Friday, 19 September 2025
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क्या लोकतन्त्र खतरे में है

केन्द्र में भाजपा नीत एनडीए सरकार सत्तासीन हो गयी है। भाजपा का अपना आंकड़ा ही 303 सांसदो का हो गया है। भाजपा के सहयोगियों का आंकड़ा पचास पर है यह 2014 में भी करीब इतना ही था। इन आंकड़ों से यह सामने आता है कि एनडीए सरकार के पिछले कार्यकाल के बाद जनता में भाजपा का आधार और बढ़ा है लेकिन उसके सहयोगीयों का नहीं बढ़ा है। यह अपने में ही एक विचारणीय विषय बन जाता है। इसी के साथ अभी लोकसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद कर्नाटक में नगर निकायों के लिये मतदान हुआ और उसके परिणाम आ गये हैं। इन निकायों के मतदान मे ईवीएम मशीनों की जगह बैलेट पेपर प्रयोग हुए। इन निकायों के परिणामों में कांग्रेस को भारी सफलता मिली है जबकि भाजपा को उतनी ही मात। यह चुनाव लोकसभा चुनावों के परिणामों के बाद एक सप्ताह से भी कम समय में हुए हैं। लोकसभा चुनावों में कर्नाटक में जो सफलता भाजपा को मिली है उसके मुकाबले में नगर निकाय चुनावों में हार मिलना फिर कई सवाल खड़े कर जाता है। क्या देश की जनता ने भाजपा की जगह प्रधानमंत्री मोदी पर विश्वास किया है या फिर इसका कारण कुछ और रहा है। आने वाले दिनों में यह चिन्तन का एक बड़ा विषय बनेगा यह तय है।
इस बार जो सांसद चुनकर आये हैं उनमें अपराधी छवि के माननीयों का आंकड़ा 2014 के मुकाबले बहुत बढ़ गया है। स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि 58 सदस्यों के मन्त्रीमण्डल में ही 22 लोग आपराधिक छवि वाले हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने पिछली बार वायदा किया था कि वह संसद को अपराधियों से मुक्त करवायेंगे। लेकिन ठीक इस वायदे के विपरीत मोदी को अपने मन्त्रिमण्डल में ही आपराधिक छवि वालों को मन्त्री बनाना पड़ गया है। इसी के साथ एक तथ्य यह भी सामने आया है कि इस बार संसद और मन्त्रीमण्डल में करोड़पत्तियों की संख्या भी बढ़ गयी है। इस बार मोदी मन्त्रीमण्डल के शपथ ग्रहण समारोह में बंगाल की मुख्यमन्त्री ममता बैनर्जी शामिल नही हुई है। क्योंकि इस शपथ ग्रहण समारोह में बंगाल के उन परिवारों को आमन्त्रित किया गया था जो इन चुनावों में हिंसा का शिकर हुए हैं। मोदी सरकार ने इसे चुनावी हिंसा कहा है तो ममता ने इसे चुनावी हिंसा मानने से इन्कार किया और इसी पर वह शपथ ग्रहण में शामिल नही हुई। हिंसा के शिकार हुए परिवारों को इसमें तुरन्त प्रभावी न्याय देने और इन परिवारों को अन्य सहायता देने की बात किसी की ओर से नहीं की गयी। इस हिंसा को केवल चुनाव के आईने से ही देखा गया। यह सवाल भी नही उठाया गया कि जब पहले चरण के मतदान से ही यह हिंसा शुरू हो गयी थी तब चुनाव आयोग क्या कर रहा था। जिसके अधीन सारा प्रशासन था।
अब बंगाल में ‘‘जय श्री राम’’ का नारा भी हिंसा का कारक बन गया है। बंगाल में प्रशासन की सफलता/असफलता कोई मुद्दा नही रह गया है। लोकसभा चुनावों में भी ममता टीएमसी का जनाधार चार प्रतिशत बढ़ा है। यह प्रतिशत बढ़ने का आधार विकासात्मक कार्य रहे हैं? यह चर्चा का कोई विषय ही नही है। शासन प्रशासन को लेकर उठने और पूछे जाने वाले सारे सवाल एक ‘‘जयश्री राम’’ के नारे के आगे बौने पड़ गये हैं। मीडिया का भी एक बड़ा वर्ग इस नारे को बड़ा मुद्दा बनाने में लग गया है। इस मीडिया के लिये अमरीका द्वारा भारत को जीएसपी से बाहर कर देना कोई मुद्दा नही है। वर्ष 2018- 19 मे बैंको में 71500 करोड़ के फ्राड हो जाना भी कोई अहम सवाल नही है जो सरकार से पूछा जाना चाहिये। आज चुनाव परिणाम आने के बाद बहुत सारी वस्तुओं के दाम बढ़ गये हैं लेकिन इस पर कहीं कोई सवाल नही उठ रहा है। बल्कि ऐसा लग रहा है कि आगे आने वाले कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी आम आदमी को छूने वाले मुद्दे न उठे उसके लिये ‘‘जयश्री राम’’ की तर्ज के नारे उछालने का प्रयास अभी से शुरू हो गया है।
लोकसभा चुनावों में भी महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे आम आदमी के मुद्दों को जन चर्चा नही बनने दिया गया। लेकिन इनके चुनावों में गौण हो जाने के बाद भी यह अपनी जगह खड़े हैं बल्कि ज्यादा भयावह होकर सामने हैं और सबसे ज्यादा उसी आम आदमी को प्रभावित करेंगे जो इस बारे में ‘‘जय श्री राम’’ से अधिक कुछ भी सोचने समझने की स्थिति में नही है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि ऐसा कब तक चलता रहेगा और उसका अन्तिम परिणाम क्या होगा? क्योंकि आज माननीयों का हर अपराध जनता की अदालत में आकर हार जाता है। जनता का फतवा हासिल होने के बाद कानून की अदालत इन मामलों में बौनी पड़ जाती है और दशकोें तक यह मामलें लंबित रहते हैं। राजनीतिक दलों का चरित्र और चेहरा कारपोरेट घरानों की तर्ज पर आ गया है। हर दल के कार्यालय को समाज सेवी कार्यकर्ताओं की जगह अच्छी पगार लेने वाले कर्मचारी चला रहे हैं। दल के पदाधिकारी कारपोरेट घरानों की तर्ज पर निदेशकों की भूमिका में आ गये हैं। राजनीतिक दल कारपोरेट घरानों से भी कमाई करने वाले अदारे बन गये हैं। आज लोकसभा चुनाव लड़ना परोक्ष/अपरोक्ष में सामान्य हल्कों में भी पन्द्रह से बीस करोड़ का निवेश बन गया है। राजनीतिक दल से बाहर रह कर चुनाव लड़ पाना अब केवल दिखावापन बन कर रह गया है क्योंकि चुनाव प्रचार इतना मंहगा हो गया है कि उसमें बौद्धिक मैरिट के लिये कोई जगह ही नही रह गयी है। यह जो कुछ चुनाव के नाम पर इस समय चल रहा है उसे लोकतन्त्र की संज्ञा तो कतई नही दी जा सकती। क्योंकि जहां चुनाव प्रक्रिया के मुख्य केन्द्र ईवीएम पर ही शंकाओं का अंबार खड़ा हो चुका है उस पर विश्वास बहाल करने के लिये चुनाव प्रक्रिया में ही आमूल संशोधन की आवश्यकता है। राजनीतिक दलों को कारपोरेट चरित्र से बाहर निकालने की आवश्यकता है। इसके लिये राजनीतिक पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर आज एक सार्वजनिक बहस की आवश्यकता है। जिससे एक सार्वजनिक स्वीकार्यता पर पहुंचा जा सके। यदि ऐसा नही हो सका तो लोकतन्त्र कब आराजक तन्त्र बन जायेगा यह पता भी नही चल पायेगा क्योंकि सही मायनों में अब लोकतन्त्र खतरे की दहलीज पर पहुंच गया है।

घातक होगा राजनीति का व्यवसाय बनना

चुनाव परिणाम आने के बाद प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार ने कामकाज संभाल लिया है। जनादेश 2019 में देश की जनता ने एक बार पुनः मोदी के नेतृत्व में विश्वास करते हुए पहले भी ज्यादा समर्थन उन्हे दिया है। शायद इतने ज्यादा समर्थन की उम्मीद अधिकांश भाजपा कार्यकर्ताओं और नेताओं को भी नही होगी। प्रधानमन्त्री ने इस जीत को चुनावी कैमिस्ट्री और कार्य तथा कार्यकर्ताओं की जीत करार दिया है। विपक्ष में कांग्रेस ने हार के कारणों का कोई खुलासा अभी तक जनता के सामने नही रखा है बल्कि अपने नेताओं को एक माह तक मीडिया में कोई भी प्रतिक्रिया देने से मना किया है। लेकिन बसपा प्रमुख मायावती ने एक बार फिर ईवीएम मशीनां पर सन्देह जताया है। हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने भी इन मशीनों पर शक जताया है। ईवीएम मशीनां पर शक जताते हुए कई विडियोज़ सोशल मीडिया पर आ चुके हैं। एक विडियो में एक शशांक आनन्द ने चुनाव आयोग द्वारा रखे गये उन दस तर्कों का बुरी तरह से एक एक करके खण्डन किया है जिनके आधार पर मशीनों में किसी भी तरह की गड़बड़ करना संभव नही होने का दावा किया गया है। शंशाक आनन्द ने इसे सुनियोजित हार्डवेयर टैपरिंग करार दिया है और इसे कई आईटी विशेषज्ञों ने भी संभव ठहराया है।
विपक्ष हार के कारणों की समीक्षा में लगा है और देर सवेर उसे इस बारे में कुछ कहना भी पड़ेगा। जब कोई राजनीतिक दल इस तरह की हार को अपने संगठन कार्यकर्ताओं और नेतृत्व की हार मान लेगा तो निश्चित रूप से इसका असर उसके कार्यकर्ताओं पर पड़ेगा। जब कार्यकर्ता संगठन और नेतृत्व को कमजोर आंक लेता है तब ऐसे दलों को पुनः जीवन मिलना असंभव हो जाता है और कोई भी दल ऐसा नही चाहेगा कि उसके कार्यकर्ता उससे ना उम्मीद हो जायें। इसलिये इस हार के लिये संगठन और नेतृत्व से हटकर कारण खोजने होंगे और उन कारणों पर कार्यकर्ता को पूरे तार्किक ढंग से आश्वस्त भी करना होगा। ऐसे में अन्ततः सारा तर्क ईवीएम मशीनों पर फिर आकर थम जाता है। क्योंकि इन ईवीएम मशीनों को लेकर लम्बे अरसे से सन्देह जताया जा रहा है। जिस तरह से इसमें हार्डवेयर की टैपरिंग को लेकर अब सवाल उठे हैं उन्हें किसी भी विशेषज्ञ द्वारा झुठला पाना संभव नही होगा। क्योंकि जब 2014 के चुनावों में किये गये वायदों के मानकों पर सरकार का आकलन किया जाये तो ऐसा कुछ ठोस नजर नही आता है जिसके आधार पर इतने प्रचण्ड बहुमत को संभव माना जा सके।
प्रधानमन्त्री ने भी इस जीत को उनकी नीतियों की बजाये चुनावी कैमिस्ट्री की जीत बताया है। इस कैमिस्ट्री की अगर समीक्षा की जाये तो इसमें सबसे पहले भाजपा का आईटी सैल आता है। पार्टी के भीतर की जानकारी रखने वालों के मुताबिक देश भर में इस सैल में करीब एक लाख कर्मचारी काम कर रहा था। यह करीब एक लाख लोग कार्यकर्ता नही वरन पार्टी के कर्मचारी थे। क्योंकि आईटी सैल में वही लोग काम कर सकते हैं जिन्होंने कम्यूटर ऑप्रेशन में प्रशिक्षण लिया हो। पार्टी सूत्रों के मुताबिक इन कर्मचारियों को उनकी शैक्षणिक योग्यता के आधार पर वेतन दिया जा रहा था। इस वेतन के लिये पैसा उद्योग घरानों से चन्दे के रूप में लिया गया। यह चन्दा इलैक्शन वांडस के माध्यम से आया। इसमें चन्दा देने वाले का नाम कितना चन्दा किस राजनीतिक दल को दिया गया इस सबको गोपनीय रखा गया। इसके लिये वाकायदा नियम बनाए गये। इस ंसंबंध में जब सर्वोच्च न्यायालय में याचिका आयी तब चुनाव आयोग और सरकार में थोड़ा मतभेद भी आया। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसमें ज्यादा दखल न देते हुए यह निर्देश दिये है कि चन्दे को लेकर 31 मई तक राजनीतिक दलों को चुनाव आयोग को जानकारी देनी होगी। इस जानकारी में क्या सामने आता है यह तो उससे आगे ही पता चलेगा। लेकिन जितना बड़ा तन्त्र इस चुनाव के लिये भाजपा ने खड़ा किया है उससे यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि भाजपा को एक लोकतान्त्रिक राजनीतिक दल की बजाये एक राजनीतिक व्यवसायिक प्रतिष्ठा के तरह विकसित किया जा रहा है। भाजपा की तर्ज पर ही अन्य राजनीतिक दल भी इसी लाईन पर आ गये हैं। इस सबका अर्थ यह हो जाता है कि अब राजनीतिक लोक सेवा की बजाये एक सुनियोजित व्यवसाय बनता जा रहा है और यह व्यवसाय बनना ही कालान्तर में लोकतन्त्र और पूरे समाज के लिये घातक होगा। इसी का प्रभाव है कि इस बार संसद में दागी छवि और करोड़पति माननीयों की संख्या और बढ़ गयी है।
जब राजनीति व्यवसाय बनती जाती है तब सारे संवैधानिक संस्थान एक एक करके ध्वस्त होते चले जाते हैं। इस बार के चुनावों में चुनाव आयोग की विश्वनीयता पर जो सवाल उठे हैं उनका कोई तार्किक जवाब समाने नही आ पाया है शायद है भी नही। लेकिन चुनाव आयोग के साथ ही उच्च/शीर्ष न्यायपालिका भी लगातार सवालों में घिरती जा रही है। बीस लाख ईवीएम मशीनों के गायब होने को लेकर एक मनोरंजन राय ने मार्च 2018 में मुबंई उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की थी। याचिका आरटीआई के तहत मिली जानकारियों के आधार पर दायर हुई थी। लेकिन सुनवाई के लिये सितम्बर 2018 में आयी। इस पर 8 मार्च 2019 को चुनाव आयोग ने जवाब दायर करके कहा कि हर मशीन और वीवी पैट का अपना एक विष्शिट नम्बर होता है और यह खरीद विधि मन्त्रालय की अनुमति और नियमों के अनुसार की गयी है। जबकि जवाब का मुद्दा था कि कंपनीयों ने कितनी मशीनें सप्लाई की और आयोग में कितनी प्राप्त हुई। लेकिन इसका कोई जवाब नही दिया गया। इसके बाद 23 अप्रैल को यह मामला उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश प्रदीप नदराजोग और न्यायमूर्ति एन एम जामदार की पीठ में लगा। इस बार फिर चार सप्ताह में आयोग को जवाब देने के लिये कहा गया और अगली पेशी 17 जुलाई की लगा। इस पर मनोरंजन राय ने सर्वोच्च न्यायालय में एस एल पी दायर करके इस चुनाव में ईवीएम के इस्तेमाल पर प्रतिबन्ध की मांग की लेकिन वहां भी यह मामला सुनवाई के लिये नही आ पाया। ईवीएम को लेकर पूरा विपक्ष चुनाव आयोंग से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक सर पीटता रहा है लेकिन किसी ने भी इसे गम्भीरता से नही लिया। अब राजनितिक दल इन्ही ईवीएम मशीनों को एक बड़ा मुद्दा बनाकर जनता की अदालत में जाने की बाध्यता पर आ गये हैं। इसके परिणाम क्या होंगे कोई नही जानता लेकिन यह तय है कि जब भी जनता के विश्वास को आघात पंहुचता है तो उसके परिणाम घातक होते हैं देश जे.पी. आन्दोलन, मण्डल आन्दोलन और फिर अन्ना आन्दोलनों के परिणाम भोग चुका है और एक बार फिर हालात वही होने जा रहे हैं।

बड़ी जीत-बड़ी परीक्षा

जनादेश 2019 में देश की जनता ने देश के भविष्य की बागडोर एक बार फिर से मोदी के हाथों में सौंपी है। भाजपा को 2014 से भी ज्यादा जन समर्थन इस बार मिला है। यह जीत भाजपा से अधिक मोदी के जनमत संग्रह के रूप में आयी है। इस नाते यह जीत जितनी बड़ी है यह उतनी ही बड़ी परीक्षा भी साबित होगी यह प्रकृति का नियम है। जनता ने जो विश्वास मोदी में व्यक्त किया है उस विश्वास पर मोदी कितने खरे उतरते हैं उसका पता हर आने वाले दिन से लगता जायेगा। जितना बड़ा जनादेश मोदी को मिला है उसके साये में किसी भी योजना और किसी भी फैसले को अमली जामा पहनाने में मोदी को संसद में किसी भी अवरोध का सामना नही करना पड़ेगा यह स्पष्ट है। अवरोध तो 2014 में भी कोई ज्यादा नही थे लेकिन उस समय किये गये वायदे उतने पूरे नही हुए हैं जितने किये गये थे।
ऐसा बहुत कम होता है कि चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में जीत के जिस आंकड़े का अनुमान लगाया गया हो वही आंकड़ा एग्जिट पाल में भी आये और फिर परिणाम आने पर हकीकत में भी बदल जाये। इस बार ऐसा ही सामने आया है। संभव है कि जो लोग या दल चुनाव हार गये हैं वह अपनी हार के लिये एक बार फिर ई वी एम मशीनों को दोष दें। चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठायें। चुनाव आयुक्तों में जिस तरह से मतभेद होने का तथ्य सामने आया है उससे निष्पक्षता पर सवाल उठने स्वभाविक हैं। विपक्ष लम्बे समय से चुनाव आयोग से ई वी एम और वी वी पैट को लेकर सवाल उठाता रहा है। विपक्ष की मांग को आयोग से लेकर सर्वाच्च न्यायालय तक सभी ने ठुकरा दिया है। लेकिन इससे जनता में सन्देह भी बना है और यही सन्देह आने वाले समय में जनाक्रोश का एक बड़ा कारण भी बन सकता है। जो परिस्थितियां इस समय बनी हुई हैं उनमें सबसे पहले चुनाव आयोग पर ही प्रश्न उठेंगे क्योंकि उसके लिये आधार और इस आधार को चुनाव परिणामों के बाद आये कुछ विडियोज़ पुख्ता भी करते हैं।
लोकतन्त्र जनता के भरोसे से चलता है और यह जनता ही है जो भरोसा टूटने पर सत्ता से बेदखल भी कर देती है। 1971 से लेकर 1980 तक के काल खण्ड में जो कुछ घटा है आज उसकी पुर्नरावृति की आशंकाएं उभरने लगी हैं। 1971 के बड़े जनादेश के बाद 1975 में देश ने आपातकाल देखा। आपातकाल के बाद सत्ता बदली लेकिन अढ़ाई कोस चलकर ही दम तोड़ा गयी थी। आपातकाल का कारण भी संवैधानिक संस्थानों पर से विश्वास का टूटना बना था। आज भी संस्थान भरोसा खोने लग गये हैं। इसलिये इस भरोसे को पुनः स्थापित करना प्राथमिकता होनी चाहिये और यह जिम्मेदारी सिर्फ प्रधानमन्त्री की बनती है। इसलिये अब जब परिणाम आ गये हैं और सरकार बनने का मार्ग प्रशस्त हो गया है तब सरकार को चुनाव आयोग पर उठने वाले सवालों का निराकरण करने के लिये पहल करनी होगी। चुनाव आयोग से मांग है कि ई वी एम के स्थान पर पुनः बैलेट पेपर से चुनाव करवाया जायें। इस पर जब सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद वी वी पैट आवश्यक कर दिया गया है तब यह मांग यहीं पूरी हो जाती है। इसके बाद कम से कम 50% वी वी पैट की पर्चीयांं का मिलान और उसकी गिनती ई वी एम से पहले करने की मांग है। सर्वोच्च न्यायालय ने 50% की मांग को इसलिये ठुकरा दिया था कि इसमें समय ज्यादा लगेगा और चुनाव परिणाम आने में देर लगेगी। इसलिये सर्वोच्च न्यायालय ने इसे केवल पांच वी वी पैट की गिनती तक सीमित कर दिया। चुनाव आयोग ने नियमों का हवाला देकर इस गिनती को मशीन की गिनती से पहले करवाने से भी इन्कार कर दिया।
इस परिदृश्य में सबसे पहले यह सवाल उठता है कि क्या जन विश्वास को पूरे तार्किक आधार पर बहाल करना प्राथमिकता होनी चाहिये या नही। इस विश्वास को बहाल करने के लिये यदि शतप्रतिशत वी वी पैट और ई वी एम मशीन के मिलान को अनिवार्य कर दिया जाये तो इसमें दो दिन का समय यदि ज्यादा भी लग जाये तो इसमें क्या फर्क पड़ जायेगा। इसके लिये पूरी चुनाव प्रक्रिया को सात चरणों तक लम्बा खीचनें की बजाये तीन से चार चरणों में ही पूरा किया जा सकता है। आज जिस ढंग से चुनाव आयोग अविश्वास का केन्द्र बन चुका है वह लोकतन्त्र के लिये किसी भी विदेशी आक्रमण से ज्यादा घातक होगा। इस समय चुनाव प्रक्रिया में तुरन्त प्रभाव से संशोधन करने की आवश्यकता है। लोकतन्त्र में चुनावों का इस कद्र मंहगा होना लोक और तन्त्र को दो अलग-अलग ईकाईयां बना रहा है। चुनाव सुधारों की एकदम प्राथमिकता के आधार पर आवश्यकता है और इसके लिये सरकार को तुरन्त पहल करनी होगी। इसके लिये आज विपक्ष को भी इन सुधारों की ही मांग प्राथमिकता पर करनी होगी।

चुनाव आयोग की भूमिका पर उठते सवाल

निष्पक्ष और स्वतन्त्र चुनाव करवाने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की है। यह जिम्मेदारी निभाने के लिये चुनावों की घोषणा के साथ ही पूरा प्रशासनिक तन्त्र आयोग के नियन्त्रण में आ जाता है यह व्यवस्था की गयी है। चुनावों की घोषणा के साथ ही आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू हो जाती है और यह संहिता लागू होने के बाद सामान्य प्रशासनिक कार्यों को छोड़कर हर बड़े फैसले के लिये चुनाव आयोग से अनुमति लेनी पड़ती है। चुनावों के दौरान क्या-क्या आचार संहिता के दायरे में आता है और इस संहिता की उल्लंघना के लिये क्या-क्या प्रतिबन्धात्मक कदम आयोग उठा सकता है यह पूरी तरह परिभाषित हैं। चुनावों के दौरान आयोग की प्रशासनिक शक्तियां सर्वोच्च हो जाती हैं। चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है उस पर सरकार का कोई नियन्त्राण नहीं होता है। आयोग को सरकारी नियन्त्रण से बाहर इसलिये रखा गया है ताकि उसकी निष्पक्षता पर कोई आंच न आये।
लेकिन क्या इस बार चुनाव आयोग यह भूमिका निष्पक्षता से निभा पाया है। यह सवाल चुनावों के अन्तिम चरण तक आते-आते एक बड़ा सवाल बन कर देश के सामने खड़ा हो गया है। यह स्थिति बंगाल में हुई चुनावी हिंसा के बाद एक बड़ा मुद्दा बन गयी है। चुनाव आयोग के पास आचार संहिता के उल्लंघन की शिकायतें चुनाव प्रक्रिया के शुरू होने के साथ ही आनी शुरू हो गयी थी। लेकिन आयोग ने इन शिकायतों की ओर तब तक उचित ध्यान नही दिया जब तक सर्वोच्च न्यायालय से एक तरह की प्रताड़ना उसे नही मिल गयी। इस प्रताड़ना के बाद आयोग ने कुछ नेताओं के चुनाव प्रचार पर कुछ समय के लिये प्रतिबन्ध लगाया। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भाजपा अध्यक्ष अमितशाह और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को लेकर आयी शिकायतों पर तब तक कुछ नही किया जब तक इस संर्भ में भी सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाएं नही आ गयी। यह याचिकाएं आने के बाद जब शीर्ष अदालत ने इस पर तीन दिन में फैसला लेने के निर्देश दिये तब इन लोगों को क्लीनचिट मिल गयी। इस क्लीनचिट को लेकर सवाल उठे हैं जिनका कोई जवाब नही आया है।
चुनाव आयोग ईवीएम मशीनों से चुनाव करवा रहा है। ईवीएम मशीनों की विश्वसनीयता को लेकर एक लम्बे समय से सवाल उठते आ रहे हैं। देश के कई राज्यों के उच्च न्यायालयों में इस संद्धर्भ में याचिकाएं दायर हुई है। ईवीएम जब केरल विधानसभा के 1982 के चुनावों में एक विधानसभा हल्के में इस्तेमाल हुई थी तब इस पर उच्च न्यायालय में याचिका आ गयी थी। जब यह याचिका 1984 में सर्वोच्च न्यायालय में पंहुची थी तब शीर्ष अदालत ने इसके इस्तेमाल पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। उसके बाद 1998 में जब संसद में इस पर चर्चा हुई तब ईवीएम का चुनावों में उपयोग शुरू हुआ। लेकिन इसकी विश्वसनीयता को लेकर सवाल उठते रहे। जब भाजपा नेता डा. स्वामी ने इस पर दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की तब सारे मामले सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पास ले लिये और वीवीपैट की इसमें व्यवस्था जोड़ दी जो अब पूरी तरह लागू हुई है। लेकिन वीवीपैट को पूरी तरह प्रमाणिक बनाने के लिये जब इक्कीस राजनीतिक दलों ने इसमें 50ः मशीनों की पर्चीयों की गणना की मांग की और सर्वोच्च न्यायालय ने आयोग से इस बारे में जवाब मांगा तब आयोग ने यह कह दिया कि ऐसी गणना करने से चुनाव परिणाम में छः दिन की देरी हो सकती है। शीर्ष अदालत ने भी आयोग के जवाब को मानते हुए यह याचिका खारिज कर दी। क्या इससे जन विश्वास को धक्का नही लगा है? यदि चुनाव परिणामों की गणना में छः दिन का समय लगने से जन विश्वास जीता जा सकता था तो ऐसा क्यों नही किया गया? ईवीएम पर सन्देह करने का आधार तो चुनाव आयोग स्वयं दे रहा है। इससे जो स्थिति उभरती नजर आ रही है उससे यह स्पष्ट लग रहा है कि ईवीएम फिर बड़ा मुद्दा बनने जा रहा है।
चुनावों की प्रक्रिया शुरू होने से लेकर अन्त तक चुनाव आयोग पर विश्वसनीयता का संकट गहराता चला गया है। जिस ढंग से बनारस में तेज बहादुर यादव का नामाकंन रद्द किया गया और उसमें सर्वोच्च न्यायालय ने भी कोई हस्ताक्षेप नही किया उससे चुनाव आयोग के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिष्ठा पर भी आंच आयी है। आयोग की निष्पक्षता को लेकर जो प्रश्नचिन्ह बंगाल के संद्धर्भ में लगे हैं उनके परिणाम दूरगामी होंगे। क्योंकि बंगाल में हिंसा तो पहले चरण से ही शुरू हो गयी थी जो हर चरण में जारी रही। लेकिन आयोग ने जो कदम अमितशाह प्रकरण के बाद उठाया वह पहले क्यों नही उठाया गया। प्रशासन तो चुनाव आयोग के ही नियन्त्रण में था। यदि आज गृह सचिव और एडीजीपी को हटाया जा सकता है तो यही कदम पहले भी उठाया जा सकता था। अब अमितशाह प्रकरण के बाद चुनाव प्रचार पर दो दिन पहले ही रोक लगा देने से आयोग की निष्पक्षता पर और भी गंभीर आक्षेप आ गये हैं। और जब देश में चुनाव आयोग की विश्वसनीयता ही खत्म हो जायेगी तब पूरे चुनाव परिणामों पर भी अपने आप ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है। यह प्रश्नचिन्ह लगना सीधे सीधे अराजकता का खतरा इंगित करता है और यही सबसे घातक है। क्योंकि जब संस्थानों की विश्वसनीयता पर आंच आनी शुरू होती है तब उससे अराजकता ही पैदा होती है यह तय है।

मुद्दों से भागते मोदी

क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जानबूझकर आम आदमी के मुद्दों से भागने का प्रयास कर रहे है? यह सवाल चुनाव के अन्तिम चरणों तक पंहुचते-पहुंचते एक बड़ा सवाल बन कर खड़ा हो गया है। क्योंकि रोटी, कपड़ा और मकान के बाद मंहगाई और बेरोजगारी उसके बड़े मुद्दे बन जाते हैं। मंहगाई और बेरोजगारी के कारण उसे अपने और परिवार के लिये शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था करना कठिन ही नही असंभव तक हो जाता है। देश में मंहगाई जिस स्तर पर मई 2014 में थी आज उससे कम होने ही बजाये और ज्यादा ही बढ़ी है। बेरोजगारी का आलम यह है कि मोदी और उनकी भाजपा ने 2014 में प्रति वर्ष दो करोड़ नौकरियां देने का जो वायदा देश को बेचा था वह एकदम कोरा और झूठा आश्वासन ही साबित हुआ है। उल्टे नोटबंदी के बाद करोड़ो लोगों का रोजगार छिन गया है। यहां तक की केन्द्र सरकार और उसके विभिन्न निकायों में लाखों पद रिक्त पड़े है जिन्हे मोदी सरकार भर नही पायी है। भ्रष्टाचार के जिन मुद्दों को 2014 में उछालकर यह धारणा बना दी गयी थी कि कांग्रेस और यूपीए सरकार भ्रष्टाचार का पर्याय बन गयी है उनमें से एक भी मुद्दे पर किसी अदालत से किसी को कोई सज़ा मिल पाने की बात आज तक सामने नही आयी है। उल्टे यह सामने आया है कि जिस 1,76000 करोड़ के स्कैम में कई बड़े लोगों की गिरफ्तारियां हुई थी वह स्कैम हुआ ही नही था।
आज पांच वर्ष सरकार चलाने के बाद इन सभी मुद्दों पर सफल उपलब्धियों के साथ मोदी और उनकी सरकार को गर्व के साथ वोट मांगने आना चाहिये था। लेकिन ऐसा हो नही पाया है। चुनाव में मोदी इन मुद्दों पर बात ही नही आने दे रहे हैं। बल्कि पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र तक में भी उनका जिक्र नही है। बल्कि उज्जवला और आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं का भी इस चुनाव प्रचार अभियान में कोई उल्लेख सामने नही आया है जबकि एक समय इन योजनाओं के लाभार्थीयों के आंकड़ों के आधार पर बड़े-बड़े दावे किये जा रहे थे। ऐसे बहुत सारे वायदे और दावे हैं जो 2014 की सरकार बनने से पहले और बाद में किये गये थे। कायदे से आज के चुनाव में तो इन्ही वायदों/दावों से जुड़े आंकड़े जनता की अदालत में रखे जाने चाहिये थे लेकिन इस चुनाव में मोदी और उनकी सरकार इस सबका कोई जिक्र ही नही छेड़ रही है। जिस नोटबंदी से यह दावा किया गया था कि उसके बाद देश में टैक्स अदा करने वालों का आंकड़ा बढ़ा है आज उसका भी कोई जिक्र नही किया जा रहा है क्योंकि इस आंकड़े में भी कमी आयी है। आज टैक्स अदा करने वालों की संख्या कम हुई है। इस तरह इस चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार के पास 2014 से लेकर अब तक कुछ भी बड़ा नही है जिसके दम पर सरकार पूरे आत्मविश्वास के साथ यह दावा कर सके उसके अमुक काम से आम आदमी को सीधे लाभ हुआ हो।
इस चुनाव के शुरू में प्रधानमन्त्री ने पुलवामा और फिर बालाकोट का जिक्र उठाया लेकिन यह चर्चा भी ज्यादा देर तक नही चल पायी। इसके बाद हिन्दुत्व को मुद्दा बनाया गया प्रज्ञा ठाकुर को उम्मीदवार बनाकर। इसी के साथ जब कांग्रेस ने जम्मू-कश्मीर के लिये बनाये गये विशेष सेना अधिकारी अधिनियम में संशोधन करने की बात की तब राष्ट्रवाद का मुद्दा उभारा गया। लेकिन अब गालियों को मुद्दा बनाकर यह आरोप लगाया कि विपक्ष उन पर जुलम कर रहा है। नितिन गडकरी ने इन छप्पन गालियों की वाकायदा सूची बनाकर जनता से आग्रह किया कि वोट देकर इस जुल्म का बदला लें। अब सैम पित्रोदा की 1984 के दंगो को लेकर आयी टिप्पणी को मुद्दा बनाकर पंजाब और दिल्ली में प्रदर्शन करवाये गये हैं। हिंसा कहीं भी हो उसकी निन्दा की जानी चाहिये और हिसां करने वालों के साथ सख्ती से पेश आना चाहिये। लेकिन जब हम 1984 के दिल्ली के दंगो की याद करते हैं तो उसी के साथ पंजाब में एक दशक से भी अधिक समय तक चले आतंकवाद की भी याद आ जाती है। उस आतंकवाद में जिन लोगां ने अपने परिजनों को खोया है उनके जख्म भी हरे हो जाते हैं पंजाब में 1967 से जनसघं से लेकर आज तक भाजपा का अकालीयों के साथ सत्ता का गठबन्धन रहा है। लेकिन इस गठबन्धन ने आतंकवाद के दौरान हुई हत्याओं की कितनी निंदा की है इसे भी सभी जानते हैं उस दौरान पंजाब में रात के समय अन्य राज्यों की बसें तक नही चलती थी। बसों से उतार कर गैर सिखों को मारा गया है यही इतिहास का एक कड़वा सच है। बल्कि अकाली-भाजपा सरकार में जब राजोआना को फांसी देने की बात आयी थी और मुख्यमन्त्री बादल ने उस पर केन्द्र को साफ कहा था कि ऐसा करने से पंजाब के हालात बिगड़ जायेंगे। बदाल के इस वक्तव्य पर भाजपा सरकार में होकर मूक दर्शक बनकर बैठी रही थी। हमने पंजाब के आतंकवाद के जख्म सहे हैं जो आज मोदी के ब्यान के बाद ताजा हो गये हैं।
आज जब 1984 के दंगो के गुनहागारों को सज़ा की बात हो रही है तो क्या आतंकवाद के दोषीयों को भी चिन्हित करके उन्हे भी सजा नही मिलनी चाहिये? क्या 2002 के गुजरात के दंगो के लिये भी दिल्ली की तर्ज पर ही सजा नही होनी चाहिये? गुजरात दंगो को लेकर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त जस्टिस हरंजीत सिंह वेदी कमेटी की रिपोर्ट पर आज तक कारवाई क्यों नही हो रही है। यह रिपोर्ट 28 दिसम्बर 2018 को सर्वोच्च न्यायालय में आ चुकी है। इसी तरह क्या समझौता ब्लास्ट में मारे 68 लोगों की हत्या के जिम्मेदारों को सजा नही मिलनी चाहिये?
ऐसे दर्जनो मामलें हैं जिन पर मोदी सरकार को ही देश को जवाब देना है और जवाब के लिये चुनाव से ज्यादा उपयुक्त समय और कुछ नही हो सकता। इसलिये यह सब पाठकां के सामने रखा जा रहा है।

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