चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका है और पहले चरण में आने वाली सीटों के लिये उम्मीदवारों का चयन भी राजनीतिक दलों द्वारा कर लिया गया है। लेकिन यह चुनाव किन मुद्दों पर लड़ा जायेगा यह अभी तक स्पष्ट नही हो पाया है। सामान्यतः हर चुनाव में सबसे पहले यह देखा जाता है कि जो भी सरकार सत्ता में रही है उसका काम काज कैसा रहा है। क्योंकि यह सरकार और उसकी पार्टी अपने काम काज के आधार पर पुनः सत्ता में वापसी की गुहार जनता से लगाती है। इस नजरीये से सरकार की जिम्मेदारी भाजपा के पास रही है। इसलिये सबसे पहले उसी के काम काज का आंकलन किया जाना स्वभाविक और अनिवार्य है। 2014 में जब पिछली बार लोकसभा के चुनाव हुए थे तब सत्ता यूपीए सरकार के पास थी। उस समय यूपीए सरकार पर कई मुद्दों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे। कई मुद्दे सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचे थे और शीर्ष अदालत के निर्देशों पर इन मुद्दों पर जांच भी हुई थी। इस जांच के चलते कई वरिष्ठ नौकरशाह, राजनेता/मन्त्री और कारपोरेट जगत के लोग जेल तक गये थे। भ्रष्टाचार के इन्ही आरोपों के परिणामस्वरूप अन्ना हजारे का जनान्दोलन लोकपाल को लेकर सामने आया। इस पृष्ठभूमि में जब चुनाव हुए जो भाजपा को प्रचण्ड बहुमत मिला। इन चुनावों में भाजपा ने देश से कुछ वायदे किये थे। इन वायदों में मुख्यतः हर व्यक्ति के खाते में पन्द्रह पन्द्रह लाख रूपये आने, राम मन्दिर बनाने, जम्मूकश्मीर से धारा 370 हटाने, दो करोड़ युवाओं को रोजगार देने, मंहगाई पर लगाम लगाने आदि शामिल थे। इन्ही वायदों के सहारे आम आदमी को अच्छे दिन आने का सपना दिखाया गया था। इन वायदों को पूरा करने के लिये केवल साठ माह का समय मांगा गया था।
इसलिये आज सबसे पहले इन्ही दावों की हकीकत पर नजर दौड़ाना आवश्यक हो जाता है। जिस लोकपाल के लिये अन्ना ने आन्दोलन किया था वह लोकपाल अभी तक ‘साकार रूप नही ले सका है। जबकि लोकपाल विधेयक उसी दौरान पारित हो गया था। भ्रष्टाचार के जो मामले उस समय अदालत तक पहुंच गये थे उनमें से एक में भी इस सरकार में किसी को सजा नही मिल पायी है बल्कि 176,000 करोड़ के 2जी मामले में तो अब यह आ गया कि यह घोटाला हुआ ही नही है। भ्रष्टाचार का एक भी मामला इस सरकार के कार्यकाल में अन्तिम अन्जाम तक नही पहुंचा है। उल्टा इस सरकार ने तो भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम में ही संशोधन करके उसकी धार को ही कुन्द कर दिया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भाजपा सिन्द्धात रूप में ही भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई कारवाई नही करना चाहती है। भाजपा की इस मानसिकता का पता हिमाचल की जयराम सरकार के आचरण से भी लग जाता है। जब इस सरकार ने विपक्ष में रहते कांग्रेस सरकार के खिलाफ सौंपे अपने ही आरोपपत्र पर कोई कारवाई न करने का फैसला लिया है।
इसी तरह कालेधन के जो आंकड़े 2014 देष को परोसे जा रहे थे और उन्ही आंकड़ो के भरोसे आम आदमी को विश्वास दिलाया गया था कि उसके खाते में इस कालेधन की वापसी से पन्द्रह लाख पहुंच जायेंगे। लेकिन जब इस कालेधन पर हाथ डालने के लिये नोटबन्दी लागू की गयी तब 99.3% पुराने नोट आरबीआई के पास पहुंच गये। पूराने नोटों की इस वापसी ने न केवल सरकार के कालेधन के आकलन पर सवालिया निशान लगा दिया बल्कि नोटबन्दी के बाद आतंकवाद की कमर टूट जाने के दावे को भी हास्यस्पद सिद्ध कर दिया। आज तक कालेधन के एक भी मामले पर कोई प्रमाणिक कारवाई सामने नही आई है। उल्टा यह नोटबन्दी का फैसला ही कई गंभीर सवालों में घिर गया हैं विषेशज्ञों के मुताबिक नोटबन्दी के फैसले के कारण ही देश के कर्जभार पर इस शासनकाल में 49% की बढ़ौत्तरी हुई है। यही नहीं आज सरकार ने जो एफडीआई का दरवाजा हर क्षेत्र के लिये खोल दिया है उसके कारण हमारा आयात तो बहुत बढ़ गया है लेकिन इसके मुकाबले में निर्यात आधे से भी कम रह गया है। आर्थिक स्थिति के जानकारों के मुताबिक यह नीति किसी भी देश की अर्थ व्यवस्था के लिये एक बहुत बड़ा संकट बन जाती है। किसी समय स्वदेशी जागरण मंच के झण्डे तले एफडीआई का विरोध करने वाले आरएसएस की इस चुप्पी कई सवाल खड़े कर जाती है क्योंकि यह एक ऐसा पक्ष है जिसके परिणाम भविष्य में देखने को मिलेंगे।
इसी के साथ जब 2014 के मुकाबले आज मंहगाई और बेरोजगारी का आंकलन किया जाये तो इस मुहाने पर भी सरकार का रिपोर्ट कार्ड बेहद निराशाजनक है। सरकार हर काम हर सेवा आऊट सोर्स के माध्यम से करवा रही है। आऊट सोर्स का अर्थ है कि हर काम ठेकेदार के माध्यम से करवाना और ठेकेदार की कहीं सीधी जिम्मेदारी नहीं उसके काम की शिकायत पर केवल उसका ठेका ही रद्द किया जा सकता है इससे अधिक कोई कारवाई उसके खिलाफ संभव नही है। इसी आऊट सोर्सिंग के कारण सरकार का दो करोड़ नौकरियों का दावा हवा -हवाई होकर रह गया है। मंहगाई के नाम पर एकदम रसोई गैस के दाम हर आदमी को सोचने पर विवश कर देते हैं कि ऐसा क्यों है इसका कोई सन्तोषजनक जवाब भाजपा नेतृत्व के पास नही है। फिर यह सवाल तो इसी नेतृत्व से पूछे जाने हैं क्योंकि इसी ने यह वायदा किया था कि वह साठ महीने में इन समस्याओं से निजात दिला देगा लेकिन ऐसा हो नही पाया है।
जबकि दूसरी ओर आज जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनी हैं यदि वहां पर जनता से किये गये वायदों का आंकलन किया जाये तो सबसे पहले वहां पर किसानों से किये गये कर्जमाफी के वायदे की ओर ध्यान जाता है। इस पर यह सामने आता है कि जिस प्रमुखता से यह वायदा किया गया था उसी प्रमुखता के साथ इस पर अमल भी कर दिया गया है। इसलिये आज कांग्रेस गरीब अदामी के लिये जो न्यूनतम आय गांरटी योजना की बात कर रही है उसपर अविश्वास करने का कोई कारण नजर नही आता है। इस तरह के बहुत सारे वायदे और सवाल है जिन पर इस चुनाव में खुलकर चर्चा अगले अंको में की जायेगी। क्योंकि सरकार राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ रही बसह को दबाने का प्रयास कर रही है।