आज पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की बढ़ती कीमतों ने हर आदमी को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि यह कीमतें क्यों बढ़ रही है और यह बढ़ौतरी कहां जाकर रुकेगी। क्योंकि जब इंधन की कीमतें बढ़ती हैं तब उसका प्रभाव हर उत्पादन और यातायात पर पड़ता है। इन कीमतों के बढ़ने के परिणाम स्वरूप ही प्रदेश सरकार को सस्ते राशन के सप्लायरों ने आगे आपूर्ति कर पाने में असमर्थता जताई है। 2014 में जब मोदी सरकार ने केंद्र में सत्ता संभाली थी तब रसोई गैस का सिलेंडर चार सौ दस रूपये में मिलता था जो आज एक हजार पचास का हो गया है। पेट्रोल, डीजल की कीमतों में चालीस से पचास रूपये तक की वृद्धि हो गयी है। इस वृद्धि से हर चीज की कीमतें बढ़ गई है। लेकिन जिस अनुपात में कीमतें बढ़ी हैं उसी अनुपात में आम आदमी की आय में बढ़ौतरी नहीं हुई है। बल्कि बैंकों में हर तरह के डिपॉजिट पर ब्याज दरें 2014 के मुकाबले आधी रह गयी हैंं। इसलिए यह चिंता करना स्वाभाविक हो जाता है कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है।
इस चिंता और चिंतन में सबसे पहला ध्यान इस ओर जाता है कि 2014 के सत्ता परिवर्तन के समय जो आम आदमी को सपने दिखाये गये थे वह तो कहीं पूरे हुये नहीं बल्कि उस समय बदलाव की वकालत करने वाले सबसे बड़े चेहरे स्वामी रामदेव सेे जब आज उनके पुराने दावों/वायदों की याद दिलाकर वर्तमान पर सवाल पूछे गये तो वह जवाब देने के बजाय सवाल पूछने वाले पत्रकार से ही अभद्रता पर उतर आये हैं। उनके संवाद का वीडियो वायरल होकर हर आदमी के सामने हैं। यह स्थिति अकेले स्वामी रामदेव की ही नहीं है बल्कि हर उस आदमी की है जो अच्छे दिनों के नाम पर हर खाते में पन्द्रह-पन्द्रह लाख आने की आस लगाये बैठा था। बल्कि उस बदलाव के बड़े पैरोकारों का एक वर्ग तो आज की समस्याओं के लिए देश के पहले प्रधानमंत्री स्व.पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर डॉ. मनमोहन सिंह तक रहे हर प्रधानमंत्री को ही जिम्मेदार मानता है। उनकी नजर में तो यह मोदी ही है जिन्होंने देश को और बर्बाद होने से बचा लिया है। इस परिप्रेक्ष्य में यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि इस समय आम आदमी के सामने इस सरकार के कुछ फैसलों पर सार्वजनिक रूप से एक बहस शुरू की जाये। क्योंकि इन चुनाव में मिली जीत के बाद यह दावा किया जा रहा है कि देश की जनता ने समर्थन देकर सरकार को ऐसे फैसले लेने के लिए अधिकृत किया है।
महंगाई, बेरोजगारी का मूल कारण कर्ज होता है। आईएमएफ के मुताबिक वर्ष 2022 में यह कर्ज जीडीपी का 90% हो जायेगा। आरबीआई के अनुसार 31-03-2015 को देश का कर्ज 3,23,464 करोड था जो 31-03-2018 को बढ़कर 10,36,187 करोड हो गया है। 2018-19 में कर्ज जीडीपी का 68.21% था। पिछले 10 वर्षों में सात लाख करोड़ से अधिक का बारह बैंकों का एनपीए राइट ऑफ किया गया है। मोदी सरकार ने संपत्ति कर्ज माफ कर दिया है। संपत्ति कर के साथ ही कॉरपोरेट घरानों पर लगने वाला कॉरपोरेट टैक्स भी कम किया है। गरीब और गांव से जुड़ी बहुत सारी सेवाओं के बजट में कटौती की गयी है। इसी दौरान करीब आठ लाख करोड़ बैंकों में हुये फ्रॉड में डूब गया है। इन आंकड़ों का जिक्र करना इसलिए आवश्यक हो जाता है कि जब देश का धन कुछ बड़े लोगों के लिये लुटता रहे और सरकार अपने खर्चे चलाने के लिये कर्ज लेती रहे तथा ईंधन की कीमतों में बढ़ौतरी करती रहे तो उसका अंतिम परिणाम तो महंगाई के रूप में ही सामने आयेगा। तेल और गैस पर समय-समय पर बढ़ाये गये करों से यह सरकार करीब 26 लाख करोड़ की कमाई कर चुकी है। जबकि सरकार द्वारा चलाई जा रही सारी कल्याणकारी योजनाओं पर इस कमाई का आधा भी खर्च नहीं हुआ है। ऐसे में आज आम आदमी को यह सोचना होगा कि जब एक को रसोई गैस का सिलेंडर किसी भी योजना के नाम पर मुफ्त में मिलेगा तो उसकी भरपाई गैस की कीमतें बढ़ाकर की जाती है और उसका असर सब पर पड़ता है। जब एक किसान को सम्मान निधि के नाम पर छः हजार नगद मिलते हैं तो उसकी वसूली इस महंगाई से होती है। जब मुफ्त और सस्ता राशन दिया जाता है तो उससे गांव में जमीनें बंजर होने के साथ ही इस खर्च को पूरा करने के लिए सब की जेब पर महंगाई के माध्यम से डाका डाला जाता है। इसलिए आज कुछ के लिए मुफ्त की बजाये सबके लिये सस्ते की वकालत और मांग की जानी चाहिये।
मोदी सरकार का सबसे पहला और बड़ा फैसला नोटबंदी का आया था। नोटबंदी लाने के जो कारण और लाभ बताये गये थे उनका सच इसी से सामने आ जाता है कि 99. 6ः पुराने नोट नये नोटों से बदला दिये गये। इसका अर्थ है कि काले धन के जो आंकड़े और इसके आतंकवाद में लगने के जो आंकड़े परोसे जा रहे थे वह सब काल्पनिक थे। केवल सत्ता परिवर्तन का हथियार बनाये जा रहे थे। इसी काले धन से हर बैंक खाते में 15 लाख आने का सपना दिखाया गया था। इस नोटबंदी से जो अद्योगिक क्षेत्र प्रभावित हुये वह सरकार के पैकेज से भी पुनःजीवित नहीं हो सके हैं। नोटबंदी के कारण बड़े क्षेत्र का उत्पादन प्रभावित हुआ जिससे महंगाई और बेरोजगारी बढ़ी। इसी नोटबंदी के बाद बैंकों में हर तरह से के जमा पर ब्याज दरें घटाई और हर सेवा का शुल्क लेना शुरू कर दिया। इसी का परिणाम है कि जीरो बैलेंस जनधन खातों पर पांच सौ और हजार के न्यूनतम बैलेंस की शर्त लगा दी गई। नोटबंदी से हर व्यक्ति और हर उद्योग प्रभावित हुआ। लेकिन आम आदमी इसके प्रति चौकन्ना नहीं हो पाया। क्योंकि उसके सामने गौरक्षा, लव जिहाद, तीन तलाक, नागरिकता संशोधन कानून, राम मन्दिर और धारा 370 जैसे मुद्दे परोस दिये गये। लेकिन इन मुद्दों से चुनाव तो जीत लिये गये परंतु इन से अर्थव्यवस्था में कोई सुधार नहीं हो पाया। अर्थव्यवस्था को सबसे घातक चोट कोरोना के लॉकडाउन में पहुंची। जब सारा उत्पादन पूरी तरह ठप हो गया। स्वभाविक है कि जब उत्पादन ही बंद हो जायेगा तो उसका असर निर्यात पर भी पड़ेगा। इसी का परिणाम है विदेशी मुद्रा कोष में भारी गिरावट आ गयी है।
इस समय जिस ढंग से सरकार ने सार्वजनिक संपत्तियों को निवेश के नाम पर प्राइवेट सैक्टर को सौंपना शुरू किया है उसका अंतिम परिणाम महंगाई और बेरोजगारी के रूप में ही सामने आयेगा। यह एक स्थापित सत्य है कि जब कोई सरकार सामान्य जन सेवाओं को भी निजी क्षेत्र के हवाले कर देती है तो उससे गरीब और अमीर के बीच का अन्तराल इतना बढ़ जाता है कि उसे पाटना असंभव हो जाता है। आज सरकार अपनी आर्थिक नीतियों पर बहस को कुछ अहम मुद्दे उभार कर दबाना चाह रही है। जैसे ही दामों की बढ़ौतरी हुई तो उससे ध्यान भटकाने के लिए कश्मीर फाइल जैसी फिल्म का मुद्दा परोस दिया गया। यहां तक कि स्वयं प्रधानमंत्री इस फिल्म के प्रचार पर उतर आये। अब यह आम आदमी को सोचना होगा कि वह इस फिल्म के नाम पर महंगाई और बेरोजगारी के दंश को भूल जाता है या नहीं। अभी फिर चुनाव आने हैं और इनसे पहले यह फिल्म आ गयी है। इसका मकसद यदि राजनीति नहीं है तो इसे यू टयूब पर डालकर सबको क्यों नहीं दिखा दिया जाता। कश्मीरी पंडितों के अतिरिक्त और भी कईयों के साथ ऐसी ज्यादतियां हुयी हैं। उन पर भी फिल्में बनी जिन्हें रिलीज नहीं होने दिया गया है। ऐसे में यदि इस फिल्म को महंगाई और बेरोजगारी पर पर्दा डालने का माध्यम बना दिया गया तो फिर कोई भी सवाल पूछने का हक नहीं रह जायेगा।
सरकारों की सत्ता में वापसी जनता द्वारा उसकी नीतियों का स्वीकार माना जाता है। ऐसे में आज महंगाई और बेरोजगारी बढ़ने के जो मुद्दे हैं उन पर अब जनता को कोई भी सवाल उठाने का अधिकार नहीं रह जाता है। जिस किसान ने कृषि कानूनों से आहत होकर तेरह माह तक आंदोलन किया और सात सौ किसानों के प्राणों की आहुति दी है उसे भी अब सरकार के खिलाफ वादाखिलाफी का सवाल उठाने का अधिकार नहीं रह जाता है। कांग्रेस और अन्य दलों ने अपनी हार के कारणों का खुलासा अभी तक जनता के सामने नहीं रखा है। इसलिए उन पर अभी कोई चर्चा करना तो ज्यादा प्रसंागिक नहीं होगा। कांग्रेस नेतृत्व रफाल, पैगासैस और सार्वजनिक सम्पतियों, संस्थानों को मौद्रीकरण विनिवेश के नाम पर निजी क्षेत्र को सौंपने का सच जनता के सामने रख दिया है यही उसकी जिम्मेदारी थी। इस मौद्रीकरण और विनिवेश के कारण महंगाई बेरोजगारी लगातार बढ़ती रही है। आगे भी बढे़गी क्योंकि जब समाज के एक वर्ग को कुछ निःशुल्क दिया जाता है तो उस खर्च को पूरा करने के लिए या तो जनता पर सरकार टैक्स लगाती है या कर्ज लेती हैं क्योंकि सरकार की आय का और कोई साधन नहीं होता है। दादा को पैन्शन देकर बेरोजगार पोते को रोजगार नहीं मिलता है और न ही घर का खर्च चलाने वाले पिता को इस पैन्शन से महंगाई में राहत मिलती है। आज जनता को यह समझने की जरूरत है क्योंकि जो कुछ भी घट रहा है उसे जनता ने ही भोगना है चाहे वह किसी की भी समर्थक हो।
लेकिन एग्जिट पोल को लेकर यह सामने रखना आवश्यक हो जाता है की मतगणना के दिन से शुरू होने से पहले तक पोस्टल बैल्ट आ सकते हैं। जो लोग मतदान के अंतिम दिन के बाद पोस्ट से अपना मतदान भेजेंगे उस मतदाता की एग्जिट पोल के परिणामों से प्रभावित होने की संभावना बराबर बनी रहती है। क्योंकि जब वह इन पोल परिणामों में यह देखता है कि सरकार तो अमुक पार्टी की बन रही है तो उसी के पक्ष में मतदान करना उचित रहेगा। इससे जिन उम्मीदवारों की हार जीत सौ पच्चास वोटों से हो रही होती है उनको इससे लाभ मिल जाता है। इसी कारण से यह कहना शुरू कर दिया जाता है कि बड़े कम अंतर से हार जीत होगी। बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव में इन्हीं पोस्टल बैल्ट से पूरा चुनावी परिणाम बदल गया था यह देश देख चुका है। इसी परिदृश्य में यह उठाया जाना आवश्यक हो जाता है कि क्या मीडिया को इस तरह का आचरण करना चाहिए? क्या इससे मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल नहीं उठेंगे? जब मीडिया अपनी विश्वसनीयता खो देता है तब समाज में अराजकता पनपती हैं। जो कालांतर में सबको घातक सिद्ध होती है। मीडिया के साथ ही प्रशासन और राजनीतिक नेतृत्व भी अविश्वसनीय हो जाता है।
आज देश ही नहीं पूरा विश्व संकट के दौर से गुजर रहा है। रूस यूक्रेन युद्ध ने संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर नीचे तक हर वैश्विक संस्था की प्रसंगिकता पर प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिये हैं। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में मानवता से ऊपर व्यापार हो गया है। हर राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की आपदा में अपने लिये व्यापारिक अवसर तलाशने को प्राथमिकता दे रहा है। इसलिए कोई भी राष्ट्र यह युद्ध छिड़ने से पहले अपने नागरिकों को यूक्रेन से नहीं निकाल पाया। क्या सभी देशों की गुप्तचर संस्थाओं को यह युद्ध छिड़ने की संभावनाओं की पूर्व जानकारी ही नहीं हो सकी? हमारे ही मीडिया संस्थानों के विदेश में बैठे पत्रकारों को भी युद्ध की पूर्व जानकारी क्यों नहीं मिल पायी? यदि गुप्तचर एजेंसियों और मीडिया को जानकारी थी लेकिन सरकार ने उसके आधार पर अपने लोगों को यूक्रेन से निकालने का कोई प्रयास क्यों नहीं किया? ये ऐसे सवाल हैं जो देर सवेर उठेंगे ही। सबकी विश्वसनीयता पर यह प्रश्न चिन्ह होगा। क्योंकि यह सब कुछ इन्हीं चुनाव के दौरान घटा और हमारा नेतृत्व इस युद्ध के साये में भी सशक्त नेतृत्व के लिये समर्थन मांग रहा था।
इन चुनाव परिणामों का देश की राजनीति पर एक बड़ा और लंबा असर पड़ेगा यह तय है। क्योंकि इन चुनावों में महंगाई और बेरोजगारी जिस हद तक लोगों ने झेली है उसके असर का भी प्रभाव इन परिणामों में सामने आयेगा। देश के किसान ने जिस तरह से तीन कानूनों का विरोध किया और सात सौ किसानों ने अपनी आहुति दी इस सबका जवाब भी यह परिणाम होंगे। एक तरह से यह चुनाव आम आदमी की समझ की परीक्षा होंगे और उसका परिणाम एग्जिट पोल नहीं होंगे।