Friday, 19 September 2025
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क्या मोदी मुफ्ती बन्द करने की शुरूआत अपनी सरकारों से करेंगे

प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने वोटों के लिए राजनीतिक दलों द्वारा अपनायी जा रही मुफ्ती संस्कृति के प्रति देश और इसके युवाओं को सचेत किया है। प्रधानमन्त्री ने युवाओं का आहवान करते हुए यह आग्रह किया है कि वह इस संस्कृति का शिकार होने से बचें। प्रधानमन्त्री ने इस मुफ्ती को वर्तमान और भविष्य दोनों के लिये ही घातक करार दिया है। प्रधानमंत्री की यह चिंता न केवल जायज है बल्कि इस पर तुरंत प्रभाव से रोक लगनी चाहिए। यह चिंता जितनी जायज है उसी के साथ यह समझना भी उतना ही आवश्यक है कि यह संस्कृति शुरू कैसे हुई? क्या कोई भी राजनीतिक दल और उसकी सरकारें इस संस्कृति से बच पायी हैं? इस संस्कृति पर रोक कौन लगायेगा? क्या प्रधानमंत्री अपनी पार्टी और उसकी सरकारों से इसकी शुरुआत करेंगे? यह कुछ ऐसे सवाल हैं जो आज हर मंच से उठाये जाने आवश्यक हैं। प्रधानमंत्री यदि ईमानदारी से इस पर अमल करने का साहस जुटा पाये तो इसी एक कदम से उनकी अब तक की सारी असफलतायें चर्चा से बाहर हो जायेंगी यह तय है। क्योंकि मुफ्ती का बदल सस्ता है। मुफ्ती से कुछ को लाभ मिलता है जबकि सस्ते से सबको इससे फायदा होता है। मुफ्ती ही भ्रष्टाचार का कारण बनती है। आज पड़ोसी देश श्रीलंका में जो हालात बने हुए हैं उसके कारणों में यह मुफ्ती भी एक बड़ा कारण रही है। प्रधानमन्त्री की यह चिन्ता उस समय सामने आयी है जब रुपया डॉलर के मुकाबले ऐतिहासिक मन्दी तक पहुंच गया है। रुपये की इस गिरावट का असर आयात पर पड़ेगा। जो बच्चे विदेशों में पढ़ाई करने गये हैं उनकी पढ़ाई महंगी हो जायेगी। इस समय हमारा आयात निर्यात से बहुत बढ़ चुका है। शेयर बाजार से विदेशी निवेशक अपनी पूंजी लगातार निकलता जा रहा है। इससे उत्पादन और निर्यात दोनों प्रभावित हो रहे हैं तथा बेरोजगारी बढ़ रही है। रिजर्व बैंक के अनुसार विदेशी निवेशक 18 लाख करोड़ तक का निवेश निकाल सकता है। रिजर्व बैंक देश के 13 राज्यों की सूची जारी कर चुका है। जिनका कर्ज इतना बढ़ चुका है कि वहां कभी भी श्रीलंका घट सकता है। सरकार के वरिष्ठ अधिकारी एक बैठक में प्रधानमन्त्री को इस बारे में सचेत कर चुके हैं। इस समय देश का कर्ज भार 681 बिलियन डॉलर हो चुका है और अगले नौ माह में 267 बिलियन की अदायगी की जानी है। जबकि इस समय विदेशी मुद्राभण्डार 641 बिलियन डॉलर से घटकर 600 बिलियन तक आ पहंुचा है। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक वर्ष बाद 267 बिलियन डॉलर कर्ज की अदायगी के बाद विदेशी मुद्रा भण्डार जब आधा रह जायेगा तब महंगाई का आलम क्या होगा? देश की अर्थव्यवस्था बहुत ही नाजुक दौर से गुजर रही है यह प्रधानमन्त्री के बयान के बाद भक्तों और विरोधियों दोनों को स्पष्ट हो जाना चाहिये। मोदी सरकार को 2020 के अन्त में बैड बैंक बनाना पड़ा था और दो लाख करोड़ का एनपीए रिकवरी के लिये इसे दिया गया था। अब इस प्रयोग के बाद संसद के मानसून सत्र में राष्ट्रीय बैंकों को प्राइवेट सैक्टर को देने का विधेयक ऐजैण्डे पर आ चुका है। इसका परिणाम बैंकिंग पर क्या होगा? इसका अंदाजा लगाने के लिये यह ध्यान में रखना होगा कि 2014 से डिपाजिट पर लगातार ब्याज दरें कम होती गयी हैं। क्योंकि बैंकों का एनपीए बढ़ता चला गया। सरकार ने नोटबंदी से प्रभावित हुई अर्थव्यवस्था को कर्ज के माध्यम से उबारने के जितने भी प्रयास किये उसके परिणाम स्वरूप बैंकों ने सरकार के निर्देशों पर कर्ज तो दिये लेकिन इनकी वापसी नहीं हो पायी। अकेले प्रधानमन्त्री ऋण योजना में ही 18.50 लाख करोड़ का कर्ज बांट दिया गया। इसमें कितना वापस आया और इसके लाभार्थी कौन हैं इसकी तो पूरी जानकारी तक नहीं है। उज्जवला और गृहिणी सुविधा योजनाओं में मुफ्त गैस सिलैण्डर तो एक बार वोट के लिये बांट दिये गये। लेकिन यह सिलैण्डर रिफिल भी हो पाये या नहीं इस पर ध्यान नहीं गया। जनधन में जीरो बैलेंस के बैंक खाते तो खुल गये परंतु क्या सभी खाते ऑपरेट हो पाये यह नहीं देखा गया। व्यवहारिक स्थिति यह है कि 2019 का चुनाव इन मुफ्ती योजनाओं के सहारे जीत तो लिया गया लेकिन आगे आर्थिकी इतनी सक्षम नहीं रह पायी की एक बार फिर मुफ्ती में नया कुछ जोड़ा जा सके। बल्कि आज इस मुफ्ती से श्रीलंका घटने का खतरा मंडराने लग पड़ा है। प्रधानमन्त्री की मुफ्ती को लेकर आयी चिन्ता इसी संभावित खतरे का संकेत है। बल्कि अब मुफ्ती को कानून बनाकर रोकने का साहस करना पड़ेगा और यह शुरुआत प्रधानमन्त्री को अपने दल और अपनी सरकारों से करनी पड़ेगी।

घातक होगी धार्मिक श्रेष्ठता को लेकर उभरती हिंसा

भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिन की बैठक के बाद यह ब्यान आया है कि आने वाले तीस चालीस वर्ष भाजपा के ही होंगे। आज भाजपा को देश की सत्ता संभाले आठ वर्ष हो गये हैं। यदि इन आठ वर्षों का आकलन किया जाये तो महंगाई और बेरोजगारी इस काल में पुराने सारे रिकॉर्ड तोड़ गयी है। डॉलर के मुकाबले रुपया अब तक के सबसे निचले पायदान पर पहुंच चुका है। नॉन ब्रैण्डिंग खाद्यान्न पर भी 5 से 18ः तक जीएसटी ही लग चुका है। रसोई गैस के दामों में भी 50 रूपये की बढ़ौतरी हो गयी है। पेट्रोल डीजल के दामों में कब कितनी बढ़ौतरी हो जाये यह आशंका लगातार बनी हुई है। विदेशी निवेशक लगातार शेयर बाजार से अपना निवेश निकलता जा रहा है। केंद्र से लेकर राज्यों तक सरकारें किस हद तक कर्ज के चक्रव्यूह में फंस चुकी है यह आरबीआई द्वारा चिन्हित दस राज्यों को लेकर आयी चेतावनी से स्पष्ट हो जाता है। भ्रष्टाचार किस कदर फैल चुका है यह डी.एच.एल.एफ. के पैंतीस हजार करोड़ के घपले के सामने आने से स्पष्ट हो जाता है। क्योंकि यह कंपनी सत्रह बैंकों को चूना लगाने के बाद प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत मिलने वाली सब्सिडी भी हड़प चुकी है। जबकि जमीन पर न कोई मकान बना और न ही कोई उसका लाभार्थी सामने आया। सब कुछ कागजों में ही घट गया। यही आशंका 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन बांटे जाने के दावे से उभरी है। क्योंकि 130 करोड़ की कुल आबादी में 80 करोड़ के दावे के साथ हर दूसरा आदमी इसका लाभार्थी हो जाता है। जबकि व्यवहार में ऐसा है नहीं है। ऐसी वस्तु स्थिति के बाद भी जब ऐसा दावा सामने आता है कि अगले चालीस वर्ष भाजपा के ही है तो कई सवाल आ खड़े होते हैं। क्योंकि 2014 में जो लोकपाल लाये जाने के लिये अन्ना के नेतृत्व में कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्याय प्रचारित करने का आंदोलन हुआ था उसमें अच्छे दिन आने का सपना दिखाया गया था। इसके लिये यह कहा गया था कि जहां कांग्रेस को साठ वर्ष देश ने दिये हैं वहीं पर भाजपा को साठ महीने दे कर देखो। लेकिन अब इन साठ महीनों के बजाये साठ साल मांगे जा रहे हैं। बल्कि पूरे दम के साथ यह दावा किया जा रहा है कि आने वाले साठ वर्ष भाजपा के हैं। यह एक ऐसा दावा है जो हर किसी को चौंका रहा है क्योंकि 2014 के मुकाबले आज सरकार हर महत्वपूर्ण मुद्दे पर बुरी तरह असफल है। इस दौरान कि अगर कोई उपलब्धियां है तो उन में राम मंदिर निर्माण की शुरुआत तीन तलाक खत्म करना और धारा 370 समाप्त करना। लेकिन इससे महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार कैसे खत्म होगा इसको लेकर कुछ भी सामने नहीं आया है। बल्कि समाज में आपसी भाईचारा कैसे समाप्त हो रहा है यह धर्म संसदों के आयोजन से लेकर नूपुर शर्मा तक के बयानों से स्पष्ट हो जाता है। यहां तक कि देश की शीर्ष न्यायपालिका भी इसके प्रभाव से बच नहीं पायी है। जी न्यूज के एंकर रोहित रंजन और आल्ट न्यूज के मोहम्मद जुबैर के मामलों में एक ही खंडपीठ के आये दो अलग-अलग फैसलों से स्पष्ट हो जाता है।
ऐसा लगता है कि आज की सरकार भी अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो के सिद्धांत पर चल रही है। फूट डालने के लिए धर्म से बड़ा और आसान साधन और कुछ नहीं हो सकता। विभिन्न धर्मों के लोग जब अपने-अपने धर्म की सर्वश्रेष्ठता के दावों की होड़ में दूसरे को नीचा दिखाने की सारी सीमायें लांघ जायेगा तो अनचाहे ही सत्ता का शासन करने का मार्ग प्रशस्त होता जाता है। आज शायद यही हो रहा है। इसलिए आदमी को उसकी रसोई का महंगा होना और बच्चे का बेरोजगार हो कर घर बैठना भी इस श्रेष्ठता के अहंकार ने आंख ओझल कर दिया है। जबकि यह एक स्थापित सत्य है कि देर सवेर हर आदमी सर्वश्रेष्ठता कि हिंसा से बहुत वक्त बचकर नहीं रह पायेगा।

क्या यह महंगाई और बेरोजगारी किसी योजना का हिस्सा है

अभी जीएसटी परिषद की बैठक के बाद वित्त मंत्री ने सूचित किया है कि कुछ वस्तुओं पर पांच से 18% तक जीएसटी लगेगा। इन वस्तुओं में खाद्य सामग्री भी शामिल हैं। इन वस्तुओं की सूची जारी हो चुकी है। स्वभाविक है कि इस फैसले के बाद महंगाई बढ़ेगी। डॉलर के मुकाबले रुपया अब तक के सबसे निचले पायदान पर पहुंच चुका है। आर बी आई के मुताबिक अभी रुपए में और गिरावट आयेगी। विदेशी निवेशकों ने बाजार से अपना निवेश निकालना शुरू कर दिया है। इसमें भी आर बी आई का मानना है कि विदेशी निवेशक आठ लाख करोड़ तक अपना निवेश निकाल सकते हैं। इस निवेश के निकलने का अर्थ होगा कि आने वाले दिनों में और भी भयानक रूप से बेरोजगारी का सामना करना पड़ेगा। अभी जून में ही आर बी आई ने अपने अध्ययन में देश के दस राज्यों बिहार, केरल, पंजाब, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश, हरियाणा, झारखंड, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की आर्थिक स्थितियां चिंताजनक स्तर से भी आगे की हो जायेगी। क्योंकि इन राज्यों के कुल खर्च का 80 से 90% का खर्च केवल राजस्व पर हो रहा है। कैपिटल खर्च के लिए केवल 10% बच रहा है। 31 मार्च 2020 तक की हिमाचल को लेकर आयी कैग रिपोर्ट के मुताबिक यहां भी कुल खर्च का 87% राजस्व पर खर्च हो रहा है। राजस्व के खर्च में केवल वेतन भत्ते पैन्शन और ब्याज की अदायगी ही शामिल रहती है यह सब जानते हैं। केवल ब्याज पर ही 20% से अधिक खर्च हो रहा है। इस समय कुछ राज्यों का आउटस्टैंडिंग कर्ज ही आर बी आई के मुताबिक जी डी पी का 247% से लेकर 296% तक पहुंच चुका है। आर बी आई ने अपने अध्ययन में यह भी स्वीकार किया है कि देश में आर्थिक मंदी का दौर 2018-19 से शुरू है जो आज चिन्ता की सारी हदें पार कर गया है। ऐसे में यह सवाल बड़ा अहम हो जाता है कि क्या हमारी सरकारें केंद्र से लेकर राज्य तक इसके बारे में चिन्तित हैं और इससे बाहर निकलने के उपाय गंभीरता से खोज रही हैं। या सत्ता में बने रहने के लिये अपने संसाधनों को बेचने तक आ गयी है? आम आदमी इससे जैसे-जैसे प्रभावित होता जायेगा वह उसी अनुपात में आक्रोशित होता जायेगा। यह तथ्य है इस समय वित्तीय स्थिति पर आम आदमी कोई सार्वजनिक चर्चा न छेड़ दें इसलिए उसके सामने फर्जी मुद्दे खड़े करके उसका ध्यान बांटने का प्रयास किया जा रहा है। जिसके ताजा उदाहरण नूपुर शर्मा और तीस्ता सितलवाड़ हैं। नूपुर शर्मा पर सर्वाेच्च न्यायालय की टिप्पणी इसका प्रमाण है। इसी तर्ज पर सितलवाड़ के मुद्दे पर उच्च न्यायालय से लेकर सर्वाेच्च न्यायालय के जजों और पूर्व राष्ट्रपति के खिलाफ घृणास्पद टिप्पणियां सोशल मीडिया के मंचों पर आनी शुरू हो गयी है। लेकिन क्या यह टिप्पणियां महंगाई और बेरोजगारी की पीड़ा से आम आदमी को मुक्ति दिला पायेगी? शायद नहीं। आर बी आई ने यह शायद पहली बार स्वीकारा है कि आर्थिक मंदी 2018-19 से शुरू है। स्मरणीय है कि कोरोना का लॉकडाउन और रूस-यूक्रेन युद्ध इसके बाद आये हैं। इसीलिये महंगाई और बेरोजगारी के लिये इन्हें ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। इसके लिये सरकार के 2014 से लेकर अब तक के लिये गये कुछ अहम फैसलों पर ध्यान देना होगा। 2014 में सत्ता परिवर्तन के तुरन्त बाद मोदी सरकार ने शांता कुमार कमेटी सार्वजनिक वितरण और कृषि पर बिठाई थी। जिसकी सिफारिशों पर तीन विवादित कृषि कानून आये। 2015 में सरकार प्रापर्टी टैक्स खत्म करके बड़े अमीरों को पहली राहत दी। इसके बाद 2016 में नोटबन्दी लाकर हर आदमी को अपनी जमा पूंजी लेकर बैंक तक पहुंचा दिया। लॉकडाउन में घर से काम में उद्योगों में रोबोट आ गये। विवादित कृषि कानून लाने से पहले श्रम कानूनों में संशोधन करके हड़ताल का अधिकार खत्म कर दिया। अब चुनाव जीतने के लिये प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण से लेकर मुफ्ति योजनाओं का सहारा लिया जा रहा है। इस सब पर गंभीरता और निष्पक्षता से विचार करते हुये आकलन करें कि क्या इसका परिणाम महंगाई और बेरोजगारी नहीं होगा तो और क्या होगा।

घातक होगा अग्निपथ पर बढ़ता विरोध

अग्निपथ योजना का विरोध लगातार बढ़ता और उग्र होता जा रहा है। सरकार और उसके समर्थकों का कोई भी तर्क यह युवा सुनने को तैयार नहीं है। सेना की इस चेतावनी कि जिनके खिलाफ कोई एफआईआर दर्ज होगी उनके लिये यह दरवाजे बंद हो जायेंगे का भी असर नहीं हुआ है। जनसाख्यिकी के अनुसार देश की 50% जनसंख्या 25 वर्ष से कम आयु की है। 55 से ऊपर के 15% और 25 से 55 के बीच 35% हैं। आज जो अग्निपथ का विरोध कर रहे हैं वह सब 25 से कम आयु वर्ग के हैं और सेना में निश्चित रूप से स्थाई रोजगार के पात्र यही लोग थे। यह चाहे मैट्रिक, प्लसटू या ग्रेजुएशन करके सेना का रुख करते वहां पर उन्हें 20-25 वर्ष का रोजगार मिलने की संभावना थी। जो केवल 4 वर्ष की ही रह गई है। 4 वर्ष बाद जब यह 23 लाख लेकर वापस आएंगे तो फिर बेरोजगारों की कतार में खड़े होंगे। इन्हें यह आश्वासन दिया जा रहा है कि उन्हें सरकारी सेवा में प्राथमिकता दी जाएगी। प्राइवेट सैक्टर में उन्हें सिक्योरिटी गार्ड रखने का आश्वासन दे रहा है। लेकिन क्या यही आश्वासन इनसे पहले भूतपूर्व सैनिकों को नहीं दिये गये हैं? क्या कोई भी सरकार यह दावा कर सकती है कि उसने सभी भूतपूर्व सैनिकों को रोजगार दे रखा है शायद नहीं। फिर 25 से 55 वर्ष के बीच भी तो रोजगार है और इसीलिए सभी सरकारों ने सरकारी सेवाओं के लिए अधिकतम आयु सीमा 40 से ऊपर कर रखी है। इस व्यवहारिक स्थिति के परिदृश्य में क्या इन युवाओं को कोई भी तर्क सरकार पर भरोसा करने के लिए प्रेरित कर सकता है। क्योंकि दूसरा कड़वा सच यह है कि जिन सरकारी अदारो में रोजगार सृजित होता था उन्हें विनिवेश और मौद्रीकरण के नाम पर सरकार प्राइवेट सैक्टर के हवाले कर चुकी है। प्राइवेट सैक्टर हाथ का विकल्प रोबोट लगाकर छटनी कर रहा है। इस छंटनी का विरोध न हो इसीलिए कोविड काल में लॉकडाउन के दौरान श्रम कानूनों में संशोधन करके हड़ताल का अधिकार समाप्त किया गया। लॉकडाउन के दौरान वर्क फ्रॉम होम के नाम पर उद्योगों में हाथ की जगह मशीनों ने ले ली है। फिर यह सारे तथ्य एक खुली किताब की तरह हर युवा के सामने है। ऐसे में कोई बताये की युवा इस के सामने रोजगार की उम्मीद कहां बची है? आज क्या बीस लाख रूपये से कोई व्यवसाय शुरू किया जा सकता है? क्या आज बीस लाख बैंक में जमा करवा कर इतना ब्याज मिल सकता है जिसके सहारे वह अपने और परिवार के लिए कोई निश्चित योजना बना सकता है। फिर उसे तो भूतपूर्व सैनिक का दर्जा भी हासिल नहीं होगा। ऐसे में जो प्राथमिकताएं उन्हें आश्वासित की जा रही है वही भूतपूर्व सैनिकों को हासिल है। क्या इससे इनमें अपने में ही हितों के टकराव की स्थिति पैदा नहीं हो जायेगी? इन सारे पक्षों पर एक साथ विचार करते हुए रोजगार के दृष्टिकोण से इस योजना को लाभदायक नहीं माना जा सकता है। रोजगार से हटकर इस योजना का दूसरा पक्ष और भी गंभीर है। इसके माध्यम से सेना में भी प्राइवेट सैक्टर के दखल का रास्ता खोला जा रहा है। इस समय देश में 35 सैनिक स्कूल चल रहे हैं जिनमें से 33 रक्षा मंत्रालय की सोसाइटी द्वारा संचालित हो रहे हैं और दो राज्य सरकारों के संचालन में हैं। लेकिन इस अग्निपथ योजना के साथ जो 100 सैनिक स्कूल खोले जाएंगे वह निजी क्षेत्र की पार्टनरशिप में खोले जा रहे हैं। इस भागीदारी में कोई भी एनजीओ, सोसाइटी, स्कूल आदि हो सकता है। यह स्कूल पहल से चल रहे स्कूलों से भिन्न होंगे। यह योजना में ही कहा गया है इस कड़ी में वर्ष 2022-23 से 21 स्कूल चालू हो जायेंगे। इनकी सूची जारी कर दी गयी है। इनमें अधिकांश स्कूल आर.एस.एस विद्या भारती के माध्यम से चल रहे हैं। स्वभाविक है कि जब एक विचार धारा की संख्या के साथ पार्टनरशिप रक्षा मंत्रालय की सोसाइटी की हो जाएगी तो दूसरी विचारधारा की संख्या के साथ यह भागीदारी कैसे मना की जायेगी। स्वभाविक है कि जो भागीदार स्कूल चलाने में निवेश करेगा उसके भी अपने कुछ नियम और शर्तें रहेगी। ऐसे में विभिन्न विचारधाराओं द्वारा संचालित स्कूलों से यह बच्चे सेना में एक साथ पहुंचेंगे तो एक अलग ही तरह का परिदृश्य खड़ा हो जायेगा। इसलिए सैनिक स्कूलों के संचालन में प्राइवेट सैक्टर की भागीदारी के प्रयोग से पहले इस पर एक खुली बहस से सर्वसहमति बनायी जानी आवश्यक थी और इसके अभाव में इस पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। ऐसे में जो विरोध उठ खड़ा हुआ है उसके परिदृश्य में इस योजना को वापिस लेना ही हितकर होगा।

यह विरोध कहीं विद्रोह न बन जाये

सेना में पिछले दो वर्षों से कोई भर्ती नहीं हो पायी है यह इसलिये नहीं हो पाया है क्योंकि वर्ष 2020 को 2021 में देश कोरोना के कारण लॉकडाउन में था। लेकिन इसी दौरान कुछ राज्यों में विधानसभा के लिये चुनाव हुये हैं। लोकसभा के लिये उपचुनाव भी हुये। सरकार चुनावों का प्रबंध तो कर पायी लेकिन सरकार के विभिन्न विभागों में खाली पड़े करीब 62 लाख पदों को भरने का उपक्रम नहीं कर पायी। अकेले सेना में ही दो लाख से अधिक पद खाली पड़े हैं। जबकि 2014 और 2019 के चुनाव के दौरान यह वादा किया गया था कि 2 करोड पद सृजीत करके भरे जायेंगे। लेकिन यह वादा केवल जुमला होकर ही रह गया। सेना में भर्तियां न हो पाने के कारण लाखों युवा इसके लिये ओवरेज भी हो गये हैं। सेना में प्रतिवर्ष 50,000 से ज्यादा सैनिक सेवानिवृत्त होते हैं। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि सेना की व्यवहारिक स्थिति क्या होगी। कई युवा तो ग्राउंड और लिखित टेस्ट क्लियर करने के बाद मेडिकल के लिये काल आने की प्रतीक्षा में थे। लेकिन जब 14 जून को अग्निपथ योजना अधिसूचित हुई और यह कहा गया कि अब इस योजना के तहत छयालीस हजार अग्निवीर भर्ती होंगे और उनका कार्यकाल केवल चार वर्ष का होगा तथा उनमें से 75% को सेवानिवृत्ति करके घर भेज दिया जायेगा। इसका असर उन युवाओं पर क्या हुआ होगा जो सेना में अपना भविष्य देख रहे थे। यह योजना आते ही उनके आगे अंधेरा छा जाना स्वभाविक था। इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि आज सरकार सेना में भी स्थाई रोजगार दे पाने की स्थिति में नहीं रह गई है। हिमाचल में ही सेना नौकरी का कितना बड़ा साधन है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को पत्र लिखकर आग्रह किया था कि सेना भर्ती तुरंत चालू की जाये।
जो सरकार सेना में भी नियमित नौकरी देने की स्थिति में न हो क्या उसकी नीयत और नीति दोनों पर ही प्रश्न नहीं उठाये जाने चाहिये? आज सेना में स्थायी रोजगार पाने की उम्मीद में बैठे लोगों को अग्निपथ योजना का विरोध करने के लिये किसी योजनाबद्ध तरीके से किसी नेतृत्व के तहत संगठित नहीं होना पड़ा है। 14 तारीख को योजना अधिसूचित होती है और 15 को प्रधानमंत्री के धर्मशाला आने पर उनके स्वागत में लगाये गये बैनर,पोस्टर, होल्डिंग विरोध से फाड़ दिये जाते हैं। पुलिस को आक्रोशित युवाओं को रोकने के लिए बल प्रयोग करना पड़ता है। यह गुस्सा स्वभाविक और घोर निराशा का स्वतः प्रमाण था। इस आक्रोश के समझने की यह किसी राजनीतिक दल के नाम लगाने से हल होने या रुकने वाला मामला है। यह सवाल आज हर जुबान पर हैं कि आखिर रोजगार खत्म कैसे हो गया? इसका जवाब प्रधानमंत्री से लेकर बूथ पालक तक को देना होगा की रोजगार पैदा करने वाले हर अदारे को प्राइवेट सैक्टर के हवाले क्यों कर दिया गया? यह भी जवाब देना पड़ेगा कि लॉकडाउन में पहला फैसला मजदूर का हड़ताल का अधिकार छीनने का क्यों लिया गया? यह भी बताना होगा कि लॉकडाउन और हड़ताल का अधिकार समाप्त करके उद्योगों में रोबोट संस्कृति लाकर हाथों को बेकार क्यों किया गया? किसान को कमजोर करने के फैसले के बाद जवान को कमजोर करने का यह फैसला क्यों लिया गया?
अग्निपथ योजना की जिस तरह और तर्क से एक वर्ग वकालत करने पर उतर आया है उससे 2019 में सैनिक स्कूलों को प्राइवेट सैक्टर को देने के फैसले पर ध्यान जाना स्वभाविक है। क्योंकि आज सैनिक स्कूलों के संचालन में आरएसएस का नाम सबसे प्रमुख है। विद्या भारती के माध्यम से इनका संचालन किया जा रहा है। इससे यह सवाल उठने लग पड़ा है कि क्या देश की सेना भी संघ की विचारधारा के अनुरूप बनाने की योजना का यह अग्निपथ पहला चरण तो नहीं है। अग्निपथ के साथ ही देश में पेट्रोल डीजल का संकट खड़ा होने लग गया है। इसी संकट के साथ खाद्यानों की कीमतें बढ़ना शुरू हो गया है। लेकिन प्रधानमंत्री इस सब पर खामोश हैं। वह 2047 तक की योजनायें देश के मुख्य सचिवों के साथ बनाने में व्यस्त हैं। ऐसे में क्या देश दूसरे जे.पी. आंदोलन की ओर बढ़ रहा है जिसका नेतृत्व यह आक्रोशित युवा करेगा। क्योंकि दूसरे नेतृत्व के लिये आयकर, ईडी, सीबीआई और एन आई ए जैसी कई एजेंसियां खड़ी है। लेकिन नौकरी की उम्मीद में बेरोजगार बैठे इस आक्रोशित युवा को यह एजेंसीयां नहीं रोक पायेंगी

 

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