Wednesday, 17 December 2025
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क्या नोटबंदी सही फैसला था?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 नवम्बर 2016 को देर शाम देश की जनता को नोटबंदी का फैसला सुनाया था। प्रधानमंत्री के देश के नाम इस आश्य के संबोधन के साथ ही 500 और 1000 रुपये के नोट चलन से बाहर हो गये थे। पुराने नोटों को नये नोटों से बदलने में कितना समय लगा? इसके लिये व्यवहारिक तौर पर कितनी परेशानी उठानी पड़ी थी यह सब ने भोगा है। नोटबंदी से कारोबार प्रभावित हुआ है यह भी हर आदमी जानता है। नोटबंदी के बाद रियल स्टेट और ऑटोमोबाईल क्षेत्रों को कितने पैकेज देने पड़े हैं यह भी सब जानते हैं। नोटबंदी क्या आवश्यक थी? नोटबंदी का देश की आर्थिकी पर क्या प्रभाव पड़ा है? नोटबंदी घोषित करते समय इसके जो उद्देश्य गिनाये गये थे क्या वह पूरे हुए हैं? नोटबंदी से कितना कालाधन खत्म हुआ है? क्या नोटबंदी से आतंकवाद की कमर सही में टूट गयी है? क्या नोटबंदी के बाद जाली नोट छपने बन्द हो गये हैं। क्या नोटबंदी मोदी सरकार का सामूहिक फैसला था या कुछ लोगों का फैसला था? यह ऐसे सवाल हैं जिन पर आज तक सार्वजनिक रूप से कोई चर्चा सामने नहीं आयी है? शीर्ष अदालत तक इस पर खामोश रही है। सत्ता पक्ष के लाल कृष्ण आडवाणी और डॉ.मुरली मनोहर जोशी जैसे वरिष्ठ नेता भी इस अहम मुद्दे पर खामोश रहे हैं। बल्कि नोटबंदी के बाद 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के नाम पर जितना जन समर्थन भाजपा को मिला है उससे यही सन्देश गया है कि जनता ने मोदी की नीतियों पर अपने समर्थन की मुहर लगा दी है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि जनता नोटबंदी को आज एक काला अध्याय मानकर भूल भी चुकी है। लेकिन इस सब के साथ यह भी उतना ही कड़वा सच है कि नोटबंदी से जो आर्थिकी पटरी पर से उतरी है वह आज तक संभल नहीं पायी है। प्रधानमंत्री ने नोटबंदी से होने वाली तात्कालिक कठिनाइयां झेलने के लिये जो समय मांगा था वह देश की जनता ने उन्हें दिया लेकिन प्रधानमंत्री आज तक जनता को यह नहीं बता पाये हैं कि उनकी ही नजर में यह फैसला कितना सही था। किन आकलनों के आधार पर यह फैसला लिया गया था। नोटबंदी आज से छः वर्ष पहले लागू हुई थी और छः वर्ष का कालखण्ड इस फैसले का गुण दोष के आधार पर आकलन करने के लिये बहुत पर्याप्त समय हो जाता है। नोटबंदी मोदी कार्यकाल का सबसे बड़ा आर्थिक फैसला रहा है। इस फैसले को लेकर करीब पांच दर्जन याचिकाएं सर्वाेच्च न्यायालय में आ चुकी हैं। इन याचिकाओं पर 12 अक्तूबर से शीर्ष अदालत की पांच जजों पर आधारित खण्डपीठ सुनवाई करने जा रही है। नोटबंदी पर जो भी फैसला आता है उसका असर बीत चुके समय पर तो कोई नहीं होगा। लेकिन इस फैसले का प्रभाव भविष्य में लिये जाने वाले फैसलों पर अवश्य पड़ेगा। इस समय महंगाई और बेरोजगारी पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ कर अपने चरम पर पहुंच चुकी है। इस पर नियन्त्रण लगाने की सारी संभावनाएं लगभग समाप्त हो चुकी हैं। यह सब इस दौरान के लिये गये आर्थिक फैसलों का परिणाम है। आर्थिक फैसलों का गुण दोष के आधार पर कोई आकलन हो नहीं पाया है। क्योंकि हर फैसले के समानान्तर कुछ न कुछ धर्म एवं जाति पर आधारित घटता रहा है। आवाज उठाने वालों के खिलाफ जांच एजैन्सियों की सक्रियता बढ़ती चली गयी। विरोध के स्वरों को देशद्रोह के नाम पर दबाया जाता रहा है। लेकिन अब जब राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा पर निकले तो इस यात्रा ने संघ प्रमुख डॉ.मोहन भागवत को भी मस्जिद और मदरसे की चौखट पर पहुंचा दिया है। डॉ.भागवत भी यह ब्यान देने पर बाध्य हो गये कि राहुल गांधी को हल्के से न लिया जाये वह भविष्य का नेता है। इस परिदृश्य में जब नोटबंदी जैसे मुद्दे पर कोई बहस सुप्रीम कोर्ट की चौखट से निकालकर सड़क तक आयेगी तो निश्चित है कि और कई स्वरों को मुखर होने का माध्यम मिल जायेगा जिसके परिणाम महत्वपूर्ण होंगे।

अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों के नाम पर महंगाई कब तक

आरबीआई ने मुद्रास्फीति दर निर्धारण पैनल के फैसले के बाद बैंकों को दिये जाने वाले कर्ज की ब्याज दरें बढ़ा दी हैं। रिजर्व बैंक को पिछले कुछ अरसे में ऐसा चौथी बार करना पड़ा है। आरबीआई का कहना है कि उसे ऐसा अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के परिदृश्य में करना पड़ा है। बैंकों को दिये जाने वाले कर्ज की ब्याज दरें बढ़ाने का अर्थ है कि अभी महंगाई और बढ़ेगी यह दरें बढ़ाये जाने के साथ ही यह भी कहा गया कि प्राकृतिक गैस का रेट बढ़ गया है और इसका प्रभाव यह हुआ है कि सी एन जी ने अपने दामों में 40% की वृद्धि कर दी। आरबीआई ने यह स्पष्ट नहीं किया कि भविष्य में ऐसा कब तक चलेगा। यह दरें बढ़ने के साथ ही विकास दर का आकलन भी नीचे आ गया है। महंगाई बढ़ने के कारण ही केंद्र सरकार ने 80 करोड लोगों को दिये जाने वाले मुफ्त अनाज की समय सीमा भी इस वर्ष के अंत से आगे बढ़ाने में असमर्थता जाहिर कर दी है। इस वर्ष तक भी बढ़ौतरी हिमाचल और गुजरात में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के कारण हो पायी है। अगले वर्ष 80 करोड़ लोगों को अनाज खरीदना भी कठिन हो जायेगा यह स्पष्ट है। जब महंगाई बढ़ती है तो उसी अनुपात में बेरोजगारी भी बढ़ती है यह सामान्य सिद्धांत है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक हो जाता है कि अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों का तर्क देकर आम आदमी को इस बढ़ती महंगाई पर सवाल पूछने से रोका जा सकेगा? कितनी बार अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों का तर्क देकर महंगाई और बेरोजगारी परोसी जाती रहेगी? क्योंकि नोटबंदी से लेकर आज तक देश की आर्थिक स्थिति लगातार कमजोर होती गयी है लेकिन सरकार की नीतियों पर सवाल नही उठने दिये गये। आज यह सामने आ चुका है कि 9 लाख करोड़ मूल्य के 2000 के नोट गायब हैं। परन्तु इस पर कोई कार्यवाही क्यों नहीं की जा रही है इसका कोई जवाब नहीं आया है। 2014 के बाद से हर तरह के बैंक जमा पर ब्याज दरें क्यों कम होती गयी हैं? आज जो बैंक हर सेवा का शुल्क ग्राहक से वसूल रहे हैं तो फिर जमा पर ब्याज दरें कम करने की नौबत क्यों आयी? जीरो बैलेन्स के नाम पर खोले गये जनधन के खातों पर न्यूनतम बैलेन्स की शर्त लगाकर जुर्माना लगाने का फैसला क्यों लिया गया? आज जो न्यूनतम बैलेन्स के नाम पर आम आदमी का 500 और 1000 रुपए के रूप में हजारों करोड़ों का बैंकों और डाकघरों में उस पर क्या दिया जा रहा है? बड़े कर्जदारों का लाखों करोड बट्टे खाते में डाल दिया गया। नीरव मोदी जैसे कितने लोग बैंकों का हजारों करोड लेकर भाग गये हैं लेकिन उनको वापस लाने और उनसे वसूली के सारे प्रयास असफल क्यों होते जा रहे हैं? क्या यह लाखों करोड़ देश का इस तरह लूटने से बचा लिया जाता तो इससे आरबीआई को यह फैसले न लेने पड़ते।
आज सरकार को यह जवाब देना होगा कि 2022-23 के बजट में ग्रामीण विकास के आवंटन में 38% की कटौती क्यों की गयी थी? क्या इसी के कारण आज मनरेगा में कोई पैसा गांव में नहीं पहुंच पा रहा है। पीडीएस के बजट में भी भारी कटौती की गयी थी और उसी कारण से आज 80 करोड़ जनता को मुफ्त राशन देने का संकट आ रहा है। बजट में यह कटौती तो उस समय कर दी गयी थी जब रूस और यूक्रेन में युद्ध की कोई संभावनाएं तक नहीं थी। इसलिए आज बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी के परिदृश्य में सरकार की नीयत और नीति पर खुली बहस की आवश्यकता हो जाती है।

क्यों बना है नफरती ब्यानों का वातावरण

नफरती ब्यानों से हुई वस्तुस्थिति पर उभरी चिन्ताओं पर चिन्तन को लेकर सर्वाेच्च न्यायालय के जस्टिस के.एम.जोसेफ और जस्टिस हृषिकेश राय की खण्डपीठ के पास सुदर्शन टीवी द्वारा दिखाये यूपीएससी जिहाद शो और धर्म संसदों में दिये गये ब्यानों तथा कोविड महामारी के दौरान एक समुदाय विशेष को चिन्हित व इंगित करते हुए सोशल मीडिया के मंचों पर आयी टिप्पणियों पर आयी याचिकाएं निपटारे के लिये लगी हैं। शीर्ष न्यायालय ने इस पर गंभीर चिन्ता व्यक्त करते हुए यह प्रश्न उठाया है कि आखिर देश जा कहां जा रहा है? अदालत ने इस पर सरकार की मुकदर्शिता पर भी चिन्ता व्यक्त करते हुये इस संद्धर्भ में एक सख्त नियामक तंत्र गठित किये जाने पर आवश्यकता पर बल दिया है। सरकार से इस पर अपना पक्ष स्पष्ट करने को कहा है। सर्वाेच्च न्यायालय में उठे सवालों में ही कमीशन की सिफारिश और चुनाव आयोग के सुझाव भी चर्चा में आये हैं। यह भी सामने आया है कि कानून में नफरती ब्यान और अफवाह तक परिभाषित नहीं है। देश के 29 राज्यों में से केवल 14 ने ही इस पर अपने विचार रखे हैं यह सामने आने के बाद सर्वाेच्च न्यायालय ने राज्यों को अपनी राय शीर्ष अदालत में रखने के निर्देश दिये हैं। शीर्ष अदालत में यह सब घटने के बाद कुछ टीवी चैनलों ने इस मुद्दे पर सार्वजनिक बहस भी आयोजित की है। इस सारे मन्थन से क्या निकल कर सामने आता है यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा। लेकिन आज देश में इस तरह का वातावरण क्यों निर्मित हुआ है? केन्द्र में सत्तारूढ़ पक्ष इस पर क्यों मौन चल रहा है? उसे इससे किस तरह का राजनीतिक लाभ मिल रहा है? इस मन्थन से इन सवालों का कोई सीधा संद्धर्भ नहीं उठाया जा रहा है। जबकि मेरा मानना है कि यह सवाल इस बहस का केन्द्र बिन्दु होने चाहिये। अदालत ने भी सरकार की खामोशी पर सवाल उठाते हुए एक सख्त नियामक तन्त्र के गठन की बात की है। आज केन्द्र में वह राजनीतिक दल सत्तारूढ़ है जिसका वैचारिक नियन्त्रण आर.एस.एस. के पास है। 1947 में देश की आजादी के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने वैचारिक धरातल को विस्तार देने के लिये 1948 और 1949 में ही युवा संगठन के नाम पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का गठन करने के साथ ही हिन्दुस्तान समाचार एजेन्सी का गठन कर लिया। यह वह क्रियात्मक कदम थे जिन से आने वाले वक्त में मीडिया यूथ की भूमिका का आकलन उसी समय कर लिया गया। उसके बाद आगे चलकर इसकी अनुषंागिक इकाइयों संस्कार भारती और इतिहास लेखन प्रकोष्ठ आदि का गठन इस दिशा के दूसरे मील के पत्थर सिद्ध हुए हैं। इसी सबका परिणाम संघ के सनातकों के रूप में सामने आया। मजे की बात तो यह है कि यह स्नातक लाखों की संख्या में तृतीय वर्ष पास करके आ चुके हैं। अधिकांश राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों में शामिल हो चुके हैं लेकिन इस पाठयक्रम को लेकर चर्चा नहीं के बराबर रही है। आज के नये राजनीतिक कार्यकर्ताओं से चाहे वह किसी भी राजनीतिक दल से ताल्लुक रखते हो यदि यह पूछा जाये कि संघ का आर्थिक राजनीतिक और सामाजिक चिन्तन क्या है तो वह शायद कुछ भी न बता पायें। उनकी नजर में यह एक सांस्कृतिक संगठन है जिसकी सांस्कृतिक विरासत मनुस्मृति से आगे नहीं बढ़ती। इसी संस्कृति का परिणाम है कि आज समाज का एक बड़ा वर्ग न्यायपालिका से लेकर राजनेताओं तक हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे में शामिल हो चुका है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के 1998 के राष्ट्रीय अधिवेशन में त्रीस्तरीय संसद के गठन का प्रस्ताव पारित होने के बाद आज हालात इन ब्यानों तक पहुंच गये हैं। स्कूलों में मनुस्मृति को पाठयक्रम का हिस्सा बनाने की बात हो रही है। क्योंकि जब गुजरात दीन्नानाथ बत्रा की किताबों को स्कूल पाठयक्रम का हिस्सा बनाया जा रहा था तब इसकी चर्चा तक नहीं उठाई गयी थी। आज संघ की विचारधारा पर जब तक सार्वजनिक बहस के माध्यम से स्वीकार्यता या अस्वीकार्यता तक नहीं पहुंचा जाता है तब तक हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे की वकालत के लिए ऐसे नफरती ब्यानों को रोकना आसान नहीं होगा।

यह चुनावी घोषणाएं कहां ले जायेगी

अभी कुछ ही समय पहले जयराम सरकार ने 2600 करोड़ का कर्ज लिया है। यह कर्ज लेने के लिये सरकार को प्रतिभूतियों की नीलामी करनी पड़ी है। निश्चित है कि जब सरकार को कर्ज लेने के लिए प्रतिभूतियों की नीलामी करने पड़ जाये तो कर्ज लेने के अन्य सारे मार्ग समाप्त हो चुके होतेे हैं। प्रतिभूतियां सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा उठाये जाने वाले कर्ज की एवज में सरकार द्वारा दी जाती है। इस समय यदि सरकार और सार्वजनिक उपक्रमों के कर्ज को मिलाकर देखें तो यह कर्ज एक लाख करोड़ से भी बढ़ जाता है। कर्ज की यह स्थिति इसलिये है क्योंकि एफ.आर.बी.एम. में संशोधन करके वित्तीय आकलनोे के फेल हो जाने को अपराधिक जिम्मेदारी से बाहर निकाल दिया गया है। इस परिदृश्य में आज जब मुख्यमंत्री प्रदेश के हर विधानसभा क्षेत्र में जाकर करोड़ों की योजनाओं की घोषणाएं कर रहे हैं तो यह सवाल उठना स्वभाविक हो जाता है कि क्या यह घोषणाएं जमीन पर उतर पायेगी या नहीं? इन घोषणाओं को पूरा करने के लिये कितना कर्ज लिया जायेगा और उसके लिए क्या-क्या गिरवी रखा जायेगा। यह सवाल इसलिये प्रसांगिक हो जाते हैं क्योंकि इन घोषणाओं को पूरा करने के लिये प्रदेश सरकार को अपने ही स्तर पर संसाधन जुटाने पड़ेंगे। केन्द्र की ओर से प्रदेश को अब तक क्या मिला है इसका सच प्रधानमन्त्री, गृहमन्त्री, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा और अन्त में मुख्यमंत्री द्वारा प्रधानमन्त्री के सामने रिज मैदान की सार्वजनिक सभा में रखें आंकड़ों से पता चल जाता है। प्रधानमंत्री ने मण्डी में यह आंकड़ा दो लाख करोड़ परोसा था। चम्बा में गृहमन्त्री ने एक लाख बीस हजार करोड़ तथा नड्डा 72000 करोड़ और रिज मैदान पर मुख्यमन्त्री ने 12000 करोड़ बताया था। सूचना और जनसंपर्क विभाग के प्रेस नोट में यह दर्ज है।
जबकि 31 मार्च 2020 को सदन के पटल पर रखी कैग रिपोर्ट के मुताबिक 2019 तक केन्द्रीय योजनाओं में प्रदेश को एक भी पैसा नहीं मिला है। कैग के मुताबिक ही सरकार 96 योजनाओं में कोई पैसा नहीं खर्च कर पायी है। बच्चों को स्कूल बर्दी तक नहीं दी जा सकी है। कर्मचारियों को संशोधित वेतनमान के एरियर की किस्त तक नहीं दी जा सकी है क्योंकि सरकार के पास पैसा नहीं था। लेकिन 2019 में लोकसभा के चुनाव थे। 2019-20 के बजट दस्तावेज के मुताबिक इस वर्ष सरकार के अनुमानित खर्च और वास्तविक खर्चे में करीब 16,000 करोड़ का अन्तर आया है। कैग रिपोर्ट में यह दर्ज है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक हो जाता है कि जब केन्द्र ने कोई वितिय सहायता नही दी है तो इस बड़े हुये खर्च का प्रबन्ध कर्ज लेकर ही किया गया होगा। कैग रिपोर्ट पर आज तक कोई स्पष्टीकरण नहीं आया है। सत्ता पक्ष और विपक्ष के माननीय और मीडिया तक ने इस रिपोर्ट को शायद पढ़ने समझने का प्रयास नही किया है। इसी रिपोर्ट में यह कहा गया है कि कुल बजट का 90% राजस्व व्यय हो चुका है। विकास कार्यों के लिए केवल 10% ही बचता है। वर्ष 2022-23 के 51,365 करोड़ का 10% ही जब विकास के लिये बचता है तो उसमें आज मुख्यमन्त्री द्वारा की जा रही घोषणाएं कैसे पूरी हो पायेगी? स्वभाविक है कि इसके लिये कर्ज लेने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता है।
आज मुख्यमन्त्री अपनी सरकार की सत्ता में वापसी के लिये हजारों करोड़ों दाव पर लगा रहे हैं। हर विधानसभा क्षेत्र में करोड़ों की घोषणाएं की जा रही है। अभी अगला चुनावी घोषणा पत्र तैयार हो रहा है। उसमें भी वायदे किये जायेंगे। विपक्ष भी इसी तर्ज पर घोषणा पत्रों से पहले ही गारटियों की प्रतिस्पर्धा में आ गया है। केन्द्र द्वारा प्रदेश को जो कुछ भी देना घोषित किया गया है वह अब तक सैद्धांतिक स्वीकृतियों से आगे नहीं बढ़ पाया है। प्रदेश के घोषित 69 राष्ट्रीय राजमार्ग इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर सरकार श्वेत पत्र जारी करने के लिये तैयार नहीं है और न ही विपक्ष इसकी गंभीरता से मांग कर रहा है। जयराम सरकार को विरासत में 46,385 करोड़ का कर्ज मिला था लेकिन आज यह कर्जभार कहां पहुंच गया है इस पर कुछ नहीं कहा जा रहा है। 1,76,000 करोड़ की जी.डी.पी. वालेे प्रदेश में सार्वजनिक क्षेत्र के कर्ज को मिलाकर यह आंकड़ा एक लाख करोड़ तक पहुंचना क्या चिन्ता का विषय नहीं होना चाहिये यह पाठकों के आकलन पर छोड़ता हूं।

वक्त की जरूरत है भारत जोड़ो यात्रा

क्या कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा इस समय की आवश्यकता बन गयी है? क्या इस यात्रा के लिये कांग्रेस का ही एक वर्ग मानसिक रूप से तैयार नहीं है? क्या भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का आहवान लोकतन्त्र को सशक्त बनायेगा? क्या भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का क्षेत्रीय दलों को लेकर आया ब्यान एक स्वस्थ राजनीतिक संकेत है? क्या न्यायपालिका में भी एक वर्ग द्वारा परोक्ष/अपरोक्ष में हिन्दू राष्ट्र की वकालत करना सही है? यह कुछ सवाल है जो इस समय हर संवेदनशील, बुद्धिजीवी को कौंध रहे हैं। इन सवालों पर खुले मन मस्तिष्क से चिन्तन और चिन्ता करना आज की आवश्यकता बन चुका है। देश के हर व्यक्ति को यह सवाल प्रभावित करते हैं भले ही वह इनके प्रति सजग हो या न हो। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने यह यात्रा उस समय शुरू की है जब गुलाम नवी आजाद और कपिल सिब्बल जैसे नेता कांग्रेस छोड़कर चले गये हैं। कांग्रेस से यह नेता उस समय बाहर गये हैं जब कांग्रेस ने राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव की तारीख का ऐलान कर दिया था। कांग्रेस छोड़कर जाने वाले नेताओं का आरोप रहा है कि गांधी परिवार का नेतृत्व कांग्रेस को कमजोर कर रहा है। इस परिदृश्य में इन नेताओं के पास अब वह अवसर था कि यह लोग स्वयं संगठन की अध्यक्षता के लिए अपनी दावेदारी का दावा पेश करते। लेकिन ऐसा करने की बजाये इन लोगों ने राहुल गांधी पर आरोप लगाते हुये संगठन छोड़ने का आसान रास्ता चुना। इससे स्वतः ही यह प्रमाणित हो जाता है कि इनके तार कहीं और से संचालित हो रहे थे। क्योंकि पिछले आठ वर्षों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि इस अवधि में राहुल गांधी ही सबसे ज्यादा सत्ता पक्ष के निशाने पर रहे हैं। कोबरापोस्ट के स्टिंग ऑपरेशन में यह सामने आ चुका है कि राहुल गांधी को पप्पू प्रचारित करने के लिये मीडिया में कितना निवेश किया गया था। इन आठ वर्षों में यह भी स्पष्ट हो चुका है कि सत्ता पक्ष के सामने आज तक पूरी ताकत के साथ खड़ा रहने वाला राहुल गांधी पहला नेता है। शायद राहुल गांधी की इस राजनीतिक दृढ़ता के कारण ही आज इस यात्रा के दौरान उनके पहरावे और यात्रा के प्रबंधों पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं।
इस परिदृश्य में यह तलाशना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि आज यह यात्रा वक्त की जरूरत क्यों बन गयी। इसके लिये अगर अपने आस पास नजर दौड़ायें तो सामने आता है कि सत्तारूढ़ भाजपा ने विपक्ष की सरकारों को गिराने के लिये केन्द्रीय जांच एजेन्सियों का इस्तेमाल किस हद तक बढ़ा दिया है। इन एजेन्सियों के बढ़ते दखल ने इनकी विश्वसनीयता पर ही गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं। पिछले काफी समय से संघ प्रमुख डॉ. मनमोहन भागवत के नाम से भारत के नये संविधान के कुछ अंश वायरल होकर बाहर आ चुके हैं। लेकिन इस पर न तो केन्द्र सरकार और न ही संघ परिवार की ओर से कोई खण्डन आया है। बल्कि मेघालय उच्च न्यायालय के जस्टिस सेन के दिसंबर 2018 में आये हिन्दू राष्ट्र के फैसले और अब डॉ. स्वामी की संविधान से धर्म निरपेक्षता तथा समाजवाद शब्दों को हटाने के आग्रह की सर्वाेच्च न्यायालय में आयी याचिका ने इन आशंकाओं को और बढ़ा दिया है। क्या आज के भारतीय समाज में यह सब स्वीकार्य हो सकता है।
2014 के लोकसभा चुनावों से पहले अन्ना आन्दोलन के माध्यम से भ्रष्टाचार के जिन मुद्दों को उछाला गया था क्या उनमें से एक भी अन्तिम परिणाम तक पहुंचा है? क्या आज भाजपा शासित राज्यों में सभी जगह लोकायुक्त नियुक्त है? क्या सभी राज्यों में मानवाधिकार आयोग सुचारू रूप से कार्यरत हैं? क्या इस दौरान हुये दोनों लोकसभा चुनावों में हर बार चुनावी मुद्दे बदले नहीं गये हैं? इस दौरान नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक जितने भी आर्थिक फैसले लिये गये हैं क्या उनसे देश की आर्थिकी में कोई सुधार हो पाया है? क्या सार्वजनिक संस्थानों को प्राइवेट सैक्टर के हवाले करना स्वस्थ्य आर्थिकी का लक्षण माना जा सकता है? आज जब शिक्षा और स्वास्थ्य को पीपीपी मोड के माध्यम से प्राइवेट सैक्टर को देने की घोषणा की जा चुकी है तब क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि यह आवश्यक सेवाएं आम आदमी को सुगमता से उपलब्ध हो पायेंगी? कल तक यह कहा जा रहा था कि चीन हमारी सीमा में घुसा ही नहीं है परन्तु अब यह कहा जा रहा है कि चीन वापिस जाने को तैयार हो गया है। कुल मिलाकर राष्ट्रीय महत्व के हर मुद्दे पर लगातार गलत ब्यानी हो रही है और उसे हिन्दू-मुस्लिम तथा मन्दिर-मस्जिद के नाम पर नया रूप देने का प्रयास किया जा रहा है। आज इन सवालों को आम आदमी के सामने ले जाने की आवश्यकता है और इस काम के लिये किसी बड़े नेता को ही भारत जोड़ो यात्रा के माध्यम से इस काम को अन्जाम देना होगा। राहुल गांधी की यात्रा से सता पक्ष में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं उभर रही हैं उससे स्पष्ट हो जाता है कि यह यात्रा सही वक्त पर सही दिशा में आयोजित की गयी है।

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