आज प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी से लेकर कार्यकर्ता तक पूरी भाजपा ‘‘मै भी चौकीदार’’ हो गयी है। 2014 में जब लोकसभा के चुनाव हुए थे तब देश की जनता ने इन लोगों को जन प्रतिनिधि के रूप में चुनकर देश की सत्ता सौंपी थी। देश की जनता ने इन पर इनके द्वारा किये गये वायदों पर विश्वास करके इन्हें सत्ता सौंपी थी। लेकिन आज इस कार्यकाल का अन्त आते तक यह सब चौकीदार हो गये हैं। देश की जनता ने अपना वोट देकर इन्हें प्रतिनिधि चुना था चौकीदार नहीं। चौकीदार मतदान के माध्यम से नही चुना जाता उसके चयन की एक अलग प्रक्रिया रहती है। लेकिन अब जब यह सब चौकीदार हो गये हैं तब इन्हें चौकीदार की चयन प्रक्रिया की कसौटी पर जांचना आवश्यक हो जाता है। इस जांच -परख के लिये ही मैने पिछली बार ‘‘अब देश का चौकीदार ही सवालों में’’ अपने पाठकों के सामने एक बहस उठाने की नीयत से रखा था। बहुत सारे पाठकों ने मेरे दृष्टिकोण को समर्थन दिया है तो कुछ ने उससे तलख असहमति व्यक्त की है। इस असहमति के आधार पर मैं इस बहस को आगे बढ़ा रहा हूं।
मेरा स्पष्ट मानना है कि जब सत्ता की जिम्मेदारी उठाने वाले लोग स्वयं चौकीदार का आवरण ओढ़कर सत्ता से जुड़े तीखे सवालों से बचने का प्रयास करेंगे तब यह लोकतन्त्र के लिये एक बड़ा खतरा हो जायेगा। सत्ता पक्ष होने के नाते यह इन लोगों की जिम्मेदारी थी कि यह देश के ‘‘जान और माल’ की रक्षा करते और अपने पर उठने वाले हर सन्देह और सवाल की निष्पक्ष जांच के लिये अपने को प्रस्तुत करते। देश जानता है कि जब 2014 में सत्ता संभाली थी तब सत्ता पक्ष के कई जिम्मेदार लोगों के ऐसे ब्यान आने शुरू हो गये थे कि इनसे वैचारिक असहमति रखने वाले हर आदमी को पाकिस्तान जाने का फरमान सुना देते थे। इन्ही फरमानों के कारण लोकसभा में प्रचण्ड बहुमत हासिल करने के बाद दिल्ली विधानसभा चुनावों में केवल तीन सीटों पर सिमट कर रह गये। दिल्ली की हार के कारणों का सार्वजनिक खुलासा आज तक सामने नहीं आ पाया है। 2014 के चुनावों में और उससे पूर्व उठे भ्रष्टाचार के तमान मुद्दो का प्रभाव था कि देश की जनता ने तत्कालीन यूपीए सरकार को भ्रष्टाचार का पर्याय मानकर सत्ता से बाहर कर दिया। लेकिन एनडीए के पूरे शासन काल में भ्रष्टाचार के उन मुद्दों पर दोबारा कोई चर्चा तक नही उठी। लोकपाल की मांग करने वाले अन्ना हजारे तक उन मुद्दों को भूल गये। बल्कि जब टूजी स्पैक्ट्रम घोटाले पर अदालत में यह आया कि यह घोटाला हुआ ही नही है तब किसी ने भी इसपर कोई सवाल नही उठाया। 1,76,000 करोड़ का आंकड़ा देने वाले विनोद राय तक को किसी ने नही पूछा जबकि इसी घोटाले में यूपीए में शासनकाल में बड़े लोगों की गिरफ्रतारी तक हुई थी। क्या अब इस घोटाले में कुछ कंपनीयों और बड़ों को बचाया गया है? यह सवाल उठ रहा है और कोई चौकीदार इसका जवाब नही दे रहा है। काॅमनवैल्थ गेम्ज़ घोटाले पर 2010 में आयी रिपोर्ट पर क्या कारवाई हुई है। इसका कोई जवाब नही आ रहा है। आज लोकपाल की नियुक्ति से पहले भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम का संशोधन कर दिया गया है। क्या आज इस संशोधित अधिनियम के बाद कोई भ्रष्टाचार की शिकायत कर पायेगा? इस संशोधन पर उठे सवालों का प्रधान चौकीदार से लेकर नीचे तक किसी ने कोई जवाब नही दिया है। क्या इन सवालों पर इन चौकीदारों की जवाबदेही तय नहीं होनी चाहिये। क्या आज चुनाव से पहले यह सवाल पूछे नहीं जाने चाहिये?
आज जब भाजपा ‘‘मै भी चौकीदार’’ अभियान छेड़कर कांग्रेस से पिछले साठ सालों का हिसाब पूछने जा रही है तब क्या उसे यह नहीं बताना चाहिये कि 2014 में उसने वायदा क्या किया था? क्या तब देश से यह नहीं कहा गया था कि हम सबकुछ साठ महीनों में ही ठीक कर देंगे। तबकी यूपीए सरकार को बेरोजगारी और महंगाई पर किस तरह कोसा जाता था लेकिन आज जब इन मद्दों पर सवाल पूछे जा रहे हैं तब कांग्रेस के साठ सालों की बात की जा रही है। क्या 2014 में देश से यह कहा गया था कि जो कुछ साठ सालों में खराब हुआ है उसे ठीक करने के लिये हमें भी साठ साल का ही समय चाहिये। तब तो साठ साल बनाम साठ महीनों का नारा दिया गया था। आज तो यह हो रहा है कि जब कांग्रेस ने भ्रष्टाचार किया है तब हमें भी भ्रष्टाचार करने का लाईसैन्स मिल गया है। आज रोजगार के नाम पर हर काम को हर सेवा को आऊट सोर्स से करवाया जा रहा है। इस बढ़ते आऊट सोर्स पर तो अब यह सवाल उठना शुरू हो गया है कि जब सरकार कोई भी सेवा स्वयं देने में असमर्थ है तब क्या सरकार को भी आऊट सोर्स से ही नहीं चलाया जाना चाहिये।
आज चुनाव होने जा रहे हैं इसलिये यह आवश्यक हो जाता है कि चोरी के आरोपों को चौकीदारी के आवरण में दबने न दिया जाये। क्योंकि जब सत्तारूढ़ भाजपा स्वयं 38 दलों के साथ गठबन्धन कर चुकी है तब उसे दूसरों के गठबन्धन से आपत्ति क्यों? अभी प्रधानमन्त्री ने सपा, आर एल डी और बसपा के गठबन्धन को शराब की संज्ञा दी है। क्या देश के प्रधानमन्त्री की भाषा का स्तर ऐसा होना चाहिये? इस संद्धर्भ में यदि कोई पूरी भाजपा के ‘‘मैं भी चौकीदार’’ होने को ‘‘चोर मचाये शोर’’ की संज्ञा दे डाले तो उसे कैसा लगेगा। यह सही है कि देश का बुद्धिजीवी वर्ग आज प्रधानमन्त्री की हताशा को समझ रहा है क्योंकि जिस तरह 2014 में लोग कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जा रहे थे आज ठीक उसी तरह भाजपा छोड़कर कांग्रेस में जाने का दौर चल पड़ा है और इससे हताश होना संभव है और उसे सार्वजनिक होने से रोकने के लिये किसी न किसी आवरण का सहारा लेना पड़ता है लेकिन एक सपूत को भाषायी मर्यादा लांघना शोभा नहीं देता। अपनी असफलताओं को भी स्वीकारने का साहस होना चाहिये क्योंकि सरकार भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई जैसे सारे मुद्दों पर पूरी तरह असफल हो चुकी है। जिस सरकार को जीडीपी की गणना के लिये तय मानक बदलना पड़ जाये उसके विकास के दावों पर कोई कैसे भरोसा कर पायेगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक समय कहा था कि वह देश के शासक नहीं बल्कि चौकीदार है। वह अपने को कामगार भी कहते हैं। देश का प्रधानमन्त्री जब अपने को स्वयं इस तरह के संबोधन देता है तो निश्चित रूप से हर आदमी उनकी सादगी और विनम्रता का कायल हो जाता है। लेकिन जब देश के सामने यह आता है कि उनका विनम्र चौकीदार लाखों का सूट पहनता है और उसने अपना पारिवारिक स्टेटस एक लम्बे अरसे तक देश के सामने नही आने दिया तब न केवल उस चौकीदार के इमेज़ को बल्कि आम आदमी के विश्वास को भी गहरा धक्का लगता है। पारिवारिक स्टेटस को छिपाना इतने बड़े पद की गरिमा के साथ मेल नहीं खाता है। नरेन्द्र मोदी की यह पहली और बड़ी नैतिक हार है और जब व्यक्ति अपना नैतिक बल खो देता है तब वह सबसे पहले अपने में ही हार जाता है। जबकि इस स्टेटस को छिपाने की कोई आवश्यकता नही थी। फिर यह स्टेटस जब चुनाव घोषणा पत्र के माध्यम से सामने आया तब यह और भी प्रश्नित हो जाता है।
प्रधानमन्त्री देश का एक सर्वोच्च सम्मानित पद है और इस पद की संवैधानिक जिम्मेदारीयां बहुत बड़ी है। प्रधानमन्त्री होने के नाते बहुत बड़ी शासकीय जिम्मेदारीयां है। यह जिम्मेदारीयां निभाते हुए प्रधानमन्त्री का आचरण चौकीदार वाला भी रहना चाहिये यह आवश्यक है। क्योंकि चौकीदार की केवल जिम्मेदारीयां ही होती हैं उसके कोई वैधानिक अधिकार नही होते हैं। चौकीदार केवल चीजों /घटनाओं पर नज़र रखता है और उसकी रिपोर्ट मालिक को देता है। यदि कहीं चोरी भी हो जाये तो चौकीदार उसकी पहली सूचना मालिक को देता है और फिर मालिक तय करता है कि उस चोरी की शिकायत उसने पुलिस से करनी है या नहीं। इस परिदृश्य में जब राफेल सौदे में घपला होने के आरोप लगे और उसमें सीधे प्रधानमन्त्री कार्यालय की भूमिका पर भी सवाल उठे तब यह ‘‘चौकीदार शब्द और पद चर्चा में आया। क्योंकि प्रधानमन्त्री के पास मालिक और चौकीदार दोनों की भूमिकाएं एक साथ थी। आज राफेल मामला सर्वोच्च न्यायालय के पास है और उसमें केन्द्र सरकार चार बार अपना स्टैण्ड बदल चुकी है। इस स्टेण्ड बदलने से आम आदमी भी यह मानने पर विवश हो गया है कि इसमें कुछ तो गड़बड़ है और हकीकत केवल जांच से ही सामने आयेगी।
सरकार इसमें जांच के लिये तैयार नहीं हो रही है। इसमें जो दस्तावेजी प्रमाण मीडिया के माध्यम से सामने आये हैं और उन पर गोपनीयता अधिनियम की अवहेलना का जिस तरह से आरोप लगाया गया है उससे पूरे विश्व की हमारे सर्वोच्च न्यायालय पर नज़रें लग गयी हैं। पूरा विश्व यह देख रहा है कि इसमें सरकार क्या छिपाना चाह रही है और उस पर शीर्ष न्यायपालिका का रूख क्या रहता है। लेकिन इस मुद्दे पर सरकार देश के सामने तथ्य रखने की बजाये पूरी चर्चा को भावनात्मक आवरण से ढकना चाह रही है। पूरी भाजपा ‘‘मै भी चौकीदार हूं’’ हो गयी है। लेकिन यह सारे चौकीदार मिलकर भी यह नहीं बता पा रहे हैं कि 2014 में चर्चित रहे भ्रष्टाचार के कौन से मुद्दे पर फैसला आ पाया है या उसकी स्थिति क्या है। मंहगाई क्यों बढ़ी है। रोज़गार क्यों नहीं मिल पाया है। भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम में संशोधन क्यों किया गया। नोटबन्दी से किसको क्या लाभ मिला है। आज ऐसे दर्जनों सवाल हैं जिन पर जनता को जवाब चाहिये।
आज जवाब मांगने वाले को राष्ट्रविरोधी कहकर चुप नहीं कराया जा सकता। गुजरात मामलों पर सर्वोच्च न्यायालय में आयी जस्टिस बेदी कमेटी की रिपोर्ट पर अगली कारवाई कब होगी। अभी समझौता एक्सप्रैस में हुए बलास्ट में दोषी बनाये गये सारे लोग छूट गये हैं यह एक अच्छी बात है लेकिन क्या इसी मामले में रहे जांच अधिकारियों और सरकारी अभियोजकों के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार कारवाई की जायेगी? क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने इन आपराधिक मामलों के अदालत में असफल रहने पर उनसे जुड़े अधिकारियों के खिलाफ कारवाई करने के निर्देश जारी कर रखे हैं। आज जिस तरह से पूरे मुस्लिम समुदाय को एक तरह से आतंक का पर्याय प्रचारित कर दिया गया है वह किसी भी गणित से देशहित नहीं माना जा सकता। क्योंकि यह एक सच्चाई है कि इस शासनकाल में प्रधानमन्त्री की अपील के बावजूद भीड़ हिंसा और गो रक्षा जैसे मामलों में मुस्लिम और दलित सबसे अधिक उत्पीड़ित वर्ग रहे हैं। आज यह वर्ग भाजपा से निश्चित रूप से डरे हुए हैं और इसी कारण से मन से उसके साथ नही हैं। यही भाजपा का सबसे कमजोर पक्ष है और इसी को लेकर देश का चौकीदार सवालों में है।
चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका है और पहले चरण में आने वाली सीटों के लिये उम्मीदवारों का चयन भी राजनीतिक दलों द्वारा कर लिया गया है। लेकिन यह चुनाव किन मुद्दों पर लड़ा जायेगा यह अभी तक स्पष्ट नही हो पाया है। सामान्यतः हर चुनाव में सबसे पहले यह देखा जाता है कि जो भी सरकार सत्ता में रही है उसका काम काज कैसा रहा है। क्योंकि यह सरकार और उसकी पार्टी अपने काम काज के आधार पर पुनः सत्ता में वापसी की गुहार जनता से लगाती है। इस नजरीये से सरकार की जिम्मेदारी भाजपा के पास रही है। इसलिये सबसे पहले उसी के काम काज का आंकलन किया जाना स्वभाविक और अनिवार्य है। 2014 में जब पिछली बार लोकसभा के चुनाव हुए थे तब सत्ता यूपीए सरकार के पास थी। उस समय यूपीए सरकार पर कई मुद्दों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे। कई मुद्दे सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचे थे और शीर्ष अदालत के निर्देशों पर इन मुद्दों पर जांच भी हुई थी। इस जांच के चलते कई वरिष्ठ नौकरशाह, राजनेता/मन्त्री और कारपोरेट जगत के लोग जेल तक गये थे। भ्रष्टाचार के इन्ही आरोपों के परिणामस्वरूप अन्ना हजारे का जनान्दोलन लोकपाल को लेकर सामने आया। इस पृष्ठभूमि में जब चुनाव हुए जो भाजपा को प्रचण्ड बहुमत मिला। इन चुनावों में भाजपा ने देश से कुछ वायदे किये थे। इन वायदों में मुख्यतः हर व्यक्ति के खाते में पन्द्रह पन्द्रह लाख रूपये आने, राम मन्दिर बनाने, जम्मूकश्मीर से धारा 370 हटाने, दो करोड़ युवाओं को रोजगार देने, मंहगाई पर लगाम लगाने आदि शामिल थे। इन्ही वायदों के सहारे आम आदमी को अच्छे दिन आने का सपना दिखाया गया था। इन वायदों को पूरा करने के लिये केवल साठ माह का समय मांगा गया था।
इसलिये आज सबसे पहले इन्ही दावों की हकीकत पर नजर दौड़ाना आवश्यक हो जाता है। जिस लोकपाल के लिये अन्ना ने आन्दोलन किया था वह लोकपाल अभी तक ‘साकार रूप नही ले सका है। जबकि लोकपाल विधेयक उसी दौरान पारित हो गया था। भ्रष्टाचार के जो मामले उस समय अदालत तक पहुंच गये थे उनमें से एक में भी इस सरकार में किसी को सजा नही मिल पायी है बल्कि 176,000 करोड़ के 2जी मामले में तो अब यह आ गया कि यह घोटाला हुआ ही नही है। भ्रष्टाचार का एक भी मामला इस सरकार के कार्यकाल में अन्तिम अन्जाम तक नही पहुंचा है। उल्टा इस सरकार ने तो भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम में ही संशोधन करके उसकी धार को ही कुन्द कर दिया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भाजपा सिन्द्धात रूप में ही भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई कारवाई नही करना चाहती है। भाजपा की इस मानसिकता का पता हिमाचल की जयराम सरकार के आचरण से भी लग जाता है। जब इस सरकार ने विपक्ष में रहते कांग्रेस सरकार के खिलाफ सौंपे अपने ही आरोपपत्र पर कोई कारवाई न करने का फैसला लिया है।
इसी तरह कालेधन के जो आंकड़े 2014 देष को परोसे जा रहे थे और उन्ही आंकड़ो के भरोसे आम आदमी को विश्वास दिलाया गया था कि उसके खाते में इस कालेधन की वापसी से पन्द्रह लाख पहुंच जायेंगे। लेकिन जब इस कालेधन पर हाथ डालने के लिये नोटबन्दी लागू की गयी तब 99.3% पुराने नोट आरबीआई के पास पहुंच गये। पूराने नोटों की इस वापसी ने न केवल सरकार के कालेधन के आकलन पर सवालिया निशान लगा दिया बल्कि नोटबन्दी के बाद आतंकवाद की कमर टूट जाने के दावे को भी हास्यस्पद सिद्ध कर दिया। आज तक कालेधन के एक भी मामले पर कोई प्रमाणिक कारवाई सामने नही आई है। उल्टा यह नोटबन्दी का फैसला ही कई गंभीर सवालों में घिर गया हैं विषेशज्ञों के मुताबिक नोटबन्दी के फैसले के कारण ही देश के कर्जभार पर इस शासनकाल में 49% की बढ़ौत्तरी हुई है। यही नहीं आज सरकार ने जो एफडीआई का दरवाजा हर क्षेत्र के लिये खोल दिया है उसके कारण हमारा आयात तो बहुत बढ़ गया है लेकिन इसके मुकाबले में निर्यात आधे से भी कम रह गया है। आर्थिक स्थिति के जानकारों के मुताबिक यह नीति किसी भी देश की अर्थ व्यवस्था के लिये एक बहुत बड़ा संकट बन जाती है। किसी समय स्वदेशी जागरण मंच के झण्डे तले एफडीआई का विरोध करने वाले आरएसएस की इस चुप्पी कई सवाल खड़े कर जाती है क्योंकि यह एक ऐसा पक्ष है जिसके परिणाम भविष्य में देखने को मिलेंगे।
इसी के साथ जब 2014 के मुकाबले आज मंहगाई और बेरोजगारी का आंकलन किया जाये तो इस मुहाने पर भी सरकार का रिपोर्ट कार्ड बेहद निराशाजनक है। सरकार हर काम हर सेवा आऊट सोर्स के माध्यम से करवा रही है। आऊट सोर्स का अर्थ है कि हर काम ठेकेदार के माध्यम से करवाना और ठेकेदार की कहीं सीधी जिम्मेदारी नहीं उसके काम की शिकायत पर केवल उसका ठेका ही रद्द किया जा सकता है इससे अधिक कोई कारवाई उसके खिलाफ संभव नही है। इसी आऊट सोर्सिंग के कारण सरकार का दो करोड़ नौकरियों का दावा हवा -हवाई होकर रह गया है। मंहगाई के नाम पर एकदम रसोई गैस के दाम हर आदमी को सोचने पर विवश कर देते हैं कि ऐसा क्यों है इसका कोई सन्तोषजनक जवाब भाजपा नेतृत्व के पास नही है। फिर यह सवाल तो इसी नेतृत्व से पूछे जाने हैं क्योंकि इसी ने यह वायदा किया था कि वह साठ महीने में इन समस्याओं से निजात दिला देगा लेकिन ऐसा हो नही पाया है।
जबकि दूसरी ओर आज जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनी हैं यदि वहां पर जनता से किये गये वायदों का आंकलन किया जाये तो सबसे पहले वहां पर किसानों से किये गये कर्जमाफी के वायदे की ओर ध्यान जाता है। इस पर यह सामने आता है कि जिस प्रमुखता से यह वायदा किया गया था उसी प्रमुखता के साथ इस पर अमल भी कर दिया गया है। इसलिये आज कांग्रेस गरीब अदामी के लिये जो न्यूनतम आय गांरटी योजना की बात कर रही है उसपर अविश्वास करने का कोई कारण नजर नही आता है। इस तरह के बहुत सारे वायदे और सवाल है जिन पर इस चुनाव में खुलकर चर्चा अगले अंको में की जायेगी। क्योंकि सरकार राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ रही बसह को दबाने का प्रयास कर रही है।
देश में राफेल विमान खरीद को लेकर लम्बे समय से बहस चली आ रही है। इस बहस का विषय यह नही है कि यह विमान खरीदे जाने चाहिये या नही। बल्कि बहस यह है कि इस खरीद में भ्रष्टाचार हो रहा है या नहीं। इस खरीद की प्रक्रिया पर सवाल उठाये गये हैं। इस पर उठी बहस के परिणाम स्वरूप यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पंहुच गया। शीर्ष अदालत ने इस पर सरकार को अपना पक्ष रखने को कहा। सरकार ने सीलबन्द लिफाफे में बिना शपथपत्र के अदालत में अपना पक्ष रखा। शीर्ष अदालत ने सरकार के पक्ष को देखकर 14 दिसम्बर को अपना यह फैसला सुना दिया कि अदालत इसमें कोई हस्तक्षेप नही करना चाहती है। सरकार ने शीर्ष अदालत के इस फैसले को अपने लिये क्लीन चिट करार दिया। लेकिन जब यह फैसला लिखित में बाहर आया तब इसमें यह आया कि इस खरीद की प्रक्रिया और उससे जुड़े सारे दस्तावेज सीएजी और फिर पीएसी के संज्ञान में रहे हैं। पीएसी की अध्यक्षता विपक्ष के सबसे बड़े दल का नेता करता है और लोकसभा में यह दायित्व कांग्रेस नेता खड़गे के पास है। खड़गे ने अदालत में रखे गये तथ्यों पर हैरत जताई और यह एकदम राष्ट्रीय विवाद बन गया। इस पर सरकार ने तुरन्त शीर्ष अदालत में इस फैसले में संशोधन करने का आग्रह कर दिया। सरकार ने इस आग्रह का तर्क दिया कि शीर्ष ने उनके जवाब में प्रयुक्त भाषा और व्याकरण को ठीक से नही समझा है। सरकार के इस आग्रह के बाद शीर्ष अदालत में इस पूरे फैसले पर पुनर्विचार करने की याचिकाएं आ गयी है। इसी बीच इस खरीद प्रक्रिया से जुड़े कुछ दस्तावेज प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक हिन्दु में छप गये।
शीर्ष अदालत के 14 दिसम्बर को आये फैसले पर पुनः विचार के लिये आयी याचिकाओं पर सुनवाई चल रही है। इस सुनवाई के दौरान जब हिन्दु में छपे दस्तावेजों का संज्ञान लेने का प्रश्न आया तब सरकार के अर्टानी जनरल ने यह कह दिया कि यह दस्तावेज रक्षा मन्त्रालय से चोरी हो गये हैं और इनका संज्ञान न लिया जाये। इसी के साथ अर्टानी जनरल ने यह भी कह दिया कि सरकार इस पर चोरी को प्रकरण दायर करने जा रही है क्योंकि यह सरकारी गोपनीय दस्तावेज अधिनियम के तहत एक संगीन अपराध है। अर्टानी जनरल के इस कथन के बाद इस बहस में एक पक्ष यह जुड़ गया कि यदि रक्षा मन्त्रालय में एक फाईल सुरक्षित नही रह सकती तो फिर देश कैसे सुरक्षित रहेगा। इसी के साथ यह भी चर्चा चल पड़ी कि सरकार दस्तावेजों की चोरी का आरोप लगाकर प्रैस की स्वतन्त्रता पर अंकुश लगाने का प्रयास करने जा रही है। अखबार पर इस आरोप के माध्यम से उसके सोर्स की जानकारी सार्वजनिक करने का दवाब बनायेगी। स्वभाविक है कि जब भी कोई भ्रष्टाचार का कांड घटता है तो उसके प्रमाण तो दस्तावेजों के रूप में सरकार की फाईलों में ही होते हैं। यह फाईलें भी कोई आम सड़क या चैराहे पर पड़ी नही होती हैं। लेकिन इन फाईलों से जुड़े किसी अधिकारी /कर्मचारी की आत्मा उसे कचोटती है तब वह इस भ्रष्टाचार को उजागर करने का रास्ता खोजता है। इस रास्ते की तलाश में सबसे पहले उसकी नजर प्रैस और पत्रकार पर जाती है। और जब वह सुनिश्चित हो जाता है कि इस माध्यम से यह जानकारी सार्वजनिक रूप से जनता के सामने आ जायेगी तथा उसकी पहचान भी गोपनीय रहेगी तब वह ऐसी जानकारी को सांझा कर पाता है। स्वभाविक है कि इस मामले में भी यही हुआ होगा। क्योंकि यह एक स्थापित सच है कि ‘‘गर तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालों’’ यदि एक अखबार साहस करके एक भ्रष्टाचार से जुड़े बड़े सच को बाहर ला रहा है तो क्या उसे दस्तावेज चोरी करने और राष्ट्रीय सुरक्षा को नुकसान पहुंचाने के नाम पर प्रताड़ित किया जाना चाहिये। शायद नही बल्कि ऐसे हर कदम का पुरजोर विरोध किया जाना चाहिये।
राफेल खरीद में तीस हजार करोड़ का घपला होने का आरोप लग रहा है। क्या यह तीस हजार करोड़ इस देश के आम आदमी का पैसा नही है। क्या इस इतनी बड़ी चोरी के आरोप की गहन जांच नही होनी चाहिये। जब देश की रक्षा के लिये खरीदे जा रहे इन विमानों की खरीद में इतना बड़ा घोटाला हो रहा है तो क्या उससे देश के आम आदमी के भरोसे को धक्का नही लग रहा है। यदि रक्षा सौदे में ही इतना बड़ा घपला हो रहा है तो फिर देश की सुरक्षा को इससे बड़ा खतरा क्या हो सकता है। पाकिस्तान से तो हमारे सैनिक सामने से लड़ाई लड़ लेंगे लेकिन इन भीतर के भ्रष्टाचारियों से कौन लड़ेगा। आज जब एक अखबार ने भ्रष्टाचार को उजागर करने का इतना बड़ा साहस दिखाया है तो देश के आम आदमी को साथ देना चाहिये। यदि यह दस्तावेज गलत है तो उसके खिलाफ आपराधिक मानहानि का मामला कायम किया जा सकता है। यदि यह दस्तावेज सही है तो इस सौदे की गहन जांच होनी चाहिये। क्योंकि जो दस्तावेज सामने आये हैं उनमें राफेल की तकनीकी जानकारीयों की कोई चर्चा नही है। केवल खरीद प्रक्रिया पर सवाल उठाये हैं। यदि आज शीर्ष अदालत इसकी जांच के आदेश नहीं देती है तो इससे आम आदमी के विश्वास को बहुत धक्का लगेगा क्योंकि अब तो अर्टानी जनरल ने भी यह कह दिया है कि दस्तावेज चोरी नही हुए है अखबार में उनकी फेाटो कापी छपि है। इस परिदृश्य में यह आवश्यक हो जाता है कि शीर्ष अदालत अपनी देख रेख में इसकी जांच करवाये।
विंग कमांडर अभिनन्दन वतन वापिस आ गये हैं यह एक सुखद समाचार है। यह वापसी कैसे संभव हुई और इसका श्रेय किसको कितना मिलना चाहिये? इस पर हो सकता है कि लम्बे समय तक बहस और होड़ चलती रही क्योंकि अभी तत्काल में सवाल चुनाव का है। इसलिये इस पक्ष पर अभी सवाल को आगे बढ़ाना मेरी नजर में ज्यादा आवश्यक और महत्वपूर्ण नही है। यहां ज्यादा प्रमुख सवाल दूसरे हैं क्योंकि जब अभिनन्दन की वापसी हो रही थी तब भी सीमापार से गोलीबारी के समाचार बराबर आ रहे थे। इस गोलीबारी में हमारे जवानों के शहीद होने के समाचार बराबर आ रहे थे और यह सब कुछ चल ही रहा है। इस की न्यूज चैनलों में जिस ढ़ग से रिर्पोटिंग आ रही है उससे यही संकेत उभरे हैं कि युद्ध अवश्यंभावी है क्योंकि यह रिर्पोटिंग न्यूज एंकरों से ज्यादा उनके सेना और सरकार के अधिकारिक प्रवक्ता होने का अहसास करवा रहे हैं। सरकार इस रिर्पोटिंग पर खामोश चल रही है और खामोशी से इस अवधारणा को ही बल मिल रहा है। इस परिदृश्य में अब तक घटे पूरे घटनाक्रम पर फिर से नजर डालने की आवश्यकता हो जाती है।
घटनाक्रम के अनुसार पहले पुलवामा घटता है। इस आतंकी हमले में सी आर पी एफ के चालीस से ज्यादा जवान शहीद हो जाते हैं। जब इन जवानों के शव इनके पैतृक स्थानों पर पहुंचते हैं उस पर पूरे देश में आक्रोश फैल जाता है। देश के हर राज्य में लोग सड़कों पर कैण्डल मार्च पर उतर आते हैं। पाकिस्तान से कड़ा बदला लेने की मांग उठती है क्योंकि आम आदमी को यह बताया जाता है कि इस आंतकी घटना के पीछे पाकिस्तान का हाथ है। इस जनाक्रोश के बाद सरकार सेना को इससे निपटने के लिये खुला हाथ दे देती है और सेना एक बार फिर सर्जिकल स्ट्राईक करके आंतकियों के ठिकानों पर तेरह दिन बाद कारवाई करती है। न्यूज चैनलों के मुताबिक इस कारवाई में 150 से 350 तक आतंकी मारे जाते हैं। वैसे अधिकारिक तौर पर कहीं से कोई आंकडा जारी नही हुआ है। इस सर्जिकल स्ट्राईक को बड़ी कारवाई करार दिया जाता है। यह दावा किया जाता है कि पाकिस्तान के खिलाफ यह एक बड़ी कारवाई है। पाकिस्तान की एसैंम्बली में इसकी चर्चा उठती है और हमारे चैनल इस कारवाई को देश के लोगों के सामने परोसते हैं। पाकिस्तान एसैंम्बली में इमरान खान सरकार की निन्दा की जाती है और इस निन्दा का परिणाम होता है कि पाकिस्तान अपने जन दबाव में आकर बदले में सैनिक कारवाई कर देता है। इस कारवाई में पाकिस्तान का एक विमान नष्ट हो जाता है। हमारा भी एक विमान क्रैश हो जाता है। हमारा पायलट पाकिस्तान के कब्जे में चला जाता है। पाकिस्तान तुरन्त इस पायलट के उनके कब्जे मे होने की जानकारी सार्वजनिक कर देता है। यह जानकारी सार्वजनिक होते ही हमारी प्राथमिकता इस पायलट की सुरक्षा और इसकी घर वापसी हो जाती है। इस्लामाबाद हाईकोर्ट में पाकिस्तान का एक वकील इस पायलट पर पाकिस्तान में मुकद्दमा चलाने की मांग की एक याचिका दायर कर देता है। उच्च न्यायालय इस याचिका को रद्द करते हुये पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के फैसले को बहाल रखता है और अभिनन्दन की वापसी हो जाती है।
लेकिन इस वापसी के बाद भी घटनाएं जारी हैं इसलिये यह आवश्यक हो जाता है कि हम यह स्पष्ट हो पायें कि हमारी समस्या पाकिस्तान है या आतंकवाद। यदि समस्या पाकिस्तान है तो उस समस्या से निपटने के लिये क्या सैनिक कारवाई के अतिरिक्त और कोई दूसरा विकल्प है। इसके लिये तुरन्त एक सारे राजनैतिक दलों की बैठक बुलाकर उसमें यह फैसला लिया जाना चाहिये। यदि यह आम राय बनती है कि पाकिस्तान ही मूल समस्या है और युद्ध ही उसका एक मात्र हल है तो तुरन्त प्रभाव से एक राष्ट्रीय सरकार का गठन करके जिसमें सभी दलों का प्रतिनिधित्व हो एक फैसला लिया जाना चाहिये क्योंकि देश इसका स्थायी हल चाहता है। यदि समस्या आतंकवाद है तो उसके लिये घर के भीतर ही निपटना होगा जिस तरह से पंजाब और बंगाल में निपटा गया था। उसके लिये हमारी नीयत और नीति दोनो साफ होनी चाहिये। इस आतंकवाद से निपटने के नाम पर यह नही होना चाहिये कि हर मुसलमान आतंकी है। हर वह व्यक्ति जो हमारी विचारधारा से मेल नही खाता वह देश द्रोही है। आज उस देश में करीब पच्चीस करोड़ मुसलमान हैं जो वैसे ही नागरिक हैं जैसे हिन्दू और अन्य है। इतनी बड़ी मुस्लिम जनसंख्या के कारण ही आज हम इस्लामिक देशों के सम्मेलन में शामिल हो पाये हैं और जब हम इस सम्मेलन में शामिल हुए हैं तो इस अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के सामने यह हमारी जिम्मेदारी और जबावदेही बन जाती है कि हमारे मुस्लिम नागरिकों की ओर से उन पर किसी तरह के भेदभाव करने के आरोप हमारी सरकार पर न लगें। भेदभाव का आरोप सरकार के साथ हमारे राजनीतिक दलों पर भी नही लगना चाहिये। परन्तु आज यह दुर्भाग्य है कि सतारूढ़ दल भाजपा ने पिछले लोकसभा चुनावों में एक भी मुस्लिम को टिकट देकर चुनाव नही लड़वाया। बल्कि लोकसभा चुनाव के बाद विधान सभा चुनावों में भी ऐसा ही हुआ है। आज भाजपा सरकार में जो भी मुस्लिम चेहरे हैं वह सब मनोनित होकर आये हैं चयनित होकर नही। बल्कि सरकार बनने के बाद लव जिहाद और गौ रक्षा जैसे जितने भी मुद्दे सामने आयें हैं उनमें मुस्लिम एक पीड़ित वर्ग के रूप में ही सामने आया है। ऐसा क्यों और कैसे हुआ है इसका कोई संतोषजनक जवाब सामने नही आया है। इन्ही कारणों से आज भाजपा की छवि एक मुस्लिम विरोधी दल का रूप ले चुकी है जो दुर्भाग्यपूर्ण है।
इसलिये आज जहां देश इस रोज-रोज की आतंकी समस्या के स्थायी हल की मांग कर रहा है वहीं पर सरकार की स्थिति बहुत कठिन होती जा रही है। क्योंकि जम्मू कश्मीर में धारा 370 पर आज सरकार चुनाव की पूर्व संध्या पर कारवाई की बात कर रही है जबकि इस पर एक विस्तृत बहस की आवश्यकता है जिसके लिये आज समय नही है। इसी तरह कुछ और सवाल हैं जिनपर सरकार की ओर से जबाव नही आया है। गुजरात दंगों को लेकर 28 दिसम्बर को सर्वोच्च न्यायालय में आयी रिपोर्ट में कुछ मामलों में पुलिस को स्पष्ट दोषी ठहराया गया है लेकिन कोई कारवाई सामने नही आई है। राणा अयूब की ‘‘गुजरात फाईल्ज’’ पर भी चुप्पी कई सवाल खड़े करती है। यही नही अभी पुलवामा के बाद एक न्यूज साईट में हाफिज सईद और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथ मिलाते हुए एक फोटो दिखाया गया है और दावा किया गया है कि यह फोटो आजम खान ने जारी किया है। लेकिन इस पर सरकार की ओर से कोई प्रतिक्रिया नही आयी है। इसी तरह अब अभिनन्दन की वापसी के बाद यू टयूब में एक आडियो एवी डांडिया के हवाले से जारी किया गया है। यह सब कुछ सरकार की नीयत और नीति पर गंभीर सवाल खड़े करता है। लेकिन इस पर भी सरकार की ओर से कोई प्रतिक्रिया जारी नही की गयी है। यह कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर इस समय सरकार की ओर से प्रतिक्रिया आना आवश्यक है अन्यथा इस सबके परिणाम घातक होंगे।