संसद में राष्ट्रपति अभिभाषण पर चली बहस अन्त में जवाब देते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस अंदाज में आपातकाल और देश के मुस्लिमों का जिक्र उठाया है उससे कई अहम सवाल फिर से खडे़ हो गये हैं जिन पर खुली बहस की आवश्यकता जरूरी हो गयी है। प्रधानमंत्री ने बड़े स्पष्ट शब्दों में यह कहा है कि यदि आपातकाल के समय देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी भूमिका ईमानदारी से निभाई होती तो शायद आपातकाल न लग पाता। आपातकाल आज से 44 वर्ष पहले 25 जून 1975 को लगा था। उस समय आपातकाल से पहले की स्थितियां क्या रही थीं नरेन्द्र मोदी ने उनका जिक्र नही किया है। 1971 मे आम चुनाव हुए थे और कांग्रेस को एक अच्छा बहुमत मिला था क्योंकि उस समय चुनावों की पृष्ठभूमि में पूर्व राजाओं के प्रिविपर्स समाप्त करना और बैंकों का राष्ट्रीयकरण जैसे आर्थिक फैसले तथा बंगला देश जैसे राजनीतिक घटनाक्रम देश के सामने थे। लेकिन उस समय श्रीमति गांधी के रायबरेली से चुनाव को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती मिली। उच्च न्यायालय ने 12 जून 1975 को अपने फैसले में इस चुनाव को रद्द कर दिया। इस फैसले की सर्वोच्च न्यायालय में अपील की गयी और सर्वोच्च न्यायालय ने 24 जून को दिये अपने फैसले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को बहाल रखा।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद श्रीमति गांधी पर पद त्याग के लिये दवाब आया। लेकिन श्रीमति गांधी ने पद त्यागने के बजाये अपने सलाहकारों की राय पर अमल करते हुए देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। महत्वपूर्ण विपक्षी नेताओं को जेलों में डाल दिया गया। अखबारों पर सैन्सर लगा दिया। आपातकाल में नेताओं की रिहाई के लिये बंदी प्रत्याक्षीकरण याचिकाएं उच्च न्यायालय में आयी। सर्वोच्च न्यायालय ने इन याचिकाओं को अपने पास ट्रांसफर कर लिया और एडीएम जबलपुर बनाम शिवकान्त शुक्ल नाम से यह मामला वहां आ पहुंचा। पांच जजों की संविधान पीठ में इसकी सुनवाई हुई। चार जजों ने सरकार ने अपातकाल लागू करने के फैसले को जायज ठहराया। केवल जस्टिस एचआर खन्ना ने इसके विरोध में फैसला दिया। आपातकाल को जायज ठहराने वाले जज थे चीफ जस्टिस ए एन रे, जस्टिस एम एच वेग, जस्टिस वाई वी चन्द्रचूड़ और जस्टिस पी एन भगवती। आपातकाल में करीब 63 लोगों की जेलों में मौत हो गयी थी। उस समय यदि सर्वोच्च न्यायालय का बहुमत इस आपातकाल का समर्थन न करता तो शायद आज परिस्थितियां कुछ भिन्न होती। आपातकाल 44 वर्ष पहले लगा था और तब से लेकर अब तक बहुत पानी बह चुका है। देश ने 1984 के दंगो से लेकर गोधरा कांड और समझौता ब्लास्ट जैसे कई दृश्य देख लिये हैं। आर्थिक मोर्चे पर नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक देश बहुत कुछ झेल चुका है। हर घटना में लोगों की जाने गयी हैं इस सच्च को झुठलाना संभव नही है। समय कब करवट बदलेगा कोई नही जानता लेकिन यह शाश्वत सत्य है कि प्रकृति ना कभी कुछ भूलती है और न ही माफ करती है।
2014 में जब देश की जनता ने भाजपा /मोदी को सत्ता सौंपी थी उस समय क्या दावे और वायदे किये गये थे और उनमें से आज कितने पूरे हुए हैं यह न तो जनता को भूला है और ही शासक वर्ग को इसकी याद दिलाने की जरूरत है। आज की सच्चाई यह है कि सरकार को रिजर्व बैंक से आरक्षित निधि में से पैसा मांगना पड़ रहा है। आरक्षित निधि में से यह पैसा दिया जाना चाहिये या नहीं इस पर आरबीआई में एक राय न होने से इसके दो गवर्नर और एक डिप्टी समय से पहले ही अपने पद त्याग चुके हैं। देश के आर्थिक सलाहकार रहे अरविन्द सुब्रहमण्यम का आर्थिक वृद्धि दर का आकलन अन्तर्राष्ट्रीय बहस का विषय बन चुका है। इन तथ्यों की भले ही आम आदमी को समझ न हो लेकिन इनका अन्तिम प्रभाव इसी आम आदमी पर पड़ेगा यह तय है। आज आम आदमी मंहगाई और बेरोजगारी से पीड़ित है यह एक कड़वा सच है।
आज सरकार को जो अभूतपूर्व जन समर्थन इन चुनावों में मिला है उसको लेकर जो ईवीएम पर दोष डाला जा रहा है उसकी पृष्ठभूमि 2001 में मद्रास उच्च न्यायालय 2002 केरल उच्च न्यायालय और 2004 में कर्नाटक उच्च न्यायालयों में आयी याचिकाएं भी हैं। इसी के साथ आज 20 लाख ईवीएम मशीने गायब होने को लेकर मुम्बई उच्च न्यायालय और ग्वालियर उच्च न्यायालय में आयी याचिकाएं भी हैं। गायब हुई मशीनों पर फैसला देना आज देश की उच्च न्यायपालिका के लिये शायद आपातकाल से भी बड़ा टैस्ट बन चुका है। इन गायब मशीनों पर चुनाव आयेग की खामोशी से न केवल आयेग की अपनी विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल खड़े हो गये हैं बल्कि सरकार को मिले इस भारी जन समर्थन पर भी सवालिया निशान लगा दिया है। आज यह प्रधानमंत्री को तय करना है कि वह इस विश्वास को कैसे बहाल करते हैं। क्योंकि कांग्रेस को कोसने से यह विश्वास बहाल नही हो सकता। बल्कि जिस तरह से राजनीतिक तोड़फोड़ शुरू हो चुकी है और सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में जो प्रैस की आज़ादी पर परोक्ष/अपरोक्ष अंकुश लगाने के प्रयास हुए हैं उससे एक बार फिर आपात जैसी आशंकाएं उभरने लग पड़ी हैं।
देश में लोकसभा से लेकर नीचे पंचायत स्तर तक जन प्रतिनिधियों का चुनाव प्रत्यक्ष मतदान प्रक्रिया से होता है। यह व्यवस्था संविधान में की गयी है। इस व्यवस्था संचालन के लिये संसद और विधानसभाओं के चुनाव की जिम्मेदारी चुनाव आयोग को दी गयी है। यह चुनाव निष्पक्ष हों इसके लिये चुनाव आयोग को संवैधानिक स्वायतता दी गयी है। पंचायतीराज संस्थाओं के चुनावों की जिम्मेदारी राज्य सरकारों के पास है और अब राज्यों में भी इसके लिये स्वायत निर्वाचन आयोगों की व्यवस्था कर दी गयी है। केन्द्र से लेकर राज्यों तक इस निर्वाचन तन्त्र को स्वायतता प्रदान करने का अर्थ है कि हर स्तर पर निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित हों। जब स्वतन्त्रता के बाद 1952 में पहली बार चुनाव करवाये गये थे तब पूरे देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे। लेकिन 1967 में यह व्यवस्था बिगड़ी जब कुछ राज्यों में संबद्ध सरकारों का गठन हुआ। राज्यों में राजनीतिक समीकरण बिगड़ने शुरू हुए और मध्यावधि चुनाव करवाने पड़े। लोकसभा में भी यह समीकरण बिगड़े और वहां भी मध्यावधि चुनाव करवाये गये।
आज स्थिति यह बन चुकी है कि देश में हर वर्ष किसी न किसी राज्य में चुनाव हो जाते हैं। जब यह चुनाव अलग-अलग होते हैं तो स्वभाविक है कि इन पर धन और समय दोनों ही अत्याधि खर्च हो जाते हैं। इस पृष्ठभूमि में यदि पूरी चुनावी व्यवस्था का एक निष्पक्ष आकलन किया जाये तो यह आवश्यकता महसूस होती है कि यदि सारे चुनाव एक साथ करवा दिये जाये तो धन और समय दोनों में महत्वपूर्ण बचत की जा सकती है। इसलिये अब जब प्रधानमन्त्री ने ‘‘एक देश एक चुनाव’’ को लेकर सर्वदलीय बैठक का आयोजन किया है तो सिद्धान्त रूप में इसका स्वागत है। अभी इस कार्यकाल के एक तरह से पहले ही दिन इस महत्वपूर्ण विषय को सार्वजनिक बहस के लिये प्रस्तुत करना एक सराहनीय कदम है। वैसे तो पिछले कार्यकाल में जब संसद का संयुक्त सत्र बुलाया गया था तब महामहिम राष्ट्रपति ने यह विषय को माननीयों के सामने रखा था। उस समय कुछ देर के लिये इस पर सार्वजनिक चर्चाएं भी हुई थी। लेकिन यह विषय कोई ज्यादा आगे नही बढ़ा क्योंकि उस समय प्रधानमन्त्री ने इसमें सीधे दखल नही दिया था। अब प्रधानमन्त्री ने स्वयं सर्वदलीय बैठक बुलाकर यह बहस उठायी है तो निश्चित है कि यह अपने अंजाम तक पहुंचेगा ही। इस बार जो बहुमत भाजपा और एनडीए को मिला है वह जनता के समर्थन का प्रत्यक्ष प्रमाण है। इसलिये इस विषय पर सभी दलों की सहमति केवल एक राजनीतिक औपचारिकता से अधिक कुछ नही है। सीधा है कि यदि प्रधानमन्त्री इस पर गंभीर और ईमानदार हैं तो यह फैसला हो जायेगा और इसे अमलीशक्ल मिल जायेगी। क्योंकि इस आश्य का संसद में विधेयक लाया जायेगा जहां यह पारित हो जायेगा और राज्यों की विधानसभाओं का अनुमोदन भी हासिल हो जायेगा।
प्रश्न केवल यह होगा कि इसे कब से लागू किया जायेगा। क्योंकि जब भी इसे लागू करने की बात आयेगी तब लोकसभा या राज्यों की विधानसभाओं को भंग करने की नौबत आयेगी ही। इसलिये यह स्पष्ट है कि ‘‘एक देश एक चुनाव’’ के लिये एक बार तो इन्हे भंग करना ही पड़ेगा इस समय लोकसभा से लेकर अधिकांश राज्यों में भाजपा की ही सरकारें हैं इसलिये यह फैसला एक तरह से भाजपा को ही लेना है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि नरेन्द्र मोदी ने यह बहस पहले ही दिन क्यों छेड़ दी। लोकसभा का अगला चुनाव अब 2024 में होगा तो क्या इस पर उस समय अमल किया जायेगा। क्या उस समय सारी विधानसभाओं को भंग किया जायेगा? यह एक बड़ा सवाल होगा। यदि 2024 से पहले यह किया जाता है तो क्या इस लोकसभा को भंग किया जायेगा। इसी के साथ इस पक्ष पर भी विचार करना होगा कि यदि किसी राज्य में किसी कारण से राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है तो क्या यह शासन उस विधानसभा के शेष बचे पूरे कार्यकाल के लिये होगा या शेष बची अवधि के लिये ही चुनाव करवाये जायेंगे। लेकिन यह चुनाव करवाने से ‘‘एक देश एक चुनाव’’ का नियम भंग होगा और ऐसे में शेष बची पूरी अवधि के लिये राष्ट्रपति शासन ही एक मात्र विकल्प रह जाता है। इसलिये यह फैसला केवल प्रधनमन्त्री मोदी के अपने ऊपर निर्भर करेगा। यदि अब इस पर फैसला न लिया जा सका तो यह प्रधानमंत्री की अपनी छवि पर एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह बन जायेगा।
यह सही है कि ‘‘एक देश एक चुनाव’’ लागू होने से धन और समय की बचत हो जायेगी। लेकिन क्या इस बचत से चुनावों की विश्वसनीयता पर इस समय लग रहे सवालों से छुटकारा मिल जायेगा। आज इन चुनावों को लेकर एक याचिका सर्वोच्च न्यायालय में मनोहर लाल की आ चुकी है। एक भानू प्रताप सिंह ने विस्तृत ज्ञापन महामहिम राष्ट्रपति को सौंप रखा है। इसी के साथ बीस लाख ईवीएम गायब होने को मुबंई और ग्वालियर उच्च न्यायालयों में याचिकायें लंबित है। इन पर अन्ततः फैसले तो आयेंगे ही और यह फैसले चुनाव आयोग से लेकर स्वयं उच्च न्यायपालिका की अपनी विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल होंगे। प्रधानमंत्री द्वारा छेड़ी गयी यह बहस यदि इन उठते सवालों से ध्यान हटाने का ही प्रयास होकर रह गयी तो इसके परिणाम घातक होगे।
लोकसभा चुनावों में जो लगभग एक तरफा समर्थन भाजपा नीत एनडीए को मिला है और विपक्ष की जो शर्मनाक हार हुई है उस पर हिमाचल के पूर्व मुख्यमन्त्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता शान्ता कुमार की एक तात्कालिक प्रतिक्रिया आयी थी। शान्ता कुमार ने इस स्थिति को लोकतन्त्र के लिये खतरा कहा था। इस प्रतिक्रिया से शान्ता कुमार का क्या मंनव्य रहा है इसका उन्होंने कोई विस्तृत खुलासा नही किया है और न ही किसी ने शान्ता के इस ब्यान पर कोई प्रतिक्रिया जारी की है। लेकिन सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में देश के बाद अब तक जो तथ्य सामने आये हैं उनमें सबसे पहले यह आंकड़ा आया कि वर्ष 2018-19 में देश के बैंकों में 71500 करोड़ का फ्राॅड हुआ है। वैसे अब इसमें यह भी जुड़ गया है कि पिछले ग्याहर वर्षों में बैंकों में दो लाख करोड़ का फ्रॅाड हुआ है। इसी के साथ यह आंकड़ा भी सामने आ गया है कि बेरोजगारी की दर पिछले 4 वर्षों के सबसे ऊंचे रिकार्ड पर पहुंच गयी है और इसमें शहरी बेरोज़गार का आंकड़ा सबसे अधिक है। अमरीका ने भारत से निर्यात होने वाले उन उत्पादों पर अब डयूटी लगा दी है जो पहले इससे मुक्त थे। अमरीका के इस फैसले से देश के निर्यातकों को करीब 40,000 करोड़ का नुकसान होगा। सरकार ने देश के किसानों को जो राहत का दायरा बढ़ाया है उससे 87500 करोड़ रूपया इनके खातों में जायेगा। लेकिन इसी फैसले के साथ-साथ ही यह जानकारी भी बाहर आयी है कि सरकार ने 90,000 करोड़ की संपत्तियां बेचने का फैसला लिया है और 2800 करोड़ की संपत्तियां बेच भी दी है। डाॅलर के मुकाबले में रूपया लगातार कमजोर होता जा रहा है। चुनावों के बाद बहुत सारी चीजों की कीमतें बढ़ गयी हैं और इनके और बढ़ने की संभावना है।
यह जो जानकारियां चुनावों के बाद सामने आयी हैं यह सब चुनाव परिणाम आने के बाद नही घटा है। यह सब पहले बड़े अरसे से देश में घट चुका था लेकिन इसकी जानकारी अधिकारिक तौर पर चुनावों से पहले बाहर नही आने दी गयी क्योंकि यदि यह सब जानकारियां चुनावों से पहले सामने आ जाती तो निश्चित रूप से यह सब जन चर्चा के मुद्दे बनते और तब शायद परिणामों पर भी इसका असर पड़ता लेकिन ऐसा भी नही है कि यह जानकारियां कतई बाहर आयी ही नही हों। यदि हम चुनावों के दौरान और उससे भी पहले के परिदृश्य पर नज़र दौड़ाएं तो यह सामने आता है कि कांग्रेस और उसके नेता राहूल गांधी इस ओर जनता का ध्यान खींच रहे थे। परन्तु जनता इन विषयों की गंभीरता का आकलन नही कर पायी और शेष विपक्ष भी इस संद्धर्भ में कारगर भूमिका नही निभा पाया। अभी सरकार के शपथ ग्रहण के बाद जम्मू-कश्मीर को लेकर जिस तरह की नीति अपनाने के संकेत दिये थे अब उसमें पूरी तरह से यूटर्न ले लिया गया है। आजकल बंगाल को लेकर जिस तरह की लाईन भाजपा ले रही है और उसको जिस तरह से मीडिया प्रचारित -प्रसारित कर रहा है उसके अन्तिम परिणाम क्या होंगे यह शायद अब आकलन से भी बाहर होता जा रहा है।
इसी तरह पिछले कुछ दिनों में जिस तरह से उत्तर प्रदेश में कुछ पत्रकारों के खिलाफ कारवाई की गयी है उस पर सर्वोच्च न्यायालय को भी यह टिप्पणी करनी पड़ी है कि इस देश में अभी तक संविधान है और देश उसी के अनुसार चलता हैै। यह ठीक है कि पत्रकार होने से किसी को यह अधिकार हासिल नही हो जाता कि वह किसी के खिलाफ कुछ भी निराधार छाप दे। लेकिन इस तरह के समाचारों पर मानहानि का मामला दायर करने का रास्ता है। परन्तु इस रास्ते को न अपनाकर इसमें पुलिस स्वयं शिकायतकर्ता बनकर सीधे गिरफ्तारी से शुरू करे तो निश्चित रूप से यह सोचना पड़ता है कि आप विरोध का कोई स्वर सुनने को तैयार ही नही है। प्रैस की स्वतन्त्रता के मामले में आज भारत 140वें स्थान पर है और यह सही में लोकतन्त्र के लिये खतरा है।
अभी सरकार के नये कार्यकाल का एक माह भी पूरा नही हुआ है और अब तक जो कुछ सामने आ चुका है वह निश्चित रूप से चिन्ताजनक है। आर्थिक मोर्चे पर जो कुछ सामने है शायद उसका कोई बड़ा प्रतिकूल असर दस प्रतिशत लोगों पर नही पड़ेगा और हो सकता है कि इस वर्ग ने सरकार के पक्ष मे मतदान भी न किया हो लेकिन इस सबका असर देश की 90ः जनता पर पड़ता है और उसका गुनाह केवल यही है कि उसे इस सबकी पूरी समझ ही नही है। जनता को इसकी समझ तब आयेगी जब बेरोज़गारी और मंहगाई उसकी दहलीज लांघ कर उसके घर पर कब्जा कर लेगी। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। ऐसे में आज देश के विपक्षी राजनेताओं से ही यह अपेक्षा है कि वह इस वस्तुस्थिति की गंभरीता को समझते हुए आम आदमी के बचाव में आगे आयें अन्यथा देश की जनता विपक्ष को भी क्षमा नही करेगी। आज देश का राजनीतिक वातावरण बंगाल से लेकर कश्मीर तक जिस मुकाम पर पहुंच चुका है वह हर संवदेनशील बुद्धिजीवि के लिये गंभीर चिन्ता और चिन्तन का विषय बन चुका है। इस समय परिस्थितियों की यह मांग है कि देश में एक सशक्त राजनीतिक विकल्प खड़ा हो। इसके लिये यदि राजनीतिक दलों को 1977 और 1989 की तर्ज पर अपना विलय करके भी यह विकल्प तैयार करना पड़े तो ऐसा किया जाना चाहिये। आज कांग्रेस में जिस तरह से राहूल गांधी ने अध्यक्षता छोड़ने का फैसला लिया है वह कांग्रेस के भीतर की परिस्थितियों को सामने रखते हुए सही है क्योंकि सत्ता के खिलाफ विरोध का जो स्वर उन्होंने मुखर किया था उसमें वह अपने ही घर में अकेले पड़ गये थे। लेकिन राष्ट्रीय संद्धर्भ में यह फैसला जनहित में नही है। आज वह सारे सवाल मुद्दे बनकर सामने आने लग पड़े हैं जो चुनावों से पहले ही राहूल ने उठाने शुरू कर दिये थे। आने वाले समय में आम आदमी जैसे जैसे पीड़ित होता जायेगा वह इन्हें समझता जायेगा यह तय है। उस समय उसकी समझ और पीड़ा को स्वर देने के लिये जनता एक नेता चाहेगी और वह शायद राहूल के अतिरिक्त और कोई न हो पाये।


केन्द्र में भाजपा नीत एनडीए सरकार सत्तासीन हो गयी है। भाजपा का अपना आंकड़ा ही 303 सांसदो का हो गया है। भाजपा के सहयोगियों का आंकड़ा पचास पर है यह 2014 में भी करीब इतना ही था। इन आंकड़ों से यह सामने आता है कि एनडीए सरकार के पिछले कार्यकाल के बाद जनता में भाजपा का आधार और बढ़ा है लेकिन उसके सहयोगीयों का नहीं बढ़ा है। यह अपने में ही एक विचारणीय विषय बन जाता है। इसी के साथ अभी लोकसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद कर्नाटक में नगर निकायों के लिये मतदान हुआ और उसके परिणाम आ गये हैं। इन निकायों के मतदान मे ईवीएम मशीनों की जगह बैलेट पेपर प्रयोग हुए। इन निकायों के परिणामों में कांग्रेस को भारी सफलता मिली है जबकि भाजपा को उतनी ही मात। यह चुनाव लोकसभा चुनावों के परिणामों के बाद एक सप्ताह से भी कम समय में हुए हैं। लोकसभा चुनावों में कर्नाटक में जो सफलता भाजपा को मिली है उसके मुकाबले में नगर निकाय चुनावों में हार मिलना फिर कई सवाल खड़े कर जाता है। क्या देश की जनता ने भाजपा की जगह प्रधानमंत्री मोदी पर विश्वास किया है या फिर इसका कारण कुछ और रहा है। आने वाले दिनों में यह चिन्तन का एक बड़ा विषय बनेगा यह तय है।
इस बार जो सांसद चुनकर आये हैं उनमें अपराधी छवि के माननीयों का आंकड़ा 2014 के मुकाबले बहुत बढ़ गया है। स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि 58 सदस्यों के मन्त्रीमण्डल में ही 22 लोग आपराधिक छवि वाले हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने पिछली बार वायदा किया था कि वह संसद को अपराधियों से मुक्त करवायेंगे। लेकिन ठीक इस वायदे के विपरीत मोदी को अपने मन्त्रिमण्डल में ही आपराधिक छवि वालों को मन्त्री बनाना पड़ गया है। इसी के साथ एक तथ्य यह भी सामने आया है कि इस बार संसद और मन्त्रीमण्डल में करोड़पत्तियों की संख्या भी बढ़ गयी है। इस बार मोदी मन्त्रीमण्डल के शपथ ग्रहण समारोह में बंगाल की मुख्यमन्त्री ममता बैनर्जी शामिल नही हुई है। क्योंकि इस शपथ ग्रहण समारोह में बंगाल के उन परिवारों को आमन्त्रित किया गया था जो इन चुनावों में हिंसा का शिकर हुए हैं। मोदी सरकार ने इसे चुनावी हिंसा कहा है तो ममता ने इसे चुनावी हिंसा मानने से इन्कार किया और इसी पर वह शपथ ग्रहण में शामिल नही हुई। हिंसा के शिकार हुए परिवारों को इसमें तुरन्त प्रभावी न्याय देने और इन परिवारों को अन्य सहायता देने की बात किसी की ओर से नहीं की गयी। इस हिंसा को केवल चुनाव के आईने से ही देखा गया। यह सवाल भी नही उठाया गया कि जब पहले चरण के मतदान से ही यह हिंसा शुरू हो गयी थी तब चुनाव आयोग क्या कर रहा था। जिसके अधीन सारा प्रशासन था।
अब बंगाल में ‘‘जय श्री राम’’ का नारा भी हिंसा का कारक बन गया है। बंगाल में प्रशासन की सफलता/असफलता कोई मुद्दा नही रह गया है। लोकसभा चुनावों में भी ममता टीएमसी का जनाधार चार प्रतिशत बढ़ा है। यह प्रतिशत बढ़ने का आधार विकासात्मक कार्य रहे हैं? यह चर्चा का कोई विषय ही नही है। शासन प्रशासन को लेकर उठने और पूछे जाने वाले सारे सवाल एक ‘‘जयश्री राम’’ के नारे के आगे बौने पड़ गये हैं। मीडिया का भी एक बड़ा वर्ग इस नारे को बड़ा मुद्दा बनाने में लग गया है। इस मीडिया के लिये अमरीका द्वारा भारत को जीएसपी से बाहर कर देना कोई मुद्दा नही है। वर्ष 2018- 19 मे बैंको में 71500 करोड़ के फ्राड हो जाना भी कोई अहम सवाल नही है जो सरकार से पूछा जाना चाहिये। आज चुनाव परिणाम आने के बाद बहुत सारी वस्तुओं के दाम बढ़ गये हैं लेकिन इस पर कहीं कोई सवाल नही उठ रहा है। बल्कि ऐसा लग रहा है कि आगे आने वाले कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी आम आदमी को छूने वाले मुद्दे न उठे उसके लिये ‘‘जयश्री राम’’ की तर्ज के नारे उछालने का प्रयास अभी से शुरू हो गया है।
लोकसभा चुनावों में भी महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे आम आदमी के मुद्दों को जन चर्चा नही बनने दिया गया। लेकिन इनके चुनावों में गौण हो जाने के बाद भी यह अपनी जगह खड़े हैं बल्कि ज्यादा भयावह होकर सामने हैं और सबसे ज्यादा उसी आम आदमी को प्रभावित करेंगे जो इस बारे में ‘‘जय श्री राम’’ से अधिक कुछ भी सोचने समझने की स्थिति में नही है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि ऐसा कब तक चलता रहेगा और उसका अन्तिम परिणाम क्या होगा? क्योंकि आज माननीयों का हर अपराध जनता की अदालत में आकर हार जाता है। जनता का फतवा हासिल होने के बाद कानून की अदालत इन मामलों में बौनी पड़ जाती है और दशकोें तक यह मामलें लंबित रहते हैं। राजनीतिक दलों का चरित्र और चेहरा कारपोरेट घरानों की तर्ज पर आ गया है। हर दल के कार्यालय को समाज सेवी कार्यकर्ताओं की जगह अच्छी पगार लेने वाले कर्मचारी चला रहे हैं। दल के पदाधिकारी कारपोरेट घरानों की तर्ज पर निदेशकों की भूमिका में आ गये हैं। राजनीतिक दल कारपोरेट घरानों से भी कमाई करने वाले अदारे बन गये हैं। आज लोकसभा चुनाव लड़ना परोक्ष/अपरोक्ष में सामान्य हल्कों में भी पन्द्रह से बीस करोड़ का निवेश बन गया है। राजनीतिक दल से बाहर रह कर चुनाव लड़ पाना अब केवल दिखावापन बन कर रह गया है क्योंकि चुनाव प्रचार इतना मंहगा हो गया है कि उसमें बौद्धिक मैरिट के लिये कोई जगह ही नही रह गयी है। यह जो कुछ चुनाव के नाम पर इस समय चल रहा है उसे लोकतन्त्र की संज्ञा तो कतई नही दी जा सकती। क्योंकि जहां चुनाव प्रक्रिया के मुख्य केन्द्र ईवीएम पर ही शंकाओं का अंबार खड़ा हो चुका है उस पर विश्वास बहाल करने के लिये चुनाव प्रक्रिया में ही आमूल संशोधन की आवश्यकता है। राजनीतिक दलों को कारपोरेट चरित्र से बाहर निकालने की आवश्यकता है। इसके लिये राजनीतिक पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर आज एक सार्वजनिक बहस की आवश्यकता है। जिससे एक सार्वजनिक स्वीकार्यता पर पहुंचा जा सके। यदि ऐसा नही हो सका तो लोकतन्त्र कब आराजक तन्त्र बन जायेगा यह पता भी नही चल पायेगा क्योंकि सही मायनों में अब लोकतन्त्र खतरे की दहलीज पर पहुंच गया है।
चुनाव परिणाम आने के बाद प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार ने कामकाज संभाल लिया है। जनादेश 2019 में देश की जनता ने एक बार पुनः मोदी के नेतृत्व में विश्वास करते हुए पहले भी ज्यादा समर्थन उन्हे दिया है। शायद इतने ज्यादा समर्थन की उम्मीद अधिकांश भाजपा कार्यकर्ताओं और नेताओं को भी नही होगी। प्रधानमन्त्री ने इस जीत को चुनावी कैमिस्ट्री और कार्य तथा कार्यकर्ताओं की जीत करार दिया है। विपक्ष में कांग्रेस ने 


विपक्ष हार के कारणों की समीक्षा में लगा है और देर सवेर उसे इस बारे में कुछ कहना भी पड़ेगा। जब कोई राजनीतिक दल इस तरह की हार को अपने संगठन कार्यकर्ताओं और नेतृत्व की हार मान लेगा तो निश्चित रूप से इसका असर उसके कार्यकर्ताओं पर पड़ेगा। जब कार्यकर्ता संगठन और नेतृत्व को कमजोर आंक लेता है तब ऐसे दलों को पुनः जीवन मिलना असंभव हो जाता है और कोई भी दल ऐसा नही चाहेगा कि उसके कार्यकर्ता उससे ना उम्मीद हो जायें। इसलिये इस हार के लिये संगठन और नेतृत्व से हटकर कारण खोजने होंगे और उन कारणों पर कार्यकर्ता को पूरे तार्किक ढंग से आश्वस्त भी करना होगा। ऐसे में अन्ततः सारा तर्क ईवीएम मशीनों पर फिर आकर थम जाता है। क्योंकि इन ईवीएम मशीनों को लेकर लम्बे अरसे से सन्देह जताया जा रहा है। जिस तरह से इसमें हार्डवेयर की टैपरिंग को लेकर अब सवाल उठे हैं उन्हें किसी भी विशेषज्ञ द्वारा झुठला पाना संभव नही होगा। क्योंकि जब 2014 के चुनावों में किये गये वायदों के मानकों पर सरकार का आकलन किया जाये तो ऐसा कुछ ठोस नजर नही आता है जिसके आधार पर इतने प्रचण्ड बहुमत को संभव माना जा सके।
प्रधानमन्त्री ने भी इस जीत को उनकी नीतियों की बजाये चुनावी कैमिस्ट्री की जीत बताया है। इस कैमिस्ट्री की अगर समीक्षा की जाये तो इसमें सबसे पहले भाजपा का आईटी सैल आता है। पार्टी के भीतर की जानकारी रखने वालों के मुताबिक देश भर में इस सैल में करीब एक लाख कर्मचारी काम कर रहा था। यह करीब एक लाख लोग कार्यकर्ता नही वरन पार्टी के कर्मचारी थे। क्योंकि आईटी सैल में वही लोग काम कर सकते हैं जिन्होंने कम्यूटर ऑप्रेशन में प्रशिक्षण लिया हो। पार्टी सूत्रों के मुताबिक इन कर्मचारियों को उनकी शैक्षणिक योग्यता के आधार पर वेतन दिया जा रहा था। इस वेतन के लिये पैसा उद्योग घरानों से चन्दे के रूप में लिया गया। यह चन्दा इलैक्शन वांडस के माध्यम से आया। इसमें चन्दा देने वाले का नाम कितना चन्दा किस राजनीतिक दल को दिया गया इस सबको गोपनीय रखा गया। इसके लिये वाकायदा नियम बनाए गये। इस ंसंबंध में जब सर्वोच्च न्यायालय में याचिका आयी तब चुनाव आयोग और सरकार में थोड़ा मतभेद भी आया। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसमें ज्यादा दखल न देते हुए यह निर्देश दिये है कि चन्दे को लेकर 31 मई तक राजनीतिक दलों को चुनाव आयोग को जानकारी देनी होगी। इस जानकारी में क्या सामने आता है यह तो उससे आगे ही पता चलेगा। लेकिन जितना बड़ा तन्त्र इस चुनाव के लिये भाजपा ने खड़ा किया है उससे यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि भाजपा को एक लोकतान्त्रिक राजनीतिक दल की बजाये एक राजनीतिक व्यवसायिक प्रतिष्ठा के तरह विकसित किया जा रहा है। भाजपा की तर्ज पर ही अन्य राजनीतिक दल भी इसी लाईन पर आ गये हैं। इस सबका अर्थ यह हो जाता है कि अब राजनीतिक लोक सेवा की बजाये एक सुनियोजित व्यवसाय बनता जा रहा है और यह व्यवसाय बनना ही कालान्तर में लोकतन्त्र और पूरे समाज के लिये घातक होगा। इसी का प्रभाव है कि इस बार संसद में दागी छवि और करोड़पति माननीयों की संख्या और बढ़ गयी है।
जब राजनीति व्यवसाय बनती जाती है तब सारे संवैधानिक संस्थान एक एक करके ध्वस्त होते चले जाते हैं। इस बार के चुनावों में चुनाव आयोग की विश्वनीयता पर जो सवाल उठे हैं उनका कोई तार्किक जवाब समाने नही आ पाया है शायद है भी नही। लेकिन चुनाव आयोग के साथ ही उच्च/शीर्ष न्यायपालिका भी लगातार सवालों में घिरती जा रही है। बीस लाख ईवीएम मशीनों के गायब होने को लेकर एक मनोरंजन राय ने मार्च 2018 में मुबंई उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की थी। याचिका आरटीआई के तहत मिली जानकारियों के आधार पर दायर हुई थी। लेकिन सुनवाई के लिये सितम्बर 2018 में आयी। इस पर 8 मार्च 2019 को चुनाव आयोग ने जवाब दायर करके कहा कि हर मशीन और वीवी पैट का अपना एक विष्शिट नम्बर होता है और यह खरीद विधि मन्त्रालय की अनुमति और नियमों के अनुसार की गयी है। जबकि जवाब का मुद्दा था कि कंपनीयों ने कितनी मशीनें सप्लाई की और आयोग में कितनी प्राप्त हुई। लेकिन इसका कोई जवाब नही दिया गया। इसके बाद 23 अप्रैल को यह मामला उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश प्रदीप नदराजोग और न्यायमूर्ति एन एम जामदार की पीठ में लगा। इस बार फिर चार सप्ताह में आयोग को जवाब देने के लिये कहा गया और अगली पेशी 17 जुलाई की लगा। इस पर मनोरंजन राय ने सर्वोच्च न्यायालय में एस एल पी दायर करके इस चुनाव में ईवीएम के इस्तेमाल पर प्रतिबन्ध की मांग की लेकिन वहां भी यह मामला सुनवाई के लिये नही आ पाया। ईवीएम को लेकर पूरा विपक्ष चुनाव आयोंग से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक सर पीटता रहा है लेकिन किसी ने भी इसे गम्भीरता से नही लिया। अब राजनितिक दल इन्ही ईवीएम मशीनों को एक बड़ा मुद्दा बनाकर जनता की अदालत में जाने की बाध्यता पर आ गये हैं। इसके परिणाम क्या होंगे कोई नही जानता लेकिन यह तय है कि जब भी जनता के विश्वास को आघात पंहुचता है तो उसके परिणाम घातक होते हैं देश जे.पी. आन्दोलन, मण्डल आन्दोलन और फिर अन्ना आन्दोलनों के परिणाम भोग चुका है और एक बार फिर हालात वही होने जा रहे हैं।