Wednesday, 17 December 2025
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चुनाव आयोग की भूमिका पर उठते सवाल

निष्पक्ष और स्वतन्त्र चुनाव करवाने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की है। यह जिम्मेदारी निभाने के लिये चुनावों की घोषणा के साथ ही पूरा प्रशासनिक तन्त्र आयोग के नियन्त्रण में आ जाता है यह व्यवस्था की गयी है। चुनावों की घोषणा के साथ ही आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू हो जाती है और यह संहिता लागू होने के बाद सामान्य प्रशासनिक कार्यों को छोड़कर हर बड़े फैसले के लिये चुनाव आयोग से अनुमति लेनी पड़ती है। चुनावों के दौरान क्या-क्या आचार संहिता के दायरे में आता है और इस संहिता की उल्लंघना के लिये क्या-क्या प्रतिबन्धात्मक कदम आयोग उठा सकता है यह पूरी तरह परिभाषित हैं। चुनावों के दौरान आयोग की प्रशासनिक शक्तियां सर्वोच्च हो जाती हैं। चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है उस पर सरकार का कोई नियन्त्राण नहीं होता है। आयोग को सरकारी नियन्त्रण से बाहर इसलिये रखा गया है ताकि उसकी निष्पक्षता पर कोई आंच न आये।
लेकिन क्या इस बार चुनाव आयोग यह भूमिका निष्पक्षता से निभा पाया है। यह सवाल चुनावों के अन्तिम चरण तक आते-आते एक बड़ा सवाल बन कर देश के सामने खड़ा हो गया है। यह स्थिति बंगाल में हुई चुनावी हिंसा के बाद एक बड़ा मुद्दा बन गयी है। चुनाव आयोग के पास आचार संहिता के उल्लंघन की शिकायतें चुनाव प्रक्रिया के शुरू होने के साथ ही आनी शुरू हो गयी थी। लेकिन आयोग ने इन शिकायतों की ओर तब तक उचित ध्यान नही दिया जब तक सर्वोच्च न्यायालय से एक तरह की प्रताड़ना उसे नही मिल गयी। इस प्रताड़ना के बाद आयोग ने कुछ नेताओं के चुनाव प्रचार पर कुछ समय के लिये प्रतिबन्ध लगाया। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भाजपा अध्यक्ष अमितशाह और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को लेकर आयी शिकायतों पर तब तक कुछ नही किया जब तक इस संर्भ में भी सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाएं नही आ गयी। यह याचिकाएं आने के बाद जब शीर्ष अदालत ने इस पर तीन दिन में फैसला लेने के निर्देश दिये तब इन लोगों को क्लीनचिट मिल गयी। इस क्लीनचिट को लेकर सवाल उठे हैं जिनका कोई जवाब नही आया है।
चुनाव आयोग ईवीएम मशीनों से चुनाव करवा रहा है। ईवीएम मशीनों की विश्वसनीयता को लेकर एक लम्बे समय से सवाल उठते आ रहे हैं। देश के कई राज्यों के उच्च न्यायालयों में इस संद्धर्भ में याचिकाएं दायर हुई है। ईवीएम जब केरल विधानसभा के 1982 के चुनावों में एक विधानसभा हल्के में इस्तेमाल हुई थी तब इस पर उच्च न्यायालय में याचिका आ गयी थी। जब यह याचिका 1984 में सर्वोच्च न्यायालय में पंहुची थी तब शीर्ष अदालत ने इसके इस्तेमाल पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। उसके बाद 1998 में जब संसद में इस पर चर्चा हुई तब ईवीएम का चुनावों में उपयोग शुरू हुआ। लेकिन इसकी विश्वसनीयता को लेकर सवाल उठते रहे। जब भाजपा नेता डा. स्वामी ने इस पर दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की तब सारे मामले सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पास ले लिये और वीवीपैट की इसमें व्यवस्था जोड़ दी जो अब पूरी तरह लागू हुई है। लेकिन वीवीपैट को पूरी तरह प्रमाणिक बनाने के लिये जब इक्कीस राजनीतिक दलों ने इसमें 50ः मशीनों की पर्चीयों की गणना की मांग की और सर्वोच्च न्यायालय ने आयोग से इस बारे में जवाब मांगा तब आयोग ने यह कह दिया कि ऐसी गणना करने से चुनाव परिणाम में छः दिन की देरी हो सकती है। शीर्ष अदालत ने भी आयोग के जवाब को मानते हुए यह याचिका खारिज कर दी। क्या इससे जन विश्वास को धक्का नही लगा है? यदि चुनाव परिणामों की गणना में छः दिन का समय लगने से जन विश्वास जीता जा सकता था तो ऐसा क्यों नही किया गया? ईवीएम पर सन्देह करने का आधार तो चुनाव आयोग स्वयं दे रहा है। इससे जो स्थिति उभरती नजर आ रही है उससे यह स्पष्ट लग रहा है कि ईवीएम फिर बड़ा मुद्दा बनने जा रहा है।
चुनावों की प्रक्रिया शुरू होने से लेकर अन्त तक चुनाव आयोग पर विश्वसनीयता का संकट गहराता चला गया है। जिस ढंग से बनारस में तेज बहादुर यादव का नामाकंन रद्द किया गया और उसमें सर्वोच्च न्यायालय ने भी कोई हस्ताक्षेप नही किया उससे चुनाव आयोग के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिष्ठा पर भी आंच आयी है। आयोग की निष्पक्षता को लेकर जो प्रश्नचिन्ह बंगाल के संद्धर्भ में लगे हैं उनके परिणाम दूरगामी होंगे। क्योंकि बंगाल में हिंसा तो पहले चरण से ही शुरू हो गयी थी जो हर चरण में जारी रही। लेकिन आयोग ने जो कदम अमितशाह प्रकरण के बाद उठाया वह पहले क्यों नही उठाया गया। प्रशासन तो चुनाव आयोग के ही नियन्त्रण में था। यदि आज गृह सचिव और एडीजीपी को हटाया जा सकता है तो यही कदम पहले भी उठाया जा सकता था। अब अमितशाह प्रकरण के बाद चुनाव प्रचार पर दो दिन पहले ही रोक लगा देने से आयोग की निष्पक्षता पर और भी गंभीर आक्षेप आ गये हैं। और जब देश में चुनाव आयोग की विश्वसनीयता ही खत्म हो जायेगी तब पूरे चुनाव परिणामों पर भी अपने आप ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है। यह प्रश्नचिन्ह लगना सीधे सीधे अराजकता का खतरा इंगित करता है और यही सबसे घातक है। क्योंकि जब संस्थानों की विश्वसनीयता पर आंच आनी शुरू होती है तब उससे अराजकता ही पैदा होती है यह तय है।

मुद्दों से भागते मोदी

क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जानबूझकर आम आदमी के मुद्दों से भागने का प्रयास कर रहे है? यह सवाल चुनाव के अन्तिम चरणों तक पंहुचते-पहुंचते एक बड़ा सवाल बन कर खड़ा हो गया है। क्योंकि रोटी, कपड़ा और मकान के बाद मंहगाई और बेरोजगारी उसके बड़े मुद्दे बन जाते हैं। मंहगाई और बेरोजगारी के कारण उसे अपने और परिवार के लिये शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था करना कठिन ही नही असंभव तक हो जाता है। देश में मंहगाई जिस स्तर पर मई 2014 में थी आज उससे कम होने ही बजाये और ज्यादा ही बढ़ी है। बेरोजगारी का आलम यह है कि मोदी और उनकी भाजपा ने 2014 में प्रति वर्ष दो करोड़ नौकरियां देने का जो वायदा देश को बेचा था वह एकदम कोरा और झूठा आश्वासन ही साबित हुआ है। उल्टे नोटबंदी के बाद करोड़ो लोगों का रोजगार छिन गया है। यहां तक की केन्द्र सरकार और उसके विभिन्न निकायों में लाखों पद रिक्त पड़े है जिन्हे मोदी सरकार भर नही पायी है। भ्रष्टाचार के जिन मुद्दों को 2014 में उछालकर यह धारणा बना दी गयी थी कि कांग्रेस और यूपीए सरकार भ्रष्टाचार का पर्याय बन गयी है उनमें से एक भी मुद्दे पर किसी अदालत से किसी को कोई सज़ा मिल पाने की बात आज तक सामने नही आयी है। उल्टे यह सामने आया है कि जिस 1,76000 करोड़ के स्कैम में कई बड़े लोगों की गिरफ्तारियां हुई थी वह स्कैम हुआ ही नही था।
आज पांच वर्ष सरकार चलाने के बाद इन सभी मुद्दों पर सफल उपलब्धियों के साथ मोदी और उनकी सरकार को गर्व के साथ वोट मांगने आना चाहिये था। लेकिन ऐसा हो नही पाया है। चुनाव में मोदी इन मुद्दों पर बात ही नही आने दे रहे हैं। बल्कि पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र तक में भी उनका जिक्र नही है। बल्कि उज्जवला और आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं का भी इस चुनाव प्रचार अभियान में कोई उल्लेख सामने नही आया है जबकि एक समय इन योजनाओं के लाभार्थीयों के आंकड़ों के आधार पर बड़े-बड़े दावे किये जा रहे थे। ऐसे बहुत सारे वायदे और दावे हैं जो 2014 की सरकार बनने से पहले और बाद में किये गये थे। कायदे से आज के चुनाव में तो इन्ही वायदों/दावों से जुड़े आंकड़े जनता की अदालत में रखे जाने चाहिये थे लेकिन इस चुनाव में मोदी और उनकी सरकार इस सबका कोई जिक्र ही नही छेड़ रही है। जिस नोटबंदी से यह दावा किया गया था कि उसके बाद देश में टैक्स अदा करने वालों का आंकड़ा बढ़ा है आज उसका भी कोई जिक्र नही किया जा रहा है क्योंकि इस आंकड़े में भी कमी आयी है। आज टैक्स अदा करने वालों की संख्या कम हुई है। इस तरह इस चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार के पास 2014 से लेकर अब तक कुछ भी बड़ा नही है जिसके दम पर सरकार पूरे आत्मविश्वास के साथ यह दावा कर सके उसके अमुक काम से आम आदमी को सीधे लाभ हुआ हो।
इस चुनाव के शुरू में प्रधानमन्त्री ने पुलवामा और फिर बालाकोट का जिक्र उठाया लेकिन यह चर्चा भी ज्यादा देर तक नही चल पायी। इसके बाद हिन्दुत्व को मुद्दा बनाया गया प्रज्ञा ठाकुर को उम्मीदवार बनाकर। इसी के साथ जब कांग्रेस ने जम्मू-कश्मीर के लिये बनाये गये विशेष सेना अधिकारी अधिनियम में संशोधन करने की बात की तब राष्ट्रवाद का मुद्दा उभारा गया। लेकिन अब गालियों को मुद्दा बनाकर यह आरोप लगाया कि विपक्ष उन पर जुलम कर रहा है। नितिन गडकरी ने इन छप्पन गालियों की वाकायदा सूची बनाकर जनता से आग्रह किया कि वोट देकर इस जुल्म का बदला लें। अब सैम पित्रोदा की 1984 के दंगो को लेकर आयी टिप्पणी को मुद्दा बनाकर पंजाब और दिल्ली में प्रदर्शन करवाये गये हैं। हिंसा कहीं भी हो उसकी निन्दा की जानी चाहिये और हिसां करने वालों के साथ सख्ती से पेश आना चाहिये। लेकिन जब हम 1984 के दिल्ली के दंगो की याद करते हैं तो उसी के साथ पंजाब में एक दशक से भी अधिक समय तक चले आतंकवाद की भी याद आ जाती है। उस आतंकवाद में जिन लोगां ने अपने परिजनों को खोया है उनके जख्म भी हरे हो जाते हैं पंजाब में 1967 से जनसघं से लेकर आज तक भाजपा का अकालीयों के साथ सत्ता का गठबन्धन रहा है। लेकिन इस गठबन्धन ने आतंकवाद के दौरान हुई हत्याओं की कितनी निंदा की है इसे भी सभी जानते हैं उस दौरान पंजाब में रात के समय अन्य राज्यों की बसें तक नही चलती थी। बसों से उतार कर गैर सिखों को मारा गया है यही इतिहास का एक कड़वा सच है। बल्कि अकाली-भाजपा सरकार में जब राजोआना को फांसी देने की बात आयी थी और मुख्यमन्त्री बादल ने उस पर केन्द्र को साफ कहा था कि ऐसा करने से पंजाब के हालात बिगड़ जायेंगे। बदाल के इस वक्तव्य पर भाजपा सरकार में होकर मूक दर्शक बनकर बैठी रही थी। हमने पंजाब के आतंकवाद के जख्म सहे हैं जो आज मोदी के ब्यान के बाद ताजा हो गये हैं।
आज जब 1984 के दंगो के गुनहागारों को सज़ा की बात हो रही है तो क्या आतंकवाद के दोषीयों को भी चिन्हित करके उन्हे भी सजा नही मिलनी चाहिये? क्या 2002 के गुजरात के दंगो के लिये भी दिल्ली की तर्ज पर ही सजा नही होनी चाहिये? गुजरात दंगो को लेकर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त जस्टिस हरंजीत सिंह वेदी कमेटी की रिपोर्ट पर आज तक कारवाई क्यों नही हो रही है। यह रिपोर्ट 28 दिसम्बर 2018 को सर्वोच्च न्यायालय में आ चुकी है। इसी तरह क्या समझौता ब्लास्ट में मारे 68 लोगों की हत्या के जिम्मेदारों को सजा नही मिलनी चाहिये?
ऐसे दर्जनो मामलें हैं जिन पर मोदी सरकार को ही देश को जवाब देना है और जवाब के लिये चुनाव से ज्यादा उपयुक्त समय और कुछ नही हो सकता। इसलिये यह सब पाठकां के सामने रखा जा रहा है।

लोकतन्त्र पर उठते सवाल

लोकसभा चुनावों के चार चरण पूरे हो गये हैं और इनमें 373 सीटों पर मतदान हो चुका है। 272 सीटों पर मतदान होना शेष है। 373 सीटों पर हुए मतदान में किस पार्टी को क्या मिला होगा इसका पता तो परिणाम आने पर ही लगेगा। लेकिन अब तक हुए मतदान से जो महत्वपूर्ण बिन्दु उभर कर सामने आये हैं उसमें एक है कि देश की व्यापारिक राजधानी मुबंई में 50% से कम मतदान हुआ है। दूसरा बिन्दु है कि इस मतदान के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बंगाल में ममता बैनर्जी को सीधे धमकी दी है कि उनकी पार्टी के चालीस विधायक उनके संपर्क में हैं और अब उनकी खैर नही है। ममता को धमकी देने के बाद दिल्ली से भी खबर आ गयी कि वहां भी केजरीवाल की सरकार तोड़़ने के लिये भारी निवेश किया जा रहा है। वहां शायद एक विधायक भाजपा में चला भी गया है। इन धमकीयों के बाद वाराणसी में सपा के उम्मीदवार तेज बहादुर यादव का नांमाकन रद्द किये जाने का मामला भी सामने आ गया है। तेज बहादुर यादव का नामांकन रद्द होना कानून के जानकारों के मुताबिक एकदम कानून विरोधी है। इस नामांकन को रद्द करने के लिये जिस तरह से सारा कुछ घटा है उससे चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर एक गहरा आघात लगा है। यह नामांकन रद्द होने पर जिस तरह का रोष सामने आया है उसका वीडियो कुछ घन्टो में ही 25 लाख लोगों ने शेयर कर डाला है। हर आदमी ने इस पर अपनी नाराज़गी जाहिर की है।

चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर कई गंभीर सवाल उठने के बाद जब सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस पर नाराज़गी जताई तब जाकर आयोग ने आचार संहिता के खुले उल्लंघन के मामलों का संज्ञान लेना शुरू किया और कुछ नेताओं के चुनाव प्रचार पर कुछ कुछ समय के लिये प्रतिबन्ध भी लगाया। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमितशाह के मामलों में आयी शिकायतों पर जब आयोग ने कुछ नहीं किया तब सर्वोच्च न्यायालय को इस पर भी निर्देश देने पड़े कि आयोग छः मई तक इस पर फैसला ले। इस पर आयोग कितनी कारवाई करता है और कितनी क्लीन चिट देता है और इस सब पर शीर्ष अदालत कैसे क्या संज्ञान लेती है इसका पता आगे चलेगा। ईवीएम वोटिंग मशीनों की मतदान के दौरान खराबी की कई शिकायतें आ गयी हैं। इन शिकायतों के बाद इक्कीस राजनीतिक दलों ने सर्वोच्च न्यायालय से फिर गुहार लगायी है कि वीवीपैट के मिलान की संख्या बढ़ाई जाये। इस पर आयोग को नोटिस भी हो गया है। वीवीपैट की शिकायत की प्रक्रिया पर एतराज उठाते हुए एक और याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दायर हो चुकी है। इस पर भी आयोग से जवाब मांगा गया है।
इस तरह यह जितनी भी घटनायें घटी हैं यह सब अपने स्वस्थ लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े करती है। प्रधानमन्त्री मोदी देश का सबसे बड़ा सम्मानित पद है जिस पर लोकतन्त्र की रक्षा की सबसे पहली जिम्मेदारी आती है। इस समय चुनाव चल रहे हैं। इसका परिणाम देश का भविष्य तय करेगा। इसके लिये देश की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं पर खुले मंच से निष्पक्ष सार्वजनिक बहस होनी चाहिये थी लेकिन देश के बुनियादी सवालों पर यह बहस कहीं दूर दूर तक देखने को नही मिल रही है। पूरा चुनाव प्रचार सोशल मीडिया और टीवी चैनलों तक ही सीमित हो कर रह गया है। यह आरोप लग रहे हैं कि न्यूज चैनलों के एंकरो ने पार्टीयों के स्टार प्रचारकों की जगह ले ली है। प्रधानमन्त्री स्वयं जब चुनाव प्रचार के दौरान एक राज्य की चयनित सरकार को तोड़ने की अपरोक्ष में धमकी देंगे तो क्या उसे लोकतन्त्र के प्रति उनकी आस्था माना जायेगा या हताशा। बीएसएफ का एक बर्खास्त जवान जब देश के प्रधानमन्त्री के खिलाफ चुनाव लड़ने की हिम्मत दिखाये तो क्या इसे देश में सही और स्वस्थ लोकतन्त्र होने की संज्ञा नही दी जा सकती थी? इस जवान के युवा लड़के की हत्या हुई है और उसके हत्यारे अभी तक पकड़े नही गये हैं क्या इसके लिये मोदी और उनके मुख्यमन्त्री योगी को उन हत्यारों को शीघ्र पकड़ने के निर्देश नहीं देने चाहिये थे? तेज बहादूर यादव ने खराब खाना जवानों को खिलाने की शिकायत की थी और जब उसकी शिकायत पर कोई कारवाई नही हुई तब उसने उस खाने का वीडियो जारी कर दिया। क्या खराब खाने की शिकायत करना कोई अपराध है बल्कि इस शिकायत के लिये उसके साहस की प्रशंसा की जानी चाहिये थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ उसे सज़ा देकर निकाल दिया गया। इस बर्खास्तगी के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में उसकी याचिका लंबित है। जब तेज बहादूर यादव ने चुनाव लड़ने का ऐलान किया और नामांकन दायर कर दिया तब यदि प्रधानमन्त्री ने उसके साहस की सराहना की होती और पीड़ा संझी की होती तो उससे प्रधानमन्त्री का ही कद बढ़ता। वह महामानव हो जाते लेकिन यहां तो यह नामांकन रद्द करवाने का आरोप अपरोक्ष में उन पर ही आ गया है। इसमें प्रधानमन्त्री का सीधा दखल था या नहीं यह नहीं कहा जा सकता लेकिन यह तो स्वभाविक है कि उनके चुनाव क्षेत्र में और कौन-कौन उनके खिलाफ चुनाव में है इसकी जानकारी उन्हें होगी ही। फिर जब इतना बड़ा यह मुद्दा बन गया तब भी प्रधानमंत्री की इस पर कोई प्रतिक्रिया न आना अपने में कई सवाल खड़े कर जाता है। यही स्थिति प्रज्ञा ठाकुर के चुनाव लड़ने और हार्दिक पटेल को यह अनुमति न मिलने पर है। आज राहुल गांधी की दोहरी नागरिकता का मुद्दा जिसे सर्वोच्च न्यायालय 2015 में समाप्त कर चुका है उसे गृह मन्त्रालय के माध्यम से फिर उठाये जाने से प्रधानमंत्री और उनकी सरकार की कार्यशैली पर ही सवाल खड़े कर रहा है। आज इन सारे मुद्दों को जिस तरह से उछाला गया है उससे भविष्य में लोकतन्त्र की स्थिति क्या होगी उसको लेकर सवाल उठने स्वभाविक है। क्योंकि दुनिया का कोई भी धर्म, हिंसा और अपराध का पाठ नही पढ़ाता है। अपराध और हिंसा कोई भी धर्म और जाति से नही जुड़ते है बल्कि यह व्यक्ति का अपना स्वभाव और उसकी परिस्थिति पर निर्भर करता है। जन्म से सभी एक समान ही होते है। ऐसे में हिंसा को धर्म से जोड़ने का प्रयास अपरोक्ष में लोकतन्त्र को कमजोर करने का प्रयास है।

क्या न्यायपालिका भी खतरे में है

‘‘इस समय न्यायापालिका भी संकट में है। उसे रिमोट कन्ट्रोल से नियन्त्रित करने का प्रयास किया जा रहा है।’’ यह प्रतिक्रिया रही है देश के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों की जब प्रधान न्यायधीश रंजन गगोई के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोप लगे। यह आरोप लगना एक बहुत बड़ी बात है क्योंकि गगोई सर्वोच्च न्यायालय के उन चार न्यायधीशों में शामिल थे जिन्होने एक पत्रकार वार्ता करकेे शीर्ष अदालत की विश्वसनीयता पर लगते प्रश्नचिन्हों पर चिन्ता व्यक्त की थी और देश की जनता का ध्यान इस ओर आकर्षित किया था। इन न्यायधीशों की चिन्ता का आधार था पिछले कुछ अरसे में शीर्ष अदालत के सामने आये कुछ महत्पूर्ण मामलों को लेकर जो आचरण सुप्रीम कोर्ट का रहा है। इन मामलों को पूरा देश जानता है इसलिये मैं यहां पर उनके विवरण में नही जाना चाहता । यहां चिन्ता ओर चिन्तन का विषय यह है कि जो न्यायधीश देश के सामने सर्वोच्च न्यायालय की साख को लेकर चिन्ता व्यक्त कर चुका हो उसके अपने ही खिलाफ ऐसे आरोप लग जायें तो इससे विश्वास को एक गहरा आघात लगना स्वभाविक है। किसी संस्था की प्रतिष्ठा उसके भव्य भवन निर्माण से नही वरन उसको संचालित कर रहे लोगों के अपने आचरण से बनती और बिगड़ती है। फिर जब ऐसी संस्था सर्वोच्च न्यायालय हो तो वस्तुस्थिति की गंभीरता और भी बढ़ जाती है। क्योंकि आम आदमी के भरोसे के शीर्ष संबल ईश्वर और न्यायपालिका ही होती है। इसलिये तो जहां राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता है वहीं न्यायधीश को स्वयं ईश्वर की संज्ञा दी गयी है संभवतः इसी कारण से अदालत में न्यायधीश को ‘‘ माई लार्ड’’ कहकर संबोधित किया जाता है। क्योंकि न्यायधीश के पास ही मृत्यु दण्ड का अधिकार है।
इस परिपेक्ष में यह आवश्यक हो जाता है कि ऐसे न्यायधीशों पर लगने वाले आरोपों की जांच के लिये प्रक्रिया आम आदमी से कुछ भिन्न हो यह सही है कि हर आदमी कानून के सामने एक समान है और यौन शोषण के आरोपों की जांच के लिये जो व्यवस्था समय-समय पर स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने कर रखी है उसके अनुसार तो प्रधान न्यायधीश को अपने पद से पहले हट जाना चाहिये। फिर इन आरोपों पर जो जो प्रतिक्रियाएं विभिन्न वर्गों से आयी हैं उसका मंतव्य भी अधिकांश में इसी तरह का रहा है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित की गयी ‘‘इन हाॅऊस जांच कमेटी’’ की प्रक्रिया पर जिस तरह से सवाल उठाये गये हैं उसका आश्य इसी तरह का है। यौन शोषण के आरोप लगाने वाली महिला की दिसम्बर में हुई नौकरी से बर्खास्तगी को उसके दोष के अनुपात से अधिक बताया जा रहा है और अपरोक्ष में इस बर्खास्तगी को इन आरोपों का ही प्रतिफल करार दिया जा रहा है। इन आरोपों और इस बर्खास्तगी पर 250 महिला वकीलों/बुद्धिजीवियों ने एक पत्र लिखकर जिस तर्ज पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है उसका आश्य भी लगभग ऐसा ही है। लेकिन इस सबमें एक बड़ा सवाल जो अनुतरित रह जाता है वह है कि यदि आज प्रधान न्यायधीश अपने पद से अलग हो जाते हैं वह न्यायिक दायितत्व छोड़ देते हैं और फिर यदि जांच में उनके खिलाफ लगाये गये आरोप निराधार साबित हो जाते हैं तो क्या उनका आज पद से अलग होना उन ताकतों की जीत नही होगी जो उन्हे पद से हटाना चाहते हैं।
इस परिदृश्य में यह आवश्यक हो जाता है कि यह आरोप कब लगे और इन्हें न्यायपालिका पर हमला क्यों कहा जा रहा है इस पूरे प्रकरण से जुडे कुछ आवश्यक तथ्य पाठकों के सामने रखे जायें। इसमें सबसे प्रमुख है आरोप लगाने वाली महिला। यह महिला मई 2014 से सर्वोच्च न्यायालय में सेवारत है। 27 अगस्त 2018 को इसका स्थानान्तरण प्रधान न्यायधीश के आवास स्थित कार्यालय में हुआ। इसके बाद 22 अक्तूबर 2018 को इसका स्थानान्तर सर्वोच्च न्यायालय के रिर्सच और प्लानिंग प्रभाग में हो गया और 22 नवम्बर को पुस्तकालय प्रभाग में स्थानान्तरण हो गया। प्लानिंग प्रभाग में इसके खिलाफ अनुशासनहीनता के आरोप लगे। इन आरोपों की जांच में दोषी पाये जाने पर 21 दिसम्बर 2018 को इसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया। जब अनुशासनहीनता के आरोप लगे और जांच के बाद बर्खास्तगी की सज़ा दी गयी उस दौरान यौन उत्पीड़न के यह कोई आरोप नही लगाये गये। इसी दौरान सर्वोच्च न्यायालय में अनिल अंबानी और ऐरीसन के बीच 550 करोड़ की अदायगी को लेकर अदालत की अवमानना का मामला चल रहा था। इस मामले की सुनवाई कर रही जस्टिस आर एफ नरीमन और जस्टिस विनित सरन की पीठ ने अंबानी को अदालत में पेश होने के आदेश किये थे। यह यह आदेश सर्वोच्च न्यायालय की वैबसाईट पर 7-1-2019 को अपलोड़ हुए। लेकिन अपलोड़ करते हुए आदेश वाक्य "Personal appearance of the alleged contemnor(s) is not dispensed with,"  में से not शब्द छूट गया। यह शब्द छूटने से आदेश का अर्थ ही बदल गया। दस जनवरी को ऐरीसन के प्रतिनिधि इसे अदालत के संज्ञान मे लाये। अदालत ने इसका कड़ा संज्ञान लिया इस कोताई की जांच हुई और इसके लिये सुप्रीम कोर्ट के दो अधिकारियों मानव शर्मा और तपन चक्रवर्ती को नौकरी से बर्खास्त कर दिया। इस मामले में अनिल अंबानी को 12 और 13 फरवरी को अदालत में मौजूद रहना पड़ा और अन्तः ऐरीसन को पैसे देने पड़े।
यह सब होने के बाद अब 19-4-2019 को इस महिला सर्वोच्च न्यायालय के सभी 22 जजों को 20 पन्नों का पत्र लिखकर प्रधान न्यायधीश के खिलाफ यह आरोप लगाये हैं। यह आरोप सामने आने पर प्रधान न्यायधीश ने इसका संज्ञान लेते हुए इसकी सुनवाई के लिये तीन जजों की पीठ का गठन कर दिया। पीठ ने इसकी इन हाॅऊस जांच के साथ ही सेवा निवृत जस्टिस ए के पटनायक को अलग से जांच की जिम्मेदारी सौंपी है। सीबाआई, आईबी और दिल्ली पुलिस कमीशनर को इस जांच में सहयोग करने के निर्देश दिये हैं। जब यह आरोप सामने आये तब उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय के ही एक वकील उत्सव वैंस ने एक शपथपत्र दायर करके यह खुलासा किया है कि कुछ लोग उसके पास आये थे और वह इस तरह का एक मामला तैयार करने में उसका सहयोग चाहते थे। इसके लिये वह 1.5 करोड़ उसे देने को तैयार थे। वैंस ने अपने शपथपत्र में अन्य के साथ मानव शर्मा और तपन चक्रवर्ती के नामो का उल्लेख किया है। उत्सव बैंस के शपथपत्र में यह आरोप है कि सर्वोच्च न्यायालय में बैंच फिक्सिंग के धन्धे में लगे हुए हैं। उत्सव का यह आरोप और भी गंभीर है। राफेल प्रकरण भी जनता के सामने है। सर्वोच्च न्यायाल इसमे अपने ही पूर्व फैसले पर पुनः विचार के लिये बाध्य हो गया है।
इस तरह जो कुछ घटा है उसमें यह बहुत महत्वपूर्ण है कि जिस महिला के साथ उसके पत्र के मुताबिक उत्पीड़न की घटना दस अक्तूबर को घट जाती है इस घटना के बाद अनुशासनहीनता के लिये उसके खिलाफ कारवाई हो जाती है लेकिन उस दौरान यह आरोप नही लगते हैं। अब अंबानी और राफेल जैसे प्रकरण घट जाने के बाद इन आरोपों का लगना एक महज संयोग है या इसके पीछे कुछ और है। यह देश के सामने आना बहुत जरूरी है और जिस तरह से सर्वोच्च न्यायालय ने जांच के कदम उठाये हैं और प्रतिबद्धता दिखाई है उसको सामने रखते हुए यह बहुत संभव है कि महिला पर कोई दबाव रहा हो और यह आरोप सही में न्यायपालिका पर हमले की ही साजिश हो।

प्रज्ञा की उम्मीदवारी से उठते सवाल

लोकसभा चुनाव के दो चरण पूरे हो चुके हैं। इनमें 186 सीटों पर वोट डाले जा चुके हैं लेकिन यह चुनाव किन मुद्दों पर लड़ा जा रहा है और अब तक जो मतदान हुआ है उसमें कौन से मुद्दे प्रभावी रहे हैं इस पर वह लोग भी स्पष्ट नही है जो वोट डाल चुके हैं। शायद ऐसा पहली बार हो रहा है कि राष्ट्रीय मुद्दों पर कोई खुलकर बहस सामने नहीं आ रही है। इसीलिये इस चुनाव के परिणाम घातक होने की संभावना बढ़ती जा रही है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि यह चुनाव साईलैन्ट मोड़ में क्यों चल रहा है। क्या सही में देश के सामने आज कोई मुद्दा ही नही बचा है? क्या सारी समस्याएं हल हो चुकी हैं। देश की समस्याओं/मुद्दों का आकलन करने के लिये यह समझना आवश्यक है कि 2014 में जब यह चुनाव हुए थे तक किन सवालों पर यह चुनाव लड़ा गया था। उस समय केन्द्र में कांग्रेस के नेतृत्व में एनडीए की सरकार थी। उस सरकार के खिलाफ स्वामी रामदेव और अन्ना हजारे जैसे समाज सेवीयों ने मंहगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और कालेधन के मुद्दे उठाये थे। इन्ही मुद्दों को लेकर लोकपाल की मांग एक बड़े आन्दोलन के रूप में सामने आयी थी। प्रशान्त भूषण जैसे बड़े वकील ने कोल ब्लाॅक आवंटन टू जी स्पैक्ट्रम और कामन वैल्थ गेम्ज़ में हुए भ्रष्टाचार को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था और शीर्ष अदालत ने भी इनका संज्ञान लेते हुए इनमें जांच के आदेश दिये थे। जांच के दौरान कई राजनेताओं, नौकरशाहों और कारपोरेट घरानो के लोगों की गिरफ्तारीयां तक हुई थी। 2014 का चुनाव इन मुद्दों की पृष्ठभूमि में हुआ और सरकार बदल गयी क्योंकि भाजपा ने उस समय इन सभी मुद्दों पर प्रमाणिक और प्रभावी तथा समयबद्ध कारवाई का वायदा करके देश में अच्छे दिन लाने का भरोसा दिलाया था।
उस समय यूपीए सरकार का मंहगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार को लेकर जो विरोध हुआ था उसे तब किसी ने भी राष्ट्रद्रोह की संज्ञा नही दी थी। तब किसी एक व्यक्ति/नेता की स्वीकार्यता के लिये वातावरण तैयार नही किया गया था। सरकार के विरोध को रोकने के लिये कोई कदम नही उठाये गये थे। परिणामस्वरूप सारा सत्ता परिवर्तन एक स्वभाविक प्रक्रिया के रूप में घट गया था। इसलिये आज जब फिर चुनाव आ गये हैं तब स्वभाविक है कि 2014 में उठे सवालों की वस्तुस्थिति आज क्या है यह जानना आवश्यक हो जाता है। उस समय पेट्रोल, डीजल की कीमतों और डालर के मुकाबले रूपये की घटती कीमतों पर नरेन्द्र मोदी से लेकर नीचे तक के एनडीए नेताओं ने जिस तर्ज पर सवाल उठाये थे आज यदि उन्ही की भाषा में वही सवाल प्रधानमंत्री मोदी से लेकर पूरे एनडीए नेतृत्व से पूछे जायें तो शायद वह उन्हे सुन भी नही पायेंगे। भ्रष्टाचार के जो मुद्दे उस समय उठे थे वह आज सारे खत्म हो गये हैं एक में भी किसी को सज़ा नही मिली है। उल्टे भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम में ही संशोधन करके ऐसा कर दिया है कि कोई भ्रष्टाचार की शिकायत करने का साहस ही नही कर पायेगा। बेरोज़गारी के मुद्दे पर यह सामने ही है कि जो प्रतिवर्ष दो करोड़ नौकरीयों का वायदा किया गया था उसकी हकीकत सरकार की अपनी ही रिपोर्टों से सामने आ गयी है। सरकार की अपनी रिपोर्ट के मुताबिक (जो नेशनल सैंपल सर्वे के माध्यम से सामने आयी है) नोटबंदी के बाद पचास लाख लोगों की नौकरी चली गयी है और केन्द्र सरकार तथा उसके विभिन्न अदारों में आज 22 लाख पद खाली पड़े हैं दूसरी ओर आरबीआई से आरटीआई के तहत आयी सूचना के मुताबिक मोदी सरकार के कार्यकाल में 5,55,603 करोड़ के ऋण बड़े लोगों के माफ कर दिये गये हैं। यह ऋण इस देश के आम आदमी का पैसा था जिसे कुछ लोगों की भेंट चढ़ा दिया गया। स्वभाविक है कि जब इस तरह की स्थिति होगी तो कल को इसका सीधा प्रभाव मंहगाई और बेरोज़गारी पर पड़ेगा।
2014 में इन मुद्दों के कारण सरकार बदली थी लेकिन आज यह सरकार इन मुद्दों पर बात ही नही होने दे रही है। हर सवाल राष्ट्रवाद के नाम पर दबा दिया जा रहा है। जो सरकार यह दावा कर रही है कि उसके राज में कोई भ्रष्टाचार नही हुआ है वह अभी कपिल सिब्बल द्वारा नोटबंदी पर उठाये गये सवालों का जवाब नही दे पा रही है। राफेल सौदे में सर्वोच्च न्यायालय ने रिव्यू के आग्रह को स्वीकार कर लिया है। यह आग्रह स्वीकार करते हुए शीर्ष अदालत ने पैंटागन पेपर्स पर यूएस कोर्ट द्वारा दिये गये फैसले को अपने फैसले का एक आधार बनाया है। अदालत ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि "The concern of the government is not ot protect national security, but to protect the government officials who interfered with the negotiations in the deal"  सर्वोच्च न्यायालय की इस टिप्पणी के बाद बहुत कु छ स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है। राफेल के मुद्दे पर राहुल गांधी ने जब से प्रधानमंत्री पर अपरोक्ष में  ‘‘चौकीदार चोर’’  का आरोप लगाया है उस पर भाजपा ने अब दो चरणों के मतदान के बाद राहुल गांधी के खिलाफ मामले दर्ज करवाने की बात की है। इतनी देरी के बाद भाजपा का यह कदम राजनीति की भाषा में बहुत कुछ कह जाता है। क्योंकि अब भाजपा ने भोपाल से साध्वी प्रज्ञा को चुनाव उम्मीदवार बनाकर एक और बड़ा संदेश देने का प्रयास किया है।
साध्वी प्रज्ञा ठाकुर मालेगांव धमाकों में एक आरोपी है। महाराष्ट्र की ए. टी. एस ने उन्हें गिरफ्तार किया था। यह गिरफ्तारी मकोका के तहत हुई थी। लेकिन जब यह जांच एन आईए के पास आ गयी थी तब एक स्टेज पर एन आई ए ने मकोका को लेकर प्रज्ञा को क्लीन चिट दे दी थी। लेकिन अदालत ने इस क्लीन चिट को स्वीकार नहीं किया और उनकी गिरफ्तारी जारी रही। अब उन्हे नौ साल जेल में रहने के बाद स्वास्थ्य के आधार पर जमानत मिली है। स्वास्थ्य कारणों पर जमानत लेने के बाद वह चुनाव लड़ रही है। उनके मामले की तब जांच कर रहे ए टी एस प्रमुख हेमन्त करकरे की मुम्बई के 26/11 के आतंकी हमले में मौत हो गयी थी। प्रज्ञा ने इस मौत को उनके श्राप का प्रतिफल कहा है। प्रज्ञा के इस ब्यान से भाजपा ने पल्ला झाड़ लिया है। इस ब्यान के बाद प्रज्ञा का बाबरी मस्ज़िद का लेकर ब्यान आया। प्रज्ञा ने दावा किया है कि उन्होंने स्वयं मस्जि़द पर चढ़कर उसे गिराने का काम किया है। चुनाव आयोग ने इस ब्यानों का संज्ञान लिया है अदालत में उनकी जमानत रद्द करने की याचिका जा चुकी है। इस परिदृश्य में प्रज्ञा को भाजपा द्वारा उम्मीदवार बनाना सीधे-सीधे हिन्दु ध्रुवीकरण की कवायद बन जाता है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या अदालत उनकी जमानत रद्द करके उन्हें जेल से ही चुनाव लड़वाती है या जमानत बहाल रखती है क्योंकि अदालत ने हार्दिक पटेल को भी चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी है। और हार्दिक पटेल से प्रज्ञा का मामला ज्यादा गंभीर है।

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