जयराम सरकार को अभी सत्ता संभाले दो माह का समय नहीं हुआ है लकिन इसी अल्प अवधि में सरकार को 1500 करोड़ का कर्ज लेना पड़ गया है। प्रदेश की वित्तिय स्थिति का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि आज प्रदेश कर्ज के चक्रव्यूह में ऐसा फंस चुका है कि कर्ज लेना मजबूरी बन चुकी है। कल तक भाजपा इस कर्ज के लिये वीरभद्र को कोसती थी लेकिन आज स्वयं सत्ता संभालने के बाद कर्ज लेकर काम को चलाना पड़ रहा है। आज प्रदेश का कर्जभार जीडीपी के 35% से भी बढ़ गया है। जबकि एफआरवीएम के तहत यह 3% से अधिक नही होना चाहिये। इस बढ़ते कर्ज पर भाजपा सरकार वित्त विभाग मार्च 2016 में प्रदेश सरकार को चेतावनी भी जारी कर चुका है। इसी चेतावनी का परिणाम है कि केन्द्र प्रदेश को वेल आऊट नही कर पा रहा है। क्योंकि तय वित्तिय नियमों से केन्द्र भी बंधा हुआ है। फिर यदि एक प्रदेश को केन्द्र कोई बेल पैकेज देता है तो कल उसी तर्ज पर दूसरे प्रदेश भी मांगेगे क्योंकि कर्ज के जाल में हर प्रदेश फसा हुआ है। अभी केन्द्र का जो बजट आया है और उसमे जो जो घोषणाएं की गयी हैं उन्हे पूरा करने के लिय धन कहां से आयेगा इसके लिये बजट में कुछ भी स्पष्टता से नही कहा गया है। यही केन्द्र के बजट का सबसे नकारात्मक पक्ष है और इसी को लेकर मोदी सरकार पर सबसे बड़ा आरोप भी लग रहा है।
इसी परिदृश्य में यदि प्रदेश सरकार अपने स्तर पर अपने वित्तिय हालात को नहीं सुधारती है तो आने वाला समय और भी कठिन होगा। इसलिये यह समझना बहुत आवश्यक है कि प्रदेश कर्ज के चक्रव्यूह में फंसा कैसे और इससे बाहर निकलने का रास्ता क्या है। 1998 में जब प्रेम कुमार धूमल ने प्रदेश की बागडोर संभाली थी तब उन्होने सदन में प्रदेश की वित्तिय स्थिति पर एक श्वेत पत्र रखा था। इस श्वेत पत्र में यह तथ्य आया था कि जब अप्रैल 83 में स्व. ठाकुर रामलाल ने सत्ता छोड़ी थी और वीरभद्र ने संभाली थी उस समय प्रदेश पर कोई कर्ज नही था बल्कि सरकार के 80 करोड़ का बैलेन्स था। सदन में आये इस श्वेत पत्र के तथ्यों को वीरभद्र और कांग्रेस झुटला नहीं पाये थे। लेकिन 1990 में जब शान्ता कुमार ने प्रदेश की बागडोर दूसरी बार संभाली तब उन्होनें विद्युत उत्पादन के क्षेत्र में जेपी उद्योग समूह का पदार्पण बिजली बोर्ड से बसपा परियोजना लेकर जेपी को देकर करवाया। इस परियोजना पर बिजली बोर्ड जो निवेश कर चुका था उसे ब्याज सहित बोर्ड को वापिस किया जाना था। जोकि आज तक नही हुआ बल्कि ब्याज सहित यह रकम 92 करोड़ बन गयी थी जिसे बट्टे खाते में कैग के एतराज के बावजूद डाल दिया गया। शान्ता के इसी काल में संविधान की धारा 204 का उल्लघंन करके राज्य की समेकित निधि से खर्च करने का चलन शुरू हुआ जो आज तक लगातार चल रहा है और कैग रिपोर्ट में हर बार इसका जिक्र रहता है। लेकिन शान्ता ने जलविद्युत परियोजनाओं से 12% रायल्टी वसूलने का जो फैसला लिया उसके साये तले में यह मुद्दा ही दब गया कि विद्युत उत्पादन में निजिक्षेत्र की भागीदारी कितनी होनी चाहिये। बल्कि यह प्रचारित और प्रसारित होता रहा कि हिमाचल बिजली राज्य है। इसी बिजली राज्य के नारे के परिणामस्वरूप यहां पर औद्यौगिक क्षेत्रों का विकास हुआ है उद्योगपत्ति आये। विद्युत उत्पादन पर तो इस प्राईवेट सैक्टर ने पूरी तरह का कब्जा कर लिया है। 1990 में जब बिजली बोर्ड से कैलाश महाजन को हटाया गया था उस समय बोर्ड करीब 480 मैगावाट का उत्पादन कर रहा था जो आज 2018 में केवल 512 मैगावाट तक ही पहुंच पाया है। लेकिन आज इसी विद्युत से प्रदेश को आये होनेे की बजाये हानि हो रही है। वीरभद्र के इस बीते कार्यकाल में एक भी विद्युत परियोजना में निवेश करने वाला कोई नही आया है। आलम यह है कि निजिक्षेत्र को लाभ देने के लिये बोर्ड की अपनी परियोजनाओं में हर वर्ष हजारो घण्टों का शटडाऊन किया जा रहा है। हर वर्ष बोर्ड की बिजली बिकने से रह रही है। जबकि प्राईवेट सैक्टर के उत्पादकों से पीपीए के तहत बोर्ड को खरीदनी पड़ रही है। इस तरह नुकसान केवल सरकार का हो रहा है और यह दोहरा नुकसान है एक अपने प्रौजैक्ट शटडाऊन के बाहनेे बन्द रह रहे हैं तथा दूसरा बिजली बिक नही रही है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि विद्युत उत्पादन के क्षेत्र में सरकार को अपनी नीति बदलनी होगी।
विद्युत जैसी ही स्थिति है हमारे उद्योगों की उनमें भी जितनी सब्सिडी उद्योगों को दी जा चुकी है जिसका जिक्र कैग कर चुका है। उस अनुपात में न तो उद्योगों से रोजगार मिल पाया है और न ही टैक्स के रूप में सरकार को पर्याप्त मिल पा रहा है। यहां भी पूरी नीति पर नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता है। ऐसे और भी कई क्षेत्र है जहां इस नीति पर नये सिरे से सोचने की आवश्यकता है। शिक्षा के क्षेत्र में आज सैंकड़ो स्कूल ऐसे हैं जहां बच्चो की संख्या दस और बीस के बीच है वहां भी कम से कम तीन अध्यापक हैं जिनका वेतन एक लाख से अधिक होता है। यदि ऐसे स्कूलों को बन्द करके इन बच्चों को फ्री बस सेवा उपलब्ध करवा कर नजदीक के दूसरेे स्कूल में डाल दिया जाये तो यह खर्च केवल पांच छः हजार महीने का आयेगा। इससे हर स्कूल में अध्यापक भी पूरे होंगे और हर बच्चे को सुविधा भी पूरी मिलेगी। केवल एक बार योजना बनाकर फैसला लेने की आवश्यकता है। जब सरकार ऐसे फैसले लेकर अपनी वित्तिय सेहत को सुधारनेे का प्रयास करेगी तो जनता भी इसमें सहयोग करेगी। लेकिन ऐसे फैसले लेने के लिये एक मजबूत राजनैतिक ईच्छा शक्ति चाहिये। ऐसी ईच्छा शक्ति के लिये यह आवश्यक है कि सरकार इस सच्चाई को स्वीकार करके चले कि अगले चुनाव मेें तो सत्ता बदलनी ही है। राजनेता सत्ता के लोभ में ऐसे व्यवहारिक फैसले लेने से डरते हैं। जबकि यह सच्चाई है कि 1985 से लेकर आज तक प्रदेश में कोई भी पार्टी लगातार दूसरी बार सत्ता में नही आ पायी है। चाहे उसे सैंकड़ो के हिसाब से मीडिया से श्रेष्ठता के अवार्ड ही क्यों न मिले हों। यदि आज जयराम इस सच्चाई को स्वीकार करने का साहस दिखा पाये तो शायद प्रदेश के इतिहास में अपना स्थान बना पायेंगे अन्यथा जो कुछ वित्तिय कुशासन के नाम पर अब तक प्रदेश में घट चुका है उसके बोझ तले दबकर असमय ही असफल होने का तमगा लगने की संभवना ज्यादा है।
शिमला/शैल। जयराम सरकार ने प्रदेश में हुए अवैध निर्माणों के खिलाफ प्रदेश उच्च न्यायालय से लेकर एनजीटी तक से आये फैसलों पर यथा निर्देशित करवाई करने के स्थान पर इन लोगों को राहत देनेे के लिये इस कानून में ही संशोधन करने का फैसला लिया है। इस प्रस्तावित संशोधन के मुताबिक जितना निर्माण अवैध पाया जायेगा उसे ही सील करके केवल उसी के खिलाफ कारवाई की जायेगी। सरकार के इस फैसले से अवैध निर्माण के दोषियो के खिलाफ फिलहाल कारवाई रूक गयी है। क्योंकि अदालत तो केवल कानून के मुताबिक फैसला ही दे सकती है। परन्तु उस पर अमल करते हुए दोषियों को व्यवहारिक रूप में सजा देने की जिम्मेदारी तो प्रशासनिक तन्त्र की ही होती है। यदि प्रशासन स्वार्थों से बन्धे राजनीतिक नेतृत्व के आगे घुटने टेकते हुए किसी न किसी बहाने अदालत के फैसलों पर अमल न करे तो अदालत क्या कर सकती है। संभवतः आज प्रदेश में व्यवहारिक रूप से यही स्थिति बनती जा रही है। इसमें भी सबसे बड़ा दुर्भागय यह है कि अवैधता को संरक्षण देने के लिये कानून में ही संशोधन कर नया रास्ता अपनाया जा रहा है और यह काम वह मुख्यमन्त्री करने जा रहा है जिसकी स्लेटे अब तक साफ थी। उम्मीद की जा रही थी कि शायद जयराम ठाुकर अवैधताओं के आगे झुकेंगे नही। लेकिन ऐसा हो नही पा रहा है।
आज पूरे प्रदेश में अवैध निर्माण और सरकारी भूमि पर अवैध कब्जे सबसे बड़ी समस्या बन हुए हैं। शीर्ष अदालतों ने इन अवैधताओं का कड़ा संज्ञान लेते हुए इसके खिलाफ कड़ी कारवाई करने के निर्देश दे रखे हैं। प्रदेश उच्च न्यायालय ने तो अवैध कब्जाधारकों के खिलाफ मनीलाॅंड्ररिंग के तहत कारवाई करने तक के आदेश दे रखे हैं। लेकिन यह आदेश आजतक अमली शक्ल नही ले पाये हैं। इसी तरह एनजीटी कसौली क्षेत्र में बने होटलों में हुए अवैध निर्माण का कड़ा संज्ञान लेते हुए टीसीपीपी और प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के कुछ सेवानिवृत और कुछ वर्तमान में कार्यरत अधिकारियों को चिन्हित करते हुए प्रदेश के मुख्य सचिव को इनके खिलाफ कारवाई करने के निर्देश पारित किये हुए हैं। जिन पर न तो पूर्व मुख्य सचिव वीसी फारखा और न ही वर्तमान मुख्य सचिव विनित चौधरी कारवाई करने का साहस कर पाये हैं क्योंकि इन चिन्हित हुए नामों में एक नाम प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के पर्यावरण अभियन्ता प्रवीण गुप्ता का रहा है और जयराम सरकार ने प्रवीण गुप्ता की पत्नी डा. रचना गुप्ता को सत्ता संभालते ही लोकसेवा आयोग में पद सृजित करके सदस्य नियुक्त किया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार भी इस संद्धर्भ में कोई कारवाई करने की बजाये कानून में ही संशोधन करके सारी अवैधताओं को राहत पहुंचाने का रास्ता निकालने का प्रयास करने जा रही है। अवैध निर्माणों और अवैध कब्जों दोनो ही मुद्दों पर कानून में संशोधन किया जा रहा है। अवैध कब्जों को लेकर लायी जा रही संशोधित नीति पर उच्च न्यायालय ने कह रखा है कि यदि इस नीति को अदालत में चुनौती दी जाती है तो अदालत इस पर विचार करेगी। इसी पृष्ठभूमि में अवैध निर्माणों को लेकर भी उच्च न्यायालय से ही यह उम्मीद है कि इन निर्माणों को लेकर अब तक सारी अदालतें जो फैसले दे चुकी हैं उनको सामने रखते हुए इन अवैधताओं को संशोधन के माध्यम से वैधता का जामा नही पहनने देगी।
आज इन अवैधताओं पर यह चर्चा उठाने की आवश्यकता इसलिये है क्योंकि इस समय अदालत के रिकार्ड पर यह आ चुका है कि 8182 तो ऐसे अवैध निर्माण हैं जिन्होने निर्माण से पहले किसी भी तरह का कोई नक्शा आदि नही दे रखा है। इस तरह यह निर्माण पूरी तरह सिरे से ही अवैध हैं। फिर भी इन्हें बिजली पानी आदि के कनैक्शन मिले हुए हैं जिसका अर्थ है कि इन निर्माणों में संबधित प्रशासन का पूरा-पूरा सहयोग रहा होगा। इसलिये इन निर्माणों के खिलाफ तुरन्त प्रभाव से कारवाई की जा सकती थी लेकिन सरकार ऐसा नही कर पायी है। इससे यह भी सवाल उठता है कि क्या यह सरकार अदालत और कानून का सम्मान भी करती है या नही। क्योंकि यदि सरकार अदालत के फैसले के अनुसार इन आठ हजार से अधिक अवैध निर्माणों के दोषियों के खिलाफ कारवाई करने के साथ कानून में संशोधन की बात करती तो सरकार की नीयत नीति की सराहना होती। परन्तु आज यह सन्देश जा रहा है कि सरकार अवैधताओं के आगे घुटने टेकती जा रही है। क्योंकि आज सत्तारूढ़ सरकार से जुडे़ कई बडे़ नेताओं के खिलाफ अवैध निर्माण के गंभीर आरोप हैं। सोलन के पवन गुप्ता को तो इसी अवैध निर्माण के कारण नगर पालिका के अध्यक्ष पद से हटना पड़ा है। बहुत संभव है कि ऐसे लोगों के दवाब में यह संशोधन लाया जा रहा है। जबकि आज पूरा प्रदेश प्राकृतिक आपदाओं के मुहानेे पर इन्ही अवैधताओं के कारण खड़ा है। प्रदेश अब तक भूकंप के 120 झटके झेल चुका है। चम्बा 53.2%हमीरपुर 90.9% कांगडा 98.6% कुल्लु 53.1% और मण्डी 97.4% एम एस के 9 के क्षेत्र में आते हैं। केन्द्रीय आपदा अध्ययन इस ओर गंभीर चेतावनी दे चुके हैं इसलिये यह सरकार से ही अपेक्षा की जायेगी कि वह भविष्य के इस खतरों को गम्भीरता से लेते हुए राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठकर अपनी जिम्मेदारियों को निभाये।
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने संसद के बजट सत्र को संबोधित करते हुए देश में हो रहे अत्याधिक चुनावों को लेकर गहरी चिन्ता व्यक्त की है। राष्ट्रपति से पहले नये मुख्य चुनाव आयुक्त ने भी यह कहा है कि देश में लोकसभा और राज्य विधान सभाओं के चुनाव एक साथ करवाने को लेकर राजनीतिक दलों को इस पर सहमति बनानी चाहिये। चुनाव आयोग इसका प्रबन्ध करने में सक्षम है। मुख्य चुनाव आयुक्त की इस टिप्पणी के बाद हुई समन्वय समिति की बैठक में इस बारे में सहमति बन पाने की बात भी सामने आ चुकी है। अब राष्ट्रपति द्वारा इस संद्धर्भ में चिन्ता व्यक्त करने के बाद यह टिप्पणी भी सामने आयी है कि कांग्रेस जल्दी चुनाव करवाये जाने से डर रही है। मोदी सरकार ने जब नोटबंदी लागू की थी उसके बाद विमुद्रीकरण पर आयी एक पुस्तक के लेखक गौत्तम चौधरी ने इसमें यह कहा है कि आने वाले समय में मोदी सत्ता के लिये लोकसभा और राज्य विधान सभाओं के चुनाव एक साथ करवाने का दाव खेल सकते हैं। बीते नवम्बर माह में शिमला में जब मिशन मोदी 2019 नाम से गठित मंच की हिमाचल ईकाई का गठन किया गया था तब इस बैठक का संचालन कर रहे संघ मुख्यालय नागपुर से आये प्रतिनिधियों ने भी इस आश्य का संकेत दिया था।
एक अरसे तक देश में लोकसभा और राज्य विधान सभाओं के चुनाव एक साथ होते रहे हैं। आज फिर से यह चुनाव एक साथ करवाने के लिये इस आश्य का संसद में एक संविधान संशोधन लाना पड़ता है। संसद में इसे पारित करवाने के बाद राज्यों की दो-तिहाई विधान सभाओं से भी इसे अनुमोदित करवाना पड़ता है। संसद में इसे किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है। अभी मार्च में राज्यसभा की कुछ सीटों के लिये चुनाव होने जा रहा है। संभावना है कि इस चुनाव के बाद राज्य सभा में भी भाजपा को बहुमत मिल जायेगा। फिर इस समय 19 राज्यों में तो भाजपा की ही सरकारे हैं। बिहार, महाराष्ट्र और जम्मू कश्मीर में भाजपा सत्ता में भागीदार है। इस तरह कुल मिलाकर स्थिति यह बनती है कि यदि मोदी वास्तव में ही ऐसा चाहेंगे तो उन्हें इस आश्य का संविधान संशोधन लाने में कोई दिक्कत पेश नही आयेगी। इस आश्य के संविधान संशोधन का सिद्धान्त रूप में विरोध कर पाना आसान नही होगा। क्योंकि जब देश में आपातकाल के दौरान संविधान संशोधन लाकर लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाकर छः वर्ष कर दिया गया था। उस समय प्रधानमन्त्री, लोकसभा अध्यक्ष आदि को कानून में संरक्षित कर दिया गया था। तब उसका विरोध किसी ने भी नही किया था। यह तो सर्वोच्च न्यायालय था जिसने उस संशोधन को निरस्त कर दिया था। इस परिदृश्य में आज यदि इकट्ठे चुनाव करवाने का संशोधन लाया जाता है तो उससे भाजपा सहित सभी राजनीतिक दलों को एक समान ही हानि लाभ होगा।
इस समय लोकसभा का चुनाव मई - जून 2019 में होना तय है। इसके साथ आंध्र प्रदेश, अरूणाचल, सिक्कम, उड़ीसा और तेलंगाना के चुनाव भी मई-जून 2019 में है। छत्तीसगढ़ , हरियाण , मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र के चुनाव भी 2019 में ही है। 2018 में कर्नाटक और मिजोरम के चुनाव होंगे। इस तरह ग्याहर राज्यों के चुनाव 2018 और 2019 में होना तय है। शेष 20 राज्यों में 2020, 21, 22 और 2023 में चुनाव होने हैं और इनमें अधिकांश में भाजपा की सरकारे हैं इसलिये एक साथ चुनाव का राजनीतिक हानि/लाभ सबको बराबर होगा। लेकिन इससे देश को कालान्तर में समग्र रूप से लाभ होगा। इस समय देश के कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों की सरकारे हैं और इन सरकारों का विजिन अपने राज्य से बाहर का नही रह पाता है। फिर अधिकांश क्षेत्रीय दल तो एक प्रकार से पारिवारिक दल होकर रह गये हैं। इस कारण से चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दों के स्थान पर हल्के केन्द्रिय मुद्दे भारी पड़ जाते हैं इसलिये यह बहुत आवश्यक है कि गंभीर राष्ट्रीय मुद्दों पर चुनाव लडे जायें। यदि मोदी सरकार किसी ऐसे संशोधन को लाने का प्रयास करती है तो उसका समर्थन किया जाना चाहिये।
इस संसद से लेकर राज्यों की विधान सभाओं तक आपराधिक छवि के लोग चुनाव जीतकर माननीय बने बैठे हैं ऐसे लोगों के मामले दशकों तक अदालतों में लटके रहते हैं। ऐसे लोगों को चुनाव से बाहर रखने के चुनाव आयोग से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक के सारे प्रयास प्रभावहीन होकर रह गये हैं क्योंकि यह आपराधिक छवि के माननीय सारे राजनीतिक दलों में एक बराबर मौजूद हैं। इसलिये जब एक साथ चुनाव करवाने का कोई संशोधन लाया जाये तो उसके साथ ही चुनावों को धन और बाहुबल से भी बाहर करने के संशोधन साथ ही आ जाने चाहिये।
जयराम सरकार को सत्ता में आये एक माह हो गया है और इसी माह में प्रदेश का पूर्ण राज्यत्व दिवस समारोह भी संपन्न हुआ है। पूर्ण राज्यत्व के दिवस पर मुख्यमन्त्री ने अपनी सरकार के कुछ संकल्प दोहराये हैं इन संकल्पों पर सरकार कितना खरा उत्तर पाती है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन इसी अवसर पर सरकार ने पिछली वीरभद्र सरकार पर वित्तिय कुप्रबन्धन का गंभीर आरोप भी लगाया है। इसी कुप्रबन्धन के परिणाम स्वरूप वर्तमान सरकार को 46500 करोड़ का कर्ज भी विरासत में मिला है यह आक्षेप भी मुख्यमन्त्री ने अपने संबोधन में लगाया है। इस कठिन वित्तिय स्थिति से बाहर निकलने के लिये प्रधानमन्त्री मोदी से प्रदेश को विशेष आर्थिक पैकेज देने की भी मांग की है। यह जानकारी भी मुख्यमन्त्री ने अपने राज्यत्व दिवस के संबोधन पर प्रदेश की जनता को दी है। मुख्यमन्त्री की यह मांग भी कितनी पूरी हो पाती है यह भी आने वाले समय में ही पता चलेगा।
इसी परिदृश्य में यदि सरकार के एक माह के कार्यकाल का आंकलन किया जाये तो जो महत्वपूर्ण बिन्दु उभर कर सामने आते हैं उनपर चर्चा करना आवश्यक हो जाता है। इसमें सबसे पहला और सबसे प्रमुख बिन्दु वित्तिय स्थिति का ही आ जाता है। मुख्यमन्त्री ने स्वयं पिछली सरकार पर वित्तिय कुप्रबन्धन का आरोप लगाया है। यह आरोप वेबुिनयादी भी नही है क्योंकि भारत सरकार के वित्त मन्त्रालय द्वारा तो मार्च 2016 में ही प्रदेश सरकार को एक कड़ा पत्र लिखकर यह बता दिया गया था कि राज्य सरकार की कर्ज लेने की अधिकतम सीमा क्या है और इसके उल्लंघन के परिणाम क्या हो सकते है। प्रदेश की वित्तिय स्थिति एफआरबीएम के तहत संचालित होती है और इसके अनुसार जीडीपी का कुल 3% ही कर्ज लिया जा सकता है। लेकिन राज्य सरकार जीडीपी का 42% कर्ज ले चुकी है और यह कर्ज सरकार की कुल राजस्व आय से 214% अधिक हो चुका है। यह खुलासा है सदन में रखी जा चुकी कैग रिपोर्ट का। इस रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश के वित्त प्रबन्धन पर कुप्रबन्धन का आरोप लगना जायज ही है। लेकिन सवाल उठता है कि इस कुप्रबन्धन के लिये आखिर जिम्मेदार कौन है? क्या इसकी जिम्मेदारी केवल राजनीतिक नेतृत्व पर ही डालना जायज होगा?
क्योंकि राजनीतिक नेतृत्व को सही स्थिति से अवगत करवाना तो संबधित अधिकारियों की जिम्मेदारी है। क्या वित्त सचिव के परामर्श को नज़रअन्दाज किया जा सकता है शायद नहीं। कुप्रबन्धन के आरोप से क्या सचिव वित्त बन सकते हैं शायद नहीं। ऐसे में जब स्वयं मुख्यमन्त्री वित्त के कुप्रबन्धन का आरोप लगा रहे हैं और फिर उसी अधिकारी को विभाग की जिम्मेदारी दिये हुए हैं तो यह दोनो बातें अन्ततः विरोधी हो जाती है और इस अन्तः विरोध का अर्थ या तो यह है कि कुप्रबन्धन का आरोप ही सिरे से गलत है या फिर अधिकारियों पर उसी कुप्रबन्धन को जारी रखने का दबाव हो जाता है। आज जितना कर्जभार प्रदेश का है यदि उसको लेकर यह सवाल उठाया जाये कि आखिर इतना बड़ा कर्ज लेकर किया क्या गया है। क्या इस कर्ज से ऐसे कोई संसाधन खड़े किये गये हैं जिनसे प्रदेश के लिये एक स्थायी आय के साधन बन पाये हैं जिससे इस कर्जभार से मुक्त हुआ जा सकेगा तो शायद इसका उत्तर नही में होगा। क्योंकि मूलतः यह कर्जभार तब बढ़ता है जब वोट की राजनीति के चलते चुनाव घोषणा पत्रों में ऐसे लोकलुभावन अव्यवहारिक वायदे कर दिये जाते हैं जिन्हें पूरा करने के लिये कर्ज लेना ही एक मात्र उपाय रह जाता है।
आज जब मुख्यमन्त्री राज्यत्व दिवस के अवसर पर प्रदेश के नाम अपने पहले संबोधन वित्तिय कुप्रबन्धन को स्वीकार कर रहे हैं तो निश्चित तौर पर इस कुप्रबन्धन को सुधारने के कदम भी उन्हें ही उठाने होंगे। इस कुप्रबन्धन के लिये किसी को तो जिम्मेदार ठहराना होगा। लेकिन अभी इस एक माह के समय में ऐसा कोई प्रयास मुख्यमन्त्री या उनकी सरकार की ओर से सामने नही आया है। सरकार ने पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र को अपना कार्यदृष्टि पत्र करार दे दिया है। लेकिन इस घोषणा पत्र को अमली जामा पहनाने के लिये कितने वित्तिय संसाधनों की आवश्यकता होगी इसकी कोई जानकारी प्रदेश की जनता को नहीं दी गयी है जबकि यह बहुत आवश्यक है कि प्रदेश की जनता को इसकी यह भी जानकारी दी जाये कि इन चुनावी वायदों को पूरा करने के लिये प्रदेश की जनता पर परोक्ष/अपरोक्ष रूप से कोई कर्जभार नही डाला जायेगा। अभी एक माह के समय में जितने फैसलें लिये गये हैं उनसे वर्तमान और पूर्ववर्ती सरकारों की कार्यशैली में कोई भिन्नता देखने को नही मिल रही है। प्रशासनिक स्तर पर यह सरकार अभी तक तबादलों के चक्रव्यूह से ही बाहर नही निकल पायी है। अवैध कटान और अवैध खनन के जो मामले सामने आये हैं उनसे ही कई गंभीर सवाल खड़े हो गये हैं। उद्योग विभाग ने खनन के तथ्यों को नकार दिया है जबकि मीडिया रिपोर्ट ने सबकुछ सामने दिखाया है। अवैध कटान का जो वीडियो सामने आया है उसमें वन विभाग का कर्मचारी बडे़ अधिकारियों पर सीधे अनदेखी का आरोप लगा रहा है लेकिन सरकार की ओर से कोई अधिकारिक प्रतिक्रिया अभी तक सामने नही आयी है। ऐसे में पहले एक माह के कार्यकलाप से यह सरकार अभी तक कोई बड़ा प्रभाव नही बना पायी है बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि यदि समय रहते सुधार न हुए तो आने वाले समय में कठिनाईयां बढ़ जायेंगी यह तय है।
शिमला/शैल। देश की शीर्ष अदालत के शीर्ष जज की कार्यप्रणाली को उसी के साथी चार वरिष्ठ जजों ने लोकतन्त्र के लिये खतरा करार दिया है। इन चार जजों ने बाकायदा एक पत्रकार को संबोधित करते हुए देश की जनता से अपनी पीड़ा को सांझा किया है और आह्वान किया है कि वह अब आगे आकर इस शीर्ष संस्थान की रक्षा करे। अन्दाजा लगाया जा सकता है कि जब सर्वोच्च न्यायालय के इन चार वरिष्ठतम जजों को अपनी पीड़ा देश की जनता से बांटने के लिये मीडिया का सहारा लेना पड़ा है तो वास्तव में ही स्थितियां कितनी गंभीर रही होंगी। क्योंकि जो इन चारों जजों ने किया है वह देश की न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार हुआ है वैसे तो न्यायपालिका पर एक लम्बे समय से अंगुलियां उठना शुरू हो गयी है। अभी पिछले ही दिनों जस्टिस सी एस करन्न और अरूणांचल के मुख्यमन्त्री स्व. काली खो पुल्ल के प्रकरण हमारे सामने हैं। न्यायपालिका पर से जब भरोसा उठने की नौबत आ जाती है तब उसके बाद केवल अराजकता का नंगा नाच ही देखने को बचता है। जिसमें किसी के भी जान और माल की सुरक्षा सुनिश्चित नही रह जाती है। केवल ‘‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’’ का कर्म शेष रह जाता है।
आज देश की जो राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति बनी हुई है उसको सामने रखते हुए यह कहा जा सकता है कि देश इस समय एक संक्रमण काल से गुजर रहा है क्योंकि आज सारे राजनीतिक दलों पर से आम अदामी का भरोसा लगभग उठता जा रहा है। देश की जनता ने 2014 के लोकसभा चनावों में जो भरोसा भाजपा पर दिखाया था उस भरोसे को दिल्ली के विधानसभा चुनावों में ही ब्रेक लग गयी थी। उसके बाद के सारे चुनावों में ईवीएम मशीनों पर सवाल उठते गये हैं और आज इन मशीनों के बदले पुरानी वैलेट पेपर व्यवस्था की मांग एक बड़ा मुद्दा बनने जा रही है। कांग्रेस पर जो भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे वह अभी तक उन आरोपों और उन लोगों के साथ से बाहर नही निकल सकी है जिनके कारण यह आरोप लगे थे। आर्थिक धरातल पर मंहगाई और बेरोजगारी का कड़वा सच्च घटने की बजाये लगातार बढ़ता ही जा रहा है और इसे छुपाने के लिये हर रोज नये नारों और घोषणाओं का बाज़ार फैलाया जा रहा है। सामाजिक स्तर पर विरोध को कब देशद्रोह करार दे दिया जाये यह डर बराबर बढ़ता जा रहा है। सरकार का हर आर्थिक फैसला मुक्त बाजार व्यवस्था की ओर बढ़ता जा रहा है जो कि 125 करोड़ की आबादी वाले देश के लिये कभी भी हितकर नही हो सकता है। आम आदमी इन आर्थिक फैसलों को सही अर्थों में कही समझने न लग जाये इसके लिये उसके सामने हिन्दू- मुस्लिम मतभदों के ऐसे पक्ष गढे़ जा रहे हैं जिनसे यह मतभेद कब मनभेद बनकर कोई बड़ा मुद्दा खड़ा कर दे यह डर हर समय बना हुआ है।
इस परिदृश्य में आम आदमी का अन्तिम भरोसा आकर न्यायपालिका पर टिकता है लेकिन जब न्यायपालिका की अपनी निष्पक्षता पर सवाल खड़े हो जायेंगे तो निश्चित तौर पर लोकतन्त्र को इससे बड़ा खतरा नही हो सकता। आज सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ जजों न्यायमुर्ति जे. चलमेश्वर, न्यायामूर्ति रंजन गोगाई, न्यायमूर्ति मदन वी लोकर और न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ ने जिस साहस का परिचय देकर देश के सामने स्थिति को रखा है उसके लिये उनकी सरहाना की जानी चाहिये और उन्हे समर्थन दिया जाना चाहिये। यह लेख उसी समर्थन का प्रयास है जो लोग इनके साहस को राजनीतिक चश्मे से देखने का प्रयास कर रहे हैं उनसे मेरा सीधा सवाल है कि यह लोग अपने लिये कौन सा न्याय मांग रहे है? इनका कौन सा केस कहां सुनवाई के लिये लंबित पड़ा है। इन्होने तो प्रधान न्यायधीश से यही आग्रह किया है कि संवेदनशील मामलों की सुनवाई के लिये जो बैंच गठित हो वह वरिष्ठतम जजों के हो बल्कि संविधान पीठ ऐसे मामलों की सुनवाई करे। अभी जजों के इस विवाद पर अटाॅर्नी जनरल ने एक चैनल में देश के सामने यह रखा है कि एक ही तरह के दो मामलों में लंच से पहले एक फैसला आता है तो उसी तरह के दूसरे मामलें में लंच के बाद अलग फैसला आ जाता है। ऐसे फैसलों का उल्लेख जब शीर्ष पर बैठे लोग करेंगे तो फिर आम आदमी ऐसे पर क्या धारणा बनायेगा?
अरूणाचल के स्व. मुख्यमन्त्री कालिखो पुल्ल ने अपने आत्महत्या नोट में यह आरोप लगाया है कि जस्टिस दीपक मिश्रा के भाई आदित्य मिश्रा ने किसी के माध्यम से उनसे 37 करोड़ की मांग की थी। कालिखो पुल्ल की आत्महत्या के मामले को लेकर उनकी पत्नी ने सर्वोच्च न्यायालय में भी दस्तक दी थी। जस्टिस दीपक मिश्रा ने भूमिहीन ब्राह्मण होने के आधार पर उड़ीसा सरकार से दो एकड़ ज़मीन लीज़ पर ली थी। वैसे जस्टिस दीपक मिश्रा पंडित गोदावर मिश्रा के वंशज हैं जो 1937-45 और 1952-56 जुलाई तक उड़ीसा विधानसभा के सदस्य रहे हैं। इन्ही के चाचा रंगनाथन मिश्रा भी देश के प्रधान न्यायधीश रह चुके है। ऐसी समृद्ध वंश पंरपरा से ताल्लुक रखने वाले दीपक मिश्रा को भूमिहीन होने के नाते दो एकड़ ज़मीन सरकार से लीज़ पर लेने की नौबत रही हो यह अपने में एक बड़ी बात है।
आज सर्वोच्च न्यायालय में सहारा- बिरला डायरीज़, मैडिकल काऊंसिल रिश्वत मामला और जज बी एच लोया की हत्या के मामले लंबित हैं। इन मामलों की सुनवाई संविधान पीठ से करवाई जाये न कि कनिष्ठ जजों के बैंच से। इसको लेकर प्रधान न्यायधीश और इन चार वरिष्ठतम जजों में मतभेद चल रहा है। देश की जनता की नज़र इन मामलों पर लगी हुई है।