Friday, 19 September 2025
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क्या मोदी सरकार असफल हो गयी है

दिल्ली और तेलंगाना में डाक्टरों को दो महीने से वेतन नही मिल पाया है। यहां पर डाक्टरों ने सामूहिक त्यागपत्र देने की घोषणाएं कर दी हैं। इस आश्य के समाचार कुछ न्यूज़ चैनलों के माध्यम से सामने आये हैं और सरकार इनका खण्डन नहीं कर पायी है। नगर निगम दिल्ली ने कहा है कि लाॅकडाऊन के कारण उसे राजस्व नही मिल पा रहा है, इस कारण से वह डाक्टरों को वेतन नही दे पा रहा है। कुछ समय पहले दिल्ली सरकार ने भी केन्द्र से पांच हज़ार करोड़ मांगे थे उसका कहना था कि उसके पास कर्मचारियों को वेतन देने के लिये पैसे नही हैं। आज लगभग हर राज्य में कोई न कोई कर्मचारी वर्ग ऐसा मिल जायेगा जिसे नियमित रूप से वेतन नही मिल रहा है और इसमें सबसे ज्यादा पीड़ित कान्ट्रैक्ट तथा आऊट सोर्स पर रखा कर्मचारी है। अभी सरकार ने बीस लाख करोड़ का राहत पैकेज देश के लिये घोषित किया है। इस पैकेज के बाद यह घोषित किया गया कि वित्तिय वर्ष  2020-21 के लिये घोषित सारी नई योजनाओं पर कार्यान्वयन मार्च 2021 तक स्थगित कर दिया गया है। इस दौरान केवल कोरोना और आपात सेवाओं से जुड़ेे कार्य ही किये जायेंगे। यदि सरकार द्वारा की गयी यह सारी घोषणाएं सही हैं और इस सबके बावजूद डाक्टरों को भी वेतन देने के लिये पैसे नहीं हैं तो यह सोचना और समझना आवश्यक हो जाता है कि आखिर देश की सही तस्वीर है क्या। क्योंकि सरकार की यह सारी घोषणाएं और डाक्टरोें तक को वेतन न मिल पाना यह सब स्वतः विरोधी हो जाता है। आज जिस मोड़ पर देश की आर्थिक स्थिति पहुंच गयी है वहां ऐसा लग रहा है कि सरकार की हालत भी एक दिहाड़ीदार मजूदर की तरह हो गयी है। मज़दूर दिन में अगर कमायेगा नही तो रात को उसका चुल्हा नही जलेगा। सरकार को भी यदि हर रोज़ राजस्व नही मिल पा रहा है तो वह अपने कर्मचारी को वेतन नही दे पायेगी। अब सवाल यह खड़ा होता है कि क्या यह सबकुछ एकदम कोरोना के कारण हो गया या यह सब कोरोना के बिना भी होना ही था। इस स्थिति को समझने के लिये हालात  को कोरोना से पहले और कोरोना के बाद दो-हिस्सों मे बांटकर देखना होगा। कोरोना के कारण देश में 24 मार्च से पूर्ण तालाबन्दी घोषित कर दी गयी थी जो 30 मई तक जारी रही। इसके बाद पहल जून से आनलाॅक-1 शुरू हुआ और नये सिरे से आर्थिक गतिविधियां शुरू हुई हैं। दो माह तक आर्थिक गतिविधियों पर विराम रहा है और इसी से यह हालात हो गये कि डाक्टरों को भी वेतन नहीं मिल पाया है। इसमें यह सवाल आता है कि कोरोना के लिये इतना क्या निवेश कर दिया गया कि जिस पर सारा खजाना खाली हो गया। कोरोना की अभी कोई दवाई सामने नहीं आयी है इसलिये दवाई पर तो खर्च हुआ नही है। बिना दवाई के तो मास्क, सैनेटाईज़र, पीपीई किट्स और वैंटिलेटर पर ही खर्च हुआ है। क्योंकि इस दौरान नये अस्तपालों का तो निर्माण हुआ नही है। अस्पतालों में कोरोना के अतिरिक्त अन्य बिमारीयों को ईलाज लगभग बन्द ही था। फिर कोरोना के लिये पीएम केयर में जितना पैसा लोगों ने दान दिया है वही पैसा भी शायद इन उपकरणों पर सारा खर्च नही हुआ है। कर्मचारियों, पैन्शनरों तक को मंहगाई भत्ते की अदायगी नही की गयी है। कर्मचारियों से हर माह एक-एक दिन का वेतन दान में लिया जा रहा है। सांसद और विधायक क्षेत्र विकास निधियां स्थगित कर दी गयी हैं। इनके वेतन में भी 30% की कमी की गयी है। इन सब उपायों के बाद भी वेतन न दे पाने की स्थिति आना अपने में अलग ही सवाल खड़े करता है। क्योंकि यह नही माना जा सकता कि जिस बीमारी की दवा तक अभी न बन पायी है उसी के कारण सारी अर्थव्यवस्था दो माह में ही चौपट हो जाये।
 लाॅकडाऊन के कारण सबसे ज्यादा प्रवासी मज़दूर प्रभावित हुए। इन लोगों को पहले तो अपने गांवों में सोशल डिस्टैन्सिंग के नाम पर जाने नही दिया गया, परिवहन के सारे साधन बन्द कर  दिये गये। जब इन लोगों के भूखे मरने की नौबत आ गयी और सैंकड़ों, हज़ारों मील पैदल चलने पर विवश हो गये तब इन्हे जाने की अनुमति दे दी गयी। सर्वोच्च न्यायालय ने भी प्रवासी मज़दूरों पर आयी याचिकाओं को  सुनने से इन्कार कर दिया और सरकार बिना शपथ पत्र के भी जो कुछ बोलती रही उसी को ब्रहम वाक्य मानती रही। इस पर जब रोष फैलने लगा तब शीर्ष अदालत ने सरकारों को निर्देश दिये की इन मज़दूरों को पन्द्रह दिन में अपने घर पहुंचाने का प्रबन्ध किया जाये। लेकिन न तो सरकार ने यह माना कि उसका पहला फैसला गलत था और न ही अदालत ने यह कहा। अब जब प्रतिदिन यह केस बढ रहे हैं तब पहले के प्रतिबन्धों को हटाया जा रहा है। गतिविधियां फिर शुरू करने की अनुमतियां दी जा रही हैं। अब यह सलाह दी जा रही है कि लम्बे समय तक कोरोना के साथ जीने की आदत डालनी होगी। सरकार की इस सलाह से यह स्पष्ट हो जाता है कि कोरोना को लेकर अबतक का सारा आकलन और फैसले गलत थे।  यह अलग सवाल है कि यह गलती सरकार से स्वभाविक सहजता में हो गयी या पूरे सोच विचार के साथ योजना के तहत की गयी है। क्योंकि जिस ढंग से केस बढ़ते जा रहे हैं उसके मुताबिक तो लाॅकडाऊन और सोशल डिस्टैसिंग की जरूरत अब थी फिर कोरोना को लेकर अब तक कोई दवाई तो सामने आयी नही है और दवाई के अभाव में सरकार ने आयुर्वेद के काढ़े की राय लोगों को दी थी। कोरोना जो लक्षण सामने आये हैं उनमें यह काढा सबसे ज्यादा उपयोगी है इसमें कोई दो राय नहीं है। यह काढ़ा बड़े अधिकारियों, सांसदो, विधायकों और कुछ स्वास्थ्य तथा पुलिस कर्मियों कई जगह सरकार ने मुफ्त में बांटा है। लेकिन अन्य कर्मचारियों और आम आदमी को यह उपलब्ध नही है। सरकार इसकी उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिये कुछ नही कर रही है जबकि यह काढ़ा हर आदामी को उपलब्ध करवाया जाना चाहिये था। लेकिन सरकार ऐसा कर नही रही है इससे भी सरकार की गंभीरता पर ही सवाल उठते हैं।
इस परिदृश्य में यह सवाल और ज्यादा गंभीर और सापेक्ष हो जाता है कि आखिर सरकार का पैसा चला कहां गया। क्योंकि बीस लाख करोड़ के राहत पैकेज में कैश-इन- हैण्ड तो बहुत कम लोगों को और बहुत ही कम राशी में दिया गया है। बल्कि सारा जोर बैंकों के ऋण पर है। लेकिन अब बैंक सहजता से ऋण दे नही रहे है। यह शायद इसलिये है कि अब बैंकों के पास जनता का ही जमा धन रह गया है। सरकार ने जिस तरह से बैंकों को थ्री सी से न डरने का अभयदान दिया है उससे स्पष्ट है कि यह ऋण भी यदि दे दिया जाता है तो एनपीए ही होगा। जिस तरह प्रधानमन्त्री मुद्रा ऋण में हुआ है। अब यह देखना शेष है कि बैंक कितना ऋण दे पाते हैं। लेकिन पिछले एनपीए पर सरकार की गंभीरता का इसी से पता चल जाता है कि विजय माल्या को भारत वापिस लाने के लिये यहां तक खबरें छप गयी कि हवाई जहाज चला गया है और कभी भी लैण्ड कर सकता है। परन्तु यह खबर ही रह गयी हकीकत नही बन पायी। इससे यह स्पष्ट होता है कि आर्थिक हालात शायद नोटबन्दी के बाद से ही बिगडने लग गये थे। आज यदि कोरोना न भी होता तो भी शायद यही स्थिति होती।

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