इस बार प्रदेश के माननीयों के भत्ते बढ़ाये जाने पर जनता में रोष और विरोध के स्वर देखने को मिले हैं। यह बढ़ौत्तरी पहली बार ही नही हुई है लेकिन विरोध पहली बार हो रहा है। इस विरोध के बाद भाजपा के ही वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमन्त्री प्रेम कुमार धमूल की प्रतिक्रिया आयी है। धूमल ने कहा है कि जब हम आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहे हैं तब यदि विधायक अपने भत्ते बढ़ायेंगे तो विरोध तो होगा ही। धूमल की प्रतिक्रिया के बाद मुख्यमन्त्री जयराम का ब्यान आया है कि वेतन भत्ते तो वीरभद्र और धूमल की सरकारों मे भी बढ़ाये गये हैं तो फिर इसी बार यह विरोध क्यों? जनता में उभरे विरोध के बाद भाजपा के एक विधायक मनोहर धीमान ने भी यह बढ़ौत्तरी लेने से इन्कार कर दिया है। जब सदन में इस विधेयक पर चर्चा हुई थी तब केवल मात्र सीपीएम के विधायक राकेश सिंघा ने इसका विरोध करते हुए इसे वापिस लेने की मांग की थी। लेकिन कांग्रेस और भाजपा के विधायकों ने न केवल इसका समर्थन बल्कि इसके पक्ष में जबरदस्त तर्क भी रखे। शायद उस समय कोई भी माननीय यह अनुमान ही नही लगा पाया कि जनता इस बढ़ौत्तरी का ऐसा विरोध करेगी। इसी विरोध का परिणाम है कि मुख्यमन्त्री को यह कहना पड़ा है कि यदि विधायक लिखकर देंगे तो सरकार इस पर पुर्नविचार करने को तैयार है। यह आने वाला समय बतायेगा कि विधायक लिखकर देते हैं और यह विधयेक वापिस हो पाता है या नही। क्योंकि मुख्यमन्त्री ने अपने से पलटकर यह जिम्मेदारी विधायकों पर डाल दी है।
जब हर मुख्यमन्त्री के कार्यकाल में ऐसी बढ़ौत्तरीयां होती रही हैं और तब इसका कभी न कभी न तो सदन के अन्दर विरोध हुआ और न ही सदन के बाहर जनता में। फिर इसी बार यह विरोध क्यों और इस विरोध का अर्थ क्या है। यह समझना ही इस विरोध का केन्द्र बिन्दु है। आज राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक मंदी एक सार्वजनिक बहस का मुद्दा बन चुका है क्योंकि उत्पादन में लगातार गिरावट आती जा रही है। 2014-15 के मुकाबले आज जीडीपी में 3% की गिरावट आ चुकी है। इसमें सबसे रोचक तथ्य यह है कि जब नोटबंदी लागू करते समय प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने देश से पचास दिन का समय मांगा था और यह दावा किया था कि पचास दिन में सबकुछ ठीक हो जायेगा। इस दावे के साथ यह भी कहा था यदि इस फैसले में कोई गलती निकलती है तो वह जनता द्वारा किसी भी चौराहे पर सजा़ भुगतने को तैयार हैं। लेकिन नोटंबदी पर आई आरबीआई की रिपोर्ट के मुताबिक उस समय 15.44 लाख करोड़ की कंरसी चलन मे थी जो आज बढ़कर 21.10 लाख करोड़ हो गयी है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि नोटबंदी की आड़ में बड़े स्तर पर कालाधन सफेद होकर फिर उन्हीं हाथों के पास जा पहुंचा है जिनके पास पहले था। आज भी 3.17 लाख करोड़ के नकली नोट बाज़ारा मे आ चुके हैं।
नोटबंदी से न तो कालाधन चिन्हित हो पाया है और न ही उसके बाद जाली नोट बंद हो पाये हैं। उल्टा तीन लाख करोड़ का अर्थव्यवस्था को नुकसान हुआ है। जब नरेन्द्र मोदी ने देश से पचास दिन का समय मांगा था उसी समय पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा था कि इस फैसले से आगे चलकर जीडीपी में 3% तक की गिरावट आ जायेगी। आज डा. मनमोहन सिंह का कथन शत प्रतिशत सही सिद्ध हुआ है। जीडीपी में आयी गिरावट से अब तक प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष में करीब एक करोड़ लोग बेरोज़गार हो गये हैं। जमा धन और ऋण दोनो पर ब्याज दरें कम हुई है लेकिन इसके बावजूद निवेश के लिये कोई आगे नही आ रहा है। आर्थिक मंदी से मंहगाई और बढ़ गयी है। जिन लोगों का रोज़गार छिन गया है उन्हें जीवन यापन चलाने में कठिनाई आ रही है। इसी सबका परिणाम है कि आज माननीयों के वेत्तन/भत्ते और पैन्शन तथा अन्य सुविधाओं को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर हो चुकी है। इसी याचिका का परिणाम है कि सांसदों के वेत्तन भत्ते बढ़ाने का प्रस्ताव एक कमीशन को भेजने की बात आयी है। आज जिस तरह की आर्थिक मंदी में देश पहुच गया है उसके लिये इन माननीयों के अतिरिक्त और दूसरा कोई जिम्मेदार नही है।
आज हिमाचल की स्थिति राष्ट्रीय स्थिति से भी दो कदम आगे पहुंच चुकी है। सरकार ने कर्ज और रोज़गार को लेकर सही आंकड़े प्रदेश की जनता के सामने नहीं रखे हैं। विधानसभा में आये लिखित आंकड़ों के बाद भी जब गलतब्यानी की जायेगी तो उसका असर सरकार की विश्वसनीयता पर पड़ेगा ही। इसी का परिणाम है कि जब पर्यटन निगम की परिसंपत्तियों को लीज पर देने की योजना सार्वजनिक हो गयी तो मुख्यमन्त्री को यह कहना पड़ा कि यह सब उनकी जानकारी के बिना हुआ है। इस पर जांच की बात करते हुए सचिव पर्यटक को बदल दिया गया। मुख्य सचिव को तीन दिन में रिपोर्ट सौंपने के निर्देश दिये गये हैं। आज मुख्य सचिव प्रदेश से चले भी गये हैं परन्तु यह रिपोर्ट सामने नही आयी है। क्योंकि जब यह मसौदा तैयार हुआ था तब इसकी प्रैजेन्टेशन मुख्य सचिव और मन्त्री परिषद के सामने भी दी गयी थी। उस पर कुछ अधिकारियों और मन्त्रीयों की टिप्पणीयां भी की हुई हैं ऐसे में इसके लिये किसी एक अधिकारी को दर्शित करना कैसे संभव हो सकता है। इस तरह के कृत्य जब आम आदमी के सामने आयेंगे तो वह सरकार पर कैसे विश्वास बना पायेगा। ऐसे दर्जनों मामले हैं जिनके कारण जनता का सरकार पर से विश्वास लगातार कम होता जा रहा हैै। ऐसे में जनता के सामने जब भी यह आयेगा कि विधायक और मन्त्री इस तरह से अपने वेतन भत्ते बढ़ा रहे हैं तो निश्चित रूप से उसका विरोध होगा ही। आज जनता को एक मौका मिलना चाहिये जहां वह अपने रोष को इस तरह से जुबान दे सके। आज जनता जो भत्ता बढ़ौत्तरी का इस तरह से मुखर विरोध कर रही है वह केवल राज्य सरकार के खिलाफ ही नही वरन् अपरोक्ष में केन्द्र की नीतियों के भी खिलाफ है और इस विरोध के परिणाम दूरगामी होंगे।







आज चिदम्बरम प्रकरण में जांच ऐजैन्सीयों की भूमिका पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं और यह सवाल तब और ज्यादा प्रमाणित हो जाते हैं जब इन्हे सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी ‘‘ पिंजरे का तोता’’ और अब सी जे आई को कथन कि ‘‘जब राजनीतिक संद्धर्भ न हो तो सीबीआई बहुत अच्छा काम करती है’’ के आईने में देखा जाये तो यह आरोप सही नजर आते हैं। लेकिन जांच ऐजैन्सीयों पर लगने वाले आरोप अपरोक्ष में राजनीतिक नेतृत्व पर ही आ जाते हैं। इस धारणा की पुष्टि एच एस बेदी कमेटी की रिपोर्ट से हो जाती है। यह सार्वजनिक सत्य है कि 2002 से 2006 के बीच जो कुछ गुजरात में घटा था उसमें यह आरोप लगे थे कि कहीं-कहीं यह हिंसा शासन-प्रशासन से प्रायोजित थी। पुलिस पर फर्जी एन काऊंटर दिखाने के आरोप लगे थे। इन कथित फर्जी मुठभेड़ों पर 2007 में बी जी वर्गीज, जावेद अख्तर और शबनम हाशमी ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका डाली थी। जिसमें फर्जी मुठभेड़ों के सत्रह मामले उठाये गये थे। इस याचिका के आते ही गुजरात सरकार ने इसकी जांच के लिये एसटीएफ का गठन कर दिया। एसटीएफ के प्रमुख की जिम्मेदारी पुलिस अधिकारी ए.के.शर्मा प्रधानमंत्री मोदी के निकटस्थ माने जाते हैं। इस कारण से हाशमी ने उनकी नियुक्ति पर ऐतराज उठाया। जब यह सब कुछ सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में लाया गया तब शीर्ष अदालत ने एसटीएफ की मानिटरिंग के लिये सर्वोच्च न्यायालय के ही पूर्व जज जस्टिस ए.वी.शाह की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन कर दिया। जस्टिस शाह ने यह जिम्मेदारी उठाने से इन्कार कर दिया। शाह के इन्कार के बाद गुजरात सरकार ने अपने ही स्तर पर शाह की जगह मुंबई उच्च न्यायालय के सेवानिवृत मुख्य न्यायधीश के.आर.व्यास को कमेटी का अध्यक्ष बना दिया। लेकिन जस्टिस शाह की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय ने की थी इसलिये सर्वोच्च न्यायालय ने जस्टिस व्यास के स्थान पर शीर्ष अदालत के ही पूर्व जज एच.एस.बेदी को कमेटी का अध्यक्ष बनाया।
जस्टिस बेदी को 12 मार्च 2012 को अध्यक्ष बनाया गया और यह कहा गया कि यह कमेटी तीन माह के भीतर अपनी पूर्ण या अन्तरिम रिपोर्ट सौंपेगी। लेकिन गुजरात सरकार ने इस रिपोर्ट के सौंपने, इसको सार्वजनिक करने और उन याचिकाकर्ताओं को भी देने का विरोध किया जिनके कारण यह कमेटी गठित हुई थी। इस विरोध पर यह मामला पुनः सर्वोच्च न्यायालय में आया और शीर्ष अदालत ने 18 दिसम्बर 2018 को यह रिपोर्ट याचिकाकर्ताओं को देने के आदेश दिये। इन आदेशों की अनुपालना में 20 दिसम्बर को जस्टिस बेदी ने 220 पन्नों की रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट में तीन मामलों को पुलिस हिरासत में हुई मौत करार देते हुए इसकी जांच और दोषीयों को कड़ी सज़ा देने के निर्देश शीर्ष अदालत ने दिये हैं। लेकिन आज तक इन निर्देशों की अनुपालना नही हुई है। जब जस्टिस बेदी कमेटी इन मामलों को देख रही थी उसी दौरान इन दंगों को लेकर एक पत्रकार राणा आयूब ने एक स्टिंग आप्रेशन किया। इसका जिक्र बेदी कमेटी की रिपोर्ट में भी आया है। यह स्टिंग आप्रेशन अब गुजरात फाईलज़ पुस्तक रूप में भी सामने आ चुका है। लेकिन आज तक इस पर कोई कारवाई नही हुई है। यदि इस स्टिंग में दर्ज तथ्य गलत हैं तो राणा आयूब के खिलाफ मानहानि का मामला चलाया जाना चाहिये था लेकिन ऐसा नही हुआ है। आज जिस एनआईए को अचूक शक्तियां दे दी गयी है उस पर समझौता ब्लास्ट मामले में एनआईए की ही पंचकूला स्थित अदालत में गंभीर आक्षेप लगाये हैं। इस ब्लास्ट में पचास से अधिक लोग मारे गये थे लेकिन सारे अभियुक्तों को बरी कर दिया गया है। यह बरी करने की कहानी भी वैसी ही है जैसी कि पहलू खान के हत्यारों को बरी करने की रही है।
इस तरह के एकदम नंगे मामले जब आम आदमी के सामने होंगे तो वह इस पूरी व्यवस्था को लेकर क्या धारणा बनायेगा? क्या वह किसी पर भी विश्वास कर पायेगा जब वह यह समझ जायेगा कि उसकी बचत पर ब्याज दर घटाकर उस बड़े ऋण धारक को लाभ पहुंचाया जा रहा है जिसका ऋण एनपीए होकर राईट आफ किया जा रहा है। जब आम आदमी इस सुनियोजित षडयंत्र को समझकर सड़क पर निकल आयेगा तब इस व्यवस्था का समूल नाश होना निश्चित है। ऐसी वस्तुस्थिति मे चिदम्बरम जैसी गिरफ्तारियों पर सवाल उठने स्वभाविक है।



ऐसे परिदृश्य में राहुल के बाद कांग्रेस की कमान पुनः सोनिया को सौंपना पार्टी के कितना हित में रहेगा इसका आकलन करने से पहले कांग्रेस से हटकर अन्य विपक्षी दलों पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है। लोकसभा चुनावों के पहले ही यह सवाल उठ खड़ा हुआ था कि यदि विपक्ष जीत भी जाता है तो उसका नेता कौन होगा। यह सवाल भी भाजपा की ओर से ही उछाला गया था। इस सवाल पर विपक्ष में क्या कुछ घटा इसको यहां दोहराने की आवश्यकता नही है। भाजपा ने जहां विपक्ष पर नेता का सवाल उछाला वहीं पर सबसे अधिक राजनीतिक गाली अकेले राहुल गांधी को निकाली। राहुल गांधी ने तो नेता का सवाल बहुमत के निर्णय पर छोड़ दिया लेकिन अन्य विपक्षी नेता पूरी स्पष्टता से ऐसा नही कर पाये। उत्तर प्रदेश में वसपा-सपा ने कांग्रेस को गठबन्धन से अपरोक्ष में नेता के सवाल पर ही अलग किया था। चुनावों के दौरान ईवीएम एक बड़ा मुद्दा विपक्ष ने बनाया। इसको लेकर चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय तक गये। बिहार में उपेन्द्र कुशवाह जैसे नेताओं ने चुनावों के बाद ईवीएम पर एक बड़ा आन्दोलन खड़ा करने की बातें की थी। लेकिन चुनाव हारने के बाद यह पूरा विपक्ष राजनीतिक परिदृश्य से एक तरह से लोप ही हो गया है। जबकि ईवीएम को लेकर ही मुबई और ग्वालियर उच्च न्यायालयों में गभीर याचिकाएं लंबित हैं। आज हर विपक्षी दल में टूटन आयी है उसके चुने हुए लोग भाजपा में शामिल हो रहे हैं और लगभग हर बड़े नेता के खिलाफ ईडी और सीबीआई में मामले बनते जा रहें हैं। लेकिन इस सबके बावजूद विपक्ष की ओर से कोई सामूहिक आवाज़ सामने नही आ रही है। विपक्षी एकता के जो प्रयास लोकसभा चुनावों के दौरान चल रहे थे वह आज शांत क्यों हो गये हैं।
जब से राहुल गांधी ने त्यागपत्र दिया और टीवी चैनलों की बहसों के पैनलों में पार्टी की भगीदारी को विराम दिया तो कांग्रेस और राहुल के चुप होने के साथ ही वाकी विपक्ष क्यों चुप हो गया। जबकि जो सवाल चुनावों के दौरान राहुल गांधी ने उठाये थे वह सवाल आज पूरी स्पष्टता के साथ हर आदमी के सामने है। देश की आर्थिक स्थिति एक गंभीर दौर से गुजर रही है। मोदी सरकार द्वारा ही नियुक्त आरबीआई गवर्नरों और सरकार के आर्थिक सलाहकार का समय से पहले ही अपने पदों से त्यागपत्र देना इसके संकेत हैं। साढ़े आठ लाख करोड़ के एनपीए के आंकड़े संसद में आ चुके हैं। अंबानी पर आरबीआई का रैडफ्लैग अपने में ही एक बहुत बड़े आर्थिक संकट का संकेत है। 2014 में आम आदमी की बचतों पर जो उसे बैंको से ब्याज मिलता था उसमें 2019 में करीब 3% की कमी आयी है। आम आदमी की इस 3% की कटौती का लाभ किसे दिया जा रहा है। आज कुछ औद्यौगिक क्षेत्रों से तीन लाख से अधिक लोगों को नौकरी से निकाला जा चुका है। यह सवाल आम आदमी से सीधे जुड़े हुए हैं और देर सवेर वह इन पर चर्चा करेगा ही। लेकिन इन सवालों पर देश का मोदी भक्त मीडिया चुप्पी साधे हुए है क्योंकि उसे 800 करोड़ विज्ञापनों के रूप में सरकार द्वारा दिये जा चुके हैं और यह जानकारी आरटीआई के माध्यम से सामने आयी है। ऐसे में जब आम आदमी के सवालों पर मीडिया चुप्पी साध लेता है तब यह जिम्मेदारी राजनीतिक दलों पर आती है कि वह जनता की आवाज बनकर सामने आये। परन्तु दुर्भाग्य से आज विपक्ष यह जिम्मेदारी निभा नही पा रहा है।
आज देश गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा है। सरकार ने सारे सार्वजनिक उपक्रमों से उनके 75% सरप्लस संसाधनो की मांग कर ली है। इस मांग का सैबी के अध्यक्ष अजय त्यागी ने पत्र लिखकर विरोध भी किया है। आशंका है कि आर बी आई से भी उसका 75% सरप्लस इसी तरह मांग लिया जायेगा। सर्वाेच्च न्यायालय में छुट्टीयों के दौरान जिस तरह से अदानी समूह के चार मामले सुन लिये गये हैं उस पर शीर्ष अदालत के वरिष्ठ वकील दुष्यन्त दावे ने प्रधान न्यायधीश को पत्र लिखकर चिन्ता व्यक्त की है उससे कई गंभीर सवाल खड़े हो जाते हैं। आम्रपाली प्रकरण में क्रिकेट स्टार महेन्द्र सिंह धोनी और उनकी पत्नी साक्षी के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में सौंपी गयी आडिट रिपोर्ट में आक्षेप उठाये गये हैं वह अपने में एक अलग मुद्दा खड़ा करता है। लेकिन दुर्भाग्य है कि इस तरह के सारे गंभीर मुद्दों पर विपक्ष एकदम, खामोश हो गया है।
ऐसे में जब देश राजनीतिक संक्रमण के दौर से गुजर रहा हो तो क्या देश के
सबसे पुराने राजनीतिक दल को अपनी सार्वजनिक जिम्मेदारी निभाने के लिये अपनी सुविधानुसार फैसला लेने का अधिकार नही होना चाहिये। कांग्रेस का अध्यक्ष कौन हो यह निर्णय कांग्रेस का अपना मामला है। कांग्रेस को ही इसके पक्ष और विपक्ष में राय बनानी है। कांग्रेस के इस फैसले पर गैर कांग्रेसी
दलों को एतराज उठाने का कोई अधिकार नही है। जो भी दल और मीडिया चैनल इस पर परोक्ष/अपरोक्ष में आपति जता रहे हैं उससे केवल उनकी प्रमाणिकता ही सामने आ रही है। अनचाहे ही वह अपने को भाजपा का पक्षधर प्रमाणित करने का प्रयास कर रहे हैं। सोनिया के कमान संभालने के बाद देखना यह होगा कि क्या अब भी चुने हुए विधायक/सांसद इस फैसले का विरोध करके पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल होते हैं या नही। इसी के साथ यह भी टैस्ट होगा कि आने वाले दिनों में चार राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों में मोदी-भाजपा लहर के सामने कांग्रेस का प्रदर्शन क्या रहता है। क्या कांग्रेस पूरी आक्रामकता के साथ इन चुनावों में उत्तर पाती है या नही सोनिया के लिये यही बड़ी परीक्षा होगी। क्योंकि विपक्षी दल अभी भी अपनी वैचारिक अस्पष्टता के बाहर नही आ पा रहे हैं। भाजपा के मानसिक दबाव के कारण यह दल टूटते जा रहे हैं भाजपा के लिये यह शुभ हो सकता है परन्तु देश के लिये नही। क्यों निरंकुश सता का अन्तिम प्रतिफल पूर्ण भ्रष्टाचार ही होता है। ऐसे राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस ने जो सोनिया को कमान देकर देश के प्रति अपनी राजनीतिक जिम्मेदारी निभाने का फैसला लिया है उसका स्वागत किया जाना चाहिये।




स्रकार के इन कदमों से यह स्वभाविक सवाल उठता है कि यदि अनुच्छेद 370 को हटाना राज्य के हित में है तो ऐसा करने से पहले सरकार वहां के राजनीतिक नेतृत्व और जनता को विश्वास में क्यों नही ले पायी? सरकार को ऐसा क्यों लगा कि भाजपा के अतिरिक्त कोई भी दूसरा इसमें सरकार पर विश्वास नही करेगा? ऐसा क्यों लगा कि भाजपा के अतिरिक्त दूसरे लोग राष्ट्रहित को नही समझते हैं। जबकि संसद में उन दलों के लोगों ने भी जो एनडीए के सहयोगी नही है ने भी समर्थन दिया है। इसी के साथ यह भी सच्च है कि एनडीए के सहयोगी जेडीयू ने इसका विरोध किया है। इस विरोध और समर्थन से यही स्पष्ट होता है कि या तो इस विषय को भाजपा सहित सभी अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थ के आईने से देख रहे हैं या फिर इसमें गंभीर वैचारिक मतभेद हैं। इन दोनों ही स्थितियों में इस विषय पर एक खुली सार्वजनिक बहस की आवश्यकता है क्योंकि राष्ट्र हित को परिभाषित करना किसी एक ही राजनीतिक दल का एकाधिकार नही रह जाता है चाहे वह सत्ताधारी दल ही क्यों न हो। फिर दुर्भाग्य से भाजपा की छवि लगातार मुस्लिम विरोधी बनती जा रही है और अब तो यह लगने लगा है कि शायद भाजपा एक सुनियोजित योजना के तहत इस छवि को बढ़ाती जा रही है। यह ध्रुवीकरण कालान्तर में लोकतन्त्र के लिये घातक सिद्ध होगा यह तय है।
भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनावों में किसी भी मुस्लिम को अपनी पार्टी से चुनाव उम्मीदवार नही बनाया है। 2014 के लोकसभा चुनावों से शुरू हुई यह स्थिति आज 2019 के लोकसभा चुनावों में भी यथास्थिति ही रही है। जो दल सबसे बड़ी सदस्यता वाला दल होने का दावा करे और उस दल में देश की दूसरी बड़ी जनसंख्या में से कोई भी ऐसा व्यक्ति न मिल पाये लोकसभा की चुनावी भागीदारी का हिस्सेदार न बनाया जा सके तो सामान्यतः यह किसी के भी गले नही उतरेगा। बल्कि हर कोई इसे जातिय और धार्मिक ध्रुवीकरण की ओर बढ़ता कदम ही करार देगा और इस परिदृश्य में आज सरकार की नीयत पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। क्योंकि जहां अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को कुछ विशेष अधिकार हासिल थे वैसे ही कुछ अधिकार अन्य दस राज्यों को भी अनुच्छेद 371 के तहत हालिस हैं। अब 371 के प्रावधानों को भी हटाने की चर्चा देश के उन राज्यों में उठना स्वभाविक है। संविधान के शैडयूल पांच में कुछ राज्यों के लिये विशेष प्रावधान हैं। देश के सभी राज्यों के 284 कानून संविधान के शैडयूल नौ में आते हैं। इनके खिलाफ देर सवेर आवाज उठना स्वभाविक है। हिमाचल के भूसुधार अधिनियम की धारा 118 को हटाने की मांग दिल्ली से लेकर शिमला तक स्वर लेने लगी है। स्वभाविक है कि जब धारा 370 को समाप्त किया जा सकता है तो फिर अन्य धाराओं के ऐसे ही प्रावधानों को समाप्त क्यों नही किया जा सकता। आने वाले दिनों में यह एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरेगा।
अनुच्छेद 370 को हटाने वाले राष्ट्रपति के आदेशों को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा चुकी है और शीर्ष अदालत ने इसे लंबित रख दिया है। इस परिदृश्य में यह समझना आवश्यक हो जाता है कि अनुच्छेद 370 और 35 A है क्या। 35 A की लम्बे अरसे से शीर्ष अदालत में चुनौती मिली हुई है और वहां यह मुद्दा लंबित चला आ रहा है क्योंकि केन्द्र ने इस पर कोई जवाब दायर नही किया है। स्मरणीय है कि 15 अगस्त 1947 को देश की आज़ादी के समय जम्मू-कश्मीर एक स्वायत और सार्वभौमिक राज्य था जिसने 26 अक्तूबर 1947 को भारत में विलय किया। लेकिन यह विलय विदेशी मामलों, दूर संचार और रक्षा के मामलों में ही था। अन्य मामलों में केन्द्र का कोई भी कानून वहां के शासक की पूर्व अनुमति के बिना लागू नही होगा। इस तरह जम्मू-कश्मीर की संप्रभता अपनी जगह बनी रही क्योंकि यह अन्य राज्यों की तर्ज पर नही था और इसी को सुनिश्चित करने के लिये संविधान में धारा 370 का प्रवधान किया गया था। इस व्यवस्था को सुप्रीम कोर्ट के ग्यारह जजों की पीठ ने 1971 में माधव राव मामले में माना है। 1952 के दिल्ली समझौते के बाद 370 के प्रावधानों को और पुख्ता करने के लिये 35 A जोड़ा गया था। 2015 में जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में आये मुबारिक शाह नक्शबन्दी मामले में अदालत ने यह कहा कि In Jammu and Kashmir, the immovable property of a State subject/citizen, cannot be permitted to be transferred to a non State subject. This legal and constitutional protection is inherent in the State subjects of the State of Jammu and Kashmir and this fundamental and basic inherent right cannot be taken away in view of peculiar and special constitutional position occupied by State of Jammu and Kashmir. Article 35-A is clarificatory provision to clear the issue of constitutional position obtaining in rest of country in contrast to State of Jammu and Kashmir. This provision clears the constitutional relationship between people of rest of country with people of Jammu and Kashmir'
यही नही केन्द्र और जम्मू-कश्मीर के संबंधों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने 1959 में प्रेम नाथ कौल मामले में भी ऐसी ही व्याख्या की है। इस तरह जहां तक केन्द्र सरकार द्वारा इस मामले में अपनाई गयी प्रक्रिया का सवाल उस परअब तक जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय में आये विभिन्न मामलों में अदालत की जो व्याख्या रही है उसके मुताबिक केन्द्र की नीयत पर गंभीर सवाल उठते हैं। आज इस मामले में शीर्ष अदालत जो भी व्याख्या करेगी उसके परिणाम दूरगामी होंगे। क्योंकि जो राजनीतिक परिदृश्य आज बना हुआ है यह आवश्यक नही है कि वही अब स्थायी बना रहेगा। केन्द्र के इस कदम ने शीर्ष न्यायपालिका के लिये भी एक परीक्षा की स्थिति पैदा कर दी है।