Wednesday, 17 December 2025
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चुनाव प्रक्रिया पर अब बहस जरूरी है

इस समय देश जिस दौर से गुजर रहा है उसमें यह सवाल हर रोज बड़ा होता जा रहा है की आंखिर ऐसा हो क्यों रहा है? यह सब कब तक चलता रहेगा? इससे बाहर निकलने का पहला कदम क्या हो सकता है? पिछले अंक में महंगाई के साथ उठते सवालों पर चर्चा उठाते हुये पाठकों से यह वायदा किया था कि अगले अंक में इस पर चर्चा करूंगा। अभी संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत का हरिद्वार से एक ब्यान आया है कि अगले पन्द्रह वर्षों में अखण्ड भारत का सपना पूरा हो जायेगा। एक तरह से इसके लिये समय सीमा तय कर दी गयी है। भाजपा संघ की राजनीतिक इकाई है यह सब जानते हैं। इस नाते संघ प्रमुख का यह ब्यान भाजपा सरकार के लिये अगले पन्द्रह वर्षों का एजेण्डा तय कर देता है। यह भी सभी जानते हैं कि अखझण्ड भारत की परिकल्पना में बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, मयनमार, श्रीलंका, पाकिस्तान और अफगानिस्तान सभी शामिल हैं। इस परिकल्पना और संघ प्रमुख के इस एजेण्डे का अर्थ क्या हो सकता है यह समझना मैं पाठकों पर छोड़ता हूं। इसमें उल्लेखनीय यह भी है कि डॉ. भागवत ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि इसमें जो भी व्यवधान पैदा करने का प्रयास करेगा वह नष्ट हो जायेगा। इस प्राथमिकता में देश की आर्थिकी, महंगाई और बेरोजगारी के लिये क्या स्थान है यह समझना भी अभी पाठकों पर छोड़ता हूं। क्योंकि सभी के भविष्य का प्रश्न है।
देश का एजेंडा संसद के माध्यम से सरकार तय करती है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद का चयन लोगों के वोट से होता है। इसके लिए हर पांच वर्ष बाद पंचायत से लेकर संसद तक सभी चुनाव की प्रक्रिया से गुजरते हैं। सांसदों से लेकर पंचायत प्रतिनिधियों तक सब को मानदेय दिया जा रहा है। हर सरकार के कार्यकाल में इस मानदेय में बढ़ौतरी हो रही है। लेकिन क्या जिस अनुपात में यह बढ़ौतरी होती है उसी अनुपात में आम आदमी के संसाधन भी बढ़ते हैं शायद नहीं। इन लोक सेवकों का यह मानदेय हर बार इसलिये बढ़ाया जाता है कि जिस चुनावी प्रक्रिया को पार करके यह लोग लोकसेवा तक पहुंचते हैं वह लगातार महंगी होती जा रही है। क्योंकि राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों पर किये जाने वाले खर्च की कोई सीमा ही तय नहीं है। आज जब चुनावी चंदे के लिये चुनावी बाण्डस का प्रावधान कर दिया गया है तब से सारी चुनावी प्रक्रिया कुछ लखपतियों के हाथ का खिलौना बन कर रह गयी है। इसी कारण से आज हर राजनीतिक दल से चुनावी टिकट पाने के लिये करोड़पति होना और साथ में कुछ आपराधिक मामलों का तगमा होना आवश्यक हो गया है। इसलिये तो चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन अभी तक भी अपराध की श्रेणी में नहीं रखा गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह दावा भी जुमला बनकर रह गया है कि संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करवाउंगा।
पिछले लंबे अरसे से हर चुनाव में ईवीएम को लेकर सवाल उठते आ रहे हैं। इन सवालों ने चुनाव आयोग की निष्पक्षता को शुन्य बनाकर रख दिया है। ईवीएम को लेकर इस समय भी सर्वाेच्च न्यायालय में याचिका लंबित है। फिर विश्व भर में अधिकांश में ईवीएम की जगह मत पत्रों के माध्यम से चुनाव की व्यवस्था कर दी गयी है। इसलिए आज देश की जनता को सरकार, चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों पर यह दबाव बनाना चाहिये कि चुनाव मतपत्रों से करवाने पर सहमति बनायें। इससे चुनाव की विश्वसनीयता बहाल करने में मदद मिलेगी। इसी के साथ चुनाव को धन से मुक्त करने के लिये प्रचार के वर्तमान माध्यम को खत्म करके ग्राम सभाओं के माध्यम से मतदाताओं तक जाने की व्यवस्था की जानी चाहिये। सरकारों को अंतिम छः माह में कोई भी राजनीतिक और आर्थिक फैसले लेने का अधिकार नहीं होना चाहिये। इस काल में सरकार को अपनी कारगुजारीयों पर एक श्वेत पत्र जारी करके उसे ग्राम सभाओं के माध्यम से बहस में लाना चाहिये। ग्राम सभाओं का आयोजन राजनीतिक दलों की जगह प्रशासन द्वारा किया जाना चाहिये।
जहां सरकार के कामकाज पर श्वेत पत्र पर बहस हो। उसी तर्ज पर अगले चुनाव के लिये हर दल से उसका एजेण्डा लेकर उस पर इन्हीं ग्राम सभाओं में चर्चाएं करवायी जानी चाहिये। हर दल और चुनाव लड़ने वाले व्यक्ति के लिये यह अनिवार्य होना चाहिये कि वह देश-प्रदेश की आर्थिक स्थिति पर एजेंडे में वक्तव्य जारी करें। उसमें यह बताये कि वह अपने एजेंडे को पूरा करने के लिए देश-प्रदेश पर न तो कर्ज का भार और न ही नये करों का बोझ डालेगा। मतदाता को चयन तो राजनीतिक दल या व्यक्ति की विचारधारा का करना है। विचारधारा को हर मतदाता तक पहुंचाने का इससे सरल और सहज साधन नहीं हो सकता। इस सुझाव पर बेबाक गंभीरता से विचार करने और इसे ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक बढ़ाने-पहुंचाने का आग्रह रहेगा। यह एक प्रयास है ताकि आने वाली पीढ़ियां यह आरोप न लगायें कि हमने सोचने का जोखिम नही उठाया था।

महंगाई के साथ उठते सवाल

महंगाई पर संसद में बहस नहीं हो सकी है क्योंकि सरकार ऐसा नहीं चाहती थी। बल्कि संसद के बाहर सत्तारूढ़ भाजपा महंगाई को जायज ठहराने के लिये दूसरे देशों के तर्क दे रही है। लेकिन श्रीलंका का नाम लेने से परहेज कर रही है। आरबीआई ने भी यह मान लिया है कि अभी महंगाई कम नहीं हो सकती। इस महंगाई के कारण विकास दर भी अनुमानों से कम रहेगी यह भी आरबीआई ने स्वीकार लिया है। सर्वाेच्च न्यायालय ने भी कुछ मामलों पर सुनवाई करते हुये सरकारों को सलाह दी है कि वह योजनायें बनाते समय वित्तीय स्थिति का ध्यान रखें। चुनाव आयोग ने सरकारों द्वारा घोषित मुफ्त उपहारों की योजनाओं पर कहा है कि इन्हें रोकने की उसके पास कोई शक्तियां नहीं है। ऐसी मुफ्त योजनाओं पर फैसला जनता को ही लेना होगा यह चुनाव आयोग की सलाह है। प्रधानमंत्री के साथ पिछले दिनों भारत सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों की हुई एक बैठक में मुफ्ती योजनाओं पर बात उठाते हुये कुछ अधिकारियों ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि इन्हें न रोका गया तो हमारे भी कई राज्यों की हालत श्रीलंका जैसी हो जायेगी। मुफ्ती योजनाओं पर इन अधिकारियों का संकेत आम आदमी पार्टी की ओर था। प्रधानमंत्री के साथ अधिकारियों की यह बैठक काफी वायरल हो चुकी है।
आम आदमी पार्टी ने जिस तर्ज पर दिल्ली में मुफ्ती योजनाओं को अंजाम दिया है उसके परिणाम स्वरूप उसने दो बार भाजपा और कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखा है। इसी मुफ्ती के नाम पर उसने पंजाब में दोनों दलों से सत्ता छीन ली है। अन्य राज्यों में भी वह इसी प्रयोग को दोहराने की योजना पर चल रहा है। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार का संदेश एक ऐसा नारा है जो हर वर्ग के हर आदमी को सीधे प्रभावित करता है। यही दोनों क्षेत्र इस शासनकाल में सबसे बड़े व्यवसायिक मंच बन गये हैं। केंद्र से लेकर राज्यों तक की सभी सरकारें इस व्यपारिकता को रोकने की बजाये आप की तर्ज पर मुफ्ती के चक्रव्यूह में उलझ गयी है। इसलिये निकट भविष्य में इस मुफ्ती के जाल से कोई भी राजनीतिक दल बाहर निकल पायेगा ऐसा नहीं लगता। एक और मुफ्ती का बढ़ता प्रलोभन और दूसरी ओर हर क्षेत्र प्राइवेट सैक्टर के लिये खोल देना समाज और व्यवस्था के लिये एक ऐसा कैंसर सिद्ध होंगे जिस के प्रकोप से बचना आसान नहीं होगा।
ऐसे में यह सवाल अपने आप एक बड़ा आकार लेकर यक्ष प्रशन बनकर जवाब मांगेगा कि ऐसा कब तक चलता रहेगा। क्योंकि मुफ्ती की भार उठाने के लिये हर वर्ग पर परोक्ष /अपरोक्ष करों का बोझ डालना पड़ेगा। करों से सिर्फ कर्ज लेकर ही बचा जा सकता है। क्योंकि हर वह क्षेत्र जिससे राष्ट्रीय कोष को आय हो सकती थी वह प्राइवेट सैक्टर के हवाले कर दिया गया है। इसलिये तो जून 2014 में देश का जो कर्ज भार 54 लाख करोड़ था वह आज बढ़कर 130 लाख करोड़ हो गया है। आईएमएफ के मुताबिक यह कर्ज इस वर्ष की जीडीपी का 90% हो जायेगा। यह आशंका बनी हुई है कि हमारी कई परिसंपत्तियों पर विदेशी ऋणदाता कब्जा करने के कगार पर पहुंच गये हैं। राजनीतिक दलों की प्राथमिकता येन केन प्रकारेण सत्ता पर कब्जा करना और फिर उसे बनाये रखना ही हो गया है। दुर्भाग्य यह है कि संवैधानिक संस्थान भी इस दौड़ में दलों के कार्यकर्ता होकर रह गये हैं। जनता को हर चुनाव में नए नारे के साथ ठगा जा रहा है। मीडिया अपनी भूमिका भूल चुका है क्योंकि बड़े मीडिया संस्थानों पर सत्ता के दलालों का कब्जा हो चुका है। छोटे मीडिया मंचों का गला सत्ता घोंटने में लगी हुई है। इसी सब का परिणाम है कि जिस बड़े शब्द घोष के साथ नरेंद्र मोदी ने संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करवाने का दावा किया था उसी अनुपात में यह कब्जा पांच राज्यों के चुनाव में और पूख्ता हो गया हैं। इस वस्तु स्थिति से निकलने के लिये चुनावी व्यवस्था को बदलना ही एकमात्र उपाय रह गया है । इस पर अगले अंक में चर्चा बढ़ाई जाएगी।

महंगाई का सच

आज पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की बढ़ती कीमतों ने हर आदमी को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि यह कीमतें क्यों बढ़ रही है और यह बढ़ौतरी कहां जाकर रुकेगी। क्योंकि जब इंधन की कीमतें बढ़ती हैं तब उसका प्रभाव हर उत्पादन और यातायात पर पड़ता है। इन कीमतों के बढ़ने के परिणाम स्वरूप ही प्रदेश सरकार को सस्ते राशन के सप्लायरों ने आगे आपूर्ति कर पाने में असमर्थता जताई है। 2014 में जब मोदी सरकार ने केंद्र में सत्ता संभाली थी तब रसोई गैस का सिलेंडर चार सौ दस रूपये में मिलता था जो आज एक हजार पचास का हो गया है। पेट्रोल, डीजल की कीमतों में चालीस से पचास रूपये तक की वृद्धि हो गयी है। इस वृद्धि से हर चीज की कीमतें बढ़ गई है। लेकिन जिस अनुपात में कीमतें बढ़ी हैं उसी अनुपात में आम आदमी की आय में बढ़ौतरी नहीं हुई है। बल्कि बैंकों में हर तरह के डिपॉजिट पर ब्याज दरें 2014 के मुकाबले आधी रह गयी हैंं। इसलिए यह चिंता करना स्वाभाविक हो जाता है कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है।
इस चिंता और चिंतन में सबसे पहला ध्यान इस ओर जाता है कि 2014 के सत्ता परिवर्तन के समय जो आम आदमी को सपने दिखाये गये थे वह तो कहीं पूरे हुये नहीं बल्कि उस समय बदलाव की वकालत करने वाले सबसे बड़े चेहरे स्वामी रामदेव सेे जब आज उनके पुराने दावों/वायदों की याद दिलाकर वर्तमान पर सवाल पूछे गये तो वह जवाब देने के बजाय सवाल पूछने वाले पत्रकार से ही अभद्रता पर उतर आये हैं। उनके संवाद का वीडियो वायरल होकर हर आदमी के सामने हैं। यह स्थिति अकेले स्वामी रामदेव की ही नहीं है बल्कि हर उस आदमी की है जो अच्छे दिनों के नाम पर हर खाते में पन्द्रह-पन्द्रह लाख आने की आस लगाये बैठा था। बल्कि उस बदलाव के बड़े पैरोकारों का एक वर्ग तो आज की समस्याओं के लिए देश के पहले प्रधानमंत्री स्व.पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर डॉ. मनमोहन सिंह तक रहे हर प्रधानमंत्री को ही जिम्मेदार मानता है। उनकी नजर में तो यह मोदी ही है जिन्होंने देश को और बर्बाद होने से बचा लिया है। इस परिप्रेक्ष्य में यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि इस समय आम आदमी के सामने इस सरकार के कुछ फैसलों पर सार्वजनिक रूप से एक बहस शुरू की जाये। क्योंकि इन चुनाव में मिली जीत के बाद यह दावा किया जा रहा है कि देश की जनता ने समर्थन देकर सरकार को ऐसे फैसले लेने के लिए अधिकृत किया है।
महंगाई, बेरोजगारी का मूल कारण कर्ज होता है। आईएमएफ के मुताबिक वर्ष 2022 में यह कर्ज जीडीपी का 90% हो जायेगा। आरबीआई के अनुसार 31-03-2015 को देश का कर्ज 3,23,464 करोड था जो 31-03-2018 को बढ़कर 10,36,187 करोड हो गया है। 2018-19 में कर्ज जीडीपी का 68.21% था। पिछले 10 वर्षों में सात लाख करोड़ से अधिक का बारह बैंकों का एनपीए राइट ऑफ किया गया है। मोदी सरकार ने संपत्ति कर्ज माफ कर दिया है। संपत्ति कर के साथ ही कॉरपोरेट घरानों पर लगने वाला कॉरपोरेट टैक्स भी कम किया है। गरीब और गांव से जुड़ी बहुत सारी सेवाओं के बजट में कटौती की गयी है। इसी दौरान करीब आठ लाख करोड़ बैंकों में हुये फ्रॉड में डूब गया है। इन आंकड़ों का जिक्र करना इसलिए आवश्यक हो जाता है कि जब देश का धन कुछ बड़े लोगों के लिये लुटता रहे और सरकार अपने खर्चे चलाने के लिये कर्ज लेती रहे तथा ईंधन की कीमतों में बढ़ौतरी करती रहे तो उसका अंतिम परिणाम तो महंगाई के रूप में ही सामने आयेगा। तेल और गैस पर समय-समय पर बढ़ाये गये करों से यह सरकार करीब 26 लाख करोड़ की कमाई कर चुकी है। जबकि सरकार द्वारा चलाई जा रही सारी कल्याणकारी योजनाओं पर इस कमाई का आधा भी खर्च नहीं हुआ है। ऐसे में आज आम आदमी को यह सोचना होगा कि जब एक को रसोई गैस का सिलेंडर किसी भी योजना के नाम पर मुफ्त में मिलेगा तो उसकी भरपाई गैस की कीमतें बढ़ाकर की जाती है और उसका असर सब पर पड़ता है। जब एक किसान को सम्मान निधि के नाम पर छः हजार नगद मिलते हैं तो उसकी वसूली इस महंगाई से होती है। जब मुफ्त और सस्ता राशन दिया जाता है तो उससे गांव में जमीनें बंजर होने के साथ ही इस खर्च को पूरा करने के लिए सब की जेब पर महंगाई के माध्यम से डाका डाला जाता है। इसलिए आज कुछ के लिए मुफ्त की बजाये सबके लिये सस्ते की वकालत और मांग की जानी चाहिये।

जीत का उपहार महंगाई क्यों?

चुनाव परिणामों के बाद एक पखवाड़े के भीतर ही पैट्रोल डीजल और रसोई गैस के दाम बढ़ गये हैं। 800 दवाइयों के दाम 1 अप्रैल से बढ़ने का समाचार आ चुका है। इसका असर अन्य उपभोक्ता वस्तुओं पर भी पड़ेगा। यह निश्चित है देश से विदेशी मुद्रा भंडार 9 अरब डॉलर कम हो गया है। रिलायंस ने अपने पेट्रोल पम्प बंद करने का ऐलान कर दिया है। वर्ष 2022-23 के बजट में मनरेगा, ग्रामीण विकास, जल जीवन, फसल बीमा और पीडीएस के बजट में पिछले वर्ष की तुलना में काफी कटौती की गयी है। इस कटौती का परिणाम भी महंगाई और बेरोजगारी के रूप में सामने आयेगा ही। जैसे-जैसे यह महंगाई तथा बेरोजगारी बढ़ती जायेगी उसी अनुपात में सरकार की नीतियों और प्राथमिकताओं पर चर्चायें बढ़ेंगी। इन चर्चाओं को अन्य मुद्दे रोक नहीं पायेंगे। जिस विदेशी मुद्रा भंडार में बढ़ोतरी को सरकार अपनी बड़ी उपलब्धि मानती थी। आज उसमें एकदम 9 अरब डॉलर की कमी आने से सारा परिदृश्य ही बदल गया है। जब गांव और रक्षा से जुड़े बजट में ही सरकार को कटौती करनी पड़ जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि जो प्रचारित किया जा रहा है सच उससे कहीं अलग है।
मोदी सरकार का सबसे पहला और बड़ा फैसला नोटबंदी का आया था। नोटबंदी लाने के जो कारण और लाभ बताये गये थे उनका सच इसी से सामने आ जाता है कि 99. 6ः पुराने नोट नये नोटों से बदला दिये गये। इसका अर्थ है कि काले धन के जो आंकड़े और इसके आतंकवाद में लगने के जो आंकड़े परोसे जा रहे थे वह सब काल्पनिक थे। केवल सत्ता परिवर्तन का हथियार बनाये जा रहे थे। इसी काले धन से हर बैंक खाते में 15 लाख आने का सपना दिखाया गया था। इस नोटबंदी से जो अद्योगिक क्षेत्र प्रभावित हुये वह सरकार के पैकेज से भी पुनःजीवित नहीं हो सके हैं। नोटबंदी के कारण बड़े क्षेत्र का उत्पादन प्रभावित हुआ जिससे महंगाई और बेरोजगारी बढ़ी। इसी नोटबंदी के बाद बैंकों में हर तरह से के जमा पर ब्याज दरें घटाई और हर सेवा का शुल्क लेना शुरू कर दिया। इसी का परिणाम है कि जीरो बैलेंस जनधन खातों पर पांच सौ और हजार के न्यूनतम बैलेंस की शर्त लगा दी गई। नोटबंदी से हर व्यक्ति और हर उद्योग प्रभावित हुआ। लेकिन आम आदमी इसके प्रति चौकन्ना नहीं हो पाया। क्योंकि उसके सामने गौरक्षा, लव जिहाद, तीन तलाक, नागरिकता संशोधन कानून, राम मन्दिर और धारा 370 जैसे मुद्दे परोस दिये गये। लेकिन इन मुद्दों से चुनाव तो जीत लिये गये परंतु इन से अर्थव्यवस्था में कोई सुधार नहीं हो पाया। अर्थव्यवस्था को सबसे घातक चोट कोरोना के लॉकडाउन में पहुंची। जब सारा उत्पादन पूरी तरह ठप हो गया। स्वभाविक है कि जब उत्पादन ही बंद हो जायेगा तो उसका असर निर्यात पर भी पड़ेगा। इसी का परिणाम है विदेशी मुद्रा कोष में भारी गिरावट आ गयी है।
इस समय जिस ढंग से सरकार ने सार्वजनिक संपत्तियों को निवेश के नाम पर प्राइवेट सैक्टर को सौंपना शुरू किया है उसका अंतिम परिणाम महंगाई और बेरोजगारी के रूप में ही सामने आयेगा। यह एक स्थापित सत्य है कि जब कोई सरकार सामान्य जन सेवाओं को भी निजी क्षेत्र के हवाले कर देती है तो उससे गरीब और अमीर के बीच का अन्तराल इतना बढ़ जाता है कि उसे पाटना असंभव हो जाता है। आज सरकार अपनी आर्थिक नीतियों पर बहस को कुछ अहम मुद्दे उभार कर दबाना चाह रही है। जैसे ही दामों की बढ़ौतरी हुई तो उससे ध्यान भटकाने के लिए कश्मीर फाइल जैसी फिल्म का मुद्दा परोस दिया गया। यहां तक कि स्वयं प्रधानमंत्री इस फिल्म के प्रचार पर उतर आये। अब यह आम आदमी को सोचना होगा कि वह इस फिल्म के नाम पर महंगाई और बेरोजगारी के दंश को भूल जाता है या नहीं। अभी फिर चुनाव आने हैं और इनसे पहले यह फिल्म आ गयी है। इसका मकसद यदि राजनीति नहीं है तो इसे यू टयूब पर डालकर सबको क्यों नहीं दिखा दिया जाता। कश्मीरी पंडितों के अतिरिक्त और भी कईयों के साथ ऐसी ज्यादतियां हुयी हैं। उन पर भी फिल्में बनी जिन्हें रिलीज नहीं होने दिया गया है। ऐसे में यदि इस फिल्म को महंगाई और बेरोजगारी पर पर्दा डालने का माध्यम बना दिया गया तो फिर कोई भी सवाल पूछने का हक नहीं रह जायेगा।


गंभीर हैं ईवीएम पर उठते सवाल

चुनाव हो गये है। परिणाम आ गये। सरकारे बन गयी। राजनीतिक दल अपनी-अपनी हार-जीत के आकलनों में व्यस्त हो गये हैं। इन चुनावों के बाद आम आदमी को डीजल के दाम बढ़ने की पहली किस्त मिल गयी है। इससे दूसरी चीजों के दाम भी बढ़ेंगे ही और वह अगली किस्तों में सामने आयेंगे। इस दाम बढ़ौतरी के साथ ही एक फिल्म कश्मीर फाइल भी आम आदमी को मिली है। इस फिल्म पर प्रधानमंत्री का ब्यान आया है। जिसने फिल्म को चर्चा में लाकर खड़ा कर दिया है। भाजपा शासित राज्यों ने इस पर टैक्स माफ कर दिया है। इस फिल्म से 2024 तक आने वाला हर चुनाव प्रभावित होगा यह माना जा रहा है। बल्कि चुनाव को प्रभावित करना ही इस फिल्म का मकसद है यह कहना ज्यादा सही होगा कि इसी के साथ चुनाव के बाद यह भी देखने को मिला है कि पंजाब के कुछ लोग अपनी गाड़ियों पर खालिस्तानी झंडे लगाकर हिमाचल के मणिकरण आये थे। इन लोगों पर ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन का आरोप भी है। इनको हिमाचल पुलिस ने रोकने का प्रयास किया तो उसके बदले में हिमाचल के वाहनों को पंजाब में एंट्री स्थलों पर रोक दिया गया। इस घटना पर हिमाचल और पंजाब की सरकारों का कोई आधिकारिक ब्यान नहीं आया। यह घटना इसलिये महत्वपूर्ण हो जाती है कि है पंजाब में आप की सरकार बनने के बाद और आप के हिमाचल में चुनाव लड़ने के ऐलान के बाद घटा है। इस सबका आने वाले दिनों में क्या प्रभाव देखने को मिलेगा यह तो आगे ही पता चलेगा। लेकिन इसको हल्के में लेना भी सही नहीं होगा। इसी परिदृश्य में यह सवाल फिर खड़ा होता है कि क्या आम आदमी ने इसी सबके लिये इन दलों को समर्थन देकर यह सरकारें बनवायी है या फिर चुनाव में आम आदमी परोक्ष/अपरोक्ष में अप्रसांगिक होकर रह गया था। क्योंकि इन चुनाव से पहले और इनके दौरान भी व्यवस्था के प्रति उसका रोष उसकी हताशा पूरी तरह खुलकर सामने आ गयी थी। तभी तो वह व्यवस्था से जुड़े हर व्यक्ति को सुनने तक के लिए तैयार नहीं था। उन्हें अपने गांव कस्बों से खदेड़ने तक आ गया था। इसी जन रोष के परिणाम स्वरुप सत्तारूढ़ भाजपा ने लखीमपुर में अपने गृह राज्य मंत्री को चुनाव प्रचार से हटा लिया था। उन्नाव और लखीमपुर खीरी सब जनता के सामने घटा है और उससे किसी भी सभ्य संवेदनशील व्यक्ति का रोष में होना स्वभाविक हो जाता है। लेकिन जब इतने रोष के बाद भी इन्हीं क्षेत्रों से व्यवस्था से जुड़े लोग सभी सीटों से चुनाव जीत जायें तो वह इसे कैसे आंकेगा। स्वाभाविक रूप से वह पूरी चुनावी प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर ही संदेह करने लगेगा। इसी में जब उसके सामने यह आ जाये की ईवीएम मशीनें चोरी हो रही है तो उसका संदेह पुख्ता हो जायेगा। इस चुनाव में जब ईवीएम मशीनें ले जाते हुये एक ट्रक पकड़ा जाता है और दो भाग जाते हैं। वैलेट पेपर का एक बॉक्स कूडे़ के ढेर में मिलता है। चुनाव आयोग को इसका संज्ञान अन्ततः लेना ही पड़ता है और वह संबद्ध अधिकारियों को निलंबित कर देता है तो चुनाव की निष्पक्षता पर उठने वाला हर सवाल स्वतः ही प्रमाणिक हो जाता है। फिर उसी चुनाव में एक पीठासीन अधिकारी का एक ऑडियो वायरल हुआ है जिसमें गंभीर आरोप लगे हैं। सर्वाेच्च न्यायालय के अधिवक्ता भानु प्रताप इस पर पत्रकार वार्ता करके जांच की मांग कर चुके हैं। ईवीएम की निष्पक्षता पर सबसे पहले भाजपा नेता डॉ. स्वामी ने एक याचिका के माध्यम से सवाल उठाये थे और तब वीवीपैट इसके साथ जोड़ी गयी थी। वीवीपैट को लेकर एक याचिका सर्वाेच्च न्यायालय में लंबित चल रही है। इस तरह चुनावी प्रक्रिया से लेकर ईवीएम तक सब की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल उठ चुके हैं। जिन देशों ने ईवीएम के माध्यम से चुनाव करवाने की पहल की थी वह सब इस पर उठते सवालों के चलते इसे बंद कर चुके हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल भी ईवीएम पर सवाल उठा चुके हैं। इस परिदृश्य में यह आवश्यक हो जाता है कि चुनाव प्रक्रिया पर आम आदमी का विश्वास बहाल करने के लिए ईवीएम का उपयोग बंद करके बैलट पेपर के माध्यम से ही चुनाव करवाने पर आना होगा।

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