में सत्ता संभाली थी उस समय मार्च 2014 में केन्द्र सरकार का कुल कर्ज 53.11 लाख करोड़ था। यह कर्ज आज बढ़कर 101.3 करोड़ हो गया है। जिस अनुपात में सरकार का कर्ज बढ़ा है क्या उसी अनुपात में राजस्व में भी बढ़ौत्तरी हुई है? शायद नहीं। फिर क्या सवाल नहीं पूछा जाना चाहिये कि यह कर्ज कहां निवेश किया गया? 2014 से 2021 तक मंहगाई और बेरोज़गारी ने सारे रिकार्ड तोड़ डाले हैं। पैट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतों का बढ़ना क्या किसी भी तर्क से जायज ठहराया जा सकता है? शायद नहीं। क्योंकि इस दौरान ऐसी कोई आपदा नहीं आयी है जिससे आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन में कोई कमी आयी हो। कोरोना को लेकर भी आज जो स्थिति सरकार के फैसलों के कारण खड़ी हुई है उसमें भी अब बिमारी से ज्यादा राजनीति की गंध आनी शुरू हो गयी है। जिस ढंग से मौद्रीकरण के नाम पर सार्वजनिक संपत्तियों को प्राईवेट हाथों में सौंपने का ताना बाना बुना गया है उसका असर बहुत जल्द मंहगाई और बेरोज़गारी की बढ़ौत्तरी के रूप में सामने आयेगा यह तय है। उस समय आम आदमी कितनी देर शांत होकर बैठा रहेगा यह कहना कठिन है क्योंकि यह कोई भी मानने को तैयार नहीं है कि कोई भी आदमी केवल चार वर्ष के लिये निवेश करके आपकी संपत्ति की दशा-दिशा सुधारकर उसे आपको वापिस कर देगा।