जीएसटी परिषद् ने 177 वस्तुओं को 28% के दायरे से बाहर करके 18% के दायरे में ला दिया है। यह फैसला अभी 15 नवम्बर से ही लागू हो जायेगा और इससे इन वस्तुओं की कीमतों में कमी आयेगी यह माना जा रहा है। जीएसटी जब से लागू हुआ था तभी से व्यापारियों का एक बड़ा वर्ग इसका विरोध कर रहा था। व्यापारी इस कारण विरोध कर रहे थे कि इससे कर अदा करने में प्रक्रिया संबधी सरलता के जो दावे किये जा रहे थे वह वास्तव में सही नही उतरे। लेकिन व्यापारी के साथ ही आम आदमी भी उपभोक्ता के रूप में इससे परेशान हो उठा क्योंकि खरीददारी के बाद कुल बिल पर जब जीएसटी के नाम पर कर वसूला जाने लगा तो उसे इस जीएसटी के कारण मंहगाई होने का अहसास हुआ। इससे पहले भी वह यही खरीददारी करता था परन्तु उस समय उसे जीएसटी के नाम से अलग अदायगी नही करनी पड़ती थी आज जब जीएसटी अलग से बिल में जुड़ता है तब वह इसका विरोध नही कर पाता है। जीएसटी को लेकर जब लोगों में नाराज़गी उभरी तब इस पर भाजपा के ही पूर्व वित्त मन्त्री रहे यशवंत सिन्हा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा, पूर्व मन्त्री अरूणी शौरी जैसे बड़े नेताओं के विरोधी स्वर भी उभर कर सामने आ गये। राहुल गांधी ने जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स की संज्ञा दे दी। हिमाचल के चुनाव प्रचार अभियान में जब भाजपा के केन्द्रिय नेता प्रदेश में आयेे और पत्रकार वार्ताओं के माध्यम से मीडिया से रूबरू हुए तब उन्हे जीएसटी पर भी सवालों का समाना करना पड़ा। जीएसटी पर उठे सवालों के जवाब में भाजपा नेताओं का पहली बार यह स्टैण्ड सामने आया कि इसके लियेे मोदी सरकार नही बल्कि जीएसटी काऊंसिल जिम्मेदार है। भाजपा नेताओं ने इसके लिये कांग्रेस को भी बराबर का जिम्मेदार कहा और सवाल किया कि इसे वीरभद्र सरकार ने अपने विधानसभा में क्यों पारित किया?
जीएसटी नोटबन्दी के बाद दूसरा बड़ा आर्थिक फैंसला मोदी सरकार का रहा है। नोटबंदी को लागू हुए पूरा एक वर्ष हो गया है। विपक्ष ने 8 नवम्बर 2016 को काले दिवस के रूप में स्मरण किया है। पूर्व प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह ने नोटबंदी को आर्थिक आतंक करार दिया है। नोटबंदी को लेकर मनमोहन सिंह ने जो चिन्ताएं देश के सामने रखी थी वह सब सही साबित हुई है। नोटबंदी के बाद आर्थिक विकास दर में 2% की कमी आयी है इसे रिजर्व बैंक ने भी स्वीकार कर लिया है। भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनावों में पहले ही मोदी को नेता घोषित कर दिया था। लोकसभा का चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ा गया था। 2014 के लोकसभा चुनाव से पूर्व स्वामी राम देव और अन्ना आन्दोलनों के माध्यम से देश के भीतर भ्रष्टाचार और कालेधन को लेकर जो तस्वीर सामने रखी गयी थी वह एकदम भयानक और गंभीर थी। देश का आम आदमी उस स्थिति से छुटकारा पाना चाहता था। चुनावांे में उसे भरोसा दिलाया गया था कि मोदी की सरकार बनने से अच्छे दिन आयेंगे। इस भरोसे पर विश्वास करके ही जनता ने मोदी के नेतृत्व में भाजपा को प्रचण्ड बहुमत दिलाकर सत्तासीन किया। लेकिन सरकार बनने के आज चैथे साल भी वह अच्छे दिनों का वायदा पूरा नही हो पाया है। आम आदमी के लिये अच्छे दिनों का पहला मानक मंहगाई होती है। मंहगाई के मुहाने पर मोदी सरकार बुरी तरह असफल रही है आज आम कहा जा रहा है कि कांग्रेस के शासनकाल में मंहगाई की स्थिति यह नही थी। आज रसोई गैस की कीमत यूपीए शासन के मुकाबलेे में दोगुनी हो गयी है। पेट्रोल डीजल और सारे खाद्य पदार्थों की कीमतों में भारी वृद्धि आम आदमी के सामने है। बेरोजगारी कम होने की बजाये नोटबंदी और जीएसटी जैसे फैंसले से और बढ़ी है।
कालेधन और भ्रष्टाचार के जो आंकड़े 2014 के लोकसभा चुनावों से पूर्व देश के सामने थे वह आज भी वैसे ही खड़े है। मोदी और उनके सहयोगी जो यह दावा करते आ रहे थे कि उनके शासनकाल में भ्रष्टाचार का कोई बड़ा काण्ड सामने नही आया है। उनका यह दावा आज अमितशाह और अजित डोभल के बेटों पर लगे आरोपों से एकदम बेमानी हो जाता है। जिन बानामा पेपर्ज में नाम आने के बाद पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री नवाज़ शरीफ वहां के सुप्रीम कोर्ट का फैंसला आने के बाद पद से भी हटाये जा चुके हैं। वहीं पर भारत सरकार उन पेपर्ज में जिन लोगों के नाम आये हैं उनकेे खिलाफ कोई मामला तक दर्ज नहीं कर पायी है। अब पैराडाईज़ पेपरज़ में तोे मोदी के मन्त्राी और एक राज्य सभा सांसद तक का नाम आ गया है। लेकिन इसपर भी कोई कारवाई नही होगी यह माना जा रहा है। क्योंकि जिस लोकपाल के गठन को लेकर अन्ना का इतना बड़ा आन्दोलन यह देश देख चुका है आज मोदी सरकार इतनेे बड़े बहुमत के बाद भी उस मुद्दे पर पूरी तरह चुप्प बैठी हुई है। इसी से सरकार की भ्रष्टाचार के खिलाफ ईनामदारी और नीयत का पता चल जाता है। यही कारण है कि काॅमन वैल्थ गेम्ज़ और 2 जी जैसे मामलों पर चार वर्षों में कोई एफआईआर तक दर्ज नही हो पायी है।
आज जब जीएसटी पर सरकार ने नये सिरे से विचार करके 177 आईटमो को 28% से बाहर करने का फैंसला लिया है भले ही यह फैंसला गुजरात चुनावों के कारण लिया गया है। फिर भी यह स्वागत योग्य है इसी तर्ज में अब सरकार को चाहिये कि नोटबंदी के बाद कैश लैस और डिजिटल होने के फैसलों को ठण्डे बस्ते में डालकर काॅरपोरेट सैक्टर पर नकेल डालनेे का प्रयास करें। इस सैक्टर के पास जो कर्ज एनपीए के रूप में फंसा हुआ है उसे वसूलने में गंभीरता दिखायेे अन्यथा हालात आने वाले दिनों में सरकार के कन्ट्रोल से बाहर हो जायेगा यह तय है।
शिमला शैल। देश के भूतपूर्व सैनिक ’’वन रैंक वन पैन्शन’’ की मांग को लेकर 870 दिनों से दिल्ली के जन्तर- मन्तर पर लगातार अपना आन्दोलन जारी रखे हुए है। पिछले दिनों एनजीटी ने एक आदेश पारित करके जन्तर- मन्तर को आन्दोलन स्थल के रूप में प्रयोग किये जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। इस आदेश की अनुपालना में दिल्ली पुलिस ने जन्तर - मन्तर से इन आन्दोलन रत भूतपूर्व सैनिको को 31 अक्तूबर 2017 को बल पूर्वक हटा दिया। पुलिस द्वारा किया गया बल प्रयोग एक अपमान की सीमा तक जा पहुंचा है। इस अपमानजनक बल प्रयोग से यह भूतपूर्व सैनिक और आहत हो उठे हैं। आज यह सैनिक प्रधानमन्त्री के खिलाफ वादा खिलाफी का आरोप लगा रहे हैं। देश के प्रधानमन्त्री के खिलाफ इस तरह आरोप उस समय लगना जब हमारी सीमाओं पर हर तरफ तनाव का वातावरण बना हुआ है। अपने में एक गंभीर चिन्ता और चिन्तन का विषय बन जाता है।
सत्ता पक्ष द्वारा इस तरह प्रताडित और अपमानित किये जाने के बाद इन सैनिको ने प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस से अपने पार्टी मंच के माध्यम से देश की जनता के सामने इनकी मांगों को रखने के लिये आग्रह किया है। क्योंकि सत्ता पक्ष के साथ प्रमुख विपक्षी दल की भी राष्ट्रहित के मामलों में बराबर की जिम्मेदारी हो जाती है। इन पूर्व सैनिको की पीड़ा को जनता के सामने लाने के लिये कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने शिमला में इन सैनिकों को पार्टी का मंच प्रदान किया। यह एक संयोग है कि प्रदेश में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं और 9 तारीख को मतदान होना है। इस समय हिमाचल में करीब 11.50 लाख भूतपूर्व सैनिक है।
कांग्रेस के मंच का इस्तेमाल करते हुए इण्डियन एक्स सर्विस मैन मूवमैन्ट के चेयरमैन मेजर जनलर (रि॰ ) सतवीर सिंह और यूनाईटड एक्स सर्विस मैन मूवमैन्ट के वाईस चेयरमैन ग्रुप कैप्टन वी के गांधी और अन्य पदाधिकारियों ने प्रदेश की जनता के सामने अपनो पक्ष रखते हुए मोदी सरकार से यह सवाल उठाये है।
मादी सरकार ने ’’वन रैंक वन पैन्शन’’ (आरोप ) को न लागू कर भारत के सैनिकों और भूतपूर्व सैनिकों के साथ विश्वासघात किया है। ’’वन रैंक वन पैन्शन’’ की मांगे कर रहे सैनिक 870 दिनों से जंतर - मंतर पर विरोध प्रदर्शन कर रहे है। आन्दोलनकारी भूतपूर्व सैनिक 32,000 से अधिक युद्ध पदक सरकार को लौटा चुके हैं। लेकिन भाजपा या प्रधानमन्त्री मोदी के कानों पर जूं तक नही रेंग रही है।
दूसरी तरफ की सरकार ने 14 अगस्त 2015 को स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर जंतर मंतर पर आन्दोलिन सैनिको पर हमला करके उनका अपमान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 31 अक्तूबर 2017 की नरेन्द्र मोदी की सरकार ने ’’वन रैंक वन पैन्शन’’ की मांग कर रहे सैनिकों और सैनिको की विधवाओं का अपमान करके न केवल उन्हे गिरफ्तार किया बल्कि बलपूर्वक उन्हे वहां से खदेड़ दिया।
पटेल चैक, नई दिल्ली से 12 भूतपूर्व सैनिको को उस समय गिरफ्तार किया जब वह चुपचाप बस स्टाॅप पर बैठे थे। उनके हाथ में कोई बैनर, कोई पोस्टर नही था और न ही वह कोई नारा लगा रहे थे। इसके बाद भी 25.50 पुलिसकर्मीयों ने उन पर लाठियां भांजीं और फिर उन्हे हिरासत मे ले लिया। क्या नरेन्द्र मोदी की नजरों में प्रजातंत्र के यही मायने है?
विरोधी स्वर को दबाना, जनमानस की आवाज को कुचलना और लोकतन्त्र का गला घोंटना केन्द्र की भाजपा सरकार की पहचान बन गए हैं।
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्र की भाजपा सरकार को हिमाचल प्रदेश के 11.50 लाख भूतपूर्व सैनिको को निम्नलिखित प्रश्नों के जवाब देने ही होंगे।
1. 17 फरवरी 2014 को केन्द्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने 1 अप्रैल 2014 से "वन रैंक वन पैन्शन’’ को स्वीकार कर लिया था। 26 फरवरी 2014 को उस समय रक्षामन्त्री ए के एंटोनी ने बैठक की अध्यक्षता की और वित्तवर्ष 2014-2015 से रक्षाबलों की सभी रैंक्स के लिये ’’वन रैंक वन पैन्शन ’’ लागू करने का निर्णय लिया। दिनांक , 26.02.2014 को भेजे गए पत्र तथा ’’वन रैंक वन पैन्शन’’की मीटिंग के मिनट्स संलग्नक A-1 में संलग्न है।
मिनट्स के पैरा 3 में यह साफ कहा गया है कि ’’ वन रैंक वन पैन्शन ’’ का मतलब है कि एक समान अवधि तक सेवाएं देने के बाद एक समान रैंक से रिटायर होने वाले सशस्त्र बलों के सनिकों को एक समान पेंशन दी जाएगी फिर चाहे उनकी रिटायरमेंट की तारीख कोई भी क्यों न हो तथा भविषय में पेंशन की दरों में होने वाली वृद्धि पहले से पेंशन पा रहे लोगों को स्वतः ही मिलने लगेगी।
इसलिये क्या यह सही नहीं है कि "वन रैंक वन पेन्शन ’’ में बराबरी के सिंद्धात को स्पष्ट व निष्पक्ष रूप से अपनाया गया था।
2. मई 2014 में केन्द्र में भाजपा की सरकार बनी और नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। डेढ़ साल बीत जाने के बाद 7 नवम्बर 2015 को मादी सरकार ने एक नोटिफिकेशन जारी करके तीनों सेनाओं के 40 प्रतिशत सैनिकों को ’’ वन रैंक वन पेन्शन के फायदे से वंचित कर दिया तथा समय से पहले रिटायरमेंट लेने वाले सैनिकों को वन रैंक वन पेन्शन का फायदा देने से इंकार कर दिया। 7 नवम्बर 2015 को जारी नोटिफिकेशन के क्लाॅज 4 में कहा गया है कि ’’ 4. जो सैनिक सेना नियम 1954 के नियम 16 वी या नियम 13 (3), 1(i) (b), 13 (3) 1(iv) या इसके समतुल्य नेवी या एयरफोर्स के नियमों के तहत अपने खुद के निवेदन पर सेवानिवृत होता है उसे ’’वन रैंक वन पेन्शन का फायदा नही दिया जाएगा।
क्या भाजपा सरकार को इस बात की जानकारी नही है कि जूनियर रैंक के लगभग सभी कर्मचारी खासकर जवान /जूनियर कमीशंड आॅफिसर 40 वर्ष की आयु में रिटायर हो जाते हैं? केवल 30 प्रतिशत सैनिक ही कर्नल बन पाते है। बचे हुए अधिकांश अधिकारी 20 साल की सेवा पूर्ण होने पर समयपूर्व रिटायमेंट ले लेते हैं। समय से पहले रिटायरमेंट लेने वाले सैनिकों की संख्या भी लगभग 30 प्रतिशत से 40 प्रतिशत हैं तो क्या तीनों सेनाओं के सभी सेवाधीन सैनिकों को ’’वन रैंक पेंशन के फायदों से वंचित कर देना उनके साथ अन्याय नहीं ?
3. केन्द्र की भाजपा सरकार को जुलाई 2014 के निर्णय को लागू करने में क्या परेशानी है? भाजपा सरकार से उस समय कांग्रेसस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार द्वारा लिये गए निर्णय के अनुसार 4 अप्रैल 2014 से "वन रैंक वन पेंशन" लागू क्यों नही होने दिया ? कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार द्वारा लागू ’’ वन रैंक वन पेंशन" को खारिज करके मोदी सरकार भूतपूर्व सैनिकों को इसके फायदों से वंचित क्यों कर रही है?
4. मोदी सरकार ने पांच साल पूरे हो जाने के बाद पेंशन की पुनः समीक्षा की शर्त क्यों रखी जबकि सभी अनुभवी लोग दो सालों में समीक्षा की मांग कर रहे थे?
5. रिटायर्ड एंव सेवाधीन भूतपूर्व सैनिकों सहित सभी हितग्राहियों की पाचं सदस्यीय कमेटी की जगह "वन रैंक वन पेंशन" की समीक्षा एक सदस्यीय कमेटी द्वारा क्यों कराई जाएगी ?
6. कांग्रेस पार्टी द्वारा तय किए गए "वन रैंक वन पेंशन" में भूतपूर्व सैनिकों को सर्वाधिक वेतन के आधार पर पेंशन मिलती। वर्तमान व्यवस्था में पेंशन का निर्णय सबसेे कम वेतन के औसत के आधार पर लिया जाएगा। मोदी सरकार ने यह एक तरफा व्यवस्था लागू करके
भूतपूर्व सैनिकों को फायदों से वंिचत क्यों किया जिसके चलते विभिन्न पेंशनभोगियों की पेंशन में असमानता आ जाएगी?
7. मोदी सरकार 7 फरवरी / 26 फरवरी 2017 को लिये निर्णय के अनुसार ’’ वन रैंक वन पेंशन’’ लागू करने की वजाये इसकी मांग कर रहे सैनिकों और सैनिकों की विधवाओं पर अत्याचार कर उनकी गिरफ्तारी क्यों कर रही है?
मोदी सरकार भारत एंव हिमाचल प्रदेश के सैनिकों की आवाज दबा नही सकती। यदि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा राजनीति करना चाहते हैं तो वह जान लें कि हिमाचल प्रदेश के सैनिकों और यहां के लोगों को गुमराह नही किया जा सकता। सैनिक वन रैंक वन पेंशन के इस विश्वसघात को कभी स्वीकार नहीं करेंगे।
यह है फरवरी 2014 में जारी हुआ पत्र और बैठक में पारित प्रस्ताव
प्रदेश विधानसभा के लिये नौ नवम्बर को मतदान होगा। इस बार यह मुकाबला प्रदेश के दो बड़े राजनीतिक दलों के बीच ही होने जा रहा है क्योंकि राजनीतिक विकल्प के रूप में कोई तीसरा दल चुनाव मैदान में उपलब्ध नहीं है। दोेनों राजनीतिक दलों के प्रत्याशीयों के अतिरिक्त भी 212 उम्मीदवार बतौर आज़ाद या कुछ छुटपुट दलों के नाम पर उपलब्ध हैं लेकिन इन्हें एक कारगर विकल्प के रूप में नही लिया जा सकता। फिर निर्दलीय उम्मीदवारों की भूमिका चुनाव जीतने के बाद क्या रहती है यह हम पिछले चुनाव के बाद देख चुके हैं। इन लोगो ने कैसे सत्ता के साथ जाने का खेल खेला और फिर अन्त में भाजपा की ओर आ गये। इनके दलबदल कानून के तहत कारवाई किये जाने की याचिका विधानसभा अध्यक्ष के पास भाजपा ने दायर की थी जिस पर आज तक कोई फैसला नही आया है और यह फैसला आने के लिये अन्त में भाजपा ने भी कोई प्रयास नही किया क्योंकि यह लोग पासा बदलकर उसी में शामिल हो गये थे। हमारे विधानसभा अध्यक्ष की राजनीतिक नैतिकता ने उन्हे फैसला करने नही दिया। ऐसे में निर्दलीयों पर कितना और क्या भरोसा किया जा सकता है इसका अनुमान लगाया जा सकता है।
इसलिये चयन दोेनों ही बडे़ दलों में से ही किया जाना है यह राजनीतिक विवश्ता है। यह ठीक है कि मतदाता के पास नोटा के अधिकार का विकल्प है परन्तु इस विकल्प का प्रयोग करने केे बाद भी यह स्थिति उभरने की स्थिति नही है कि मतदाताओं का बहुमत नोटा को मिल जाये और चुनाव रद्द होकर नये सिरे से चुनाव करवाने की स्थिति आ जाये। इसलिये नोटा का विकल्प भी कोई सही नही रह जाता है। इससे भी यही स्थिति उभरती है कि दोनों दलों में से ही किसी एक को चुना जाये। लेकिन दोनों में से ही बेहत्तर कौन है इसका चनय कैसे किया जाये यह बड़ा सवाल है। दलों का आंकलन करने के लिये इनके चुनाव घोषणा पत्रों को खंगालना और समझना पड़ता है। दोनो दलों के घोषणा पत्र जारी हो चुके हैं। दोनो ने ही जनता को लुभाने के लिये लम्बे चैडे़ वायदे कर रखे हैं लेकिन वायदों को पूरा करने के लिये संसाधन कहां से आयेंगे इसका जिक्र किसी के भी घोषणा पत्र में नही है। इस समय प्रदेश पर 50,000 करोड़ के करीब कर्ज है। यह कर्ज जी एस डीपी का 40% और राज्य की कुल राजस्व प्रतियों से 29% अधिक है। जिस प्रदेश की माली हालत यह हो वहां पर चुनाव लड़ रहे दलों को अपने-अपने चुनाव घोषणा पत्र जारी करते हुए इस स्थिति का ध्यान रखना चाहिये लेकिन ऐसा हुआ नही है। इस प्रदेश को एक समय विद्युत राज्य प्रचारित-प्रसारित करते हुए यह दावा किया गया था कि अगले विद्युत की आय से ही प्रदेश खुशहाल हो जायेगा। परन्तु आज का कड़वा सच यह है कि विद्युत से हर वर्ष आय में कमी हो रही है। राज्य विद्युत बोर्ड के स्वामित्व वाले से प्रौजैक्टों में रिपेयर के नाम पर हर वर्ष लगातार हजारों घन्टों का सुनिश्चित शटडाऊन हो रहा है। निजि प्रौजैक्टों से पावर परचेज एग्रीमैन्टो के तहत जो बिजली खरीदनी पड़ रही है वह पूरी बिक नही पा रही है। यह प्रदेश की सबसे गंभीर समस्या है और इसकी ओर किसी भी दल ने अपने घोषणा पत्र में जिक्र तक नही किया है। स्वभाविक है कि घोषणा पत्रों को वायदों को पूरा करने के लिये या तो और कर्ज उठाया जायेगा या फिर केन्द्र की सहायता से ही यह संभव हो पायेगा।
इसके अतिरिक्त दोनो दलों को आंकने के लिये दोनो के शासनकालों को देखा जा सकता है। क्योंकि दोनो ही दल सत्ता में रह चुके हैं। दोनों ही दलों ने जो अपने-अपने मुख्यमन्त्री के चेहरे घोषित किये वह पहले भी मुख्यमन्त्री रह चुके हैं। आज कांग्रेस सत्ता में है और वीरभद्र उसके मुख्यमन्त्री हैं लेकिन वीरभद्र कार्यालय पर आज जो सबसे बड़ा आरोप लग रहा है कि यह कार्यालय सेवानिवृत अधिकारियों का एक आश्रम बन कर रह गया है। मुख्यमन्त्री का प्रधान निजि सचिव और प्रधान सचिव दोनों सेवानिवृत अधिकारी है और उन्हे इन पदों पर तैनाती देने के लिये अलग पदनामों का सहारा लिया गया है, क्योंकि शायद नियमों के मुताबिक सेवानिवृत अधिकारियों को यह पद दिये नही जा सकते थे। फिर प्रधान निजि सचिव की पत्नी को जिस ढंग से पहले शिक्षा के रैगुलेटरी कमीशन का सदस्य और लोकसेवा आयोग का सदस्य लगाया गया है उससे यह संदेश गया है कि शायद मुख्यमन्त्री का काम इस परिवार के बिना नही चल सकता। यह परिवार शायद मुख्यमन्त्री की मजबूरी बन गया है। यदि मुख्यमन्त्री पुनः सत्ता में आते हैं तो यही परिवार फिर सत्ता का केन्द्र होगा। इसी के साथ वीरभद्र के इस कार्यकाल में जिस तरह से प्रशासन के शीर्ष पर हर विभाग में नेगीयों को बिठाया गया है उससे भी प्रशासनिक और राजनीतिक हल्कों में अच्छा संकेत नही गया है। बल्कि यही माना जा रहा है कि सत्ता में पुनः वापसी का अर्थ फिर सेे इन्ही लोगों को सत्ता सौंपना होगा। दूसरी ओर यदि धूमल सत्ता में आते हैं तो उनसे अभी यह आंशका नही है कि उनका कार्यालय भी वृ़द्धाश्रम बन कर रह जायेगा। क्योंकि उनके पिछले कार्यकालों में ऐसा देखने को नही मिला है। फिर जो आर्थिक स्थिति प्रदेश की आज है उसमें केन्द्र का आर्थिक सहयोग इनके माध्यम से ज्यादा मिल पायेगा जो आज प्रदेश की आवश्यकता है।
शिमला/शैल। प्रदेश विधानसभा के लिये 9 नवम्बर को मतदान होने जा रहा है और 8 नवम्बर को नोटबंदी के फैसले को लागू हुए एक वर्ष पूरा हो रहा है। विपक्ष ने 8 नवम्बर का ब्लैक डे तो सत्तापक्ष ने इसे कालेधन का प्रहार के रूप मे मनाने का फैसला लिया है। इस परिदृश्य में नोटबंदी के फैसले की समीक्षा किया जाना आवश्यक हो जाता है। रिजर्व बैंक ने स्वीकार किया है कि नोटबंदी के बाद 99% पुराने नोट उसके पास वापिस आ गये है और इसी के साथ यह भी स्वीकारा है कि इस फैसले के बाद जीडीपी में कमी आयी है। नोटबंदी के बाद ही ‘‘एक देश एक टैक्स’’ के तहत जीएसटी का फैसला लागू हुआ है। नोटबंदी के फैसले की समीक्षा करना, उस पर प्रतिक्रिया देना आम आदमी के लिये आसान नही है। लेकिन जीएसटी के फैसले से जिस कदर आम आदमी प्रभावित हुआ है उसका असर इसी सेे लगाया जा सकता है कि अभी कुछ दिन पहले ही भारत सरकार के राजस्व सचिव आढ़िया ने एक ब्यान मे माना कि जीएसटी को रिस्ट्रक्चर करने की आवश्यकता है। भारत सरकार के स्वास्थ्य मन्त्री जेपी नड्डा से जब इस बारे में एक पत्रकार वार्ता में पूछा गया तो उन्होने जीएसअी लागू करने के लिये एनडीए सरकार की बजाये जीएसटी कांऊसिल को पूरी तरह जिम्मेदार ठहराया जबकि इसे लागू करते समय मोदी की एनडीए सरकार ने इसे एक बड़ी उपलब्धि करार दिया था। जीएसटी पर जिस तरह मोदी सरकार जिम्मेदारी से बचने का प्रयास कर रही है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि नोटबंदी और जीएसटी के फैसलों से हुए नुकसान और आम आदमी को मिली पेरशानी से अब मोदी सरकार बैकफुट पर आ गयी है।
इन फैसलों का अभी हिमाचल और गुजरात के चुनावों पर क्यों और क्या असर पड़ेगा। इसकी पड़ताल करने से पहले यह समझना बहुत जरूरी है कि जब यह फैसले लिये गये थे उस समय की आर्थिक स्थिति क्या थी? किसी देश की अर्थव्यवस्था में करंसी उस देश के जीडीपी के अनुपात में छापी जाती है। चीन हमारे से बड़ा देश है उसका जीडीपी दस लाख करोड़ अमेरीकी डाॅलर है और हमारा दो लाख करोड़ अमेरीकी ड़ाॅलर है। चीन में करंसी 9% तथा भारत में 10.6 के अनुपात में छापी जाती है। रिजर्व बैंक इस सन्तुलन को बनायेे रखता है। रिजर्व बैंक की साईट पर आये मनी स्टाक के आंकड़ो के मुताबिक जुलाई 2016 को 17,36,177 करोड़ की कुल करंसी परिचालन में थी। इसमें से 475034 करोड़ बैंको की तिजोरी में थी और 16,61,143 करोड़ बैंको के बाहर जनता के पास थी। लेकिन जनता के पास इतनी ज्यादा कंरसी होने के वाबजूद जनता खरीददारी नही कर रही थी। बैंको के पास पैसा आ नही रहा था। बैंक भुगतान के संकट में आ गये थेे ऊपर से सरकार और बैंको को मार्च 2019 तक ब्रेसल-3 के मानक परे करने थे। इसके लिये प्रोविज़निग की जानी थी जिसके लिये पांच लाख करोड़ की नकदी चाहिये थी। इस स्थिति को सरकार ने यह माना कि जब जनता इतनी कंरसी होने के वाबजूद खरीददारी नही कर रही है तो निश्चित रूप से इतना पैसा लोगों के पास कालेधन के रूप में है। यह कुल कंरसी का 86% था। इससे उबरने के लियेे एक तरीका यह था कि जो कर्ज दिया गया है उसकी सख्ती से वसूली की जाए। लेकिन ज्यादा कर्ज बड़े उद्योगपतियों के पास था और सरकार उन पर सख्ती नही करना चाहती थी। इसलिये सरकार ने नोटबंदी का फैसला लिया। सरकार को विश्वास था कि 500 और 1000 के नोटों का परिचालन बंद करके उसे नये सिरे से 86% कंरसी छापने का अधिकार मिल जायेगा और पुराने नोट क्योंकि कालाधन है तो वह उसके पास वापिस नही आयेंगे। इस तरह नयी कंरसी के सहारे वह बड़े घरानों के कर्ज भी माफ कर देगी और बैंक भी संकट से निकल जायेेंगे। इसीलिये नोटबंदी की घोषणा के साथ ही यह कहा गया 2.5 लाख से ज्यादा जमा करवाने पर जांच की जायेगी। जब जनधन खातों में पैसा जमा होने लगा तो इन खातों में पुराने नोटे जमा करवाने पर पाबंदी लगा दी। एफडी इन्दिरा विकास पत्र आदि बचत खातोें में पुराने नोटों पर पाबंदी लगा दी। ग्रामीण क्षेत्र के सहकारी बैंको में पुराने नोट बदलने में रोक लगा दी। पहले कहा 30 दिसम्बर 2016 के बाद 31 मार्च 2017 तक रिर्जब बैंक में पुराने नोट जमा करवा सकते हैं लेकिन बाद में कहा कि केवल विदेशी ही करवा सकते हैं।
इस तरह पुरानी करंसी को वापिस आने से रोकेने के लिये किये गये सारे प्रयास असफल हो गये। क्योंकि आयकर विभाग की एक रिपोर्ट के मुताबिक नकद कंरसी के रूप में कालाधन केवल 5 से 6 प्रतिशत ही रहता है। सरकार का इस तरह सारा आंकलन फेल हो गया और 99% पुरानी कंरसी उसके पास वापिस आ गयी । लेकिन बड़े घरानो का कर्ज वापिस नही आया अब बैंको को संकट से बचाने के लिये प्रोविजनिंग करने हेतु तथा ब्रेसल -3 के मानको को पूरा करने के लिये 5 लाख करोड़ की आवश्यकता है जिसे इस तरह से जीएसटी आदि के माध्यम से पूरा करने की योजना पर काम किया जा रहा है फिर सरकार ने स्मार्ट सिटी, मेक-इन-इण्डिया, डिजिटल इन्डिया और स्र्टाट अप जैसी जितनी भी विकास योजनाएं घोषित की हैं वह सब विदेशी कर्जे पर आधारित हैं। लेकिन विदेशी निवेशकों ने यह निवेश करने से पहले आम आदमी को दी जाने वाली सब्सिडि आदि की सरकारी राहतों को तुरन्त बन्द करने की शर्ते रखी हैं। विदेशी निवेशक बैंको का निजिकरण चाहता है। सरकार द्वन्द में फंसी हुई है। वित्त मन्त्री ने बार-बार घोषणा की हैं कि चुनावों का वित्तिय सुधारों पर कोई असर नही पड़ेगा वह जारी रहेंगे।अब आम आदमी को सरकार के इन फैसलों का प्रभाव व्यवहार रूप में देखने को मिल रहा है। माना जा रहा है कि इसका असर इन चुनावों पर अश्वय पड़ेगा।
हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिये भाजपा और कंाग्रेस दोनों के उम्मीदवारों की सूचियां आ चुकी हैं। नामांकन भरे जा रहे हंै। कांग्रेस यह चुनाव वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में लड़ रही है। यह कांग्रेस हाईकमान घोषित कर चुकी है। तय है कि यदि कांग्रेस सत्ता में आती है तो उसकेे अगले मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह ही होंगे। दूसरीे ओर भाजपा हाईकमान नेे किसी को भी नेता घोषित नहीे किया है। कल को यदि भाजपा को बहुमत मिलता है तो उसका मुख्यमन्त्राीे कौन होेगा यह किसीे को भी आज की तारीख में मालूम नही है। भाजपा सामूहिक नेतृत्व के साये तले यह चुनाव लड़ने जा रही है। इस सामूहिक नेतृत्व का अर्थ होता है कि एक नेता विशेष के व्यक्तित्व और सोच/दर्शन के स्थान पर पार्टी की सोच/दर्शन के नाम पर यह चुनाव लड़ा जायेगा। पार्टी के आगे व्यक्ति गौण हो जाता है यह सामूहिक नेतृत्व का स्वभाविक गुण होता है।
प्रदेश में इससे पहले तीन बार भाजपा की सरकारें रह चुकी हैं। 1990 में शान्ता कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया और सरकार बनी भले ही वह बावरी मस्जिद राम मन्दिर विवाद के चलते पूरा कार्यकाल नही चला पायी। उसके बाद 1998 और 2007 में धूमल के नेतृत्व में चुनाव लड़े गये और दोनांे बार सरकारें बनी तथा पूरा कार्यकाल चली। लेकिन केन्द्र मंे मोदी सरकार से पहलेे भाजपा अकेलेे अपने दम पर सरकार नही बना पायी। इस समय केन्द्र मंे प्रचण्ड बहुमत के साथ भाजपा की सरकार है। इसी बहुमत के कारण राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के दोनों पद भी भाजपा को मिल पाये हैं। आज केन्द्र में भाजपा की स्पष्ट सरकार होने के कारण पार्टी अपनेे आर्थिक राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दर्शन को अमली शक्ल देने की पूरी स्थिति में है तथा वह ऐसा कर भी रही है। इसलिये आज पंचायत से लेकर संसद तक के हर चुनाव में पार्टी की विचारधारा ही मुख्य भूमिका में रहेगी। भाजपा संघ परिवार की एक राजनीतिक इकाई है यह सब जानते हंै इसलियेे विचारधारा के नाम पर संघ का ही दर्शन प्रभावी और हावि रहेगा। इस नाते प्रदेश विधानसभा चुनावों में भाजपा का पूरा अभियान इसी दर्शन के गिर्द केन्द्रित रहेगा यह स्वभाविक है। क्योंकि कांग्रेस और वीरभद्र के जिस भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने का प्रयास किया गया था वह सुक्ख राम परिवार के भाजपा में शामिल होने से अब अप्रभावीे हो गया है।
इसलिये आज केन्द्र सरकार के आर्थिक फैंसले और उसकी दूसरी नीतियां चुनावी चर्चा बनेगे यह तय है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि प्रदेश मंे यह चुनाव अनचाहे हीे मोदी बनाम वीरभद्र बन जायेगा भले ही वीरभद्र इससे लाख इन्कार करते रहें। क्योंकि केन्द्र की ओर से प्रदेश को जो कुछ दिया गया है या घोषित किया गया है उसे भुनाना भाजपा की आवश्यकता होगी। लेकिन जब यह सब भुनाया जायेगा तब केन्द्र के फैसलेे भी जन चर्चा में आयेंगे जिनका प्रभाव पूरे देश पर पड़ा है और जनता में एक रोष की स्थिति पैदा होती जा रही है। किसी भी सरकार की सफलता का सबसे बड़ा मानक उसके आर्थिक फैसले होते हंै। आज केन्द्र की भाजपा सरकार के मुखिया मोदी जी हैं। प्रधानमंत्री बनने से पहले गुजरात के मुख्यमन्त्री थे। वहां वह लगातार तीसरी बार जीत गये थे। वैसे लगातार तीसरी बार जीतने वालों में भाजपा के शिव राज सिंह चैहान और डा. रमण सिंह भी आते हंै। लेकिन क्योंकि मोदी संघ के प्रचारक भी रह चुके हंै इसलिये संघ ने केन्द्रिय नेतृत्व के लिये उन्हें चुना। मोदी के कार्याकाल में गुजरात में कितना विकास हुआ है इसका एक अनुमान तो इसी से लगाया जा सकता है कि अभी गुजरात के चुनाव की तारीखें घोषित होनी है और मोदी को वहां के लिये एक ही दौरे में 22500 करोड़ की घोषणाएं करनी पड़ी हंै। अभी ऐसी ही और घोषणाएं भी हो सकती हैं। सभंवतः इन्ही घोषणाआंे के लिये हीे हिमाचल के साथ वहां के चुनाव घोषित नही किये गये हैं। इन घोषणाओ में सबसेे दिलचस्प तो यह रहा है कि मोदी को अपने ही गृह नगर बड़नगर में स्वास्थ्य सुविधायंे उपलब्ध करवाने के लिये 500 करोड़ की घोषणा करनी पड़ी है। क्या इससे यह प्रमाणित नही हो जाता कि बतौर मुख्यमन्त्री वह अपने गृह नगर को समुचित स्वास्थ्य सुविधा तक नही दे पाये हंै।
इससे भी महत्वपूर्ण तो यह है कि मोदी के कार्याकाल में गुजरात सरकार का कर्जभार रिर्जब बैंक की एक स्टडी के मुताबिक 2.1 लाख करोड़ से अधिक जा पहुंचा था गुजरात विधानसभा में वहां के वित्तमन्त्री नितिन पटेल 2015-16 के बजट अनुमान प्रस्तुत करते हुए हाऊस को यह जानकारी दी थी कि इस वर्ष सरकार का कर्जभार 1,82,098 करोड़ हो चुका है। इस पर कांग्रेस विधायक अनिल जोशियारा के प्रश्न पर प्रश्नकाल के दौरान यह बताया गया कि 2014-15 में यह कर्ज 1,63,451 करोड़ था जो अब 18,647 करोड़ बढ़ गया है। इसी पर अनुपूरक प्रश्न के उत्तर मंे बताया गया कि इससे पूर्व के दो वर्षो में 19,454 और 24,852 करोड़ का कर्ज लिया गया। इसी जानकारी में यह भी बताया गया कि 2013-14 में 13061 करोड़ ब्याज और 5509 करोड़ मूलधन वापिस किया गया। 2015-16 में 14.495 करोड़ ब्याज और 6205 करोड़ मूलधन कें रूप में लौटाया गया। इन आंकडो से यह समझ आता है कि जो प्रदेश जितना प्रतिवर्ष ब्याज अदा कर रहा है मूलधन की किश्त तो उसके आधे सेे भी कम वापिस की जा रही है ऐसे पूरा कर्ज लौटाने में कितना समय लग जायेगा। इसी के साथ यह भी प्रश्न उठता है कि जब अपने ही गृह नगर को मोदी आज केन्द्र के पैसे से स्वास्थ्य सुविधा दे रहे हैं तो फिर यह दो लाख करोड़ का कर्ज कहां निवेश हुआ। क्या इस कर्ज से कुछ बड़े औद्यौगिक घरानों के लिये ही सुविधायें जुटायी गयी है। क्योंकि आज केन्द्र के सारे बड़ेे आर्थिक फैसलों का लाभ भी इन्ही बडे़ घरानों को मिलता दिख रहा है और आम आदमी के हिस्से केवल जीएसटी से कीमते बढ़ना, पैट्रोल डीजल और रसोई गैस के दाम बढ़ना ही हिस्से में आयेगा। आज आम आदमी से अनुरोध है कि इस चुनाव में वह इन जवलन्त प्रश्नों पर नेताआंे सेे जवाब मांगेे। पार्टीयों के ऐजैण्डे की जगह अपने इन सवालों पर चुनाव को केन्द्रित करे।