लोकसभा चुनावों के चार चरण पूरे हो गये हैं और इनमें 373 सीटों पर मतदान हो चुका है। 272 सीटों पर मतदान होना शेष है। 373 सीटों पर हुए मतदान में किस पार्टी को क्या मिला होगा इसका पता तो परिणाम आने पर ही लगेगा। लेकिन अब तक हुए मतदान से जो महत्वपूर्ण बिन्दु उभर कर सामने आये हैं उसमें एक है कि देश की व्यापारिक राजधानी मुबंई में 50% से कम मतदान हुआ है। दूसरा बिन्दु है कि इस मतदान के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बंगाल में ममता बैनर्जी को सीधे धमकी दी है कि उनकी पार्टी के चालीस विधायक उनके संपर्क में हैं और अब उनकी खैर नही है। ममता को धमकी देने के बाद दिल्ली से भी खबर आ गयी कि वहां भी केजरीवाल की सरकार तोड़़ने के लिये भारी निवेश किया जा रहा है। वहां शायद एक विधायक भाजपा में चला भी गया है। इन धमकीयों के बाद वाराणसी में सपा के उम्मीदवार तेज बहादुर यादव का नांमाकन रद्द किये जाने का मामला भी सामने आ गया है। तेज बहादुर यादव का नामांकन रद्द होना कानून के जानकारों के मुताबिक एकदम कानून विरोधी है। इस नामांकन को रद्द करने के लिये जिस तरह से सारा कुछ घटा है उससे चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर एक गहरा आघात लगा है। यह नामांकन रद्द होने पर जिस तरह का रोष सामने आया है उसका वीडियो कुछ घन्टो में ही 25 लाख लोगों ने शेयर कर डाला है। हर आदमी ने इस पर अपनी नाराज़गी जाहिर की है।
चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर कई गंभीर सवाल उठने के बाद जब सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस पर नाराज़गी जताई तब जाकर आयोग ने आचार संहिता के खुले उल्लंघन के मामलों का संज्ञान लेना शुरू किया और कुछ नेताओं के चुनाव प्रचार पर कुछ कुछ समय के लिये प्रतिबन्ध भी लगाया। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमितशाह के मामलों में आयी शिकायतों पर जब आयोग ने कुछ नहीं किया तब सर्वोच्च न्यायालय को इस पर भी निर्देश देने पड़े कि आयोग छः मई तक इस पर फैसला ले। इस पर आयोग कितनी कारवाई करता है और कितनी क्लीन चिट देता है और इस सब पर शीर्ष अदालत कैसे क्या संज्ञान लेती है इसका पता आगे चलेगा। ईवीएम वोटिंग मशीनों की मतदान के दौरान खराबी की कई शिकायतें आ गयी हैं। इन शिकायतों के बाद इक्कीस राजनीतिक दलों ने सर्वोच्च न्यायालय से फिर गुहार लगायी है कि वीवीपैट के मिलान की संख्या बढ़ाई जाये। इस पर आयोग को नोटिस भी हो गया है। वीवीपैट की शिकायत की प्रक्रिया पर एतराज उठाते हुए एक और याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दायर हो चुकी है। इस पर भी आयोग से जवाब मांगा गया है।
इस तरह यह जितनी भी घटनायें घटी हैं यह सब अपने स्वस्थ लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े करती है। प्रधानमन्त्री मोदी देश का सबसे बड़ा सम्मानित पद है जिस पर लोकतन्त्र की रक्षा की सबसे पहली जिम्मेदारी आती है। इस समय चुनाव चल रहे हैं। इसका परिणाम देश का भविष्य तय करेगा। इसके लिये देश की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं पर खुले मंच से निष्पक्ष सार्वजनिक बहस होनी चाहिये थी लेकिन देश के बुनियादी सवालों पर यह बहस कहीं दूर दूर तक देखने को नही मिल रही है। पूरा चुनाव प्रचार सोशल मीडिया और टीवी चैनलों तक ही सीमित हो कर रह गया है। यह आरोप लग रहे हैं कि न्यूज चैनलों के एंकरो ने पार्टीयों के स्टार प्रचारकों की जगह ले ली है। प्रधानमन्त्री स्वयं जब चुनाव प्रचार के दौरान एक राज्य की चयनित सरकार को तोड़ने की अपरोक्ष में धमकी देंगे तो क्या उसे लोकतन्त्र के प्रति उनकी आस्था माना जायेगा या हताशा। बीएसएफ का एक बर्खास्त जवान जब देश के प्रधानमन्त्री के खिलाफ चुनाव लड़ने की हिम्मत दिखाये तो क्या इसे देश में सही और स्वस्थ लोकतन्त्र होने की संज्ञा नही दी जा सकती थी? इस जवान के युवा लड़के की हत्या हुई है और उसके हत्यारे अभी तक पकड़े नही गये हैं क्या इसके लिये मोदी और उनके मुख्यमन्त्री योगी को उन हत्यारों को शीघ्र पकड़ने के निर्देश नहीं देने चाहिये थे? तेज बहादूर यादव ने खराब खाना जवानों को खिलाने की शिकायत की थी और जब उसकी शिकायत पर कोई कारवाई नही हुई तब उसने उस खाने का वीडियो जारी कर दिया। क्या खराब खाने की शिकायत करना कोई अपराध है बल्कि इस शिकायत के लिये उसके साहस की प्रशंसा की जानी चाहिये थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ उसे सज़ा देकर निकाल दिया गया। इस बर्खास्तगी के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में उसकी याचिका लंबित है। जब तेज बहादूर यादव ने चुनाव लड़ने का ऐलान किया और नामांकन दायर कर दिया तब यदि प्रधानमन्त्री ने उसके साहस की सराहना की होती और पीड़ा संझी की होती तो उससे प्रधानमन्त्री का ही कद बढ़ता। वह महामानव हो जाते लेकिन यहां तो यह नामांकन रद्द करवाने का आरोप अपरोक्ष में उन पर ही आ गया है। इसमें प्रधानमन्त्री का सीधा दखल था या नहीं यह नहीं कहा जा सकता लेकिन यह तो स्वभाविक है कि उनके चुनाव क्षेत्र में और कौन-कौन उनके खिलाफ चुनाव में है इसकी जानकारी उन्हें होगी ही। फिर जब इतना बड़ा यह मुद्दा बन गया तब भी प्रधानमंत्री की इस पर कोई प्रतिक्रिया न आना अपने में कई सवाल खड़े कर जाता है। यही स्थिति प्रज्ञा ठाकुर के चुनाव लड़ने और हार्दिक पटेल को यह अनुमति न मिलने पर है। आज राहुल गांधी की दोहरी नागरिकता का मुद्दा जिसे सर्वोच्च न्यायालय 2015 में समाप्त कर चुका है उसे गृह मन्त्रालय के माध्यम से फिर उठाये जाने से प्रधानमंत्री और उनकी सरकार की कार्यशैली पर ही सवाल खड़े कर रहा है। आज इन सारे मुद्दों को जिस तरह से उछाला गया है उससे भविष्य में लोकतन्त्र की स्थिति क्या होगी उसको लेकर सवाल उठने स्वभाविक है। क्योंकि दुनिया का कोई भी धर्म, हिंसा और अपराध का पाठ नही पढ़ाता है। अपराध और हिंसा कोई भी धर्म और जाति से नही जुड़ते है बल्कि यह व्यक्ति का अपना स्वभाव और उसकी परिस्थिति पर निर्भर करता है। जन्म से सभी एक समान ही होते है। ऐसे में हिंसा को धर्म से जोड़ने का प्रयास अपरोक्ष में लोकतन्त्र को कमजोर करने का प्रयास है।
‘‘इस समय न्यायापालिका भी संकट में है। उसे रिमोट कन्ट्रोल से नियन्त्रित करने का प्रयास किया जा रहा है।’’ यह प्रतिक्रिया रही है देश के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों की जब प्रधान न्यायधीश रंजन गगोई के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोप लगे। यह आरोप लगना एक बहुत बड़ी बात है क्योंकि गगोई सर्वोच्च न्यायालय के उन चार न्यायधीशों में शामिल थे जिन्होने एक पत्रकार वार्ता करकेे शीर्ष अदालत की विश्वसनीयता पर लगते प्रश्नचिन्हों पर चिन्ता व्यक्त की थी और देश की जनता का ध्यान इस ओर आकर्षित किया था। इन न्यायधीशों की चिन्ता का आधार था पिछले कुछ अरसे में शीर्ष अदालत के सामने आये कुछ महत्पूर्ण मामलों को लेकर जो आचरण सुप्रीम कोर्ट का रहा है। इन मामलों को पूरा देश जानता है इसलिये मैं यहां पर उनके विवरण में नही जाना चाहता । यहां चिन्ता ओर चिन्तन का विषय यह है कि जो न्यायधीश देश के सामने सर्वोच्च न्यायालय की साख को लेकर चिन्ता व्यक्त कर चुका हो उसके अपने ही खिलाफ ऐसे आरोप लग जायें तो इससे विश्वास को एक गहरा आघात लगना स्वभाविक है। किसी संस्था की प्रतिष्ठा उसके भव्य भवन निर्माण से नही वरन उसको संचालित कर रहे लोगों के अपने आचरण से बनती और बिगड़ती है। फिर जब ऐसी संस्था सर्वोच्च न्यायालय हो तो वस्तुस्थिति की गंभीरता और भी बढ़ जाती है। क्योंकि आम आदमी के भरोसे के शीर्ष संबल ईश्वर और न्यायपालिका ही होती है। इसलिये तो जहां राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता है वहीं न्यायधीश को स्वयं ईश्वर की संज्ञा दी गयी है संभवतः इसी कारण से अदालत में न्यायधीश को ‘‘ माई लार्ड’’ कहकर संबोधित किया जाता है। क्योंकि न्यायधीश के पास ही मृत्यु दण्ड का अधिकार है।
इस परिपेक्ष में यह आवश्यक हो जाता है कि ऐसे न्यायधीशों पर लगने वाले आरोपों की जांच के लिये प्रक्रिया आम आदमी से कुछ भिन्न हो यह सही है कि हर आदमी कानून के सामने एक समान है और यौन शोषण के आरोपों की जांच के लिये जो व्यवस्था समय-समय पर स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने कर रखी है उसके अनुसार तो प्रधान न्यायधीश को अपने पद से पहले हट जाना चाहिये। फिर इन आरोपों पर जो जो प्रतिक्रियाएं विभिन्न वर्गों से आयी हैं उसका मंतव्य भी अधिकांश में इसी तरह का रहा है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित की गयी ‘‘इन हाॅऊस जांच कमेटी’’ की प्रक्रिया पर जिस तरह से सवाल उठाये गये हैं उसका आश्य इसी तरह का है। यौन शोषण के आरोप लगाने वाली महिला की दिसम्बर में हुई नौकरी से बर्खास्तगी को उसके दोष के अनुपात से अधिक बताया जा रहा है और अपरोक्ष में इस बर्खास्तगी को इन आरोपों का ही प्रतिफल करार दिया जा रहा है। इन आरोपों और इस बर्खास्तगी पर 250 महिला वकीलों/बुद्धिजीवियों ने एक पत्र लिखकर जिस तर्ज पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है उसका आश्य भी लगभग ऐसा ही है। लेकिन इस सबमें एक बड़ा सवाल जो अनुतरित रह जाता है वह है कि यदि आज प्रधान न्यायधीश अपने पद से अलग हो जाते हैं वह न्यायिक दायितत्व छोड़ देते हैं और फिर यदि जांच में उनके खिलाफ लगाये गये आरोप निराधार साबित हो जाते हैं तो क्या उनका आज पद से अलग होना उन ताकतों की जीत नही होगी जो उन्हे पद से हटाना चाहते हैं।
इस परिदृश्य में यह आवश्यक हो जाता है कि यह आरोप कब लगे और इन्हें न्यायपालिका पर हमला क्यों कहा जा रहा है इस पूरे प्रकरण से जुडे कुछ आवश्यक तथ्य पाठकों के सामने रखे जायें। इसमें सबसे प्रमुख है आरोप लगाने वाली महिला। यह महिला मई 2014 से सर्वोच्च न्यायालय में सेवारत है। 27 अगस्त 2018 को इसका स्थानान्तरण प्रधान न्यायधीश के आवास स्थित कार्यालय में हुआ। इसके बाद 22 अक्तूबर 2018 को इसका स्थानान्तर सर्वोच्च न्यायालय के रिर्सच और प्लानिंग प्रभाग में हो गया और 22 नवम्बर को पुस्तकालय प्रभाग में स्थानान्तरण हो गया। प्लानिंग प्रभाग में इसके खिलाफ अनुशासनहीनता के आरोप लगे। इन आरोपों की जांच में दोषी पाये जाने पर 21 दिसम्बर 2018 को इसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया। जब अनुशासनहीनता के आरोप लगे और जांच के बाद बर्खास्तगी की सज़ा दी गयी उस दौरान यौन उत्पीड़न के यह कोई आरोप नही लगाये गये। इसी दौरान सर्वोच्च न्यायालय में अनिल अंबानी और ऐरीसन के बीच 550 करोड़ की अदायगी को लेकर अदालत की अवमानना का मामला चल रहा था। इस मामले की सुनवाई कर रही जस्टिस आर एफ नरीमन और जस्टिस विनित सरन की पीठ ने अंबानी को अदालत में पेश होने के आदेश किये थे। यह यह आदेश सर्वोच्च न्यायालय की वैबसाईट पर 7-1-2019 को अपलोड़ हुए। लेकिन अपलोड़ करते हुए आदेश वाक्य "Personal appearance of the alleged contemnor(s) is not dispensed with," में से not शब्द छूट गया। यह शब्द छूटने से आदेश का अर्थ ही बदल गया। दस जनवरी को ऐरीसन के प्रतिनिधि इसे अदालत के संज्ञान मे लाये। अदालत ने इसका कड़ा संज्ञान लिया इस कोताई की जांच हुई और इसके लिये सुप्रीम कोर्ट के दो अधिकारियों मानव शर्मा और तपन चक्रवर्ती को नौकरी से बर्खास्त कर दिया। इस मामले में अनिल अंबानी को 12 और 13 फरवरी को अदालत में मौजूद रहना पड़ा और अन्तः ऐरीसन को पैसे देने पड़े।
यह सब होने के बाद अब 19-4-2019 को इस महिला सर्वोच्च न्यायालय के सभी 22 जजों को 20 पन्नों का पत्र लिखकर प्रधान न्यायधीश के खिलाफ यह आरोप लगाये हैं। यह आरोप सामने आने पर प्रधान न्यायधीश ने इसका संज्ञान लेते हुए इसकी सुनवाई के लिये तीन जजों की पीठ का गठन कर दिया। पीठ ने इसकी इन हाॅऊस जांच के साथ ही सेवा निवृत जस्टिस ए के पटनायक को अलग से जांच की जिम्मेदारी सौंपी है। सीबाआई, आईबी और दिल्ली पुलिस कमीशनर को इस जांच में सहयोग करने के निर्देश दिये हैं। जब यह आरोप सामने आये तब उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय के ही एक वकील उत्सव वैंस ने एक शपथपत्र दायर करके यह खुलासा किया है कि कुछ लोग उसके पास आये थे और वह इस तरह का एक मामला तैयार करने में उसका सहयोग चाहते थे। इसके लिये वह 1.5 करोड़ उसे देने को तैयार थे। वैंस ने अपने शपथपत्र में अन्य के साथ मानव शर्मा और तपन चक्रवर्ती के नामो का उल्लेख किया है। उत्सव बैंस के शपथपत्र में यह आरोप है कि सर्वोच्च न्यायालय में बैंच फिक्सिंग के धन्धे में लगे हुए हैं। उत्सव का यह आरोप और भी गंभीर है। राफेल प्रकरण भी जनता के सामने है। सर्वोच्च न्यायाल इसमे अपने ही पूर्व फैसले पर पुनः विचार के लिये बाध्य हो गया है।
इस तरह जो कुछ घटा है उसमें यह बहुत महत्वपूर्ण है कि जिस महिला के साथ उसके पत्र के मुताबिक उत्पीड़न की घटना दस अक्तूबर को घट जाती है इस घटना के बाद अनुशासनहीनता के लिये उसके खिलाफ कारवाई हो जाती है लेकिन उस दौरान यह आरोप नही लगते हैं। अब अंबानी और राफेल जैसे प्रकरण घट जाने के बाद इन आरोपों का लगना एक महज संयोग है या इसके पीछे कुछ और है। यह देश के सामने आना बहुत जरूरी है और जिस तरह से सर्वोच्च न्यायालय ने जांच के कदम उठाये हैं और प्रतिबद्धता दिखाई है उसको सामने रखते हुए यह बहुत संभव है कि महिला पर कोई दबाव रहा हो और यह आरोप सही में न्यायपालिका पर हमले की ही साजिश हो।
लोकसभा चुनाव के दो चरण पूरे हो चुके हैं। इनमें 186 सीटों पर वोट डाले जा चुके हैं लेकिन यह चुनाव किन मुद्दों पर लड़ा जा रहा है और अब तक जो मतदान हुआ है उसमें कौन से मुद्दे प्रभावी रहे हैं इस पर वह लोग भी स्पष्ट नही है जो वोट डाल चुके हैं। शायद ऐसा पहली बार हो रहा है कि राष्ट्रीय मुद्दों पर कोई खुलकर बहस सामने नहीं आ रही है। इसीलिये इस चुनाव के परिणाम घातक होने की संभावना बढ़ती जा रही है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि यह चुनाव साईलैन्ट मोड़ में क्यों चल रहा है। क्या सही में देश के सामने आज कोई मुद्दा ही नही बचा है? क्या सारी समस्याएं हल हो चुकी हैं। देश की समस्याओं/मुद्दों का आकलन करने के लिये यह समझना आवश्यक है कि 2014 में जब यह चुनाव हुए थे तक किन सवालों पर यह चुनाव लड़ा गया था। उस समय केन्द्र में कांग्रेस के नेतृत्व में एनडीए की सरकार थी। उस सरकार के खिलाफ स्वामी रामदेव और अन्ना हजारे जैसे समाज सेवीयों ने मंहगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और कालेधन के मुद्दे उठाये थे। इन्ही मुद्दों को लेकर लोकपाल की मांग एक बड़े आन्दोलन के रूप में सामने आयी थी। प्रशान्त भूषण जैसे बड़े वकील ने कोल ब्लाॅक आवंटन टू जी स्पैक्ट्रम और कामन वैल्थ गेम्ज़ में हुए भ्रष्टाचार को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था और शीर्ष अदालत ने भी इनका संज्ञान लेते हुए इनमें जांच के आदेश दिये थे। जांच के दौरान कई राजनेताओं, नौकरशाहों और कारपोरेट घरानो के लोगों की गिरफ्तारीयां तक हुई थी। 2014 का चुनाव इन मुद्दों की पृष्ठभूमि में हुआ और सरकार बदल गयी क्योंकि भाजपा ने उस समय इन सभी मुद्दों पर प्रमाणिक और प्रभावी तथा समयबद्ध कारवाई का वायदा करके देश में अच्छे दिन लाने का भरोसा दिलाया था।
उस समय यूपीए सरकार का मंहगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार को लेकर जो विरोध हुआ था उसे तब किसी ने भी राष्ट्रद्रोह की संज्ञा नही दी थी। तब किसी एक व्यक्ति/नेता की स्वीकार्यता के लिये वातावरण तैयार नही किया गया था। सरकार के विरोध को रोकने के लिये कोई कदम नही उठाये गये थे। परिणामस्वरूप सारा सत्ता परिवर्तन एक स्वभाविक प्रक्रिया के रूप में घट गया था। इसलिये आज जब फिर चुनाव आ गये हैं तब स्वभाविक है कि 2014 में उठे सवालों की वस्तुस्थिति आज क्या है यह जानना आवश्यक हो जाता है। उस समय पेट्रोल, डीजल की कीमतों और डालर के मुकाबले रूपये की घटती कीमतों पर नरेन्द्र मोदी से लेकर नीचे तक के एनडीए नेताओं ने जिस तर्ज पर सवाल उठाये थे आज यदि उन्ही की भाषा में वही सवाल प्रधानमंत्री मोदी से लेकर पूरे एनडीए नेतृत्व से पूछे जायें तो शायद वह उन्हे सुन भी नही पायेंगे। भ्रष्टाचार के जो मुद्दे उस समय उठे थे वह आज सारे खत्म हो गये हैं एक में भी किसी को सज़ा नही मिली है। उल्टे भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम में ही संशोधन करके ऐसा कर दिया है कि कोई भ्रष्टाचार की शिकायत करने का साहस ही नही कर पायेगा। बेरोज़गारी के मुद्दे पर यह सामने ही है कि जो प्रतिवर्ष दो करोड़ नौकरीयों का वायदा किया गया था उसकी हकीकत सरकार की अपनी ही रिपोर्टों से सामने आ गयी है। सरकार की अपनी रिपोर्ट के मुताबिक (जो नेशनल सैंपल सर्वे के माध्यम से सामने आयी है) नोटबंदी के बाद पचास लाख लोगों की नौकरी चली गयी है और केन्द्र सरकार तथा उसके विभिन्न अदारों में आज 22 लाख पद खाली पड़े हैं दूसरी ओर आरबीआई से आरटीआई के तहत आयी सूचना के मुताबिक मोदी सरकार के कार्यकाल में 5,55,603 करोड़ के ऋण बड़े लोगों के माफ कर दिये गये हैं। यह ऋण इस देश के आम आदमी का पैसा था जिसे कुछ लोगों की भेंट चढ़ा दिया गया। स्वभाविक है कि जब इस तरह की स्थिति होगी तो कल को इसका सीधा प्रभाव मंहगाई और बेरोज़गारी पर पड़ेगा।
2014 में इन मुद्दों के कारण सरकार बदली थी लेकिन आज यह सरकार इन मुद्दों पर बात ही नही होने दे रही है। हर सवाल राष्ट्रवाद के नाम पर दबा दिया जा रहा है। जो सरकार यह दावा कर रही है कि उसके राज में कोई भ्रष्टाचार नही हुआ है वह अभी कपिल सिब्बल द्वारा नोटबंदी पर उठाये गये सवालों का जवाब नही दे पा रही है। राफेल सौदे में सर्वोच्च न्यायालय ने रिव्यू के आग्रह को स्वीकार कर लिया है। यह आग्रह स्वीकार करते हुए शीर्ष अदालत ने पैंटागन पेपर्स पर यूएस कोर्ट द्वारा दिये गये फैसले को अपने फैसले का एक आधार बनाया है। अदालत ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि "The concern of the government is not ot protect national security, but to protect the government officials who interfered with the negotiations in the deal" सर्वोच्च न्यायालय की इस टिप्पणी के बाद बहुत कु छ स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है। राफेल के मुद्दे पर राहुल गांधी ने जब से प्रधानमंत्री पर अपरोक्ष में ‘‘चौकीदार चोर’’ का आरोप लगाया है उस पर भाजपा ने अब दो चरणों के मतदान के बाद राहुल गांधी के खिलाफ मामले दर्ज करवाने की बात की है। इतनी देरी के बाद भाजपा का यह कदम राजनीति की भाषा में बहुत कुछ कह जाता है। क्योंकि अब भाजपा ने भोपाल से साध्वी प्रज्ञा को चुनाव उम्मीदवार बनाकर एक और बड़ा संदेश देने का प्रयास किया है।
साध्वी प्रज्ञा ठाकुर मालेगांव धमाकों में एक आरोपी है। महाराष्ट्र की ए. टी. एस ने उन्हें गिरफ्तार किया था। यह गिरफ्तारी मकोका के तहत हुई थी। लेकिन जब यह जांच एन आईए के पास आ गयी थी तब एक स्टेज पर एन आई ए ने मकोका को लेकर प्रज्ञा को क्लीन चिट दे दी थी। लेकिन अदालत ने इस क्लीन चिट को स्वीकार नहीं किया और उनकी गिरफ्तारी जारी रही। अब उन्हे नौ साल जेल में रहने के बाद स्वास्थ्य के आधार पर जमानत मिली है। स्वास्थ्य कारणों पर जमानत लेने के बाद वह चुनाव लड़ रही है। उनके मामले की तब जांच कर रहे ए टी एस प्रमुख हेमन्त करकरे की मुम्बई के 26/11 के आतंकी हमले में मौत हो गयी थी। प्रज्ञा ने इस मौत को उनके श्राप का प्रतिफल कहा है। प्रज्ञा के इस ब्यान से भाजपा ने पल्ला झाड़ लिया है। इस ब्यान के बाद प्रज्ञा का बाबरी मस्ज़िद का लेकर ब्यान आया। प्रज्ञा ने दावा किया है कि उन्होंने स्वयं मस्जि़द पर चढ़कर उसे गिराने का काम किया है। चुनाव आयोग ने इस ब्यानों का संज्ञान लिया है अदालत में उनकी जमानत रद्द करने की याचिका जा चुकी है। इस परिदृश्य में प्रज्ञा को भाजपा द्वारा उम्मीदवार बनाना सीधे-सीधे हिन्दु ध्रुवीकरण की कवायद बन जाता है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या अदालत उनकी जमानत रद्द करके उन्हें जेल से ही चुनाव लड़वाती है या जमानत बहाल रखती है क्योंकि अदालत ने हार्दिक पटेल को भी चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी है। और हार्दिक पटेल से प्रज्ञा का मामला ज्यादा गंभीर है।
भाजपा के 2019 के लोकसभा चुनावों के लिये संकल्प पत्र के नाम से घोषणा पत्र जारी हो गया है। यह संकल्प पत्र राष्ट्र सर्वप्रथम के दावे के साथ शुरू होता है। इसमें आतंकवाद पर सुरक्षा नीति के तहत यह कहा गया है कि नीति राष्ट्रीय सुरक्षा विषयों द्वारा निर्देशित होगी। इसमें सर्जिकल स्ट्राईक और एयर स्ट्राईक का हवाला देते हुए आतंकवाद और उग्रवाद के विरूद्ध जीरो टाॅलरैन्स का दावा किया है। इसके लिये सुरक्षा बलों को सुदृढ़ बनाने, रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने और पुलिस बलों केे आधुनिकीकरण करने घुसपैठियों की समस्या का हल करने के लिये सीमा सुरक्षा सुदृढ़ करने के साथ सिटीजनशिप अमेंडमेंट बिल लागू करने के साथ ही पड़ोसी देशों से आये सभी हिन्दु, जैन, बौद्ध, सिख और ईसाईयों को उन देशों में धार्मिक प्रताड़ना के आधार पर भारत में नागरिकता देने का वायदा किया गया है। वामपंथी उग्रवाद के खिलाफ कड़े कदम उठाने और जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने और धारा 35A को खत्म करने का संकल्प फिर दोहराया गया है। राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर यही सब वायदे 2014 के घोषणा पत्र में भी किये गये थे।
भाजपा राष्ट्र को सर्वप्रथम मानती है और राष्ट्र सर्वप्रथम होना भी चाहिये। इसमें किसी तरह की मतभिन्नता नही हो सकती यह तय है। लेकिन राष्ट्र सर्वप्रथम के सर्वमान्य मानक क्या हैं इस पर एक खुली चर्चा की आवश्यकता है। क्योंकि जब वामपंथी को सीधे उग्रवाद की संज्ञा दे दी जायेगी तो यह चर्चा और भी जरूरी हो जाती है। वामपंथी उसी तरह एक विचारधाराएं हैं जिस तरह आर एस एस और समाजवाद विचारधारांए हैं। यह विचार धाराएं समाज का आकलन कैसे करती हैं और उनके हिसाब से एक आर्दश समाज कैसा हो और उसका संचालन कैसे किया जाये उसके लिये नीति-नियम कैसे हो इसको लेकर इन सारी विचार धाराओं की मान्यताओं में मतभेद हो सकता है। लेकिन इस मतभेद के चलते किसी भी विचारधारा को उग्रवाद की संज्ञा देना सही नही होगा। इसी के साथ किसी भी विचारधारा को समाज पर बलपूर्वक लागू करना भी गलत है यह भी तय है। लेकिन आज संयोगवश यह स्थिति पैदा कर दी गयी है जिसमें मेरी ही विचारधारा सर्वश्रेष्ठ है और उसे बलपूर्वक लागू करने में कोई बुराई नही है का चलन शुरू करने की बात की जा रही है। आज राष्ट्रवाद का एक ही मानक बन गया है कि यदि आप मेरी विचारधारा से सहमत नही है तो आप राष्ट्र द्रोही हैं। दुर्भाग्य से सत्तारूढ़ भाजपा और उसके नेतृत्व को लेकर यह धारणा बनती जा रही है कि जो इनसे सहमत नही है वह राष्ट्रवादी है ही नही। इसलिये जब एक ही वाक्य में वामपंथ को उग्रवाद की संज्ञा भाजपा अपने संकल्प पत्र में देगी तो निश्चित है कि समाज का एक बड़ा वर्ग इससे सहमत नही हो पायेगा।
इसी परिप्रेक्ष में जब जम्मूू कश्मीर की समस्या पर भाजपा के संकल्प पत्र के माध्यम से देखने का प्रयास किया जायेगा तो सबसे पहले यह उभरता है कि इस समस्या को लेकर भाजपा का आकलन सही नही रहा है। भाजपा की केन्द्र में प्रचण्ड बहुमत के साथ सरकार रही है। यही नही जम्मू कश्मीर में भी भाजपा सत्ता में रही है। सारे अधिकार सरकार के पास थे लेकिन यह समस्या आज भी वैसे ही खड़ी है जैसे पहले थी। भाजपा ने 2014 में भी वायदा किया था कि कश्मीर से पलायन कर चुके कश्मीरी पंडितों को वहां वापिस बसायेंगें लेकिन पूरे कार्यकाल में एक भी परिवार का पुर्नवास नही हो सका है। आज 2019 में फिर यह सकंल्प दोहराया गया है। धारा 370 हटाने और यनिफाईड सिविल कोड लाने का वायदा 2014 में भी किया गया था और आज भी किया गया है लेकिन इन पांच वर्षो में इसके लिये कोई कदम तक नही उठाया गया। बल्कि सर्वोच्च न्यायालय में जम्मू-कश्मीर के विधान की धारा 35A (जिसके कारण धारा 370 को लाया गया था) को चुनौती देते हुए दायर हुई याचिका पर केन्द्र सरकार ने आज तक अपना पक्ष तक नही रखा है। सरकार के इस आचरण से यह स्वभाविक सवाल उठता है कि या तो भाजपा इस समस्या को एक खास मकसद के साथ जिन्दा रखना चाहती है ताकि उसको हर बार एक बनी बनाई समस्या उपलब्ध रहे जिसके माध्यम से हिन्दु-मुस्लिम का ध्रुवीकरण करना आसान हो जाये। इस मुद्दे पर भाजपा और प्रधानमन्त्री से यह सवाल करना बनता है कि जब आप लोकसभा में इतने प्रचण्ड बहुमत के बाद भी कोई कदम नही उठा पाये है तो फिर आगे आपके सकंल्प पर किस आधार से विश्वास किया जाये। क्योंकि इस कार्यकाल में जितना बहुमत आपके पास था उसके साथ आप संसद का संयुक्त सत्र बुलाकर कोई भी प्रस्ताव पारित कर सकते थे। जब जीएसटी के लिये संयुक्त सत्र बुलाया जा सकता था तो इसके लिये क्यों नहीं?
जम्मू-कश्मीर की समस्या पर जब भी कोई सवाल उठता है तो सीधे कह दिया जाता है कि सीमा पार से घुसपैठ हो रही है। यहां पर सवाल उठता है कि आखिर यह घुसपैठ होने क्यों दी जा रही है। जितना सैनिक बल आज जम्मू-कश्मीर के भीतर तैनात है क्या उसको भी सीमा पर पोस्ट करके घुसपैठ को रोका नही जा सकता। जब जम्मू-कश्मीर के भीतरी भाग से सेना हटा ली जायेगी तब वहां पर आतंक करने वाले की पहचना करना आसान हो जायेगी। इस समस्या के हल के लिये जो भी नीति पहले रही है वह सफल नही हो पायी है यह स्पष्ट हो चुका है क्योंकि इसी कारण से वहां पर राज्य विधानसभा के चुनाव एक साथ नही करवाये जा सके हैं। आज तक सरकार और प्रधानमन्त्री विपक्ष को पाकिस्तान के साथ जोड़कर जिस तरह की टिप्पणीयां करते रहे हैं क्या उन सारी टिप्पणीयों का जवाब इमरान खान के वक्तव्य को माना जाये। क्योंकि प्रधानमन्त्री जब बिना न्यौते के नवाज़ शरीफ के यहां पंहुच गये थे और फिर वेद प्रकाश वैदिक हाफिज़ सईद से मिले थे। इन मुलाकातों मेें क्या चर्चा रही है उसको लेकर आज तक अधिकारिक तौर पर कुछ भी सामने नही आया है। इसलिये आज इमरान खान के ब्यान के बाद पाकिस्तान तथा जम्मू-कश्मीर की समस्या को लेकर सरकार के दृष्टिकोण पर अलग से सोचने की स्थिति खड़ी हो जाती है क्योंकि इस ब्यान पर सरकार और भाजपा की कोई अधिकारिक प्रतिक्रिया नही आयी है।
लोकसभा चुनावों के लिये कांग्रेस ने अपना चुनाव घोषणा पत्र जारी कर दिया है। इस घोषणा पत्र के पहले पन्ने पर कहा गया है ‘‘हम निभायेंगे’’ और इसी के साथ पार्टी अध्यक्ष राहूल गांधी की घोषणा है कि ‘‘मेरा किया हुआ वादा मैने कभी नही तोड़ा’’ इसी वाक्य के साथ अध्यक्ष का पूरा वक्तव्य और अन्त मे पार्टी का संकल्प भी इस घोषणा पत्र में दर्ज है। 55 पन्नों के इस दस्तावेज में 52 बिन्दुओं पर विस्तृत कार्य योजना का प्रारूप दिया गया है। यह दस्तावेज तैयार करने के लिये 121 परामर्श कार्यक्रम आयोजित किये गये जिनमें 60 कार्यक्रम विभिन्न राज्यों में और 12 से अधिक अप्रवासी भारतीयों के प्रतिनिधियों के साथ तथा 53 कार्यक्रम किसानों, उद्यमियों, अर्थशास्त्रीयों, छात्रों, शिक्षकों, महिला समूहों, डाक्टरों और अन्य विषय विषेशज्ञों के साथ रहे हैं यह दावा भी इसमें किया गया है। इस विस्तृत ब्योरे से यह झलकता है कि इसे तैयार करने के लिये सही में एक व्यापक अध्ययन और विचार विमर्श किया गया है। इसमें जो वायदे किये गये हैं उन्हे कितने समय में और कैसे पूरा किया जायेगा इसके लिये पूरी समयबद्धता दी गयी है। वायदों के अतिरिक्त इस घोषणा पत्र में एक विशेष बिन्दु यह है कि इन वायदों के पूरा होने की प्रमाणिकता सरकारी आंकड़े नहीं बल्कि सोशल आडिट की रिपोर्ट रहेगी।
कांग्रेस के घोषणा पत्र में बेरोज़गारी, गरीबी, शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर महत्वपूर्ण वायदे किये गये हैं। सबसे गरीब परिवारों को 72 हजार कैसे मिलेंगे और सरकार तथा उसके विभिन्न अदारों में खाली 22 लाख पदों को भरने के लिये पूरी समयबद्धत्ता दी गयी है। कृषि के लिये पहली बार अलग से बजट लाने का वायदा किया गया है। किसानों का ऋण माफी के स्थान पर ऋण मुक्ति की ओर ले जाने का कार्यक्रम तैयार किया गया है। महिलाओं को आरक्षण का वायदा लोकसभा के पहले ही सत्र में पूरा करने की बात की गयी है। घोषणा पत्र के वायदों को अलग से पाठकों के सामने रखा जा रहा है ताकि पाठक इस बारे में स्वयं अपनी एक राय बना सकें।
इस घोषणा पत्र पर भाजपा और उसके समर्थकों की प्रतिक्रियाएं बहुत नकारात्मक आ रही है। इन वायदों को अमली शक्ल दे पाने पर सन्देह व्यक्त किया जा रहा है। यह सवाल उठाया जा रहा है कि इन वायदों को पूरा करने के लिये संसाधन कंहा से आयेंगे। भाजपा और उसके समर्थकों की आशंकाएं हो सकता है सही हों। क्योंकि वायदे पूरे होने का पता तो भविष्य में ही लगेगा लेकिन अभी इन वायदों पर अविश्वास का भी कोई कारण नही है क्योंकि अभी जहां मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारें बनी हैं वहां पर चुनावों से पहले सरकार बनने पर सबसे पहले किसानों के कर्ज माफ करने का वायदा किया गया था। यहां पर सरकारें बनने के बाद यह वायदा मन्त्रीमण्डलों की पहली ही बैठक में पूरा कर दिया गया बल्कि कर्नाटक और पंजाब में भी इसे लागू किया गया है। इस आधार पर आज कांग्रेस के वायदों पर अविश्वास करने का कोई कारण नही बनता है। आज जो देश की स्थिति है उसमें बेरोज़गारी और किसानों की आत्म हत्याएं सबसे बड़े मुद्दे बनकर सामने खड़े हैं।
इसलिये वायदों के इस आईने में आज सबसे पहले मोदी की भाजपा सरकार को आकलन करने की आवश्वकता है। इसके लिये 2014 का भाजपा का दस पन्नों का घोषणा पत्र सामने रखना पड़ता है। भाजपा का यह घोषणा पत्र ‘‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’’ की घोषणा से शुरू होता है और इसका पहला ही बिन्दु "Vibrant and Participatory Democaracy" इसी बिन्दु पर यह सवाल उठता है कि क्या सारे वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित हो पायी है। क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनावों के आंकड़े बताते हैं कि तब भाजपा ने एक भी मुस्लिम को चुनावों मे अपना उम्मीदवार नही बनाया था। उस समय भाजपा और मुस्लिम कौन किस पर कितना विश्वास करता था इस प्रश्न को यदि छोड़ भी दिया जाये तो आज कितनों को उम्मीदवार बनाया है यह सवाल तो उठेगा ही। क्या देश की 22 करोड़ की आबादी और सत्तारूढ़ दल में इन पांच वर्षो में भी आपसी विश्वास कायम नही हो सका है। क्या यह विश्वास का संकट लोकतान्त्रिक भागीदारी पर एक सवालिया निशान नही बन जाता है। भाजपा के इस घोषणा पत्र के दूसरे पन्ने पर रोज़गार को लेकर सिर्फ यह कहा गया है।
Develop high impact domains like labour intensive Manufacturing and Tourism.
Transform Employment Exchanges into /career Centres.
क्या यह रोज़गार को लेकर सीधा वायदा माना जा सकता है। इसमें आगे चलकर सुविधानुसार दो करोड़ नौकरियां देना जोड़ दिया गया। लेकिन आज हकीकत यह है कि केन्द्र सरकार में ही 22 लाख पद रिक्त चल रहे हैं। महिलाओं को धुएं से मुक्ति दिलाने वाली उज्जवला योजना का सच भाजपा प्रत्याशी संबित पात्रा के एक महिला की रसोई में चुल्हे पर खाना पकाने और खाने की तस्वीरें न्यूज चैनल पर आने से सामने आ गया है। इस महिला की रसोई में उज्जवला का उजाला नही था। इससे सरकार की योजनाएं धरती पर कितनी हैं और सरकारी आंकड़ो में कितनी है यह सामने आ जाता है। आज मोदी सरकार अपनी फाईलों में दर्ज आंकड़ो के गणित पर चल रही है और यह आंकड़े ज़मीनी सच्चाई से कोसों दूर हैं। यह इसलिये है क्योंकि सरकार सोशल आडिट में विश्वास नही रखती है। इसलिये उसे कांग्रेस के वायदों पर विश्वास नही हो रहा है। आज यह पहली बार देखने को मिल रहा है कि देश के बुद्धिजीवी बड़ी संख्या में एक सरकार को ‘‘वोट न करने की’’ अपील कर रहे हैं। आज कांग्रेस का घोषणा पत्र सामने आने के बाद यह चुनाव हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की अवधारणाओं से बाहर निकल कर जनसमस्याओं पर केन्द्रित होने जा रहा है और शायद यही परेशानी का कारण बन रहा है।