इस समय संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा है। इस सबसे पहले ही दिन तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का विधेयक पारित हो गया है। जब यह विधेयक लाया गया था तब भी इस पर संसद में कोई बहस नहीं हो पायी थी और अब वापसी के समय भी ऐसा ही हुआ है। इसी सत्र में क्रिप्टोकरंसी और बैंकिंग अधिनियम में संशोधन को लेकर भी विधेयक लाये जा रहे हैं। इन पर सदन में चर्चा हो पानी है या नहीं। इन्हें सिलेक्ट कमेटीयों को विस्तृत चर्चा के लिए भेजा जाना है या नहीं या सीधे पारित करवा लिया जाता है यह तो आने वाले दिनों में ही पता चलेगा। लेकिन यह ऐसे विधेयक हैं जिनका हर आदमी पर असर पड़ेगा। इसलिए इस संदर्भ में कुछ सवाल सार्वजनिक चर्चा के लिए उठाना आवश्यक हो जाता है। इन पर सवाल उठाने से पहले यह याद रखना होगा कि 2016 की नोट बंदी के बाद आज देश के बैंकों का एनपीए बढ़कर 10 खरब करोड़ हो चुका है और इसकी रिकवरी के लिए सरकार को बैड बैंक बनाना पड़ा है। यह ध्यान में रखना होगा की जब देश के बैंकों का एनपीए 10 खरब करोड़ हो चुका है तो वहां बैंकों की व्यवहारिक स्थिति क्या रह गयी होगी। यहां यह भी ध्यान में रखना होगा की नोटबदी से लेकर कोरोना की तालाबंदी तक सरकार के जो भी आर्थिक पैकेज आये हैं उनमें सबसे ज्यादा प्रोत्साहन कर्ज लेने को लेकर दिया गया है। इसी दौरान 59 मिनट में एक करोड़ का कर्ज लेने की प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना भी आयी और शायद इसी सबका परिणाम है यह 10 ट्रिलियन करोड़़ का एनपीए।
इस पृष्ठभूमि में आ रहे इन विधेयकों को लाने की आवश्यकता क्यों अनुभव हुई और इससे किसको क्या लाभ मिलेगा यह विचारणीय सवाल हैं। बैंकिंग अधिनियम में प्रस्तावित संशोधन पर बैंक कर्मचारी संगठनों ने तो ‘‘बैंक बचाओ देश बचाओ’’ के बैनर तले 1 दिन का प्रदर्शन करके यह कहा है कि इस संशोधन से सरकारी बैंकों को प्राइवेट सैक्टर को देने की योजना है। इससे बैंकिंग सेवाएं महंगी हो जाएंगी। यह भी जानकारी दी है कि अब तक 500 बैंक दिवालिया हो चुके हैं। जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था तब भी यही सबसे बड़ा कारण था कि उस समय भी कई बैंक डूब चुके थे। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के कारण ही आज तक देश के बैंक सुरक्षित चल रहे थे और जनता का विश्वास इन पर बना हुआ था। अब जब यह बैंक प्राइवेट सैक्टर के पास चले जाएंगे तो आम आदमी इन में अपना पैसा रखते हुए डरेगा। वैसे ही जब मोदी सरकार ने सत्ता संभाली थी तब जून 2014 में बैंकों का एनपीए करीब अढ़ाई लाख करोड़ था जो आज बढ़कर सितंबर 2021 में 10 खरब करोड़ हो चुका है। इससे सरकार की नीतियों का पता चलता है।
इसी परिदृश्य में क्रिप्टोकरंसी को लेकर विधेयक लाया जा रहा है एक समय आर बी आई ने क्रिप्टोकरंसी पर प्रतिबंध लगाने की बात की थी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रतिबंध को यह कहकर रद्द कर दिया था कि जब इसको लेकर आपके पास कोई कानून ही नहीं है तो प्रतिबंध का अर्थ क्या है। अब वित्त मंत्री ने यह कहा है कि क्रिप्टो पर प्रतिबंध नहीं लगाकर इसको रैगुलेट किया जाएगा। और इस नियमन की जिम्मेदारी सैबी की होगी। इसी के साथ ही यह भी कहा है कि क्रिप्टो लीगल टेंडर नहीं होगा। यहीं से आशंकाएं उठनी शुरू हो जाती है क्योंकि करंसी विनिमय का माध्यम होता है। करंसी से वस्तुएं और सेवाएं खरीदी जा सकती हैं। करंसी पर सरकार का नियंत्रण और अधिकार रहता है। करंसी से आप बैंक में खाता खोल सकते हैं। बैंक इस खाते का लेजर रखता है परंतु क्रिप्टो का बैंक से कोई संबंध ही नहीं है। इसका सारा ऑपरेशन डिजिटल है जो उच्च क्षमता के कंप्यूटर से संचालित होगा । एक कोड से ऑपरेट होगा। इस समय करीब एक दर्जन क्रिप्टोकरंसी प्रचलन में हैं। लेकिन सरकार के पास कोई नियन्त्रण नहीं है। ऐसे में क्रिप्टो पर कोई भी रैगुलेशन लाने से पहले इसके बारे में जनता को जागरूक किया जाना चाहिये। क्योंकि यह एक डिजिटल कैश प्रणाली है। जो कंप्यूटर एल्गोरिदम पर बनी है। यह सिर्फ डिजीट के रूप में ही ऑनलाइन रहती है। इस पर किसी देश या सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। एक तरह से यह गुप्त रूप से पैसा रखने की विधा है। इसलिए इस संबंध में कोई भी रैगुलेशन लाने का औचित्य तब तक नहीं बनता जब तक इसे सामान्य लेन देन की प्रणाली के रूप में मान्यता नहीं दे दी जाती। इसके बिना यह काले धन और उसके विदेश में निवेश की संभावनाओं को बढ़ाने का ही माध्यम सिद्ध होगा। इसलिए आज जिन आर्थिक परिस्थितियों में देश चल रहा है उनमें बैंकों को प्राइवेट सैक्टर को सौंपने की योजना और क्रिप्टो को रैगुलेट करने के अधिनियम लाना कतई देश के हित में नहीं होगा। इससे आम आदमी भी बैंक बचाओ देश बचाओ में कूदने पर विवश हो जायेगा।






अगले वर्ष के शुरू में ही पांच राज्यों के चुनाव होने जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है। केंद्र की सत्ता का रास्ता यूपी से होकर जाता है। यह एक स्थापित सत्य है। बंगाल की हार के बाद हुये कुछ राज्यों के उपचुनावों में भी भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा है। इस हार से प्रधानमंत्राी की व्यक्तिगत छवि पर असर पड़ा है। अब यह धारणा निर्मूल साबित हो चुकी है कि‘‘ मोदी है तो मुमकिन है’’। जो लोग मोदी को शिव और विष्णु का रूप मानने लग गये थे आज इस हार ने उनको नैतिकता का संकट खड़ा कर दिया है। इस परिपेक्ष में वस्तुस्थिति का आकलन करते हुये यही मानना पड़ेगा की उत्तर प्रदेश की संभावित हार के परिदृश्य में ही कृषि कानूनों की वापसी का ऐलान किया गया है। ऐसे में इस समय 2014 से लेकर अब तक लिये गये हर आर्थिक फैसले को ध्यान में रखना आवश्यक होगा। क्योंकि उन्हीं फैसलों के कारण आज बैंकों का एनपीए ढाई लाख करोड़ से 10 ट्रिलियन करोड़ तक पहुंच चुका है। इस एनपीए के कारण पेट्रोल और डीजल तथा खाद्य तेलों की कीमतें बढ़ी थी। अब जब पेट्रोल डीजल के दामों में कमी करनी पड़ी है तो जीएसटी की दर पांच प्रतिश्त से बढ़ाकर बारह प्रतिश्त कर दी गयी। यह स्पष्ट है कि सरकार एनपीए की रिकवरी करने में असमर्थ है क्योंकि इसमें सबसे अधिक योगदान प्रधानमंत्राी मुद्रा ऋण योजना में बांटे गये कर्ज का है। एनपीए का असर आने वाले दिनों में हर आदमी पर दिखेगा। चाहे वह भाजपा मोदी का समर्थक हो या विरोधीं जब इसका प्रत्यक्ष प्रभाव सामने आयेगा उस समय जनता की प्रतिक्रिया क्या होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
इस परिदृश्य में उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतना भाजपा की राजनीतिक आवश्यकता हो जाता है। महंगाई बेरोजगारी और अयोध्या में राम मंदिर के लिय हुई जमीन खरीद में सामने घपलों ने निश्चित रूप से भाजपा की राजनीतिक जमीन को बेहद कमजोर कर दिया है। इसमें कोई दो राय नहीं है। इसलिये यह चुनाव जीतने के लिए विपक्ष को कमजोर करने की रणनीति ही शायद अंतिम हथियार मोदी शाह के हाथ में बचा है। क्योंकि किसानों ने इस ऐलान के बाद भी अपना आंदोलन वापिस नही लिया है। एमएससी के प्रावधान की वैधानिक मांग उतना ही बड़ा हथियार बन गया है। अभी सीबीआई और ईडी के निदेशकों के कार्यकाल में जिस तरह से बढ़ोतरी की गयी है उससे स्पष्ट हो जाता है कि विपक्ष निशाने पर है। विपक्ष में कांग्रेस सबसे बड़ा दल है और 2014 से आज तक सरकार का मुकाबला कर रहा है। अभी तक किसी भी नेता का कुछ बिगाड़ नहीं पाया है। कांग्रेस ही हर मुद्दे पर सरकार का खुलकर विरोध करती आयी है। अब बंगाल परिणामों के बाद टीएमसी का शीर्ष नेतृत्व ईडी के निशाने पर आया है। सपा बसपा पहले से निशाने पर चल रहे हैं। इसलिये यह दल अभी तक राष्ट्रीय स्तर पर पहचान नहीं बना पाये हैं। आप और टीएमसी भी 2024 के चुनावों तक राष्ट्रीय विकल्प बनने की स्थिति में नहीं है। इस समय मोदी और भाजपा को कोई चुनौती है तो वह केवल कांग्रेस से है। इसलिए कांग्रेस को कमजोर करने के लिए भाजपा की परोक्ष/अपरोक्ष में यह रणनीति रहेगी कि वह टीएमसी आप और सपा-बसपा को ताकत दे। इसके लिए कांग्रेस की कमजोर कड़ियों को इन दलों में धकेलने का प्रयास होगा ही। इस समय जो लोग कांग्रेस छोड़कर जा रहे हैं उनके जाने को इसी परिप्रेक्ष में देखा जा रहा है।
आज जिस आर्थिक स्थिति पर देश पहुंच चुका है उसके लिए वर्तमान सरकार के फैसले ही जिम्मेदार हैं। इन फैसलों को पलटने के लिए वर्तमान सत्ता जैसी ताकत ही केंद्र में चाहिये। क्योंकि आज अगर सरकार के आर्थिक फैसलों के कारण आम आदमी कमजोर न हुआ होता तो शायद लोगों का भाजपा और मोदी से मोहभंग न होता। आर्थिक फैसलों के कुप्रभावों को हिन्दू-मुस्लिम, राम मंदिर गौरक्षा, धारा 370 और तीन तलाक के नाम पर जो दबाने के प्रयास किये गये आज वह सब कुछ खुलकर सामने आ चुका है। इस समय सैकड़ों विदेशी कंपनियों एफडीआई के नाम पर देश की आर्थिकी पर कब्जा कर चुकी है। इस सबके परिणाम आने वाले दिनों में क्या रंग दिखायेंगे यह तो आगे ही पता चलेगा। इसलिये इस समय राजनीतिक चयन दलों से ज्यादा की समझ भी कसौटी होगा।






लेकिन आज तक अपने ही मन की बात देश को सुनाने में लगे रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस आन्दोलन की आंच तब महसूस हुई जब बंगाल हारने के बाद हिमाचल और राजस्थान में उपचुनाव भी बूरी तरह हार गये। इस हार का ही परिणाम है कि अब उत्तर प्रदेश के चुनावों के लिए नड्डा और राजनाथ जैसे नेताओं को भी दो-दो जिलों का प्रभारी बनाकर फील्ड में उतारना पड़ा है। किसान आंदोलन को असफल बनाने और बदनाम करने में सरकार और उसके समर्थकों ने क्या कुछ किया है यह किसी से छुपा नहीं है। इसी का परिणाम है कि इस आंदोलन में करीब 700 किसानों ने अपने प्राण दिए हैं। गांधीवादी सिद्धांतों पर एक वर्ष में भी अधिक देर तक चले इस आंदोलन में हिंसा भड़काने का हर प्रयास असफल रहा है। बल्कि इस आंदोलन ने आपसी भाईचारे और एकता की जो मिसाल कायम की है उसके लिए आंदोलन के नेतृत्व को सदा याद रखा जाएगा।
प्रधानमंत्री ने इस समय इन कानूनों को वापस लेने की घोषणा करके अपने सारे समर्थकों को हैरान कर दिया है। क्योंकि प्रधानमंत्री को समर्थन देने के लिए जिस तरह की भाषा और तथ्यों का प्रयोग यह लोग कर रहे थे उससे इन्हें पूरा विश्वास था कि नरेंद्र मोदी आंदोलन और उसके समर्थकों को पूरी तरह कुचल कर रख देगा। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया और मोदी को क्षमा याचना करनी पड़ी है। मोदी की इस क्षमा याचना से उनके समर्थकों को भी सबक लेने की जरूरत है उन्हें अब अपने विवेक का भी प्रयोग करने का संदेश इस क्षमा याचना में छिपा है। क्योंकि जो लोग निष्पक्षता से इन कानूनों का आकलन कर रहे थे वह जानते थे कि एक दिन इन्हें वापस लेना पड़ेगा। शैल के पाठक जानते हैं कि 5 जून 2020 को अध्यादेश के माध्यम से लाये गये इन कानूनों पर 6 जून को ही हमने लिखा था कि यह सबके लिए घातक है और वापस होंगे। हमारा यह आकलन सही सिद्ध हुआ है। इसी परिप्रेक्ष में आज फिर यह कहना आवश्यक हो जाता है कि 2014 से लेकर 2021 तक जितने भी आर्थिक फैसले लिये गये हैं उन सब का परिणाम बैड बैंक की स्थापना के रूप में सामने आया है। प्रधानमंत्री और उनके समर्थकों को यह जवाब देना होगा कि जून 2014 में हमारे बैंकों का जो एनपीए करीब ढाई लाख करोड़ था वह आज 10 खराब करोड़ तक कैसे पहुंच गया है। जिस देश के बैंकों का एनपीए 10 खरब करोड़ हो जाएगा वह बैंक कितनी देर जिंदा रह पायेंगे और इसके प्रभाव से कोई भी अछूता कैसे रह पायेगा। देश की आर्थिक स्थिति कभी भी विस्फोटक होकर सामने आने वाली है यदि पूरे देश में राज्यों से लेकर केंद्र तक मोदी का शासन भी हो जाये तो भी स्थिति से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं बचा है। इस देश का सारा आर्थिक नियंत्रण विदेशी कंपनियों, वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ और एडीबी जैसी आर्थिक संस्थाओं के पास जा चुका है। इस समय इस संद्धर्भ में एक सार्वजनिक बहस की आवश्यकता है अन्यथा देश से क्षमा याचना के लिए भी समय नहीं मिलेगा।






ऐसे में यह समझना आवश्यक हो जाता है कि इस समय कंगना से यह ब्यान क्यों दिलाया गया। सुशांत सिंह राजपूत प्रकरण पर कंगना जिस तरह से मुखर हुई और उस मुखरता के बाद जो अदालती मामलों का सिलसिला शुरू हुआ है उससे बाहर निकलना कठिन होता जा रहा है। कंगना ने केस ट्रांसफर करने के लिए आवेदन किया था जिसे अदालत ने अस्वीकार कर दिया है। उस दौरान हिमाचल भाजपा का सारा शीर्ष नेतृत्व उसके गिर्द इक्कठा हो गया था। शिमला में उसके लिये प्रदर्शन किया गया था। मण्डी की लोकसभा सीट से कंगना के प्रत्याशी होने की संभावनाएं जताई जा रही थी। पद्मश्री मिलने पर मुख्यमंत्री ने विशेष रूप से बधाई दी है। अब उसे राज्यसभा में भेजने की चर्चाएं भी कुछ हल्कों में चल पड़ी है। यह सब प्रमाणित करता है कि कंगना को भाजपा समर्थन हासिल है। 2014 में जिस तरह से भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर भाजपा सत्ता में आयी थी उसका सच सामने आ चुका है कि एक भी मामले में कोई प्रमाण सामने नहीं आया है। भ्रष्टाचार के बाद दूसरा बड़ा मुद्दा गौ रक्षा और लव जिहाद का सत्ता में आने के बाद उठाया। इन मुद्दों से उभरा आक्रोष भीड़ हिंसा तक जा पहुंचा। इसके बाद नागरिकता कानून में संशोधन और 370 तथा तीन तलाक हटाने के मुद्दों का प्रयोग हुआ। राम मंदिर पर फैसला आया और निर्माण शुरू हुआ। लेकिन सारे मुद्दों का अंतिम परिणाम बंगाल के चुनावों में सामने आया। जहां ‘‘दो मई दीदी गई’’ के नारे की हवा निकल गयी। अब उप चुनावों के परिणामों ने भी भाजपा के सारे दावों का जमीनी सच जनता के सामने लाकर खड़ा कर दिया है।
इस समय भाजपा के सामने अगले वर्ष के शुरू में होने वाले पांच राज्यों के चुनाव हैं। इन चुनावों का कितना दबाव है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि लंबे अन्तराल के बाद भी भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में न तो कोई किसी भी तरह का प्रस्ताव तक पारित नहीं हुआ। यहां तक की उपचुनावों के परिणामों पर भी कोई चर्चा नहीं हुई। 2014 से अब तक जितने भी चुनाव हुए हैं हरेक में देश के अन्दर वैचारिक विभाजन खड़ा करने की रणनीति पर काम किया गया। जबकि 2014 से लेकर अब तक के लिए सारे आर्थिक फैसलों ने आम आदमी को लगातार कमजोर किया है। केवल वैचारिक विभाजन से सफलता मिलती रही। आज किसान आन्दोलन ने सरकार के पावों से सारी जमीन खींच ली है। ऐसे में कंगना रणौत जैसी कमजोर बैसाखियों के सहारे फिर से एक वैचारिक विभाजन की जमीन तैयार करने का प्रयास किया गया है।






इन कारणों पर चर्चा करने के लिए 2017 के विधानसभा चुनावों के दौरान भाजपा द्वारा उस समय की कांग्रेस सरकार के खिलाफ लगाये गये कुछ आरोपों पर नजर डालना आवश्यक होगा। उस समय की सरकार पर वित्तीय कुप्रबंधन के कारण प्रदेश पर कर्ज का बढ़ना, भ्रष्टाचार, रिटायर्ड और टायर्ड लोगों द्वारा सरकार चलाया जाना तथा लोक सेवा आयोग में मीरा वालिया कि नियुक्ति को नियमों के विरूध करार देना मुख्य आरोप थे। इन आरोपों को लेकर चुनाव प्रचार के दौरान एक विशेष पर्चा जारी किया गया था। सरकार बनने के बाद पहले बजट भाषण में वीरभद्र सरकार पर अठारह हजार करोड का अतिरिक्त कर्ज लेने का आरोप लगाया गया। लेकिन प्रदेश की वितिय स्थिति पर कोई श्वेत पत्र जारी नहीं किया। बल्कि वित विभाग के सचिव तक को नहीं बदला गया। लोक सेवा आयोग में नियमों के विरूद्ध नियुक्ति होने का आरोप लगाकर उन्हीं नियमों के तहत आयोग में दो पद सृजित करके एक को भर भी लिया गया। सर्वोच्च न्यायालय और प्रदेश उच्च न्यायालय के निर्देशों के बावजूद आज तक लोक सेवा आयोग के लिए नियम नहीं बनाये गये। पूर्व सरकार पर रिटायरड और टायरड अधिकारियों द्वारा सरकार चलाने के आरोप लगाकर अपनी सरकार मे भी वही सब कुछ किया गया। आज चार वर्षों से भी कम समय में बीस हजार करोड़ से अधिक का कर्ज सरकार ले चुकी है। भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर सता में आर्यी सरकार ने पहले दो माह में भी हाइड्रो कॉलेज के निर्माण में दस करोड़ से अधिक का नुकसान प्रदेश का किया और जब यह सवाल विधानसभा तक भी पहुंच गया तब भी सरकार ने इसका कोई संज्ञान नहीं लिया। इसी तरह पिछली सरकार में जिस स्कूल वर्दी घोटाले ने पूरे प्रदेश को हिलाकर रख दिया था उसमें हुई जांच के बाद सप्लायरों को पांच करोड़ का जुर्माना वसूल कर लिया गया था। उस जुर्माने को आब्रिट्रेशन के कमजोर फैसले पर लौटा दिया गया। उसमें शिक्षा विभाग और शिक्षामंत्री के फाइल पर लिखित आग्रह के बावजूद उच्च न्यायालय में अपील नहीं की गयी।
जब सरकार के शुरु के फैसले में ही भ्रष्टाचार के खिलाफ कारवाई करने की बजाये उसे संरक्षण देने की नीयत और नीति सामने आ गयी तब सबके हौसले बुलंद हो गये। इससे बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार हो गया। एक मंत्री द्वारा अपने क्षेत्र के कुछ लोगों को नौकरियां देने के लिये लिखे सिफारशी पत्र वायरल हुए। इसके बाद तो सरकार के खिलाफ ऐसे पत्रों की एक तरह से बाढ़ ही आ गयी। ऐसे पत्रों में उठाये गये मामलों की जांच करने की बजाये यह पत्र लिखने के लिये शक के आधार पर कुछ लोगों के खिलाफ पुलिस में मामले दर्ज कर लिये गये ताकि विरोधियों की आवाज को दबाया जा सके। इस तरह के पत्रों को जनता के सामने रखने का साहस जब शैल ने दिखाया तो उसकी आवाज को दबाने के लिये सरकार ने विज्ञापन बंद करने से लेकर विजिलेन्स में फर्जी मामले तक बना दिये। इन्ही भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर स्वास्थ्य विभाग के निदेशक की गिरफ्तारी तक हुई। स्वास्थ्य मंत्री और विधानसभा अध्यक्ष तक के पदों की बदला-बदली की गयी। यही नहीं आज भ्रष्टाचार की चर्चा यहां तक पहुंच चुकी है कि एक उपसचिव स्तर के अधिकारी का परिवार तीन पैट्रोल पम्पां का मालिक हो गया है। कई सत्ता में बैठे लोगों ने चंडीगढ़, दिल्ली, लुधियाना और अमृतसर में संपत्ति खड़ी कर रखी हैं। सरकार के अधिकांश शीर्ष पदों पर ऐसे अधिकारी तैनात हैं जिन्हें नियमानुसार संदिग्ध चरित्र की श्रेणी में होना चाहिये परंतु वह सरकार चला रहे हैं। अदालत के फैसलां पर अमल न करना और इस आशय के पत्रों का जवाब तक ना देना सरकार की नीति बन चुकी है। जिस सरकार के मंत्रीमण्डल की बैठकां की लाइव जानकारी कुछ पत्रकारों तक पहुंच जाये उस सरकार के सलाहकारां के स्तर का अन्दाजा लगाया जा सकता है। ऐसे दर्जनों प्रकरण हैं जिनके कारण मुख्यमंत्री और सरकार की छवि लगातार गिरती चली गयी। सरकार को मीडिया का एक बड़ा वर्ग हरा ही हरा दिखाता रहा और सूखा सामने रखने वालों की आवाज दबाने का प्रयास लोकसंपर्क विभाग करता रहा। जो सरकार दिवार पर लिखे हुए को पढ़ने की बजाये उस पर आंखें बंद कर ले तो उसका परिणाम चार शुन्य ही होना था।