प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 नवम्बर 2016 को देर शाम देश की जनता को नोटबंदी का फैसला सुनाया था। प्रधानमंत्री के देश के नाम इस आश्य के संबोधन के साथ ही 500 और 1000 रुपये के नोट चलन से बाहर हो गये थे। पुराने नोटों को नये नोटों से बदलने में कितना समय लगा? इसके लिये व्यवहारिक तौर पर कितनी परेशानी उठानी पड़ी थी यह सब ने भोगा है। नोटबंदी से कारोबार प्रभावित हुआ है यह भी हर आदमी जानता है। नोटबंदी के बाद रियल स्टेट और ऑटोमोबाईल क्षेत्रों को कितने पैकेज देने पड़े हैं यह भी सब जानते हैं। नोटबंदी क्या आवश्यक थी? नोटबंदी का देश की आर्थिकी पर क्या प्रभाव पड़ा है? नोटबंदी घोषित करते समय इसके जो उद्देश्य गिनाये गये थे क्या वह पूरे हुए हैं? नोटबंदी से कितना कालाधन खत्म हुआ है? क्या नोटबंदी से आतंकवाद की कमर सही में टूट गयी है? क्या नोटबंदी के बाद जाली नोट छपने बन्द हो गये हैं। क्या नोटबंदी मोदी सरकार का सामूहिक फैसला था या कुछ लोगों का फैसला था? यह ऐसे सवाल हैं जिन पर आज तक सार्वजनिक रूप से कोई चर्चा सामने नहीं आयी है? शीर्ष अदालत तक इस पर खामोश रही है। सत्ता पक्ष के लाल कृष्ण आडवाणी और डॉ.मुरली मनोहर जोशी जैसे वरिष्ठ नेता भी इस अहम मुद्दे पर खामोश रहे हैं। बल्कि नोटबंदी के बाद 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के नाम पर जितना जन समर्थन भाजपा को मिला है उससे यही सन्देश गया है कि जनता ने मोदी की नीतियों पर अपने समर्थन की मुहर लगा दी है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि जनता नोटबंदी को आज एक काला अध्याय मानकर भूल भी चुकी है। लेकिन इस सब के साथ यह भी उतना ही कड़वा सच है कि नोटबंदी से जो आर्थिकी पटरी पर से उतरी है वह आज तक संभल नहीं पायी है। प्रधानमंत्री ने नोटबंदी से होने वाली तात्कालिक कठिनाइयां झेलने के लिये जो समय मांगा था वह देश की जनता ने उन्हें दिया लेकिन प्रधानमंत्री आज तक जनता को यह नहीं बता पाये हैं कि उनकी ही नजर में यह फैसला कितना सही था। किन आकलनों के आधार पर यह फैसला लिया गया था। नोटबंदी आज से छः वर्ष पहले लागू हुई थी और छः वर्ष का कालखण्ड इस फैसले का गुण दोष के आधार पर आकलन करने के लिये बहुत पर्याप्त समय हो जाता है। नोटबंदी मोदी कार्यकाल का सबसे बड़ा आर्थिक फैसला रहा है। इस फैसले को लेकर करीब पांच दर्जन याचिकाएं सर्वाेच्च न्यायालय में आ चुकी हैं। इन याचिकाओं पर 12 अक्तूबर से शीर्ष अदालत की पांच जजों पर आधारित खण्डपीठ सुनवाई करने जा रही है। नोटबंदी पर जो भी फैसला आता है उसका असर बीत चुके समय पर तो कोई नहीं होगा। लेकिन इस फैसले का प्रभाव भविष्य में लिये जाने वाले फैसलों पर अवश्य पड़ेगा। इस समय महंगाई और बेरोजगारी पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ कर अपने चरम पर पहुंच चुकी है। इस पर नियन्त्रण लगाने की सारी संभावनाएं लगभग समाप्त हो चुकी हैं। यह सब इस दौरान के लिये गये आर्थिक फैसलों का परिणाम है। आर्थिक फैसलों का गुण दोष के आधार पर कोई आकलन हो नहीं पाया है। क्योंकि हर फैसले के समानान्तर कुछ न कुछ धर्म एवं जाति पर आधारित घटता रहा है। आवाज उठाने वालों के खिलाफ जांच एजैन्सियों की सक्रियता बढ़ती चली गयी। विरोध के स्वरों को देशद्रोह के नाम पर दबाया जाता रहा है। लेकिन अब जब राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा पर निकले तो इस यात्रा ने संघ प्रमुख डॉ.मोहन भागवत को भी मस्जिद और मदरसे की चौखट पर पहुंचा दिया है। डॉ.भागवत भी यह ब्यान देने पर बाध्य हो गये कि राहुल गांधी को हल्के से न लिया जाये वह भविष्य का नेता है। इस परिदृश्य में जब नोटबंदी जैसे मुद्दे पर कोई बहस सुप्रीम कोर्ट की चौखट से निकालकर सड़क तक आयेगी तो निश्चित है कि और कई स्वरों को मुखर होने का माध्यम मिल जायेगा जिसके परिणाम महत्वपूर्ण होंगे।




आज सरकार को यह जवाब देना होगा कि 2022-23 के बजट में ग्रामीण विकास के आवंटन में 38% की कटौती क्यों की गयी थी? क्या इसी के कारण आज मनरेगा में कोई पैसा गांव में नहीं पहुंच पा रहा है। पीडीएस के बजट में भी भारी कटौती की गयी थी और उसी कारण से आज 80 करोड़ जनता को मुफ्त राशन देने का संकट आ रहा है। बजट में यह कटौती तो उस समय कर दी गयी थी जब रूस और यूक्रेन में युद्ध की कोई संभावनाएं तक नहीं थी। इसलिए आज बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी के परिदृश्य में सरकार की नीयत और नीति पर खुली बहस की आवश्यकता हो जाती है।







जबकि 31 मार्च 2020 को सदन के पटल पर रखी कैग रिपोर्ट के मुताबिक 2019 तक केन्द्रीय योजनाओं में प्रदेश को एक भी पैसा नहीं मिला है। कैग के मुताबिक ही सरकार 96 योजनाओं में कोई पैसा नहीं खर्च कर पायी है। बच्चों को स्कूल बर्दी तक नहीं दी जा सकी है। कर्मचारियों को संशोधित वेतनमान के एरियर की किस्त तक नहीं दी जा सकी है क्योंकि सरकार के पास पैसा नहीं था। लेकिन 2019 में लोकसभा के चुनाव थे। 2019-20 के बजट दस्तावेज के मुताबिक इस वर्ष सरकार के अनुमानित खर्च और वास्तविक खर्चे में करीब 16,000 करोड़ का अन्तर आया है। कैग रिपोर्ट में यह दर्ज है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक हो जाता है कि जब केन्द्र ने कोई वितिय सहायता नही दी है तो इस बड़े हुये खर्च का प्रबन्ध कर्ज लेकर ही किया गया होगा। कैग रिपोर्ट पर आज तक कोई स्पष्टीकरण नहीं आया है। सत्ता पक्ष और विपक्ष के माननीय और मीडिया तक ने इस रिपोर्ट को शायद पढ़ने समझने का प्रयास नही किया है। इसी रिपोर्ट में यह कहा गया है कि कुल बजट का 90% राजस्व व्यय हो चुका है। विकास कार्यों के लिए केवल 10% ही बचता है। वर्ष 2022-23 के 51,365 करोड़ का 10% ही जब विकास के लिये बचता है तो उसमें आज मुख्यमन्त्री द्वारा की जा रही घोषणाएं कैसे पूरी हो पायेगी? स्वभाविक है कि इसके लिये कर्ज लेने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता है।
आज मुख्यमन्त्री अपनी सरकार की सत्ता में वापसी के लिये हजारों करोड़ों दाव पर लगा रहे हैं। हर विधानसभा क्षेत्र में करोड़ों की घोषणाएं की जा रही है। अभी अगला चुनावी घोषणा पत्र तैयार हो रहा है। उसमें भी वायदे किये जायेंगे। विपक्ष भी इसी तर्ज पर घोषणा पत्रों से पहले ही गारटियों की प्रतिस्पर्धा में आ गया है। केन्द्र द्वारा प्रदेश को जो कुछ भी देना घोषित किया गया है वह अब तक सैद्धांतिक स्वीकृतियों से आगे नहीं बढ़ पाया है। प्रदेश के घोषित 69 राष्ट्रीय राजमार्ग इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर सरकार श्वेत पत्र जारी करने के लिये तैयार नहीं है और न ही विपक्ष इसकी गंभीरता से मांग कर रहा है। जयराम सरकार को विरासत में 46,385 करोड़ का कर्ज मिला था लेकिन आज यह कर्जभार कहां पहुंच गया है इस पर कुछ नहीं कहा जा रहा है। 1,76,000 करोड़ की जी.डी.पी. वालेे प्रदेश में सार्वजनिक क्षेत्र के कर्ज को मिलाकर यह आंकड़ा एक लाख करोड़ तक पहुंचना क्या चिन्ता का विषय नहीं होना चाहिये यह पाठकों के आकलन पर छोड़ता हूं।




इस परिदृश्य में यह तलाशना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि आज यह यात्रा वक्त की जरूरत क्यों बन गयी। इसके लिये अगर अपने आस पास नजर दौड़ायें तो सामने आता है कि सत्तारूढ़ भाजपा ने विपक्ष की सरकारों को गिराने के लिये केन्द्रीय जांच एजेन्सियों का इस्तेमाल किस हद तक बढ़ा दिया है। इन एजेन्सियों के बढ़ते दखल ने इनकी विश्वसनीयता पर ही गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं। पिछले काफी समय से संघ प्रमुख डॉ. मनमोहन भागवत के नाम से भारत के नये संविधान के कुछ अंश वायरल होकर बाहर आ चुके हैं। लेकिन इस पर न तो केन्द्र सरकार और न ही संघ परिवार की ओर से कोई खण्डन आया है। बल्कि मेघालय उच्च न्यायालय के जस्टिस सेन के दिसंबर 2018 में आये हिन्दू राष्ट्र के फैसले और अब डॉ. स्वामी की संविधान से धर्म निरपेक्षता तथा समाजवाद शब्दों को हटाने के आग्रह की सर्वाेच्च न्यायालय में आयी याचिका ने इन आशंकाओं को और बढ़ा दिया है। क्या आज के भारतीय समाज में यह सब स्वीकार्य हो सकता है।
2014 के लोकसभा चुनावों से पहले अन्ना आन्दोलन के माध्यम से भ्रष्टाचार के जिन मुद्दों को उछाला गया था क्या उनमें से एक भी अन्तिम परिणाम तक पहुंचा है? क्या आज भाजपा शासित राज्यों में सभी जगह लोकायुक्त नियुक्त है? क्या सभी राज्यों में मानवाधिकार आयोग सुचारू रूप से कार्यरत हैं? क्या इस दौरान हुये दोनों लोकसभा चुनावों में हर बार चुनावी मुद्दे बदले नहीं गये हैं? इस दौरान नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक जितने भी आर्थिक फैसले लिये गये हैं क्या उनसे देश की आर्थिकी में कोई सुधार हो पाया है? क्या सार्वजनिक संस्थानों को प्राइवेट सैक्टर के हवाले करना स्वस्थ्य आर्थिकी का लक्षण माना जा सकता है? आज जब शिक्षा और स्वास्थ्य को पीपीपी मोड के माध्यम से प्राइवेट सैक्टर को देने की घोषणा की जा चुकी है तब क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि यह आवश्यक सेवाएं आम आदमी को सुगमता से उपलब्ध हो पायेंगी? कल तक यह कहा जा रहा था कि चीन हमारी सीमा में घुसा ही नहीं है परन्तु अब यह कहा जा रहा है कि चीन वापिस जाने को तैयार हो गया है। कुल मिलाकर राष्ट्रीय महत्व के हर मुद्दे पर लगातार गलत ब्यानी हो रही है और उसे हिन्दू-मुस्लिम तथा मन्दिर-मस्जिद के नाम पर नया रूप देने का प्रयास किया जा रहा है। आज इन सवालों को आम आदमी के सामने ले जाने की आवश्यकता है और इस काम के लिये किसी बड़े नेता को ही भारत जोड़ो यात्रा के माध्यम से इस काम को अन्जाम देना होगा। राहुल गांधी की यात्रा से सता पक्ष में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं उभर रही हैं उससे स्पष्ट हो जाता है कि यह यात्रा सही वक्त पर सही दिशा में आयोजित की गयी है।