Wednesday, 17 December 2025
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बैंक फ्राड के माध्यम से लूट कब तक

बैंकों में फ्राड के माध्यम से आम आदमी के पैसे की लूट कब तक जारी रहेगी? जो प्रधानमंत्री यह कहते थे ‘‘ना खाऊंगा न खाने दूंगा’’ वह इस लूट पर चुप क्यों है? क्या प्रधानमंत्री ने चौकीदार की भूमिका छोड़ दी है या इस पर अपनी मौन सहमति दे रखी है? इस तरह के कई सवाल गुजरात स्थित एबीजी शिपयार्ड कंपनी द्वारा 22842 करोड़ का बैंक फ्राड सामने आने के बाद उठ खड़े हुये हैं। क्योंकि इस कंपनी ने यह फ्राड 2012 से 2017 के बीच में किया है। 2012 में नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और आज देश के प्रधानमंत्री हैं। फिर यह फ्राड पहला फ्राड नहीं है बल्कि पहले पिछले 7 वर्षों में करीब 6 लाख करोड़ के बैंक फ्राड हो चुके हैं और अभी तक एक भी गुनाहगार पकड़ा नहीं गया है। इस फ्राड के सामने आने के साथ ही इस दौरान बैंकों के 25.24 लाख करोड़ के एनपीए में से 7 लाख करोड़ का राइट ऑफ किया जाना भी चर्चा में आ गया है। करीब 13 लाख करोड़ का धन बैंक फ्राड और एनपीए के राइट ऑफ किये जाने से नष्ट हो गया है। जबकि इस वित्तीय वर्ष 2022-23 में सरकार की कुल आय ही 23 लाख करोड़ होने का अनुमान है। इस आय में भी 65 हजार करोड़ सरकारी संपत्तियों के विनिवेश से जुटाया जायेगा। ऐसे में जिस भी व्यक्ति को सरकार के वित्तीय प्रबंधन की यह जानकारियां रहेंगी उनके लिये यह सारे मुद्दों से बड़ा सवाल होगा। क्योंकि इसके कारण महंगाई और बेरोजगारी बढ़ेगी जिसका सब पर असर पड़ेगा।
आज यदि 2014 की तुलना में महंगाई और बेरोजगारी का आकलन किया जाये तो इसमें 100 प्रतिशत से भी ज्यादा की बढ़ौतरी हुई है और इसी अनुपात में देश की 80 प्रतिशत से अधिक की जनता के आय के साधन नहीं बढ़े हैं। बल्कि इस दौरान बैंकों में जमा आम आदमी के जमा पर ब्याज दर कम हुई है। यही नहीं जीरो बैलेंस के नाम पर खोले गये बैंक खातों में न्यूनतम बैलेंस 1000 और डाकघरों में 500 रखने की शर्त लागू है। इस न्यूनतम पर खाता धारक को कुछ नहीं मिल रहा है। जबकि बैंकों को इससे कमाई हो रही है। इस संदर्भ में यह कहना ज्यादा सही होगा कि सरकार इन लुटेरों की लूट की भरपाई आम आदमी की जेब पर अपरोक्ष में डाका डाल कर रही है। इस लूट और डाके पर हिंदू-मुस्लिम मंदिर-मस्जिद हिजाब और धारा 370 तथा तीन तलाक के मुद्दे खड़े करके बहस को लंबित किया जा रहा है। लेकिन यह तय है कि देर सवेर महंगाई और बेरोजगारी जब बर्दाश्त से बाहर हो जायेंगी तब जो रोष का सैलाब आयेगा वह सब कुछ अपने साथ बहाकर ले जायेगा। क्योंकि जब बैंकों का एनपीए सरकार की राजस्व आय से बढ़ जाता है तो उस बैंकिंग व्यवस्था को डूबने से कोई नहीं बचा सकता। यह सरकार इस लूट के लाभार्थियों पर हाथ डालने की स्थिति में नहीं है। सरकार ने क्रिप्टो को अभी तक लीगल करार नहीं दिया है लेकिन इससे हुई कमाई पर टैक्स लेने की घोषणा बजट में कर रखी है। यह अपने में स्वतः विरोध है और इसी तरह के विरोधों पर यह सरकार टिकी हुई है। अब नीति आयोग सीधे नीति बनाकर सरकार को दे रहा है। नीति निर्धारण में संसद की भूमिका नहीं के बराबर रह गई है।
इस परिदृश्य में यह सवाल और भी अहम हो गया है कि प्रधानमंत्री इस सब पर चुप क्यों है? क्या सत्तारूढ़ भाजपा को इस लूट में हिस्सा मिल रहा है? यह हिस्से की चर्चा इसलिये उठ रही है क्योंकि इस समय भाजपा की घोषित संपत्ति वर्ष 2019-20 के लिए 4847.78 करोड़ दिखाई गई है। यह संपत्ति कार्यकर्ताओं के चंदे से संभव नहीं है। तय है कि इसके लिये बड़े घरानों से चुनावी बॉंडस के माध्यम से बड़ा चंदा आया है और यह बॉंडस गोपनीयता के दायरे में आते हैं इसलिए सार्वजनिक नहीं हो रहे। इसी कारण से लूट पर चुप्पी साधनी पड़ रही है। लेकिन इन चुनावों में जिस तरह से किसान समुदाय ने भाजपा का विरोध किया है उसमें आने वाले दिनों में जब महंगाई और बेरोजगारी से पीड़ित आम आदमी भी शामिल हो जायेेगा तो एकदम स्थितियां बदल जायेंगी यह तय है।

गरीब और ग्रामीण के हितों की अनदेखी का बजट

क्या मोदी सरकार गरीब, किसान, मजदूर विरोधी है? क्या यह सरकार केवल बड़े कारपोरेट घरानों के हितों को ही आगे बढ़ा रही है? क्या भविष्य का सपना दिखाकर वर्तमान को बर्बाद किया जा रहा है? यह सवाल वर्ष 2022-23 का बजट संसद में आने के बाद उभरे हैं। इन सवालों की पड़ताल करने के लिये इन वर्गों से प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष से जुड़े बजट आवंटन और अब तक की कुछ महत्वपूर्ण स्थितियों पर नजर दौडाना आवश्यक हो जाता है। पिछले 2 वर्षों में देश कोरोना संकट से जूझ रहा है। इसी संकट में लॉकडाउन का सामना करना पड़ा। लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों की समस्या से देश का कोई कोना अछूता नहीं रहा। क्योंकि यह लोग शहरों से पलायन करके गांव में वापस आये। लॉकडाउन से पहले नोटबंदी का दंश झेलना पड़ा। नोटबंदी से जो क्षेत्र प्रभावित हुये वह आर्थिक पैकेज मिलने के बाद पुनः अपनी पुरानी स्थिति में अभी तक नहीं लौट पाये हैं। इन संकटों से देश के एक बड़े वर्ग के सामने रोजी और रोटी दोनों की ऐसी समस्या पैदा कर दी है जिससे पार पाना सरकार के सहयोग के बिना संभव नहीं होगा। लेकिन इसी संकट के बीच कुछ लोगों की संपत्ति में अप्रत्याशित बढ़ौतरी भी हुई है और इसी से सरकार की नीयत और नीतियां चर्चा का विषय बनती है।
वित्त मंत्री ने 39.45 करोड़ का कुल बजट लोकसभा में पेश किया है। पिछले वर्ष के मुकाबले इसमें 4.6 प्रतिशत की वृद्धिहै। इस कुल खर्च के मुकाबले सरकार की सारे साधनों से आय 22.84 लाख करोड़ हैं और शेष 16.61 लाख करोड़ कर्ज लेकर जुटाया जायेगा। इस कर्ज के साथ सरकार का कुल कर्ज जीडीपी का 60% हो जायेगा। इस कर्ज पर दिया जाने वाला ब्याज सरकार की राजस्व आय का 43% हो जायेगा। कर्ज की स्थिति हर वर्ष बढ़ती जा रही है और बढ़ते कर्ज के कारण बेरोजगारी तथा महंगाई दोनों बढ़ते हैं यह एक स्थापित सत्य है। इसे अच्छी अर्थव्यवस्था माना जाये या नहीं यह पाठक स्वंय विचार कर सकते हैं। क्योंकि कर्ज का आधार बनने वाले जीडीपी में उत्पादन और सेवायें भी शामिल रहती है जो देश में कार्यरत विदेशी कंपनियों द्वारा प्रदान की जाती है। जबकि इसकी आय देश की आय नहीं होती है। इस परिपेक्ष में सरकार के बजटीय आवंटन पर नजर डालने से सरकार की प्राथमिकताओं का खुलासा सामने आ जाता है । सरकार बड़े अरसे से किसानों की आय दोगुनी करने का वायदा और दावा करती आ रही है। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों और गरीबों के लिए जो आवंटन किए गए हैं उनसे नहीं लगता कि सरकार सही में इसके प्रति गंभीर है। क्योंकि ग्रामीण विकास के लिए पिछले वर्ष के मुकाबले बजट में दस प्रतिश्त की कमी की गयी है। इस कमी से क्या सरकार यह नहीं मानकर चल रही है कि अब गांव के विकास के लिए सरकार को और निवेश करने की जरूरत नहीं है। या फिर ग्रामीण क्षेत्रों में भी सरकारी संपत्तियों का मौद्रीकरण के नाम पर प्राइवेट सैक्टर को सौंपने की तैयारी है।
ग्रामीण विकास में मनरेगा की महत्वपूर्ण भूमिका है। इससे गांव के लोगों को गांव में ही रोजगार मिलने लगा था। जब प्रवासी मजदूरों का लॉकडाउन में गांव के लिये पलायन हुआ था तब उन्हें मनरेगा से ही सहारा दिया गया था। इस बार मनरेगा के बजट में 25.5% की कटौती कर दी गयी है। क्या इससे गांव में रोजगार प्रभावित नहीं होगा। इसी तरह पीडीएस में भी 28.5 प्रतिशत की कटौती की गयी है क्या इस कटौती से गरीबों को मिलने वाले सस्ते राशन की कीमतों में असर नहीं पड़ेगा। इसी तरह रासायनिक खाद्य में 24% पेट्रोल में 10% फसल बीमा में 3% और जल जीवन में 1.3% की कटौती की गयी है। इस तरह इन सारी कटौतियों को देखा जाये तो यह सीधे गांव के आदमी को प्रभावित करेंगे। इन कटौतियों से क्या यह माना जा सकता है कि इससे गरीब और किसान का किसी तरह से भी भला हो सकता है। क्योंकि इसी के साथ किसानी से जुड़ी चीजों को प्राइवेट सैक्टर को दिया जा रहा है। जिसमें खाद्य और बिजली का उत्पादन तथा वितरण आदि शामिल है। यह सारे क्षेत्र वह हैं जिनमें अभी लंबे समय तक सरकार के सहयोग की आवश्यकता है लेकिन सरकार जब इसमें अपना हाथ पीछे खींच रही हैं तो यह कैसे मान लिया जाये कि सरकार इन वर्गों की हितैशी है। लॉकडाउन में इस लेबर कानूनों से संशोधन करके उनका हड़ताल का अधिकार छीन लिया गया है।
बजट में आये इन आबंटनों से स्पष्ट हो जाता है कि यह सारा कुछ एक नीयत और नीति के तहत किया जा रहा है जिसे किसी भी तरह से गरीब और किसान के हित में नहीं कहा जा सकता ।

विश्वास के संकट में भाजपा और मोदी

पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों के परिणाम क्या रहते हैं यह तो आने वाले दिनों में ही पता चलेगा। बहुत संभव है कि भाजपा की सरकारें न बन पाये। क्योंकि चुनाव के दौरान जो अब तक घट चुका है यदि उसका निष्पक्षता से आकलन किया जाये तो यही प्रबल संभावना उभरती है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में भी चुनाव हो रहे हैं। राष्ट्रीय राजनीति में उत्तर प्रदेश का क्या स्थान है यह राजनीतिक समझ रखने वाला हर आदमी जानता है। यहां पर चुनावों की घोषणा के बाद ईडी की छापेमारी हुई और जब यह सामने आया है कि यह छापेमारी भाजपा के आदमी के घर पर ही हो गयी है तब इसे रफा-दफा करते हुए दूसरी छापेमारी सपा के आदमी पर हो गयी। इस छापेमारी का क्या राजनीतिक संदेश गया है इसकी चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है। यहीं पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कोराना के कारण यह चुनाव कुछ समय के लिये टालने का फैसला दे दिया। अब सर्वाेच्च न्यायालय में भी इसी आश्य की एक याचिका चुकी है। यही नहीं भाजपा नेता पूर्व मंत्री वरिष्ठ अधिवक्ता अश्वनी उपाध्याय ने अब एक याचिका दायर करके सपा और आम आदमी पार्टी के चुनाव घोषणा पत्रों में कई चीजें मतदाताओं को मुफ्त देने के वायदांे को रिश्वतखोरी/ नाजायज प्रलोभन करार देकर इन दलों की मान्यता रद्द करने की गुहार लगायी है। सर्वाेच्च न्यायालय ने इसका संज्ञान लेते हुए चुनाव आयोग केंद्र सरकार और इन दलों को नोटिस जारी कर दिये हैं। संयोगवश यह मुद्दे उठाने वाले लोग भाजपा की ही पृष्ठभूमि के हैं।
यह सही है कि चुनावों में इस तरह की मुफ्तखोरी के वादे और वह भी सरकारी कोष के माध्यम से सीधे रिश्वतखोरी करार देकर इस पर आपराधिक मामले दायर होने चाहिए और ऐसे दलों की मान्यता रद्द कर दी जानी चाहिय? लेकिन क्या यह मुद्दे उठाने का समय अब चुनाव प्रक्रिया शुरू हो जाने के बाद ही है? क्या ऐसे वादों के दोषी यही दो दल हैं? जब 2014 में हर आदमी के खाते में पन्द्रह-पन्द्रह लाख आने का वायदा किया गया था तब क्या वह जायज था? आज हर सरकार हर वर्ष कर मुक्त बजट देने की घोषणा के पहले या बाद में जनता पर करों का बोझ डालती है क्या यह जायज है? चुनाव आयोग ने चुनाव लड़ रहे प्रत्याशी के खर्च की सीमा तो तय कर रखी है लेकिन उसे चुनाव लड़वा रहे दल की को खर्च की सीमाओं से मुक्त रखा है क्यों? चुनाव आयोग हर चुनाव से पहले आचार संहिता की घोषणा करता है। लेकिन इस आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करने पर आपराधिक मामला दर्ज करने का प्रावधान नहीं है। केवल चुनाव याचिका ही दायर करने का प्रावधान है। ऐसे बहुत सारे बिंदु हैं जिन पर एक बड़ी राष्ट्रीयव्यापी बहस की आवश्यकता है और तब चुनाव अधिनियम में संशोधन किया जाना चाहिये। लेकिन आज इस ओर कोई ध्यान देने को तैयार नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश से वायदा किया था कि वह संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करवायेंगे। देश में ‘एक देश एक चुनाव’ की व्यवस्था बनाने का भी भरोसा दिया था। लेकिन इन वायदों पर कुछ नहीं हुआ। यदि नीयत होती तो संसद में इतना प्रचंड बहुमत मिलने पर चुनाव अधिनियम में आदर्श संशोधन किये जा सकते थे। परंतु एक ही काम किया कि चुनावी बॉडस के लिये सारा तंत्र सत्तारूढ़ दल के गिर्द घुमाकर रख दिया।
इस परिपेक्ष में आज जो प्रयास किये जा रहे हैं उनकी ईमानदारी पर संदेह होना स्वाभाविक हो गया है। ऐसे में सर्वाेच्च न्यायालय से यही आग्रह रहेगा कि इन चुनावों के परिणाम आने के बाद राजनीतिक दलों की इस मुफ्ती रणनीति पर कड़े प्रतिबंध लगाने का फैसला लिया जाये जो हर छोटे-बड़े दल पर एक सम्मान लागू हो। चुनाव लड़ने वाले हर व्यक्ति और राजनीतिक दल के लिये यह अनिवार्य किया जाना चाहिये कि वह चुनाव में आने पर नामांकन के साथ ही राज्य या केंद्र जिसके लिये भी चुनाव हों वह आर्थिक स्थिति पर अपना पक्ष स्पष्ट करें और यह घोषणा करे की अपने वायदों को पूरा करने के लिये सरकारी कोष पर न कर्ज का बोझ डालेगा और न ही प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से जनता पर करों का भार डालेगा। न ही सरकारी संपत्तियों का मौद्रीकरण के नाम पर प्राइवेट सैक्टर के हवाले करेगा। जैसा कि इस सरकार ने कर रखा है। आज स्थिति या हो गयी है कि यह सरकार किसानों से राय लिये बिना तीन कृषि कानून लायी। इन कानूनों के विरोध में आंदोलन हुआ। तेरहा माह चले इस आंदोलन में सात सौ किसानों की मौत हो गयी उसके बाद कानूनों को वापस ले लिया गया। स्वयं प्रधानमंत्री ने कहा कि एमएसपी पर कमेटी बनायेंगे। किसानों के खिलाफ बनाये गये आपराधिक मामले वापिस लिये जायेंगे। लेकिन आज चुनावों के दौरान यह स्पष्ट हो गया है कि इन वायदों पर अमल नहीं हुआ है। इस वादाखिलाफी की आंच चुनाव में साफ असर दिखा रही है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब प्रधानमंत्री स्वयं घोषणा करके उस पर चुनाव के वक्त भी अमल न करें तो उसे कैसे लिया जाये। जब प्रधानमंत्री के वायदों पर ही विश्वास न बन पाये तो सरकार और पार्टी पर कोई कैसे विश्वास कर पायेगा? आज प्रधानमंत्री और उनकी सरकार तथा पार्टी सभी एक साथ विश्वास के संकट में हैं और यह सबसे ज्यादा घातक है।

क्या उत्तर प्रदेश में ‘मोदी है तो मुमकिन है’-हो पायेगा

पांच राज्यों के चुनावों की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और 10 फरवरी को पहले चरण का मतदान हो जायेगा। जिस तरह कोरोना के मामले बढ़ते जा रहे हैं और हर राज्य ने इसके कारण बंदीशें लगा रखी हैं उससे यह आशंका अभी भी बराबर बनी हुई है कि कहीं यह चुनाव कुछ समय के लिए टालने न पड़ जायें। फिर अब सर्वाेच्च न्यायालय में भी एक याचिका आ चुकी है जिसमें चुनाव टालने का आग्रह किया गया है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय पहले ही चुनाव टालने का आग्रह कर चुका है। ऐसे में शीर्ष अदालत का फैसला क्या आता है उस पर बहुत कुछ निर्भर करेगा। क्योंकि कुछ लोग इन प्रयासों को प्रायोजित भी करार दे रहे हैं। इस परिदृश्य में कुछ बिंदुओं पर विचार करना आवश्यक हो जाता है। यह चुनाव विवादित कृषि कानूनों की वापसी के बाद हो रहे हैं। जब इन कानूनों के विरोध में किसान आंदोलन चल रहा था तब हुये बंगाल और अन्य राज्यों के चुनाव के परिणाम क्या रहे हैं यह सारा देश जानता है। उस समय बंगाल में भाजपा ही नहीं बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा दांव पर लग गयी थी और ममता के हाथों बच नहीं पायी थी। वहां से प्रधानमंत्री का जो ग्राफ गिरना शुरू हुआ था वह अब तक संभल नहीं पाया है। बल्कि अब जिस तरह से पंजाब में प्रधानमंत्री की सुरक्षा में हुई चूक को मुद्दा बनाने का प्रयास किया गया उसकी हवा सर्वाेच्च न्यायालय ने जांच कमेटी बनाकर निकाल दी है। यही नहीं प्रधानमंत्री की विदद्वता का भी उस समय खुलासा सामने आ गया जब वह एक आर्थिक मंच पर विश्व को संबोधित करते हुए टेलीप्राम्पटर का लिंक टूटते ही एक शब्द भी आगे नहीं बोल पाये। इससे एक बार फिर यह स्पष्ट हो गया कि भाजपा शासित राज्य अकेले प्रधानमंत्री के नाम पर ही अब सत्ता में वापसी की उम्मीद नहीं कर पायेंगे।
इन चुनावों में यह भी सामने आ गया है कि अब लोग भाजपा छोड़कर अन्य दलों में जाने शुरू हो गये हैं। 2014 में जो कांग्रेस के साथ घटा था वह अब भाजपा के साथ घटना शुरू हो गया है। इसमें भी सबसे अहम यह है कि जो लोग मंत्री विधायक भाजपा छोड़कर जा रहे हैं वह सबसे बड़ा आरोप यही लगा रहे हैं कि भाजपा सरकारों ने पिछड़े वर्गों दलितों बेरोजगार युवा छोटे किसानों आदि के लिए कुछ नहीं किया है। आज देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में ही इस सरकार के कार्यकाल में 16 लाख नौकरियां छीनी है। जबकि यूपी में बेरोजगारी ही सबसे बड़ी समस्या है। ऐसे में यह बेरोजगार कैसे इस सरकार को समर्थन देंगे यह एक बड़ा सवाल है। पिछड़े और दलित इस सरकार में उपेक्षा के शिकार हुये हैं। यह सीधा आरोप सरकार से निकलने वालों का है। मुसलमानों को पिछले चुनाव में भी भाजपा ने उम्मीदवार नहीं बनाया था इस बार किसी मुस्लिम को प्रत्याशी बनाया जाता है या नहीं यह आने वाले दिनों में स्पष्ट हो जायेगा।
इस सबसे हटकर बड़ा सवाल किसानों का है। सरकार ने भले ही कृषि कानून वापस ले लिये हैं। लेकिन एमएसपी का मुद्दा अभी भी अपनी जगह खड़ा है। इस पर सरकार आगे नहीं बढ़ी है। बल्कि जिस ढंग से बिजली उत्पादन और ट्रांसमिशन, बीज और खाद आदि सभी कुछ प्राइवेट सैक्टर के हवाले कर दिया गया है उससे क्या किसान की निर्भरता कॉर्पाेरेट सैक्टर पर नहीं हो जायेगी। अब तो अदानी कैपिटल को एसबीआई का लोन पार्टनर तक बना दिया गया है। जो किसानों को ऋण देने वाला सबसे बड़ा संस्थान होगा। किसान आंदोलन का सबसे बड़ा मुद्दा यह था कि कृषि क्षेत्र को कारपोरेट सेक्टर के हवाले किया जा रहा है। जब सरकार ने वह हर चीज जो किसान को खेती के लिए आवश्यक है उसे कॉरपोरेट सैक्टर के हवाले कर दिया है तो क्या परिणामतः कृषि पर इस क्षेत्र का कब्जा नहीं हो जायेगा ? क्या यह सब किसान की समझ में नहीं आयेगा ? निश्चित रूप से किसान इसे समझेगा और भाजपा को चुनाव में समर्थन देने पर दस बार सोचेगा? इस तरह जो भी परिस्थितियां निर्मित हो रही हैं वह एक-एक करके सरकार के प्रतिकूल ही होती जा रही हैं।
दूसरी ओर कांग्रेस ने जिस तरह से महिलाओं और युवाओं को उत्तर प्रदेश में अपनी नीतियों का केंद्र बिंदु बना दिया है वह अपने में एक नया प्रयोग है। पंजाब में दलित मुख्यमंत्री को केंद्र में रखा गया है। इससे कांग्रेस का पिछड़ों, दलितों, महिलाओं और युवाओं को लेकर एजेंडा साफ हो जाता है। फिर कांग्रेस यूपी में अकेले चुनाव लड़ रही हैं और उसने 40 प्रतिशत महिलाओं को टिकट देकर और युवाओं के लिये अलग रोजगार नीति घोषित करके अपने एजेंडे के प्रति अपनी प्रतिबद्धता स्पष्ट कर दी है। इससे सारा चुनावी परिदृश्य बदल गया है। ऐसे में इस चुनाव के परिणामों का देश पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा यह तय है।

मौतों की जिम्मेदारी से भागना संभव नहीं होगा

प्रधानमंत्री की सुरक्षा में हुई चूक नीयतन थी या संयोगवश इसकी कोई भी जांच रिपोर्ट आने से पहले ही जिस तरह की राजनीतिक इस पर शुरू हो गयी है उससे कई ऐसे सवाल उठ खड़े हुये हैं जिन्हें लंबे समय तक नजरअंदाज करना देश हित में नहीं होगा। क्योंकि यदि यह चूक नीयतम है तो उसके प्रायोजकों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। यदि संयोगवश हुई इस चूक को अपने विरोधियों को नीचा दिखाने के लिए राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग किया जाता है तो यह और भी निंदनीय है। लोकतंत्र के लिये इससे बड़ा और कोई संकट नहीं हो सकता। इस मामले में सर्वाेच्च न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट की ही पूर्व जज जस्टिस इन्दु मल्होत्रा की अध्यक्षता में पांच सदस्यों की एक जांच कमेटी का गठन कर दिया है। इसलिए इस जांच की रिपोर्ट आने तक इस पर बहस को आगे बढ़ाना उचित नहीं होगा। लेकिन मीडिया के कुछ हिस्सो में इस प्रकरण के बाद राजनीतिक आकलनों का दौर भी शुरू हो गया। पंजाब में इस प्रकरण के बाद भाजपा अमरेंद्र गठबंधन को लाभ और कांग्रेस को नुकसान होने की बात की गयी है वास्तव में क्या होगा यह परिणाम आने के बाद ही पता चलेगा।
लेकिन इस प्रकरण के बाद जिस तरह से उत्तर प्रदेश में मन्त्रीयों और विधायकों ने भाजपा छोड़ना शुरू कर दी है उससे पूरा राजनीतिक परिदृश ही बदलना शुरू हो गया है। उत्तर प्रदेश से पहले उत्तराखंड में भी यही सब कुछ घटना शुरू हुआ था। जिन पांच राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं उनमें भाजपा के प्रभुत्व वाले यही दो राज्य हैं। ऐसी संभावनाएं उभरनी शुरू हो गई हैं कि 2014 में जिस तरह लोग कांग्रेस छोड़कर जाने लगे थे इस बार वैसा ही कुछ भाजपा के साथ घट सकता है। 2014 में जो राजनीतिक परिदृश्य अन्ना आंदोलन से निर्मित हुआ था आज वैसा ही कुछ किसान आंदोलन ने खड़ा कर दिया है। बल्कि इस आंदोलन में हुई सैकड़ों किसानों की मौत ने स्थिति को और भी गंभीर बना दिया है। फिर इस मुद्दे पर राज्यपाल सत्यपाल मलिक के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह संवाद जब सामने आया कि किसान मोदी के कारण नहीं मरे हैं। प्रधानमंत्री के इस संवाद का किसानों पर क्या असर पड़ा होगा यह अंदाजा लगाना किसी के लिये भी कठिन नहीं है। किसानों की मौत की जिम्मेदारी से सरकार भाग नहीं सकती है।
कुछ लोग किसान आंदोलन को राजनीति से प्रेरित और प्रायोजित मानते हैं इसलिए वह किसानों की मौत के लिए मोदी और उनकी सरकार को जिम्मेदार नहीं मानते हैं। इसलिए कृषि कानूनों से जुड़े कुछ बिंदुओं पर बात करना जरूरी हो जाता है। कृषि संविधान के मुताबिक राज्यों का विषय है। एन्ट्री 33 के तहत उत्पादन के भंडारण और वितरण पर केंद्र का भी अधिकार है। लेकिन अन्य मुद्दों पर नहीं। वैसे तो एन्ट्री 33 पर भी विवाद है। इस नाते केंद्र को इस में कानून बनाने का काम अपने हाथ में लेना ही गलत था। फिर यह कानून अध्यादेश के माध्यम से लाये गये। संसद में बाद में रखे गये और वहां बिना बहस के पारित किये गये। यदि इन्हें सामान्य स्थापित प्रक्रिया के तहत लाया जाता तो जैसे ही यह संसद की कार्यसूची में आते तो एकदम सार्वजनिक संज्ञान में आ जाते और इन पर बहस चल पड़ती। जैसा कि इस बार हुआ। कि जैसे ही बैंकिंग अधिनियम में संशोधन की चर्चा सामने आयी तभी बैंक कर्मचारी सड़कों पर आ गये और यह प्रस्तावित संशोधन वहीं पर रुक गया। इसलिए जिस तरीके से यह कृषि कानून लाये गये थे उससे सरकार की नीयत पर शक करने का पर्याप्त आधार बन जाता है।
फिर सरकार ने जमाखोरी और मूल्य बढ़ोतरी पर 1955 से चले आ रहे हैं अपने नियंत्रण के अधिकार को समाप्त करके किसको लाभ पहुंचाया। क्या यह कानून किसी भी आदमी के लिए लाभदायक कहा जा सकता है शायद नहीं। ऐसे में किसानों के पास आंदोलन के अतिरिक्त और क्या विकल्प था। यह कानून कोरोना काल में ही लाने की क्या मजबूरी थी। यह कानून लाने से पहले क्या हरियाणा सरकार द्वारा अदानी समूह को लॉकडाउन के दौरान स्टोरों के लिए भूमि नहीं दी गई थी । अब जब कानून वापिस लिये गये तो उसके बाद अदानी कैपिटल को स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का कृषि ऋणों के लिए पार्टनर क्यों बनाया गया। अब एसबीआई के साथ मिलकर अदानी किसानों को कृषि उपकरणों और बीजों के लिए ऋण देगा। साठ ब्रांचों वाले अदानी से तेईस सौ ब्रांचों वाले एसबीआई को व्यापार में कैसे सहायता मिलेगी। क्या यह सब सरकार की नीयत पर शक करने के लिए काफी नहीं है। क्या इस परिदृश्य में किसान आंदोलन और किसानों की मौतों की जिम्मेदारी सरकार पर नहीं आ जाती है। यह चुनाव इन्हीं सवालों के गिर्द घूमेगा यह तय है।

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