जयराम सरकार को प्रदेश में घटे पुलिस भर्ती पेपर लीक मामले की जांच अन्ततः सी बी आई को देनी पड़ी है। क्योंकि अब तक 73 लोगों की गिरफ्तारी करीब आठ लाख की रिकवरी और वाराणसी तथा बिहार के दलालों का पकड़ा जाना ऐसे बिंदु रहे हैं जिनके परिदृश्य में प्रदेश की एसआईटी के लिये इस मामले की जांच कर पाना आसान नहीं रह गया था। फिर प्रदेश उच्च न्यायालय में इस आश्य की एक याचिका भी दायर हो चुकी थी। इसलिए गुड़िया मामले की तर्ज पर उच्च न्यायालय के निर्देश आने से पहले ही सरकार को ऐसा फैसला लेना पड़ा है। सी बी आई जांच कब पूरी होती है और उसमें क्या सामने आता है तथा अदालत का उस पर क्या फैसला आता है इसका पता आने वाले दिनों में लगेगा। सरकार यह जांच सी बी आई को देकर अपनी निष्पक्षता का प्रचार कर रही है तो विपक्ष इसे अपने दबाव की जीत बता रहा है। सरकार और विपक्ष के इन दावों में कोई हारा है तो वह है आम आदमी। यह सही है कि इस मामले ने भ्रष्टाचार को चुनावों में केंद्रीय मुद्दा बनाये जाने के स्पष्ट संकेत दे दिये हैं। क्योंकि इस मामले ने जयराम के कार्यालय में घटे हर मुद्दे की ओर ध्यान आकर्षित कर लिया है। प्रदेश में अब तक पेपर लीक के पांच प्रकरण घट चुके हैं। पुलिस में ही जो 2019 के प्रकरण में संलिप्त पाये गये थे उनकी अब भी सक्रिय भूमिका सामने आ गयी है। शिक्षा विभाग में किस तरह से पेपर लीक को प्रश्न पत्रों का जल जाना कहा गया यह जांच में सामने आ गया है। कॉलेज प्रवक्ताओं कि 2017 से कोई भर्ती नहीं हुई है और अब उसके लिए जो पद भरने की अधिसूचना जारी की गयी है उसमें इस भर्ती के मानक प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा एच ए एस, एच पी एस, एच एफ एस आदि सेवाओं के लिये निर्धारित किये गये मानकों से अलग कर दिये गये हैं। जयराम सरकार इस दौरान जितने लोग विभिन्न विभागों में सेवानिवृत्त हुये हैं उतने पद भी नियमित रूप से भर नहीं पायी है। यह विधानसभा में पूछे गये प्रश्नांे और उनमें आये उत्तरों के आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है। पुलिस भर्ती प्रकरण में कांगड़ा के जिस व्यक्ति का नाम चर्चा में आ रहा है उसके संबंध शासन और प्रशासन के शीर्ष में बैठे किन लोगों से हैं यह सवाल आने वाले दिनों में उछलना तय है। 






लेकिन आज जो हालात हर दिन बनते जा रहे हैं उसमें लोकतंत्र के हर पिलर की भूमिका प्रश्नित होती जा रही है। बल्कि कार्यपालिका और व्यवस्था के गठजोड़ के साथ ही इसमें अब न्यायपालिका के भी शामिल होने की चर्चाएं सामने आने लग गयी हैं। यह स्थिति और भी घातक होने जा रही है। क्योंकि जब न्यायपालिका के बीच से ही यह फैसले आने शुरू हो जायें कि अब देश को धर्मनिरपेक्षता छोड़कर धार्मिक देश हो जाना चाहिये तब क्या इसे गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिये। मेघालय उच्च न्यायालय के जस्टिस सेन के फैसले पर सर्वाेच्च न्यायालय से लेकर संसद में सरकार की चुप्पी तक क्या सब कुछ सवालों में नहीं आ जाता है। यदि आज सविधान में कुछ बदलाव करने की आवश्यकता सरकार और सत्तारूढ़ दल को लग रही है तो उस पर सीधे सार्वजनिक बहस क्यों नहीं उठाई जा सकती। इस बदलाव को एक चुनाव का ही मुद्दा बनाने का साहस सरकार क्यों नहीं दिखा पा रही है। चुनावी मुद्दा बनाकर इस पर जनता का जो भी फैसला आये उसे स्वीकार कर लिया जाये। यह शायद इसलिये नहीं किया जा रहा है कि देश की जनता इसके लिए कतई तैयार नहीं है। क्योंकि जनता ने धर्म का वह रूप भोगा है जहां एक व्यक्ति के छूने मात्र से ही दूसरे का धर्म नष्ट हो जाता था।
लेकिन आज फिर उसी व्यवस्था को लाने की बिसात बिछाई जा रही है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद एक वार्षिक अधिवेशन में 22 वर्ष पूर्व तीन संदनीय संसद के गठन का प्रस्ताव पारित कर चुकी है। इस प्रस्ताव पर भाजपा नेता डॉ. स्वामी का फ्रंट लाइन में विस्तृत लेख छप चुका है। जिस पर आज तक किसी ओर से कोई प्रतिक्रिया तक नहीं आयी है क्यों? लेकिन इस पर अमल करने के लिए दूसरे धर्मों को कमजोर और हीन दिखाने के एजेंडा पर अमल शुरू कर दिया गया है। इस पर किसी का ध्यान न जाये इसके लिये आम आदमी को आर्थिक सवालों में उलझा दिया गया है। महंगाई और बेरोजगारी लगातार इसलिये बढ़ रही है क्योंकि आय और रोजगार के सारे साधनों को एक-एक करके प्राइवेट सैक्टर को सौंपा जा रहा है। पवन हंस और एलआईसी इसके ताजा उदाहरण है। आज आर्थिकी और धार्मिकता पर जब भी मीडिया में किसी ने भी कोई सवाल पूछने का साहस किया है तो उस पर देशद्रोह तक के मामले बना दिए गये हैं। कई लोगों की नौकरियां चली गई है। सवाल पूछते वालों के विज्ञापन तक बंद करके और मुकद्दमे बना दिये गये हैं। भाजपा शासित हर राज्य इस नीति पर चल रहा है। हिमाचल की जयराम सरकार तक इन हथकंडो पर आ चुकी है। शैल इसमें भुक्तभोगी है। लेकिन आज यह असहमति मीडिया से चलकर राजनेताओं तक पहुंच गयी है। जिग्नेश मेवाणी प्रकरण इसका ताजा उदाहरण है। पेपर लीक की खबर छापने वाले पत्रकार को एक विधायक के इशारे पर गिरफ्तार करने तक का जब हालात पहुंच जायें तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्थितियां कहां तक पहुंच चुकी हैं। अब दर्द का हद से गुजरना दवा होने के मुकाम तक पहुंच चुका है। ऐसे में अब यही कहना शेष है कि
‘‘जब डूबेगी कश्ती तो डूबेगें सारे
न तुम ही बचोगे न साथी तुम्हारे’’





इस बार रामनवमी और हनुमान जयंती के अवसरों पर उभरी हिंसा जिस तरह से जहांगीरपुरी से अलवर तक ट्रैवल कर गयी वह अपने में बहुत कुछ संदेश दे जाती है। क्योंकि इन दोनों घटनाओं में व्यवहारिक रूप से कोई संबंध नहीं था फिर एक न्यूज़ चैनल न्यूज़ 18 ने इसमें संबंध जोड़ा वह एक गंभीर सवाल बन जाता है। इसी तर्ज पर अयोध्या में भी कुछ नियोजित किया जा रहा था जिसे पुलिस ने समय रहते गिरफ्तारियां करके रोक लिया। इस हिंसा पर नियंत्रण पाने के लिये जिस तरह से बुलडोजर चलाने का प्रयास किया गया उससे एक अलग ही तस्वीर उभरती है। सर्वाेच्च न्यायालय ने जब इस बुलडोजर न्याय पर सवाल उठाते हुए रोक लगाई तब से सोशल मीडिया के कुछ मंचों पर सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ जिस तरह की बहस छेड़ दी गयी है वह अपने में बहुत घातक प्रमाणित होगी। क्योंकि इस बहस में नियम कानून और संविधान की जगह बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक का तर्क बढ़ाया जा रहा है। देश के संविधान के स्थान पर बहुसंख्यक की मान्यताओं को अधिमान देने का प्रयास किया जा रहा है।
इस बहस में जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट को निशाने पर लिया जा रहा है उसमें यहां तक कहा गया कि ‘‘यह सुप्रीम कोर्ट है या अराजकता फैलाने और भारतवर्ष का इस्लामीकरण करने का एक जरिया’’ हिमाचल हैवन साइट पर एक ओंकार सिंह की यह पोस्ट अपने में जो कुछ कह जाती है उससे यह संकेत उभरते हैं कि संविधान के वर्तमान स्वरूप में एक जबरदस्त बदलाव का माहौल तैयार किया जा रहा है। इस पोस्ट से दिसंबर 2018 में मेघालय उच्च न्यायालय के न्यायाधीश संदीप रंजन सेन के ‘‘हिंदू राष्ट्र’’ के फैसले की याद ताजा हो जाती है। इसी फैसले के बाद संघ प्रमुख डॉ. भागवत के नाम से ‘‘भारत का नया संविधान’’ के कुछ अंश वायरल होकर बाहर आये थे। इस कथित संविधान के वायरल हुये मसौदे पर न तो भारत सरकार और न ही संघ मुख्यालय से कोई प्रतिक्रियाएं नही आयी हैं। फिर अभी हरिद्वार में जब संघ प्रमुख ने देश को पन्द्रह वर्षों में अखण्ड भारत बनाने का संकल्प लिया और स्पष्ट कहा कि इसमें आने वाली हर बाधा को नष्ट कर दिया जायेगा तो बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है। इसी संकल्प की घोषणा के बाद राम नवमी और हनुमान जयंती के अवसरों पर संयोगवश हिंसक वातावरण देखने को मिला है। पंजाब के पटियाला में भी शिव सैनिकों और कथित खालिस्तान समर्थकों में झगड़ा इसी के बाद सामने आया है।
इस कथित धार्मिक उन्माद में प्रशासन की भूमिका तटस्थता की होती जा रही है। जिसका अर्थ है कि इन तत्वों को अपरोक्ष में राजनीतिक संरक्षण हासिल है। राजनीतिक दल इस पर चुप्पी साधे बैठे हैं। जनता को इस हिंसा के साथ ही फिर से कोरोना के प्रकोप का भय दिखाया जाने लगा है। इसी भय और चुप्पी के कारण महंगाई और बेरोजगारी जैसे आर्थिक सवाल गौण होते जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट सार्वजनिक हित केे आये मामलों को प्राथमिकता के आधार पर निपटा नहीं रहा है। जबकि ईवीएम, राफेल और पेगासैस जैसे संवेदनशील मामलों को तुरंत निपटाने की आवश्यकता है। इस सारे परिदृश्य को एक साथ रख कर देखने से यह आवश्यक हो जाता है कि इस पर सार्वजनिक बहस शुरू की जाये।





इस परिदृश्य में यदि आकलन किया जाये तो कांग्रेस के सारी वस्तुस्थिति को मुख्य रूप से नेहरू तक का कार्यकाल उसके बाद 1977 तक का और फिर 1977 से आज तक का यह एक व्यवहारिक सच है कि कांग्रेस नेतृत्व नेहरू परिवार की परिधि से आज तक बाहर नहीं निकल पाया है। इसका कारण यह रहा है कि देश के सबसे धनी परिवार ने देश की आर्थिक स्थिति को संभालने के लिये अपना सब कुछ राष्ट्र को दे दिया और यह देना ही परिवार को कांग्रेस का केंद्र बना गया। जबकि नेहरू के कार्यकाल में भी संगठन में कामराज प्लान जैसी योजनायें आयी। इंदिरा गांधी को पार्टी में स्थापित होने के लिये कांग्रेस में दो बार विघटन की स्थितियों का सामना करना पड़ा। जिस तरह से इंदिरा गांधी को स्थापित होने के लिए संघर्ष करना पड़ा वही स्थिति राजीव गांधी के लिए भी बनी थी और आज सोनिया, राहुल और प्रियंका के लिये भी वैसी ही स्थितियां निर्मित होती जा रही है। क्योंकि आर्थिक सोच को लेकर ही टकराव देश की राजनीति का एक स्थायी चरित्र बन चुका है। आज इस आर्थिक अवधारणा के टकराव को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आवरण से ढकने का प्रयास किया जा रहा है। तेतीस करोड़ देवी देवताओं की अवधारणा वाले देश को धर्म के गिर्द केंद्रित करने का प्रयास किया जा रहा है।
इस व्यवहारिक वस्तुस्थिति को यदि और गंभीरता से समझा जाये तो यही सामने आता है कि हर बार सत्ता परिवर्तन नेहरू काल से लेकर आज मोदी काल तक भ्रष्टाचार के नाम पर ही होता रहा है। लेकिन भ्रष्टाचार के एक भी बड़े आरोप को प्रमाणित नहीं किया जा सका है। 2014 में भी इसी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सत्ता परिवर्तन हुआ लेकिन आज तक इसका कोई परिणाम सामने नहीं आया है। जबकि आज इसका आकार और प्रकार दोनों ही कई गुना बढ़ चुके हैं। इस बढ़ौतरी को कोई भी मुद्दा नहीं बना पा रहा है। जबकि महंगाई और बेरोजगारी दोनों इसी के परिणाम हैं। सत्ता में बने रहने के लिये चुनाव लगातार महंगे होते जा रहे हैं। इसमें हर छोटे-बड़े चुनाव से पहले धार्मिक और जातीय हिंसा एक बड़ा हथियार बनती जा रही है। हर चुनाव में ईवीएम पर गंभीर से गंभीर सवाल उठते जा रहे हैं। आम आदमी ईवीएम को संदेश से देख रहा है। लेकिन राजनीतिक दल अभी तक इस पर स्पष्ट नहीं हो रहे हैं। ऐसे में सत्तारूढ़ दल से सत्ता छीनने में जनता के सवाल लेकर जनता में जाना पड़ेगा। भ्रष्टाचार को लेकर अपने ही संगठन से शुरुआत करनी होगी।
इस परिदृश्य में यह सवाल रोचक होगा कि प्रशांत किशोर भाजपा के प्रचार तंत्र का मुकाबला करने के लिये किस तरह की नीति पर चलने का सुझाव देते हैं। वह अपने ही सूत्रों के दम पर क्या कांग्रेस का उम्मीदवार बन कर चुनाव लड़ने का साहस दिखायेंगे? क्या पी के सही में सत्ता परिवर्तन चाहते हैं? क्या वह एक राजनीतिक चिंतक होने के नाते कांग्रेस को सहयोग कर रहे हैं? आज सरकार की आर्थिक नीतियां सबसे बड़ा मुद्दा बनी हुई हैं। ऐसे में किसी भी दल को सहयोग देने से पहले यह स्पष्ट करना होगा कि उनकी अपनी आर्थिक सोच क्या है? अन्यथा किसी भी पेशेवर की सलाह पर अमल करना सार्थक परिणाम ही देगा यह तय नहीं माना जा सकता।