Tuesday, 16 December 2025
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पत्रकार कितना सुरक्षित

दिव्य हिमाचल के शिमला स्थित व्यूरोे चीफ सुनील शर्मा का 19 मार्च को शिमला में उनके आवास पर ह्रदयगति रूक जाने से देहान्त हो गया है। 47 वर्षीय पत्रकार का इस तरह असमय निधन हो जाना उनके परिवार के लिये तो एक ऐसी क्षति है जिसकी भरपाई हो पाना कतई संभव नही है। लेकिन यह निधन पत्रकार जगत के लिये भी आसानी से भुला दी जाने वाली घटना नही है। वैसे तो मौत एक निश्चित सच है लेकिन इसके वक्त और बहाने की जानकारी किसी को भी नही हो पाती है। यही रहस्य जीवन को चलाये रखने का भी माध्यम रहता है यह भी सच है। ईश्वर सुनील शर्मा केे परिवार को इस दुख को सहने की शक्ति प्रदान करे यही प्रार्थना है।
सुनील शर्मा के निधन का समाचार जैसे ही फैला सारे पत्रकार उनके आवास पर पंहुच गये। पत्रकारों के साथ ही लोक संपर्क विभाग के निदेशक और अन्य अधिकारी तथा मीडिया सलाहकार भी पंहुच गये। मुख्यमन्त्री और शिक्षा मन्त्री भी परिवार के साथ दुःख बांटने पंहुचे। लोक संपर्क विभाग ने सुनील शर्मा के पार्थिव शरीर को अन्तिम संस्कार के लिये बिलासपुर ले जाने हेतु पूरे प्रबन्ध किये। जिलाधीश शिमला ने भी इसमें पूरा सहयोग दिया। मुख्यमन्त्री जब शोक व्यक्त करने के बाद वापिस लौटे तो पत्रकारों ने उनसे आग्रह किया कि सुनील शर्मा के परिवार को सहायता देने के लिये सरकार को कुछ व्यवस्था करनी चाहिये। इस व्यवस्था के नाम पर सुनील शर्मा की विधवा को सरकार में कोई समुचित नौकरी दिये जाने की मांग रखी है। प्रैस क्लब में शोक सभा करने के बाद पत्राकारों का एक प्रतिनिधि मण्डल इस संबंध में मुख्यमन्त्री से मिला भी है। मुख्यमन्त्री ने इस संबध में आवश्यक कदम उठाने का आश्वासन भी दिया है।
सुनील शर्मा एक दैनिक समाचार पत्र के ब्यूरो चीफ थे। मीडिया को लोक तन्त्र का चैथा खम्भा माना जाता है। सरकार मीडिया को एक अरसे से सुविधाएं देने का दावा करती आ रही है। सुविधा के नाम पर ही प्रैस क्लब के लिये कार्यालय का स्थान दिया गया है। अब ज़मीन भी दी गयी है और उस पर निर्माण के लिए आर्थिक सहायता भी दी गयी है। पत्रकार हाऊसिंग सोसायटी के नाम जगह दी गयी जहां पत्रकार विहार का निर्माण हुआ है। इस पत्रकार विहार में कितने पत्रकारों के आवास है। कितने पत्रकार वास्तव में ही वहां रह रहे हैं और कितनो ने वहां पर अन्य गतिविधियां चला रखी हैं। कितनों को वहां पर प्लाटों का सही आवंटन हुआ है। इस सबको लेकर राज्यपाल के पास एक शिकायत भी पंहुची हुई है। राज्यपाल ने इस शिकायत को सरकार को कारवाई के लिये भेज दिया है। आज सुनील शर्मा के निधन के साथ इस सारे प्रंसग को इसलिये उठा रहा हूं कि इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि क्या वास्तव में ही पत्रकारों को सुविधा मिल रही है या नही। क्योंकि यदि वास्तव में ही यह सुविधा मिल रही होती तो सुनील शर्मा की विधवा के लिये नौकरी मांगने की आवश्यकता न आती। पत्रकार हाऊसिंग सोसायटी की तरह कर्मचारियों /अधिकारियों विधायकों एवम् अन्य की हाऊसिंग सोसायटीयां है। इसलिये इसे पत्रकारों को सुविधा देना नही कहा जा सकता। प्रैस क्लब भी इस तरह सुविधा में नही गिना जा सकता। स्वास्थ्य चिकित्सा के नाम पर बीमा सुविधा एक सुविधा है लेकिन इसका लाभ बिमारी की सूरत में ही है।
इसलिये यदि सरकार और समाज वास्तव में ही मीडिया को लोकतन्त्र का चैथा स्तम्भ मानता है तो इसे मजबूत करने और सुरक्षा प्रदान करने की आवश्यकता है। मीडिया को भी व्यवहारिक तौर पर लोकतन्त्र के एक सजग प्रहरी की भूमिका में आना होगा। आज मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल उठते जा रहे हैं। ग्लोबल ट्रस्ट इंडेक्स द्वारा पिछले दिनों किये गये सर्वे के अनुसार मीडिया और सरकार पर जनता के भरोसे में लगातार कमी आती जा रही है। कैम्ब्रिज ऐनेलिटिका और फेसबुक को लेकर विश्वस्तर पर अभी जो बहस उठी है वह एक गंभीर सवाल खड़ा करती है। पिछले चुनावों में कैम्ब्रिज ऐनेलिटिका का इस्तेमाल करने पर भाजपा और कांग्रेस दोनो एक दूसरे पर गंभीर आरोप लगा रहे हैं। फेसबुक को लेकर भी इन दोनों पार्टियों ने गंभीर आशंकाएं व्यक्त की हैं और फेसबुक को चेतावनी भी जारी की है। मीडिया जब अपनी सही भूमिका को छोड़कर कवेल व्यापार बनकर काम करता है प्रायोजित हो जाता है तब अन्ततः समाज और सरकार दोनो का ही अहित होता है। आज मीडिया पर पंूजीपति घरानो का कब्जा बढ़ता जा रहा है। अब तो सरकार ने मीडिया में विदेशी निवेश को पूरी छूट दे दी है। इस परिदृश्य मंे पत्रकार कितनी देर अपनी निष्पक्षता को बनाये रखेगा यह एक बड़ा सवाल खड़ा होता जा रहा है।
पत्रकार जब अपनी निष्पक्षता को छोड़कर केवल प्रायोजित माऊथपीस होकर रह जाता है तब वह जनता का भरोसा खोना शुरू कर देता है। हमारेे ही प्रदेशों में इसका स्पष्ट उदाहरण है कि शान्ता, वीरभद्र और धूमल तीनो के ही गिर्द एक पत्रकार विशेष का वर्ग घूमता रहा है। इनका सलाहकार होने का दावा करता है। मीडिया सरकारों को सर्वश्रेष्ठता के आवार्ड देता रहा है लेकिन इस सबका परिणाम यही रहा कि कोई भी लगातार दूसरी बार सत्ता में वापसी नही कर पाया। सबके घोषित अघोषित मीडिया सलाहकार रहे हैं और परिणाम सबके सामने रहा है। आज इस दुःखद अवसर पर यह सारा प्रसंग उठाने की आवश्यकता इसलिये मान रहा हूं कि जयराम सरकार ने भरोसा दिया है कि वह इस परिवार की सहायता के लिये अवश्य ही कुछ करेंगे। इसलिये यह आशा और आग्रह है कि इस सद्धंर्भ में कोई स्थायी नीति बनाई जाये जो स्वतः ही हर पत्रकार पर लागू हो जाये। किसी के लिये भी अलग से कोई आग्रह न करना पड़े। इसके लिये सरकार को अपनी मीडिया पाॅलिसी पर नये सिरे से विचार करना होगा जिसमें मीडिया के दुरूपयोग भी स्वतः ही रूक जाये इसके लिये अलग से चिन्ता करने की आवश्यकता ही न रहे। आज सुनील की विधवा के लिये रोज़गार मांगने की आवश्यकता क्यों आ रही है क्योंकि जिस घराने में वह काम कर रहे थे उसकी ओर से ऐसा कोई ऐलान नही आया है।

बाजार बनते जा रहे हैं निजी स्कूल

प्रदेश में चल रहे निजी स्कूलों ने इस शैक्षणिक सत्र से 15% फीसें बढ़ा दी हैं। अभिभावक इस फीस वृद्धि से परेशान ही नही आतंकित हैं। फीस ही नही यह स्कूल अब किताबें और वर्दीयां भी अपरोक्ष में बेच रहे हैं क्योंकि इसके लिये कुछ ही दुकानें चिन्हित की जाती हैं। वर्दी आदि में अकसर कोई न कोई छोटा सा बदलाव कर दिया जाता है। जिसके कारण हर साल यह वर्दी नयी लेनी पड़ती है। अपने आप कपड़ा लेकर अभिभावक खुद वर्दी सिला नही सकते। इसलिये उस चिन्हित दुकान से ही यह सब कुछ लेना पड़ता है। किताबें-काॅपियां भी स्कूल से लेनी पड़ती है और उन पर जिल्द चढ़ाने का काम अभिभावकों को स्वयं करना होता है। स्कूल या चिन्हित दुकान द्वारा दिये जा रहे सामान की गुणवत्ता पर कोई सवाल पूछने का असर बच्चे पर पड़ता है। उसे एक तरह से प्रताड़ित किया जाता है। पढ़ाई के स्तर की स्थिति यह रहती है कि यदि अभिभावक खुद घर में न पढ़ायें तो बच्चा स्कूल में चल ही नही सकता। क्योंकि होम वर्क और टेस्ट का इक्ट्ठा इतना बोझ बच्चे पर आ जाता है कि दोनों काम एक साथ कर पाना स्वभाविक रूप से संभव ही नही हो सकता। हर रोज बच्चे की नोट बुक पर कोई न कोई नोट रहता है लेकिन बच्चे को गलती पर समझाया नही जाता है कि यह गलती है और इसका सही यह है। यह व्यवहारिक स्थिति लगभग सभी स्कूलों की है।
आज आर्य समाज, डीएवी (दयानन्द ऐंग्लो वैदिक) और दयानन्द पब्लिक नाम से अलग-अलग संस्थाएं हो गयी हैं जो कभी एक ही हुआ करती थी। यह कब और क्यों अलग-अलग हुई मैं इसमें नही जाना चाहता। यह संस्थाएं इंग्लिश पब्लिक स्कूलों के विकल्प के तौर पर आयी थी और कुछ समय तक सही में इन्होनंे इस दिशा में काम भी किया है। लेकिन आज यह सारी व्यापारिकता इन संस्थाओं के स्कूलों में इस कदर आ गयी है कि इंग्लिश स्कूलों को भी इन्होनें पीछे छोड़ दिया है। पिछले दिनों शिमला के लक्कड़ बाज़ार स्थित डीएवी स्कूल की नौंवी कक्षा केे विद्यार्थी को लेकर अभिभावकों ने मीडिया में भी दस्तक दी थी। सरोकार था कि इस क्लास के बीस छात्र वार्षिक परीक्षा परिणाम में फेल दिखा दिये गये। इनके अभिभावक इक्ट्ठे हुए और उन्होने स्कूल से प्रार्थना की कि उनके बच्चों की छुट्टियांे के बाद फिर से परीक्षा ले ली जाये। काफी अनुनय-विनय के बाद स्कूल इसके लिये सहमत हो गया। बच्चों ने छुट्टियों में और मेहनत की फिर परीक्षा दी लेकिन इस बार फिर सारे बच्चे पहले से भी ज्यादा अन्तर से फेल हो गये। इस पर अभिभावकों ने स्कूल से इनके पेपर दिखाने का आग्रह किया। लेकिन इस आग्रह को माना नही गया। पेपर न दिखाने का कोई ठोस कारण भी नही बताया गया। यह एक निजी स्कूल है सरकारी तन्त्र का इसमें कोई दखल नही है। इस कारण से इन अभिभावकों के पास स्कूल की इस हठधर्मी का कोई ईलाज नही है। सिवाय इसके कि वह बच्चों को यहां से निकालकर कहीं और ले जायें और फिर दूसरा स्कूल इन फेल बच्चों को अपने यहां दाखिला क्यों दे इसकी कोई गारंटी नही। ऐसे में अभिभावकों की पीड़ा का अनुमान लगाया जा सकता है क्योंकि इन्होनें हजा़रो रूपये इन पर खर्च किये हैं। इसी तरह पिछले वर्ष शैमराॅक स्कूल को लेकर भी अभिभावक शिकायत कर चुके हैं।
इस परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि यदि नर्सरी के बच्चे की फीस 42000 रूपये जायेगी तो अगली क्लासों में यह कहां तक बढे़गी और जिन माता-पिता को दो बच्चांे की फीस ऐसी देनी पडे़गी उनकी हालत क्या हो जायेगी। प्रदेश में जब कई निजी विश्वविद्यालय धूमल शासन में खुले थे तब इनके विरोध में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् जैसे छात्र संगठन ने भी सवाल उठाया था कि शिक्षा का बाजा़रीकरण कब तक। हर संवदेनशील व्यक्ति ने इसका समर्थन किया था। आज संयोगवश प्रदेश के मुख्यमन्त्री और शिक्षा मंत्री से लेकर कई अन्य मन्त्री और विधायक इसी छात्र संगठन से जुड़े रहे हैं। इस नाते यह लोग इस पीड़ा को आसानी से स्वयं समझ सकते हैं कि सही में स्कूल शिक्षा कितनी मंहगी होती जा रही है और यह मंहगा होना ही इसका बाज़ारीकरण है।
अब सवाल उठता है कि इसका हल क्या है। इसके लिये सबसे पहले यह मानना होगा कि आज रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी आवश्यकताओं में शिक्षा और स्वास्थ्य भी शामिल हो गया है। रोटी,कपड़ा और मकान अपने में एक बहुत बड़ा बाज़ार बन चुका है क्योंकि भीख मांगने वाले से लेकर अरबपति तक यह सबकी एक बराबर आवश्यकता हैं। शिक्षा भी अब ऐसी ही आवश्यकता हो गयी है। रोटी और मकान की सुनिश्चितता के लिये सस्ते राशन और सस्ते मकान तक सरकार कई योजनाएं ला चुकी हैं। इन योजनाओं का देश की अर्थव्यवस्था पर उपदानों और अनुदानों के माध्यम से कितना बड़ा असर पड़ा है यह अलग से एक विस्तृत चर्चा का विषय है और इस पर चर्चा चल भी पड़ी है। लेकिन क्या शिक्षा को भी उसी स्तर का बाज़ार बनने दिया जा सकता है। क्योंकि रोटी, कपड़ा और मकान में तो स्तर भेद हो सकता है। एक आदमी एक कमरे के मकान में भी गुजारा कर सकता है। साधारण खाना खा सकता है, दूसरे को बड़ा बंगला और फाईव स्टार का खाना चाहिये। लेकिन शिक्षा में ऐसा नही है। सारी शिक्षा का परीक्षा नियन्त्रण अलग-अलग बोर्डों के पास है। इन बोर्डों का पाठ्यक्रम और परीक्षा पेपर सबके लिये एक जैसा ही रहता है। अभी तक किसी भी नीजि स्कूल को अपने में एक अलग बोर्ड के रूप में मान्यता नही है। सरकारी स्कूल और निजी स्कूल के छात्र के लिये अलग-अलग परीक्षा पेपर नही होते हैं। ऐसे में इन स्कूलों की फीस का ढंाचा एक सा क्यों नही रखा जा सकता। क्योंकि अन्तिम कसौटी तो परीक्षा का परिणाम ही है। उसमे यह कोई मायने नही रखता की किसकीे पढ़ाई सरकारी स्कूल से और किसकी नीजि स्कूल से हुई है। आज के निजी स्कूल तो समाज में केवल वर्ग भेद पैदा करने के माध्यम होकर रह गये हैं। इन स्कूलों ने शिक्षा को एक बड़ा बाज़ार बनाकर रख दिया है। क्योंकि हरेक के बच्चे को अच्छी शिक्षा चाहिये और अच्छी शिक्षा की कसौटीे परीक्षा परिणाम की जगह यह हो गया है कि किसने कितने मंहगे स्कूल में शिक्षा ली है। यदि इस स्थिति को समय रहते न नियन्त्रित किया गया तो इसके परिणाम भयानक होंगे।

मूर्तियां तोड़ने से वैचारिक स्वीकार्यता नही बनेगी

शिमला/शैल। नॅार्थ ईस्ट के तीन राज्यों त्रिपुरा, मेघालय और नागालैण्ड की विधानसभाओं के लिये हुए चुनावों में भाजपा को पहली बार इतनी जीत मिली है कि तीनों राज्यों में वह सरकार में आ गयी है। त्रिपुरा में तो शुद्ध भाजपा की सरकार बनी है। यहां पर उसने सीपीएम से सत्ता छीनी है। नाॅर्थ ईस्ट में मिली इस जीत को भाजपा ने पूरे देश में इसे एक बड़ी उपलब्धि के रूप में प्रचारित भी किया है। भाजपा को यहां क्रमशः त्रिपुरा में 43% मेघालय में 9.6% और नागालैण्ड में 15.3% वोट मिले हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यहां भी भाजपा को कुल मतों के 50% से कम वोट मिले हैं। भाजपा को 2014 के लोकसभा चुनावों में भी 31% वोट मिले थे। 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद हुए कुछ राज्य विधान सभाओं के चुनावों में भी भाजपा को 50% से कम ही वोट मिले हैं। इन आंकड़ो से स्पष्ट हो जाता है कि अभी तक भी भाजपा की स्वीकारयता 50% से भी बहुत कम में है। इस परिदृश्य में भाजपा की जीत का श्रेय उसकी वैचारिक स्वीकारयता की जगह उसके चुनाव प्रबन्धन हो जाता है क्योंकि उसने सत्ता के लिये यहां उस दल से भी गठबन्धन कर लिया है जिसने तिरंगे को सार्वजनिक रूप से जलाया था। भाजपा को सत्ता के लिये ऐसे गठबन्धन में जाना चाहिये था या नही यह एक अलग बहस का विषय हो सकता है। त्रिपुरा की वामपंथी सरकार को लेकर मराठी में लिखी गयी एक किताब के हिन्दी अंग्रेजी अनुवाद इस चुनाव में घर -घर पहुंचे हैं। इस किताब का चुनावों पर बहुत असर हुआ है जबकि किताब की प्रमाणिकता पर भी सवाल उठे हैं। यह सब ऐसे विषय हैं जिनको लेकर मतभेद हो सकते हैं लेकिन चुनावों का अन्तिम परिणाम भाजपा की सफलता है और इस सफलता में यह सारे सवाल गौण हो जाते है।
लेकिन भाजपा के सत्ता में आने के बाद त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति तोड़ दी गयी। इस मूर्ति के टूटने के बाद बंगाल में श्यामा प्रसाद मुखर्जी, मेरठ में बाबा साहिब अम्बेडकर, तमिलनाडू में पेरियार और केरल में महात्मा  गांधी  की मूर्ति के साथ तोड़ फोड़ की गयी है। उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू, प्रधानमन्त्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमितशाह ने मूर्तियां तोड़े जाने की घोर निंदा की है लेकिन राम माधव जैसे कुछ नेताओं ने इस तोड़ फौड़ को अप्रत्यक्षतः जस्टिफाई करने का भी प्रयास किया है। इन मूर्तियों के तोड़े जाने पर यह स्वभाविक है कि लोगों में इसको लेकर कुछ रोष तो अवश्य ही देखने को मिलेगा। दलित समाज आक्रोश में सडकों पर भी उत्तर आया है। मूर्तियों के टूटने का यह सिलसिला त्रिपुरा में भाजपा की सरकार आने के बाद शुरू हुआ है और संयोग से यह उन राज्यों में पहुंच गया है जहां आगे विधानसभा चुनाव होने हैं। बंगाल, तमिलनाडू और केरल में चुनाव होने हैं। उत्तर प्रदेश में उप चुनाव हो रहे हैं। जिनमें बसपा ने सपा को समर्थन देने की घोषणा की है। बंगाल में भाजपा ने खुला दावा किया है कि वह वहां सरकार बनायेगी। देश को कांग्रेस मुक्त करने का तो संकल्प लेकर भाजपा चल रही है। देश वैचारिक धरातल पर कांग्रेस को नकार कर भाजपा को अपना ले तो इसमें किसी को भी कोई एतराज नही होगा। लेकिन सत्ता के लिये रणनीतिक तौर पर मन्दिर - मस्ज़िद के झगड़े खडे़ किये जाये और इस आधार पर मतदाताओं का धु्रवीकरण किया जाये तो इससे देश का कोई भला नहीं हो सकता है। आज देश का हर राज्य आवश्यकता से अधिक कर्ज में डूबा हुआ है। हर राज्य अपनेे लिये विशेष राज्य का दर्जा मांग रहा है। आंध्रप्रेदश में टीडीपी के मन्त्री इसी मांग पर केन्द्रिय मन्त्रीपरिषद् से बाहर आ गये हैं और आन्ध्र में भाजपा के। आन्ध्र के बाद बिहार में नीतिश कुमार ने भी विशेष राज्य की मांग दोहरा दी है। बढ़ते कर्ज के कारण सभी राज्य वित्तिय बोझ के तले दबे हैं। लेकिन कोई यह समीक्षा करने को तैयार नही है कि राज्यों का कर्जभार इतना बढ़ कैसे गया। क्या इसके लिये सत्तारूढ़ दलों के अपने अपने राजनीतिक स्वार्थ जिम्मेदार नही रहे है। लेकिन निष्पक्षता से कोई भी इसे स्वीकारने और समझने को तैयार नही है।
आज बैंको का एनपीए कितना बढ़ गया है। कितने लोग बैंको का कर्जा वापिस नही कर रहे हैं। नीरव मोदी, विजय माल्या और ललित मोदी जैसे लोग देश से बाहर कैसे चले गये। कालेधन को लेकर किये गये दावों और वायदों का क्या हुआ है। यह सवाल अब जन चर्चा का विषय बन चुके हैं। देर- सवेर इन पर जवाब देना ही पड़ेगा। ईवीएम की विश्वसनीयता भी सन्देह के घेरे में है। राजनीतिक देलों का बहुमत ईवीएम की जगह फिर पुराने ‘‘पेपर मतदान’’ की मांग पर उत्तर आया है। मोदी सरकार ने ‘‘एक देश एक चुनाव’’ की बात महामहिम राष्ट्रपति के इस वर्ष के संसद में दिये गये अभिभाषण में उठाई थी। लेकिन उसपर आगे नहीं बढ़ पा रही है। बल्कि हरियाणा के मुख्यमन्त्री ने तो इसे एकदम अंसभव करार दे दिया है। नोटबन्दी और जीएसटी के लाभ देश के सामने नकारात्मकता में सामने आ रहे हैं। इन फैसलों के परिणामस्वरूप रोजगार बढ़ने की बजाये कम हो रहे है। मंहगाई में कोई कमी नही आयी है। इस परिदृश्य में आज मन्दिर -मस्ज़िद के झगड़े से भी कोई हल निकलने वाला नही है। क्योंकि यदि सारे मस्ज़िदों और चर्चाे को तोड़ कर मन्दिर ही बना दिये जाये तो भी भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और मंहगाई पर कोई फर्क पड़ने वाला नही है यह अब आम आदमी को समझ आने लग पड़ा है। आज रोटी, कपड़ा ,मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य के मूलभूत प्रश्नों को राम मन्दिर निर्माण आदि के नाम पर ज्यादा देर के लिये टालना संभव नही होगा। आज जो नार्थईस्ट की जीत का देशभर में प्रचार करने के साथ ही जो मूर्तियां तोड़ने का एक नया मुद्दा खड़ा होने लगा है जनता इसके राजनीतिक मायने शीघ्र ही समझ जायेगी। क्योंकि प्रधानमन्त्री ने जिस भाषा में इसकी निन्दा की है उसी भाषा में वह गोरक्षा और लव जिहाद को लेकर उभरी हिंसा की भी निन्दा कर चुके हैं तब भी कुछ लोगों ने उसे जस्टिफाई किया था जैसे अब कर रहे हैं। यह सब एक राजनीतिक रणनीति के तहत होता है। देश के बहुमत को इसे समझने में देर नहीं लगेगी। इसलिये इस रणनीति के स्थान पर भाजपा को अपनी वैचारिक स्वीकारयता बनानी होगी।

मोदी की विश्वसनीयता सवालो में

शिमला/शैल। पंजाब नैशनल बैंक का स्कैम सामने आने के बाद प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और उनकी पूरी सरकार बैंक फुट पर आ गयी है। जो भाजपा देश को कांग्रेस मुक्त करने का ऐजैण्डा लेकर चली थी वह आज भाजपा शासित राज्यों राजस्थान और मध्यप्रदेश में लोकसभा व विधानसभा के उपचुनाव हार गयी है और वह भी कांग्रेस के हाथों। इस बैंक स्कैम के सामने आने के बाद जिस तरह से कुछ भाजपा नेताओं ने इस पर अपनी प्रतिक्रियाएं देते हुए इसके लिये पूर्व की कांग्रेस सरकार को दोषी ठहराया उससे ही पूरी मोदी सरकार स्वतः ही सन्देह के घेरे में आ जाती है। क्योंकि इस स्कैम की जांच उस समय शुरू हुई जब इसका मुख्य आरोपी देश छोड़कर भाग गया। यही नहीं जब नीरव मोदी और नरेन्द्र मोदी की निकटता की चर्चा उठी तब इस स्कैम की जांच एसआईटी से करवाई जाने के लिये एक जनहित याचिका दायर हुई तब सरकार केे अर्टानी जनरल के.के. बेनुगोपाल ने एसआईटी गठित जाने को यह कहकर स्वीकार कर दिया कि इसकी जांच ठीक हो रही है।
इस समय जो जांच हो रही है वह सीबीआई कर रही है और वह इस पक्षपर जांच नही करेगी कि नीरव मोदी और नरेन्द्र मोदी में कोई निकटता रही है तथा उसका लाभ नीरव मोदी ने उठाया है। जबकि आरोप यह लगेे है कि प्रधानमन्त्री जब बर्लिन के दौर पर थे उस समय नीरव मोदी की ब्रांड एम्बेसेडर  प्रियंका चोपड़ा प्रधानमन्त्री से मिली थी और इस मिलने की व्यवस्था नीरव मोदी ने की थी। राफेलडील कोे लेकर जो आक्रामकता राहूल गांधी ने दिखाई है वह बेबुनियाद नही है। चर्चा है कि इस सौदेे में भी नीरव मोदी की भूमिका है। प्रधानमन्त्री को जो पांच लाख का कोट भेंट किया गया था वह भी नीरव मोदी के ही किसी ने दिया था और बाद में उसकी नीलामी में भी उसी की भूमिका रही है। यह आरोप भी उछला है कि इस बैंक स्कैम की जानकारी पीएमओ को 2015 में ही हो गयी थी 2016 में तो नीरव मोदी और मेहुल चैकसी के बारे में बैंगलूरू के एक उद्यमी हरि प्रसाद ने प्रधानमन्त्री कार्यालय को दे दी थी लेकिन जांच नही हुई इससे यही प्रमाणित होता है कि नीरव मोदी और प्रधानमन्त्री के बीच निकटता रही है। इन सारे सन्देहों की जांच तो केवल एसआईटी ही कर सकती थी लेकिन यह जांच न होने देकर इन आरोपों को और हवा मिलती है।
फिर अब जब सत्तापक्ष इस स्कैम की शुरूआत कांग्रेस के कार्यालय से कर रहा है तब वह यह भूल रहा हैं कि आरोपी कांग्रेस के समय में नही बल्कि मोदी-भाजपा के कार्यालय में भागा है। कांग्रेस के कार्यालय में तो वह बैंक को पैसे लौटाता रहा जो उसने मोदी की सरकार आने के बाद बन्द कर दिये। यह तो संभव हो सकता है कि जब वह कांग्रेस के कार्यालय से व्यवसाय कर रहा था तो इसके संबंध कांग्रेस के नेताओं से भी रहे होंगे क्योंकि हर व्यवसायी हर पार्टी से अपने रिश्तेे रखता है और उसे चंदा भी देता है। यह बिजनैस मैन का स्वभाव होता है लेकिन इससे उस पार्टी और नेता को जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता है। फिर देश में सत्ता परिवर्तन तो तभी हुआ जब कांग्रेस और सहयोगीयों को भ्रष्टाचार का पर्याय करार दे दिया गया था। लेकिन मोदी और भाजपा को इसीलिये सत्ता सौंपी गयी थी कि वह पूरी चैकसी रखेंगे परन्तु इसी चैकसी में ललित मोदी, विजय माल्या तथा नीरव मोदी देश छोड़कर भागे क्यों? 2जी स्कैम जिसे यूपीए सरकार का सबसे बड़ा घोटाला करार दिया गया था उसमें प्रारम्भिक गिरफ्तारियां तो मनमोहन सिंह के ही कार्यालय में हुई थी लेकिन उसकी पूरी जांच और अदालत में पैरवी तो मोदी शासन में हुई और सारे लोग बरी हो गये।
इस पृष्ठभूमि में यदि मोदी के कार्यालय का आंकलन किया जाये तोे सरकार किसी भी कसौटी पर खरी नही उतरती है क्योंकि जो 12 लाख करोड़ का कालाधन होना अन्ना आन्दोलन में प्रचारित किया गया था जिसके वापिस आने से 15-15 लाख हर खाता धारक को दिये जाने का वायदा किया गया था वह सब हवाई निकला। यही नही अब तो नोटबंटी को लेकर यह धारणा पक्कीे हो गयी है कि यह कदम हर आदमी की जमापूंजी को इस माध्यम से बैंको में वापिस लाने का सफल प्रयास था। इसी पैसे के दम पर एनपीए से संकट में आये बैंको को ‘बेल इन’ का प्रावधान लाकर उबारने का माध्यम बनाया जा रहा था। इसी एनपीए से उबारने के लिये पांच बैंको का 67000 करोड़ राईट आॅफ कर दिया गया और सरकार ने स्पष्टीकरण दिया यह माफ नही किया गया है। क्या राईटआॅफ करने के बाद यह कर्जदार इस पैसे को बैंको को वापिस दे देंगे? यह तो एक सामान्य सी समझ की बात है कि जब कोई कर्ज नीयत समय के भीतर वापिस न किया जाये वह 90 दिन केे बाद एनपीए हो जाता है और जब इसके वापिस आने की सारी संभावनाएं समाप्त हो जाती है तब इसे राईटआॅफ कर दिया जाता है। यह एनपीए आज 6लाख करोड़ से भी अधिक हो चुका है और यह धन बहुत कम लोगों के पास है लेकिन यह सब समाज के बड़े और प्रतिष्ठित लोग हैं। सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ही इनकी दांयी और बांई जेब में होतेे हैं। यदि निष्पक्षता और ईमानदारी से देखें तो सरकार का हर बड़ा फैसला परोक्ष/अपरोक्ष में इन्ही के लिये लिया जाता है। आज जो बड़ी कंपनीयां और उद्योगपति अपने को दिवालीया घोषित किये जाने के आवेदन कर रहे हैं वह लोग दिवालीया घोषित होने के बाद भुखमरी और आत्महत्या केे कगार पर आ जायेंगेे? नही। उनके पास पीढ़ीयों तक हर साधन उपलब्ध रहेंगे। दिवालीया घोषित होना तो अप्रत्यक्षत कुछ पैसे को अपरोक्ष में डकारने का माध्यम है क्योंकि उनके लियेे यह प्रावधान किया गया है। भुखमरी और आत्महत्या तो गरीब किसान के हिस्से में है। आज जब सरकार ने 95 करोड़ से ऊपर के हर कर्ज की जांच किये जाने की बात कही है तो क्या यह सुनिश्चित किया जायेगा कि पब्लिक का कोई पैसा एनपीए नही होने दिया जायेगा। ‘बेल-इन’ और ‘बेल आऊट’ जैसे प्रावधान नही लाये जायेंगे। क्योंकि जब परोक्ष-अपरोक्ष में पब्लिक मनी को डकराने के प्रावधान किये जाते हैं तो उसका लाभ उठाने वाले पहले ही तैयार खड़े मिलते हैं। इसलिये आज पीएनबी का स्कैम सामने आने के बाद वित्तिय मामलों में प्रधानमन्त्री मोदी को अपनी विश्वसनीयता बहाल रखने के लिये अपनी सरकार के फैसलों पर फिर से विचार करना होगा अन्यथा समय मोदी और भाजपा दोनों को ही क्षमा नही करेगा।

मोदी सरकार से सवाल जन लोकपाल कहां है?

शिमला/शैल। मोदी सरकार को सत्ता संभाले चार वर्ष हो गये हैं और अब अगले वर्ष मई तक चुनाव हो जाने हैं। इन चुनावों के लिये तैयारी भी शुरू हो गयी है। इसलिये चार वर्ष का समय किसी सरकार के कामकाज़ के आंकलन के लिये बहुत पर्याप्त समय कहा जा सकता है लेकिन मोदी सरकार के आकलन से पहले यह भी सामने रखना आवश्यक है कि जब मोदी ने बागडोर संभाली थी तब राजनीतिक और अािर्थक परिदृश्य क्या था। 2014 में जब चुनाव हुए और सत्ता बदली उससे पहले पूरा देश अन्ना आन्दोलन के प्रभाव में था और जन लोकपाल की स्थापना की मांग की जा रही थी क्योंकि इस आन्दोलन से पहले देश में घटे कुछ आर्थिक घोटालों को लेकर प्रशान्त भूषण की याचिकाओं ने एक ऐसा वातावरण खड़ा कर दिया था जिसमें उस समय के यूपीए शासन को एकदम भ्रष्टाचार का पर्याय करार दे दिया था। इस भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिये जनलोकपाल की स्थापना सिविल सोसायटी की सबसे बड़ी ही नहीं बल्कि एकमात्र मांग बन चुकी थी। उस समय 2जी स्कैम और काॅमन वैल्थ गेम्ज़ जैसे घोटाले हर बच्चेे -बच्चे की जुबान पर आ चुके थे। 2जी स्कैम को लेकर विनोद राय की रिपोर्ट और काॅमन वैल्थ गेम्ज़ पर भी आॅडिट की रिपोर्ट आ चुकी थी जिनसे इन घोटालों की पुष्टि हो रही थी। इसलिये उस समय अन्ना आन्दोलन को खत्म करने के लिये सिविल सोसायटी के लोेगों से सरकार की बातचीत जनलोकपाल विधेयक का मसौदा तक तैयार हुआ और संसद की दहलीज़ तक भी गया। अन्ना आन्दोलन को संचालित करने के लिये इंण्डिया अगेंस्ट क्रप्शन एक मंच तैयार हुआ जिसका पूरा नियन्त्रण संघ के हाथ में था। देश के सारे सामाजिक, और सांस्कृतिक संगठन इस आन्दोलन में कूद पड़े थे। श्री श्री रविशंकर के आर्ट आॅफ लिविंग के लोग भी कैण्डल मार्च करते देखे गये थे। इस आन्दोलन मे स्वामी रामदेव, स्वामी अग्निवेश और किरण बेदी जैसे लोगों की भूमिका क्या रही यह भी सारा देश जानता है। फिर इस आन्दोलन के प्रभाव का प्रतिफल लेने के लिये अलग अलग से एक राजनीतिक ईकाई खड़े करने के प्रश्न पर अन्ना और केजरीवाल में कैसे मतभेद पैदा हुए जिनके कारण आन्दोलन बन्द हुआ। अन्ना ने ममता बैनर्जी के साथ मिलकर कैसे पुनः आन्दोलन का आह्वान करने के लिये रामलीला मैदान मे जन बैठक करने की घोषणा की जो की सफल नही हो सकी और अन्ना को वापिस अपने घर आना पड़ा यह सब देश ने देखा है।
इस आन्दोलन की छाया मे लोकसभा के चुनाव हुए और जो संघ आन्दोलन का संचालन कर रहा था उसकी राजनीतिक ईकाई भाजपा को केन्द्र की सत्ता मिल गयी। इसी के साथ जो केजरीवाल इस आन्दोलन के एक प्रमुख पात्र बनकर उभरे थे उन्हे दिल्ली प्रदेश की सत्ता मिल गयी। जिस तरह का प्रचण्ड बहुमत भाजपा को केन्द्र के लिये, वैसा ही प्रचण्ड बहुमत केजरीवाल को दिल्ली के लिये मिल गया। मोदी और केजरीवाल दोनो ही अन्ना आन्दोलन के प्रतिफल हैं यह कहना अंसगत नही होगा। लेकिन क्या यह दोनों ही इस आन्दोलन का आधार बने मुद्दों की कसौटी पर आज खरे उत्तरे हैं तो निश्चित रूप से उत्तर एक बड़ी ‘‘नहीं’’ के रूप में होगा। क्योंकि इस जनान्दोलन में जिस जनलोकपाल की मांग की गयी थी वह आज कहीं दूर से भी दिखाई नही दे रहा है। इससे यह समझा जा सकता है कि वास्तव में ही संघ -भाजपा और मोदी व्यवहारिक तौर पर भ्रष्टाचार के कितने खिलाफ हैं। अभी 2जी स्कैम पर जिस तरह से अदालत का फैंसला आया है उससे भी मोदी की नीयत और नीति पर ‘मुहर’ लग जाती है। उस समय भ्रष्टाचार के साथ ही मंहगाई और बेरोजगारी दो और मुद्दे इस आन्दोलन के प्रमुख प्रश्न थे जो हर आदमी को सीधे छू रहे थे। इसलिये आज जब आंकलन किया जायेगा तो क्या उसके मानदण्ड यही मुद्दे नही बनेंगे। आज कोई भी ईमानदार व्यक्ति यह नही कह पायेगा कि भ्रष्टाचार, मंहगाई और बेरोज़गारी में कोई कमी आयी है।
भ्रष्टाचार के जिन मुद्दों को उस दौरान प्रशान्त भूषण ने जन चर्चा में लाकर खड़ा कर दिया था और जिसके लिये संघ ने इण्डिया अगेंस्ट क्रप्शन का मंच खड़ा कर दिया था आज उन मुद्दों का हुआ क्या है। 2जी स्कैम को अदालत ने कह दिया कि स्कैम हुआ ही नही। जिसमें मन्त्री, सांसद वरिष्ठ नौकरशाह और काॅरपोरेट घरानों के भी शीर्ष अधिकारी तक गिरफ्तार हुए थे। जिस पर पूरे देश का भविष्य बदल गया। आज जब उसपर यह सुनने को मिले कि यह तो घटा ही नही था तो उसके लिये किसे तमगा दिया जाये? इस मुद्देे पर आदरणीय प्रधानमन्त्री मौन हैं क्योंकि लोगों ने अदालत का फैंसला देखा है। वह समझते हैं कि इसमें केन्द्र सरकार की भूमिका क्या रही है। यह स्पष्ट हो चुका है कि मोदी सरकार और उनकी ऐजैन्सीयों ने जानबूझ कर इसकी सही पैरवी ही नही की। आज यह आम चर्चा है कि 2जी स्कैम पर आये फैसले के बाद मोदी तमिलनाडू में एडी एम के साथ चुनाव गठबन्ध करने जा रहे हैं क्योंकि जोे जितना भ्रष्ट होगा उसे उतनी ही आसानी से अपने साथ मिलाया जा सकता है। काॅमनवैल्थ गेम्ज़ के मामलें को लेकर तो आज तक कहीं चर्चा तक नही है। आज जो पंजाब नैशनल बैंक का घपला सामने आया है उस पर भाजपा के लोग जिस प्रकार की सफाई देकर उसे यूपीए के साथ जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं वह भूल रहे हैं कि 2014 से तो आप सत्ता में है और इसी भ्रष्टाचार को पकड़ने के लिये तो आपको सत्ता सौंपी गयी थी। फिर आपने क्या किया खैर इस मामले पर वित्त मन्त्री अरूण जेटली ने पूर्व की कांग्रेस सरकार को नही कोसा है क्योंकि आज भाजपा के ही बड़े नेता को वित्त मन्त्री यशवन्त सिन्हा और सांसद शान्ता कुमार जैसे लोग अपनी ही सरकार को कठघरे में खड़ा कर चुके हैं। लेकिन जेटली ने जिस ढंग से इस घपले के लियेे बैंक के आॅडिटर्ज़ को भी जिम्मेदार ठहराया है उससे फिर यह सवाल उठता है कि यह बैंक सरकार का बैंक और आॅडिटर्ज़ सरकार के कर्मचारी हैं। उनपर तुरन्त कारवाई करना आपकी जिम्मेदारी है। आज बैकांे के विलफुल डिफाल्टरज़ को लेकर 335 पन्नों की सूची बाहर आ चुकी है। जिसके मुताबिक यह राशी 4903180.79 लाख रूपये बनती है। यह लोगों का पैसा है बैकों की कार्यप्रणाली पर इससेे बड़ा प्रश्न चिन्ह और क्या हो सकता है? इस सद्धर्भ में अब यह सवाल पूछा जाने लगा है कि मोदी जी जनलोकपाल कहां है?

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