Friday, 19 September 2025
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रोजी-रोटी का संकट होगा तालाबन्दी का अन्तिम परिणाम

कोरोना का कहर कितना भयानक हो उठा है इसका अन्दजा इसी से लगाया जा सकता है कि केन्द्र सरकार को एक अध्यादेश लाकर प्रधानमंत्री से लेकर सांसदो तक के वेतन भत्तों और पैन्शन पर एक वर्ष के लिये 30% की कटौती घोषित करनी पड़ी है। राष्ट्रपति और राज्यपालों ने भी स्वेच्छा से अपने ऊपर यह 30% की कटौती आयत कर ली हैं प्रधानमंत्री की तर्ज पर ही कई राज्यों के  मुख्यमंत्रीयों से लेकर विधायकों तक ने यह कटौती अपने ऊपर से पहले ही महाराष्ट्र, राजस्थान, तेलंगाना और आन्धप्रदेश की सरकारों ने तो अपने कर्मचारियों तक के वेतन में 75% से लेकर 50% तक कटौती घोषित कर दी है। केन्द्र सरकार ने तो सांसद निधि भी दो वर्ष के लिये निरस्त कर ली। सांसदों की ऐच्छिक निधि पर भी कर लगा दिया है। हिमाचल जैसे कुछ राज्यों ने भी विधायक क्षेत्र विकास निधि पर दो वर्ष के लिये रोक लगा दी हैं। इन सारे कदमों का तर्क कोविड-19 की रोकथाम के लिये धन जुटाना कहा गया है। संभव हे कि हर राज्य सरकार को यही  कदम उठाने पड़े और अन्त में इस सबका परिणाम वित्तिय आपतकाल की घोषणा के रूप में सामने।
कोरोना ने इस वर्ष के शुरू में ही देश में दस्तक दे दी थी और उस समय भी यह स्पष्ट था कि इसका कोई ईलाज सामने नही है। ईलाज के अभाव में परेहज ही सबसे बड़ा कदम रह जाता है और परेहज सोशल डिस्टैसिंग-संगरोधन - ही था। यदि यह संगरोधन का कदम तभी उठा लिया जाता तो शायद स्थिति यहां तक न आती। सरकारों ने केन्द्र से लेकर राज्यों तक जो वित्तिय कदम उठाये हैं उससे देश की आर्थिक स्थिति पर स्वतः ही बसह की नौवत आ जाती है। क्योंकि इन कदमों का एक तर्क यह रहा है कि राजस्व संग्रहण रूक गया है। देश में पूर्णबन्दी और कफ्रर्यू तो 24-25 मार्च का लगाये गये। वित्तिय वर्ष 31 मार्च को समाप्त होता हैं। 31 मार्च को तो लेखा-जोखा होता है कि किस विभाग ने कितना बजट खर्च कर लिया है, कितना खर्च बजट से अधिक हो गया हैं या कितना बजट बच गया हैं राजस्व प्राप्तियों में भी यही होता है कि बजट अनुमान के अनुरूप संग्रहण हो पाया या नही। केन्द्र से अपेक्षित धन मिल पाया है या नही। इस सारी गणना में वर्ष के अन्तिम सप्ताह में इतना अन्तर नही आ सकता है कि माननीय, मन्त्रीयों, सांसदो, विधायकों के वेत्तन भत्तों में कटौती करने की नौवत आ जाये और यह नौवत सरकारी कर्मचारियों के वेत्तन की कटौती तक पहुंच जाये। जबकि केन्द्र सरकार ने वर्ष 2018 में सांसदो के वेत्तनभत्तों में 100% की बढ़ौत्तरी की थी। 2018 के बाद 2019 में लोकसभा के चुनाव हुए 2018 में ही प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना शुरू की गयी थी। इस योजना के तहत देशभर में करीब 11 लाख करोड़ ऋण बांटे गये है जिनमें करीब 70% से भी अधिक एनपीए हो चुके हैं बल्कि उनका पूरा ब्यौरा तक बैंकों के पास उपलब्ध नही है। हिमाचल में ही इस योजना के तहत सितम्बर 2019 तक 1,45,838 उद्यमियों को 2541.43 करोड़ के ऋण बांटे गये हैं । लेकिन इनमें से कितने उ़द्यमियों ने सही में कोई उद्योग धन्धा किया है और कितनों ने ऋण की कोई अदायगी की है इसका कोई ठोस रिकार्ड तक उपलब्ध नही है। क्योंकि इस योजना में दस्तावेजों की कोई बड़ी अनिवार्यता नही रखी गयी थी। इस तरह की कई योजनाएं और रही है जिनमें पैसा दिया गया हैं। इसी तरह बड़े उद्योपतियों का एनपीए बढ़ा और उसमें से आठ लाख करोड़ के करीब राईटआफ कर दिया गया।

इस तरह के कई वित्तिय फैसले रहे हैं जिनका अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। अर्थशास्त्रीयों का मानना है कि देश की अर्थव्यवस्था के सामने यह चुनौती आनी ही थी जिसका संकेत बैंकों के फेल होने से मिलना शुरू हो गया था। आज कोरोना के कारण जब हर व्यक्ति अपने में डर गया है तो परिणाम पूर्ण तालाबन्दी और कफ्रर्यू के रूप में सामने आ गया है। एक झटके में सारी आर्थिक गतिविधियों पर विराम लग गया है। स्थिति इतनी विकट हो गयी है कि गतिविधियां पुनः कब चालू हो पायेंगी यह कहना कठिन हो गया है। यह स्पष्ट नही है कि उद्योगों को पुनः उत्पादन में आने में कितना समय लग जोयगा। इन उद्योगों पर जितना बैंकों के माध्यम से निवेश हुआ पड़ा है वह कितना सुरिक्षत बच पायेगा यह कहना आसान नही है। शायद इसी सबके सामने रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय में वित्तिय अपातकाल लागू किये जाने के आग्रह की याचिकाएं आ चुकी हैं। सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था पर भी सवाल उठाते हुए याचिकाएं आ चुकी है। स्वास्थ्य सेवाओं के राष्ट्रीयकरण की मांग भी एक याचिका के माध्यम से आ चुकी है। यदि आर्थिक उत्पादन की गतिविधियां और ज्यादा देर तक बन्द रही तो एक बड़े वर्ग के लिये रोटी का संकट खड़ा हो जायेगा। संयुक्त राष्ट्रसंघ की आईएलओ के अध्ययन के मुताबिक देश में चालीस करोड़ लोगों को रोज़गार पर गंभीर संकट खड़ा हो जायेगा। लेकिन जहां देश इस तरह के संकट से गुजर रहा है वहीं पर एक वर्ग कोरोना के फैलाव के लिये तब्लीगी समाज को जिम्मेदार ठहराने के प्रयासों में लगा हुआ है। यह वर्ग इस तथ्य को नजरअन्दाज कर रहा है कि रामनवमी के अवसर पर कई जगह हिन्दु समाज ने भी तालाबन्दी को अंगूठा दिखाते हुए आयोजन किये हैं रथ यात्राएं तक निकाली गयी हैं। इस आश्य के दर्जनों वीडियोज़ सामने आ चुके है जिनका खण्डन करना कठिन है। ऐसे में एक ही जिम्मेदार ठहराने के प्रयासों में लगे हुए लोग न तो सरकार के ही शुभचिन्तक कहे जा सकते हैं और न ही समाज के। क्योंकि जब बिमारी के डर के साथ ही भूख का डर समान्तर खड़ा हो जायेगा तब उसका परिणाम केवल क्रान्ति ही होता है।

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