क्या सोशल मीडिया के ट्वीटर, फेसबुक और यू टयूब जैसे मंच बेलगाम हो गये हैं? क्या वेब पोर्टलों पर कोई नियन्त्रण नहीं रह गया? क्या यह न्यूज़ पोर्टल कुछ भी न्यूज चला देते हैं और किसी के भी प्रति जवाब देह नहीं हैं? क्या ये सिर्फ बड़े प्रभावशाली लोगों की ही बात सुनते हैं? जजों और अन्य संस्थानों की भी बात नहीं सुनते हैं? यह सवाल और चिन्ताएं सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायधीश ने निजामुदीन मरकज में तबलीगी समाज के हुए एक आयोजन के प्रकरण में जमीयेत-उलेमा-ए- हिन्द की ओर से आयी याचिका की सुनवाई के दौरान उठाये हैं। इन सवालों के बाद इस संबंध में एक बहस छिड़ गयी है। कुछ वेबसाईटों पर संचालकों ने इन आरोपों को नकारते हुए साफ कहा है कि इनके लिये नियामक प्रावधान हैं और उनके तहत इनके खिलाफ शिकायत दर्ज करवायी जा सकती है। सर्वोच्च न्यायलय में इस पर सालीसीटर जनरल ने सरकार का पक्ष रखते हुए यह बताया कि नये आई टी नियमों में इसका पूरा प्रावधान है लेकिन कई उच्च न्यायालयों में इन नियमों को चुनौती दी गयी है और एक उच्च न्यायालय ने तो अन्तरिम रोक लगा रखी है। सर्वोच्च न्यायालय में इन सारी याचिकाओं को अपने पास लेकर इन पर सुनवाई करने और फैसला देने की गुहार लगाई गयी है और एक उच्च न्यायालय ने तो अन्तरिम रोक लगा रखी है। सर्वोच्च न्यायालय में इन सारी याचिकाओं को अपने पास लेकर इन पर सुनवाई करने और फैसला देने की गुहार लगाई गयी है जिसे स्वीकार कर लिया गया है तथा अगली तारीख भी तय कर दी गयी है। इसलिये इन सवालों पर अभी कोई राय बनाना सही नहीं होगा।
लेकिन प्रधान न्यायधीश की इन चिन्ताओं को हलके से नहीं लिया जा सकता। फिर सर्वोच्च न्यायालय से बड़ा कोई मंच भी नही है जहां इन सवालों का कोई हल निकल सकता है। इसलिये इस संद्धर्भ में कुछ और सवाल तथा तथ्य सर्वोच्च न्यायालय के सामने रखना समय की मांग हो जाता है। तबलीगी समाज का जब यह सम्मलेन हुआ उससे पहले देश में नागरिकता कानून के विरोध में दिसम्बर 2019 से ही आन्दोल शुरू हो चुका था। 15 दिसम्बर से शाहीनबाग आन्दोलन स्थल बन चुका था। आन्दोलन का विरोध करने वाले और आन्दोलन के समर्थक एकदम आमने सामने की स्थिति में आ गये थे। इस स्थिति का अन्तिम परिणाम 23 फरवरी से 29 फरवरी तक दिल्ली दंगों के रूप में सामने आया जिसमें 53 लोगों की जान चली गयी। इसमें मरने वालों में 17 हिन्दु थे दो की पहचान नहीं हो सकी और शेष सब मरने वाले मुस्लिम थे। उस आन्दोलन में किन बड़े नेताओं ने कैसे कैसे नारे लगाये हैं यह पूरा देश जानता है। इन नेताओं के खिलाफ भड़काऊ भाषण देने के लिये कोई करवाई नहीं हुई है। यह भी सबके सामने है। दिल्ली दंगो के लिये जिन लोगों को गिरफ्रतार किया गया और जिनके खिलाफ मामले बनाये गये आज उन मामलों की सुनवाई में दिल्ली पुलिस की कितनी फजी़हत हो रही है यह भी आज देश के सामने आता जा रहा है।
इसी सारे परिदृश्य के बाद जब 24 मार्च को कोरोना से बचाव के लिये पूरे देश में लॉकडाऊन लागू कर दिया गया। इसी दौरान तबलीगी समाज का निजामुदीन मरकज में सम्मेलन हो रहा था। लॉकडाऊन के कारण यातायात के सारे साधन एकदम बन्द हो गये। इसके कारण इस सम्मलेन में आये करीब बारह सौ लोग वहीं मरकज में बंध कर रह गये। इनमें से करीब चौदह लोग कोरोना संक्रमित हो गये। इनके संक्रमित होने से इन्हें ही कोरोना का कारण मान लिया गया। यह लोग मुस्लिम थे और विदेशों से लेकर देश के हर राज्य से आये हुए थे, इसलिये जब इनकी अपने-अपने यहां को वापसी हुई तब इन्हें कोरोना का कारण मानते हुए कोरोना बंब कह कर हर मीडिया ने प्रचारित करना शुरू कर दिया। इसमें सोशल मीडिया के मंच ही नहीं वरन् प्रिन्ट और इलैक्ट्रानिक मीडिया के भी मंच शामिल हो गये। पूरे कोरोना काल में किस तरह मीडिया के माध्यम से हिन्दु -मुस्लिम को बांटा गया यह किसी से छिपा नहीं है। इसमें सभी तरह का अधिकांश मीडिया बेलगाम हो गया था यह एक कड़वा सच है।
लेकिन कडवा सच यह है कि आज सभी राजनीतिक दलों ने अपने- अपने आईटी सैल खोल रखे हैं। इनके माध्यम से अपने विरोधीयों के खिलाफ प्रचार करने के लिये दर्जनों वैबन्यूज पोर्टल इन दलों ने खोल रखे हैं। इनके माध्यम से बड़े- बड़े नेताओं और अन्य लोगों का चरित्र हनन किया जा रहा है। इन्ही के माध्यम से हिन्दु-मुस्लिम की दीवार खींची जा रही है जो पूरे देश के लिये घातक सिद्ध होती जा रही है। इसलिये सोशल मीडिया के मंचों पर नियन्त्रण रखने के लिये राजनीतिक दलों के आई टी सैलों पर भी नज़र रचाना बहुत ज़रूरी है। इस संद्धर्भ में राजनीतिक दलों और राजनेताओं के लिये एक अलग से सहिंता रहनी चाहिये। क्योंकि जिस तरह से एक धारा विशेष के लोग हिन्दु-मुस्लिम फैलाते जा रहे हैं उसके परिणाम हरेक के लिये घातक होंगे। क्योंकि योजनाबद्ध तरीके से हिन्दु और मुस्लिम हिन्दु और मुस्लिम में दरार पैदा की जा रही है। इसमें जब तक भड़काऊ भाषण देने वाले नेताओं को दण्डित नहीं किया जायेगा तब तक कोई भी मंच बेलगाम ही रहेगा।
सरकार के आश्वासन और विपक्ष के आरोप के परिप्रेक्ष में मौद्रीकरण की नीति और देश की आर्थिक स्थिति को समझना आवश्यक हो जाता है। मानेटरी पॉलिसी हर देश का केन्द्रिय बैंक लाता है। इस नाते इसकी घोषणा आरबीआई को करनी चाहिये थी परन्तु यह घोषणा वित्त मन्त्री के माध्यम से आयी है। मानेटरी पॉलिसी वह प्रक्रिया है जिसके तहत केन्द्रिय बैंक अर्थव्यवस्था में पैसे की आपूर्ति का प्रबन्ध करता है। इसके माध्यम से कीमतों और ग्रोथ में स्थिरता बनाये रखने का प्रयास किया जाता है। इसमें प्राईवेट सैक्टर का सहयोग लिया जाता है और इसका प्रभाव कर्ज के मंहगा होने तथा ब्याजदरों पर पड़ता है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक हो जाता है कि ऐसे क्या कारण हो गये कि अर्थव्यवस्था में पैसे की आपूर्ति करने के लिये सरकारी संपत्तियों का इस तरह मौद्रीकरण करने की अनिवार्यता आ खड़ी हुई है। क्या इन संपत्तियों से इस समय सरकार को आमदन नहीं हो रही थी? क्या इन संपत्तियों से छः लाख करोड़ जुटा कर अर्थव्यवस्था में डालने से यह संकट हमेशा के लिये टल जायेगा? जब प्राईवेट सैक्टर इनमें निवेश करके सरकार को भी छः लाख करोड़ देगा और अपने लिये भी निश्चित लाभ कमायेगा तो क्या इसका असर उपभोक्ता पर नहीं पड़ेगा? क्या इससे सड़क और रेल दोनों से यात्रा करना स्वभाविक रूप से ही मंहगा नहीं हो जायेगा। जब ट्रांसमिशन लाईने और विद्युत परियोजनाएं दोनो ही प्राईवेट के पास चली जायेंगी तो क्या यह सबकुछ और मंहगा नहीं होगा। क्या सरकार द्वारा इस नीति को मौद्रीकरण का नाम देने से इनकी मंहगाई का असर आम आदमी पर नहीं पड़ेगा। फिर जब चार वर्ष के लिये ही इन संपत्तियों को प्राईवेट सैक्टर को देने की बात की जा रही है तो यह सैक्टर इन्हे सुधारने के लिये इनमें निवेश ही क्यों करेगा?
मोदी सरकार ने जब 2014 में सत्ता संभाली थी उस समय मार्च 2014 में केन्द्र सरकार का कुल कर्ज 53.11 लाख करोड़ था। यह कर्ज आज बढ़कर 101.3 करोड़ हो गया है। जिस अनुपात में सरकार का कर्ज बढ़ा है क्या उसी अनुपात में राजस्व में भी बढ़ौत्तरी हुई है? शायद नहीं। फिर क्या सवाल नहीं पूछा जाना चाहिये कि यह कर्ज कहां निवेश किया गया? 2014 से 2021 तक मंहगाई और बेरोज़गारी ने सारे रिकार्ड तोड़ डाले हैं। पैट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतों का बढ़ना क्या किसी भी तर्क से जायज ठहराया जा सकता है? शायद नहीं। क्योंकि इस दौरान ऐसी कोई आपदा नहीं आयी है जिससे आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन में कोई कमी आयी हो। कोरोना को लेकर भी आज जो स्थिति सरकार के फैसलों के कारण खड़ी हुई है उसमें भी अब बिमारी से ज्यादा राजनीति की गंध आनी शुरू हो गयी है। जिस ढंग से मौद्रीकरण के नाम पर सार्वजनिक संपत्तियों को प्राईवेट हाथों में सौंपने का ताना बाना बुना गया है उसका असर बहुत जल्द मंहगाई और बेरोज़गारी की बढ़ौत्तरी के रूप में सामने आयेगा यह तय है। उस समय आम आदमी कितनी देर शांत होकर बैठा रहेगा यह कहना कठिन है क्योंकि यह कोई भी मानने को तैयार नहीं है कि कोई भी आदमी केवल चार वर्ष के लिये निवेश करके आपकी संपत्ति की दशा-दिशा सुधारकर उसे आपको वापिस कर देगा।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि बहुत सारी स्वर्ण जातियां अपने लिये भी आरक्षण की मांग करती आ रही है। 2014 के बाद से यह मांग ज्यादा मुखर और नियोजित होकर उठी है। हर मांग में यह कहा गया कि या तो हमें भी आरक्षण दो या सबका आरक्षण खत्म करो। आर.एस.एस. प्रमुख डा.मोहन भागवत बड़े खुले शब्दों में यह कह चुके हैं कि आरक्षण पर नये सिरे से विचार होना चाहिये। स्वभाविक है कि जिन परिवारों के बच्चे मण्डल विरोध में आत्मदाह का प्रयास कर चुके हैं और जो इसमें अपने प्राण गंवा चुके हैं वह कभी नहीं चाहेंगे कि आरक्षण कायम रहे। यह उम्मीद इन लोगों को भाजपा से ही है क्योंकि उस समय मण्डल के विरोध में उभरे कमण्डल आन्दोलन को इसी भाजपा का प्रायोजित कहा गया था। इस पृष्ठभूमि में यदि इस पूरे विषय पर निष्पक्षता से विचार करें तो आज तो स्थिति 127वें संविधान संशोधन तक पहुंच गयी है। इस संबंध में उल्लेखनीय है कि समाज के पिछड़े वर्गों की चिन्ता और उन पर चिन्तन का काम तो 1906 से ही शुरू हो गया था जब जातियों की सूची तैयार की गयी थी। आज़ादी के बाद सरकार के सामने यह चिन्ता और चिन्तन सबसे पहला कार्य था। इसीलिये 29 जनवरी 1953 को काका कालेलकर की अध्यक्षता में पहला आयोग गठित किया गया और शैक्षणिक और सामाजिक तौर पर पिछड़ों की पहचान की गयी। इस पहचान के लिये 22 मानक तय किये गये। जिस जाति वर्ग के कुल अंक 11 से बढ़ गये उसे ही इसमें शामिल किया गया। इस आयोग ने 2399 ऐसी कुल जातियों की पहचान की और उसमें से 837 को अति पिछड़े का दर्जा दिया। आयोग ने मार्च 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। लेकिन अपने ही आवरण पत्र में इन सिफारिशों को लागू न करने की बात की। तर्क था कि इससे प्रशासन का काम प्रभावित होगा। यह सुझाव दिया कि इनको मुख्यधारा में लाने के लिये आर्थिक सुधारों और कृषि सुधारों पर जोर देना होगा।
काका कालेलकर आयोग के बाद जनवरी 1979 में इसी आश्य का दूसरा आयोग बिहार के पूर्व मुख्यमन्त्री पी.वी.मण्डल की अध्यक्षता में गठित किया गया। इसकी रिपोर्ट 31 दिसम्बर 1980 को आयी तब मोरारजी देसाई सरकार गिर कर इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बन चुकी थी। इस सरकार में इस रिपोर्ट पर कोई कारवाई नही हुई। इसके 1989 में केन्द्र में वी.पी.सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी। इस सरकार ने मण्डल की सिफारिशों को सरकार की आहूति देकर लागू किया। लेकिन तभी से आरक्षण का विरोध भी चलता आ रहा है जो आज स्वर्ण आयोग की मांग तक पहुंच चुका है। मण्डल की सिफारिशों को 1992 में सर्वाेच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी। लेकिन सर्वाेच्च न्यायालय ने मण्डल की सिफारिशों को तर्क संगत माना। इन्दिरा सहानी फैसला एक मील का पत्थर बन गया क्योंकि इस फैसले में सर्वाेच्च न्यायालय ने क्रीमी लेयर का मानक जोड़ दिया। यह कहा कि जो लोग क्रीमी लेयर में आ जायें उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। 1993 में क्रीमी लेयर में आय का मानक एक लाख रखा गया। जिसे 2004 में बढ़ाकर अढ़ाई लाख 2008 में साढ़े चार लाख और अब 2015 में आठ लाख कर दिया गया है। इसी दौरान जब सर्वाेच्च न्यायालय ने पदोन्नतियों मेें आरक्षण का लाभ न दिया जाने का फैसला दिया और इसका विरोध हुआ तब इस फैसले को मोदी सरकार ने संसद में पलट दिया। अब संविधान में संशोधन करके राज्यों को ओबीसी सूचियां बनाने का अधिकार दे दिया है। इस अधिकार के तहत जब इन सूचियों का आकार बढ़ेगा तब क्या और आरक्षण की मांग नही आयेगी। इस मांग को पूरा करने के लिये आरक्षण का प्रतिशत और बढ़ाना पड़ेगा। यह एक स्वभाविक परिणाम होगा अभी 2017 में जो रोहिणी आयोग गठित किया गया है उसकी रिपोर्ट आनी है। उसमें पिछड़े वर्गाे को भी तीन भागों में बांटा जा रहा हैं पिछड़ा, अति पिछड़ा और सर्वाधिक पिछड़ा। इन्हें इसी 27% में समायोजित किया जायेगा और 7%, 11% और 9% में बांटा जायेगा। इसलिये अभी यह देखना रोचक होगा कि इस 127वें संविधान संशोधन और फिर रोहिणी आयोग की सिफारिशों और स्वर्ण आयोग की मांग में तालमेल कैसे बैठेगा।
प्रदेश उच्च न्यायालय ने इन दिनों भी प्रदेश के विभिन्न स्थानों पर हो रहे अतिक्रमणों का कड़ा संज्ञान लिया है। चम्बा के एक व्यक्ति की याचिका पर उच्च न्यायालय ने प्रदेश भर में हुए अतिक्रमणों का ब्यौरा प्रशासन ने तलब किया है। उच्च न्यायालय इससे पूर्व भी ऐसे मामलों पर अपनी नाराज़गी जता चुका है। अवैध निर्माणों के बिजली, पानी के कनैक्शन काटने के आदेश दिये गये थे। उस समय प्रदेश भर में 35000 से भी अधिक ऐसे निर्माण सामने आये थे जिनमें नक्शे पास करवाना तो दूर बल्कि नक्शे संवद्ध प्रशासन को सौंपे ही नहीं गये थे। प्रदेश में अवैध निर्माणों और वनभूमि पर अवैध कब्जों के मामले अदालत से लेकर एनजीटी तक के संज्ञान में लगातार रहे हैं और इन पर कड़ी कारवाई करने के प्रशासन को निर्देश भी जारी हुए हैं लेकिन परिणाम यह रहा है कि सरकारें इन अवैधताओं को नियमित करने के लिये रिटैन्शन पॉलिसीयां लाती रहीं। जब अदालत ने इसका संज्ञान लिया तो प्लानिंग एक्ट में ही संशोधन कर दिया गया। जब यह संशोधन राज्यपाल के पास पहुंचा और उन्होंने इसे रोक लिया तब भाजपा का एक प्रतिनिधि मण्डल राज्यपाल से मिला तथा संशोधन को स्वीकार करने का आग्रह किया। इस आग्रह के बाद यह संशोधन पारित होकर अधिसिचत हो गया। फिर उच्च न्यायालय में इसके खिलाफ याचिकाएं आयी और अदालत ने संशोधन को निःरस्त कर दिया। उच्च न्यायालय ने अपने इस फैसले में सरकार के दायित्वों को लेकर जो टिप्पणीयां की हैं उनसे हमारे माननीयों और प्रशासनिक तन्त्रा की कार्य प्रणाली पर जो स्वाल खड़े हुये हैं वह काफी चौकाने वाले हैं। लेकिन अन्त में यह सब एक रिकार्ड बनकर ही रह गया है। इस पर कोई अमल नहीं हुआ है। बल्कि जयराम सरकार ने इसी तरह का संशोधन सदन से पारित करवा लिया है।
अब तक की सारी सरकारें इस हमाम में बराबर की नंगी रही हैं। हद तो यह है कि प्रदेश सरकार के प्रशासन द्वारा ही तैयार की गयी रिपोर्ट पर एनजीटी का चर्चित फैसला आधारित है लेकिन वही प्रशासन अपनी ही रिपोर्ट पर अमल नहीं कर पाया है। जब कोई सरकार अवैधताओं और अतिक्रमणों को बोझ से इतनी दब जाये कि वह किसी भी अदालत तथा अपनी ही रिपोर्ट पर अमल करने से बचने के उपाय खोजने लग जाये तो ऐसी आपदाओं में जान और माल की हानि होने से कोई नहीं बचा सकता।