क्या मोदी सरकार गरीब, किसान, मजदूर विरोधी है? क्या यह सरकार केवल बड़े कारपोरेट घरानों के हितों को ही आगे बढ़ा रही है? क्या भविष्य का सपना दिखाकर वर्तमान को बर्बाद किया जा रहा है? यह सवाल वर्ष 2022-23 का बजट संसद में आने के बाद उभरे हैं। इन सवालों की पड़ताल करने के लिये इन वर्गों से प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष से जुड़े बजट आवंटन और अब तक की कुछ महत्वपूर्ण स्थितियों पर नजर दौडाना आवश्यक हो जाता है। पिछले 2 वर्षों में देश कोरोना संकट से जूझ रहा है। इसी संकट में लॉकडाउन का सामना करना पड़ा। लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों की समस्या से देश का कोई कोना अछूता नहीं रहा। क्योंकि यह लोग शहरों से पलायन करके गांव में वापस आये। लॉकडाउन से पहले नोटबंदी का दंश झेलना पड़ा। नोटबंदी से जो क्षेत्र प्रभावित हुये वह आर्थिक पैकेज मिलने के बाद पुनः अपनी पुरानी स्थिति में अभी तक नहीं लौट पाये हैं। इन संकटों से देश के एक बड़े वर्ग के सामने रोजी और रोटी दोनों की ऐसी समस्या पैदा कर दी है जिससे पार पाना सरकार के सहयोग के बिना संभव नहीं होगा। लेकिन इसी संकट के बीच कुछ लोगों की संपत्ति में अप्रत्याशित बढ़ौतरी भी हुई है और इसी से सरकार की नीयत और नीतियां चर्चा का विषय बनती है।
वित्त मंत्री ने 39.45 करोड़ का कुल बजट लोकसभा में पेश किया है। पिछले वर्ष के मुकाबले इसमें 4.6 प्रतिशत की वृद्धिहै। इस कुल खर्च के मुकाबले सरकार की सारे साधनों से आय 22.84 लाख करोड़ हैं और शेष 16.61 लाख करोड़ कर्ज लेकर जुटाया जायेगा। इस कर्ज के साथ सरकार का कुल कर्ज जीडीपी का 60% हो जायेगा। इस कर्ज पर दिया जाने वाला ब्याज सरकार की राजस्व आय का 43% हो जायेगा। कर्ज की स्थिति हर वर्ष बढ़ती जा रही है और बढ़ते कर्ज के कारण बेरोजगारी तथा महंगाई दोनों बढ़ते हैं यह एक स्थापित सत्य है। इसे अच्छी अर्थव्यवस्था माना जाये या नहीं यह पाठक स्वंय विचार कर सकते हैं। क्योंकि कर्ज का आधार बनने वाले जीडीपी में उत्पादन और सेवायें भी शामिल रहती है जो देश में कार्यरत विदेशी कंपनियों द्वारा प्रदान की जाती है। जबकि इसकी आय देश की आय नहीं होती है। इस परिपेक्ष में सरकार के बजटीय आवंटन पर नजर डालने से सरकार की प्राथमिकताओं का खुलासा सामने आ जाता है । सरकार बड़े अरसे से किसानों की आय दोगुनी करने का वायदा और दावा करती आ रही है। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों और गरीबों के लिए जो आवंटन किए गए हैं उनसे नहीं लगता कि सरकार सही में इसके प्रति गंभीर है। क्योंकि ग्रामीण विकास के लिए पिछले वर्ष के मुकाबले बजट में दस प्रतिश्त की कमी की गयी है। इस कमी से क्या सरकार यह नहीं मानकर चल रही है कि अब गांव के विकास के लिए सरकार को और निवेश करने की जरूरत नहीं है। या फिर ग्रामीण क्षेत्रों में भी सरकारी संपत्तियों का मौद्रीकरण के नाम पर प्राइवेट सैक्टर को सौंपने की तैयारी है।
ग्रामीण विकास में मनरेगा की महत्वपूर्ण भूमिका है। इससे गांव के लोगों को गांव में ही रोजगार मिलने लगा था। जब प्रवासी मजदूरों का लॉकडाउन में गांव के लिये पलायन हुआ था तब उन्हें मनरेगा से ही सहारा दिया गया था। इस बार मनरेगा के बजट में 25.5% की कटौती कर दी गयी है। क्या इससे गांव में रोजगार प्रभावित नहीं होगा। इसी तरह पीडीएस में भी 28.5 प्रतिशत की कटौती की गयी है क्या इस कटौती से गरीबों को मिलने वाले सस्ते राशन की कीमतों में असर नहीं पड़ेगा। इसी तरह रासायनिक खाद्य में 24% पेट्रोल में 10% फसल बीमा में 3% और जल जीवन में 1.3% की कटौती की गयी है। इस तरह इन सारी कटौतियों को देखा जाये तो यह सीधे गांव के आदमी को प्रभावित करेंगे। इन कटौतियों से क्या यह माना जा सकता है कि इससे गरीब और किसान का किसी तरह से भी भला हो सकता है। क्योंकि इसी के साथ किसानी से जुड़ी चीजों को प्राइवेट सैक्टर को दिया जा रहा है। जिसमें खाद्य और बिजली का उत्पादन तथा वितरण आदि शामिल है। यह सारे क्षेत्र वह हैं जिनमें अभी लंबे समय तक सरकार के सहयोग की आवश्यकता है लेकिन सरकार जब इसमें अपना हाथ पीछे खींच रही हैं तो यह कैसे मान लिया जाये कि सरकार इन वर्गों की हितैशी है। लॉकडाउन में इस लेबर कानूनों से संशोधन करके उनका हड़ताल का अधिकार छीन लिया गया है।
बजट में आये इन आबंटनों से स्पष्ट हो जाता है कि यह सारा कुछ एक नीयत और नीति के तहत किया जा रहा है जिसे किसी भी तरह से गरीब और किसान के हित में नहीं कहा जा सकता ।





यह सही है कि चुनावों में इस तरह की मुफ्तखोरी के वादे और वह भी सरकारी कोष के माध्यम से सीधे रिश्वतखोरी करार देकर इस पर आपराधिक मामले दायर होने चाहिए और ऐसे दलों की मान्यता रद्द कर दी जानी चाहिय? लेकिन क्या यह मुद्दे उठाने का समय अब चुनाव प्रक्रिया शुरू हो जाने के बाद ही है? क्या ऐसे वादों के दोषी यही दो दल हैं? जब 2014 में हर आदमी के खाते में पन्द्रह-पन्द्रह लाख आने का वायदा किया गया था तब क्या वह जायज था? आज हर सरकार हर वर्ष कर मुक्त बजट देने की घोषणा के पहले या बाद में जनता पर करों का बोझ डालती है क्या यह जायज है? चुनाव आयोग ने चुनाव लड़ रहे प्रत्याशी के खर्च की सीमा तो तय कर रखी है लेकिन उसे चुनाव लड़वा रहे दल की को खर्च की सीमाओं से मुक्त रखा है क्यों? चुनाव आयोग हर चुनाव से पहले आचार संहिता की घोषणा करता है। लेकिन इस आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करने पर आपराधिक मामला दर्ज करने का प्रावधान नहीं है। केवल चुनाव याचिका ही दायर करने का प्रावधान है। ऐसे बहुत सारे बिंदु हैं जिन पर एक बड़ी राष्ट्रीयव्यापी बहस की आवश्यकता है और तब चुनाव अधिनियम में संशोधन किया जाना चाहिये। लेकिन आज इस ओर कोई ध्यान देने को तैयार नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश से वायदा किया था कि वह संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करवायेंगे। देश में ‘एक देश एक चुनाव’ की व्यवस्था बनाने का भी भरोसा दिया था। लेकिन इन वायदों पर कुछ नहीं हुआ। यदि नीयत होती तो संसद में इतना प्रचंड बहुमत मिलने पर चुनाव अधिनियम में आदर्श संशोधन किये जा सकते थे। परंतु एक ही काम किया कि चुनावी बॉडस के लिये सारा तंत्र सत्तारूढ़ दल के गिर्द घुमाकर रख दिया।
इस परिपेक्ष में आज जो प्रयास किये जा रहे हैं उनकी ईमानदारी पर संदेह होना स्वाभाविक हो गया है। ऐसे में सर्वाेच्च न्यायालय से यही आग्रह रहेगा कि इन चुनावों के परिणाम आने के बाद राजनीतिक दलों की इस मुफ्ती रणनीति पर कड़े प्रतिबंध लगाने का फैसला लिया जाये जो हर छोटे-बड़े दल पर एक सम्मान लागू हो। चुनाव लड़ने वाले हर व्यक्ति और राजनीतिक दल के लिये यह अनिवार्य किया जाना चाहिये कि वह चुनाव में आने पर नामांकन के साथ ही राज्य या केंद्र जिसके लिये भी चुनाव हों वह आर्थिक स्थिति पर अपना पक्ष स्पष्ट करें और यह घोषणा करे की अपने वायदों को पूरा करने के लिये सरकारी कोष पर न कर्ज का बोझ डालेगा और न ही प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से जनता पर करों का भार डालेगा। न ही सरकारी संपत्तियों का मौद्रीकरण के नाम पर प्राइवेट सैक्टर के हवाले करेगा। जैसा कि इस सरकार ने कर रखा है। आज स्थिति या हो गयी है कि यह सरकार किसानों से राय लिये बिना तीन कृषि कानून लायी। इन कानूनों के विरोध में आंदोलन हुआ। तेरहा माह चले इस आंदोलन में सात सौ किसानों की मौत हो गयी उसके बाद कानूनों को वापस ले लिया गया। स्वयं प्रधानमंत्री ने कहा कि एमएसपी पर कमेटी बनायेंगे। किसानों के खिलाफ बनाये गये आपराधिक मामले वापिस लिये जायेंगे। लेकिन आज चुनावों के दौरान यह स्पष्ट हो गया है कि इन वायदों पर अमल नहीं हुआ है। इस वादाखिलाफी की आंच चुनाव में साफ असर दिखा रही है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब प्रधानमंत्री स्वयं घोषणा करके उस पर चुनाव के वक्त भी अमल न करें तो उसे कैसे लिया जाये। जब प्रधानमंत्री के वायदों पर ही विश्वास न बन पाये तो सरकार और पार्टी पर कोई कैसे विश्वास कर पायेगा? आज प्रधानमंत्री और उनकी सरकार तथा पार्टी सभी एक साथ विश्वास के संकट में हैं और यह सबसे ज्यादा घातक है।





इन चुनावों में यह भी सामने आ गया है कि अब लोग भाजपा छोड़कर अन्य दलों में जाने शुरू हो गये हैं। 2014 में जो कांग्रेस के साथ घटा था वह अब भाजपा के साथ घटना शुरू हो गया है। इसमें भी सबसे अहम यह है कि जो लोग मंत्री विधायक भाजपा छोड़कर जा रहे हैं वह सबसे बड़ा आरोप यही लगा रहे हैं कि भाजपा सरकारों ने पिछड़े वर्गों दलितों बेरोजगार युवा छोटे किसानों आदि के लिए कुछ नहीं किया है। आज देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में ही इस सरकार के कार्यकाल में 16 लाख नौकरियां छीनी है। जबकि यूपी में बेरोजगारी ही सबसे बड़ी समस्या है। ऐसे में यह बेरोजगार कैसे इस सरकार को समर्थन देंगे यह एक बड़ा सवाल है। पिछड़े और दलित इस सरकार में उपेक्षा के शिकार हुये हैं। यह सीधा आरोप सरकार से निकलने वालों का है। मुसलमानों को पिछले चुनाव में भी भाजपा ने उम्मीदवार नहीं बनाया था इस बार किसी मुस्लिम को प्रत्याशी बनाया जाता है या नहीं यह आने वाले दिनों में स्पष्ट हो जायेगा।
इस सबसे हटकर बड़ा सवाल किसानों का है। सरकार ने भले ही कृषि कानून वापस ले लिये हैं। लेकिन एमएसपी का मुद्दा अभी भी अपनी जगह खड़ा है। इस पर सरकार आगे नहीं बढ़ी है। बल्कि जिस ढंग से बिजली उत्पादन और ट्रांसमिशन, बीज और खाद आदि सभी कुछ प्राइवेट सैक्टर के हवाले कर दिया गया है उससे क्या किसान की निर्भरता कॉर्पाेरेट सैक्टर पर नहीं हो जायेगी। अब तो अदानी कैपिटल को एसबीआई का लोन पार्टनर तक बना दिया गया है। जो किसानों को ऋण देने वाला सबसे बड़ा संस्थान होगा। किसान आंदोलन का सबसे बड़ा मुद्दा यह था कि कृषि क्षेत्र को कारपोरेट सेक्टर के हवाले किया जा रहा है। जब सरकार ने वह हर चीज जो किसान को खेती के लिए आवश्यक है उसे कॉरपोरेट सैक्टर के हवाले कर दिया है तो क्या परिणामतः कृषि पर इस क्षेत्र का कब्जा नहीं हो जायेगा ? क्या यह सब किसान की समझ में नहीं आयेगा ? निश्चित रूप से किसान इसे समझेगा और भाजपा को चुनाव में समर्थन देने पर दस बार सोचेगा? इस तरह जो भी परिस्थितियां निर्मित हो रही हैं वह एक-एक करके सरकार के प्रतिकूल ही होती जा रही हैं।
दूसरी ओर कांग्रेस ने जिस तरह से महिलाओं और युवाओं को उत्तर प्रदेश में अपनी नीतियों का केंद्र बिंदु बना दिया है वह अपने में एक नया प्रयोग है। पंजाब में दलित मुख्यमंत्री को केंद्र में रखा गया है। इससे कांग्रेस का पिछड़ों, दलितों, महिलाओं और युवाओं को लेकर एजेंडा साफ हो जाता है। फिर कांग्रेस यूपी में अकेले चुनाव लड़ रही हैं और उसने 40 प्रतिशत महिलाओं को टिकट देकर और युवाओं के लिये अलग रोजगार नीति घोषित करके अपने एजेंडे के प्रति अपनी प्रतिबद्धता स्पष्ट कर दी है। इससे सारा चुनावी परिदृश्य बदल गया है। ऐसे में इस चुनाव के परिणामों का देश पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा यह तय है।


लेकिन इस प्रकरण के बाद जिस तरह से उत्तर प्रदेश में मन्त्रीयों और विधायकों ने भाजपा छोड़ना शुरू कर दी है उससे पूरा राजनीतिक परिदृश ही बदलना शुरू हो गया है। उत्तर प्रदेश से पहले उत्तराखंड में भी यही सब कुछ घटना शुरू हुआ था। जिन पांच राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं उनमें भाजपा के प्रभुत्व वाले यही दो राज्य हैं। ऐसी संभावनाएं उभरनी शुरू हो गई हैं कि 2014 में जिस तरह लोग कांग्रेस छोड़कर जाने लगे थे इस बार वैसा ही कुछ भाजपा के साथ घट सकता है। 2014 में जो राजनीतिक परिदृश्य अन्ना आंदोलन से निर्मित हुआ था आज वैसा ही कुछ किसान आंदोलन ने खड़ा कर दिया है। बल्कि इस आंदोलन में हुई सैकड़ों किसानों की मौत ने स्थिति को और भी गंभीर बना दिया है। फिर इस मुद्दे पर राज्यपाल सत्यपाल मलिक के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह संवाद जब सामने आया कि किसान मोदी के कारण नहीं मरे हैं। प्रधानमंत्री के इस संवाद का किसानों पर क्या असर पड़ा होगा यह अंदाजा लगाना किसी के लिये भी कठिन नहीं है। किसानों की मौत की जिम्मेदारी से सरकार भाग नहीं सकती है।
कुछ लोग किसान आंदोलन को राजनीति से प्रेरित और प्रायोजित मानते हैं इसलिए वह किसानों की मौत के लिए मोदी और उनकी सरकार को जिम्मेदार नहीं मानते हैं। इसलिए कृषि कानूनों से जुड़े कुछ बिंदुओं पर बात करना जरूरी हो जाता है। कृषि संविधान के मुताबिक राज्यों का विषय है। एन्ट्री 33 के तहत उत्पादन के भंडारण और वितरण पर केंद्र का भी अधिकार है। लेकिन अन्य मुद्दों पर नहीं। वैसे तो एन्ट्री 33 पर भी विवाद है। इस नाते केंद्र को इस में कानून बनाने का काम अपने हाथ में लेना ही गलत था। फिर यह कानून अध्यादेश के माध्यम से लाये गये। संसद में बाद में रखे गये और वहां बिना बहस के पारित किये गये। यदि इन्हें सामान्य स्थापित प्रक्रिया के तहत लाया जाता तो जैसे ही यह संसद की कार्यसूची में आते तो एकदम सार्वजनिक संज्ञान में आ जाते और इन पर बहस चल पड़ती। जैसा कि इस बार हुआ। कि जैसे ही बैंकिंग अधिनियम में संशोधन की चर्चा सामने आयी तभी बैंक कर्मचारी सड़कों पर आ गये और यह प्रस्तावित संशोधन वहीं पर रुक गया। इसलिए जिस तरीके से यह कृषि कानून लाये गये थे उससे सरकार की नीयत पर शक करने का पर्याप्त आधार बन जाता है।
फिर सरकार ने जमाखोरी और मूल्य बढ़ोतरी पर 1955 से चले आ रहे हैं अपने नियंत्रण के अधिकार को समाप्त करके किसको लाभ पहुंचाया। क्या यह कानून किसी भी आदमी के लिए लाभदायक कहा जा सकता है शायद नहीं। ऐसे में किसानों के पास आंदोलन के अतिरिक्त और क्या विकल्प था। यह कानून कोरोना काल में ही लाने की क्या मजबूरी थी। यह कानून लाने से पहले क्या हरियाणा सरकार द्वारा अदानी समूह को लॉकडाउन के दौरान स्टोरों के लिए भूमि नहीं दी गई थी । अब जब कानून वापिस लिये गये तो उसके बाद अदानी कैपिटल को स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का कृषि ऋणों के लिए पार्टनर क्यों बनाया गया। अब एसबीआई के साथ मिलकर अदानी किसानों को कृषि उपकरणों और बीजों के लिए ऋण देगा। साठ ब्रांचों वाले अदानी से तेईस सौ ब्रांचों वाले एसबीआई को व्यापार में कैसे सहायता मिलेगी। क्या यह सब सरकार की नीयत पर शक करने के लिए काफी नहीं है। क्या इस परिदृश्य में किसान आंदोलन और किसानों की मौतों की जिम्मेदारी सरकार पर नहीं आ जाती है। यह चुनाव इन्हीं सवालों के गिर्द घूमेगा यह तय है।





यहां यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सुरक्षा में चूक दूसरी बार हुई है। दिसंबर 2017 में प्रधानमंत्री को एक आयोजन में शामिल होने के लिए अमेठी विश्वविद्यालय के परिसर में जाना था यहां पर जाने के लिये प्रधानमंत्री का काफिला रास्ता भूल गया। यह रास्ता भूलना भटकना सुरक्षा के लिये गंभीर चूक थी। लेकिन तब इस चूक के लिये उत्तर प्रदेश की योगी सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया। संबंधित एसपी ने इस चूक के लिये दो पुलिसकर्मियों को निलंबित करके मामले की जांच पूरी कर दी थी। उस समय यह सुरक्षा चूक अखबारों की खबर तक नहीं बनी। आज यदि पंजाब के प्रसंग को यह कहकर चर्चा का विषय न बनाया होता ‘‘ कि अपने मुख्यमंत्री को बता देना कि मैं सुरक्षित वापस आ गया हूं ’’ तो शायद यह पुराने प्रसंग सामने न आते। आज इस प्रकरण के बाद पूर्व प्रधानमंत्रियों पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर डॉ. मनमोहन सिंह तक के सबके आचरण के वह प्रसंग सामने आ गये हैं कि अपने विरोधियों की बात को किस धैर्य के साथ वह सुनते थे और उनके विरोध के अधिकार की कितनी रक्षा करते थे। पंडित नेहरू का बिहार का सैयद शहाबुद्दीन प्रकरण आज अचानक चर्चा में आ गया है। बिहार में पंडित नेहरू को काले झंडे दिखाने वाले शहाबुद्दीन कैसे लोक सेवा आयोग के सेकंड टापर बने थे। डॉ. मनमोहन सिंह ने जेएनयू के छात्रों के विरोध का कैसे जवाब दिया और उन्हें दिये गये नोटिस कैसे वापस करवाये गये। किस तरह राजीव गोस्वामी के आत्मदाह प्रकरण में अस्पताल जाकर उनका हाल पूछा और विदेश तक उसका इलाज करवाने के निर्देश दिये। यह सब आज याद किया जाने लगा है। क्योंकि इन्होंने इस विरोध के लिये इनके खिलाफ देशद्रोह के मामले नहीं बनवाये।
आज मतभिन्नता के लिये भाजपा शासन में केंद्र से लेकर राज्यों तक कहीं कोई स्थान नहीं बचा है। भिन्न मत रखने वाले को व्यक्तिगत दुश्मन मानकर उसे हर तरह से कुचलने का प्रयास किया जाता है। अभी मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक और प्रधानमंत्री का किसानों की मौतों को लेकर जो संवाद सामने आया है उसमें 500 किसानों की मौत पर यह कहना कि यह लोग मेरे लिये या मेरे कारण नहीं मरे हैं। प्रधानमंत्री की संवेदनशीलता का इससे बड़ा नकारात्मक पक्ष और कुछ नहीं हो सकता है। सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने से पहले ही जिस तरह से पंजाब सरकार को दोषी ठहराने का प्रयास किया जा रहा है उससे पुराने सारे प्रकरण अनचाहे की तुलना में आ गये हैं। आज जनता को किसी भी ऐसे प्रयास से गुमराह नहीं किया जा सकता। क्योंकि बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी ने हर आदमी को यह सोचने पर विवश कर दिया है कि यह सरकार केवल कुछ बड़े पूंजीपतियों के हित की ही रक्षा कर रही है। आम आदमी को मंदिर मस्जिद और हिंदू मुस्लिम के नाम पर ही उलझाये रखना चाहती है।