Wednesday, 17 December 2025
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राफेल और शीर्ष अदालत

देश में राफेल विमान खरीद को लेकर लम्बे समय से बहस चली आ रही है। इस बहस का विषय यह नही है कि यह विमान खरीदे जाने चाहिये या नही। बल्कि बहस यह है कि इस खरीद में भ्रष्टाचार हो रहा है या नहीं। इस खरीद की प्रक्रिया पर सवाल उठाये गये हैं। इस पर उठी बहस के परिणाम स्वरूप यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पंहुच गया। शीर्ष अदालत ने इस पर सरकार को अपना पक्ष रखने को कहा। सरकार ने सीलबन्द लिफाफे में बिना शपथपत्र के अदालत में अपना पक्ष रखा। शीर्ष अदालत ने सरकार के पक्ष को देखकर 14 दिसम्बर को अपना यह फैसला सुना दिया कि अदालत इसमें कोई हस्तक्षेप नही करना चाहती है। सरकार ने शीर्ष अदालत के इस फैसले को अपने लिये क्लीन चिट करार दिया। लेकिन जब यह फैसला लिखित में बाहर आया तब इसमें यह आया कि इस खरीद की प्रक्रिया और उससे जुड़े सारे दस्तावेज सीएजी और फिर पीएसी के संज्ञान में रहे हैं। पीएसी की अध्यक्षता विपक्ष के सबसे बड़े दल का नेता करता है और लोकसभा में यह दायित्व कांग्रेस नेता खड़गे के पास है। खड़गे ने अदालत में रखे गये तथ्यों पर हैरत जताई और यह एकदम राष्ट्रीय विवाद बन गया। इस पर सरकार ने तुरन्त शीर्ष अदालत में इस फैसले में संशोधन करने का आग्रह कर दिया। सरकार ने इस आग्रह का तर्क दिया कि शीर्ष ने उनके जवाब में प्रयुक्त भाषा और व्याकरण को ठीक से नही समझा है। सरकार के इस आग्रह के बाद शीर्ष अदालत में इस पूरे फैसले पर पुनर्विचार करने की याचिकाएं आ गयी है। इसी बीच इस खरीद प्रक्रिया से जुड़े कुछ दस्तावेज प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक हिन्दु में छप गये।
शीर्ष अदालत के 14 दिसम्बर को आये फैसले पर पुनः विचार के लिये आयी याचिकाओं पर सुनवाई चल रही है। इस सुनवाई के दौरान जब हिन्दु में छपे दस्तावेजों का संज्ञान लेने का प्रश्न आया तब सरकार के अर्टानी जनरल ने यह कह दिया कि यह दस्तावेज रक्षा मन्त्रालय से चोरी हो गये हैं और इनका संज्ञान न लिया जाये। इसी के साथ अर्टानी जनरल ने यह भी कह दिया कि सरकार इस पर चोरी को प्रकरण दायर करने जा रही है क्योंकि यह सरकारी गोपनीय दस्तावेज अधिनियम के तहत एक संगीन अपराध है। अर्टानी जनरल के इस कथन के बाद इस बहस में एक पक्ष यह जुड़ गया कि यदि रक्षा मन्त्रालय में एक फाईल सुरक्षित नही रह सकती तो फिर देश कैसे सुरक्षित रहेगा। इसी के साथ यह भी चर्चा चल पड़ी कि सरकार दस्तावेजों की चोरी का आरोप लगाकर प्रैस की स्वतन्त्रता पर अंकुश लगाने का प्रयास करने जा रही है। अखबार पर इस आरोप के माध्यम से उसके सोर्स की जानकारी सार्वजनिक करने का दवाब बनायेगी। स्वभाविक है कि जब भी कोई भ्रष्टाचार का कांड घटता है तो उसके प्रमाण तो दस्तावेजों के रूप में सरकार की फाईलों में ही होते हैं। यह फाईलें भी कोई आम सड़क या चैराहे पर पड़ी नही होती हैं। लेकिन इन फाईलों से जुड़े किसी अधिकारी /कर्मचारी की आत्मा उसे कचोटती है तब वह इस भ्रष्टाचार को उजागर करने का रास्ता खोजता है। इस रास्ते की तलाश में सबसे पहले उसकी नजर प्रैस और पत्रकार पर जाती है। और जब वह सुनिश्चित हो जाता है कि इस माध्यम से यह जानकारी सार्वजनिक रूप से जनता के सामने आ जायेगी तथा उसकी पहचान भी गोपनीय रहेगी तब वह ऐसी जानकारी को सांझा कर पाता है। स्वभाविक है कि इस मामले में भी यही हुआ होगा। क्योंकि यह एक स्थापित सच है कि ‘‘गर तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालों’’ यदि एक अखबार साहस करके एक भ्रष्टाचार से जुड़े बड़े सच को बाहर ला रहा है तो क्या उसे दस्तावेज चोरी करने और राष्ट्रीय सुरक्षा को नुकसान पहुंचाने के नाम पर प्रताड़ित किया जाना चाहिये। शायद नही बल्कि ऐसे हर कदम का पुरजोर विरोध किया जाना चाहिये।
राफेल खरीद में तीस हजार करोड़ का घपला होने का आरोप लग रहा है। क्या यह तीस हजार करोड़ इस देश के आम आदमी का पैसा नही है। क्या इस इतनी बड़ी चोरी के आरोप की गहन जांच नही होनी चाहिये। जब देश की रक्षा के लिये खरीदे जा रहे इन विमानों की खरीद में इतना बड़ा घोटाला हो रहा है तो क्या उससे देश के आम आदमी के भरोसे को धक्का नही लग रहा है। यदि रक्षा सौदे में ही इतना बड़ा घपला हो रहा है तो फिर देश की सुरक्षा को इससे बड़ा खतरा क्या हो सकता है। पाकिस्तान से तो हमारे सैनिक सामने से लड़ाई लड़ लेंगे लेकिन इन भीतर के भ्रष्टाचारियों से कौन लड़ेगा। आज जब एक अखबार ने भ्रष्टाचार को उजागर करने का इतना बड़ा साहस दिखाया है तो देश के आम आदमी को साथ देना चाहिये। यदि यह दस्तावेज गलत है तो उसके खिलाफ आपराधिक मानहानि का मामला कायम किया जा सकता है। यदि यह दस्तावेज सही है तो इस सौदे की गहन जांच होनी चाहिये। क्योंकि जो दस्तावेज सामने आये हैं उनमें राफेल की तकनीकी जानकारीयों की कोई चर्चा नही है। केवल खरीद प्रक्रिया पर सवाल उठाये हैं। यदि आज शीर्ष अदालत इसकी जांच के आदेश नहीं देती है तो इससे आम आदमी के विश्वास को बहुत धक्का लगेगा क्योंकि अब तो अर्टानी जनरल ने भी यह कह दिया है कि दस्तावेज चोरी नही हुए है अखबार में उनकी फेाटो कापी छपि है। इस परिदृश्य में यह आवश्यक हो जाता है कि शीर्ष अदालत अपनी देख रेख में इसकी जांच करवाये।

अभिनन्दन की वापसी के बाद जवाब मांगते सवाल

विंग कमांडर अभिनन्दन वतन वापिस आ गये हैं यह एक सुखद समाचार है। यह वापसी कैसे संभव हुई और इसका श्रेय किसको कितना मिलना चाहिये? इस पर हो सकता है कि लम्बे समय तक बहस और होड़ चलती रही क्योंकि अभी तत्काल में सवाल चुनाव का है। इसलिये इस पक्ष पर अभी सवाल को आगे बढ़ाना मेरी नजर में ज्यादा आवश्यक और महत्वपूर्ण नही है। यहां ज्यादा प्रमुख सवाल दूसरे हैं क्योंकि जब अभिनन्दन की वापसी हो रही थी तब भी सीमापार से गोलीबारी के समाचार बराबर आ रहे थे। इस गोलीबारी में हमारे जवानों के शहीद होने के समाचार बराबर आ रहे थे और यह सब कुछ चल ही रहा है। इस की न्यूज चैनलों में जिस ढ़ग से रिर्पोटिंग आ रही है उससे यही संकेत उभरे हैं कि युद्ध अवश्यंभावी है क्योंकि यह रिर्पोटिंग न्यूज एंकरों से ज्यादा उनके सेना और सरकार के अधिकारिक प्रवक्ता होने का अहसास करवा रहे हैं। सरकार इस रिर्पोटिंग पर खामोश चल रही है और खामोशी से इस अवधारणा को ही बल मिल रहा है। इस परिदृश्य में अब तक घटे पूरे घटनाक्रम पर फिर से नजर डालने की आवश्यकता हो जाती है।
घटनाक्रम के अनुसार पहले पुलवामा घटता है। इस आतंकी हमले में सी आर पी एफ के चालीस से ज्यादा जवान शहीद हो जाते हैं। जब इन जवानों के शव इनके पैतृक स्थानों पर पहुंचते हैं उस पर पूरे देश में आक्रोश फैल जाता है। देश के हर राज्य में लोग सड़कों पर कैण्डल मार्च पर उतर आते हैं। पाकिस्तान से कड़ा बदला लेने की मांग उठती है क्योंकि आम आदमी को यह बताया जाता है कि इस आंतकी घटना के पीछे पाकिस्तान का हाथ है। इस जनाक्रोश के बाद सरकार सेना को इससे निपटने के लिये खुला हाथ दे देती है और सेना एक बार फिर सर्जिकल स्ट्राईक करके आंतकियों के ठिकानों पर तेरह दिन बाद कारवाई करती है। न्यूज चैनलों के मुताबिक इस कारवाई में 150 से 350 तक आतंकी मारे जाते हैं। वैसे अधिकारिक तौर पर कहीं से कोई आंकडा जारी नही हुआ है। इस सर्जिकल स्ट्राईक को बड़ी कारवाई करार दिया जाता है। यह दावा किया जाता है कि पाकिस्तान के खिलाफ यह एक बड़ी कारवाई है। पाकिस्तान की एसैंम्बली में इसकी चर्चा उठती है और हमारे चैनल इस कारवाई को देश के लोगों के सामने परोसते हैं। पाकिस्तान एसैंम्बली में इमरान खान सरकार की निन्दा की जाती है और इस निन्दा का परिणाम होता है कि पाकिस्तान अपने जन दबाव में आकर बदले में सैनिक कारवाई कर देता है। इस कारवाई में पाकिस्तान का एक विमान नष्ट हो जाता है। हमारा भी एक विमान क्रैश हो जाता है। हमारा पायलट पाकिस्तान के कब्जे में चला जाता है। पाकिस्तान तुरन्त इस पायलट के उनके कब्जे मे होने की जानकारी सार्वजनिक कर देता है। यह जानकारी सार्वजनिक होते ही हमारी प्राथमिकता इस पायलट की सुरक्षा और इसकी घर वापसी हो जाती है। इस्लामाबाद हाईकोर्ट में पाकिस्तान का एक वकील इस पायलट पर पाकिस्तान में मुकद्दमा चलाने की मांग की एक याचिका दायर कर देता है। उच्च न्यायालय इस याचिका को रद्द करते हुये पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के फैसले को बहाल रखता है और अभिनन्दन की वापसी हो जाती है।
लेकिन इस वापसी के बाद भी घटनाएं जारी हैं इसलिये यह आवश्यक हो जाता है कि हम यह स्पष्ट हो पायें कि हमारी समस्या पाकिस्तान है या आतंकवाद। यदि समस्या पाकिस्तान है तो उस समस्या से निपटने के लिये क्या सैनिक कारवाई के अतिरिक्त और कोई दूसरा विकल्प है। इसके लिये तुरन्त एक सारे राजनैतिक दलों की बैठक बुलाकर उसमें यह फैसला लिया जाना चाहिये। यदि यह आम राय बनती है कि पाकिस्तान ही मूल समस्या है और युद्ध ही उसका एक मात्र हल है तो तुरन्त प्रभाव से एक राष्ट्रीय सरकार का गठन करके जिसमें सभी दलों का प्रतिनिधित्व हो एक फैसला लिया जाना चाहिये क्योंकि देश इसका स्थायी हल चाहता है। यदि समस्या आतंकवाद है तो उसके लिये घर के भीतर ही निपटना होगा जिस तरह से पंजाब और बंगाल में निपटा गया था। उसके लिये हमारी नीयत और नीति दोनो साफ होनी चाहिये। इस आतंकवाद से निपटने के नाम पर यह नही होना चाहिये कि हर मुसलमान आतंकी है। हर वह व्यक्ति जो हमारी विचारधारा से मेल नही खाता वह देश द्रोही है। आज उस देश में करीब पच्चीस करोड़ मुसलमान हैं जो वैसे ही नागरिक हैं जैसे हिन्दू और अन्य है। इतनी बड़ी मुस्लिम जनसंख्या के कारण ही आज हम इस्लामिक देशों के सम्मेलन में शामिल हो पाये हैं और जब हम इस सम्मेलन में शामिल हुए हैं तो इस अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के सामने यह हमारी जिम्मेदारी और जबावदेही बन जाती है कि हमारे मुस्लिम नागरिकों की ओर से उन पर किसी तरह के भेदभाव करने के आरोप हमारी सरकार पर न लगें। भेदभाव का आरोप सरकार के साथ हमारे राजनीतिक दलों पर भी नही लगना चाहिये। परन्तु आज यह दुर्भाग्य है कि सतारूढ़ दल भाजपा ने पिछले लोकसभा चुनावों में एक भी मुस्लिम को टिकट देकर चुनाव नही लड़वाया। बल्कि लोकसभा चुनाव के बाद विधान सभा चुनावों में भी ऐसा ही हुआ है। आज भाजपा सरकार में जो भी मुस्लिम चेहरे हैं वह सब मनोनित होकर आये हैं चयनित होकर नही। बल्कि सरकार बनने के बाद लव जिहाद और गौ रक्षा जैसे जितने भी मुद्दे सामने आयें हैं उनमें मुस्लिम एक पीड़ित वर्ग के रूप में ही सामने आया है। ऐसा क्यों और कैसे हुआ है इसका कोई संतोषजनक जवाब सामने नही आया है। इन्ही कारणों से आज भाजपा की छवि एक मुस्लिम विरोधी दल का रूप ले चुकी है जो दुर्भाग्यपूर्ण है।
इसलिये आज जहां देश इस रोज-रोज की आतंकी समस्या के स्थायी हल की मांग कर रहा है वहीं पर सरकार की स्थिति बहुत कठिन होती जा रही है। क्योंकि जम्मू कश्मीर में धारा 370 पर आज सरकार चुनाव की पूर्व संध्या पर कारवाई की बात कर रही है जबकि इस पर एक विस्तृत बहस की आवश्यकता है जिसके लिये आज समय नही है। इसी तरह कुछ और सवाल हैं जिनपर सरकार की ओर से जबाव नही आया है। गुजरात दंगों को लेकर 28 दिसम्बर को सर्वोच्च न्यायालय में आयी रिपोर्ट में कुछ मामलों में पुलिस को स्पष्ट दोषी ठहराया गया है लेकिन कोई कारवाई सामने नही आई है। राणा अयूब की ‘‘गुजरात फाईल्ज’’ पर भी चुप्पी कई सवाल खड़े करती है। यही नही अभी पुलवामा के बाद एक न्यूज साईट में हाफिज सईद और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथ मिलाते हुए एक फोटो दिखाया गया है और दावा किया गया है कि यह फोटो आजम खान ने जारी किया है। लेकिन इस पर सरकार की ओर से कोई प्रतिक्रिया नही आयी है। इसी तरह अब अभिनन्दन की वापसी के बाद यू टयूब में एक आडियो एवी डांडिया के हवाले से जारी किया गया है। यह सब कुछ सरकार की नीयत और नीति पर गंभीर सवाल खड़े करता है। लेकिन इस पर भी सरकार की ओर से कोई प्रतिक्रिया जारी नही की गयी है। यह कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर इस समय सरकार की ओर से प्रतिक्रिया आना आवश्यक है अन्यथा इस सबके परिणाम घातक होंगे।

क्या पुलवामा का विकल्प युद्ध ही है

पुलवामा आतंकी हमले के बाद प्रधानमंत्री ने देश को विश्वास दिलाया है कि शहीदों के खून का बदला लिया जायेगा। इसी के साथ यह भी स्पष्ट किया है कि सेना को इस संद्धर्भ में फैसला लेने का पूरा अधिकार दे दिया है। इस हमले का जवाब कब कहां और कैसे दिया जायेगा यह सब सेना तय करेगी। प्रधानमन्त्री के इस आश्वासन के बाद देशभर में उभरी प्रतिक्रियाओं में भी यही सामने आया है कि देश की जनता भी इसमें कोई निर्णायक कदम चाहती है। देश की यह प्रतिक्रिया स्वभाविक है क्योंकि इन्हीं घटनाओं में हमारेे सैंकड़ों सैनिक शहीद हो चुके हैं इन सैंकड़ों घरों के चिराग बुझे हैं। हर घटना के बाद ऐसी ही प्रतिक्रियाएं और ऐसे ही दावे सामने आते रहे हैं। सर्जिकल स्ट्राईक तक की गई। नोट बन्दी तक का देश ने स्वागत किया क्योंकि इससे आतंकवाद खत्म हो जायेगा यह कहा गया था। लेकिन आज पुलवामा ने इन सारे दावों पर नये सिरे से प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है। हर घटना के बाद पाकिस्तान को गाली देकर जनता के आक्रोश को शांत किया जाता रहा है। हर बार हर आतंकी घटना के पीछे पाकिस्तान का हाथ होने की बात की जाती रही है और पाकिस्तान हर बार इन आरोपों के ठोस सबूत मांगता रहा है। आज भी यही हो रहा है। यह सबूत हम मित्र देशों के साथ सांझा करने को तैयार हैं लेकिन पाकिस्तान को देने के लिये तैयार नही है। यह कैसी कूटनीति है? क्या हम मित्र देशों को दिये जाने वाले सबूत पाकिस्तान को भी साथ ही देकर अन्र्तराष्ट्रीय समुदाय में अपना पक्ष और पुख्ता नही कर सकते हैं? क्योंकि पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री यही कह रहे हैं कि सबूत दो तो हम करवाई करेंगे और उन्होने जमात-उद-दावा तथा फलह-ए-इन्सानियत फाऊंडेशन के खिलाफ कारवाई शुरू कर दी है। इन संगठनों के पाकिस्तान में 300 से ज्यादा मदरसे स्कलू, अस्पताल, एम्बुलैन्स सेवा-प्रकाशन संस्थान और 50,000 स्वयं सेवक कहे जाते हैं। यदि सही में पाकिस्तान ने इन संगठनों के खिलाफ कोई ठोस कदम उठाये हैं तो अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में उसकी बात भी सुनी जायेगी। ऐसे में क्या यह सही नही होगा कि भारत सरकार पाकिस्तान के इन दावों की पड़ताल करके इसका सच देश और दुनिया के सामने रखे। क्योंकि युद्ध एक भयानक विकल्प है। न्यूर्याक के तीन विश्वविद्यालयों के एक अध्ययन की जो रिपोर्ट न्यूर्याक टाईम्स के माध्यम से सामने आयी है उसमें एक ही दिन में करोड़ो लोगों के मरने की आशंका जताई गयी है। रिपोर्ट के मुताबिक यदि युद्ध होता है तो उसके परिणाम सदियों तक भुगतने पड़ेंगे। क्योंकि दोनों देशों के पास परमाणु हथियार है और पाकिस्तानी सेना पर जिस ढंग से वहां के आतंकी संगठनों को सहयोग करने के आरोप लगते आये हैं उससे यह खतरा और बढ़ जाता है। युद्ध में जानेे से पहले इसे भी ध्यान में रखना आवश्यक होगा।
क्योंकि यह एक स्थापित सत्य है कि आतंकी को मार देनेे से ही आतंकी का खात्मा नही हो जाता है। मार देने से केवल अपराधी गैंग समाप्त किये जा सकते हैं। यदि आतंक विचार जनित है तो उसके लिये समानान्तर विचार लाया जाना आवश्यक हैं जम्मूकश्मीर में यह सामने आ चुका है कि सेना की कारवाई का विरोध वहां के छात्रों/युवाओं ने पत्थरबाजी से दिया। हजारों पत्थरबाजों को जेल में डाला गया और फिर छोड़ना पड़ा। पत्थबाजी की इस मानसिकता को समझना होगा। आज केन्द्र सरकार ने वहां के अठारह नेताओं की सुरक्षा वापिस ले ली है। इन नेताओं पर आरोप है कि यह लोग अलगाववादी गतिविधियों को समर्थन देते हैं। इन्हें विदेशों से आर्थिक मदद मिलती है। यदि यह आरोप सही हैं तो फिर सरकार पर ही यह सवाल आता है कि फिर इन लोगों को यह सुरक्षा दी ही क्यों गयी थी? क्योंकि विदेशों से गैर कानूनी तरीके से आर्थिक मदद लेना एक बहुत बड़ा अपराध है और फिर उस मदद से अलगाववाद को बढ़ावा देना तो अपराध को और बड़ा कर देता है। क्या सरकार इन लोगों को सुरक्षा देकर स्वयं ही अपरोक्ष में इन गतिविधियों को बढ़ावा नही दे रही थी? पुलवामा के बाद सारे देश मेे जहां कही भी कश्मीरी छात्र पढ़ रहे थे उन्हें प्रताड़ित किये जाने की घटनाएं समाने आयी है और सर्वोच्च न्यायालय को इन्हें सुरक्षा दिये जाने के आदेश करने पड़े हैं। क्या इस तरह की घटनाओं से जम्मू कश्मीर का आम नागरिक विचलित नही होगा। वह क्या सोचगा? वहां के हर नागरिक को तो आतंकी करार नही दिया जा सकता फिर जिन नेताओं की सुरक्षा वापिस ली गयी है उनके खिलाफ सरकार केे पास क्या पुख्ता प्रमाण है? इन्हे अभी तक देश के सामने नही रखा गया है। आज सबसे पहले देश को विश्वास में लेने की आवश्यकता है क्योंकि यह पुलवामा में उस समय घटा है जब देश लोकसभा चुनावों में जा रहा है। पुलवामा में हुई सुरक्षा की चुक को लेकर सरकार पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं। जब गुप्तचर ऐजैन्सीयों ने सरकार को पहले ही आगाह कर दिया था तो फिर उस चेतावनी को किसके स्तर पर और क्यों नजरअन्दाज किया गया? यह सही है कि देश अब कोई निर्णायक हल चाहता है। युद्ध को ही विकल्प माना जा रहा है। लेकिन युद्ध के परिणाम क्या होंगे उससे कितना विनाश होगा इसका अनुमान भावनाओं में बहकर नही लगाया जा सकता। युद्ध की अपरिहार्यता के ठोेस कारण देश के सामने रखने होंगे और इसके पीछे किसी भी तरह की कोई राजनीतिक मंशा नही रहनी चाहिये। क्योंकि देश चुनावों में जा रहा है और सरकार का हर कदम चुनावी चर्चा का विषय बनेगा यह तय है।

सत्ता के पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर खोजना होगा आतंक का हल

जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में गुरूवार को हुए आतंकी हमले में सीआरपीएफ के 40 जवान शहीद हो गये हैं। पूरा देश इस कायराना हमले के बाद सदमे और आक्रोश में है। हरके इस घटना की निन्दा करते हुए यह सवाल पूछ रहा है कि यह सब कब तक चलता रहेगा? मोदी सरकार के शासन में आतंक की यह सत्राहवीं घटना है। उड़ी में 18 सितम्बर 2016 को हुई आंतकी घटना में सेना बीस जवान शहीद हो गये थे और भारत ने उसका जवाब देते हुए 20 सितम्बर 2016 को ही पाक सीमा में घुसकर सर्जीकल स्ट्राईक करके आतंकीयों के सात ठिकानां को नष्ट करते हुए 38 आतंकीयों को मार भी गिराया था। इस सर्जीकल स्ट्राईक को सरकार का बड़ा कदम माना गया था। इस स्ट्राईक के बाद यह दावा किया गया था कि आतंकी गतिविधियों को शह देने वाले पाकिस्तान को कड़ा सबक सिखाया जायेगा। लेकिन इस स्ट्राईक के बाद भी यह घटनाएं रूकी नही है। बल्कि अब एक सप्ताह पहले ही खुफिया ऐजैन्सीयों के अर्लट के वाबजूद यह घटना अपने में बहुत सारे सवाल खड़े कर जाती है। यह सोचने पर विवश होना पड़ता है कि क्या जम्मू-कश्मीर को लेकर हमारी नीति सही भी है या नही।
हर आतंकी घटना के बाद उसकी निन्दा की जाती है और उसके पीछे पाकिस्तान का हाथ होने का आरोप लगाया जाता है। टीवी चैनलों पर बहस चलती है और उस बहस में सेना के कई सेवानिवृत बड़े अधिकारियों को बुलाकर उनकी राय/प्रतिक्रिया ली जाती है। कई चैनल पाकिस्तान के पीरजादा तक की प्रतिक्रिया ले लेते हैं। इस प्रतिक्रिया में आरोप-प्रत्यारोप लगाये जाते हैं जिनसे कोई परिणाम नही निकलता है केवल इसी धारणा को पुख्ता किया जाता है कि इन आतंकी घटनाओं के पीछे पाकिस्तान का हाथ है। इस बार भी यही हुआ है। इस बार सेना के कुछ विशेषज्ञों ने सेना के लिये खरीदे जा रहे उपकरणों की खरीद प्रक्रिया पर उठने वाले सवालों पर यह कहकर एतराज जताया है कि इससे सेना की तैयारीयों पर असर पड़ता है। शायद उनका इंगित राफेल पर चल रहे वाद विवाद की ओर था। लेकिन इस घटना पर जो प्रतिक्रिया केन्द्र के राज्य मन्त्रा जितेन्द्र सिंह की आयी है उसमें पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की भूमिका पर भी सवाल उठाया गया है। जितेन्द्र सिंह की प्रतिक्रिया से ऐसा लग रहा था कि वह इस घटना पर राजनीतिक सवाल उठा रहे थे। अभी अफजगुरू की फांसी की बरसी के मौके पर जिस तरह से महबूबा मुफ्ती की प्रतिक्रिया रही है शायद जितेन्द्र सिंह उस पर अपना आक्रोश व्यक्त कर रहे थे। क्या केन्द्रिय मंत्री की इस तरह की प्रतिक्रया इस मौके पर आनी चाहिये थी यह एक अपने में बड़ा सवाल है।
आज देश के सामने बड़ा सवाल यह है कि यह सब कब तक चलता रहेगा? और यह सवाल देश की सरकार से ही पूछा जायेगा। आतंक को पाकिस्तान समर्थन दे रहा है देश यह लम्बे अरसे से सुनते आ रहे हैं। लेकिन इसी के साथ एक सच यह भी है कि पाकिस्तान इन घटनाओं को अंजाम देने के लिये हमारे ही युवाओं को इस्तेमाल कर रहा है। उन्हे ही आतंक की ट्रेनिंग दी जा रही है और ट्रेनिंग के बाद हथियार और गोलाबारूद दिया जा रहा है। यह सब हम सुनते आ रहे हैं लेकिन इसे रोक नही पाये हैं। पिछले दिनां यह भी सामने आया है कि अब गोला बारूद की जगह पत्थरबाजी लेती जा रही है। इन पत्थरबाजों के खिलाफ सेना ने कारवाई भी की है। इस कारवाई पर जम्मू-कश्मीर के बड़े नेताओं डा. फारूख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती की प्रतिक्रिएं भी आयी हैं। लेकिन क्या इन प्रतिक्रियाओं के तर्क का गुण दोष देश के सामने रखा गया। भाजपा के साथ अब्दुल्ला और महबूबा दोनां काम कर चुके हैं। महबूबा के साथ तो अभी भाजपा सरकार में भी भागीदार थी। लेकिन इस भागीदारी के बावजूद आज तक देश के सामने यह नही रखा गया कि आखिर जम्मू-कश्मीर की समस्या है क्या? वहां का युवा आतंकी क्यों बनता जा रहा है। वहां के नेतृत्व की इसमें क्या भूमिका है? उस भूमिका को सारे देश के सामने क्यों नही रखा जा रहा है? जब पाकिस्तान का ही हाथ इन घटनाओं के पीछे है तो फिर इसके खिलाफ आज तक कोई बड़ी राजनीतिक कारवाई क्यों नही की जा सकी है। जब पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र घोषित करने का प्रस्ताव यूएन में आया था तब चीन ने उस पर वीटो की थी। आज चीन के साथ हमारे व्यापारिक रिश्ते बहुत आगे है। देश के हर प्रदेश में चीन को काम मिला हुआ है। फिर हम चीन को इसके लिये सहमत क्यां नही कर पाये हैं कि वह इस मुद्दे पर भारत का साथ दे। हमारे प्रधानमंत्रा पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री के यहां एक समारोह में अचानक पहुंच गये थे। वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रकाश वैदिक पाकिस्तान के एक बड़े आतंकी नेता से मुलाकात करके आये थे और यह चर्चा रही थी कि वह प्रधानमन्त्री के दूत बन कर गये थे। लेकिन इस सबका आखिर परिणाम क्या रहा? आतंकी घटनाएं बराबर जारी हैं। पाकिस्तान के साथ हमारे राजनीतिक रिश्ते अपनी जगह कायम हैं।
यही नही भाजपा जनसंघ के समय से ही जम्मू-कश्मीर में धारा 370 का विरोध करती आयी है। यह उसका एक बड़ा मुद्दा रहा है। आज केन्द्र में जिस प्रचण्ड बहुमत के साथ भाजपा की सरकार रही है शायद आगे इतने बड़े बहुमत के साथ कोई सरकार न बन पाये। लेकिन इस सरकार ने धारा 370 हटाने के लिये कोई कदम नही उठाया। बल्कि जम्मू-कश्मीर के संविधान की धारा 35। के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में आयी याचिका पर केन्द्र सरकार का स्पष्ट पक्ष सामने नही आया है। ऐसे कई मुद्दे हैं जिन पर केन्द्र सरकार अपना पक्ष स्पष्ट नही कर पायी है। नोटबंदी लाते हुए भी एक बड़ा तर्क यह दिया गया था कि इससे आतंकवाद खत्म हो जायेगा। लेकिन ऐसा कुछ हो नही पाया है। इससे सीधे यह सवाल उठता है कि इस आतंकवाद की समस्या को राजनीति से ऊपर उठकर हल करने की आवश्यकता है। इसके लिये सारे राजनीतिक दलों को एक होकर इसका हल खोजना होगा। आज देश का कितना बड़ा बजट हमारी रक्षा तैयारियों पर खर्च हो रहा है और इन तैयारियों के नाम पर हम अत्याधूनिक हथियार व गोलाबारूद संग्रह करने के अतिरिक्त और क्या कर रहे हैं। लेकिन जब भी यह हथियार और गोला बारूद चलेगा तो इससे केवल विनाश ही होगा यह तय है। ऐसे में आज आवश्यकता इस बात की है कि समस्याओं को सत्ता के तराजू में तोलते हुए उन्हें आम आदमी के नजरिये से देखा जाये क्योंकि आम नागरिक की कहीं के भी दूसरे नागरिक से कोई शत्रूता नही होती है यह शत्रूता केवल राजनीतिक सत्ता की देन है और अब इससे ऊपर उठना होगा।

मोदी-ममता की जीत में चिट फण्ड का पीड़ित हारा

क्या देश सत्ता की राजनीति के आगे हारता जा रहा है? क्या सत्ता ही एक मात्र सरोकार रह गया है? क्या सत्ता के आगेे सबकुछ बौना पड़ गया है? आज यह सवाल शायद हर संवेदनशील व्यक्ति के ज़हन में उठ रहे हैं। क्योंकि पिछले दिनों जो कुछ मोदी और ममता के बीच घटा उससे यही सवाल तो उभरकर सामने आते हैं। 2014 में जब केन्द्र में सत्ता परिवर्तन हुआ था तब पूरा चुनावी परिदृश्य भ्रष्टाचार के गिर्द घूम गया था। अन्ना का लोकपाल के लिये आन्दोलन इसका सबसे बड़ा गवाह है। आज जब फिर लोकसभा के चुनाव सामने हैं और फिर सत्ता का फैसला होने जा रहा है तब फिर वही सबकुछ अपने को दोहराता नज़र आ रहा है। भ्रष्टाचार जहां 2014 में खड़ा था आज 2019 में भी वहीं खड़ा है। भ्रष्टाचार के जो मुद्दे उस समय खड़े थे उन पर पांच वर्षों के कार्यकाल में कुछ भी आगे नहीं बढ़ा है। अन्ना को फिर अनशन पर बैठना पड़ा। लेकिन इस बार अन्ना ने यह अवश्य स्वीकारा है कि 2014 में मोदी और केजरीवाल ने उनका इस्तेमाल किया था। परन्तु इस अनुभव के बाद भी अन्ना यह नहीं बता पाये कि वह इन चुनावों मे किसका समर्थन करेंगे। यह चुप्पी अन्ना की ईमानदारी है या विवशता इसका फैसला पाठकों को स्वयं करना होगा।
भ्रष्टाचार आज व्यवस्था की सबसे बड़ी बीमारी है और सभी इससे सहमत भी हैं। 1975 के आपातकाल के बाद हुए हर चुनाव में भ्रष्टाचार मुद्दा रहा है। भ्रष्टाचार कतई बर्दाश्त नही होगा और भ्रष्टाचारी को कड़ी से कड़ी सजा़ दी जायेगी यह वायदे भी हर चुनाव में मिले हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ जांच आयोग भी बैठे लेकिन क्या कोई ठोस परिणाम सामने आया है शायद नही। हां इस दौरान राज्यों में लोकायुक्त अवश्य स्थापित हुए हैं लेकिन क्या लोकायुक्त भी कोई स्मरणीय परिणाम दे पाये हैं? शायद इसका जबाव भी नहीं ही हैै। ऐसे में जब लोकायुक्त परिणाम नही दे पाये हैं तो लोकपाल क्या परिणाम देंगे इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। भ्रष्टाचार पर देश की सबसेे बड़ी जांच ऐजेन्सी सीबीआई के शीर्ष अधिकारियों ने एक दूसरे के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाये हैं यह देश देख चुका है। सीबीआई सीधे प्रधानमन्त्री के नियन्त्रण में है और पीएमओ इन अधिकारियों के झगड़े पर तब तक खामोश बैठा रहा जब तक की एफआईआर दर्ज होने और उच्च न्यायालय तक जाने की नौबत नही आ गयी। इसके बाद जो कुछ सरकार ने किया सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार की इस कारवाई को गलत करार दिया। लेकिन उसी सर्वोच्च न्यायालय का जब राफेल पर फैसला आया और उस फैसले पर अभी प्रतिक्रियाओं में जब सरकार पर शीर्ष अदालत में गलत ब्यानी का आरोप लगा तब सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को यह कह दिया कि अदालत ने सरकार के जवाब में प्रयुक्त व्याकरण और भाषा को सही से नही समझा है। सरकार ने शीर्ष अदालत में यह सबकुछ लिखकर दिया है और आग्रह किया है कि इसे सुधार लिया जाये। लेकिन अभी तक शीर्ष अदालत ने सरकार के इस आग्रह पर आगे कुछ नही किया है। इस कुछ न करने से यह कहना कठिन है कि कौन सही है।
इसी तरह बंगाल में घटा चिटफण्ड घोटाला तो हुआ है। जनता के हजारों करोड़ों इसमें डूबे हैं। इतने बड़े घोटाले के पीछ किसी का राजनीतिक और प्रशासनिक आशीर्वाद न रहा यह विश्वास करना भी कठिन है लेकिन आज यह मामला किस तरह राजनीति की भेंट चढ़ रहा है यह देश के सामने आ गया है। जब इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने राजीव कुमार की गिरफ्तारी पर रोक लगाते हुए उसे सीबीआई के पास पेश होने के निर्देश दिये तो इसे ममता और मोदी दोनों ने अपनी जीत करार दिया। जब दोनों की ही जीत हुई है तो निश्चित रूप से इसमें हर वह आदमी हारा है जिसका पैसा इस घोटाले में डूबा है। क्योंकि अब घोटाले से पहले यह जांच होगी कि इसमें सीबीआई सही था या राजीव कुमार। इसमें अब राजनीति के लिये दोनो पक्षों को खुला मैदान मिल गया है। क्योंकि इसी मामले में जिस टीएमसी सांसद मुकुल कुमार से सीबीआई पूछताछ कर चुकी है वह अब भाजपा में शामिल हो चुका है। यही नही वह आईएस अधिकारी भारती घोष जिसके यहां छापेमारी में 2.5 करोड़ की रिकवरी हुई थी वह भी भाजपा में शामिल हो चुकी है। इसी के साथ सीबीआई के जिस निदेशक नागेश्वर राव के निर्देशों पर ऐजैन्सी के चालीस लोगों की टीम राजीव कुमार के यहां छापेमारी के लिये गयी थी उसकी पत्नी और बेटी के खिलाफ बंगाल में चल रही जांच का प्रकरण भी सामने आ गया है। इस तरह एक दूसरे के खिलाफ राजनीतिक फायरिंग करने के लिये काफी बारूद इकट्ठा हो गया है। इस पर अब खुलकर इन चुनावों तक राजनीति होगी और चिटफण्ड घोटाला अगले चुनावों तक ऐसे ही धीरे-धीरे सुलगता रहेगा। यही सबकुछ अखिलेश, माया, हुड्डा और वाड्रा के मामलों का सच है। हर चुनाव से पहले उठेंगे और फिर शांत हो जायेंगे। 1984 के दंगो में अब सज़ा की बारी आयी है इसी तरह संभव है कि गुजरात दंगा के दोषीयों  की बारी भी चालीस साल बाद आ जाये क्योंकि हत्यायें तो वहां भी हुई हैं।
यह सब एक भयानक सच है कि आज देश के राजनीतिक नेतृत्व को अपराध और भ्रष्टाचार से राजनीति से हटकर कोई सरोकार नही रह गया है। न्यापालिका भी अब इसमें बराबर की भागीदार बनती जा रही है क्योंकि दशकों तक लोकहित के मामले लंबित रखे जा रहे हैं। जांच ऐजैन्सीयों की जिम्मेदारी अदालतें अपने फैसलों में तो लगा देती हैं लेकिन उसके बाद उन निर्देशों /आदेशों पर कितना अमल हुआ है यह जानने का प्रयास ही नही किया जाता। क्योंकि सामाजिक सरोकारों के लिये कोई भी गंभीर और संवेदनशील नही रह गया है। हर अपराध और भ्रष्टाचार को सत्ता की सीढी बनाकर इस्तेमाल किया जा रहा है। सत्ता के लिये सारी स्थापित रिवायतों को तोड़ा जा रहा है और फिर उसे जायज़ भी ठहराया जा रहा है। इस पर सवाल उठाने वाले को आसानी से वैचारिक विरोधी करार दे दिया जाता है। आज सत्ता इस राजनीति के आगे तो शायद राम भी हारते जा रहे हैं। क्योंकि जब मन्दिर निर्माण के लिये साधुओं ने कूच कर दिया है तो वहां पर होने वाली कानून और व्यवस्था की जिम्मेदारी किसी भी संगठन को लेने की आवश्यकता ही नही रह जाती है। इसी परिदृश्य में तो वीएचपी ने चार माह के लिये अपना आन्दोलन स्थगित किया है। राजनीति की इस पराकाष्ठा के बाद शायद यही कहना पड़ेगा कि आज की राजनीति के आगे सिर्फ देश हार रहा है।

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