Wednesday, 17 December 2025
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गंभीर हैं ईवीएम पर उठते सवाल

चुनाव हो गये है। परिणाम आ गये। सरकारे बन गयी। राजनीतिक दल अपनी-अपनी हार-जीत के आकलनों में व्यस्त हो गये हैं। इन चुनावों के बाद आम आदमी को डीजल के दाम बढ़ने की पहली किस्त मिल गयी है। इससे दूसरी चीजों के दाम भी बढ़ेंगे ही और वह अगली किस्तों में सामने आयेंगे। इस दाम बढ़ौतरी के साथ ही एक फिल्म कश्मीर फाइल भी आम आदमी को मिली है। इस फिल्म पर प्रधानमंत्री का ब्यान आया है। जिसने फिल्म को चर्चा में लाकर खड़ा कर दिया है। भाजपा शासित राज्यों ने इस पर टैक्स माफ कर दिया है। इस फिल्म से 2024 तक आने वाला हर चुनाव प्रभावित होगा यह माना जा रहा है। बल्कि चुनाव को प्रभावित करना ही इस फिल्म का मकसद है यह कहना ज्यादा सही होगा कि इसी के साथ चुनाव के बाद यह भी देखने को मिला है कि पंजाब के कुछ लोग अपनी गाड़ियों पर खालिस्तानी झंडे लगाकर हिमाचल के मणिकरण आये थे। इन लोगों पर ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन का आरोप भी है। इनको हिमाचल पुलिस ने रोकने का प्रयास किया तो उसके बदले में हिमाचल के वाहनों को पंजाब में एंट्री स्थलों पर रोक दिया गया। इस घटना पर हिमाचल और पंजाब की सरकारों का कोई आधिकारिक ब्यान नहीं आया। यह घटना इसलिये महत्वपूर्ण हो जाती है कि है पंजाब में आप की सरकार बनने के बाद और आप के हिमाचल में चुनाव लड़ने के ऐलान के बाद घटा है। इस सबका आने वाले दिनों में क्या प्रभाव देखने को मिलेगा यह तो आगे ही पता चलेगा। लेकिन इसको हल्के में लेना भी सही नहीं होगा। इसी परिदृश्य में यह सवाल फिर खड़ा होता है कि क्या आम आदमी ने इसी सबके लिये इन दलों को समर्थन देकर यह सरकारें बनवायी है या फिर चुनाव में आम आदमी परोक्ष/अपरोक्ष में अप्रसांगिक होकर रह गया था। क्योंकि इन चुनाव से पहले और इनके दौरान भी व्यवस्था के प्रति उसका रोष उसकी हताशा पूरी तरह खुलकर सामने आ गयी थी। तभी तो वह व्यवस्था से जुड़े हर व्यक्ति को सुनने तक के लिए तैयार नहीं था। उन्हें अपने गांव कस्बों से खदेड़ने तक आ गया था। इसी जन रोष के परिणाम स्वरुप सत्तारूढ़ भाजपा ने लखीमपुर में अपने गृह राज्य मंत्री को चुनाव प्रचार से हटा लिया था। उन्नाव और लखीमपुर खीरी सब जनता के सामने घटा है और उससे किसी भी सभ्य संवेदनशील व्यक्ति का रोष में होना स्वभाविक हो जाता है। लेकिन जब इतने रोष के बाद भी इन्हीं क्षेत्रों से व्यवस्था से जुड़े लोग सभी सीटों से चुनाव जीत जायें तो वह इसे कैसे आंकेगा। स्वाभाविक रूप से वह पूरी चुनावी प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर ही संदेह करने लगेगा। इसी में जब उसके सामने यह आ जाये की ईवीएम मशीनें चोरी हो रही है तो उसका संदेह पुख्ता हो जायेगा। इस चुनाव में जब ईवीएम मशीनें ले जाते हुये एक ट्रक पकड़ा जाता है और दो भाग जाते हैं। वैलेट पेपर का एक बॉक्स कूडे़ के ढेर में मिलता है। चुनाव आयोग को इसका संज्ञान अन्ततः लेना ही पड़ता है और वह संबद्ध अधिकारियों को निलंबित कर देता है तो चुनाव की निष्पक्षता पर उठने वाला हर सवाल स्वतः ही प्रमाणिक हो जाता है। फिर उसी चुनाव में एक पीठासीन अधिकारी का एक ऑडियो वायरल हुआ है जिसमें गंभीर आरोप लगे हैं। सर्वाेच्च न्यायालय के अधिवक्ता भानु प्रताप इस पर पत्रकार वार्ता करके जांच की मांग कर चुके हैं। ईवीएम की निष्पक्षता पर सबसे पहले भाजपा नेता डॉ. स्वामी ने एक याचिका के माध्यम से सवाल उठाये थे और तब वीवीपैट इसके साथ जोड़ी गयी थी। वीवीपैट को लेकर एक याचिका सर्वाेच्च न्यायालय में लंबित चल रही है। इस तरह चुनावी प्रक्रिया से लेकर ईवीएम तक सब की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल उठ चुके हैं। जिन देशों ने ईवीएम के माध्यम से चुनाव करवाने की पहल की थी वह सब इस पर उठते सवालों के चलते इसे बंद कर चुके हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल भी ईवीएम पर सवाल उठा चुके हैं। इस परिदृश्य में यह आवश्यक हो जाता है कि चुनाव प्रक्रिया पर आम आदमी का विश्वास बहाल करने के लिए ईवीएम का उपयोग बंद करके बैलट पेपर के माध्यम से ही चुनाव करवाने पर आना होगा।

चुनाव के बाद उठते सवाल

चुनाव परिणाम आने के बाद चार राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में भाजपा और पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकारें बनी है। इन चुनावों के परिणामों को लेकर केवल एग्जिट पोल ही सही साबित हुये हैं। अन्य सभी के आकलन गलत निकले हैं। इस स्वीकारोक्ति के साथ भाजपा और आप को बधाई। लेकिन जिस तरह के परिणाम सामने आये हैं और अंतिम चरण के मतदान के बाद जो कुछ भी घटा है उससे कुछ ऐसे सवाल भी उभरे हैं जिन्हें नजरअंदाज करना सही नहीं होगा। भाजपा की इससे पहले भी चार राज्यों में सरकारें थी जो अब भी बहाल रही हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश में 2017 के मुकाबले इस बार 48 सीटों का नुकसान हुआ है। उत्तराखंड में पार्टी तो जीत गयी लेकिन उसका मुख्यमंत्री हार गया। गोवा में पूर्ण बहुमत नहीं मिला अन्य के सहयोग से सरकार बना दी जायेगी। यहां पर भी मुख्यमंत्री का घोषित चेहरा चुनाव हार गया है। मणिपुर में चुनावों के दौरान शांति बनाये रखने के लिये वहां के एक प्रतिबन्धित संगठन को सरकार द्वारा 15 करोड़ दिये जाने का भी तथ्य चर्चा में आ गया है। उत्तर प्रदेश में भी ईवीएम मशीनों का काण्ड मतदान के अंतिम चरण के बाद सामने आया और चुनाव आयोग को तीन अधिकारी निलंबित करने पड़े हैं। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब एग्जिट पोल के आंकड़ों के मुताबिक भाजपा की भारी जीत हो रही थी तो फिर ईवीएम काण्ड क्यों घटा? बरेली में कूड़े की गाड़ी में मतपत्र और मोहरें क्यों मिली? कानपुर में डाले गये कुल मतों से गिने गये मतों की संख्या क्यों बढ़ी? सर्वाेच्च न्यायालय मेें वीवीपैट का दायरा बढ़ाने की मांग को लेकर आयी याचिका की सुनवाई के लिये पहले शीर्ष अदालत तैयार हो गयी लेकिन चुनाव आयोग का जवाब आने के बाद इस आग्रह को अस्वीकार क्यों कर दिया गया? आम आदमी पार्टी ने पंजाब के अतिरिक्त उत्तराखंड और गोवा में भी सरकार बनाने के दावांे के साथ चुनाव लड़ा था। वहां पर उसका प्रदर्शन खराब क्यों रहा? उत्तर प्रदेश में भी आपको कुछ नहीं मिला क्यों? चुनाव परिणामों के मुताबिक चार राज्यों में जनता ने भाजपा की नीतियों पर मोहर लगायी है। तो फिर उसी गणित से पंजाब में भाजपा-अमरेंद्र गठबंधन को जनता ने क्यों नकार दिया ? यह ऐसे सवाल हैं जो आने वाले दिनों में जवाब मांगेंगे। ममता की टीएमसी ने भी गोवा में चुनाव लड़ा था सरकार बनाने का दावा किया था। उसका प्रदर्शन भी सफल क्यों नहीं रहा? उत्तर प्रदेश में चुनाव के बसपा और भाजपा में तीन सौ करोड़ का सौदा होने की जानकारी एक स्टिंग ऑपरेशन के माध्यम से सामने आयी थी। चुनाव आयोग इस पर खामोश क्यों रहा?
सरकारों की सत्ता में वापसी जनता द्वारा उसकी नीतियों का स्वीकार माना जाता है। ऐसे में आज महंगाई और बेरोजगारी बढ़ने के जो मुद्दे हैं उन पर अब जनता को कोई भी सवाल उठाने का अधिकार नहीं रह जाता है। जिस किसान ने कृषि कानूनों से आहत होकर तेरह माह तक आंदोलन किया और सात सौ किसानों के प्राणों की आहुति दी है उसे भी अब सरकार के खिलाफ वादाखिलाफी का सवाल उठाने का अधिकार नहीं रह जाता है। कांग्रेस और अन्य दलों ने अपनी हार के कारणों का खुलासा अभी तक जनता के सामने नहीं रखा है। इसलिए उन पर अभी कोई चर्चा करना तो ज्यादा प्रसंागिक नहीं होगा। कांग्रेस नेतृत्व रफाल, पैगासैस और सार्वजनिक सम्पतियों, संस्थानों को मौद्रीकरण विनिवेश के नाम पर निजी क्षेत्र को सौंपने का सच जनता के सामने रख दिया है यही उसकी जिम्मेदारी थी। इस मौद्रीकरण और विनिवेश के कारण महंगाई बेरोजगारी लगातार बढ़ती रही है। आगे भी बढे़गी क्योंकि जब समाज के एक वर्ग को कुछ निःशुल्क दिया जाता है तो उस खर्च को पूरा करने के लिए या तो जनता पर सरकार टैक्स लगाती है या कर्ज लेती हैं क्योंकि सरकार की आय का और कोई साधन नहीं होता है। दादा को पैन्शन देकर बेरोजगार पोते को रोजगार नहीं मिलता है और न ही घर का खर्च चलाने वाले पिता को इस पैन्शन से महंगाई में राहत मिलती है। आज जनता को यह समझने की जरूरत है क्योंकि जो कुछ भी घट रहा है उसे जनता ने ही भोगना है चाहे वह किसी की भी समर्थक हो।

एग्जिट पोल का सच

सात मार्च को अंतिम चरण का मतदान था। इस मतदान के बाद एग्जिट पोल के परिणाम आने शुरू हो गये जो मतगणना तक चलते रहेंगे। हर चुनाव के बाद एग्जिट पोल और चुनाव से पहले ओपिनियन पोल का चलन काफी अरसे से चला आ रहा है। लेकिन इनके परिणाम कभी भी पूरी तरह सही साबित नहीं हुए हैं यह भी सच है। इस परिदृश्य में यह दावे के साथ कहा जा सकता है यह पोल परिणाम सही सिद्ध नहीं होंगे। हमारा आकलन पहले भी यह रहा है कि पांचों राज्यों में भाजपा की जीत नहीं होगी। पंजाब को लेकर भी यह आकलन है कि वहां पर आप की सरकार बनने की कोई संभावना नहीं है। इन चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत अच्छा रहेगा यह हमारा मानना है। चुनाव परिणाम स्पष्ट कर देंगे कि किस का आकलन सही रहेगा। इसलिए आकलन का आधार क्या है इस पर अभी कोई लंबी चर्चा करने का औचित्य नहीं है।
लेकिन एग्जिट पोल को लेकर यह सामने रखना आवश्यक हो जाता है की मतगणना के दिन से शुरू होने से पहले तक पोस्टल बैल्ट आ सकते हैं। जो लोग मतदान के अंतिम दिन के बाद पोस्ट से अपना मतदान भेजेंगे उस मतदाता की एग्जिट पोल के परिणामों से प्रभावित होने की संभावना बराबर बनी रहती है। क्योंकि जब वह इन पोल परिणामों में यह देखता है कि सरकार तो अमुक पार्टी की बन रही है तो उसी के पक्ष में मतदान करना उचित रहेगा। इससे जिन उम्मीदवारों की हार जीत सौ पच्चास वोटों से हो रही होती है उनको इससे लाभ मिल जाता है। इसी कारण से यह कहना शुरू कर दिया जाता है कि बड़े कम अंतर से हार जीत होगी। बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव में इन्हीं पोस्टल बैल्ट से पूरा चुनावी परिणाम बदल गया था यह देश देख चुका है। इसी परिदृश्य में यह उठाया जाना आवश्यक हो जाता है कि क्या मीडिया को इस तरह का आचरण करना चाहिए? क्या इससे मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल नहीं उठेंगे? जब मीडिया अपनी विश्वसनीयता खो देता है तब समाज में अराजकता पनपती हैं। जो कालांतर में सबको घातक सिद्ध होती है। मीडिया के साथ ही प्रशासन और राजनीतिक नेतृत्व भी अविश्वसनीय हो जाता है।
आज देश ही नहीं पूरा विश्व संकट के दौर से गुजर रहा है। रूस यूक्रेन युद्ध ने संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर नीचे तक हर वैश्विक संस्था की प्रसंगिकता पर प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिये हैं। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में मानवता से ऊपर व्यापार हो गया है। हर राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की आपदा में अपने लिये व्यापारिक अवसर तलाशने को प्राथमिकता दे रहा है। इसलिए कोई भी राष्ट्र यह युद्ध छिड़ने से पहले अपने नागरिकों को यूक्रेन से नहीं निकाल पाया। क्या सभी देशों की गुप्तचर संस्थाओं को यह युद्ध छिड़ने की संभावनाओं की पूर्व जानकारी ही नहीं हो सकी? हमारे ही मीडिया संस्थानों के विदेश में बैठे पत्रकारों को भी युद्ध की पूर्व जानकारी क्यों नहीं मिल पायी? यदि गुप्तचर एजेंसियों और मीडिया को जानकारी थी लेकिन सरकार ने उसके आधार पर अपने लोगों को यूक्रेन से निकालने का कोई प्रयास क्यों नहीं किया? ये ऐसे सवाल हैं जो देर सवेर उठेंगे ही। सबकी विश्वसनीयता पर यह प्रश्न चिन्ह होगा। क्योंकि यह सब कुछ इन्हीं चुनाव के दौरान घटा और हमारा नेतृत्व इस युद्ध के साये में भी सशक्त नेतृत्व के लिये समर्थन मांग रहा था।
इन चुनाव परिणामों का देश की राजनीति पर एक बड़ा और लंबा असर पड़ेगा यह तय है। क्योंकि इन चुनावों में महंगाई और बेरोजगारी जिस हद तक लोगों ने झेली है उसके असर का भी प्रभाव इन परिणामों में सामने आयेगा। देश के किसान ने जिस तरह से तीन कानूनों का विरोध किया और सात सौ किसानों ने अपनी आहुति दी इस सबका जवाब भी यह परिणाम होंगे। एक तरह से यह चुनाव आम आदमी की समझ की परीक्षा होंगे और उसका परिणाम एग्जिट पोल नहीं होंगे।

घातक होंगे गांधी के चरित्र हनन के प्रयास

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का चरित्र हनन और उनको मारने वाले नाथूराम गोडसे का महिमा मण्डन करते हुए सोशल मीडिया ओ.टी.टी. मंच लाईम लाईट पर आयी फिल्म ‘‘मैंने गांधी को क्यों मारा’’ के खिलाफ सर्वाेच्च न्यायालय में दायर हुई एक याचिका के माध्यम से इसके प्रसारण पर तुरंत प्रभाव से रोक लगाये जाने का आग्रह किया गया है। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय में भी अधिवक्ता भूपेंद्र शर्मा ने इस आशय की एक याचिका दायर की है जिस पर अदालत ने सभी संबद्ध पक्षों को नोटिस जारी करके जवाब तलब किया है। स्वभाविक है कि इस पर अब चर्चाओं का दौर चलेगा और एक वर्ग इस फिल्म के तथ्य और कथ्य को प्रमाणित सिद्ध करने का प्रयास करेगा। इस बहस के दूरगामी परिणाम होंगे। इसलिये इस संद्धर्भ में कुछ बुनियादी सवाल सामने रखना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि जिन लोगों ने यह फिल्म बनायी है जो लोग इसका समर्थन या विरोध करेंगे और जो इस पर फैसला देंगे वह सभी लोग वह हैं जो 1947 के बाद पैदा हुये हैं। उनका आजादी की लड़ाई का अपना कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं है। सबकी जानकारियां अपने-अपने अध्ययन और उसकी समझ पर आधारित हैं। इस समय जो पार्टी केंद्र में सत्ता में है वह संघ परिवार की एक राजनीतिक इकाई है। संघ की स्थापना 1922 में हुई थी। उस समय संघ का राजनीतिक पक्ष हिंदू महासभा थी। संघ और हिंदू महासभा की स्थापना से लेकर 1947 में देश की आजादी तक इन संगठनों की आजादी की लड़ाई को लेकर रही भूमिका के संद्धर्भ में कोई बड़े नामों की चर्चा नहीं आती है। वीर सावरकर और बी एस मुंजे की जनवरी 1930 में हिटलर से हुई मुलाकात का जिक्र मुंजे की डायरी में मिलता है। जिसमें ऐसे युवा तैयार करने की बात कही गयी है जो बिना तर्क किये कुछ भी करने को तैयार हो जायें। दूसरी ओर कांग्रेस का गठन 1885 में हो जाता है और आजादी की लड़ाई में योगदान करने वालों की एक लंबी सूची उपलब्ध है। इसी सूची में महात्मा गांधी का नाम भी आता है। यह भी तथ्य है कि जब 1935 में अंतरिम सरकारें है बनी थी तब हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग ने बंगाल में संयुक्त सरकार बनाई थी। यह कुछ मोटे तथ्य हैं जिनका कभी कोई खण्डन नहीं आया है।
इस परिदृश्य में जब 1947 में देश आजाद हुआ और साथ ही बंटवारा भी हो गया। तब जनवरी 1948 में गांधी जी की हत्या कर दी गयी। उसी दौरान 1948 और 1949 में संघ ने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और हिंदुस्तान समाचार न्यूज़ एजेंसी की स्थापना कर ली। जब देश बंटवारे के जख्म और गांधी की हत्या के दंश सह रहा था तब संघ भविष्य के मीडिया और युवा शक्ति को अपने उद्देश्य के लिए तैयार करने की व्यवहारिक योजना पर काम करने लग गया था। आज दोनों ईकाईयां सत्ता में कितनी प्रभावी भूमिका निभा रही हैं यह किसी से छिपा नहीं है। यह कहा जाता है कि अंग्रेजों को भगाने के लिये गांधी बंटवारे पर सहमत हो गये थे। उनका विश्वास था कि वह दोनों टुकड़ों को फिर से एक कर लेंगे। गांधी के इस विश्वास की समीक्षा तब हो पाती यदि वह दो-चार वर्ष और जिंदा रहते। गांधी इतिहास के ऐसे मोड़ पर मार दिये गये जहां पर उनको लेकर उठाया जाने वाला हर सवाल बेईमानी हो जाता है। क्योंकि बंटवारे के छः माह के भीतर ही उनको रास्ते से हटा देना एक ऐसा कड़वा सच है जो उन पर उठने वाले सवालों का स्वयं ही जवाब बन जाता है।
संघ अपनी राजनीतिक इकाई जनसंघ के माध्यम सेे 1952 से चुनाव लड़ता आ रहा है। 2014 में भाजपा के नाम से पहली बार अपने तौर पर सत्ता पर काबिज हो पाया है। 1948 से लेकर आज तक संघ की कितनी ईकाईयां हैं और वह क्या-क्या कर रही हैं अधिकांश को पता ही नहीं है। संघ शायद पहली संस्था है जो पंजीकृत नहीं है और अपने स्नातक तक तैयार कर रही है। इसका पाठयक्रम क्या है किसी को कोई सार्वजनिक जानकारी नहीं है। आज तक इसके कितने स्नातक निकल चुके हैं और किस किस फिल्ड में हैं इस पर आम आदमी का ध्यान गया ही नहीं है। इसका इतिहास लेखन प्रकोष्ठ और संस्कार भारती कब से स्थापित हैं और क्या कर रहे हैं शायद आम आदमी को जानकारी ही नहीं है। अभी धर्म संसदों के माध्यमों से यह सामने आया है कि मुस्लिम समुदाय को लेकर इनकी सोच क्या है। जबकि डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी से लेकर संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत तक दर्जनों ऐसे नेता हैं जिनके मुसलमानों के साथ एक और पारिवारिक रिश्ते हैं तो दूसरी ओर यह लोग सार्वजनिक मंचों से उनका विरोध करते हैं। आजादी की लड़ाई के दौरान किस तरह इनके नेता स्वतंत्रता सेनानियों की मुखबिरी करते थे इस संबंध में स्व.अटल जी के खिलाफ ही अदालती साक्ष्य लेकर स्वंय डॉ. स्वामी आये हैं। स्व.अटल जी देश के प्रधानमंत्री रहे हैं लेकिन आजादी की लड़ाई के दौरान उनकी मुखबिरी वाली भूमिका से क्या उन्हें देश हित का विरोधी कहा जा सकता है। नहीं, उस समय उन्होंने ऐसा जो भी कुछ किया होगा अपने वरिष्ठों के आदेशों की अनुपालना में किया होगा। इसलिये आज गांधी नेहरू के चरित्र हनन और उन्हें पाठयक्रमों से हटाकर सच को दबाने के प्रयास देश हित में नहीं माना जा सकता। बल्कि यह माना जायेगा कि ऐसे प्रयासों से आर्थिक असफलताओं को दबाने का काम किया जा रहा है।

चुनाव आयोग की प्रसांगिता पर उठते सवाल

क्या चुनाव आयोग की प्रसांगिता प्रश्नित होती जा रही है? यह सवाल पांच राज्यों के लिये हो रहे विधानसभा चुनाव के परिदृश्य में एक बड़ा सवाल बनकर सामने आया है। क्योंकि इस चुनाव की पूर्व संध्या पर जिस तरह से प्रधानमंत्री का साक्षात्कार प्रसारित हुआ और चुनाव आयोग इस पर चुप रहा। इसी तरह योगी आदित्यनाथ का इंटरव्यू भी प्रसारित हुआ। चुनाव आयोग ने इसका भी कोई संज्ञान नहीं लिया। जबकि 2017 के चुनाव में इसी तरह के राहुल गांधी के एक इंटरव्यू पर चैनल के खिलाफ एफ आई आर दर्ज करने और राहुल गांधी को नोटिस जारी करने की कारवाई की गयी थी। 2017 से 2022 तक आते-आते चुनाव आयोग यहां तक पहुंच गया उसके सरोकार बदल गये हैं। ईवीएम में गड़बड़ी की शिकायतें हर चुनाव में आ रही है। इस बार भी उत्तर प्रदेश के हर चरण में यह शिकायतें आ रही हैं। देश के सारे विपक्षी दल ईवीएम की जगह मत पत्रों के माध्यम से चुनाव करवाने की मांग कर रहे हैं। ईवीएम के साथ वीवीपैट की पूरी गणना करने और ईवीएम के साथ मिलान करने की मांग को नहीं माना जा रहा है। क्या इस परिदृश्य में चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर उठते सवालों को नजरअंदाज किया जा सकता है। चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन पर अभी तक आपराधिक मामला दर्ज करके चुनाव रोकने का प्रावधान नहीं हो पाया है। संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करवाने तथा एक देश एक चुनाव के दावे सभी सिर्फ जनता का ध्यान बांटने के हथकण्डे होकर रह गये हैं।
इसी चुनाव में एक स्ट्रिंग ऑपरेशन के माध्यम से बसपा और भाजपा के दो बड़े नेताओं के बीच हुई बैठक का एक आडियो/वीडियो वायरल हुआ है जिसमें कथित रूप से यह कहा गया है कि बसपा की करीब 40 सीटें आयेंगी जिन्हें तीन सौ करोड़ लेकर भाजपा को सौंप दिया जायेगा। इस आडियो/ वीडियो का भाजपा और बसपा द्वारा कोई खण्डन नहीं किया गया है। इसी तरह पंजाब के चुनाव को लेकर हुई एक चैनल वार्ता में भाजपा के प्रतिनिधि ने यहां तक कह दिया कि यदि भाजपा की पच्चीस सीटें भी आ गयी तो सरकार वही बनायेंगे। इस दावे का सीधा अर्थ है कि धन और बाहुबल के सहारे ऐसा किया जायेगा। पंजाब के मतदान की तारीख चौदह फरवरी से बीस कर दी गयी और इसी दौरान बाबा राम रहीम को पांच बार पैरोल मिल गयी। यह संयोग कैसे घटा इसे हर आदमी समझ रहा है। इन सारे मुद्दों पर चुनाव आयोग खामोश रहा और इसी से सवाल उठ रहे हैं क्योंकि चुनाव को बड़े योजनाबद्ध तरीके से धन केंद्रित बनाया जा रहा है। आज भाजपा अपनी घोषित आय के मुताबिक देश का सबसे अमीर राजनीतिक दल बन गया है। इसके लिये जिस तरह के नियमों को बदला गया है उस पर नजर डालने से सारी स्थिति स्पष्ट हो जाती है।
2013 में दिल्ली उच्च न्यायालय में एफ सी आर ए को लेकर एक याचिका दायर हुई जिसमें भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों को दोषी पाते हुए इनके खिलाफ छः माह के भीतर कारवाई करने के निर्देश चुनाव आयोग को दिये गये थे। लेकिन चुनाव आयोग के कुछ करने से पहले ही 2016 में सरकार ने विदेशी कंपनी की परिभाषा बदल दी और इसे 2010 से लागू कर दिया। इसके बाद फाइनेंस एक्ट की धारा 154 और कंपनी एक्ट की धारा 182 बदल दी। दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस बदलाव को अस्वीकार करते हुए फिर भाजपा और कांग्रेस के खिलाफ आयोग को कारवाई के निर्देश दिये। लेकिन 2018 में सरकार ने एफ सी आर ए में 1976 से ही बदलाव करके विदेशी कंपनियों से लिये गये चन्दे को वैध करार दे दिया और चन्दा देने की सीमा बीस हजार से घटाकर दो हजार कर दी। अब इलेक्ट्रोरल बॉन्ड लाकर सारा परिदृश्य ही बदल दिया गया है। इस इलेक्ट्रोरल बॉन्ड के जरिये कोई भी किसी भी पार्टी को कितना भी चन्दा दे सकता है क्योंकि बॉन्ड एक वीयर्र चेक की तरह है जिस पर न खरीदने वाले का नाम होगा और न ही इसको भुनाने वाले दल का नाम होगा। पन्द्रह दिन के भीतर इसे कैश करना होता है। एक वर्ष में जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्तूबर में दस-दस दिनों के लिए बॉन्ड खरीद खोली जाती है। एस बी आई की 29 शाखाओं से यह खरीदे जा सकते हैं जो राज्यों के राजधानी नगरों में स्थित हैं। एक लाख से लेकर एक करोड़ तक का चन्दा इसके माध्यम से दिया जा सकता है। इन बॉन्डस को लेकर चुनाव आयोग लगातार मूकदर्शक की भूमिका में रहा है जबकि इन बॉन्डस के माध्यम से ब्लैक मनी का आदान-प्रदान हो रहा है। क्योंकि कोई भी पंजीकृत दल यह चन्दा लेने का अधिकारी है यदि उसे चुनावों में कम से कम एक प्रतिशत वोट हासिल हुये हैं। अभी पांच राज्यों के चुनावों से पहले जनवरी 2022 के दस दिनों ही चन्दा देने के लिये एस बी आई से 1213 करोड़ के यह बॉन्डस बिके हैं। 2018 से लेकरं अब तक 9207 करोड़ का चन्दा राजनीतिक दलों को इनके माध्यम ये मिला है। क्या इस तरह के चन्दे से चुनाव केवल पैसे के गिर्द ही केंद्रित होकर नहीं रह जायेंगे? क्या यह एक प्रभावी लोकतंत्र बनाने में सहायक हो पायेंगे? क्या चुनाव आयोग की स्वायत्तता का यही अर्थ है कि वह इस सब को देखकर अपनी आंखें और मुंह बन्द रखे?


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