शिमला/बलदेव शर्मा भ्रष्टाचार और कालेधन पर कारवाई करना आसान नहीं है यह नोटबंदी के बाद पैदा हुए हालात से साफ सामने आ गया है। नोटबंदी कालेधन के खिलाफ एक कड़ा और सही कदम है यह संसद के अन्दर सारा विपक्ष भी सिद्धांत रूप से स्वीकार कर चुका है। नोटबंदी पर जिस ढंग से अमल किया गया है उसके कारण
आम आदमी को व्यवहारिक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा है। कई लोगों की मौत हो चुकी है। निचले स्तर के रोजगार पर असर पड़ा है। किसान परेशान है लेकिन बडे़ आदमी पर, कालाधन रखने वालों पर इसका कोई नकारात्मक असर नहीं पडा है। भ्रष्ट मानसिकता बैंक कर्मचारियों/अधिकारियोें और कारोबारियों के गठजोड़ से खुलकर सामने आ गयी है। क्योंकि जिस मात्रा में छापेमारी के दौरान नये नोट थोक में पकडे़ जा रहे है उससे आम आदमी का विश्वास इस फैसले पर से उठता जा रहा है। इस फैसले के अच्छे परिणाम भविष्य में सामने आयेंगे यह तर्क न तो स्वीकार्य हो सकता है और न ही ग्राह्य। क्योंकि इसके कारण जो नुकसान हो रहा है उसकी भरपायी भविष्य मे संभव नही हो सकती। कैशलैस होने का जो पाठ पढ़ाया जा रहा है उसकी विश्वसनीयता पर भ्रष्ट बैंक कर्मचारियों ने स्वयं प्रश्न चिन्ह लगा दिया है इसलिये कैशलैस लेनदेन इस समस्या का कतई हल नही है। क्योंकि साईबर अपराधी इतने आगे निकल चुके हैं कि एक फोन काॅल पर ही लाखों लूट लिये जाते हंै। नये नोट के साथ ही जाली नोट का बाजार में आना और उसका एटीएम तक पहंुच जाना कैशलैस व्यवस्था के लिये ऐसी चुनौतियां है जिनका हल अभी नही निकल सकता है। सिद्धांत रूप में नोटबंदी का फैसला जितना सही है इस पर हुए अमल ने इसे उतना ही गलत प्रमाणित कर दिया गया है।
नोटबंदी पर उभरे गतिरोध से संसद सत्र स्वाह हो गया है। इसमे भी हद तो यह हो गयी कि लोकसभा में प्रचण्ड बहुमत लेकर सरकार बनाने के बावजूद प्रधानमंत्री यह कह रहे हंै कि उन्हें संसद में बोलने नही दिया जा रहा है। इसलिये उन्होने जनता से सीधे संवाद का रास्ता चुना है। लेकिन जनता से सीधे संवाद मे प्रधानमंत्री जो बोल रहे है वह व्यवहार में सामने नही आ रहा है। प्रधानमंत्री ने दावा किया था कि पचास दिन में सारी कठिनाईयां समाप्त हो जायेंगी। लेकिन अब पचास दिन के बाद धीरे-धीरे समाप्त होने की बात कही जा रही है। प्रधानमंत्री ने कहा था कि इस फैसले से कालाधन रखने वाले परेशान हो गये हैं परन्तु अभी तक कालाधन रखने वाले किसी की भी मौत नही हुई है मौत केवल लाईन में लगने वालों की हुई है। आम आदमी को शादी व्याह के लिये 2.50 लाख कैश ड्रा की सीमा लगा दी गयी फिर उसमें भी कई और शर्तें लगा दी गयी। जबकि जिन बडे़ लोगों ने शादी समारोहों पर सैंकडों करोड़ खर्च कर दिये उन्होने कितना भुगतान डिजिटल किया है इस पर उठे सवालों का कहीं से कोई जवाब नही आ रहा है।
दूसरी ओर विपक्ष में राहुल गांधी नोटबंदी को सबसे बड़ा घोटाला करार देते हुए यह कह रहे हंै कि उन्हे संसद में बोलने नही दिया जा रहा है। राहुल गांधी ने यह भी दावा किया है कि उनके पास प्रधान मन्त्री मोदी के खिलाफ पुख्ता सबूत हैं जिन्हें वह संसद मे रखना चाहते हंै। लेकिन यदि संसद नही चल रही है तो राहुल मोदी की तर्ज पर जनता से सीधा संवाद स्थापित करके वहां इस घोटाले का पर्दाफाश क्यों नही करते? क्या देश संसद से बड़ा नही है? संसद और सरकार दोनों ही देश की जनता के प्रति जवाबदेह हैं। लेकिन राहुल का जनता के मंच को न चुनना कहीं न कहीं यह इंगित करता है कि वह इस पर राजनीति पहले करना चाहते है और राजनीति की गंध आते ही राहुल गांधी का पक्ष कमजोर हो जाता है। जबकि इसमे केजरीवाल राहुल से ज्यादा स्पष्ट हैं क्योंकि नोटबंटी को घोटाला करार देकर इस पर एक पत्र जनता के नाम जारी करके उसमें इस फैसले के बाद 63 उद्योगपतियों के 6000 करोड़ बट्टे खातों में डालने का तथ्य उजागर कर दिया। केजरीवाल के इस आरोप का खण्डन नही आ पाया है।
इस परिदृश्य में अन्त में जो स्थिति उभरती है उसमे यह स्पष्ट हो जाता है कि नोटबंदी कालेधन के खिलाफ जितना सख्त कदम है उसे उसी अनुपात में असफल बनाया जा रहा है। इसमें यह सवाल उभरता है कि जिन लोगों पर इस फैसले पर अमल करवाने की जिम्मेदारी थी क्या उनका इस बारे में आकलन ही सही नही था या फिर वह स्वयं इसके खिलाफ थे। आज इस फैसले पर हुए अमल से देश के हर कोने में रोष है क्योंकि हर जगह लोगों को नोट लेने में लाईनों में लगकर खाली हाथ लौटना पड़ा है। इसलिये रोष को शांत करने के लिये हर बैंक की हर शाखा तक पहुंच कर कारवाई सुनिश्चित करनी होगी क्योंकि नोटों के वितरण की जिम्मेदारी इन्ही पर थी और इस व्यवस्था के संचालन की जिम्मेदारी सरकार पर है। इसलिये अन्तिम जवाब सरकार से ही आना है।
लोकसभा सचिवालय के संसदीय अध्ययन तथा प्रशिक्षण ब्यूरो द्वारा संसदीय प्रक्रिया और कार्य विधि पर पत्रकारों के लिये आयोजित प्रशिक्षण कार्यक्रम के अवसर पर विशेषाधिकारियों के मुद्दे पर अपने चिन्तन और चिन्ताओं को सांझा करते हुए भाजपा संसाद मीनाक्षी लेखी ने जो सवाल राष्ट्रीय बहस के लिये उछाले हैं उस पर व्यापक चर्चा होना अनिवार्य है। आज संसद से लेकर सड़क तक हर व्यक्ति अपने विशेषाधिकारियों को लेकर न केवल सजग है बल्कि उनके जरा से भी हनन पर अक्रोशित हो उठता है। इस परिदृश्य में मीनाक्षी लेखी ने जो स्वयं संसद की विशेषाधिकार समिति की अध्यक्ष भी हैं सांसद निधि को लेकर जो सवाल उछाला है उससे पूरी प्रशासनिक व्यवस्था सवालों के कटघरे में खड़ी हो जाती है। आज हमारे सांसदों और विधायकों को अपने-अपने क्षेत्र के विकास के लिये सरकार के बजट से हटकर एक विकास निधि मिलती है।
इस विकास निधि को यह संासद और विधायक अपने क्षेत्र में किसी भी विकास कार्य पर स्वेच्छा से खर्च कर सकते हैं लेकिन इस विकास निधि को जिला प्रशासन के माध्यम से ही खर्च किया जाता है जिस भी कार्य पर इसे खर्च किया जाना होता है उसका पूरा प्रारूप जिला प्रशासन द्वारा ही तैयार किया जाता है और उसके संचालन की पूरी जिम्मेदारी प्रशासन के हाथ में रहती है। इसमें सांसद/ विधायक की भूमिका मात्र इतनी ही रहती है कि वह स्वयं या अपने क्षेत्र विशेष के लोगों के आग्रह पर ऐसे विकास कार्य को चिन्हित करके अपनी विकास निधि से धन की उपलब्धता सुनिश्चित करता हैं । लेकिन उस चिन्हित कार्य के लिये वह धन कितना पर्याप्त है? उसमें और कितना धन वांच्छित होगा या आवंटित धन में से कितना शेष बच जायेगा। इस सबकी जानकारी प्रशासन सबंधित सांसद /विधायक को समय पर उपलब्ध नहीं करवाता है। आज कई सांसद ऐसे है जिनकी सांसद निधि पूरी खर्च हो नही पाती है। फिर यदि सांसद/ विधायक राज्य सरकार के सत्तापक्ष से भिन्न दल के हों तो स्थिति और भी विकट हो जाती है। मीनाक्षी लेखी प्रशासन की ऐसी वस्तुस्थिति की स्वयं भुक्त भोगी है।
ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब एक सांसद/विधायक को उसके क्षेत्र के विकास के लिये बजट से इत्तर विकास निधि का प्रावधान किया गया है। तो वहां के लोगों की अपने सांसद/विधायक से अगल से कुछ अपेक्षाएं रहेगी ही। इन्ही अपेक्षाओं को पूरा करने के लिये इस धन का आवंटन किया जाता है। विकास निधि पाना और उसका खर्च करना सांसद का विशेषाधिकार है। हर वर्ष हर सांसद को पांच करोड को विकास निधि मिलती है और इसे एक वर्ष के भीतर खर्च किया जाना होता है लेकिन यह तभी संभव हो सकता हैै जब जिला प्रशासन इसमें पूरा सहयोग करे। इसके लिये यह व्यवस्था रहनी चाहिये की इस निधि का अवांटन भी एक तय समय सीमा को भीतर हो जाना चाहिये। सांसद /विधायक को भीे ऐसे कार्यो का चयन एक तय समय सीमा में कर लेना चाहिये। चयनित कार्य का प्रारूप तैयार करने के लिये भी समय सीमा तय होनी चाहिये और चयनित रूप देने से पहले सांसद/विधायक द्वारा भी उसका अनुमोदन होना चाहिये। इस तरह जब कार्य शुरू हो जाये तो उसकी प्रगति की रिपोर्ट भी समय समय पर सांसद /विधायक को दी जानी चाहिये। जब तक सांसद/विधायक विकास निधि के खर्च के लिये यह अनिवार्यताएं प्रशासन के लिये नही रखी जायेंगी तब तक प्रशासन का सहयोग सुनिश्चित करना कठिन हो जायेगा। जब यह सच अनिवार्य और समयबद्ध कर दिया जायेगा तभी प्रशासन के स्तर पर की जाने वाली हर कोताही को विशेषाधिकार के हनन के दायरे में लाया जा सकेगा आज सांसद के लिये आर्दश ग्राम येाजना भी शुरू की गयी है लेकिन इस योजना का कार्यन्वयन भी इसी प्रशासन के माध्यम से किया जाना है क्योंकि सांसद के पास इसके लिये अलग से तो कोई व्यवस्था है नही। जन सुविधा के नाम पर किये जाने वाले यह सारे प्रयास प्रशासन की प्रतिबद्धता के बिना पूरे करना कठिन है इसके लिये प्रावधानों को नजर अन्दाज करके आयी हुई विकास निधि को लैप्स होनेे देना तो निश्चित तौर पर संबधित प्रशासन विशेषाधिकार के हनन का दोषी माना जायेगा। क्योंकि विकास पाना जनता का विशेषाधिकार और विकास निधि के माध्यम से करवाना सांसद/ विधायक का विशेषाधिकार है। इस संद्धर्भ में श्रीमति मीनाक्षी लेखी की चिन्ता और चिन्तन को हमारा पूरा समर्थन है।
शिमला। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नोटंबदी का फैसला क्या एक ऐतिहासिक भूल बनकर ही तो नहीं रह जायेगा अब यह सवाल उभरने लग पड़ा है। क्योंकि नोटबंदी से कालेधन पर अंकुश लगाने और कालेधन के सहारे चल रही समानान्तर अर्थव्यवस्था को समाप्त करने का दावा और वायदा देश से किया गया था। लेकिन जैसे-जैसे इस फैसले के बाद भी कालाधन घोषित करने की समय सीमाएं बढ़ाई जा रही हैं और उन्हें 50% टैक्स देकर अपना शेष धन वैध बनाने का अवसर दिया जा रहा है उससे इस फैसले की नीयत और नीति दोनों पर ही सन्देह होने जा रहा है। क्योंकि नोटबंदी से पहले यह स्थिति जग जाहिर हो चुकी थी कि हमारे की बैंक घाटे में चल रहे हैं। देश के 55 लोगों के पास 85 हजार करोड़ कर्ज होने का आंकड़ा भी सामने आ चुका था। बैंको का एनपीए बढ़ता जा रहा था। संभवतः इसी वस्तुस्थिति को सामने रखकर रिर्जव बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने बड़े लोगों को दिये जा रहे बढे़ कर्जो पर चिन्ता जताते हुए उनका विरोध किया था। गरीब को दस रूपये की सबसिडि देकर बडे़ घरानों को लाखों करोड़ के पैकेज देना खुली बहस का मुद्दा बन चुका था। आम आदमी इस स्थिति पर मुखर होने लग पड़ा था क्योंकि इसी के कारण मंहगाई लगातार बढ़ती जा रही थी। लोकसभा चुनावों से पहले इस कालेधन को लेकर बड़े-बडे़ दावे और वायदे किये गये थे। 
इस परिदृश्य में यह स्वाभाविक था कि यदि इन दावों वायदों को अमली जामा देना है तो उसके लिये कर प्रणाली को सरल करना होगा और इस दिशा में जीएसटी को लाया गया। लेकिन अकेले जीएसटी से ही पूरी स्थिति में सुधार नही हो सकता था इसके लिये कुछ और भी चाहिये था जो कि नोटबंदी के ऐलान के रूप में सामने आया। आम आदमी इस फैसले से इसलिये खुश हुआ कि उसके पास 500 और 1000 के इतने नोट नहीं है जो अवैध करार दिये जाने के दायरे में आयेंगे क्योंकि उसने कोई टैक्स चोरी नही की है। इसलिये यही आम आदमी पुराने नोट बदलवाने के लिये बैकों के आगे लाईने लगाकर खड़ा हुआ। जबकि कोई भी कर चोर इन लाईनों में नही देखा गया क्योंकि जब सरकार ने सरकार को दिये जाने वाले सारे बिलों के भुगतान में पुराने नोटों की सुविधा दे दी तो इसका लाभ बहुत स्थानों पर कालेधन वालों ने उठाया। पैट्रोल पम्पों पर यह सुविधा दी गयी और वहां भी चार दिन में ही इतनी सेल दिखा दी गयी जो शायद दो वर्षो में भी न हुई हो। ऐसे पैट्रोल पम्प मालिकों को ईडी के नोटिस आना इसका प्रमाण है। सरकारी परिवहन सेवाओं को भी इसके लिये इस्तेमाल किया गया। कुल मिलाकर आम आदमी को राहत देने के लिये जो भी कदम उठाये गये उनका दुरूपयोग हुआ है। संभवतःइसी दुरूपयोग का परिणाम है कि कालाधन रखने वालों को इसकी घोषणा का फिर मौका दिया जा रहा है।
कंरसी की व्यवस्था की जिम्मेदारी रिजर्व बैंक की है। रिजर्व बैंक उतने ही नोट छापता है जितना उसके पास रिजर्व में सोना उपलब्ध रहता है। सोना ही अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में हमारी मुद्रा का आधार होता है। स्मरणीय है कि इसी आधार को बनाये रखने के लिये स्वर्गीय चन्द्र शेखर के शासनकाल में सोना गिरवी रखना पडा था। इस उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि कंरसी का मूल आधार सोना रहता है। ऐसे में रिजर्व बैंक ने जितने भी नोट छापकर बाजार में भेजे हैं उनका अनुपातः सुरक्षित भण्डार सोने के रूप में उसके पास मौजूद है। ऐसे में यदि उसके छापे हुए 500 और 1000 के नोटों का चलन बन्द कर दिया गया तो उतना स्वर्ण भण्डार तो उसके पास है ही। आरबीआई के पास यह आंकड़ा भी हर समय उपलब्ध रहता है कि कितने नोट विभिन्न बैंको के पास हैं और कितने बैंको से निकलकर खुले बाजार में पहुंच चुके हैं। इस परिदृश्य में जब यह नोटबंद किये गये और उन्हे नये नोटों के साथ बदलने की सुविधा दी गयी तो इसके लिये एक अनुपात में पूर्व व्यवस्था की जा सकती थी जो नही की गयी। हर आदमी काला धन रखने का दोषी नहीं है इसलिये उसे नोट बदलने के लिये जायज़ समय मिलना चाहिये था जो मिला भी। तय समय सीमा के बाद नोट बदलने का काम पूरी तरह बन्द हो जाना चाहिये था। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कुल कितने पुराने नोट वापिस आये और कितने नही आये। जो नोट वापिस नहीं आते उससे सरकार का, आरबीआई का तो कोई नुकसान नही होता। नुकसान तो केवल नोट रखने वाले का होता। जब पुराना नोट चाहे वह किसी के पास चलना ही नही है तो उसकी गिनती किस अर्थव्यवस्था में कि जा सकती है। कालेधन से जो संपति खड़ी की गयी है वह तो बनी ही रहेगी उसकी जांच पड़ताल कभी भी की जा सकती है। लेकिन जेब में रखा हुआ पुराना नोट तो चलन बन्द होने के बाद महज कागज का टुकडा मात्र है। आरबीआई इन पुराने नोटों को रिसाईकिल करवा कर केवल करंसी पेपर ही ले सकता है इससे अधिक कुछ नही। ऐसे में अब कालेधन वालों को टैक्स छूट देकर और समय देना सरकार की नीयत और नीति दोनों के लिये घातक होगा।
शिमला/शैल। प्रधानमंत्री के नोटबंदी फैसले के बाद अब आटा, दाल आदि की कीमतों में बढ़ौत्तरी के समाचार आने लग पड़े हैं। नोटबंदी से मंहगाई का बढ़ना एक खतरनाक संकेत है क्योंकि इन दोनों का आपस में कोई सीधा संबद्ध नही है। मंहगाई के लिये केवल थोक में काम करने वाला बड़ा व्यापारीे ही जिम्मेदार होता है जो कि बाजार से चीज उठाकर स्टोर कर लेता है और फिर उसकी कालाबाजारी करता है जब नोटबंदी के फैसले की घोषणा हुई थी उसके बाद इसी काले बाजार ने देश के कुछ भागों में नमक की कमी की अफवाह फैला दी और नमक को लेकर अफरातफरी मची। नमक की कमी की अफवाह फैलाने वालों के खिलाफ जब कोई कारवाई नहीं हुई तब इन्ही लोगों ने अब दैनिक जरूरत के आटा दाल आदि की कीमतें बढ़ा दी हैं । 
प्रधानमन्त्री ने कालेधन का कारोबार करने वालों के खिलाफ यह नोटबंदी का कदम उठाया है। देश के गरीब और मध्यम वर्ग ने प्रधान मन्त्री को इस पर खुलकर समर्थन दिया है। प्रधानमंत्री ने देश से पचास दिन का समय मांगा था। लेकिन इन काला बाजारीयों ने पन्द्रह दिन में ही प्रधान मन्त्री को चुनौती दे दी है। उन्होने दैनिक जरूरत की चीजों के दाम बढ़ाकर फिर से दो गुणा कालाधन जमा करने का रास्ता अपना लिया है। दैनिक खाद्य सामग्री की कीमतें बढ़ना एक घातक संकेत है और आने वाले दिनों में इसके परिणाम भयानक हो सकते है। नोटबंदी से तो इन काला बाजारीयों की कमर टूट जानी चाहिए थी लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। इस मंहगाई से यह स्पष्ट हो गया है कि नोटबंदी का इन जमाखोरों पर कोई असर नही हुआ है। उल्टे आम आदमी की जमा पूंजी भी इस फैंसले से बैकों के पास जमा हो गई और बदले में उसे अपने ही पैसे जरूरत के मुताबिक वापिस बैंक से नहीं मिल रहें है। पैसों के लिये बैंको के आगे लगी लम्बी लाईनों में देश के 74 आदमी अपनी जान गंवा चुके है। आखिर इन मौतों के लिये किसी को तो जिम्मेदार ठहराना होगा। सरकार ने बार -बार कहा कि सरकारी और प्राईवेट अस्पतालों में ईलाज के लिये पुराने नोट स्वीकार किये जायें। लेकिन सरकार के इस दावे की हवा केन्द्रिय मंत्री डी वी गौड़ा के साथ एक प्राईवेट अस्पताल में हुए व्यवहार से निकल जाती है। मन्त्री ने अपने मृतक भाई के ईलाज का भुगतान जब पुराने नोटों से करना चाहा तो अस्पताल ने पुराने नोट लेने से इन्कार कर दिया। ऐसे सैंकडों किस्से हैं।
कालेधन के खिलाफ नोटबंदी एक सराहनीय और सही फैंसला है और इस पर प्रधानमंत्री का सहयोग किया जाना चाहिए यह मेरा पहले दिन से ही मानना है लेकिन इस फैंसले का परिणाम यदि गरीब आदमी को मंहगाई के रूप में मिलता है तो इस फैसले का समर्थन करना कठिन होगा। इस फैंसले से हर घर और हर व्यक्ति सीधे प्रभावित हुआ है। ऐसा ही आपातकाल के दौरान हुआ था। जमाखोरों और काला बाजारीयों को जेल देखनी पड़ी थी। दफ्रतरों में लोग एक समय पर आने शुरू हो गये थे। रिश्वत पर अकुंश लग गया था। आपातकाल का विरोध तब भी राजनीतिक कारणों से हुआ था। लेकिन उस दौरान जब परिवार नियोजन के नाम पर जन संख्या कम करने के लिये नसबंदी कार्यक्रम शुरू हुआ तो उसमें आकंडो की होड में पात्र-अपात्र की परख किये बिना नसबंदी आप्रेशन शुरू हो गये। इन आप्रेशनों से हर घर प्रभावित हो गया। आपातकाल का और कोई ऐसा फैंसला नही रहा है जिससे आम आदमी प्रभावित और डरा हो। लेकिन एक नसबंदी के फैंसले पर हुए अमल ने आपातकाल के सारे अच्छे पक्षों को पीछे छोड़ दिया और 1977 में कांग्रेस पूरे देश से सत्ता से बाहर हो गयी। आज नोटबंदी का फैंसला ठीक नसबंदी जैसा ही फैंसला है और इसके परिणाम भी वैसे ही होने की आशंका मंहगाई से उभरने लग पड़ी है। यदि इसे अभी सख्ती से न रोका गया तो फिर सर्वोच्च न्यायालय की दंगे भड़कने की आशंका सही साबित हो जायेगी।
शिमला/शैल। प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी ने काले धन के खिलाफ एक बड़ा कदम उठाते हूए आठ नवम्बर रात बारह बजे से 500 और 1000 के नोटों के चलन पर रोक लगा दिये जाने का ऐलान किया। इस ऐलान के साथ ही इन पुराने नोटों को बदलने के लिये तीस दिसम्बर तक का समय दिया। पूराने नोटों के स्थान पर 2000 का नया नोट पहले चरण में जारी किया गया। नये नोटों में 500 और 1000 के भी नये नोट जारी किये जायेंगे और कब किये जायेंगे इसको लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है। प्रधानमन्त्री ने इस फैसले से होने वाली व्यवहारिक असुविधा के
सामान्य होने के लिये पचास दिन का समय मांगा है। फैसला लागू होने के बाद जिस तरह की व्यहवहारिक असुविधा सामने आयी है उससे यह सवाल अवश्य उठता है कि प्रशासनिक स्तर पर इस फैसले की व्यापकता और व्यवहारिकता दोनां का ही आकलन करने में भारी चूक हुई है। यह आकलन उस तन्त्र को करना था जिन्हें इतने बड़े फैसला की प्रक्रिया में शामिल किया गया होगा। इस फैसले के सकारात्मक परिणाम कब, क्या और कितने आयेंगे यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन इस समय इससे व्यवहारिक अराजकता फैलती जा रही है इसमें कोई दो राय नही है।
काला धन एक भयानक समस्या ही नही बल्कि अन्य समस्याओं मंहगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार का भी स्त्रोत है यह सब जानते और मानते हैं। इसी कालेधन के सहारे नशा खोरी और आंतकवाद पनपता फैलता है जिसका सबसे बड़ा शिकार आम आदमी होता है। इसीलिये आम असुविधा सहते हुए भी इस फैसले का स्वागत कर रहा है और प्रधान मन्त्री को पचास दिन का समय देने के लिये तैयार है। आज इस फैसले का विरोध आम आदमी की असुविधा के नाम पर वह राजनीतिक वर्ग कर रहा है जिसका अधिकांश काम कालेधन के बिना नही चलता है। आज नोट बदलवाने के लिये यह बैंक से अपने ही खाते से पैसा निकलवाने के लिये लग रही लाईनों में कहीं से भी ऐसी कोई खबर नही आयी है कि कहीं कोई मन्त्री, सांसद विधायक, बड़ा नौकरशाह या बड़ा व्यापारी ऐसी लाईन में देखा गया हो। जबकि कालाधन सबसे पहले इसी वर्ग के पास आता है। क्योंकि सरकार में कोई भी बड़ा-छोटा फैसला इसी वर्ग के हाथों से होकर निकलता है और घूसखोरी का पहला कदम यहीं से शुरू होता है। इसी घूसखोरी का पैसा आगे चलकर कालेधन की शक्ल लेकर बाजार में निवेश होता है। आज पंचायत सदस्य से लेकर सांसद तक सबका चुनाव इसी कालेधन के सहारे हो रहा है। चुनाव खर्च की सीमा जिस अनुपात में बढती आयी है उसी अनुपात में कालाधन बढ़ा है। आज चुनावों के लिये राजनीतिक दलों की खर्च सीमा पर कोई पाबन्दी नही है। राजनीतिक दलों के लिये खर्च की कोई सीमा न होना तथा चुनाव खर्च का लगातार बढ़ता जाना ही भ्रष्टाचार और कालेधन की बाध्यता बनता है और हमाम में सारे छोटे बड़े राजनीतिक दल बराबर के नगें है।
इसलिये आज काले धन पर हुई चोट से जो वर्ग आहत है वह आगे चलकर इस फैसले को पलटने के लिये और इसे असफल प्रमाणित करने के लिये किसी भी हद तक जा सकता है इस संभावना को ध्यान में रखना होगा। आज काले धन के खिलाफ उठे इस कदम की जो मध्यम वर्ग हिमायत कर रहा है देश में बहुत मत उसका है। उसको साथ रखने के लिये आवश्यक है कि इस फैसले के सीधे लाभ उसे प्रत्यक्ष मिलें। इसके लिये यदि उसके किचन का खर्च उसके बच्चों की पढ़ाई का खर्च और अस्पताल में उसके ईलाज का खर्च आधा रह जाता है तभी वह इस फैसले के साथ इतनी असुविधा सहने के बाद भी खड़ा रहेगा। यदि आज इस कालेधन के बाहर आने से उद्योगपतियों को दिये ट्टणों के कारण बीमार पडे बैंको को ही राहत दी जाती है तो इस फैसले का समर्थन आम आदमी ज्यादा देर तक नही कर पायेगा। बल्कि वह इसके आक्रमक विरोध में खड़ा हो जायेगा। इस फैसले से हो रही व्यवहारिक असुविधा को दूर करने के लिये 2000 के नोट के साथ ही पांच सौ और हजार के नोट जारी करना आवश्यक हो जायेगा। क्योंकि बाकी के खुले पैसे मिलने में व्यवहारिक कठिनाई आती है। क्योंकि पुराने बंद किये गये नोट पहले ही कुल कंरसी का 86% थे तो उन्हे बदलने के लिये भी उसी मूल्य पांच सौ और एक हजार के 86% नोट ही उपलब्ध करवाने होंगे। क्योकि पांच, दस, बीस और सौ के नोट तो पहले ही केवल 14% थे। इसलिये 14% से 86% नही बदले जा सकते यह सामान्य सी समझ की बात है। लेकिन लगता है कि इस फैसले को अमली शक्ल देने के लिये जिम्मेदार तन्त्र ने इस व्यवहारिकता को ही नजर अन्दाज कर दिया और इसी के कारण यह संकट खडा हो रहा है।