संसद का वर्तमान सत्र अब तक जिस तरह के हंगामे में गुजर गया है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार अपने संख्या बल के सहारे प्रमुख मुद्दों पर बहस से बचना चाहती है। जितने विपक्षी सांसदों का निलंबन अब तक हो चुका है वह भी इसी दिशा का एक प्रमाण है। महंगाई और बेरोजगारी से जनता त्रस्त है। सरकार सेना जैसे संस्थान में भी स्थायी नौकरी दे पाने की स्थिति में नहीं रह गयी है यह कड़वा सच अग्निवीर योजना के माध्यम से सामने आ चुका है। विपक्ष की सरकारों को जांच एजेंसियों के माध्यम से तोड़ा जा रहा है। विपक्ष संसद में इन्हीं सब मूद्दों पर बहस उठाना चाहता है और सरकार हर कीमत पर इस बहस से बचना चाहती है। इसमें कौन कितना सफल रहता है यह आने वाले दिनों में स्पष्ट हो जायेगा। लेकिन संसद के इस सत्र से पहले प्रधानमंत्री ने मुफ्त खोरी की योजनाओं पर गंभीर चिंता जताई थी। यह मुद्दा सर्वाेच्च न्यायालय में भी पहुंचा हुआ है। सर्वाेच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार और चुनाव आयोग से इस पर जवाब मांगा था। चुनाव आयोग ने इसमें कुछ कर पाने में असमर्थता व्यक्त कर दी है। शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार से इस संबंध में कोई योजना बनाने को कहा है और इसमें वित्त आयोग को भी शामिल करने को कहा है। केंद्र सरकार इसमें क्या करती है यह देखना दिलचस्प होगा।
लेकिन इस परिदृश्य में महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि प्रधानमंत्री को यह कहने की बाध्यता क्यों आयी? क्या प्रधानमंत्री को केजरीवाल के मुफ्ती मॉडल की बढ़ती लोकप्रियता से डर लगने लगा है। जबकि मुफ्ती के सही मायनांे में जनक प्रधानमंत्री और उनकी भाजपा है। क्या प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना में बांटा गया 18.50 लाख करोड कर्ज रेवड़ी बांटना नहीं है? क्या सरकारी बैंकों का आठ लाख करोड़ का एन पी ए वहे खाते में डालना मुफ्ती नहीं है। किसान सम्मान निधि और उज्जवला योजनाएं मुफ्ती नहीं हैं। मुफ्त बिजली, पानी और बसों में महिलाओं को आधे किराये में छूट देना सब मुफ्ती में आता है। इस मुफ्ती की कीमत महंगाई बढ़ाकर और कर्ज लेेकर पूरी की जाती है। यह सारा कुछ 2014 में सत्ता पाने और उसके बाद सत्ता में बने रहने के लिये किया गया। जिसे अब केजरीवाल और अन्य ने भी सत्ता का मूल मन्त्र मान लिया है। इसलिये इसमें किसी एक को दोष देना संभव नहीं होगा।
सत्ता में बने रहने के लिये बांटी गयी इन रेवडी़यों का काला पक्ष अब सामने आने वाला है और इसी की चिन्ता में प्रधानमंत्री को यह चेतावनी देने पर बाध्य किया है। क्योंकि आर बी आई देश के तेरह राज्यों की सूची जारी कर चुका है जिनकी स्थिति कभी भी श्रीलंका जैसी हो सकती है। आर बी आई से पहले वरिष्ठ नौकर शाह प्रधानमंत्री के साथ एक बैठक में यही सब कुछ कह चुके हैं। इन लोगों ने जो कुछ कहा है वह सब आई एम एफ की अक्तूबर 2021 में आयी रिपोर्ट पर आधारित है। आई एम एफ की इस रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि सरकार द्वारा लिया गया कर्ज जी डी पी का 90.6 प्रतिशत हो गया है। इस कर्ज में जब सरकारी कंपनीयों द्वारा लिया गया कर्ज भी शामिल किया जायेगा तो इसका आंकड़ा 100 प्रतिशत से भी बढ़ जाता है। आई एम एफ की रिपोर्ट का ही असर है कि विदेशी निवेशकों ने शेयर बाजार से अपना निवेश निकालना शुरू कर दिया। इसी के कारण डॉलर के मुकाबले रुपए में गिरावट आयी। खाद्य पदार्थों पर जी एस टी लगाना पड़ा है। देश का विदेशी मुद्रा भण्डार भी लगातार कम होता जा रहा है क्योंकि निर्यात के मुकाबले आयात बहुत ज्यादा है। अगले वित्त वर्ष में जब 265 अरब डॉलर का कर्ज वापिस करना पड़ेगा तब सारी वित्तीय व्यवस्था एकदम बिगड़ जायेगी यह तय है। तब जो महंगाई और बेरोजगारी सामने आयेगी तब उसमें समर्थक और विरोधी दोनों एक साथ और एक बराबर झेलेंगे।






द्रौपदी मुर्मू देश की पन्द्रहवीं राष्ट्रपति बनी है। आजाद भारत में पैदा हुई और आदिवासी समाज से आने वाली मुर्मू का प्रारम्भिक जीवन बहुत संघर्षपूर्ण रहा है। पति और बेटों की मौत के बाद एक लिपिक के रूप में अपना जीवन शुरू करके शिक्षक बनी और वहीं से राजनीतिक शुरुआत करके इस पद तक पहुंची हैं। यह आदिवासी होना ही इस चयन का आधार बना है। क्योंकि देश में 10 करोड़ आदिवासी हैं और बहुत सारे राज्यों में जीत का गणित आदिवासियों के पास है। इसी गणित के कारण झारखण्ड सरकार ने राजनीति में कांग्रेस के साथ होने के बावजूद राष्ट्रपति के लिए आदिवासी मुर्मू को अपना समर्थन दिया। पश्चिम बंगाल में भी करीब सात प्रतिश्त आदिवासी हैं इसी के कारण ममता को यह बयान देना पड़ा था कि यदि एन.डी.ए. ने मुर्मू की पूर्व जानकारी दे दी होती तो टी.एम.सी. भी द्रौपदी मुर्मू का समर्थन कर देती। पिछली बार जब एन.डी.ए. ने रामनाथ कोविन्द को उम्मीदवार बनाया था तब दलित वर्ग से ताल्लुक रखने का तर्क दिया गया था। इस तरह के तर्कों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अब राष्ट्रपति जैसे सर्वाेच्च पद के लिये भी संविधान की विशेषज्ञता जैसी अपेक्षाओं की उम्मीद करना असंभव होगा। जिस दल के पास सत्ता होगी अब राष्ट्रपति भी उसी दल की विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध एक बड़ा कार्यकर्ता होगा। दल के नेता के प्रति निष्ठा ही चयन का आधार होगी।
इस समय देश की आर्थिक स्थिति बहुत ही संकट से गुजर रही है। सरकार को साधारण खाद्य सामग्री पर भी जीएसटी लगाना पड़ गया है। रुपये की डॉलर के मुकाबले गिरावट लगातार जारी है। संसद में महंगाई और बेरोजगारी पर लगातार हंगामा हो रहा है। राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ जांच एजेंसियों का इस्तेमाल अब आम आदमी में भी चर्चा का विषय बनता जा रहा है। सत्तारूढ़ भाजपा मुस्लिम मुक्त हो चुकी है। संसद से लेकर राज्यों की विधानसभाओं तक भाजपा में एक भी मुस्लिम सदस्य नहीं है। सर्वाेच्च न्यायालय के जजों तक को सोशल मीडिया में निशाना बनाया जा रहा है। नई शिक्षा नीति में मनुस्मृति को पाठयक्रम का हिस्सा बनाने की बात हो रही है। इस परिदृश्य में भी सबका साथ सबका विकास सबका विश्वास के दावे किये जा रहे हैं। यशवन्त सिन्हा लगातार यह सवाल जनता के सामने रख रहे थे और द्रौपदी मुर्मू लगातार चुप्पी साधे चल रही थी। आदिवासी समाज के सौ से अधिक लोग कैसे बिना कसूर के पांच वर्ष जेल में रहे हैं यह सच भी सामने आ गया है। ऐसे में आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि बाबासाहेब अंबेडकर के संविधान की रक्षा मुख्य मुद्दा बनेगी या मनुस्मृति को पाठयक्रम का हिस्सा बनाना।












ऐसा लगता है कि आज की सरकार भी अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो के सिद्धांत पर चल रही है। फूट डालने के लिए धर्म से बड़ा और आसान साधन और कुछ नहीं हो सकता। विभिन्न धर्मों के लोग जब अपने-अपने धर्म की सर्वश्रेष्ठता के दावों की होड़ में दूसरे को नीचा दिखाने की सारी सीमायें लांघ जायेगा तो अनचाहे ही सत्ता का शासन करने का मार्ग प्रशस्त होता जाता है। आज शायद यही हो रहा है। इसलिए आदमी को उसकी रसोई का महंगा होना और बच्चे का बेरोजगार हो कर घर बैठना भी इस श्रेष्ठता के अहंकार ने आंख ओझल कर दिया है। जबकि यह एक स्थापित सत्य है कि देर सवेर हर आदमी सर्वश्रेष्ठता कि हिंसा से बहुत वक्त बचकर नहीं रह पायेगा।





