Wednesday, 17 December 2025
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क्या धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद संविधान से हटा देना चाहिये?

भाजपा के राज्यसभा सांसद डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने सर्वाेच्च न्यायालय में एक याचिका दायर करके गुहार लगाई है कि संविधान के उद्घोष से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के शब्दों को हटा दिया जाये। डॉ. स्वामी की याचिका से पहले भी मेघालय उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एस.आर. सेन दिसम्बर 2018 में यह फैसला दे चुके है कि भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर दिया जाना चाहिये। जस्टिस सेन के इस निर्देश के खिलाफ कुछ लोग सर्वाेच्च न्यायालय गये थे। जस्टिस गोगोई की पीठ ने मेघालय उच्च न्यायालय को नोटिस भी जारी किये थे। लेकिन बाद में जस्टिस गोगोई ने यह कहकर मामला बन्द कर दिया था कि इसमें कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। अब डॉ. स्वामी की याचिका अगर स्वीकार हो जाती है तो संविधान संशोधन का रास्ता कानूनी तौर पर साफ हो जाता है। इस से स्वतः ही देश हिन्दू राष्ट्र हो जाता है। ऐसे में बड़ा सवाल यह हो जायेगा कि इस समय देश में जो धार्मिक अल्पसंख्यक है उनका भविष्य क्या हो जायेगा? क्योंकि इस समय जो दल सत्तारूढ़ है वह लगभग मुस्लिम मुक्त है। संसद में उसके पास शायद कोई भी मुस्लिम सांसद नहीं है। शायद भाजपा शासित राज्यों में मुस्लिम विधायक भी नहीं के बराबर हैं। पहली बार है कि केंद्रीय मन्त्रीमण्डल में कोई मुस्लिम मन्त्री नहीं है। यही नहीं ऐसा पहली बार देखने को मिल रहा है कि सत्तारूढ़ दल का नेतृत्व कांग्रेस और क्षेत्रीय दल मुक्त भारत का नारा दे रहा है। सत्तारूढ़ दल व्यवहारिक रूप से अपने को मुस्लिम विरोधी कहलाने में संकोच नहीं कर रहा है। भारत बहुभाषी और बहुत धर्मी देश है यही बहुलता इसकी विशेषता है। लेकिन जब सत्तारूढ़ दल के प्रयास यह हो जायें कि वह देश में किसी भी दूसरे दल की उपस्थिति ही न चाहता हो तो और इसके लिये भ्रष्टाचार के नाम पर जांच एजेंसियों का खुला दुरुपयोग होने के आरोप लग जायें तो इससे लोकतांत्रिक व्यवस्था कैसे बची रह पायेगी? यह सवाल आने वाली पीढ़ियों के सामने एक बड़ा सवाल बनकर जवाब मांगेगा यह तय है। क्योंकि इस समय हिन्दू-मुस्लिम का मुद्दा जिस तरह से लगातार बड़ा बनाया जा रहा है उससे देश में एक बार फिर बंटवारे जैसे हालात उभरते जा रहे हैं जो कालान्तर में बहुत घातक सिद्ध होंगे यह भी तय है। देश ने आजादी के लड़ाई अंग्रेज के शासन के खिलाफ लड़ी है मुस्लिम के विरुद्ध नहीं यह इतिहास का एक नितान्त कड़वा सच है। देश का बंटवारा भी अंग्रेज को भगाने के लिये स्वीकार किया गया था। उस समय भी कुछ लोग स्वतंत्रता सेनानियों का विरोध कर रहे थे और इस विरोध के अदालती प्रमाण स्वयं डॉ. स्वामी ने देश के सामने रखे हैं। बाद में इसी लोकतंत्र में यह विरोध करने वाले भी देश के शीर्ष पदों तक पहुंचे हैं। क्योंकि विरोध के स्वर अंग्रेजों के प्रायोजित शब्द थे। लेकिन दुर्भाग्य से यही विरोध के स्वर नये कलेवर में आज फिर उठने शुरू हो गये हैं और मुस्लिम विरोध इनका बड़ा हथियार बन गया है। इस परिदृश्य में आज लोकतंत्र के लिये सही में बड़ा खतरा खड़ा हो गया है। आज यह दावा किया जा रहा है कि भारत विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुकी है। इंग्लैंड को भारत ने पीछे छोड़ दिया है। ऐसे में यह सवाल पूछा जाना आवश्यक हो जाता है कि इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश को शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे अहम क्षेत्र भी पी.पी.पी. मोड पर प्राइवेट सैक्टर को देने की नौबत क्यों आ रही है। साधारण खाद्यानों पर भी जीएसटी क्यों लगानी पड़ी है? बेरोजगारी ने इस दौरान पिछले सारे रिकॉर्ड क्यों तोड़ दिये हैं। नई शिक्षा नीति की भूमिका में यह क्यों कहना पड़ा है कि हमारे बच्चे खाड़ी के देशों में बतौर हैल्पर ज्यादा समायोजित हो पायेंगे। ऐसे दर्जनों सवाल है जो सरकारी दावों पर गंभीर प्रश्न चिन्ह उठाते हैं। क्योंकि आर्थिकी उत्पादन में बढ़ौतरी से नहीं वरन स्थापित संसाधनों को प्राइवेट क्षेत्र के हवाले करने से बड़ी है। इस परिदृश्य में यह सवाल और भी गंभीर हो जाता है कि यदि धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्दों को संविधान के उद्घोष से हटाने की अदालती स्वीकृति मिल जाती है तो उसके बाद किस तरह का सामाजिक वातावरण निर्मित होगा।

कर्ज लेकर मुफ्त कब तक बांटा जा सकता है

इस समय सड़क से लेकर सर्वाेच्च न्यायालय तक मुफ्ती की घोषणाएं एक बड़े मुद्दे के तौर पर हर संवेदनशील नागरिक का ध्यान आकर्षित किये हुए हैं। अश्वनी उपाध्याय की याचिका के माध्यम से सर्वाेच्च न्यायालय पहुंचे इस मामले को अब तीन जजों की पीठ को सौंप दिया है। सर्वाेच्च न्यायालय ने इस विषय पर केंद्र सरकार, राजनीतिक दलों, चुनाव आयोग और कुछ वरिष्ठ वकीलों से उनकी राय जानने का प्रयास किया है। अब तक जो कुछ भी चर्चित हुआ है वह मुफ्ती की परिभाषा चुनाव आयोग के दखल और सर्वाेच्च न्यायालय के दखल की सीमा के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा है। इस सवाल की ओर कोई ध्यान ही नहीं गया है कि राजनीतिक दलों को मुफ्ती की घोषणाएं करने की आवश्यकता ही क्यों पड़ती है? इन योजनाओं के लाभार्थियों के जीवन स्तर में कितना सुधार हो पाया है? इनका लाभ लेने के बाद उनकी क्रय शक्ति में कितना सुधार हुआ है? यहां कुछ ऐसे सवाल हैं जिन पर व्यवहारिकता में विचार किये बिना मुफ्ती को लेकर ठोस नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता। इसमें पंचायत सदस्य से लेकर संसद तक कुछ न कुछ मानदेय ले रहा है और यह सब जन सेवक कहलाते हैं। जनता की सेवा के लिए अपना बहुमूल्य समय दे रहे हैं। इस जनसेवा के बदले जो कुछ उन्हें मिल रहा है और उस पर जनता की प्रतिक्रियाएं क्या हैं यह सब उन याचिकाओं के माध्यम से सामने आ चुका है। जिनमें इनकी पैन्शन बन्द किये जाने की मांग की गयी है। जबकि सरकारों की वित्तीय स्थिति यह है कि केंद्र से लेकर राज्य तक हर प्रदेश कर्ज के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है। वित्तीय जिम्मेदारी और बजट प्रबंधन अधिनियम एफआरबीएम के अनुसार कर्ज जीडीपी के 3% से 5% तक की सीमा में ही रहना चाहिये। लेकिन कई राज्य सौ प्रतिशत की सीमा पार कर चुके हैं। आर बी आई 13 प्रदेशों को तो कभी भी श्रीलंका होने की चेतावनी दे चुका है। हिमाचल का कर्ज जीडीपी का 38% से बढ़ चुका है और यह जानकारी मानसून सत्र में आयी है। जब राज्य या केंद्र कर्ज लेकर मुफ्त बांटे और फिर भी लाभार्थी की परचेज पॉवर में सुधार न हो तो ऐसी मुफ्ती का लाभ और अर्थ क्या रह जाता है। अदालत इस पर रोक लगा नहीं सकती क्योंकि यह जनप्रतिनिधित्व कानून में दखल हो जाता है। राजनीतिक दलों के अधिकारों का मामला हो जाता है। चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र से भी बाहर का मामला है। केवल जनता के समर्थन का मामला रह जाता है और जनता जिस महंगाई और बेरोजगारी के दौर से गुजर रही है उसमें उससे कोई उम्मीद रखना संभव नहीं हो सकता। इस परिदृश्य में केवल चुनाव प्रक्रिया में सुधार का ही एक मात्र विकल्प रह जाता है जिसके माध्यम से इस पर रोक लगाई जा सकती है। यहां यह विचारणीय हो जाता है कि राजनीतिक दलों को परोक्ष/अपरोक्ष मुफ्ती की आवश्यकता ही क्यों पड़ती है। क्या मुफ्ती के भार से दलों की विश्वसनीयता बनेगी? मुफ्ती के आईने में उम्मीदवारों का सारा चरित्र छिपा रह जाता है। इसी के कारण आज विधानसभा से लेकर संसद तक में करोड़़पति और अपराधिक पृष्ठभूमि वाले माननीय की संख्या हर चुनाव में बढ़ती जा रही है। हर बार चुनाव खर्च का दायरा बढ़ा दिया जाता है। लेकिन राजनीतिक दलों को चुनाव खर्च सीमा से बाहर रखा गया है और यही सारी समस्या का मूल है। जब चुनाव महंगा होगा तो यह सिर्फ अमीर का ही अधिकार क्षेत्र होकर रह जायेगा। एक समय अपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों के चुनाव प्रचारक हुआ करते थे जो आज स्वयं माननीय हो गये हैं। ऐसे में मुफ्ती और कर्ज से बचने के लिये चुनाव को खर्च से रहित करना होगा। सरकार को चुनाव खर्च उठाना होगा। चुनाव प्रचार के वर्तमान स्वरूप को बदलना होगा। यदि ऐसा न हुआ तो आने वाले समय में चुनाव लड़ने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। कुछ अमीर आपस में ही फैसला कर लेंगे। चुनाव सुधार करके चुनावों को खर्च मुक्त करना होगा क्योंकि कर्ज लेकर मुफ्त बांटना ज्यादा देर तक नहीं चल सकता है और अब जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक आ पहुंचा है तो हर नागरिक को इस बहस में हिस्सा लेना आवश्यक हो जाता है।

अमृत काल में विश्वास का टूटना

आजादी के स्वर्णिम जयन्ती को अमृत काल की संज्ञा दी है हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री ने। इस अमृत काल में स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर प्रधानमंत्री के गुजरात में ही बिलकिस बानो के दोषीयों को न केवल रिहाई का तोहफा दिया गया बल्कि उन्हें एक तरह से सम्मानित भी किया गया। 2002 में जब गुजरात में गोधरा काण्ड घटा था तब उसके बाद राज्य में दंगे भड़क उठे थे। इन्ही दंगों में दंगाईयों ने बिलकिस बानो के परिवार के साथ व्यस्क सदस्यों की हत्या करने के बाद उसकी गोद से बच्चे को छीन कर उसे भी मौत के घाट उतार दिया। दंगाई इतने पर ही नहीं रुके बल्कि 5 माह की गर्भवती बिलकिस बानो के साथ 11 लोगों ने सामूहिक बलात्कार भी किया। बाद में इस पर मुकद्दमा चला मुंबई की विशेष अदालत में सुनवाई हुई। सभी ग्यारह लोगों को उम्र कैद की सजा सुनाई गई। उच्च न्यायालय में इसकी अपील दायर हुई और हाईकोर्ट ने भी विशेष अदालत के फैसले को बहाल रखा। इन दोषियों को मृत्युदण्ड की सजा क्यों नहीं हुई इसका जवाब आज तक नहीं आया है और यही इनके प्रभावशाली होने का प्रमाण है। अब स्वर्ण जयंती के अमृत काल में गुजरात सरकार ने इन्हें रिहाई का तोहफा दिया। संगठन से जुड़े मंचों ने उन्हें भगवा पटके पहनाकर और माथे पर तिलक लगाकर सम्मानित किया। पूरे देश ने यह देखा है। यह लोग इतने बड़े जघन्य अपराध के दोषी थे जिन्हें अदालत ने सजा दी थी। अब ऐसे लोगों की रिहाई जहां कानून के कमजोर पक्षों पर कई गंभीर सवाल खड़े कर रही है वहीं पर इनका इस तरह से सम्मानित किया जाना समाज के एक वर्ग की मानसिकता और नीयत पर जो सवाल खड़े कर जाती है उसके परिणाम आने वाले समय के लिये घातक होंगे। क्योंकि इस तरह के आचरण से विदेशों में भी सरकार और देश की छवि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। जब विश्व गुरू बनने का दावा करने वाले समाज की यह तस्वीर विश्व के सामने जायेगी कि यहां तो जितना बड़ा अपराध उतना ही बड़ा उसका महिमा मण्डन और इनसे भी बड़ी सरकार की चुप्पी तो सारा परिदृश्य ही बदल जाता है। प्रधानमंत्री से लेकर नीचे तक संघ परिवार सहित किसी ने भी ऐसे आचरण की निंदा नहीं की है। केवल पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार ने इसे देश का दुर्भाग्य कहा हैं इन्हीं गुजरात दंगों को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री स्व.अटल बिहारी बाजपेयी ने यहां राजधर्म की अनुपालना न होने की बात की थी। परन्तु पिछले दिनों जब सुप्रीम कोर्ट ने जाकिया जाफरी की याचिका को यह कहकर खारिज कर दिया था कि इन दंगों में प्रायोजित जैसा कुछ नहीं है और इस फैसले के बाद जिस तरह से यह मामला उठाने वालों के खिलाफ कारवायी हुयी क्या उस पर इस आचरण के बाद स्वतः ही प्रश्नचिन्ह नहीं लग जाता है? क्या इस परिदृश्य में आज सीबीआई, ई डी और अन्य एजेंसियां जो सक्रियता दिखा रही है उन पर आसानी से आम आदमी का विश्वास बन पायेगा? क्या सर्वाेच्च न्यायालय ऐसे महिमा मण्डन का स्वतः संज्ञान लेकर कुछ कारवाई का साहस दिखायेगा? क्या इसी पृष्ठभूमि में वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल यह कहने को बाध्य नहीं हुये कि अब तो सुप्रीम कोर्ट से भी उम्मीद नहीं रही? क्योंकि अब जांच एजेंसियों का राजनीतिक उपयोग होने के खुले आरोप लगने लग पड़े हैं। जांच एजेंसियों और न्यायिक व्यवस्था पर से उठता विश्वास कालान्तर में लोकतंत्र के लिए बहुत घातक प्रमाणित होगा यह तय है।

आजादी की स्वर्ण जयन्ती-कुछ बिन्दु...

देश को आजाद हुए पचहत्तर वर्ष हो गये हैं इसलिए इसे स्वर्ण जयन्ती कहा जा रहा है। लेकिन इसी के साथ इसे अमृत काल की संज्ञा भी दी जा रही है। समय के गणित से तो यह अवसर स्वर्ण जयन्ती बन जाता है लेकिन इसे अमृत काल क्यों कहा जा रहा है यह समझना कुछ कठिन हो रहा है। इसलिये इस कालखण्ड पर एक मोटी नजर डालना अवश्यक हो जाता है। देश को आजादी अंग्रेजों के तीन सौ वर्ष के शासनकाल से 1947 में मिली। अंग्रेज व्यापारी बनकर देश में आये और शासक बन कर गये। व्यापारी से शासक बन जाना अपने में ही बहुत कुछ कह जाता है। इससे यह भी समझ आता है कि व्यापारी की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण हो जाती है। तीन सौ से अधिक रियासतों में बंटे देश में एक व्यापारी कैसे शासक होने तक पहुंच गया यह अपने में ही एक बड़ा सवाल बन जाता है। इसी सवाल के परिपेक्ष में अंग्रेज के शासन का ‘‘मूल मन्त्र फूट डालो और राज करो’’ इस मन्त्र को समझने और इसका विश्लेषण करने पर बाध्य कर देता है। करोड़ों की जनसंख्या और सैकड़ों राजाओं वाले देश में एक व्यापारी तीन सौ वर्ष तक राज कर जाये यह महत्वपूर्ण है। क्योंकि संख्या बल के रूप में तो अंग्रेज बहुत ही नगण्य थे। फिर उन्होंने किसमें फूट डाली। स्वभाविक है कि इस फुट का आधार यहीं के लोगों को बनाया गया। एक राजा को दूसरे से श्रेष्ठ बताया गया। एक धर्म और जाति को दूसरे धर्म और जाति से श्रेष्ठ बताया गया। इसी श्रेष्ठता को प्रमाणित करने के लिये सब में आपसी वैमनस्य बढ़ता चला गया। इसके सैकड़ों प्रमाण इन तीन सौ वर्षों के इतिहास में उपलब्ध है। इस श्रेष्ठता के अहंकार को सामान्य करने में भी बहुत लोगों का बहुत समय लगा है और इसके भी सैकड़ों प्रमाण उपलब्ध है। अंग्रेजी शासन का तीन सौ वर्ष का इतिहास इस तथ्य से भरा पड़ा है कि जाति-धर्म और भाषा की श्रेष्ठता की होड़ समाज में ऐसी दूरियां खड़ी कर देती हैं जिन्हें पारना आसान नहीं होता है।  इसी तीन सौ वर्ष के इतिहास में यह भी मौजूद है कि जब अंग्रेज को यह लगने लगा कि यह जाति, धर्म और भाषा की श्रेष्ठता का हथियार ज्यादा देर तक नहीं चल पायेगा तब उसने इन्हीं आधारों पर राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को उभार दिया और राजनीतिक संगठन खड़े करवा दिये। इन संगठनों ने आजादी की लड़ाई के बीच ही अपने लिये अलग-अलग राज्यों की मांग तक कर डाली कुछ संगठनों के कार्यकर्ता तो यहां तक चले गये कि वह स्वतंत्रता सेनानियों के विरुद्ध अंग्रेज के मुखबिर तक बन गये। देश का विभाजन इसी सब का परिणाम है। धार्मिक श्रेष्ठता और उससे उपजी राजनीतिक महत्वकांक्षा ने मिलकर पाकिस्तान का सृजन किया है। इस परिदृश्य में आजाद हुये देश की नई सरकार के सामने चुनौतियों का पहाड़ था। नया संविधान बनाया जाना था। रियासतों को देश में मिलाना था। बहुजातीय, बहुभाषी और बहुधर्मी देश में यह सब आसान नहीं था। क्योंकि देश का बंटवारा ही धर्म के आधार पर हुआ था। इसलिये इस बहुविधता को सामने रखते हुये देश और सरकार को धर्मनिरपेक्ष रखा गया। संविधान सभा में बहुमत से यह फैसला लिया गया था। इसके बाद देश के विकास की ओर कदम बढ़ाया गया। देश की जनसंख्या का एक बड़ा भाग अति पिछड़ा था इसे मुख्यधारा में लाने के लिये उसकी पहचान करने और उपाय सुलझाने के लिये काका कालेलकर की अध्यक्षता ने एक कमेटी बनाई गयी जिसने आरक्षण का सुझाव दिया। इसी के साथ भू-सुधारों का मुद्दा आया। बड़ी जमीदारी प्रथा को खत्म करने के लिये कानून बने। फिर बैंकों के राष्ट्रीयकरण के लिये कदम उठाये गये। संसद में कानून बनाया गया। जब यह सारे उपाय किये जा रहे थे तभी एक वर्ग इसका विरोध करने पर आ गया। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद बड़े बहुमत से बनी सरकार के मुिखया के चुनाव को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी। चुनाव रद्द हो गया और देश में आपातकाल की नौबत आ गयी। 1977 में जनता पार्टी की सरकार ऐतिहासिक बहुमत से बनी। लेकिन 1980 में यह सरकार दोहरी सदस्यता के नाम पर टूट गयी। जिस दोहरी सदस्यता के कारण सरकार टूटी उसका खुला रूप मण्डल बनाम कमण्डल आंदोलन में सामने आया। आज यही रूप डॉ. मोहन भागवत के नाम से कथित रूप से लिखे गये संविधान के वायरल रूप में सामने आया है। लेकिन सरकार से लेकर संघ तक किसी ने भी इसका खण्डन नहीं किया है। सारे आर्थिक संसाधन योजनाबद्ध तरीके से प्राइवेट सेक्टर के हवाले किये जा रहे हैं। बैंक पुनः निजी क्षेत्र को सौंपने की तैयारी है। आम आदमी आज भी बीमारी का इलाज ताली थाली बजाने में ही ढूंड रहा है। नई शिक्षा नीति की प्रस्तावना में ही कह दिया गया है कि हमारे बच्चे खाड़ी के देशों में बतौर हेल्पर समायोजित हो जायेंगे। अच्छी शिक्षा और अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं आम आदमी की पहुंच से बाहर होती जा रही है। सतारुढ़ दल कांग्रेस मुक्त भारत के नारे के बाद सारे क्षेत्रीय छोटे दलों के खत्म हो जाने की भविष्यवाणी का चुका है। लेकिन इस सब के बाद भी यह काल अमृत काल कहा जा रहा है और हम स्वीकार कर रहे हैं। पाठको और देशवासियों को स्वर्ण जयन्ती और अमृत काल की शुभकामनाओं के साथ यह आग्रह रहेगा कि इन बिन्दुआंे पर कुछ चिन्तन करने का प्रयास अवश्य करें।

बढ़ती महंगाई बेरोजगारी और गिरती अर्थव्यवस्था में....

पिछले दिनों जब सरकार ने सामान्य खाद्य सामग्री पर भी जीएसटी लगा दिया था तब से महंगाई और बेरोजगारी देश में एक प्रमुख मुद्दा बनकर चर्चा का केंद्र बन गयी है। जीएसटी के फैसले के बाद ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुफ्ती योजनाओं पर चिंता व्यक्त की है। बल्कि प्रधानमंत्री के बाद सर्वाेच्च न्यायालय ने भी इस पर चिंता व्यक्त करते हुए सरकार चुनाव आयोग नीति आयोग और राजनीतिक दलों से भी उनकी राय पूछी है। संसद में महंगाई बेरोजगारी और जांच एजेंसियों के बढ़ते दुरुपयोग पर विपक्ष लगातार बहस की मांग करता आ रहा है। लेकिन सरकार बहस को टालती आ रही है। सर्वाेच्च न्यायालय की चिंता के बाद संसद में भाजपा के सुशील मोदी मुफ्तखोरी की योजना पर एक प्रस्ताव लेकर आये और इस प्रस्ताव में जिस तरह से प्रतिक्रिया भाजपा सांसद वरुण गांधी ने ही व्यक्त की है वही अपने में बहुत कुछ कह जाती है। वरुण का यह सवाल कि क्या चर्चा करने वाले सबसे पहले अपनी ही सुविधाओं में कमी करने को तैयार होंगे। विधायकों सांसदों को मिलने वाली पैंशन और अन्य सुविधाएं एक अरसे से चर्चा का विषय बनी हुई हैं। विधानसभाओं और संसद को अपराधियों से मुक्त करने का प्रधानमंत्री का वायदा अभी तक अमली शक्ल नहीं ले पाया है। जबकि आज आर बी आई कर्ज की ब्याज दरें बढ़ाने को बाध्य हो गया है। आज स्थिति उस मोड़ तक आ चुकी है जहां हर समझदार व्यक्ति यह आशंका व्यक्त करने लग गया है कि देश के हालात कभी भी श्रीलंका जैसे हो सकते हैं। वरिष्ठ नौकरशाह प्रधानमंत्री को इस बारे में सचेत कर चुके हैं। आरबीआई उन राज्यों की सूची जारी कर चुका है जो श्रीलंका होने की तरफ तेजी से बढ़ रहे हैं। डॉलर के मुकाबले रुपये की लगातार गिरावट के कारण विदेशी निवेशक अपना निवेश बाजार से निकालते जा रहे हैं। लेकिन सरकार तथ्यों के विपरीत जनता को अर्थव्यवस्था के प्रति आश्वस्त करने का जितना प्रयास कर रही है उसी अनुपात में इस पर सवाल पूछने वाले सांसदों का निलंबन और राजनीतिक दलों के खिलाफ जांच एजेंसियों का इस्तेमाल बढ़ाती जा रही है। जांच एजेंसियों पर अपने विवेक का इस्तेमाल करने की बजाये सरकार के हाथों खिलौना बनने का आरोप ज्यादा लग रहा है। क्योंकि ईडी की जांच उन्हीं लोगों के खिलाफ हो रही है जो सरकार से सवाल पूछने का साहस कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के चुनावों में यह सामने आ चुका है कि एक जैन के यहां छापा मारकर कैस की बरामदगी जब हुई और यह पता चला कि यह जैन तो भाजपा का समर्थक है तो इस मामले को आयकर का मामला बताकर रफा-दफा कर दिया गया। उसके बाद सपा के समर्थक एक अन्य जैन के यहां छापेमारी की गयी और मामला बनाया गया। यही स्थिति आज हेराल्ड मामले में हो रही है। एजे सैक्शन 25 के तहत पंजीकृत कंपनी है और इस नाते ईडी के दायरे से बाहर है। विधि विशेषज्ञ लगातार यह कह रहे हैं लेकिन ई डी इसका जवाब ही नहीं दे रही है। ई डी ने जब यह सवाल पूछा कि आप हेराल्ड को जिंदा क्यों करना चाहते हैं तब यह सारा कुछ स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि सरकार को निष्पक्ष मीडिया मंच के आने से कष्ट हो रहा है। ऐसे दर्जनों मामले हैं जिन से यह प्रमाणित हो जाता है कि ईडी और दूसरी जांच एजेंसियां राज्यों से लेकर केंद्र तक सरकार के हाथों में कठपुतली बनकर काम कर रही हैं। इस परिदृश्य में अहम सवाल हो जाता है कि सरकार ऐसा कर क्यों रही है। इस समय वित्तीय स्थिति के कुछ आंकड़ों को यदि ध्यान में रखा जाये तो इसे समझना आसान हो जायेगा। बैंकों में आम आदमी के हर तरह के जमा पर 2014 के बाद से लगातार ब्याज दरें क्यों कम होती जा रही हैं? 2014 में जो विदेशी कर्ज 54 हजार करोड़ था वह अप्रैल 2022 तक 1,30,000 करोड़ कैसे हो गया? 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले 18.50 लाख करोड़ प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना में क्यों बांटा गया? इसके लाभार्थी कौन हैं? इसमें से क्या कोई पैसा वापस आया है? इसी संसद सत्र में यह जानकारी आयी है कि बैंकों का दस लाख करोड़ राइट ऑफ किया गया? एनपीए के लिये बैड बैंक बनाने की नौबत क्यों आयी? आज 5G स्पैक्ट्रम रिजर्व कीमत से भी कम पर क्यों बेच दिया गया? यह कुछ सामान्य और मोटे स्वाल हैं जिन पर निष्पक्षता के साथ विचार करने पर देश की वित्तीय स्थिति और आम आदमी पर उसका महंगाई तथा बेरोजगारी के माध्यम से पड़ने वाला प्रभाव समझ आ जायेगा। आम आदमी को जिस दिन यह समझ आ जायेगा तब उसके पास सड़क पर निकलने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं रह जायेगा। इसलिये इस सब से बचने के लिये जांच एजेंसियों के दुरुपयोग के अतिरिक्त और कोई साधन सरकार के पास नहीं बचा है।

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