Wednesday, 17 December 2025
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धारा 370 का राग कब तक

भाजपा के 2019 के लोकसभा चुनावों के लिये संकल्प पत्र के नाम से घोषणा पत्र जारी हो गया है। यह संकल्प पत्र राष्ट्र सर्वप्रथम के दावे के साथ शुरू होता है। इसमें आतंकवाद पर सुरक्षा नीति के तहत यह कहा गया है कि नीति राष्ट्रीय सुरक्षा विषयों द्वारा निर्देशित होगी। इसमें सर्जिकल स्ट्राईक और एयर स्ट्राईक का हवाला देते हुए आतंकवाद और उग्रवाद के विरूद्ध जीरो टाॅलरैन्स का दावा किया है। इसके लिये सुरक्षा बलों को सुदृढ़ बनाने, रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने और पुलिस बलों केे आधुनिकीकरण करने घुसपैठियों की समस्या का हल करने के लिये सीमा सुरक्षा सुदृढ़ करने के साथ सिटीजनशिप अमेंडमेंट बिल लागू करने के साथ ही पड़ोसी देशों से आये सभी हिन्दु, जैन, बौद्ध, सिख और ईसाईयों को उन देशों में धार्मिक प्रताड़ना के आधार पर भारत में नागरिकता देने का वायदा किया गया है। वामपंथी उग्रवाद के खिलाफ कड़े कदम उठाने और जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने और धारा 35A को खत्म करने का संकल्प फिर दोहराया गया है। राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर यही सब वायदे 2014 के घोषणा पत्र में भी किये गये थे।
भाजपा राष्ट्र को सर्वप्रथम मानती है और राष्ट्र सर्वप्रथम होना भी चाहिये। इसमें किसी तरह की मतभिन्नता नही हो सकती यह तय है। लेकिन राष्ट्र सर्वप्रथम के सर्वमान्य मानक क्या हैं इस पर एक खुली चर्चा की आवश्यकता है। क्योंकि जब वामपंथी को सीधे उग्रवाद की संज्ञा दे दी जायेगी तो यह चर्चा और भी जरूरी हो जाती है। वामपंथी उसी तरह एक विचारधाराएं हैं जिस तरह आर एस एस और समाजवाद विचारधारांए हैं। यह विचार धाराएं समाज का आकलन कैसे करती हैं और उनके हिसाब से एक आर्दश समाज कैसा हो और उसका संचालन कैसे किया जाये उसके लिये नीति-नियम कैसे हो इसको लेकर इन सारी विचार धाराओं की मान्यताओं में मतभेद हो सकता है। लेकिन इस मतभेद के चलते किसी भी विचारधारा को उग्रवाद की संज्ञा देना सही नही होगा। इसी के साथ किसी भी विचारधारा को समाज पर बलपूर्वक लागू करना भी गलत है यह भी तय है। लेकिन आज संयोगवश यह स्थिति पैदा कर दी गयी है जिसमें मेरी ही विचारधारा सर्वश्रेष्ठ है और उसे बलपूर्वक लागू करने में कोई बुराई नही है का चलन शुरू करने की बात की जा रही है। आज राष्ट्रवाद का एक ही मानक बन गया है कि यदि आप मेरी विचारधारा से सहमत नही है तो आप राष्ट्र द्रोही हैं। दुर्भाग्य से सत्तारूढ़ भाजपा और उसके नेतृत्व को लेकर यह धारणा बनती जा रही है कि जो इनसे सहमत नही है वह राष्ट्रवादी है ही नही। इसलिये जब एक ही वाक्य में वामपंथ को उग्रवाद की संज्ञा भाजपा अपने संकल्प पत्र में देगी तो निश्चित है कि समाज का एक बड़ा वर्ग इससे सहमत नही हो पायेगा।
इसी परिप्रेक्ष में जब जम्मूू कश्मीर की समस्या पर भाजपा के संकल्प पत्र के माध्यम से देखने का प्रयास किया जायेगा तो सबसे पहले यह उभरता है कि इस समस्या को लेकर भाजपा का आकलन सही नही रहा है। भाजपा की केन्द्र में प्रचण्ड बहुमत के साथ सरकार रही है। यही नही जम्मू कश्मीर में भी भाजपा सत्ता में रही है। सारे अधिकार सरकार के पास थे लेकिन यह समस्या आज भी वैसे ही खड़ी है जैसे पहले थी। भाजपा ने 2014 में भी वायदा किया था कि कश्मीर से पलायन कर चुके कश्मीरी पंडितों को वहां वापिस बसायेंगें लेकिन पूरे कार्यकाल में एक भी परिवार का पुर्नवास नही हो सका है। आज 2019 में फिर यह सकंल्प दोहराया गया है। धारा 370 हटाने और यनिफाईड सिविल कोड लाने का वायदा 2014 में भी किया गया था और आज भी किया गया है लेकिन इन पांच वर्षो में इसके लिये कोई कदम तक नही उठाया गया। बल्कि सर्वोच्च न्यायालय में जम्मू-कश्मीर के विधान की धारा 35A (जिसके कारण धारा 370 को लाया गया था) को चुनौती देते हुए दायर हुई याचिका पर केन्द्र सरकार ने आज तक अपना पक्ष तक नही रखा है। सरकार के इस आचरण से यह स्वभाविक सवाल उठता है कि या तो भाजपा इस समस्या को एक खास मकसद के साथ जिन्दा रखना चाहती है ताकि उसको हर बार एक बनी बनाई समस्या उपलब्ध रहे जिसके माध्यम से हिन्दु-मुस्लिम का ध्रुवीकरण करना आसान हो जाये। इस मुद्दे पर भाजपा और प्रधानमन्त्री से यह सवाल करना बनता है कि जब आप लोकसभा में इतने प्रचण्ड बहुमत के बाद भी कोई कदम नही उठा पाये है तो फिर आगे आपके सकंल्प पर किस आधार से विश्वास किया जाये। क्योंकि इस कार्यकाल में जितना बहुमत आपके पास था उसके साथ आप संसद का संयुक्त सत्र बुलाकर कोई भी प्रस्ताव पारित कर सकते थे। जब जीएसटी के लिये संयुक्त सत्र बुलाया जा सकता था तो इसके लिये क्यों नहीं?
जम्मू-कश्मीर की समस्या पर जब भी कोई सवाल उठता है तो सीधे कह दिया जाता है कि सीमा पार से घुसपैठ हो रही है। यहां पर सवाल उठता है कि आखिर यह घुसपैठ होने क्यों दी जा रही है। जितना सैनिक बल आज जम्मू-कश्मीर के भीतर तैनात है क्या उसको भी सीमा पर पोस्ट करके घुसपैठ को रोका नही जा सकता। जब जम्मू-कश्मीर के भीतरी भाग से सेना हटा ली जायेगी तब वहां पर आतंक करने वाले की पहचना करना आसान हो जायेगी। इस समस्या के हल के लिये जो भी नीति पहले रही है वह सफल नही हो पायी है यह स्पष्ट हो चुका है क्योंकि इसी कारण से वहां पर राज्य विधानसभा के चुनाव एक साथ नही करवाये जा सके हैं। आज तक सरकार और प्रधानमन्त्री विपक्ष को पाकिस्तान के साथ जोड़कर जिस तरह की टिप्पणीयां करते रहे हैं क्या उन सारी टिप्पणीयों का जवाब इमरान खान के वक्तव्य को माना जाये। क्योंकि प्रधानमन्त्री जब बिना न्यौते के नवाज़ शरीफ के यहां पंहुच गये थे और फिर वेद प्रकाश वैदिक हाफिज़ सईद से मिले थे। इन मुलाकातों मेें क्या चर्चा रही है उसको लेकर आज तक अधिकारिक तौर पर कुछ भी सामने नही आया है। इसलिये आज इमरान खान के ब्यान के बाद पाकिस्तान तथा जम्मू-कश्मीर की समस्या को लेकर सरकार के दृष्टिकोण पर अलग से सोचने की स्थिति खड़ी हो जाती है क्योंकि इस ब्यान पर सरकार और भाजपा की कोई अधिकारिक प्रतिक्रिया नही आयी है।

कांग्रेस के घोषणा पत्र पर अविश्वास क्यों

लोकसभा चुनावों के लिये कांग्रेस ने अपना चुनाव घोषणा पत्र जारी कर दिया है। इस घोषणा पत्र के पहले पन्ने पर कहा गया है ‘‘हम निभायेंगे’’ और इसी के साथ पार्टी अध्यक्ष राहूल गांधी की घोषणा है कि ‘‘मेरा किया हुआ वादा मैने कभी नही तोड़ा’’ इसी वाक्य के साथ अध्यक्ष का पूरा वक्तव्य और अन्त मे पार्टी का संकल्प भी इस घोषणा पत्र में दर्ज है। 55 पन्नों के इस दस्तावेज में 52 बिन्दुओं पर विस्तृत कार्य योजना का प्रारूप दिया गया है। यह दस्तावेज तैयार करने के लिये 121 परामर्श कार्यक्रम आयोजित किये गये जिनमें 60 कार्यक्रम विभिन्न राज्यों में और 12 से अधिक अप्रवासी भारतीयों के प्रतिनिधियों के साथ तथा 53 कार्यक्रम किसानों, उद्यमियों, अर्थशास्त्रीयों, छात्रों, शिक्षकों, महिला समूहों, डाक्टरों और अन्य विषय विषेशज्ञों के साथ रहे हैं यह दावा भी इसमें किया गया है। इस विस्तृत ब्योरे से यह झलकता है कि इसे तैयार करने के लिये सही में एक व्यापक अध्ययन और विचार विमर्श किया गया है। इसमें जो वायदे किये गये हैं उन्हे कितने समय में और कैसे पूरा किया जायेगा इसके लिये पूरी समयबद्धता दी गयी है। वायदों के अतिरिक्त इस घोषणा पत्र में एक विशेष बिन्दु यह है कि इन वायदों के पूरा होने की प्रमाणिकता सरकारी आंकड़े नहीं बल्कि सोशल आडिट की रिपोर्ट रहेगी।
कांग्रेस के घोषणा पत्र में बेरोज़गारी, गरीबी, शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर महत्वपूर्ण वायदे किये गये हैं। सबसे गरीब परिवारों को 72 हजार कैसे मिलेंगे और सरकार तथा उसके विभिन्न अदारों में खाली 22 लाख पदों को भरने के लिये पूरी समयबद्धत्ता दी गयी है। कृषि के लिये पहली बार अलग से बजट लाने का वायदा किया गया है। किसानों का ऋण माफी के स्थान पर ऋण मुक्ति की ओर ले जाने का कार्यक्रम तैयार किया गया है। महिलाओं को आरक्षण का वायदा लोकसभा के पहले ही सत्र में पूरा करने की बात की गयी है। घोषणा पत्र के वायदों को अलग से पाठकों के सामने रखा जा रहा है ताकि पाठक इस बारे में स्वयं अपनी एक राय बना सकें।
इस घोषणा पत्र पर भाजपा और उसके समर्थकों की प्रतिक्रियाएं बहुत नकारात्मक आ रही है। इन वायदों को अमली शक्ल दे पाने पर सन्देह व्यक्त किया जा रहा है। यह सवाल उठाया जा रहा है कि इन वायदों को पूरा करने के लिये संसाधन कंहा से आयेंगे। भाजपा और उसके समर्थकों की आशंकाएं हो सकता है सही हों। क्योंकि वायदे पूरे होने का पता तो भविष्य में ही लगेगा लेकिन अभी इन वायदों पर अविश्वास का भी कोई कारण नही है क्योंकि अभी जहां मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारें बनी हैं वहां पर चुनावों से पहले सरकार बनने पर सबसे पहले किसानों के कर्ज माफ करने का वायदा किया गया था। यहां पर सरकारें बनने के बाद यह वायदा मन्त्रीमण्डलों की पहली ही बैठक में पूरा कर दिया गया बल्कि कर्नाटक और पंजाब में भी इसे लागू किया गया है। इस आधार पर आज कांग्रेस के वायदों पर अविश्वास करने का कोई कारण नही बनता है। आज जो देश की स्थिति है उसमें बेरोज़गारी और किसानों की आत्म हत्याएं सबसे बड़े मुद्दे बनकर सामने खड़े हैं।
इसलिये वायदों के इस आईने में आज सबसे पहले मोदी की भाजपा सरकार को आकलन करने की आवश्वकता है। इसके लिये 2014 का भाजपा का दस पन्नों का घोषणा पत्र सामने रखना पड़ता है। भाजपा का यह घोषणा पत्र ‘‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’’ की घोषणा से शुरू होता है और इसका पहला ही बिन्दु "Vibrant and Participatory Democaracy" इसी बिन्दु पर यह सवाल उठता है कि क्या सारे वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित हो पायी है। क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनावों के आंकड़े बताते हैं कि तब भाजपा ने एक भी मुस्लिम को चुनावों मे अपना उम्मीदवार नही बनाया था। उस समय भाजपा और मुस्लिम कौन किस पर कितना विश्वास करता था इस प्रश्न को यदि छोड़ भी दिया जाये तो आज कितनों को उम्मीदवार बनाया है यह सवाल तो उठेगा ही। क्या देश की 22 करोड़ की आबादी और सत्तारूढ़ दल में इन पांच वर्षो में भी आपसी विश्वास कायम नही हो सका है। क्या यह विश्वास का संकट लोकतान्त्रिक भागीदारी पर एक सवालिया निशान नही बन जाता है। भाजपा के इस घोषणा पत्र के दूसरे पन्ने पर रोज़गार को लेकर सिर्फ यह कहा गया है।

Develop high impact domains like labour intensive Manufacturing and Tourism.
Transform Employment Exchanges into /career Centres.

क्या यह रोज़गार को लेकर सीधा वायदा माना जा सकता है। इसमें आगे चलकर सुविधानुसार दो करोड़ नौकरियां देना जोड़ दिया गया। लेकिन आज हकीकत यह है कि केन्द्र सरकार में ही 22 लाख पद रिक्त चल रहे हैं। महिलाओं को धुएं से मुक्ति दिलाने वाली उज्जवला योजना का सच भाजपा प्रत्याशी संबित पात्रा के एक महिला की रसोई में चुल्हे पर खाना पकाने और खाने की तस्वीरें न्यूज चैनल पर आने से सामने आ गया है। इस महिला की रसोई में उज्जवला का उजाला नही था। इससे सरकार की योजनाएं धरती पर कितनी हैं और सरकारी आंकड़ो में कितनी है यह सामने आ जाता है। आज मोदी सरकार अपनी फाईलों में दर्ज आंकड़ो के गणित पर चल रही है और यह आंकड़े ज़मीनी सच्चाई से कोसों दूर हैं। यह इसलिये है क्योंकि सरकार सोशल आडिट में विश्वास नही रखती है। इसलिये उसे कांग्रेस के वायदों पर विश्वास नही हो रहा है। आज यह पहली बार देखने को मिल रहा है कि देश के बुद्धिजीवी बड़ी संख्या में एक सरकार को ‘‘वोट न करने की’’ अपील कर रहे हैं। आज कांग्रेस का घोषणा पत्र सामने आने के बाद यह चुनाव हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की अवधारणाओं से बाहर निकल कर जनसमस्याओं पर केन्द्रित होने जा रहा है और शायद यही परेशानी का कारण बन रहा है।

जब प्रधानमन्त्री ही भाषायी मर्यादा लांघ जाये

आज प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी से लेकर कार्यकर्ता तक पूरी भाजपा ‘‘मै भी चौकीदार’’ हो गयी है। 2014 में जब लोकसभा के चुनाव हुए थे तब देश की जनता ने इन लोगों को जन प्रतिनिधि के रूप में चुनकर देश की सत्ता सौंपी थी। देश की जनता ने इन पर इनके द्वारा किये गये वायदों पर विश्वास करके इन्हें सत्ता सौंपी थी। लेकिन आज इस कार्यकाल का अन्त आते तक यह सब चौकीदार हो गये हैं। देश की जनता ने अपना वोट देकर इन्हें प्रतिनिधि चुना था चौकीदार नहीं। चौकीदार मतदान के माध्यम से नही चुना जाता उसके चयन की एक अलग प्रक्रिया रहती है। लेकिन अब जब यह सब चौकीदार हो गये हैं तब इन्हें चौकीदार की चयन प्रक्रिया की कसौटी पर जांचना आवश्यक हो जाता है। इस जांच -परख के लिये ही मैने पिछली बार ‘‘अब देश का चौकीदार ही सवालों में’’ अपने पाठकों के सामने एक बहस उठाने की नीयत से रखा था। बहुत सारे पाठकों ने मेरे दृष्टिकोण को समर्थन दिया है तो कुछ ने उससे तलख असहमति व्यक्त की है। इस असहमति के आधार पर मैं इस बहस को आगे बढ़ा रहा हूं।
मेरा स्पष्ट मानना है कि जब सत्ता की जिम्मेदारी उठाने वाले लोग स्वयं चौकीदार का आवरण ओढ़कर सत्ता से जुड़े तीखे सवालों से बचने का प्रयास करेंगे तब यह लोकतन्त्र के लिये एक बड़ा खतरा हो जायेगा। सत्ता पक्ष होने के नाते यह इन लोगों की जिम्मेदारी थी कि यह देश के ‘‘जान और माल’ की रक्षा करते और अपने पर उठने वाले हर सन्देह और सवाल की निष्पक्ष जांच के लिये अपने को प्रस्तुत करते। देश जानता है कि जब 2014 में सत्ता संभाली थी तब सत्ता पक्ष के कई जिम्मेदार लोगों के ऐसे ब्यान आने शुरू हो गये थे कि इनसे वैचारिक असहमति रखने वाले हर आदमी को पाकिस्तान जाने का फरमान सुना देते थे। इन्ही फरमानों के कारण लोकसभा में प्रचण्ड बहुमत हासिल करने के बाद दिल्ली विधानसभा चुनावों में केवल तीन सीटों पर सिमट कर रह गये। दिल्ली की हार के कारणों का सार्वजनिक खुलासा आज तक सामने नहीं आ पाया है। 2014 के चुनावों में और उससे पूर्व उठे भ्रष्टाचार के तमान मुद्दो का प्रभाव था कि देश की जनता ने तत्कालीन यूपीए सरकार को भ्रष्टाचार का पर्याय मानकर सत्ता से बाहर कर दिया। लेकिन एनडीए के पूरे शासन काल में भ्रष्टाचार के उन मुद्दों पर दोबारा कोई चर्चा तक नही उठी। लोकपाल की मांग करने वाले अन्ना हजारे तक उन मुद्दों को भूल गये। बल्कि जब टूजी स्पैक्ट्रम घोटाले पर अदालत में यह आया कि यह घोटाला हुआ ही नही है तब किसी ने भी इसपर कोई सवाल नही उठाया। 1,76,000 करोड़ का आंकड़ा देने वाले विनोद राय तक को किसी ने नही पूछा जबकि इसी घोटाले में यूपीए में शासनकाल में बड़े लोगों की गिरफ्रतारी तक हुई थी। क्या अब इस घोटाले में कुछ कंपनीयों और बड़ों को बचाया गया है? यह सवाल उठ रहा है और कोई चौकीदार इसका जवाब नही दे रहा है। काॅमनवैल्थ गेम्ज़ घोटाले पर 2010 में आयी रिपोर्ट पर क्या कारवाई हुई है। इसका कोई जवाब नही आ रहा है। आज लोकपाल की नियुक्ति से पहले भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम का संशोधन कर दिया गया है। क्या आज इस संशोधित अधिनियम के बाद कोई भ्रष्टाचार की शिकायत कर पायेगा? इस संशोधन पर उठे सवालों का प्रधान चौकीदार से लेकर नीचे तक किसी ने कोई जवाब नही दिया है। क्या इन सवालों पर इन चौकीदारों की जवाबदेही तय नहीं होनी चाहिये। क्या आज चुनाव से पहले यह सवाल पूछे नहीं जाने चाहिये?
आज जब भाजपा ‘‘मै भी चौकीदार’’ अभियान छेड़कर कांग्रेस से पिछले साठ सालों का हिसाब पूछने जा रही है तब क्या उसे यह नहीं बताना चाहिये कि 2014 में उसने वायदा क्या किया था? क्या तब देश से यह नहीं कहा गया था कि हम सबकुछ साठ महीनों में ही ठीक कर देंगे। तबकी यूपीए सरकार को बेरोजगारी और महंगाई पर किस तरह कोसा जाता था लेकिन आज जब इन मद्दों पर सवाल पूछे जा रहे हैं तब कांग्रेस के साठ सालों की बात की जा रही है। क्या 2014 में देश से यह कहा गया था कि जो कुछ साठ सालों में खराब हुआ है उसे ठीक करने के लिये हमें भी साठ साल का ही समय चाहिये। तब तो साठ साल बनाम साठ महीनों का नारा दिया गया था। आज तो यह हो रहा है कि जब कांग्रेस ने भ्रष्टाचार किया है तब हमें भी भ्रष्टाचार करने का लाईसैन्स मिल गया है। आज रोजगार के नाम पर हर काम को हर सेवा को आऊट सोर्स से करवाया जा रहा है। इस बढ़ते आऊट सोर्स पर तो अब यह सवाल उठना शुरू हो गया है कि जब सरकार कोई भी सेवा स्वयं देने में असमर्थ है तब क्या सरकार को भी आऊट सोर्स से ही नहीं चलाया जाना चाहिये।
आज चुनाव होने जा रहे हैं इसलिये यह आवश्यक हो जाता है कि चोरी के आरोपों को चौकीदारी के आवरण में दबने न दिया जाये। क्योंकि जब सत्तारूढ़ भाजपा स्वयं 38 दलों के साथ गठबन्धन कर चुकी है तब उसे दूसरों के गठबन्धन से आपत्ति क्यों? अभी प्रधानमन्त्री ने सपा, आर एल डी और बसपा के गठबन्धन को शराब की संज्ञा दी है। क्या देश के प्रधानमन्त्री की भाषा का स्तर ऐसा होना चाहिये? इस संद्धर्भ में यदि कोई पूरी भाजपा के ‘‘मैं भी चौकीदार’’ होने को ‘‘चोर मचाये शोर’’ की संज्ञा दे डाले तो उसे कैसा लगेगा। यह सही है कि देश का बुद्धिजीवी वर्ग आज प्रधानमन्त्री की हताशा को समझ रहा है क्योंकि जिस तरह 2014 में लोग कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जा रहे थे आज ठीक उसी तरह भाजपा छोड़कर कांग्रेस में जाने का दौर चल पड़ा है और इससे हताश होना संभव है और उसे सार्वजनिक होने से रोकने के लिये किसी न किसी आवरण का सहारा लेना पड़ता है लेकिन एक सपूत को भाषायी मर्यादा लांघना शोभा नहीं देता। अपनी असफलताओं को भी स्वीकारने का साहस होना चाहिये क्योंकि सरकार भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई जैसे सारे मुद्दों पर पूरी तरह असफल हो चुकी है। जिस सरकार को जीडीपी की गणना के लिये तय मानक बदलना पड़ जाये उसके विकास के दावों पर कोई कैसे भरोसा कर पायेगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है।

अब देश का चौकीदार ही सवालों में

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक समय कहा था कि वह देश के शासक नहीं बल्कि चौकीदार है। वह अपने को कामगार भी कहते हैं। देश का प्रधानमन्त्री जब अपने को स्वयं इस तरह के संबोधन देता है तो निश्चित रूप से हर आदमी उनकी सादगी और विनम्रता का कायल हो जाता है। लेकिन जब देश के सामने यह आता है कि उनका विनम्र चौकीदार लाखों का सूट पहनता है और उसने अपना पारिवारिक स्टेटस एक लम्बे अरसे तक देश के सामने नही आने दिया तब न केवल उस चौकीदार के इमेज़ को बल्कि आम आदमी के विश्वास को भी गहरा धक्का लगता है। पारिवारिक स्टेटस को छिपाना इतने बड़े पद की गरिमा के साथ मेल नहीं खाता है। नरेन्द्र मोदी की यह पहली और बड़ी नैतिक हार है और जब व्यक्ति अपना नैतिक बल खो देता है तब वह सबसे पहले अपने में ही हार जाता है। जबकि इस स्टेटस को छिपाने की कोई आवश्यकता नही थी। फिर यह स्टेटस जब चुनाव घोषणा पत्र के माध्यम से सामने आया तब यह और भी प्रश्नित हो जाता है।
प्रधानमन्त्री देश का एक सर्वोच्च सम्मानित पद है और इस पद की संवैधानिक जिम्मेदारीयां बहुत बड़ी है। प्रधानमन्त्री होने के नाते बहुत बड़ी शासकीय जिम्मेदारीयां है। यह जिम्मेदारीयां निभाते हुए प्रधानमन्त्री का आचरण चौकीदार वाला भी रहना चाहिये यह आवश्यक है। क्योंकि चौकीदार की केवल जिम्मेदारीयां ही होती हैं उसके कोई वैधानिक अधिकार नही होते हैं। चौकीदार केवल चीजों /घटनाओं पर नज़र रखता है और उसकी रिपोर्ट मालिक को देता है। यदि कहीं चोरी भी हो जाये तो चौकीदार उसकी पहली सूचना मालिक को देता है और फिर मालिक तय करता है कि उस चोरी की शिकायत उसने पुलिस से करनी है या नहीं। इस परिदृश्य में जब राफेल सौदे में घपला होने के आरोप लगे और उसमें सीधे प्रधानमन्त्री कार्यालय की भूमिका पर भी सवाल उठे तब यह ‘‘चौकीदार शब्द और पद चर्चा में आया। क्योंकि प्रधानमन्त्री के पास मालिक और चौकीदार दोनों की भूमिकाएं एक साथ थी। आज राफेल मामला सर्वोच्च न्यायालय के पास है और उसमें केन्द्र सरकार चार बार अपना स्टैण्ड बदल चुकी है। इस स्टेण्ड बदलने से आम आदमी भी यह मानने पर विवश हो गया है कि इसमें कुछ तो गड़बड़ है और हकीकत केवल जांच से ही सामने आयेगी।
सरकार इसमें जांच के लिये तैयार नहीं हो रही है। इसमें जो दस्तावेजी प्रमाण मीडिया के माध्यम से सामने आये हैं और उन पर गोपनीयता अधिनियम की अवहेलना का जिस तरह से आरोप लगाया गया है उससे पूरे विश्व की हमारे सर्वोच्च न्यायालय पर नज़रें लग गयी हैं। पूरा विश्व यह देख रहा है कि इसमें सरकार क्या छिपाना चाह रही है और उस पर शीर्ष न्यायपालिका का रूख क्या रहता है। लेकिन इस मुद्दे पर सरकार देश के सामने तथ्य रखने की बजाये पूरी चर्चा को भावनात्मक आवरण से ढकना चाह रही है। पूरी भाजपा ‘‘मै भी चौकीदार हूं’’ हो गयी है। लेकिन यह सारे चौकीदार मिलकर भी यह नहीं बता पा रहे हैं कि 2014 में चर्चित रहे भ्रष्टाचार के कौन से मुद्दे पर फैसला आ पाया है या उसकी स्थिति क्या है। मंहगाई क्यों बढ़ी है। रोज़गार क्यों नहीं मिल पाया है। भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम में संशोधन क्यों किया गया। नोटबन्दी से किसको क्या लाभ मिला है। आज ऐसे दर्जनों सवाल हैं जिन पर जनता को जवाब चाहिये।
आज जवाब मांगने वाले को राष्ट्रविरोधी कहकर चुप नहीं कराया जा सकता। गुजरात मामलों पर सर्वोच्च न्यायालय में आयी जस्टिस बेदी कमेटी की रिपोर्ट पर अगली कारवाई कब होगी। अभी समझौता एक्सप्रैस में हुए बलास्ट में दोषी बनाये गये सारे लोग छूट गये हैं यह एक अच्छी बात है लेकिन क्या इसी मामले में रहे जांच अधिकारियों और सरकारी अभियोजकों के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार कारवाई की जायेगी? क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने इन आपराधिक मामलों के अदालत में असफल रहने पर उनसे जुड़े अधिकारियों के खिलाफ कारवाई करने के निर्देश जारी कर रखे हैं। आज जिस तरह से पूरे मुस्लिम समुदाय को एक तरह से आतंक का पर्याय प्रचारित कर दिया गया है वह किसी भी गणित से देशहित नहीं माना जा सकता। क्योंकि यह एक सच्चाई है कि इस शासनकाल में प्रधानमन्त्री की अपील के बावजूद भीड़ हिंसा और गो रक्षा जैसे मामलों में मुस्लिम और दलित सबसे अधिक उत्पीड़ित वर्ग रहे हैं। आज यह वर्ग भाजपा से निश्चित रूप से डरे हुए हैं और इसी कारण से मन से उसके साथ नही हैं। यही भाजपा का सबसे कमजोर पक्ष है और इसी को लेकर देश का चौकीदार सवालों में है।

वायदों के आईने में सरकार

चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका है और पहले चरण में आने वाली सीटों के लिये उम्मीदवारों का चयन भी राजनीतिक दलों द्वारा कर लिया गया है। लेकिन यह चुनाव किन मुद्दों पर लड़ा जायेगा यह अभी तक स्पष्ट नही हो पाया है। सामान्यतः हर चुनाव में सबसे पहले यह देखा जाता है कि जो भी सरकार सत्ता में रही है उसका काम काज कैसा रहा है। क्योंकि यह सरकार और उसकी पार्टी अपने काम काज के आधार पर पुनः सत्ता में वापसी की गुहार जनता से लगाती है। इस नजरीये से सरकार की जिम्मेदारी भाजपा के पास रही है। इसलिये सबसे पहले उसी के काम काज का आंकलन किया जाना स्वभाविक और अनिवार्य है। 2014 में जब पिछली बार लोकसभा के चुनाव हुए थे तब सत्ता यूपीए सरकार के पास थी। उस समय यूपीए सरकार पर कई मुद्दों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे। कई मुद्दे सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचे थे और शीर्ष अदालत के निर्देशों पर इन मुद्दों पर जांच भी हुई थी। इस जांच के चलते कई वरिष्ठ नौकरशाह, राजनेता/मन्त्री और कारपोरेट जगत के लोग जेल तक गये थे। भ्रष्टाचार के इन्ही आरोपों के परिणामस्वरूप अन्ना हजारे का जनान्दोलन लोकपाल को लेकर सामने आया। इस पृष्ठभूमि में जब चुनाव हुए जो भाजपा को प्रचण्ड बहुमत मिला। इन चुनावों में भाजपा ने देश से कुछ वायदे किये थे। इन वायदों में मुख्यतः हर व्यक्ति के खाते में पन्द्रह पन्द्रह लाख रूपये आने, राम मन्दिर बनाने, जम्मूकश्मीर से धारा 370 हटाने, दो करोड़ युवाओं को रोजगार देने, मंहगाई पर लगाम लगाने आदि शामिल थे। इन्ही वायदों के सहारे आम आदमी को अच्छे दिन आने का सपना दिखाया गया था। इन वायदों को पूरा करने के लिये केवल साठ माह का समय मांगा गया था।
इसलिये आज सबसे पहले इन्ही दावों की हकीकत पर नजर दौड़ाना आवश्यक हो जाता है। जिस लोकपाल के लिये अन्ना ने आन्दोलन किया था वह लोकपाल अभी तक ‘साकार रूप नही ले सका है। जबकि लोकपाल विधेयक उसी दौरान पारित हो गया था। भ्रष्टाचार के जो मामले उस समय अदालत तक पहुंच गये थे उनमें से एक में भी इस सरकार में किसी को सजा नही मिल पायी है बल्कि 176,000 करोड़ के 2जी मामले में तो अब यह आ गया कि यह घोटाला हुआ ही नही है। भ्रष्टाचार का एक भी मामला इस सरकार के कार्यकाल में अन्तिम अन्जाम तक नही पहुंचा है। उल्टा इस सरकार ने तो भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम में ही संशोधन करके उसकी धार को ही कुन्द कर दिया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भाजपा सिन्द्धात रूप में ही भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई कारवाई नही करना चाहती है। भाजपा की इस मानसिकता का पता हिमाचल की जयराम सरकार के आचरण से भी लग जाता है। जब इस सरकार ने विपक्ष में रहते कांग्रेस सरकार के खिलाफ सौंपे अपने ही आरोपपत्र पर कोई कारवाई न करने का फैसला लिया है।
इसी तरह कालेधन के जो आंकड़े 2014 देष को परोसे जा रहे थे और उन्ही आंकड़ो के भरोसे आम आदमी को विश्वास दिलाया गया था कि उसके खाते में इस कालेधन की वापसी से पन्द्रह लाख पहुंच जायेंगे। लेकिन जब इस कालेधन पर हाथ डालने के लिये नोटबन्दी लागू की गयी तब 99.3% पुराने नोट आरबीआई के पास पहुंच गये। पूराने नोटों की इस वापसी ने न केवल सरकार के कालेधन के आकलन पर सवालिया निशान लगा दिया बल्कि नोटबन्दी के बाद आतंकवाद की कमर टूट जाने के दावे को भी हास्यस्पद सिद्ध कर दिया। आज तक कालेधन के एक भी मामले पर कोई प्रमाणिक कारवाई सामने नही आई है। उल्टा यह नोटबन्दी का फैसला ही कई गंभीर सवालों में घिर गया हैं विषेशज्ञों के मुताबिक नोटबन्दी के फैसले के कारण ही देश के कर्जभार पर इस शासनकाल में 49% की बढ़ौत्तरी हुई है। यही नहीं आज सरकार ने जो एफडीआई का दरवाजा हर क्षेत्र के लिये खोल दिया है उसके कारण हमारा आयात तो बहुत बढ़ गया है लेकिन इसके मुकाबले में निर्यात आधे से भी कम रह गया है। आर्थिक स्थिति के जानकारों के मुताबिक यह नीति किसी भी देश की अर्थ व्यवस्था के लिये एक बहुत बड़ा संकट बन जाती है। किसी समय स्वदेशी जागरण मंच के झण्डे तले एफडीआई का विरोध करने वाले आरएसएस की इस चुप्पी कई सवाल खड़े कर जाती है क्योंकि यह एक ऐसा पक्ष है जिसके परिणाम भविष्य में देखने को मिलेंगे।
इसी के साथ जब 2014 के मुकाबले आज मंहगाई और बेरोजगारी का आंकलन किया जाये तो इस मुहाने पर भी सरकार का रिपोर्ट कार्ड बेहद निराशाजनक है। सरकार हर काम हर सेवा आऊट सोर्स के माध्यम से करवा रही है। आऊट सोर्स का अर्थ है कि हर काम ठेकेदार के माध्यम से करवाना और ठेकेदार की कहीं सीधी जिम्मेदारी नहीं उसके काम की शिकायत पर केवल उसका ठेका ही रद्द किया जा सकता है इससे अधिक कोई कारवाई उसके खिलाफ संभव नही है। इसी आऊट सोर्सिंग के कारण सरकार का दो करोड़ नौकरियों का दावा हवा -हवाई होकर रह गया है। मंहगाई के नाम पर एकदम रसोई गैस के दाम हर आदमी को सोचने पर विवश कर देते हैं कि ऐसा क्यों है इसका कोई सन्तोषजनक जवाब भाजपा नेतृत्व के पास नही है। फिर यह सवाल तो इसी नेतृत्व से पूछे जाने हैं क्योंकि इसी ने यह वायदा किया था कि वह साठ महीने में इन समस्याओं से निजात दिला देगा लेकिन ऐसा हो नही पाया है।
जबकि दूसरी ओर आज जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनी हैं यदि वहां पर जनता से किये गये वायदों का आंकलन किया जाये तो सबसे पहले वहां पर किसानों से किये गये कर्जमाफी के वायदे की ओर ध्यान जाता है। इस पर यह सामने आता है कि जिस प्रमुखता से यह वायदा किया गया था उसी प्रमुखता के साथ इस पर अमल भी कर दिया गया है। इसलिये आज कांग्रेस गरीब अदामी के लिये जो न्यूनतम आय गांरटी योजना की बात कर रही है उसपर अविश्वास करने का कोई कारण नजर नही आता है। इस तरह के बहुत सारे वायदे और सवाल है जिन पर इस चुनाव में खुलकर चर्चा अगले अंको में की जायेगी। क्योंकि सरकार राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ रही बसह को दबाने का प्रयास कर रही है।

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