Friday, 19 September 2025
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क्या उत्तर प्रदेश में ‘मोदी है तो मुमकिन है’-हो पायेगा

पांच राज्यों के चुनावों की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और 10 फरवरी को पहले चरण का मतदान हो जायेगा। जिस तरह कोरोना के मामले बढ़ते जा रहे हैं और हर राज्य ने इसके कारण बंदीशें लगा रखी हैं उससे यह आशंका अभी भी बराबर बनी हुई है कि कहीं यह चुनाव कुछ समय के लिए टालने न पड़ जायें। फिर अब सर्वाेच्च न्यायालय में भी एक याचिका आ चुकी है जिसमें चुनाव टालने का आग्रह किया गया है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय पहले ही चुनाव टालने का आग्रह कर चुका है। ऐसे में शीर्ष अदालत का फैसला क्या आता है उस पर बहुत कुछ निर्भर करेगा। क्योंकि कुछ लोग इन प्रयासों को प्रायोजित भी करार दे रहे हैं। इस परिदृश्य में कुछ बिंदुओं पर विचार करना आवश्यक हो जाता है। यह चुनाव विवादित कृषि कानूनों की वापसी के बाद हो रहे हैं। जब इन कानूनों के विरोध में किसान आंदोलन चल रहा था तब हुये बंगाल और अन्य राज्यों के चुनाव के परिणाम क्या रहे हैं यह सारा देश जानता है। उस समय बंगाल में भाजपा ही नहीं बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा दांव पर लग गयी थी और ममता के हाथों बच नहीं पायी थी। वहां से प्रधानमंत्री का जो ग्राफ गिरना शुरू हुआ था वह अब तक संभल नहीं पाया है। बल्कि अब जिस तरह से पंजाब में प्रधानमंत्री की सुरक्षा में हुई चूक को मुद्दा बनाने का प्रयास किया गया उसकी हवा सर्वाेच्च न्यायालय ने जांच कमेटी बनाकर निकाल दी है। यही नहीं प्रधानमंत्री की विदद्वता का भी उस समय खुलासा सामने आ गया जब वह एक आर्थिक मंच पर विश्व को संबोधित करते हुए टेलीप्राम्पटर का लिंक टूटते ही एक शब्द भी आगे नहीं बोल पाये। इससे एक बार फिर यह स्पष्ट हो गया कि भाजपा शासित राज्य अकेले प्रधानमंत्री के नाम पर ही अब सत्ता में वापसी की उम्मीद नहीं कर पायेंगे।
इन चुनावों में यह भी सामने आ गया है कि अब लोग भाजपा छोड़कर अन्य दलों में जाने शुरू हो गये हैं। 2014 में जो कांग्रेस के साथ घटा था वह अब भाजपा के साथ घटना शुरू हो गया है। इसमें भी सबसे अहम यह है कि जो लोग मंत्री विधायक भाजपा छोड़कर जा रहे हैं वह सबसे बड़ा आरोप यही लगा रहे हैं कि भाजपा सरकारों ने पिछड़े वर्गों दलितों बेरोजगार युवा छोटे किसानों आदि के लिए कुछ नहीं किया है। आज देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में ही इस सरकार के कार्यकाल में 16 लाख नौकरियां छीनी है। जबकि यूपी में बेरोजगारी ही सबसे बड़ी समस्या है। ऐसे में यह बेरोजगार कैसे इस सरकार को समर्थन देंगे यह एक बड़ा सवाल है। पिछड़े और दलित इस सरकार में उपेक्षा के शिकार हुये हैं। यह सीधा आरोप सरकार से निकलने वालों का है। मुसलमानों को पिछले चुनाव में भी भाजपा ने उम्मीदवार नहीं बनाया था इस बार किसी मुस्लिम को प्रत्याशी बनाया जाता है या नहीं यह आने वाले दिनों में स्पष्ट हो जायेगा।
इस सबसे हटकर बड़ा सवाल किसानों का है। सरकार ने भले ही कृषि कानून वापस ले लिये हैं। लेकिन एमएसपी का मुद्दा अभी भी अपनी जगह खड़ा है। इस पर सरकार आगे नहीं बढ़ी है। बल्कि जिस ढंग से बिजली उत्पादन और ट्रांसमिशन, बीज और खाद आदि सभी कुछ प्राइवेट सैक्टर के हवाले कर दिया गया है उससे क्या किसान की निर्भरता कॉर्पाेरेट सैक्टर पर नहीं हो जायेगी। अब तो अदानी कैपिटल को एसबीआई का लोन पार्टनर तक बना दिया गया है। जो किसानों को ऋण देने वाला सबसे बड़ा संस्थान होगा। किसान आंदोलन का सबसे बड़ा मुद्दा यह था कि कृषि क्षेत्र को कारपोरेट सेक्टर के हवाले किया जा रहा है। जब सरकार ने वह हर चीज जो किसान को खेती के लिए आवश्यक है उसे कॉरपोरेट सैक्टर के हवाले कर दिया है तो क्या परिणामतः कृषि पर इस क्षेत्र का कब्जा नहीं हो जायेगा ? क्या यह सब किसान की समझ में नहीं आयेगा ? निश्चित रूप से किसान इसे समझेगा और भाजपा को चुनाव में समर्थन देने पर दस बार सोचेगा? इस तरह जो भी परिस्थितियां निर्मित हो रही हैं वह एक-एक करके सरकार के प्रतिकूल ही होती जा रही हैं।
दूसरी ओर कांग्रेस ने जिस तरह से महिलाओं और युवाओं को उत्तर प्रदेश में अपनी नीतियों का केंद्र बिंदु बना दिया है वह अपने में एक नया प्रयोग है। पंजाब में दलित मुख्यमंत्री को केंद्र में रखा गया है। इससे कांग्रेस का पिछड़ों, दलितों, महिलाओं और युवाओं को लेकर एजेंडा साफ हो जाता है। फिर कांग्रेस यूपी में अकेले चुनाव लड़ रही हैं और उसने 40 प्रतिशत महिलाओं को टिकट देकर और युवाओं के लिये अलग रोजगार नीति घोषित करके अपने एजेंडे के प्रति अपनी प्रतिबद्धता स्पष्ट कर दी है। इससे सारा चुनावी परिदृश्य बदल गया है। ऐसे में इस चुनाव के परिणामों का देश पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा यह तय है।

मौतों की जिम्मेदारी से भागना संभव नहीं होगा

प्रधानमंत्री की सुरक्षा में हुई चूक नीयतन थी या संयोगवश इसकी कोई भी जांच रिपोर्ट आने से पहले ही जिस तरह की राजनीतिक इस पर शुरू हो गयी है उससे कई ऐसे सवाल उठ खड़े हुये हैं जिन्हें लंबे समय तक नजरअंदाज करना देश हित में नहीं होगा। क्योंकि यदि यह चूक नीयतम है तो उसके प्रायोजकों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। यदि संयोगवश हुई इस चूक को अपने विरोधियों को नीचा दिखाने के लिए राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग किया जाता है तो यह और भी निंदनीय है। लोकतंत्र के लिये इससे बड़ा और कोई संकट नहीं हो सकता। इस मामले में सर्वाेच्च न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट की ही पूर्व जज जस्टिस इन्दु मल्होत्रा की अध्यक्षता में पांच सदस्यों की एक जांच कमेटी का गठन कर दिया है। इसलिए इस जांच की रिपोर्ट आने तक इस पर बहस को आगे बढ़ाना उचित नहीं होगा। लेकिन मीडिया के कुछ हिस्सो में इस प्रकरण के बाद राजनीतिक आकलनों का दौर भी शुरू हो गया। पंजाब में इस प्रकरण के बाद भाजपा अमरेंद्र गठबंधन को लाभ और कांग्रेस को नुकसान होने की बात की गयी है वास्तव में क्या होगा यह परिणाम आने के बाद ही पता चलेगा।
लेकिन इस प्रकरण के बाद जिस तरह से उत्तर प्रदेश में मन्त्रीयों और विधायकों ने भाजपा छोड़ना शुरू कर दी है उससे पूरा राजनीतिक परिदृश ही बदलना शुरू हो गया है। उत्तर प्रदेश से पहले उत्तराखंड में भी यही सब कुछ घटना शुरू हुआ था। जिन पांच राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं उनमें भाजपा के प्रभुत्व वाले यही दो राज्य हैं। ऐसी संभावनाएं उभरनी शुरू हो गई हैं कि 2014 में जिस तरह लोग कांग्रेस छोड़कर जाने लगे थे इस बार वैसा ही कुछ भाजपा के साथ घट सकता है। 2014 में जो राजनीतिक परिदृश्य अन्ना आंदोलन से निर्मित हुआ था आज वैसा ही कुछ किसान आंदोलन ने खड़ा कर दिया है। बल्कि इस आंदोलन में हुई सैकड़ों किसानों की मौत ने स्थिति को और भी गंभीर बना दिया है। फिर इस मुद्दे पर राज्यपाल सत्यपाल मलिक के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह संवाद जब सामने आया कि किसान मोदी के कारण नहीं मरे हैं। प्रधानमंत्री के इस संवाद का किसानों पर क्या असर पड़ा होगा यह अंदाजा लगाना किसी के लिये भी कठिन नहीं है। किसानों की मौत की जिम्मेदारी से सरकार भाग नहीं सकती है।
कुछ लोग किसान आंदोलन को राजनीति से प्रेरित और प्रायोजित मानते हैं इसलिए वह किसानों की मौत के लिए मोदी और उनकी सरकार को जिम्मेदार नहीं मानते हैं। इसलिए कृषि कानूनों से जुड़े कुछ बिंदुओं पर बात करना जरूरी हो जाता है। कृषि संविधान के मुताबिक राज्यों का विषय है। एन्ट्री 33 के तहत उत्पादन के भंडारण और वितरण पर केंद्र का भी अधिकार है। लेकिन अन्य मुद्दों पर नहीं। वैसे तो एन्ट्री 33 पर भी विवाद है। इस नाते केंद्र को इस में कानून बनाने का काम अपने हाथ में लेना ही गलत था। फिर यह कानून अध्यादेश के माध्यम से लाये गये। संसद में बाद में रखे गये और वहां बिना बहस के पारित किये गये। यदि इन्हें सामान्य स्थापित प्रक्रिया के तहत लाया जाता तो जैसे ही यह संसद की कार्यसूची में आते तो एकदम सार्वजनिक संज्ञान में आ जाते और इन पर बहस चल पड़ती। जैसा कि इस बार हुआ। कि जैसे ही बैंकिंग अधिनियम में संशोधन की चर्चा सामने आयी तभी बैंक कर्मचारी सड़कों पर आ गये और यह प्रस्तावित संशोधन वहीं पर रुक गया। इसलिए जिस तरीके से यह कृषि कानून लाये गये थे उससे सरकार की नीयत पर शक करने का पर्याप्त आधार बन जाता है।
फिर सरकार ने जमाखोरी और मूल्य बढ़ोतरी पर 1955 से चले आ रहे हैं अपने नियंत्रण के अधिकार को समाप्त करके किसको लाभ पहुंचाया। क्या यह कानून किसी भी आदमी के लिए लाभदायक कहा जा सकता है शायद नहीं। ऐसे में किसानों के पास आंदोलन के अतिरिक्त और क्या विकल्प था। यह कानून कोरोना काल में ही लाने की क्या मजबूरी थी। यह कानून लाने से पहले क्या हरियाणा सरकार द्वारा अदानी समूह को लॉकडाउन के दौरान स्टोरों के लिए भूमि नहीं दी गई थी । अब जब कानून वापिस लिये गये तो उसके बाद अदानी कैपिटल को स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का कृषि ऋणों के लिए पार्टनर क्यों बनाया गया। अब एसबीआई के साथ मिलकर अदानी किसानों को कृषि उपकरणों और बीजों के लिए ऋण देगा। साठ ब्रांचों वाले अदानी से तेईस सौ ब्रांचों वाले एसबीआई को व्यापार में कैसे सहायता मिलेगी। क्या यह सब सरकार की नीयत पर शक करने के लिए काफी नहीं है। क्या इस परिदृश्य में किसान आंदोलन और किसानों की मौतों की जिम्मेदारी सरकार पर नहीं आ जाती है। यह चुनाव इन्हीं सवालों के गिर्द घूमेगा यह तय है।

क्या सच सिर्फ प्रधानमंत्री ही बोलते हैं

प्रधानमंत्री की सुरक्षा में चूक हुई है और इसे केंद्र तथा राज्य सरकार दोनों ने मान भी लिया है। दोनों ने ही इस पर अपनी-अपनी जांच भी बिठा दी है। इसी बीच यह मामला सर्वोच्च यायालय में भी पहुंच गया है। केंद और राज्य दोनों ने ही एक दूसरे की जांच पर एतराज उठाये हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने दोनों की ही जांच पर सोमवार तक रोक लगाकर पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय के रजिस्टार को निर्देश दिए हैं कि प्रधानमंत्री की इस यात्रा से जुड़े सारे दस्तावेजी साक्ष्य अपने कब्जे में लेकर सुरक्षित रखें। सर्वोच्च न्यायालय के इस दखल के बाद इस विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक विराम लग जाना चाहिये था। लेकिन ऐसा हुआ नही है। यह विवाद जिस तर्ज पर बढ़ाया जा रहा है उससे बड़ा सवाल यह बन गया है इसमें सच कौन बोल रहा है। केंद्र या राज्य सरकार। जनता किस पर विश्वास करे। प्रधानमंत्री मोदी या मुख्यमंत्री चन्नी पर। राजनीति भाजपा कर रही है या कांग्रेस। इन सवालों की पड़ताल करने के लिये सबसे पहले यह जानना और समझना आवश्यक है कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए व्यवस्था क्या है। जब देश ने एक प्रधानमंत्री और एक पूर्व प्रधनमंत्री को सुरक्षा चुक के कारण खो दिया था तब प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिये एक अधिनियम लाकर एसपीजी का गठन किया था। इस अधिनियम के आ जाने के बाद प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिये एसपीजी ही जिम्मेदार है। प्रधानमंत्री की सुरक्षा से जुड़ा कोई भी कदम कोई भी फैसला लेने का अंतिम अधिकार एसपीजी का ही रहता है। अन्य सारी एजेंसियां इस संबंध में उसी के निर्देशों की अनुपालना करती है। इस व्यवस्था के परिदृश्य में सर्वोच्च न्यायालय के सामने सारे पक्ष आ जायेंगे यह तय है और सारी असलियत सामने आ जायेगी।
यहां यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सुरक्षा में चूक दूसरी बार हुई है। दिसंबर 2017 में प्रधानमंत्री को एक आयोजन में शामिल होने के लिए अमेठी विश्वविद्यालय के परिसर में जाना था यहां पर जाने के लिये प्रधानमंत्री का काफिला रास्ता भूल गया। यह रास्ता भूलना भटकना सुरक्षा के लिये गंभीर चूक थी। लेकिन तब इस चूक के लिये उत्तर प्रदेश की योगी सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया। संबंधित एसपी ने इस चूक के लिये दो पुलिसकर्मियों को निलंबित करके मामले की जांच पूरी कर दी थी। उस समय यह सुरक्षा चूक अखबारों की खबर तक नहीं बनी। आज यदि पंजाब के प्रसंग को यह कहकर चर्चा का विषय न बनाया होता ‘‘ कि अपने मुख्यमंत्री को बता देना कि मैं सुरक्षित वापस आ गया हूं ’’ तो शायद यह पुराने प्रसंग सामने न आते। आज इस प्रकरण के बाद पूर्व प्रधानमंत्रियों पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर डॉ. मनमोहन सिंह तक के सबके आचरण के वह प्रसंग सामने आ गये हैं कि अपने विरोधियों की बात को किस धैर्य के साथ वह सुनते थे और उनके विरोध के अधिकार की कितनी रक्षा करते थे। पंडित नेहरू का बिहार का सैयद शहाबुद्दीन प्रकरण आज अचानक चर्चा में आ गया है। बिहार में पंडित नेहरू को काले झंडे दिखाने वाले शहाबुद्दीन कैसे लोक सेवा आयोग के सेकंड टापर बने थे। डॉ. मनमोहन सिंह ने जेएनयू के छात्रों के विरोध का कैसे जवाब दिया और उन्हें दिये गये नोटिस कैसे वापस करवाये गये। किस तरह राजीव गोस्वामी के आत्मदाह प्रकरण में अस्पताल जाकर उनका हाल पूछा और विदेश तक उसका इलाज करवाने के निर्देश दिये। यह सब आज याद किया जाने लगा है। क्योंकि इन्होंने इस विरोध के लिये इनके खिलाफ देशद्रोह के मामले नहीं बनवाये।
आज मतभिन्नता के लिये भाजपा शासन में केंद्र से लेकर राज्यों तक कहीं कोई स्थान नहीं बचा है। भिन्न मत रखने वाले को व्यक्तिगत दुश्मन मानकर उसे हर तरह से कुचलने का प्रयास किया जाता है। अभी मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक और प्रधानमंत्री का किसानों की मौतों को लेकर जो संवाद सामने आया है उसमें 500 किसानों की मौत पर यह कहना कि यह लोग मेरे लिये या मेरे कारण नहीं मरे हैं। प्रधानमंत्री की संवेदनशीलता का इससे बड़ा नकारात्मक पक्ष और कुछ नहीं हो सकता है। सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने से पहले ही जिस तरह से पंजाब सरकार को दोषी ठहराने का प्रयास किया जा रहा है उससे पुराने सारे प्रकरण अनचाहे की तुलना में आ गये हैं। आज जनता को किसी भी ऐसे प्रयास से गुमराह नहीं किया जा सकता। क्योंकि बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी ने हर आदमी को यह सोचने पर विवश कर दिया है कि यह सरकार केवल कुछ बड़े पूंजीपतियों के हित की ही रक्षा कर रही है। आम आदमी को मंदिर मस्जिद और हिंदू मुस्लिम के नाम पर ही उलझाये रखना चाहती है।

क्या कोरोना का राजनीतिक उपयोग हो रहा है?

क्या कोरोना के नये वायरस ओमीक्रॉन के बढ़ते संक्रमण के कारण पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव कुछ समय के लिये टाल दिये जायेंगे। यह सवाल इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक आदेश के बाद चर्चा में आया हैं क्योंकि इस आदेश में चुनाव आयोग और प्रधानमंत्री से निर्देश पूर्ण आग्रह किया गया है। इस पर क्या फैसला लिया जाता है यह आने वाले कुछ दिनों में सामने आ जायेगा। लेकिन जिस तरह से ओमीक्रॉन के बढ़ने और उसी अनुपात में सरकारों द्वारा कर्फ्यू आदि के कदम उठाये जा रहे हैं इससे एक बार फिर लॉकडाउन की संभावनाएं और आशंकाएं बढ़ती जा रही हैं। पिछले 2 वर्ष से देश इस महामारी के संकट से जूझ रहा है। इस दौरान जो कुछ घटा है और सरकार ने जो कदम उठाये हैं उसके परिदृश्य में कुछ सवाल उभरते हैं जिन पर एक सार्वजनिक बहस की अब आवश्यकता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च 2020 को लॉकडाउन लगाकर इस महामारी से निपटने का पहला कदम उठाया था। लॉकडाउन की घोषणा अचानक हुई थी। लोगों की लॉकडाउन झलेने की कोई तैयारी नहीं थी। जबकि महामारी अधिनियम 1897 में यह प्रावधान है कि जब कोई बीमारी सरकार के आकलन में महामारी लगे और उससे निपटने के लिये अलग से कुछ कदम उठाने पड़े तो उसके लिए जनता को सार्वजनिक रूप से अग्रिम सूचना देनी पड़ती है। लेकिन लॉकडाउन लगाते समय कुछ नहीं किया गया। लॉकडाउन में किस तरह का नुकसान आम आदमी को उठाना पड़ा है उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है। नवम्बर 2016 में की गयी नोटबंदी से जो नुकसान आर्थिकी को पहुंचा था लॉकडाउन ने उसे कई गुना बढ़ा दिया है। इस दौरान राजनीतिक गतिविधियों के अतिरिक्त बाकी सारी आर्थिक गतिविधियां शुन्य हो गयी। 2020 में कोरोना के लिये कोई वैक्सीन या अन्य कोई दवाई बाजार में नहीं आयी। आज भी इसकी कोई दवाई उपलब्ध नहीं है। इस वर्ष जनवरी से जो वैक्सीन लगाई जा रही है वह केवल एक प्रतिरोधक उपाय है। इसकी प्रतिरोधक क्षमता भी केवल छः माह तक कारगर है। इसके बाद पुनः इसकी डोज लेनी पड़ेगी। ऐसा कब तक करते रहना पड़ेगा इसको लेकर कुछ भी स्पष्ट नहीं है। वैक्सीन की इस व्यवहारिक स्थिति के कारण ही सर्वाच्च न्यायालय में केंद्र सरकार ने एक शपथ पत्र देकर यह कहा है की वैक्सीन लगवाना अनिवार्य नहीं किया गया है। इसे एैच्छिक ही रखा गया है। 2020 में आरोग्य सेतु ऐप आया था। इसको लेकर कितने दावे किये गये थे और उन्हीं दावों के आधार पर इसे अनिवार्य बना दिया गया था। लेकिन जब एक आर.टी.आई. में इससे जुड़ी जानकारियां मांगी गयी तब ऐप को लेकर ही अनभिज्ञता जता दी गयी। इससे आम आदमी के विश्वास को कितना आघात पहुंचा है इसका अंदाजा लगाना कठिन है।
1897 में महामारी अधिनियम आने के बाद से लेकर आज तक का रिकार्ड यह बताया है कि हर दस-बारह वर्ष के अंतराल पर कोई न कोई महामारी आती रही है लेकिन इससे निपटने के इस तरह के उपाय पहली बार किये गये हैं जिनमें शुरुआत में ही यह कहा गया कि अस्पताल भी ना जायें। इस निर्देश में यह ध्यान नहीं रखा गया कि जो लोग आ.ेपी.डी. में आ रहे हैं या अस्पताल में दाखिल होकर इलाज करवा रहे हैं और अब उनका इलाज बंद हो गया है उनमें से यदि कोई संक्रमित हो जाता है तो उसका बचाव कैसे होगा। आज तक इस पर कोई अध्ययन नहीं किया गया है कि जब 24 मार्च को लॉकडाउन के कारण अस्पताल भी बंद हो गये थे तब अस्पताल आने वाले कितने लोग संक्रमित हुए और उनकी स्थिति क्या रही। जब लॉकडाउन हुआ था उसके बाद एक याचिका सर्वाच्च न्यायालय में डॉ कुनाल साहा की आई थी उसमें संभावित प्रस्तावित दवाइयों और वैक्सीन के साइड इफेक्ट को लेकर कुछ चिन्ताएं व्यक्त की गयी थी। जिनका आज तक जवाब नहीं आया है। इसके बाद कुछ वैज्ञानिकों और फिर कुछ पूर्व वरिष्ठ नौकरशाहों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कुछ जानकारीयां इस महामारी को लेकर मांगी थी जिनका जवाब नहीं आया है। अब डॉक्टर जैकब पुलियेल की याचिका पर यह शपथ पत्र आ गया कि वैक्सीनेशन अनिवार्य नहीं की गयी है यह एैच्छिक है। लेकिन व्यवहार में जिस तरह की बंदिशों के आदेश/निर्देश सामने आ रहे हैं वह रिकॉर्ड पर आ चुकी स्थिति से एकदम भिन्न है। इस भिन्नता के कारण ही यह आशंकाएं उभर रही हैं कि कहीं इस महामारी का कोई राजनीतिक लाभ तो नहीं उठाया जा रहा है। क्योंकि जन्म और मृत्यु के आंकड़े संसद में गृह विभाग की ओर से हर वर्ष रखे जाते हैं। क्योंकि हर जन्म और मृत्यु का पंजीकरण होता है। मृत्यु के इन आंकड़ों के अनुसार पिछले कुछ वर्षों से इसमें प्रतिवर्ष दस बारह लाख की बढ़ोतरी हो रही है। 2018 में यह आंकड़ा 69 लाख था और आज भी यह 7.27 प्रति हजार है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि व्यवहार और प्रचार में कितना अंतर है।

क्या चुनाव टालने की भूमिका बनाई जा रही है

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति शेखर यादव ने अपने एक आदेश में देश के चुनाव आयोग और प्रधानमंत्री से आग्रह किया है कि उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव दो-एक माह के लिये टाल दिये जायें। मान्य न्यायधीश ने यह आग्रह अपनी अदालत में वकीलों की भीड़ और उसमें सोशल डिस्टेंसिंग की अनुपाल न होने के कारण किया है। अदालत का यह तर्क रहा है कि ऑमीक्राम वायरस जिस तेजी से बढ़ रहा है उसके परिदृश्य में प्रदेश विधानसभा के चुनाव करवाना सही नहीं होगा। क्योंकि चुनावी रैलियों में भीड़ होगी और उसमें मानकों का पालन संभव नहीं होगा। जस्टिस शेखर कुमार यादव ने यह चिन्ता इस वायरस के संक्रमण की तीसरी लहर फरवरी में आने की संभावना के परिदृश्य में की है। जबकि ऐसी कोई याचिका उनके पास सुनवाई के लिए लंबित नहीं थी। जस्टिस शेखर यादव का यह फैसला उसी तर्ज का है जैसा कि मेद्यालय उच्च न्यायालय के जस्टिस सेन का फैसला था कि अब देश को हिंदू राष्ट्र घोषित कर दिया जाना चाहिये और यह काम आदरणीय नरेंद्र मोदी ही कर सकते हैं। जस्टिस एस आर सेन के फैसले के खिलाफ सी पी एम और नेशनल कॉन्फ्र्रेंस आदि सर्वाेच्च न्यायालय में भी पहुंचे थे। जस्टिस रंजन गोगोई और संजीव खन्ना की पीठ ने नोटिस भी जारी किये थे। लेकिन बाद में यह कह दिया गया था कि इसमें कुछ भी करने की जरूरत नही हैं। लेकिन इसी फैसले के बाद नागरिकता अधिनियम संशोधन आया और फिर संघ प्रमुख मोहन भागवत के नाम से ‘‘भारत का नया संविधान’’ की भूमिका वायरल हुई। यह प्रस्तावित संविधान पूरी तरह हिंदुत्व की अवधारणा पर आधारित है। लेकिन इसका कोई खंडन न तो संघ-मोहन भागवत और न ही भारत सरकार की ओर से आया है। इस परिपेक्ष में मान्य उच्च न्यायालय के मान्य न्यायाधीशों के इस तरह के फैसलों को हल्के से नहीं लिया जा सकता।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद यह चर्चा चल पड़ी है कि क्या सरकार पांच राज्यों में होने वाले चुनावों को टालने की योजना बना रही है। उत्तर प्रदेश की चुनावी अहमियत इसी धारणा से पता चल जाती है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। जिस उत्तर प्रदेश में 2017 और 2019 के चुनावों के बाद यह कहा जाने लगा था कि उसे वहां पर कोई चुनौती ही नहीं बनी है वहां पर आज जिस तरह की भीड़ अखिलेश यादव, प्रियंका गांधी और राहुल गांधी की जनसभाओं में उमड रही है उससे भाजपा के माथे पर चिंता की लकीरें साफ उभरना शुरू हो गयी हैं। क्योंकि इसी अनुपात में अब प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और पार्टी अध्यक्ष नड्डा की सभाओं में खाली कुर्सियां दिखनी शुरू हो गयी है। प्रियंका और राहुल के प्रयासों से कांग्रेस ने मुकाबले को तिकोना बना दिया है। फिर अयोध्या, काशी और मथुरा के प्रयोगों से भी धार्मिक और जातीय धुव्रीकरण नहीं बन पाया है। लखीमपुर खीरी काण्ड के बाद भी किसान आंदोलन में हिंसा न हो पाना इसी कड़ी में देखा जा रहा है। बल्कि इस काण्ड पर आई एस.आई.टी. की रिपोर्ट के बाद गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा भाजपा का नैगेटिव बनता जा रहा है। राम मंदिर के लिये की गई जमीन में लगे घोटाले के आरोपों का अभी तक कोई जवाब नहीं आया है। महंगाई और बेरोजगारी से जिस कदर आम आदमी पीड़ित हो उठा है उससे किसी भी तरह के धुव्रीकरण के प्रयास सफल नहीं हो रहे हैं। ऊपर से अब कृषि मंत्री तोमर का यह ब्यान कि सरकार कृषि कानूनों को लेकर फिर से एक प्रयास करेगी से स्थिति और उलझ गयी है। बल्कि इस ब्यान के बाद ममता बनर्जी के लिये भी अदानी के साथ बन रहे रिश्तों पर जवाब देना कठिन हो जायेगा। इस सब को अगर एक साथ मिलाकर देखा जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि यू.पी. में भाजपा की राह लगातार कठिन होती जा रही है और इससे एकदम बाहर निकलने के लिए ओमीक्राम के खतरे के नाम पर चुनाव टालने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं रह जाता है।
पांच राज्यों के लिये हो रहे चुनावों को लेकर सर्वे आ रहे हैं उनके मुताबिक कहीं भी भाजपा सुखद स्थिति में नहीं है। उत्तराखंड में भाजपा के कई मंत्री और विधायक कांग्रेस में वापसी कर चुके हैं। पंजाब में भाजपा को उस अमरिंदर सिंह का दामन थामना पड़ रहा है जो कांग्रेस छोड़ने के बाद पटियाला में ही अपने आदमी को मेयर का चुनाव नहीं जीतवा पाये। बंगाल की हार से प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत साख को जो धक्का पहुंचा है उससे अभी तक बाहर नहीं निकल पाये हैं। इस लिए अभी ओमीक्राम के नाम पर छः माह के लिए चुनाव टालने की भूमिका बनाई जा रही है। कुछ राज्यों द्वारा रात्रि कर्फ्यू लगाया जाना इसी दिशा का प्रयास है। यदि एक बार चुनाव टाल दिये जाते हैं तो इन राज्यों में अपने आप ही राष्ट्रपति शासन लागू होने की स्थिति आ जायेगी। जिसे आगे बढ़ाया जा सकता है। ऐसे में महामारी अधिनियम और महामारी की व्यवहारिकता को लेकर एक चर्चा की आवश्यकता हो जाती है और इसे अगले अंक में उठाया जायेगा।

 

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