Thursday, 18 September 2025
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युद्ध ही विकल्प नही हो सकता

उरी मे हुए आंतकी हमले को लेकर पूरे देश में रोष और आक्रोश हैं उरी से पहले पठानकोट में ऐसा आतंकी हमला हो चुका है। दोनों  बार सेना के ठिकानो का निशाना बनाया गया है। दोनों घटनाओं के पीछे पाकिस्तान का हाथ होना सामने आ चुका है इसके सबूत मिल चुके है। पठानकोट में तो पाकिस्तान को स्वंय आकर मौका देखने का अवसर दिया गया है। लेकिन उसने इसमें अपना हाथ होने से साफ इन्कार कर दिया है। आज तक देश के अन्दर जितनी भी आंतकी घटनाएं हुई है।

उनमें अधिकांश के तार पाकिस्तान से जुड़े हुए मिले है। लेकिन पाकिस्तान ने इस सच्च को कभी स्वीकारा नही है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर यू एन मंच से लेकर अधिकांश देशों ने भी पाकिस्तान को बढ़ते आंतक के लिये जिम्मेदार मान लिया है। परन्तु इस सबके बावजूद पाकिस्तान की आंतक के प्रति नीयत और नीति में कोई अन्तर नही आया है। बल्कि अब यह धारणा बनती जा रही है कि संभवतः आंतक उसकी रणनीति का ही एक हिस्सा है। लेकिन पाकिस्तान की इस नीति के लिये अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है क्योंकि किसी भी देश ने पाकिस्तान की निर्देश करने के अतिरिक्त उसके साथ अपने व्यापारिक और दूसरे रिश्ते समाप्त नहीं किये हैं। कहीं से भी कोई प्रतिबंध पाकिस्तान पर नहीं आये है क्योंकि हम जो इन आंतकी घटनाओं की सीधी कीमत चुका रहे हैं हमने भी अपने रिश्ते समाप्त नही किये है। हम भी कड़े ब्यानो और पाकिस्तान के राजदूत को बुलाकर अपना रोष अधिकारिक रूप से वहां की हकूमत तक पहुंचाने से ज्यादा कुछ नहीं करते रहे है। पाकिस्तान को सामरिक हथियार उपलब्ध करवाने के लिये कभी चीन, कभी अमेरिका तो कभी को अन्य देश हर समय आगे आता ही रहा है और यही पाकिस्मान की सबसे बड़ी ताकत बन जाता है।  आज देश के भीतर पाकिस्तान के खिलाफ निर्णायक सैन्य कारवाई की मांग जोर पकड़ती जा रही है। सरकार और सेना की ओर से भी युद्धको अन्तिम विकल्प के रूप में लेने पर विचार किया जा रहा है। सैन्य बल के रूप में हम पाकिस्तान पर हर बार भारी पड़ते आये है और आज भी पडेंगे इसमें कोई दो राय नहीं है। बढ़ती आतंकी घटनाओं का जवाब यदि सैन्य कारवाई के रूप में दिया जाता है तो अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय भी इसके लिये हमें दोष नही दे सकता। क्योंकि पाकिस्तान की सच्चाई हम विश्व समुदाय के सामने ला चुके हैं। लेकिन यदि सैन्य कारवाई का विकल्प चुना जाता है तो उसके परिणाम क्या होंगे उस पर गंभीरता से विचार करना होगा। अमेरीका, फ्रांस, इंग्लैण्ड आदि कई देशों में पिछले कुछ अरसे से ऐसी आंतकी घटनाएं देखने को मिली है। बढ़ता आंतकवाद विश्व समस्या बनता जा रहा है। इन आंतकीयों के पास हर तरह के सैन्य हथियार/ उपकरण पहुंच रहे हैं। इन्हें यह सब कहां से और कैसे उपलब्ध हो रहा है? इसके लिये धन कंहा से आ रहा है? क्यांेकि आतंकवाद इन संसाधनोेें के सहारे ही तो बढ़ रहा है। आज के अधिकांश देशों के पास परमाणु और रसायनिक हथियार उपलब्ध है। हर रोज इनके परीक्षण हो रहे है और अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय इनकी निंदा करने से अधिक कुछ कर नही पा रहा है। हर देश के बजट का बड़ा भाग सामरिक रिसर्च और सामरिक हथियारोें के उत्पादन पर खर्च हो रहा है। कुछ देशों की अर्थव्यवस्था का तो सबसे बड़ा आधार ही हथियारों का उत्पादन बन गया है। यदि इन हथियारों का कोई खरीददार न हो तो उनका उत्पादन ही रूक जायेगा और उसकी अर्थव्यस्था ही डगमगा जायेगी। आज बढ़ते आंतकवाद के पीछे हथियारों का यह उत्पादन और उनकी सहज उपलब्धता ही सबसे बड़ा कारण है। हथियारों के उत्पादक देश आतंकवाद की निंदा के साथ ही आतंकियों को यह हथियार भी उपलब्ध करवा रहे हैं। क्योंकि आज तक ओसामा विन लादेन जैसे बड़े आतंकी को लेकर यह भी सामने नही आया है कि वह हथियार भी स्वयं बनता था। ऐसे में बहुत स्पष्ट है कि जब आतंकवादियों के खिलाफ खुली सैन्य कारवाई अमल में लायी जायेगी तो फिर उसमें परमाणु और रसायनिक हथियार कब आतंकियों तक पहुंच जायें और उनका इस्तेमाल हो जाये यह आशंका और संभावना बराबर बनी रहेगी।  इसलिये युद्ध का विकल्प चुनने से पहले इन सारे सवालों पर विचार करना आवश्यक होगा। लादेन के लिये जिस तरह की कारवाई पाकिस्तान में घुसकर अमेरिका ने की थी आज वैसी ही कारवाई के लिये अन्तर्राष्ट्रीय मंचो पर सहमति बनाने का प्रयास किया जाना चाहिये। अमेरिका ने कारवाई की पूरा विश्व समुदाय खड़ा देखता रहा उसकी निन्दा तक कोई नही कर पाया। आज भारत पूरे विश्व को पाकिस्तान की इस हकीकत से अवगत करवा चूका है। विश्व समुदाय ने इसे स्वीकार भी कर लिया है और यह स्थिति अमेरिका जैसी कारवाई के लिये बहुत ही उपयुक्त अवसर है। क्योंकि युद्ध के विकल्प से आतंकियों से अधिक सामान्य नागरिकों का नुकसान होता है और वह नही होना चाहिये।

चुनाव आयोग से सवाल

शिमला/शैल। वर्ष 2017 में कुछ राज्य विधान सभाओं के चुनाव होने जा रहे है। कुछ वर्ष के शुरू में ही हो जायेेंगे और कुछ वर्ष के अन्त में। इन चुनावों को लेकर अभी से राजनीतिक दल और नेता तैयारीयों में लग गये हैं। संबधित राज्य सरकारों ने अभी से अपनी उपलब्धियों का वखान करने वाले विज्ञापन प्रिन्ट और इलैक्ट्रानिक मीडिया में जारी करने शुरू कर दिये है। इसी के साथ चुनाव प्रचार विशेषज्ञों और कंपनीयों की सेवाएं भी ली जानी शुरू कर दी गयी हैं। इस प्रचार तन्त्र पर जो खर्च हो शुरू हो गया है यदि अन्त तक पहुंचते-पहुंचते उसका सही और निपक्ष आकलन सामने आ पाया तो निश्चित रूप से यह आंकडा प्रति विधान सभा क्षेत्रा में चुनाव आयोग द्वारा तय खर्च सीमा से कई गुणा अधिक होगा यह तय है। लेकिन फिर भी यह आचार संहिता के तय मानकों की उल्लघंना की सीमा में नही आयेगा क्योंकि राजनीतिक दलों के लिये खर्च की कोई सीमा ही तय नही है। न ही यह सब कुछ पेड न्यूज की श्रेणी में आ पायेगा। अभी पिछले दिनों सोशल मीडिया में एक समाचार आया था कि ए बी पी न्यूज को उत्तर प्रदेश के चुनाव को प्रभावित करने के लिये सौ करोड़ रूपया दिया जा रहा है 45 करोड़ के कैश के साथ इस चैनल के एक अधिकारी को पकड़ा गया है यह भी समाचार में था। लेकिन इस चैनल को इतनी बड़ी रकम किसने दी? 45 करोड़ कैश के साथ इसके अधिकारी के पकडे जाने पर उसके खिलाफ आगे क्या कारवाई की गयी इसका कहीं कोई जिक्र आगे नही चला। सारा मीडिया इस समाचार पर मौन रहा। यहां तक की जिस चैनल पर यह आरोप लगा उसकी ओर से भी कोई प्रतिक्रिया कोई खण्डन नहीं आया। किसी भी राजनीतिक दल की ओर से भी कोई प्रतिक्रिया नही आयी । यहां तक की स्वयं चुनाव आयोग तक ने इस पर कुछ नही कहा। इस घटना से यही प्रमाणित होता है कि हमारा चुनाव तन्त्रा कितना संवेदन हीन हो चुका है। ऐसे परिदृश्य में होने वाले चुनाव कितने निष्पक्ष, कितने प्रमाणिक कहे जा सकते हैं।,

इसी के साथ जुड़ा हुआ दूसरा सवाल है कि चुनाव प्रचार विशेषज्ञ और कंपनीयां अनुबंधित की जा रही है उनकी भूमिका क्या होने जा रही है। निश्चित रूप से इन विशेषज्ञों के माध्यम से राजनितिक दलों और उनके नेताओं की छवि को संवारने में जनता के सामने वह परोसा जायेगा जिसका व्यवहारिकता और सच्चाई के साथ दूर-दूर तक कोई वास्ता नही होगा। पिछले लोकसभा चुनावों में सारा चुनाव प्रचार ऐसे ही प्रचार विशेषज्ञों से संचलित था। इन्ही की प्रचार नीति के तहत जनता में इतने वायदे परोस दिये गये जिनसे परिणाम का प्रभावित होना स्वाभाविक था और परिणाम प्रभावित हुआ भी। यह वायदे अव्यवहारिक थे। सच्चाई से कोसों दूर थे। इसलिये पूरे नही हुए। अच्छे दिन नही आये। प्रत्येक व्यक्ति के खाते में 15 लाख काला धन नही आया। जिन वयादों को पूरा करने के लिये पांच वर्ष का समय मांगा गया था चुनाव जीतने के बाद उनके लिये दस वर्ष का समय मांग लिया गया। आज यदि ईमानदारी से आंकलन किया जाये तो कोई भी राजनीतिक दल कसौटी पर पूरा नही उतरता है। कोई भी अपने वायदे पूरा नही कर पाया है क्योंकि यह वायदे पूरे हो नही सकते थे। यह तो केवल जनता को भ्रमित करने के लिये थे और जनता भ्रमित हुई है। ऐसे में सवाल उठता है कि इस सब पर नियन्त्राण कैसे किया जाये। नियन्त्राण और नियोजन की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की है। चुनाव आयोग को इसके लिये कुछ मानक नये सिरे से तय करने होंगे। इसमें राजनीतिक दलों के चुनाव खर्च की भी सीमा तय करनी होगी और इस में प्रत्यक्ष या अपरोक्ष रूप से किया जाने वाला हर खर्च शामिल रहना चाहिये। चुनाव में किये गये हर वायदे की पूर्ति के लिये संसाधन कहां से आयेंगे इसका खुलासा चुनाव घोषणा पत्रा में रहना अनिवार्य होना चाहिये? किसी भी वायदे को पूरा करने के लिये सरकारी कोष पर कर्ज भार डालने की अनुमति नही होनी चाहिये? अव्यवहारिक वायदों को खुले प्रलोभन की संज्ञा देकर ऐसे वायदे करने वालो के खिलाफ अपराधिक कारवाई का प्रावधान होना चाहिये। क्योंकि जिस तरह से आने वाले चुनावों में राजनीतिक दलों की संभावित रणनीति के संकेत उभरते नजर आ रहे हैं वह देश के लिये घातक सिद्ध होगा। क्योंकि चुनाव प्रचार के नाम पर जो वायदों के प्रलोभन परोसे जायेंगे उससे चुनाव परिणामों का प्रभावित होना स्वाभाविक है और कायदे से यह आचार संहिता का खुला उल्लघंन है। इसे रोकना चुनाव आयोग का दायित्व है इसलिये यह सवाल आयोग से उठाये जा रहे हैं।


जब सरकार ही अराजक हो जाये

शिमला/शैल। जब सत्ता की ताकत के बल पर स्थापित नियमों/कानूनो की खुली उल्लंघना हो जाये। अदालत के फैसलों पर अमल न किया जाये। सत्ता ही सर्वोच्च प्राथमिकता बन जाये और उसके लिये लोक लाज त्याग कर जनहितों की परिभाषा अपने स्वार्थो के मुताबिक होनी शुरू हो जाये तो ऐसी स्थिति को अराजकता का नाम दिया जाता है। वीरभद्र सरकार ने जिस तरह से अवैध निमार्णो को नियमित करने के लिये ग्राम एंवम नियोजन अधिनियम में संशोधन किया है और प्रदेश में सरकारी भूमि पर अतिक्रमण के मामलों पर प्रदेश उच्च न्यायालय ने कड़ा संज्ञान लेते हुए इस सारी स्थिति को एकदम अराजकता की संज्ञा दी है। किसी भी सरकार और उसके प्रशासन पर इससे गंभीर आक्षेप और कुछ नहीं हो सकता है। 

इस बढ़ती अराजकता का एक और उदाहरण प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा एक याचिका CWP 2336 of 2009 पर अप्रैल 2013 में दिया गया फैलसा है। इस फैसले में उच्च न्यायालय ने सरकार द्वारा कान्ट्रैक्ट के आधार पर की गयी नियुक्तियों के लिये 2008 और 2009 में लायी गयी नियमितिकरण की पालिसी को संविधान की धारा 14 व 16 तथा धारा 309 के तहत बनाये गये नियमों का खुला उल्लघंन करार देते हुए इसे तुरन्त प्रभाव से रद्द कर दिया है। लेकिन सरकार ने इस फैसले को अगूंठा दिखाते हुए जून 2014 में कान्ट्रैक्ट आधार पर रखे गये कुछ काॅलिज प्रवक्ताओं के नियमितिकरण के आदेश जारी कर दिये जबकि यह उक्त याचिका भी काॅलिज प्रवक्ताओें की ओर से ही दायर हुई थी। जब नियमितिकरण के आदेशों पर इन प्रवक्ताओं ने फिर विभाग का ध्यान आकर्षित किया तब इन आदेशों को वापिस लिया गया। अदालत का फैसला सरकार की पूरी पाॅलिसी पर है किसी एक विभाग पर नही। लेकिन इस फैसलेे के बाद पाॅलिसी को वापिस लेने की बजाये इसके तहत नियमितिकरण की प्रक्रिया अब भी जारी है। अदालत ने कांट्रैक्ट की नियुक्तियोें को चोर दरवाजे से अपनों को भर्ती करने की नीति करार दिया है।
प्रदेश में रोजगार का सबसे बड़ा साधन सरकारी नौकरी ही है। सरकारी नौकरी में कैसे भर्तीयां की जाती रही है इसका सबसे बड़ा खुलासा चिटों पर की गई भर्तीयों की जांच के लिये बनी हर्ष गुप्ता और अवय शुक्ला कमेटीयों की रिपोर्ट से सामने आ चुका है। लेकिन इस प्रकरण पर कैसे विजिलैन्स ने अदालत के सामने सारा मामला रखा और कैसे अदालत ने भी उसे आंख बन्द करके स्वीकार कर लिया अराजकता की इससे बड़ी कहानी और क्या हो सकती है। क्योंकि जिस कड़ाई से अदालत ने इस प्रकरण का संज्ञान लिया था उस तर्ज पर सोलन बागवानी विश्वविद्यालय के एक मामले में उच्च न्यायालय का फैसला भी आया है। लेकिन बाद में अन्य मामलों पर अदालत का रूख भी बदल गया जो आज तक जन चर्चा का विषय है। चिटों पर भर्ती मामले के बाद हमीरपुर अधीनस्थ सेवा चनय बोर्ड द्वारा की गयी नियुक्तियों का मामलों सामने है। लेकिन इन मामलों का सरकार और प्रशासन की सेहत पर कोई असर नही पड़ा है। चनय में पारदर्शिता लाने की बजाये आज भी एक प्रकार से चिटों पर भर्ती जैसा ही चलन जारी है। भारत सरकार ने क्लास फोर और क्लास थ्री श्रेणी के कर्मचारियों की भर्ती के लिये साक्षात्कार का माध्यम समाप्त कर दिया है अब इन पदों के लिये सीधे शैक्षणिक योग्यता को ही आधार रखा गया है। लेकिन वीरभद्र सरकार केन्द्र सरकार की इस पाॅलिसी को अपनाने के लिये तैयार नही है। मन्त्रीमण्डल हर बार इस पर फैसला टाल देता है। क्योंकि इस पाॅलिसी के बाद अपनों के लिये चोर दरवाजा बन्द हो जायेगा।
सरकार ने इस वर्ष हजारों पदों को भरने की हरी झण्डी दे दी है। मन्त्रीमण्डल की हर बैठक में सैंकडो पद सृजित किये जा रहे है। इस सृजन से यह सवाल उठता है कि अब तक सरकार कैसे काम चला रही थी? क्या इन सारे पदों की आवश्यकता अब पड़ी। आज यह सब आने वाले विधानसभा चुनावों को सामने रखकर किया जा रहा है और इसी के लिये भारत सरकार की पाॅलिसी पर अमल नही किया जा रहा है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सरकार यह सब अपने राजनीतिक स्वार्थ को सामने रखकर कर हरी है। उसे जन सरोकारों से कोई लेना देना नही है। राजनीतिक स्वार्थों के आगे पूरा प्रशासन बौना पड़ गया है और यही अराजकता है।

आप फिर संकट में


शिमला। आम आदमी पार्टी की दिल्ली प्रदेश सरकार के माध्यम से ही पार्टी की छवि देश में बनेगी इसमें किसी को भी कोई सन्देह नहीं होना चाहिये। पार्टी और उसकी सरकार का जो आचरण दिल्ली में रहेगा उसी का सन्देश पूरे देश में जायेगा। इसी का प्रभाव हर प्रदेश मेे संगठन की ईकाईयां गठित करने में पडे़गा।आम आदमी पार्टी अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का ही प्रतिफल है इसमें भी कोई राय नहीं हो सकती। अन्ना आन्दोलन के दो ही बड़े मानक थे भ्रष्टाचार के खिलाफ पूर्ण प्रतिबद्धता और व्यक्तिगत आचरण की शुचिता।

इन मानकों पर यदि पार्टी और सरकार का आकलन किया जाये तो जो परिदृश्य उभरता है उसमें संकट के संकेत स्पष्ट उभरते दिख रहे हैं। अभी तक सरकार के पांच मन्त्रियों के खिलाफ कारवाई करने की नौबत आ चुकी है। जब तोमर की डिग्री को लेकर आरोप लगे थे तो काफी समय तक उसका बचाव किया गया। लेकिन अन्त में केजरीवाल को स्वीकारना पड़ा कि तोमर ने उन्हे गुमराह किया। अब संदीप कुमार के खिलाफ एक आपत्ति जनक सी.डी. सामने आने पर उसे पद से हटाया गया है। इस पर संदीप कुमार ने अपनी प्रतिक्रिया मंे कहा है कि उसे दलित होने के नाते फसाया गया है। संदीप की यह प्रतिक्रिया एकदम हल्की और रस्मी है। क्योंकि जब भी किसी दलित राजनेता के खिलाफ गंभीर आरोप आते हैं तो सबसे सुलभ प्रतिक्रिया दलित होने की ही आती है। बंगारूलक्ष्मण ने भी ऐसी ही प्रतिक्रिया दी थी। लेकिन इसमंे केजरीवाल की यह प्रतिक्रिया की संदीप के आचरण से पूरे आन्दोलन के साथ धोखा हुआ है एक महत्वपूर्ण स्वीकारोक्ति है। अभी तक जितने भी मंन्त्रियों और विधायकों के खिलाफ आरोप आये हैं उनके खिलाफ कारवाई करने में संकोच नहीं किया गया है यही एक सरकार की कार्यशैली का सबसे प्रभावी प्रमाण रहा है। लेकिन संगठन के स्तर पर अभी तक कोई ऐसी ही कारवाई सामने नहीं आ पायी है। यह आने वाले समय में चिन्ता और चर्चा का विषय बनेगा। इस पर यह तर्क ग्राहय नहीं होगा कि भाजपा और काग्रेंस में ऐसे ही मामलों पर क्या कारवाई हुई है। केजरीवाल के प्रधान सचिव राजेन्द्र कुमार को लेकर भी कारवाई करने में देरी हुई है और आज यह सारे प्रसंग एक बड़ा सवाल बनकर सामने आ खड़े हुए हैं।
पंजाब में प्रदेश ईकाई के अध्यक्ष छोटेपुर के खिलाफ जिस तरह का आरोप लगा है उससे एक बड़ा विवाद खड़ा होता नज़र आ रहा है। क्योंकि मान का बचाव जिस तर्क पर किया जा रहा है वह भी अपने में कोई बड़ा पुख्ता नहीं है। क्योंकि सांसद होने के नाते जो विडियो मान ने बनाये हैं क्या यदि कोई साधारण नागरिक उसी तरह का विडियो बनाता तो क्या उसके खिलाफ कारवाई की जाती? मान ने एक स्थापित संहिता का उल्लंघन किया है भले ही इसके पीछे उनकी कोई मंशा अन्यथा नहीं रही होगी। लेकिन इस आचरण पर सार्वजनिक खेद व्यक्त करने के बजाये उसे सही ठहराने का प्रयास स्वीकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि किसी भी स्थापित नियम/परम्परा का विरोध करके उसमें परिवर्तन लाने के लिये पहले वैचारिक धरातल तैयार करना आवश्यक है। दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा भी प्राप्त नहीं है इस नाते उसके अधिकारों की अपनी एक सीमा है। उसी सीमा को लाघंने के लिये दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलना चाहिये। दिल्ली की जिस जनता ने आपको 70 में से 67 सीटों पर चुनावी विजय दिलायी है वह ऐसे आन्दोलन के लिये पूरा साथ देती। दिल्ली सरकार को पूर्ण अधिकार दिलाने के लिये जनान्दोलन का रास्ता अपनाया जाना चाहिये था। ऐसी मांग का विरोध कोई ना कर पाता। लेकिन आज अदालती लड़ाई में सारा परिदृश्य ही बदल गया है।
आज पूरे देश में संगठन खड़ा किया जाना है। देश कांग्रेस और भाजपा का विकल्प चाहता है। क्योंकि इन दलों के भीतर जिस तरह से धनबल और बाहुबल के प्रभाव के कारण विधान सभाओं से लेकर संसद तक अपराधिक मामले झेल रहे लोग माननीयों की पंक्ति में आ बैठें हैं उनसे छुटकारा पाना इनके लिये कठिन है। आम आदमी पार्टी को इस संस्कृति से बचने के लिये अभी से सावधान रहने की आवश्यकता है। पार्टी अभी संगठन के गठन की प्रक्रिया मंे चल रही है इसलिये संगठन में किसी को कोई भी जिम्मेदारी देने के लिये कुछ मानक तय करने होंगे और उनका कड़ाई से पालन करना होगा। आज संगठन के लिये राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी को एक पूर्णकालिक अध्यक्ष /संयोजक चाहिये। इस समय केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमन्त्राी और संगठन के राष्ट्रीय संयोजक दोनों की जिम्मेदारी संभाले हुए हैं। लेकिन संगठन को खड़ा करने के लिये उन्हें बड़ी भूमिका में आना होगा। राष्ट्रीय अध्यक्ष/ संयोजक के नाते भी सरकार पर पूरी नज़र रख सकते हैं। इस समय भी उन्होंने किसी भी विभाग की जिम्मेदारी अपने पास नहीं रखी है। ऐसे में वह दिल्ली की पूरी जिम्मेदारी सिसोदिया को सौंप सकते हैं और स्वयं राष्ट्रीय जिम्मेदारी के लिये मुक्त हो जाते हैं। इस समय संगठन में यदि तोमर और संदीप कुमार जैसे लोग अन्दर आ गये तो उन्हे आगे चलकर बाहर करना कठिन हो जायेगा।

प्रधान न्यायधीश की चिन्ता

शिमला/शैल। देश के प्रधान न्यायधीश श्री तीरथ सिंह ठाकुर ने प्रधान मन्त्री के पन्द्रह अगस्त को लाल किले से देश के नाम आये संबोधन पर अपनी प्रतिक्रिया में यह चिन्ता व्यक्त की कि इसमें न्यायपालिका को लेकर कुछ नहीं कहा गया। पन्द्रह अगस्त के बाद प्रधान न्यायधीश दो कार्यक्रमों में शिरकत करने के लिये शिमला आये। इन कार्यक्रमों में प्रधान न्यायधीश ने फिर चिन्ता व्यक्त की कि निष्पक्ष और तीव्र न्याय अभी बहुत दूर की बात है। प्रधान न्यायधीश की यह चिन्ताएं देश की पूरी व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े करती है। क्योंकि जब आदमी व्यवस्था से लड़ते-लड़ते हार जाता है तब उसकी न्याय के लिये अन्तिम उम्मीद केवल न्यायपालिका ही रह जाती है। लेकिन अब इस अन्तिम उम्मीद के प्रति भी लोगों का भरोसा टूटने लगा है। क्योंकि उच्च न्यायपालिका में बैठे कानून के रखवालों के अपनेे आचरण पर भी प्रश्न चिन्ह लगने के कई मामले सामने आ चुके है। ऐसे परिदृश्य में जब देश का प्रधान न्यायाधीश ही निष्पक्ष और तीव्र न्याय पर सन्देह व्यक्त करंे तो निश्चित रूप से पूरी वस्तुस्थिती की गंभीरता को लेकर चिन्ता और चिन्तन की आवश्यकता आ खडी होती है।
इस समय न्यायपालिका में निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक हर स्तर पर हजारों-हजार मामलें वर्षो से लंबित चले आ रहे हंै। किसी मामले का समय से अधिक वक्त तक लंबित रहना अपने में ही अन्याय बन जाता है। यह स्थिति इसलिये है क्योंकि पूरी न्यायव्यवस्था में हर स्तर पर जजों की कमी है। लोअर न्यायपालिका में जजों कि नियुक्तियों के लिये एक स्थापित प्रक्रिया चली आ रही है। लोकसेवा आयोगों के माध्यम से यह नियुक्तियां की जाती है। इसमें भी प्रदेश लोकसेवा आयोगों के स्थान पर राष्ट्रीय स्तर पर न्यायिक भर्तीयां किये जाने की व्यवस्था बनाये जाने की मांग चल रही है। आई ए एस और आई पी एस सेवाओं के समान ही राष्ट्रीय न्यायिक सेवा गठन की आवश्यकता पर विचार की मांग चल रही है। लेकिन उच्च न्यायपालिका में जजों की भर्ती के लिये चल रही वर्तमान व्यवस्था को बदलने को लेकर चल रही मांग और उस पर आये सुझावांे को लेकर उच्च न्यायपालिका में टकराव की स्थिति चल रही है। इसी टकराव के कारण न्यायपालिका में जजों के रिक्त पद भरे नही जा पा रहे हैं। इस टकराव का अन्तिम परिणाम क्या होगा और उच्च न्यायपालिका में रिक्त स्थान कैसे भरे जायेंगे इसको लेकर कब स्थिति स्पष्ट हो पायेगी यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन यह जो व्यवस्था चल रही है उसमेें आम आदमी का भरोसा कैसे कायम रहे इसको लेकर सरकार और न्यायपालिका को तुरन्त कदम उठाने की आवश्यकता है। यदि यह कदम तुरन्त न उठाये गये तो इस समय उच्च न्यायालयों में न्याय की प्रतीक बनी ‘‘आंखो पर पट्टी बंधी देवी’’ का टंगा चिन्ह महाभारत के धृतराष्ट्र और गांधारी का पर्याय बन जायेगा।
क्योंकि अभी जब प्रधान न्यायधीश शिमला थे तो दोनो कार्यक्रमों में प्रदेश के मुख्यमन्त्री उनके साथ थे। इस समय मुख्यमन्त्री सीबीआई और ईडी की जांच झेल रहे है। सीबीआई की छापेमारी के खिलाफ मुख्यमन्त्री प्रदेश उच्च न्यायलय में गये। इस पर प्रदेश उच्च न्यायालय से मिली राहत को जब सीबीआई ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी और मामले को दिल्ली उच्च न्यायालय मे स्थानांतरित किये जाने का आग्रह किया। सर्वोच्च न्यायालय ने इस आग्रह को स्वीकारते हुए जिस तरह की अदालत में टिप्पणी की थी वह सबके सामने है। ऐसी टिप्पणी के बाद भी यह मामला जांच ऐजैन्सीयों और अदालत के बीच अभी तक स्पष्ट निर्देशों तक नही पहुंच पाया है। आम आदमी में इससे ‘‘ समर्थ को नही दोष गोसाईं’’ जैसी धारणा बनना स्वाभाविक है। ऐसे परिदृश्य में जब मुख्यमन्त्री और प्रधान न्यायधीश को जनता सर्वाजनिक कार्यक्रमों में इकट्ठा देखेगी तो निश्चित रूप से उसके साथ कई और चर्चाएं भी जुड जायेंगी जिनका संदेश बहुत ज्यादा स्वस्थ नही होगा। आज इस यात्रा को लेकर ऐसे कई सवाल जन चर्चा का विषय बने हुए हंै। ऐसे ही प्रसंगों से आम आदमी का विश्वास न्यायपालिका पर से डगमगाने लग जाता है और इस विश्वास को बनाये रखना सबसे बडी आवश्कयता है। क्योंकि यदि विश्वास खण्डित हुआ तो फिर बहुत बड़ा नुकसान हो जायेगा यह तय है और तब अन्य सारी चिन्ताएं बेमानी हो जायेंगी।

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