चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर कई गंभीर सवाल उठने के बाद जब सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस पर नाराज़गी जताई तब जाकर आयोग ने आचार संहिता के खुले उल्लंघन के मामलों का संज्ञान लेना शुरू किया और कुछ नेताओं के चुनाव प्रचार पर कुछ कुछ समय के लिये प्रतिबन्ध भी लगाया। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमितशाह के मामलों में आयी शिकायतों पर जब आयोग ने कुछ नहीं किया तब सर्वोच्च न्यायालय को इस पर भी निर्देश देने पड़े कि आयोग छः मई तक इस पर फैसला ले। इस पर आयोग कितनी कारवाई करता है और कितनी क्लीन चिट देता है और इस सब पर शीर्ष अदालत कैसे क्या संज्ञान लेती है इसका पता आगे चलेगा। ईवीएम वोटिंग मशीनों की मतदान के दौरान खराबी की कई शिकायतें आ गयी हैं। इन शिकायतों के बाद इक्कीस राजनीतिक दलों ने सर्वोच्च न्यायालय से फिर गुहार लगायी है कि वीवीपैट के मिलान की संख्या बढ़ाई जाये। इस पर आयोग को नोटिस भी हो गया है। वीवीपैट की शिकायत की प्रक्रिया पर एतराज उठाते हुए एक और याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दायर हो चुकी है। इस पर भी आयोग से जवाब मांगा गया है।
इस तरह यह जितनी भी घटनायें घटी हैं यह सब अपने स्वस्थ लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े करती है। प्रधानमन्त्री मोदी देश का सबसे बड़ा सम्मानित पद है जिस पर लोकतन्त्र की रक्षा की सबसे पहली जिम्मेदारी आती है। इस समय चुनाव चल रहे हैं। इसका परिणाम देश का भविष्य तय करेगा। इसके लिये देश की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं पर खुले मंच से निष्पक्ष सार्वजनिक बहस होनी चाहिये थी लेकिन देश के बुनियादी सवालों पर यह बहस कहीं दूर दूर तक देखने को नही मिल रही है। पूरा चुनाव प्रचार सोशल मीडिया और टीवी चैनलों तक ही सीमित हो कर रह गया है। यह आरोप लग रहे हैं कि न्यूज चैनलों के एंकरो ने पार्टीयों के स्टार प्रचारकों की जगह ले ली है। प्रधानमन्त्री स्वयं जब चुनाव प्रचार के दौरान एक राज्य की चयनित सरकार को तोड़ने की अपरोक्ष में धमकी देंगे तो क्या उसे लोकतन्त्र के प्रति उनकी आस्था माना जायेगा या हताशा। बीएसएफ का एक बर्खास्त जवान जब देश के प्रधानमन्त्री के खिलाफ चुनाव लड़ने की हिम्मत दिखाये तो क्या इसे देश में सही और स्वस्थ लोकतन्त्र होने की संज्ञा नही दी जा सकती थी? इस जवान के युवा लड़के की हत्या हुई है और उसके हत्यारे अभी तक पकड़े नही गये हैं क्या इसके लिये मोदी और उनके मुख्यमन्त्री योगी को उन हत्यारों को शीघ्र पकड़ने के निर्देश नहीं देने चाहिये थे? तेज बहादूर यादव ने खराब खाना जवानों को खिलाने की शिकायत की थी और जब उसकी शिकायत पर कोई कारवाई नही हुई तब उसने उस खाने का वीडियो जारी कर दिया। क्या खराब खाने की शिकायत करना कोई अपराध है बल्कि इस शिकायत के लिये उसके साहस की प्रशंसा की जानी चाहिये थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ उसे सज़ा देकर निकाल दिया गया। इस बर्खास्तगी के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में उसकी याचिका लंबित है। जब तेज बहादूर यादव ने चुनाव लड़ने का ऐलान किया और नामांकन दायर कर दिया तब यदि प्रधानमन्त्री ने उसके साहस की सराहना की होती और पीड़ा संझी की होती तो उससे प्रधानमन्त्री का ही कद बढ़ता। वह महामानव हो जाते लेकिन यहां तो यह नामांकन रद्द करवाने का आरोप अपरोक्ष में उन पर ही आ गया है। इसमें प्रधानमन्त्री का सीधा दखल था या नहीं यह नहीं कहा जा सकता लेकिन यह तो स्वभाविक है कि उनके चुनाव क्षेत्र में और कौन-कौन उनके खिलाफ चुनाव में है इसकी जानकारी उन्हें होगी ही। फिर जब इतना बड़ा यह मुद्दा बन गया तब भी प्रधानमंत्री की इस पर कोई प्रतिक्रिया न आना अपने में कई सवाल खड़े कर जाता है। यही स्थिति प्रज्ञा ठाकुर के चुनाव लड़ने और हार्दिक पटेल को यह अनुमति न मिलने पर है। आज राहुल गांधी की दोहरी नागरिकता का मुद्दा जिसे सर्वोच्च न्यायालय 2015 में समाप्त कर चुका है उसे गृह मन्त्रालय के माध्यम से फिर उठाये जाने से प्रधानमंत्री और उनकी सरकार की कार्यशैली पर ही सवाल खड़े कर रहा है। आज इन सारे मुद्दों को जिस तरह से उछाला गया है उससे भविष्य में लोकतन्त्र की स्थिति क्या होगी उसको लेकर सवाल उठने स्वभाविक है। क्योंकि दुनिया का कोई भी धर्म, हिंसा और अपराध का पाठ नही पढ़ाता है। अपराध और हिंसा कोई भी धर्म और जाति से नही जुड़ते है बल्कि यह व्यक्ति का अपना स्वभाव और उसकी परिस्थिति पर निर्भर करता है। जन्म से सभी एक समान ही होते है। ऐसे में हिंसा को धर्म से जोड़ने का प्रयास अपरोक्ष में लोकतन्त्र को कमजोर करने का प्रयास है।