Wednesday, 17 December 2025
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क्या अब बनेगा भ्रष्टाचार केंद्रीय मुद्दा

जयराम सरकार को प्रदेश में घटे पुलिस भर्ती पेपर लीक मामले की जांच अन्ततः सी बी आई को देनी पड़ी है। क्योंकि अब तक 73 लोगों की गिरफ्तारी करीब आठ लाख की रिकवरी और वाराणसी तथा बिहार के दलालों का पकड़ा जाना ऐसे बिंदु रहे हैं जिनके परिदृश्य में प्रदेश की एसआईटी के लिये इस मामले की जांच कर पाना आसान नहीं रह गया था। फिर प्रदेश उच्च न्यायालय में इस आश्य की एक याचिका भी दायर हो चुकी थी। इसलिए गुड़िया मामले की तर्ज पर उच्च न्यायालय के निर्देश आने से पहले ही सरकार को ऐसा फैसला लेना पड़ा है। सी बी आई जांच कब पूरी होती है और उसमें क्या सामने आता है तथा अदालत का उस पर क्या फैसला आता है इसका पता आने वाले दिनों में लगेगा। सरकार यह जांच सी बी आई को देकर अपनी निष्पक्षता का प्रचार कर रही है तो विपक्ष इसे अपने दबाव की जीत बता रहा है। सरकार और विपक्ष के इन दावों में कोई हारा है तो वह है आम आदमी। यह सही है कि इस मामले ने भ्रष्टाचार को चुनावों में केंद्रीय मुद्दा बनाये जाने के स्पष्ट संकेत दे दिये हैं। क्योंकि इस मामले ने जयराम के कार्यालय में घटे हर मुद्दे की ओर ध्यान आकर्षित कर लिया है। प्रदेश में अब तक पेपर लीक के पांच प्रकरण घट चुके हैं। पुलिस में ही जो 2019 के प्रकरण में संलिप्त पाये गये थे उनकी अब भी सक्रिय भूमिका सामने आ गयी है। शिक्षा विभाग में किस तरह से पेपर लीक को प्रश्न पत्रों का जल जाना कहा गया यह जांच में सामने आ गया है। कॉलेज प्रवक्ताओं कि 2017 से कोई भर्ती नहीं हुई है और अब उसके लिए जो पद भरने की अधिसूचना जारी की गयी है उसमें इस भर्ती के मानक प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा एच ए एस, एच पी एस, एच एफ एस आदि सेवाओं के लिये निर्धारित किये गये मानकों से अलग कर दिये गये हैं। जयराम सरकार इस दौरान जितने लोग विभिन्न विभागों में सेवानिवृत्त हुये हैं उतने पद भी नियमित रूप से भर नहीं पायी है। यह विधानसभा में पूछे गये प्रश्नांे और उनमें आये उत्तरों के आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है। पुलिस भर्ती प्रकरण में कांगड़ा के जिस व्यक्ति का नाम चर्चा में आ रहा है उसके संबंध शासन और प्रशासन के शीर्ष में बैठे किन लोगों से हैं यह सवाल आने वाले दिनों में उछलना तय है।
प्रदेश में घटा यह पेपर लीक मामला उस परिदृश्य में और भी संवेदनशील हो जाता है जब यह सामने आता है कि हिमाचल का नाम बेरोजगारी में देश के टॉप छः राज्यों में आ जाता है। यह उस प्रदेश की हालत है जिस पर देश में जनसंख्या के अनुपात में सिक्किम के बाद सबसे ज्यादा रोजगार देेने का आरोप लगा था। केंद्रीय वित्त आयोग ने उसका संज्ञान लेकर इसे कम करने के निर्देश दिये थे। इन निर्देशों पर फेयर लान्ज में प्रदेश के अधिकारियों की वित्त आयोग के साथ तीन दिन की बैठक हुई थी। जिसमें दो वर्ष से खाली चले आ रहे पदों को समाप्त करने का फैसला लिया था। विधानसभा में ऐसे फैसले के लिये कांग्रेस और भाजपा ने एक दूसरे की सरकारों को जिम्मेदार ठहराया था। आज प्रदेश की जो हालत हो गयी है उसमें शासन और प्रशासन के शीर्ष पर बैठे लोगों को पूर्व में घटे इस सब का स्मरण रखना चाहिये था। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया और प्रदेश कर्ज तथा बेरोजगारी के मुकाम पर पहुंच गया। प्रदेश की जनता इस सब का कैसे और क्या संज्ञान लेगी यह आने वाला वक्त बतायेगा।
इस समय यह सवाल इसलिये अहम हो जाते हैं कि प्रदेश में इसी वर्ष विधानसभा के लिये चुनाव होने हैं और नई सरकार बनेगी। भाजपा सत्ता में वापसी करने के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार होगी। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने यह स्पष्ट कर दिया है कि प्रदेश का अगला चुनाव जयराम के नेतृत्व में लड़ा जायेगा। क्योंकि भाजपा पुष्कर सिंह धामी और जयराम जैसे युवाओं को भविष्य के नेतृत्व का प्रयोग कर रही है। धामी को हार के बाद भी नेता बना देना और धूमल की हार के कारणों की जांच से साफ इंकार कर देना इसके स्पष्ट प्रमाण है। जयराम पांचवी बार के विधायक हैं और उनके परिवार से कोई राजनीति में नहीं है। इससे यह माना गया था कि उनके कामकाज में व्यक्तिगत हित कभी प्रभावी नहीं रहेंगे। उनके अपने परिवार के किसी सदस्य का राजनीतिक दखल कभी चर्चा में नहीं आया है। लेकिन इसके बावजूद उनके कार्याकाल में प्रदेश का बहुत अहित हुआ है। जो आज चुनावी वर्ष में पेपर लीक प्रकरण से भाजपा और जयराम दोनों को सवालों के कटघरे में खड़ा कर देता है। यह सवाल जवाब मांगेंगे कि प्रदेश का यह कर्ज कहां निवेशित हुआ? मुख्यमंत्री बनने के बाद चंडीगढ़ में आयोजित पत्रकार वार्ता में हिमाचल के 7.19% शेयर के फैसले पर अमल करवाने के दावों का क्या हुआ। इन्वेस्टर मीट के दावों और कई मामलों में श्रेष्ठता के प्रमाण पत्रों के बाद अब कठिन जन योजनाओं के प्रचार के लिये दिल्ली में मीडिया सेंटर स्थापित और प्रचार एजेंसी की सेवायें लेने की व्यवस्था क्यों आयी? क्या नेतृत्व के ऐसे प्रयोग प्रदेश के आम आदमी की कीमत पर किये जायेंगे? शीर्ष प्रशासन के खिलाफ कोई भी कदम न उठा पाने की व्यवस्था क्यों है? निश्चित है कि आने वाले दिनों में भाजपा संघ जयराम और उनके सलाहकारों से यह सवाल पूछे ही जायेंगे। ऐसे में नेतृत्व के ऐसे प्रयोगों से प्रदेश की जनता कितनी देर और भ्रमित रह पायेगी यह देखना दिलचस्प होगा।

चिंतन के बाद कांग्रेस से अपेक्षाएं

बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी के साथ ब्याज दरों तथा ई एम आई का बढ़ना और शेयर बाजार से विदेशी निवेशकों का पलायन कुछ ऐसे संकेत है जिनसे यह लगने लगा है कि कहीं भारत के हालात भी पड़ोसी देश श्रीलंका जैसे तो नहीं होने जा रहे हैं। क्योंकि इस सब के कारण विदेशी मुद्रा भंडार का संतुलन भी बिगड़ गया है। अर्थ शासन के सारे विकल्प गड़बड़ा चुके हैं। आने वाले दिनों में कारपोरेट सैक्टर को या तो 15 से 20% तक नौकरियों में या वेतन में कटौती करनी पड़ेगी। यह वह हालात है जिनमें से देश की बहुसंख्या को गुजरना ही पड़ेगा। चाहे वह सरकार की नीतियों के जितने भी समर्थक रहे हों। देश इस दिशा में क्यों पहुंचा है इस पर कभी खुली बहस नहीं हो पायी है। बैंकों का एनपीए क्यों बढ़ता गया? कर्जदार कर्ज लेकर देश से बाहर कैसे चले गये? कंपनियों को दिवालिया होने की सुविधा देते हुये उनके संचालकों को व्यक्तिगत जिम्मेदारियों से क्यों मुक्त रखा गया? बैंकों का कितना एनपीए राइट ऑफ करके उस घाटे को आम आदमी के जमा पर ब्याज दरें घटाकर पूरा करने का प्रयास किया गया। कैसे जीरो बैलेंस के खातों में न्यूनतम निवेश की शर्त डाली गयी? नोटबंदी से जब उद्योग प्रभावित हुये तब उनको उबारने के लिये कर्ज की शक्ल में आर्थिक पैकेज देने के बावजूद वह संकट से बाहर क्यों नहीं आ पाये? कोरोना में आये लॉकडाउन से उत्पादन को प्रभावित होने से क्यों नहीं बचाया जा सका? जब यह सब घट रहा था तब देश में हिंदू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद, गाय, लव जिहाद, तीन तलाक और धारा 370 जैसे मुद्दों पर जनता को व्यस्त रखा गया। अधिकांश मीडिया भी सरकार की अंधभक्ति में व्यस्त हो गया। असहमति जताने वाले हर स्वर को दबाने कुचलने के लिये देशद्रोह झेलने का डर दिखाया गया। हर चुनाव में ईवीएम पर खड़े सवालों को आज तक नजरअंदाज किया गया। चुनावी रणनीतिकार राजनीतिक दलों को चुनाव जीतने के सूत्र तो सुझाते रहे लेकिन समाज इस संकट से कैसे बाहर निकले यह आज तक उनके लिये मुद्दा नहीं बन पाया है। जबकि राजनीतिक दलों के लिये यह पहला मुद्दा होना चाहिये था। क्योंकि राजनीतिक दलों की ही यह पहली जिम्मेदारी है। जब राजनीतिक दल यह जिम्मेदारी निभाने में असफल हो जायेंगे तब यहां भी श्रीलंका की तरह जनता सड़कों पर उतरने को विवश हो जायेगी। यह याद रखना होगा कि श्रीलंका में 2017 में धार्मिक और दूसरे अल्पसंख्यकों के खिलाफ प्रताड़ना का चलन शुरू हुआ था। जो आज जनक्रांति बनकर सामने आया है। इस समय यह चर्चा उठाना इसलिये आवश्यक है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अभी तीन दिन का चिंतन मन्यन करके लौटी है। इस चिंतन में अल्पसंख्यकों को लेकर चिंता व्यक्त की गयी है। उनमें विश्वास जगाने के लिए कुछ क्रियात्मक कदम उठाने की बात की गई है इसी के साथ कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्षा ने कांग्रेसजनों से कुछ त्याग करने की मांग भी की है। यह कहा गया कि पार्टी ने उन्हें जो कुछ दिया है उसे अब लौटाने की आवश्यकता है। यह स्वीकारा गया है कि इस समय देश असाधारण परिस्थितियों से गुजर रहा है जिनमें कठिन फैसले लेने आवश्यक होंगे। त्याग की मांग पर कितने नेता अमल कर पाते हैं और कितने इसी के कारण पार्टी से बाहर भी चले जाते हैं यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन आज जो मुख्य मुद्दा है वह बढ़ते आर्थिक असंतुलन का है जिसमें कुछ लोगों की संपत्ति तो इस संकट काल में भी कई गुना बढ़ गयी है और अधिकांश साधनहीन होता जा रहा है। आम आदमी के पेट के लिये जब व्यवस्था संकट खड़ा कर देती है तब वह व्यवस्था की नीयत और नीति के जागरूक होने का प्रयास करता है। आज व्यवस्था की नीयत और नीति के हर पहलु पर आम आदमी को जानकार तथा जागरूक करने की आवश्यकता है। 2014 में जिस भ्रष्टाचार का सरकार को पर्याय प्रचारित कर सत्ता परिवर्तन हुआ था उस पर आज क्या स्थिति है यह सवाल पूछने का साहस हर आदमी में जगाने की आवश्यकता है। आज सत्तारूढ़ दल के वैचारिक आधारों पर बहस उठाने की जरूरत है। यह समझाने की आवश्यकता है कि चयन के स्थान पर मनोनयन परिवारवाद से ज्यादा घातक होता है। यह धारणा हिलानी होगी कि केवल संभ्रान्त को ही शासन का अधिकार है। प्राकृतिक संसाधनों की स्वायत्तता के खतरों पर खुली बहस आयोजित करने की जरूरत है। क्योंकि सत्तारूढ़ दल के लिये संघ स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद इन धारणाओं के लिये वैचारिक धरातल तैयार करने में लगा रहा है। जिसके परिणाम इस तरह से सामने आ रहे हैं। आज हर राजनीतिक दल के लिये इन बिंदुओं पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। इसके लिये कांग्रेस की जिम्मेदारी सबसे बड़ी हो जाती है।

जब डूबेगी कश्ती तो डूबेगें सारे न तुम ही बचोगे न साथी तुम्हारे

भारत में प्रेस की स्वतंत्रता का लगातार हनन हो रहा है। विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत 180 देशों की सूची में इस वर्ष 150वेें स्थान पर आ गया है। पिछले वर्ष 142 वें स्थान पर था। एक वर्ष में आठ स्थान पर नीचे आ गया है। यह उस समय हो रहा है जब देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था है। लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार के हाथ में शासन व्यवस्था है संविधान के में व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के साथ प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ पिलर माना गया है। संविधान में प्रेस को बाकी तीनों से अलग रखा गया है। इस पर इसमें से किसी का भी सीधा हस्तक्षेप नहीं है। यह इसलिए है ताकि प्रेस समाज के प्रति जवाबदेह हर व्यक्ति से सीधा सवाल कर सके। पूछे हुये सवाल और उसके जवाब तथा उससे जुड़ी जमीनी सच्चाई को पूरी बेबाकी से जनता के सामने रखना प्रेस का कर्म और धर्म दोनों है। प्रेस जनता और शासन व्यवस्था के बीच एक माध्यम एक मीडिया की भूमिका अदा करता है। जब कोई व्यक्ति अदालत तक पहुंचने में भी असमर्थ हो जाता है तब वह अपनी फरियाद लेकर मीडिया के पास आता है ताकि उसकी बात जनता की अदालत तक पहुंच जाये। लोकलाज के चाबुक से शासन और प्रशासन दोनों सजग हो जायें शायद इसलिये जनता को एक बड़ी अदालत की संज्ञा दी गई है। इसी के लिए तो यह कहा गया है ‘‘कि गर तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो’’
लेकिन आज जो हालात हर दिन बनते जा रहे हैं उसमें लोकतंत्र के हर पिलर की भूमिका प्रश्नित होती जा रही है। बल्कि कार्यपालिका और व्यवस्था के गठजोड़ के साथ ही इसमें अब न्यायपालिका के भी शामिल होने की चर्चाएं सामने आने लग गयी हैं। यह स्थिति और भी घातक होने जा रही है। क्योंकि जब न्यायपालिका के बीच से ही यह फैसले आने शुरू हो जायें कि अब देश को धर्मनिरपेक्षता छोड़कर धार्मिक देश हो जाना चाहिये तब क्या इसे गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिये। मेघालय उच्च न्यायालय के जस्टिस सेन के फैसले पर सर्वाेच्च न्यायालय से लेकर संसद में सरकार की चुप्पी तक क्या सब कुछ सवालों में नहीं आ जाता है। यदि आज सविधान में कुछ बदलाव करने की आवश्यकता सरकार और सत्तारूढ़ दल को लग रही है तो उस पर सीधे सार्वजनिक बहस क्यों नहीं उठाई जा सकती। इस बदलाव को एक चुनाव का ही मुद्दा बनाने का साहस सरकार क्यों नहीं दिखा पा रही है। चुनावी मुद्दा बनाकर इस पर जनता का जो भी फैसला आये उसे स्वीकार कर लिया जाये। यह शायद इसलिये नहीं किया जा रहा है कि देश की जनता इसके लिए कतई तैयार नहीं है। क्योंकि जनता ने धर्म का वह रूप भोगा है जहां एक व्यक्ति के छूने मात्र से ही दूसरे का धर्म नष्ट हो जाता था।
लेकिन आज फिर उसी व्यवस्था को लाने की बिसात बिछाई जा रही है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद एक वार्षिक अधिवेशन में 22 वर्ष पूर्व तीन संदनीय संसद के गठन का प्रस्ताव पारित कर चुकी है। इस प्रस्ताव पर भाजपा नेता डॉ. स्वामी का फ्रंट लाइन में विस्तृत लेख छप चुका है। जिस पर आज तक किसी ओर से कोई प्रतिक्रिया तक नहीं आयी है क्यों? लेकिन इस पर अमल करने के लिए दूसरे धर्मों को कमजोर और हीन दिखाने के एजेंडा पर अमल शुरू कर दिया गया है। इस पर किसी का ध्यान न जाये इसके लिये आम आदमी को आर्थिक सवालों में उलझा दिया गया है। महंगाई और बेरोजगारी लगातार इसलिये बढ़ रही है क्योंकि आय और रोजगार के सारे साधनों को एक-एक करके प्राइवेट सैक्टर को सौंपा जा रहा है। पवन हंस और एलआईसी इसके ताजा उदाहरण है। आज आर्थिकी और धार्मिकता पर जब भी मीडिया में किसी ने भी कोई सवाल पूछने का साहस किया है तो उस पर देशद्रोह तक के मामले बना दिए गये हैं। कई लोगों की नौकरियां चली गई है। सवाल पूछते वालों के विज्ञापन तक बंद करके और मुकद्दमे बना दिये गये हैं। भाजपा शासित हर राज्य इस नीति पर चल रहा है। हिमाचल की जयराम सरकार तक इन हथकंडो पर आ चुकी है। शैल इसमें भुक्तभोगी है। लेकिन आज यह असहमति मीडिया से चलकर राजनेताओं तक पहुंच गयी है। जिग्नेश मेवाणी प्रकरण इसका ताजा उदाहरण है। पेपर लीक की खबर छापने वाले पत्रकार को एक विधायक के इशारे पर गिरफ्तार करने तक का जब हालात पहुंच जायें तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्थितियां कहां तक पहुंच चुकी हैं। अब दर्द का हद से गुजरना दवा होने के मुकाम तक पहुंच चुका है। ऐसे में अब यही कहना शेष है कि
‘‘जब डूबेगी कश्ती तो डूबेगें सारे
न तुम ही बचोगे न साथी तुम्हारे’’

क्या महंगाई और बेरोजगारी प्राथमिकताएं नहीं है

अभी कमर्शियल रसोई गैस के दामों में फिर बढ़ौतरी हुई है। इसका असर पूरे बाजार पर पड़ेगा। इस महंगाई के साथ ही बेरोजगारी बढ़ रही है। अभी मार्च में आयी सी एम आई ई की रिपोर्ट से यह सामने आ चुका है। वह सारे सार्वजनिक प्रतिष्ठान विनिवेश के नाम पर निजी क्षेत्र के हवाले हो चुके हैं। जिनमें रोजगार के अवसर बढ़ने भी थे और भरे भी जाने थे। अब स्थिति यह हो गयी है कि सेना में भी कुछ अरसे से भर्ती बंद है। सेना में इस समय शायद एक लाख बाईस हजार से ज्यादा पद रिक्त चल रहे हैं लेकिन इसके बावजूद भर्ती नहीं हो रही है। जबकि सैनिक स्कूल प्राइवेट सैक्टर को भी दे रखे हैं और उसमें आर एस एस का नाम प्रमुख है। बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी पर सरकार का ध्यान जाना शायद प्राथमिकता नहीं रह गया है। लेकिन इसी के साथ जब हिंसा और कोरोना का भी बढ़ना शुरू हो जाये तो सारे परिदृश्य को एक साथ जोड़ कर देखने से जो तस्वीर उभरती है वह किसी के लिए भी भयावह हो सकती है। जातीय और धार्मिक आधारों पर उभरी हिंसा जब एक वैचारिकता का चोला ओढ़ लेती है तब उस पर नियंत्रण कर पाना असंभव हो जाता है।
इस बार रामनवमी और हनुमान जयंती के अवसरों पर उभरी हिंसा जिस तरह से जहांगीरपुरी से अलवर तक ट्रैवल कर गयी वह अपने में बहुत कुछ संदेश दे जाती है। क्योंकि इन दोनों घटनाओं में व्यवहारिक रूप से कोई संबंध नहीं था फिर एक न्यूज़ चैनल न्यूज़ 18 ने इसमें संबंध जोड़ा वह एक गंभीर सवाल बन जाता है। इसी तर्ज पर अयोध्या में भी कुछ नियोजित किया जा रहा था जिसे पुलिस ने समय रहते गिरफ्तारियां करके रोक लिया। इस हिंसा पर नियंत्रण पाने के लिये जिस तरह से बुलडोजर चलाने का प्रयास किया गया उससे एक अलग ही तस्वीर उभरती है। सर्वाेच्च न्यायालय ने जब इस बुलडोजर न्याय पर सवाल उठाते हुए रोक लगाई तब से सोशल मीडिया के कुछ मंचों पर सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ जिस तरह की बहस छेड़ दी गयी है वह अपने में बहुत घातक प्रमाणित होगी। क्योंकि इस बहस में नियम कानून और संविधान की जगह बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक का तर्क बढ़ाया जा रहा है। देश के संविधान के स्थान पर बहुसंख्यक की मान्यताओं को अधिमान देने का प्रयास किया जा रहा है।
इस बहस में जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट को निशाने पर लिया जा रहा है उसमें यहां तक कहा गया कि ‘‘यह सुप्रीम कोर्ट है या अराजकता फैलाने और भारतवर्ष का इस्लामीकरण करने का एक जरिया’’ हिमाचल हैवन साइट पर एक ओंकार सिंह की यह पोस्ट अपने में जो कुछ कह जाती है उससे यह संकेत उभरते हैं कि संविधान के वर्तमान स्वरूप में एक जबरदस्त बदलाव का माहौल तैयार किया जा रहा है। इस पोस्ट से दिसंबर 2018 में मेघालय उच्च न्यायालय के न्यायाधीश संदीप रंजन सेन के ‘‘हिंदू राष्ट्र’’ के फैसले की याद ताजा हो जाती है। इसी फैसले के बाद संघ प्रमुख डॉ. भागवत के नाम से ‘‘भारत का नया संविधान’’ के कुछ अंश वायरल होकर बाहर आये थे। इस कथित संविधान के वायरल हुये मसौदे पर न तो भारत सरकार और न ही संघ मुख्यालय से कोई प्रतिक्रियाएं नही आयी हैं। फिर अभी हरिद्वार में जब संघ प्रमुख ने देश को पन्द्रह वर्षों में अखण्ड भारत बनाने का संकल्प लिया और स्पष्ट कहा कि इसमें आने वाली हर बाधा को नष्ट कर दिया जायेगा तो बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है। इसी संकल्प की घोषणा के बाद राम नवमी और हनुमान जयंती के अवसरों पर संयोगवश हिंसक वातावरण देखने को मिला है। पंजाब के पटियाला में भी शिव सैनिकों और कथित खालिस्तान समर्थकों में झगड़ा इसी के बाद सामने आया है।
इस कथित धार्मिक उन्माद में प्रशासन की भूमिका तटस्थता की होती जा रही है। जिसका अर्थ है कि इन तत्वों को अपरोक्ष में राजनीतिक संरक्षण हासिल है। राजनीतिक दल इस पर चुप्पी साधे बैठे हैं। जनता को इस हिंसा के साथ ही फिर से कोरोना के प्रकोप का भय दिखाया जाने लगा है। इसी भय और चुप्पी के कारण महंगाई और बेरोजगारी जैसे आर्थिक सवाल गौण होते जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट सार्वजनिक हित केे आये मामलों को प्राथमिकता के आधार पर निपटा नहीं रहा है। जबकि ईवीएम, राफेल और पेगासैस जैसे संवेदनशील मामलों को तुरंत निपटाने की आवश्यकता है। इस सारे परिदृश्य को एक साथ रख कर देखने से यह आवश्यक हो जाता है कि इस पर सार्वजनिक बहस शुरू की जाये।

कांग्रेस का प्रशांत प्रयोग

पांच राज्यों में मिली चुनावी हार ने कांग्रेस को पेशेवर चुनावी रणनीतिकार की सेवायें लेने के मुकाम पर पहुंचा दिया है। अब साथ ही यह सवाल भी उठने लग पड़ा है कि यदि प्रशांत प्रयोग भी सत्ता में वापसी न करवा पाया तो कांग्रेस कहां जायेगी? कांग्रेस देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी है जिसका देश के निर्माण में एक निश्चित योगदान रहा है। आजादी के वक्त सैकड़ों रियासतों में बंटे देश में केंद्रीय लोकतांत्रिक सत्ता की स्थापना कर पाना कोई आसान काम नहीं था। क्योंकि आज जिस तरह से सार्वजनिक संसाधनों को विनिवेश के नाम पर प्राइवेट सैक्टर को सौंपा जा रहा है यदि यही सब कुछ पहले आम चुनाव के साथ ही कर दिया जाता तो शायद यह देश कुछ अमीर लोगों की व्यक्तिगत संपत्ति बनकर ही रह जाता। उस समय की सरकार के सामने कृषि बैंकिंग और राजाओं के प्रीविपर्सों की नीतियों में बदलाव करना प्राथमिकता थी। इस दायित्व को इन्होंने सफलतापूर्वक अंजाम दिया। लेकिन उस समय भी इन बदलावों का विरोध हुआ और उसमें सी राजगोपालाचार्य, चौधरी चरण सिंह, मीनू मसानी, के एफ रुस्तम जी और प्रो.बलराज मधोक जैसे नाम प्रमुखता से सामने आते हैं। यह जिक्र इसलिये आवश्यक हो जाता है क्योंकि आज निजीकरण सबसे बड़ा आर्थिक सवाल बन चुका है।
इस परिदृश्य में यदि आकलन किया जाये तो कांग्रेस के सारी वस्तुस्थिति को मुख्य रूप से नेहरू तक का कार्यकाल उसके बाद 1977 तक का और फिर 1977 से आज तक का यह एक व्यवहारिक सच है कि कांग्रेस नेतृत्व नेहरू परिवार की परिधि से आज तक बाहर नहीं निकल पाया है। इसका कारण यह रहा है कि देश के सबसे धनी परिवार ने देश की आर्थिक स्थिति को संभालने के लिये अपना सब कुछ राष्ट्र को दे दिया और यह देना ही परिवार को कांग्रेस का केंद्र बना गया। जबकि नेहरू के कार्यकाल में भी संगठन में कामराज प्लान जैसी योजनायें आयी। इंदिरा गांधी को पार्टी में स्थापित होने के लिये कांग्रेस में दो बार विघटन की स्थितियों का सामना करना पड़ा। जिस तरह से इंदिरा गांधी को स्थापित होने के लिए संघर्ष करना पड़ा वही स्थिति राजीव गांधी के लिए भी बनी थी और आज सोनिया, राहुल और प्रियंका के लिये भी वैसी ही स्थितियां निर्मित होती जा रही है। क्योंकि आर्थिक सोच को लेकर ही टकराव देश की राजनीति का एक स्थायी चरित्र बन चुका है। आज इस आर्थिक अवधारणा के टकराव को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आवरण से ढकने का प्रयास किया जा रहा है। तेतीस करोड़ देवी देवताओं की अवधारणा वाले देश को धर्म के गिर्द केंद्रित करने का प्रयास किया जा रहा है।
इस व्यवहारिक वस्तुस्थिति को यदि और गंभीरता से समझा जाये तो यही सामने आता है कि हर बार सत्ता परिवर्तन नेहरू काल से लेकर आज मोदी काल तक भ्रष्टाचार के नाम पर ही होता रहा है। लेकिन भ्रष्टाचार के एक भी बड़े आरोप को प्रमाणित नहीं किया जा सका है। 2014 में भी इसी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सत्ता परिवर्तन हुआ लेकिन आज तक इसका कोई परिणाम सामने नहीं आया है। जबकि आज इसका आकार और प्रकार दोनों ही कई गुना बढ़ चुके हैं। इस बढ़ौतरी को कोई भी मुद्दा नहीं बना पा रहा है। जबकि महंगाई और बेरोजगारी दोनों इसी के परिणाम हैं। सत्ता में बने रहने के लिये चुनाव लगातार महंगे होते जा रहे हैं। इसमें हर छोटे-बड़े चुनाव से पहले धार्मिक और जातीय हिंसा एक बड़ा हथियार बनती जा रही है। हर चुनाव में ईवीएम पर गंभीर से गंभीर सवाल उठते जा रहे हैं। आम आदमी ईवीएम को संदेश से देख रहा है। लेकिन राजनीतिक दल अभी तक इस पर स्पष्ट नहीं हो रहे हैं। ऐसे में सत्तारूढ़ दल से सत्ता छीनने में जनता के सवाल लेकर जनता में जाना पड़ेगा। भ्रष्टाचार को लेकर अपने ही संगठन से शुरुआत करनी होगी।
इस परिदृश्य में यह सवाल रोचक होगा कि प्रशांत किशोर भाजपा के प्रचार तंत्र का मुकाबला करने के लिये किस तरह की नीति पर चलने का सुझाव देते हैं। वह अपने ही सूत्रों के दम पर क्या कांग्रेस का उम्मीदवार बन कर चुनाव लड़ने का साहस दिखायेंगे? क्या पी के सही में सत्ता परिवर्तन चाहते हैं? क्या वह एक राजनीतिक चिंतक होने के नाते कांग्रेस को सहयोग कर रहे हैं? आज सरकार की आर्थिक नीतियां सबसे बड़ा मुद्दा बनी हुई हैं। ऐसे में किसी भी दल को सहयोग देने से पहले यह स्पष्ट करना होगा कि उनकी अपनी आर्थिक सोच क्या है? अन्यथा किसी भी पेशेवर की सलाह पर अमल करना सार्थक परिणाम ही देगा यह तय नहीं माना जा सकता।

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