Wednesday, 17 December 2025
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कृषि कानूनों की वापसी से उठते सवाल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा विवादित कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा के साथ ही यह चर्चा चल उठी है कि क्या यह कानून उत्तर प्रदेश में संभावित हार के डर से वापस लिए गये हैं या इमानदारी से प्रधानमंत्री ने उसे गलत फैसला मान कर यह कदम उठाया है। यह दोनों ही बिन्दु महत्वपूर्ण है और देश की आगामी राजनीति पर इनका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। इसलिए इन दोनों ही बिन्दुओं की निष्पक्ष विवेचना करना आवश्यक हो जाता है। प्रधानमंत्राी ने यह घोषणा करते हुए देश से क्षमा याचना भी की है। लेकिन यह क्षमा याचना इसके लिए की गई है कि वह इन कानूनों का लाभ किसानों को समझाने में असफल रहे हैं। इससे यह साफ हो जाता है कि वह अभी भी यह नहीं मानते कि यह कानून लाना एक गलत फैसला था। शायद इसी कारण से एक भाजपा नेता के उस ब्यान का कोई खंडन नही किया गया जिसमें कहा गया है कि इन कानूनों को वापस लाया जायेगा। प्रधानमंत्री की कानून वापसी की घोषणा पर उन उद्योग घरानों की भी कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है जिनके दबाव में यह कानून लाने का आरोप लगाया जा रहा था। फिर 700 किसानों की मौत के बाद आये इस ऐलान में उन किसानों की शहादत पर दो शब्द भी न आना इसकी पुष्टि करता है कि इस कदम के पीछे भी कोई रणनीति अवश्य है।
अगले वर्ष के शुरू में ही पांच राज्यों के चुनाव होने जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है। केंद्र की सत्ता का रास्ता यूपी से होकर जाता है। यह एक स्थापित सत्य है। बंगाल की हार के बाद हुये कुछ राज्यों के उपचुनावों में भी भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा है। इस हार से प्रधानमंत्राी की व्यक्तिगत छवि पर असर पड़ा है। अब यह धारणा निर्मूल साबित हो चुकी है कि‘‘ मोदी है तो मुमकिन है’’। जो लोग मोदी को शिव और विष्णु का रूप मानने लग गये थे आज इस हार ने उनको नैतिकता का संकट खड़ा कर दिया है। इस परिपेक्ष में वस्तुस्थिति का आकलन करते हुये यही मानना पड़ेगा की उत्तर प्रदेश की संभावित हार के परिदृश्य में ही कृषि कानूनों की वापसी का ऐलान किया गया है। ऐसे में इस समय 2014 से लेकर अब तक लिये गये हर आर्थिक फैसले को ध्यान में रखना आवश्यक होगा। क्योंकि उन्हीं फैसलों के कारण आज बैंकों का एनपीए ढाई लाख करोड़ से 10 ट्रिलियन करोड़ तक पहुंच चुका है। इस एनपीए के कारण पेट्रोल और डीजल तथा खाद्य तेलों की कीमतें बढ़ी थी। अब जब पेट्रोल डीजल के दामों में कमी करनी पड़ी है तो जीएसटी की दर पांच प्रतिश्त से बढ़ाकर बारह प्रतिश्त कर दी गयी। यह स्पष्ट है कि सरकार एनपीए की रिकवरी करने में असमर्थ है क्योंकि इसमें सबसे अधिक योगदान प्रधानमंत्राी मुद्रा ऋण योजना में बांटे गये कर्ज का है। एनपीए का असर आने वाले दिनों में हर आदमी पर दिखेगा। चाहे वह भाजपा मोदी का समर्थक हो या विरोधीं जब इसका प्रत्यक्ष प्रभाव सामने आयेगा उस समय जनता की प्रतिक्रिया क्या होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
इस परिदृश्य में उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतना भाजपा की राजनीतिक आवश्यकता हो जाता है। महंगाई बेरोजगारी और अयोध्या में राम मंदिर के लिय हुई जमीन खरीद में सामने घपलों ने निश्चित रूप से भाजपा की राजनीतिक जमीन को बेहद कमजोर कर दिया है। इसमें कोई दो राय नहीं है। इसलिये यह चुनाव जीतने के लिए विपक्ष को कमजोर करने की रणनीति ही शायद अंतिम हथियार मोदी शाह के हाथ में बचा है। क्योंकि किसानों ने इस ऐलान के बाद भी अपना आंदोलन वापिस नही लिया है। एमएससी के प्रावधान की वैधानिक मांग उतना ही बड़ा हथियार बन गया है। अभी सीबीआई और ईडी के निदेशकों के कार्यकाल में जिस तरह से बढ़ोतरी की गयी है उससे स्पष्ट हो जाता है कि विपक्ष निशाने पर है। विपक्ष में कांग्रेस सबसे बड़ा दल है और 2014 से आज तक सरकार का मुकाबला कर रहा है। अभी तक किसी भी नेता का कुछ बिगाड़ नहीं पाया है। कांग्रेस ही हर मुद्दे पर सरकार का खुलकर विरोध करती आयी है। अब बंगाल परिणामों के बाद टीएमसी का शीर्ष नेतृत्व ईडी के निशाने पर आया है। सपा बसपा पहले से निशाने पर चल रहे हैं। इसलिये यह दल अभी तक राष्ट्रीय स्तर पर पहचान नहीं बना पाये हैं। आप और टीएमसी भी 2024 के चुनावों तक राष्ट्रीय विकल्प बनने की स्थिति में नहीं है। इस समय मोदी और भाजपा को कोई चुनौती है तो वह केवल कांग्रेस से है। इसलिए कांग्रेस को कमजोर करने के लिए भाजपा की परोक्ष/अपरोक्ष में यह रणनीति रहेगी कि वह टीएमसी आप और सपा-बसपा को ताकत दे। इसके लिए कांग्रेस की कमजोर कड़ियों को इन दलों में धकेलने का प्रयास होगा ही। इस समय जो लोग कांग्रेस छोड़कर जा रहे हैं उनके जाने को इसी परिप्रेक्ष में देखा जा रहा है।
आज जिस आर्थिक स्थिति पर देश पहुंच चुका है उसके लिए वर्तमान सरकार के फैसले ही जिम्मेदार हैं। इन फैसलों को पलटने के लिए वर्तमान सत्ता जैसी ताकत ही केंद्र में चाहिये। क्योंकि आज अगर सरकार के आर्थिक फैसलों के कारण आम आदमी कमजोर न हुआ होता तो शायद लोगों का भाजपा और मोदी से मोहभंग न होता। आर्थिक फैसलों के कुप्रभावों को हिन्दू-मुस्लिम, राम मंदिर गौरक्षा, धारा 370 और तीन तलाक के नाम पर जो दबाने के प्रयास किये गये आज वह सब कुछ खुलकर सामने आ चुका है। इस समय सैकड़ों विदेशी कंपनियों एफडीआई के नाम पर देश की आर्थिकी पर कब्जा कर चुकी है। इस सबके परिणाम आने वाले दिनों में क्या रंग दिखायेंगे यह तो आगे ही पता चलेगा। इसलिये इस समय राजनीतिक चयन दलों से ज्यादा की समझ भी कसौटी होगा।

मोदी की क्षमा याचना का अर्थ

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विवादित कृषि कानूनों को संसद के आगामी सत्र में वापस लेने की घोषणा की है। गुरू पर्व पर यह घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री ने आंदोलनरत किसानों से घर वापसी जाने का आग्रह किया है। परंतु किसानों ने इस आग्रह को अस्वीकार करते हुए इस घोषणा के अम्ल में आने तक आंदोलन वापिस ना लेने का बात की है। इसी के साथ किसानों ने एम एस पी का वैधानिक प्रावधान किए जाने की भी मांग की है। प्रधानमंत्री ने यह घोषणा करते हुए यह क्षमा याचना भी की है कि वह इन कानूनों से होने वाले लाभ को किसानों को समझाने में असफल रहे हैं। इन कानूनों को वापस लेने की घोषणा करते हुए नरेंद्र मोदी ने यह भी कहा है कि यह कानून पूरी साफ नीयत से लाये थे और इन्हें किसानों के लिए लाभकारी मानते हैं। प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य से यह सामने आता है कि वह अभी इस फैसले को सही मानते हैं और वापस लेने की घोषणा वह बहुमत का सम्मान करते हुए कर रहे हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि अब प्रधानमंत्री ने यह मान लिया है कि आंदोलन में किसानों का बहुमत भाग ले रहा था। यह सही भी है कि देश का सारा गैर एनडीए विपक्ष इस आंदोलन का समर्थन कर रहा था और इन कानूनों को वापस लेने की मांग कर रहा था। आज भी 80% लोग देश में प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष कृषि और कृषि संबंधित कार्यों पर निर्भर हैं। इन्ही का बहुमत इन कानूनों का विरोध कर रहा था।
लेकिन आज तक अपने ही मन की बात देश को सुनाने में लगे रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस आन्दोलन की आंच तब महसूस हुई जब बंगाल हारने के बाद हिमाचल और राजस्थान में उपचुनाव भी बूरी तरह हार गये। इस हार का ही परिणाम है कि अब उत्तर प्रदेश के चुनावों के लिए नड्डा और राजनाथ जैसे नेताओं को भी दो-दो जिलों का प्रभारी बनाकर फील्ड में उतारना पड़ा है। किसान आंदोलन को असफल बनाने और बदनाम करने में सरकार और उसके समर्थकों ने क्या कुछ किया है यह किसी से छुपा नहीं है। इसी का परिणाम है कि इस आंदोलन में करीब 700 किसानों ने अपने प्राण दिए हैं। गांधीवादी सिद्धांतों पर एक वर्ष में भी अधिक देर तक चले इस आंदोलन में हिंसा भड़काने का हर प्रयास असफल रहा है। बल्कि इस आंदोलन ने आपसी भाईचारे और एकता की जो मिसाल कायम की है उसके लिए आंदोलन के नेतृत्व को सदा याद रखा जाएगा।
प्रधानमंत्री ने इस समय इन कानूनों को वापस लेने की घोषणा करके अपने सारे समर्थकों को हैरान कर दिया है। क्योंकि प्रधानमंत्री को समर्थन देने के लिए जिस तरह की भाषा और तथ्यों का प्रयोग यह लोग कर रहे थे उससे इन्हें पूरा विश्वास था कि नरेंद्र मोदी आंदोलन और उसके समर्थकों को पूरी तरह कुचल कर रख देगा। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया और मोदी को क्षमा याचना करनी पड़ी है। मोदी की इस क्षमा याचना से उनके समर्थकों को भी सबक लेने की जरूरत है उन्हें अब अपने विवेक का भी प्रयोग करने का संदेश इस क्षमा याचना में छिपा है। क्योंकि जो लोग निष्पक्षता से इन कानूनों का आकलन कर रहे थे वह जानते थे कि एक दिन इन्हें वापस लेना पड़ेगा। शैल के पाठक जानते हैं कि 5 जून 2020 को अध्यादेश के माध्यम से लाये गये इन कानूनों पर 6 जून को ही हमने लिखा था कि यह सबके लिए घातक है और वापस होंगे। हमारा यह आकलन सही सिद्ध हुआ है। इसी परिप्रेक्ष में आज फिर यह कहना आवश्यक हो जाता है कि 2014 से लेकर 2021 तक जितने भी आर्थिक फैसले लिये गये हैं उन सब का परिणाम बैड बैंक की स्थापना के रूप में सामने आया है। प्रधानमंत्री और उनके समर्थकों को यह जवाब देना होगा कि जून 2014 में हमारे बैंकों का जो एनपीए करीब ढाई लाख करोड़ था वह आज 10 खराब करोड़ तक कैसे पहुंच गया है। जिस देश के बैंकों का एनपीए 10 खरब करोड़ हो जाएगा वह बैंक कितनी देर जिंदा रह पायेंगे और इसके प्रभाव से कोई भी अछूता कैसे रह पायेगा। देश की आर्थिक स्थिति कभी भी विस्फोटक होकर सामने आने वाली है यदि पूरे देश में राज्यों से लेकर केंद्र तक मोदी का शासन भी हो जाये तो भी स्थिति से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं बचा है। इस देश का सारा आर्थिक नियंत्रण विदेशी कंपनियों, वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ और एडीबी जैसी आर्थिक संस्थाओं के पास जा चुका है। इस समय इस संद्धर्भ में एक सार्वजनिक बहस की आवश्यकता है अन्यथा देश से क्षमा याचना के लिए भी समय नहीं मिलेगा।

क्या कंगना प्रयोग सफल हो पायेगा?

सिने तारिका हिमाचल की बेटी पद्मश्री कंगना रणौत ने 1947 में अंग्रेजों के तीन सौ वर्ष के शासन से मिली आजादी को भीख की संज्ञा दी है। कंगना के मुताबिक देश को सही में आजादी 2014 मे मिली है। कंगना के इस ब्यान से पूरे देश में प्रतिक्रियाएं उभरी हैं। ब्यान को स्वत़न्त्रता सेनानियों से लेकर संविधान का अपमान माना जा रहा है। पद्मश्री वापस लेने और देशद्रोह का मुकद्दमा दायर करने की मांग उठ रही है। कंगना के ब्यान पर सभी गैर भाजपा दल आक्रोषित हैं। केवल भाजपा ही इस ब्यान पर खामोश है। भाजपा की खामोशी से ही इस ब्यान के पीछे की राजनीति स्पष्ट हो जाती है। कंगना की उम्र और उसकी शैक्षणिक योग्यता को ध्यान में रखते हुए उसे क्षमा कर दिया जाना चाहिए। क्योंकि अभिनेता अभिनेत्रियां अधिकांश में दूसरों द्वारा लिखी स्क्रीप्ट पर ही अभिनय करते हैं और उसी से अवार्ड प्राप्त कर लेते हैं। ग्लैमर की दुनिया के लोगों को अपना प्रचार और पैसा चाहिए होता है और इसके लिए वह किसी की भी टयून पर डांस कर देते हैं। फिर जब से राजनेताओं को सुनने के लिए आने में जनता की रूची कम होने लगी है तब से राजनेता भीड़ जुटाने के लिए अभिनेताओं, अभिनेत्रियों और खिलाड़ियों का प्रयोग करने लगे हैं। लम्बे अरसे से यह लोग राजनीतिक दलों और मनोनयन के माध्यम से संसद में आ रहे हैं। लेकिन इनमें से कितने लोगों का संवैधानिक योगदान रहा है तो बड़ा कुछ भी रिकॉर्ड पर नहीं मिलता है। कंगना रणौत के ब्यान को भी इसी परिपेक्ष में देखना होगा। कंगना को जो पटकथा दी गयी उसने उसका पाठ कर दिया। अन्यथा जिस अभिनेत्री को झांसी की रानी के किरदार के लिए पदमश्री मिला हैं उससे आजादी को भीख करार देने का ब्यान आना अपने में ही एक अंतः विरोध हो जाता है।
ऐसे में यह समझना आवश्यक हो जाता है कि इस समय कंगना से यह ब्यान क्यों दिलाया गया। सुशांत सिंह राजपूत प्रकरण पर कंगना जिस तरह से मुखर हुई और उस मुखरता के बाद जो अदालती मामलों का सिलसिला शुरू हुआ है उससे बाहर निकलना कठिन होता जा रहा है। कंगना ने केस ट्रांसफर करने के लिए आवेदन किया था जिसे अदालत ने अस्वीकार कर दिया है। उस दौरान हिमाचल भाजपा का सारा शीर्ष नेतृत्व उसके गिर्द इक्कठा हो गया था। शिमला में उसके लिये प्रदर्शन किया गया था। मण्डी की लोकसभा सीट से कंगना के प्रत्याशी होने की संभावनाएं जताई जा रही थी। पद्मश्री मिलने पर मुख्यमंत्री ने विशेष रूप से बधाई दी है। अब उसे राज्यसभा में भेजने की चर्चाएं भी कुछ हल्कों में चल पड़ी है। यह सब प्रमाणित करता है कि कंगना को भाजपा समर्थन हासिल है। 2014 में जिस तरह से भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर भाजपा सत्ता में आयी थी उसका सच सामने आ चुका है कि एक भी मामले में कोई प्रमाण सामने नहीं आया है। भ्रष्टाचार के बाद दूसरा बड़ा मुद्दा गौ रक्षा और लव जिहाद का सत्ता में आने के बाद उठाया। इन मुद्दों से उभरा आक्रोष भीड़ हिंसा तक जा पहुंचा। इसके बाद नागरिकता कानून में संशोधन और 370 तथा तीन तलाक हटाने के मुद्दों का प्रयोग हुआ। राम मंदिर पर फैसला आया और निर्माण शुरू हुआ। लेकिन सारे मुद्दों का अंतिम परिणाम बंगाल के चुनावों में सामने आया। जहां ‘‘दो मई दीदी गई’’ के नारे की हवा निकल गयी। अब उप चुनावों के परिणामों ने भी भाजपा के सारे दावों का जमीनी सच जनता के सामने लाकर खड़ा कर दिया है।
इस समय भाजपा के सामने अगले वर्ष के शुरू में होने वाले पांच राज्यों के चुनाव हैं। इन चुनावों का कितना दबाव है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि लंबे अन्तराल के बाद भी भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में न तो कोई किसी भी तरह का प्रस्ताव तक पारित नहीं हुआ। यहां तक की उपचुनावों के परिणामों पर भी कोई चर्चा नहीं हुई। 2014 से अब तक जितने भी चुनाव हुए हैं हरेक में देश के अन्दर वैचारिक विभाजन खड़ा करने की रणनीति पर काम किया गया। जबकि 2014 से लेकर अब तक के लिए सारे आर्थिक फैसलों ने आम आदमी को लगातार कमजोर किया है। केवल वैचारिक विभाजन से सफलता मिलती रही। आज किसान आन्दोलन ने सरकार के पावों से सारी जमीन खींच ली है। ऐसे में कंगना रणौत जैसी कमजोर बैसाखियों के सहारे फिर से एक वैचारिक विभाजन की जमीन तैयार करने का प्रयास किया गया है।

क्यों हारी जयराम सरकार

जयराम सरकार प्रदेश में हुए चारों उपचुनाव हार गयी है। उपचुनाव पार्टी की नीतियों या कार्यक्रमों पर नहीं वरन् सरकार की कारगुजारीयों पर जनता की मोहर होते हैं। यह उपचुनाव सरकार के चार साल के कार्यकाल पर जनता का फैसला है जिसमें यह सामने आ गया कि जनता सरकार के कामकाज और उसकी शैली से सहमत नहीं है। शैल के पाठक जानते हैं कि हमने समय-समय पर सच जनता और सरकार के सामने रखने का पूरा प्रयास किया है। यहां तक कह दिया कि चुनाव परिणाम एक तरफा होने जा रहे हैं क्योंकि सरकार के पक्ष में कुछ नही है। यह आकलन सही सिद्ध हुआ। जब मण्डी में पिछली बार के 4 लाख से भी अधिक के अंतराल से हुई हार को पारकर कांग्रेस ने यह सीट 7490 के अन्तर से जीत ली और जुब्बल कोटखाई में भाजपा प्रत्यासी जमानत भी नहीं बचा पायी सभी बीस विधानसभा क्षेत्रों में नोटा का प्रयोग होना भी यही प्रमाणित करता है। मुख्यमंत्री ने इस हार का कारण महंगाई को बताया है लेकिन वह यह भूल गये कि इसी महंगाई के चलते हरियाणा को छोड़कर अन्य भाजपा शासित राज्यों में भाजपा ने जीत की तर्ज की है। इसलिए इस हार के कारण कुछ और हैं।
इन कारणों पर चर्चा करने के लिए 2017 के विधानसभा चुनावों के दौरान भाजपा द्वारा उस समय की कांग्रेस सरकार के खिलाफ लगाये गये कुछ आरोपों पर नजर डालना आवश्यक होगा। उस समय की सरकार पर वित्तीय कुप्रबंधन के कारण प्रदेश पर कर्ज का बढ़ना, भ्रष्टाचार, रिटायर्ड और टायर्ड लोगों द्वारा सरकार चलाया जाना तथा लोक सेवा आयोग में मीरा वालिया कि नियुक्ति को नियमों के विरूध करार देना मुख्य आरोप थे। इन आरोपों को लेकर चुनाव प्रचार के दौरान एक विशेष पर्चा जारी किया गया था। सरकार बनने के बाद पहले बजट भाषण में वीरभद्र सरकार पर अठारह हजार करोड का अतिरिक्त कर्ज लेने का आरोप लगाया गया। लेकिन प्रदेश की वितिय स्थिति पर कोई श्वेत पत्र जारी नहीं किया। बल्कि वित विभाग के सचिव तक को नहीं बदला गया। लोक सेवा आयोग में नियमों के विरूद्ध नियुक्ति होने का आरोप लगाकर उन्हीं नियमों के तहत आयोग में दो पद सृजित करके एक को भर भी लिया गया। सर्वोच्च न्यायालय और प्रदेश उच्च न्यायालय के निर्देशों के बावजूद आज तक लोक सेवा आयोग के लिए नियम नहीं बनाये गये। पूर्व सरकार पर रिटायरड और टायरड अधिकारियों द्वारा सरकार चलाने के आरोप लगाकर अपनी सरकार मे भी वही सब कुछ किया गया। आज चार वर्षों से भी कम समय में बीस हजार करोड़ से अधिक का कर्ज सरकार ले चुकी है। भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर सता में आर्यी सरकार ने पहले दो माह में भी हाइड्रो कॉलेज के निर्माण में दस करोड़ से अधिक का नुकसान प्रदेश का किया और जब यह सवाल विधानसभा तक भी पहुंच गया तब भी सरकार ने इसका कोई संज्ञान नहीं लिया। इसी तरह पिछली सरकार में जिस स्कूल वर्दी घोटाले ने पूरे प्रदेश को हिलाकर रख दिया था उसमें हुई जांच के बाद सप्लायरों को पांच करोड़ का जुर्माना वसूल कर लिया गया था। उस जुर्माने को आब्रिट्रेशन के कमजोर फैसले पर लौटा दिया गया। उसमें शिक्षा विभाग और शिक्षामंत्री के फाइल पर लिखित आग्रह के बावजूद उच्च न्यायालय में अपील नहीं की गयी।
जब सरकार के शुरु के फैसले में ही भ्रष्टाचार के खिलाफ कारवाई करने की बजाये उसे संरक्षण देने की नीयत और नीति सामने आ गयी तब सबके हौसले बुलंद हो गये। इससे बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार हो गया। एक मंत्री द्वारा अपने क्षेत्र के कुछ लोगों को नौकरियां देने के लिये लिखे सिफारशी पत्र वायरल हुए। इसके बाद तो सरकार के खिलाफ ऐसे पत्रों की एक तरह से बाढ़ ही आ गयी। ऐसे पत्रों में उठाये गये मामलों की जांच करने की बजाये यह पत्र लिखने के लिये शक के आधार पर कुछ लोगों के खिलाफ पुलिस में मामले दर्ज कर लिये गये ताकि विरोधियों की आवाज को दबाया जा सके। इस तरह के पत्रों को जनता के सामने रखने का साहस जब शैल ने दिखाया तो उसकी आवाज को दबाने के लिये सरकार ने विज्ञापन बंद करने से लेकर विजिलेन्स में फर्जी मामले तक बना दिये। इन्ही भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर स्वास्थ्य विभाग के निदेशक की गिरफ्तारी तक हुई। स्वास्थ्य मंत्री और विधानसभा अध्यक्ष तक के पदों की बदला-बदली की गयी। यही नहीं आज भ्रष्टाचार की चर्चा यहां तक पहुंच चुकी है कि एक उपसचिव स्तर के अधिकारी का परिवार तीन पैट्रोल पम्पां का मालिक हो गया है। कई सत्ता में बैठे लोगों ने चंडीगढ़, दिल्ली, लुधियाना और अमृतसर में संपत्ति खड़ी कर रखी हैं। सरकार के अधिकांश शीर्ष पदों पर ऐसे अधिकारी तैनात हैं जिन्हें नियमानुसार संदिग्ध चरित्र की श्रेणी में होना चाहिये परंतु वह सरकार चला रहे हैं। अदालत के फैसलां पर अमल न करना और इस आशय के पत्रों का जवाब तक ना देना सरकार की नीति बन चुकी है। जिस सरकार के मंत्रीमण्डल की बैठकां की लाइव जानकारी कुछ पत्रकारों तक पहुंच जाये उस सरकार के सलाहकारां के स्तर का अन्दाजा लगाया जा सकता है। ऐसे दर्जनों प्रकरण हैं जिनके कारण मुख्यमंत्री और सरकार की छवि लगातार गिरती चली गयी। सरकार को मीडिया का एक बड़ा वर्ग हरा ही हरा दिखाता रहा और सूखा सामने रखने वालों की आवाज दबाने का प्रयास लोकसंपर्क विभाग करता रहा। जो सरकार दिवार पर लिखे हुए को पढ़ने की बजाये उस पर आंखें बंद कर ले तो उसका परिणाम चार शुन्य ही होना था।

कर्ज लेकर घी पीने का परिणाम है कीमतों का बढ़ना

अभी जयराम सरकार ने सस्ते राशन के तहत मिलने वाली दालों चने और माश की कीमतों में दो रुपए की बढ़ोतरी की घोषणा की है। इसका सीधा असर करीब 19 लाख लोगों पर पड़ेगा। इससे पहले खाद्य तेलों की कीमतें बढ़ाई गयी थी। यह कीमतें उस समय बढ़ाई गयी हैं जब प्रदेश में उपचुनावों का चुनाव प्रचार पूरे जोरों से चल रहा है क्योंकि तीस अक्तूबर को मतदान होना है। महंगाई पहले ही चुनाव में केंद्रीय मुद्दा बन चुकी है इसके बावजूद इन कीमतों का बढ़ाया जाना यह प्रमाणित करता है कि ऐसा कुछ जरूर है जिसके ऊपर सरकार चाह कर भी नियंत्रण नहीं कर पा रही है। इन कीमतों का असर सस्ता राशन लेने वालों पर ही नही वर्ण प्रदेश की 72 लाख जनता पर पड़ेगा ही तय है। केंद्र सरकार को हर रोज पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाने पड़ रहे हैं इसलिए राज्य सरकारों को भी चीजों की कीमतें बढ़ानी पड़ेगी। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि यह कीमतें क्यों बढ़ानी पड़ रही हैं पाठकों को याद होगा कि जब मैंने ‘बैड बैंक’ क्यों बनाना पढ़ा लिखा था तब यह आशंका जताई थी कि महंगाई और बेरोजगारी पर नियंत्रण करना असंभव हो जाएगा वह आशंका सही सिद्ध हो रही है। सरकार के कुछ मंत्रियों और अन्य लोगों ने कीमतें बढ़ने को कोरोना के लिए खरीदी गयी वैक्सीन को कारण बताया है क्योंकि वैक्सीन लोगों को मुफ्त लगाई गई है। यह भी तर्क दिया गया है कि कांग्रेस शासन में भी तो महंगाई हुई थी। उत्तर प्रदेश के एक मंत्री ने तो बढ़ोतरी की तुलना प्रति व्यक्ति आय में हुई वृद्धि के साथ करते हुए यहां तक कह दिया है चीजें महंगी नहीं सस्ती हुई जब सरकार के मंत्री अर्थशास्त्र के इतने ज्ञाता हो जाएंगे तो फिर जनता को और महंगाई के लिए तैयार रहना ही होगा।
इस संद्धर्भ में यदि जयराम सरकार की कुछ कारगुजारी पर नजर डालें तो यह मानना पड़ेगा कि या तो यह सरकार कर्ज लेकर घी पीने के मार्ग पर चल निकली है जिससे पीछे मुड़ना कठिन हो गया है या फिर इस सरकार के मित्र और अफसरशाही इसे बुरी तरह गुमराह कर रहे हैं। क्योंकि अभी उपचुनाव के दौरान ही पहले खाद्य तेलों और अब दालों के दाम बढ़ाये गये है। इस उपचुनाव के दौरान नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री ने मुख्यमंत्री पर यह आरोप लगाया कि उन्हें हवा में उड़ने की आदत हो गई है वह सड़क मार्ग से यात्रा ही नहीं करते। इसीलिए अपने चुनाव क्षेत्र में छः हेलीपैड बना लिए हैं। एक पंचायत से दूसरी पंचायत में हेलीकॉप्टर से ही जाते हैं। विधायक विक्रमादित्य ने इन हेलीपैडों की संख्या चौदह बताई है। सरकार इस संख्या का खंडन नहीं कर पायी है। जिन लोगों को यह जानकारी है कि मुख्यमंत्री ने अपने सरकारी दो मंजिला आवास ओक ओवर में भी आने जाने के लिए लिफ्ट का निर्माण करवा लिया है वह हेलीपैडों की संख्या पर अविश्वास नहीं कर पायेंगे। इस सरकारी आवास में पहले के सारे मुख्यमंत्री रह चुके हैं और वह सभी आयु में इनसे बड़े थे। यह लिफ्ट और इतने हेलीपैड बनवाने पर यह सवाल उठना स्वभाविक है कि कर्ज लेकर किए गए यह निर्माण किसी भी तर्क से विकास नहीं ठहराया जा सकता। फिर कल को इन हेलीपैडां की संभाल करने के लिए पैसा कहां से आ आयेगा। क्या आगे वाले मुख्यमंत्री सिराज को इतना समय दे पायेंगे कि हर हेलीपैड पर वह हेलीकॉप्टर लेकर पहुंच जायेंगे। मुख्यमंत्री के हर बजट में ऐसी कई-कई घोषणाएं हैं जो कर्ज लेकर ही पूरी की जा सकेंगी और उनसे राजस्व में कोई आय नहीं होगी।
इस समय देश ऐसे आर्थिक संकट से गुजर रहा है की जब बैंकों का एनपीए दस ट्रिलियन करोड़ हो गया तो सरकार को इसकी रिकवरी के लिए बैड बैंक बनाना पड़ा। लेकिन इस बैड बैंक को भी अभी तक 10 प्रतिश्त सफलता नहीं मिल पाई है। इसी कारण से सरकार को बैंकों में बीस हजार करोड़ डालना पड़ा है ताकि उनकी बैलेंस शीट में सुधार आ सके। आने वाले दिनों में बैंक की रिस्क मनी में और बढ़ौतरी होने की संभावना है। यह सब कूछ नोटबंदी के फैसले के बाद के परिणाम हैं। नोटबंदी के बाद ऑटोमोबाइल और रियल स्टेट सेक्टरों को जो आर्थिक पैकेज दिये गये थे उनसे कोई सुधार नहीं हुआ। फिर 2019 के लोकसभा चुनाव जीतने के लिए प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना में बिना गारंटी के कर्ज दिये गये। फिर कोरोना काल के सारे आर्थिक पैकेजों में कर्ज लेने के लिए प्रोत्साहित किया गया। इन सारे फैसलों का परिणाम है बैड बैंक की स्थापना और अब इससे वेतन और पेंशन के प्रभावित होने की संभावना है। इस आर्थिक संकट के लिए पूर्व सरकारों को जिम्मेदार ठहराना कठिन हो जायेगा। क्योंकि इससे समर्थक और विरोधी सभी एक साथ और एक सम्मान प्रभावित होंगे।

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