Wednesday, 17 December 2025
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चौकाने वाली है आई एम एफ की रिपोर्ट

संसद का वर्तमान सत्र अब तक जिस तरह के हंगामे में गुजर गया है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार अपने संख्या बल के सहारे प्रमुख मुद्दों पर बहस से बचना चाहती है। जितने विपक्षी सांसदों का निलंबन अब तक हो चुका है वह भी इसी दिशा का एक प्रमाण है। महंगाई और बेरोजगारी से जनता त्रस्त है। सरकार सेना जैसे संस्थान में भी स्थायी नौकरी दे पाने की स्थिति में नहीं रह गयी है यह कड़वा सच अग्निवीर योजना के माध्यम से सामने आ चुका है। विपक्ष की सरकारों को जांच एजेंसियों के माध्यम से तोड़ा जा रहा है। विपक्ष संसद में इन्हीं सब मूद्दों पर बहस उठाना चाहता है और सरकार हर कीमत पर इस बहस से बचना चाहती है। इसमें कौन कितना सफल रहता है यह आने वाले दिनों में स्पष्ट हो जायेगा। लेकिन संसद के इस सत्र से पहले प्रधानमंत्री ने मुफ्त खोरी की योजनाओं पर गंभीर चिंता जताई थी। यह मुद्दा सर्वाेच्च न्यायालय में भी पहुंचा हुआ है। सर्वाेच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार और चुनाव आयोग से इस पर जवाब मांगा था। चुनाव आयोग ने इसमें कुछ कर पाने में असमर्थता व्यक्त कर दी है। शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार से इस संबंध में कोई योजना बनाने को कहा है और इसमें वित्त आयोग को भी शामिल करने को कहा है। केंद्र सरकार इसमें क्या करती है यह देखना दिलचस्प होगा।
लेकिन इस परिदृश्य में महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि प्रधानमंत्री को यह कहने की बाध्यता क्यों आयी? क्या प्रधानमंत्री को केजरीवाल के मुफ्ती मॉडल की बढ़ती लोकप्रियता से डर लगने लगा है। जबकि मुफ्ती के सही मायनांे में जनक प्रधानमंत्री और उनकी भाजपा है। क्या प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना में बांटा गया 18.50 लाख करोड कर्ज रेवड़ी बांटना नहीं है? क्या सरकारी बैंकों का आठ लाख करोड़ का एन पी ए वहे खाते में डालना मुफ्ती नहीं है। किसान सम्मान निधि और उज्जवला योजनाएं मुफ्ती नहीं हैं। मुफ्त बिजली, पानी और बसों में महिलाओं को आधे किराये में छूट देना सब मुफ्ती में आता है। इस मुफ्ती की कीमत महंगाई बढ़ाकर और कर्ज लेेकर पूरी की जाती है। यह सारा कुछ 2014 में सत्ता पाने और उसके बाद सत्ता में बने रहने के लिये किया गया। जिसे अब केजरीवाल और अन्य ने भी सत्ता का मूल मन्त्र मान लिया है। इसलिये इसमें किसी एक को दोष देना संभव नहीं होगा।
सत्ता में बने रहने के लिये बांटी गयी इन रेवडी़यों का काला पक्ष अब सामने आने वाला है और इसी की चिन्ता में प्रधानमंत्री को यह चेतावनी देने पर बाध्य किया है। क्योंकि आर बी आई देश के तेरह राज्यों की सूची जारी कर चुका है जिनकी स्थिति कभी भी श्रीलंका जैसी हो सकती है। आर बी आई से पहले वरिष्ठ नौकर शाह प्रधानमंत्री के साथ एक बैठक में यही सब कुछ कह चुके हैं। इन लोगों ने जो कुछ कहा है वह सब आई एम एफ की अक्तूबर 2021 में आयी रिपोर्ट पर आधारित है। आई एम एफ की इस रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि सरकार द्वारा लिया गया कर्ज जी डी पी का 90.6 प्रतिशत हो गया है। इस कर्ज में जब सरकारी कंपनीयों द्वारा लिया गया कर्ज भी शामिल किया जायेगा तो इसका आंकड़ा 100 प्रतिशत से भी बढ़ जाता है। आई एम एफ की रिपोर्ट का ही असर है कि विदेशी निवेशकों ने शेयर बाजार से अपना निवेश निकालना शुरू कर दिया। इसी के कारण डॉलर के मुकाबले रुपए में गिरावट आयी। खाद्य पदार्थों पर जी एस टी लगाना पड़ा है। देश का विदेशी मुद्रा भण्डार भी लगातार कम होता जा रहा है क्योंकि निर्यात के मुकाबले आयात बहुत ज्यादा है। अगले वित्त वर्ष में जब 265 अरब डॉलर का कर्ज वापिस करना पड़ेगा तब सारी वित्तीय व्यवस्था एकदम बिगड़ जायेगी यह तय है। तब जो महंगाई और बेरोजगारी सामने आयेगी तब उसमें समर्थक और विरोधी दोनों एक साथ और एक बराबर झेलेंगे।

महामहिम द्रौपदी मुर्मू और कुछ संभावित सवाल

राष्ट्रपति देश का संविधान प्रदत्त सर्वाेच्च पद है। पन्द्रहवें राष्ट्रपति के रूप में द्रौपदी मुर्मू इस पद के लिए निर्वाचित हुई हैं। उनकी जीत सुनिश्चित थी क्योंकि वह एन.डी.ए. की उम्मीदवार थी। केन्द्र में पिछले आठ वर्षों से एन.डी.ए. की सरकार है और अठारह राज्यों में भी भाजपा या एन.डी.ए. की सरकारें हैं। इस गणित को सामने रखते हुये यह सोचना/मानना भी अपने आप को ही झुटलाने जैसा होता कि इसके परिणाम कुछ भिन्न भी हो सकते थे। इसलिये इस जीत के लिये जहां आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू बधाई की पात्र हैं वहीं पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इसका श्रेय जाता है जिन्होंने मर्मू को उम्मीदवार बनाया। द्रौपदी मुर्मू की जीत जितनी सुनिश्चित थी उसी अनुपात में इस चुनाव में विपक्षी उम्मीदवार यशवन्त सिन्हा ने जितने सवाल देश के सामने उछाले हैं वह शायद इस जीत से भी ज्यादा बड़े हो जाते हैं। यशवन्त सिन्हा पूरे चुनाव प्रचार के दौरान यह सवाल देश के सामने अपनी पत्रकार वार्ताओं के माध्यम से रखते आये हैं जबकि द्रौपदी मुर्मू ने एक बार भी देश के सामने इन सवालों पर अपना मुंह नहीं खोला। भाजपा/एन.डी.ए. में सोचने और बोलने का अधिकार केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ही पास है और मुर्मू ने भी इस प्रथा का ईमानदारी से निर्वहन किया है।
द्रौपदी मुर्मू देश की पन्द्रहवीं राष्ट्रपति बनी है। आजाद भारत में पैदा हुई और आदिवासी समाज से आने वाली मुर्मू का प्रारम्भिक जीवन बहुत संघर्षपूर्ण रहा है। पति और बेटों की मौत के बाद एक लिपिक के रूप में अपना जीवन शुरू करके शिक्षक बनी और वहीं से राजनीतिक शुरुआत करके इस पद तक पहुंची हैं। यह आदिवासी होना ही इस चयन का आधार बना है। क्योंकि देश में 10 करोड़ आदिवासी हैं और बहुत सारे राज्यों में जीत का गणित आदिवासियों के पास है। इसी गणित के कारण झारखण्ड सरकार ने राजनीति में कांग्रेस के साथ होने के बावजूद राष्ट्रपति के लिए आदिवासी मुर्मू को अपना समर्थन दिया। पश्चिम बंगाल में भी करीब सात प्रतिश्त आदिवासी हैं इसी के कारण ममता को यह बयान देना पड़ा था कि यदि एन.डी.ए. ने मुर्मू की पूर्व जानकारी दे दी होती तो टी.एम.सी. भी द्रौपदी मुर्मू का समर्थन कर देती। पिछली बार जब एन.डी.ए. ने रामनाथ कोविन्द को उम्मीदवार बनाया था तब दलित वर्ग से ताल्लुक रखने का तर्क दिया गया था। इस तरह के तर्कों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अब राष्ट्रपति जैसे सर्वाेच्च पद के लिये भी संविधान की विशेषज्ञता जैसी अपेक्षाओं की उम्मीद करना असंभव होगा। जिस दल के पास सत्ता होगी अब राष्ट्रपति भी उसी दल की विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध एक बड़ा कार्यकर्ता होगा। दल के नेता के प्रति निष्ठा ही चयन का आधार होगी।
इस समय देश की आर्थिक स्थिति बहुत ही संकट से गुजर रही है। सरकार को साधारण खाद्य सामग्री पर भी जीएसटी लगाना पड़ गया है। रुपये की डॉलर के मुकाबले गिरावट लगातार जारी है। संसद में महंगाई और बेरोजगारी पर लगातार हंगामा हो रहा है। राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ जांच एजेंसियों का इस्तेमाल अब आम आदमी में भी चर्चा का विषय बनता जा रहा है। सत्तारूढ़ भाजपा मुस्लिम मुक्त हो चुकी है। संसद से लेकर राज्यों की विधानसभाओं तक भाजपा में एक भी मुस्लिम सदस्य नहीं है। सर्वाेच्च न्यायालय के जजों तक को सोशल मीडिया में निशाना बनाया जा रहा है। नई शिक्षा नीति में मनुस्मृति को पाठयक्रम का हिस्सा बनाने की बात हो रही है। इस परिदृश्य में भी सबका साथ सबका विकास सबका विश्वास के दावे किये जा रहे हैं। यशवन्त सिन्हा लगातार यह सवाल जनता के सामने रख रहे थे और द्रौपदी मुर्मू लगातार चुप्पी साधे चल रही थी। आदिवासी समाज के सौ से अधिक लोग कैसे बिना कसूर के पांच वर्ष जेल में रहे हैं यह सच भी सामने आ गया है। ऐसे में आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि बाबासाहेब अंबेडकर के संविधान की रक्षा मुख्य मुद्दा बनेगी या मनुस्मृति को पाठयक्रम का हिस्सा बनाना।

क्या मोदी मुफ्ती बन्द करने की शुरूआत अपनी सरकारों से करेंगे

प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने वोटों के लिए राजनीतिक दलों द्वारा अपनायी जा रही मुफ्ती संस्कृति के प्रति देश और इसके युवाओं को सचेत किया है। प्रधानमन्त्री ने युवाओं का आहवान करते हुए यह आग्रह किया है कि वह इस संस्कृति का शिकार होने से बचें। प्रधानमन्त्री ने इस मुफ्ती को वर्तमान और भविष्य दोनों के लिये ही घातक करार दिया है। प्रधानमंत्री की यह चिंता न केवल जायज है बल्कि इस पर तुरंत प्रभाव से रोक लगनी चाहिए। यह चिंता जितनी जायज है उसी के साथ यह समझना भी उतना ही आवश्यक है कि यह संस्कृति शुरू कैसे हुई? क्या कोई भी राजनीतिक दल और उसकी सरकारें इस संस्कृति से बच पायी हैं? इस संस्कृति पर रोक कौन लगायेगा? क्या प्रधानमंत्री अपनी पार्टी और उसकी सरकारों से इसकी शुरुआत करेंगे? यह कुछ ऐसे सवाल हैं जो आज हर मंच से उठाये जाने आवश्यक हैं। प्रधानमंत्री यदि ईमानदारी से इस पर अमल करने का साहस जुटा पाये तो इसी एक कदम से उनकी अब तक की सारी असफलतायें चर्चा से बाहर हो जायेंगी यह तय है। क्योंकि मुफ्ती का बदल सस्ता है। मुफ्ती से कुछ को लाभ मिलता है जबकि सस्ते से सबको इससे फायदा होता है। मुफ्ती ही भ्रष्टाचार का कारण बनती है। आज पड़ोसी देश श्रीलंका में जो हालात बने हुए हैं उसके कारणों में यह मुफ्ती भी एक बड़ा कारण रही है। प्रधानमन्त्री की यह चिन्ता उस समय सामने आयी है जब रुपया डॉलर के मुकाबले ऐतिहासिक मन्दी तक पहुंच गया है। रुपये की इस गिरावट का असर आयात पर पड़ेगा। जो बच्चे विदेशों में पढ़ाई करने गये हैं उनकी पढ़ाई महंगी हो जायेगी। इस समय हमारा आयात निर्यात से बहुत बढ़ चुका है। शेयर बाजार से विदेशी निवेशक अपनी पूंजी लगातार निकलता जा रहा है। इससे उत्पादन और निर्यात दोनों प्रभावित हो रहे हैं तथा बेरोजगारी बढ़ रही है। रिजर्व बैंक के अनुसार विदेशी निवेशक 18 लाख करोड़ तक का निवेश निकाल सकता है। रिजर्व बैंक देश के 13 राज्यों की सूची जारी कर चुका है। जिनका कर्ज इतना बढ़ चुका है कि वहां कभी भी श्रीलंका घट सकता है। सरकार के वरिष्ठ अधिकारी एक बैठक में प्रधानमन्त्री को इस बारे में सचेत कर चुके हैं। इस समय देश का कर्ज भार 681 बिलियन डॉलर हो चुका है और अगले नौ माह में 267 बिलियन की अदायगी की जानी है। जबकि इस समय विदेशी मुद्राभण्डार 641 बिलियन डॉलर से घटकर 600 बिलियन तक आ पहंुचा है। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक वर्ष बाद 267 बिलियन डॉलर कर्ज की अदायगी के बाद विदेशी मुद्रा भण्डार जब आधा रह जायेगा तब महंगाई का आलम क्या होगा? देश की अर्थव्यवस्था बहुत ही नाजुक दौर से गुजर रही है यह प्रधानमन्त्री के बयान के बाद भक्तों और विरोधियों दोनों को स्पष्ट हो जाना चाहिये। मोदी सरकार को 2020 के अन्त में बैड बैंक बनाना पड़ा था और दो लाख करोड़ का एनपीए रिकवरी के लिये इसे दिया गया था। अब इस प्रयोग के बाद संसद के मानसून सत्र में राष्ट्रीय बैंकों को प्राइवेट सैक्टर को देने का विधेयक ऐजैण्डे पर आ चुका है। इसका परिणाम बैंकिंग पर क्या होगा? इसका अंदाजा लगाने के लिये यह ध्यान में रखना होगा कि 2014 से डिपाजिट पर लगातार ब्याज दरें कम होती गयी हैं। क्योंकि बैंकों का एनपीए बढ़ता चला गया। सरकार ने नोटबंदी से प्रभावित हुई अर्थव्यवस्था को कर्ज के माध्यम से उबारने के जितने भी प्रयास किये उसके परिणाम स्वरूप बैंकों ने सरकार के निर्देशों पर कर्ज तो दिये लेकिन इनकी वापसी नहीं हो पायी। अकेले प्रधानमन्त्री ऋण योजना में ही 18.50 लाख करोड़ का कर्ज बांट दिया गया। इसमें कितना वापस आया और इसके लाभार्थी कौन हैं इसकी तो पूरी जानकारी तक नहीं है। उज्जवला और गृहिणी सुविधा योजनाओं में मुफ्त गैस सिलैण्डर तो एक बार वोट के लिये बांट दिये गये। लेकिन यह सिलैण्डर रिफिल भी हो पाये या नहीं इस पर ध्यान नहीं गया। जनधन में जीरो बैलेंस के बैंक खाते तो खुल गये परंतु क्या सभी खाते ऑपरेट हो पाये यह नहीं देखा गया। व्यवहारिक स्थिति यह है कि 2019 का चुनाव इन मुफ्ती योजनाओं के सहारे जीत तो लिया गया लेकिन आगे आर्थिकी इतनी सक्षम नहीं रह पायी की एक बार फिर मुफ्ती में नया कुछ जोड़ा जा सके। बल्कि आज इस मुफ्ती से श्रीलंका घटने का खतरा मंडराने लग पड़ा है। प्रधानमन्त्री की मुफ्ती को लेकर आयी चिन्ता इसी संभावित खतरे का संकेत है। बल्कि अब मुफ्ती को कानून बनाकर रोकने का साहस करना पड़ेगा और यह शुरुआत प्रधानमन्त्री को अपने दल और अपनी सरकारों से करनी पड़ेगी।

घातक होगी धार्मिक श्रेष्ठता को लेकर उभरती हिंसा

भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की दो दिन की बैठक के बाद यह ब्यान आया है कि आने वाले तीस चालीस वर्ष भाजपा के ही होंगे। आज भाजपा को देश की सत्ता संभाले आठ वर्ष हो गये हैं। यदि इन आठ वर्षों का आकलन किया जाये तो महंगाई और बेरोजगारी इस काल में पुराने सारे रिकॉर्ड तोड़ गयी है। डॉलर के मुकाबले रुपया अब तक के सबसे निचले पायदान पर पहुंच चुका है। नॉन ब्रैण्डिंग खाद्यान्न पर भी 5 से 18ः तक जीएसटी ही लग चुका है। रसोई गैस के दामों में भी 50 रूपये की बढ़ौतरी हो गयी है। पेट्रोल डीजल के दामों में कब कितनी बढ़ौतरी हो जाये यह आशंका लगातार बनी हुई है। विदेशी निवेशक लगातार शेयर बाजार से अपना निवेश निकलता जा रहा है। केंद्र से लेकर राज्यों तक सरकारें किस हद तक कर्ज के चक्रव्यूह में फंस चुकी है यह आरबीआई द्वारा चिन्हित दस राज्यों को लेकर आयी चेतावनी से स्पष्ट हो जाता है। भ्रष्टाचार किस कदर फैल चुका है यह डी.एच.एल.एफ. के पैंतीस हजार करोड़ के घपले के सामने आने से स्पष्ट हो जाता है। क्योंकि यह कंपनी सत्रह बैंकों को चूना लगाने के बाद प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत मिलने वाली सब्सिडी भी हड़प चुकी है। जबकि जमीन पर न कोई मकान बना और न ही कोई उसका लाभार्थी सामने आया। सब कुछ कागजों में ही घट गया। यही आशंका 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन बांटे जाने के दावे से उभरी है। क्योंकि 130 करोड़ की कुल आबादी में 80 करोड़ के दावे के साथ हर दूसरा आदमी इसका लाभार्थी हो जाता है। जबकि व्यवहार में ऐसा है नहीं है। ऐसी वस्तु स्थिति के बाद भी जब ऐसा दावा सामने आता है कि अगले चालीस वर्ष भाजपा के ही है तो कई सवाल आ खड़े होते हैं। क्योंकि 2014 में जो लोकपाल लाये जाने के लिये अन्ना के नेतृत्व में कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्याय प्रचारित करने का आंदोलन हुआ था उसमें अच्छे दिन आने का सपना दिखाया गया था। इसके लिये यह कहा गया था कि जहां कांग्रेस को साठ वर्ष देश ने दिये हैं वहीं पर भाजपा को साठ महीने दे कर देखो। लेकिन अब इन साठ महीनों के बजाये साठ साल मांगे जा रहे हैं। बल्कि पूरे दम के साथ यह दावा किया जा रहा है कि आने वाले साठ वर्ष भाजपा के हैं। यह एक ऐसा दावा है जो हर किसी को चौंका रहा है क्योंकि 2014 के मुकाबले आज सरकार हर महत्वपूर्ण मुद्दे पर बुरी तरह असफल है। इस दौरान कि अगर कोई उपलब्धियां है तो उन में राम मंदिर निर्माण की शुरुआत तीन तलाक खत्म करना और धारा 370 समाप्त करना। लेकिन इससे महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार कैसे खत्म होगा इसको लेकर कुछ भी सामने नहीं आया है। बल्कि समाज में आपसी भाईचारा कैसे समाप्त हो रहा है यह धर्म संसदों के आयोजन से लेकर नूपुर शर्मा तक के बयानों से स्पष्ट हो जाता है। यहां तक कि देश की शीर्ष न्यायपालिका भी इसके प्रभाव से बच नहीं पायी है। जी न्यूज के एंकर रोहित रंजन और आल्ट न्यूज के मोहम्मद जुबैर के मामलों में एक ही खंडपीठ के आये दो अलग-अलग फैसलों से स्पष्ट हो जाता है।
ऐसा लगता है कि आज की सरकार भी अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो के सिद्धांत पर चल रही है। फूट डालने के लिए धर्म से बड़ा और आसान साधन और कुछ नहीं हो सकता। विभिन्न धर्मों के लोग जब अपने-अपने धर्म की सर्वश्रेष्ठता के दावों की होड़ में दूसरे को नीचा दिखाने की सारी सीमायें लांघ जायेगा तो अनचाहे ही सत्ता का शासन करने का मार्ग प्रशस्त होता जाता है। आज शायद यही हो रहा है। इसलिए आदमी को उसकी रसोई का महंगा होना और बच्चे का बेरोजगार हो कर घर बैठना भी इस श्रेष्ठता के अहंकार ने आंख ओझल कर दिया है। जबकि यह एक स्थापित सत्य है कि देर सवेर हर आदमी सर्वश्रेष्ठता कि हिंसा से बहुत वक्त बचकर नहीं रह पायेगा।

क्या यह महंगाई और बेरोजगारी किसी योजना का हिस्सा है

अभी जीएसटी परिषद की बैठक के बाद वित्त मंत्री ने सूचित किया है कि कुछ वस्तुओं पर पांच से 18% तक जीएसटी लगेगा। इन वस्तुओं में खाद्य सामग्री भी शामिल हैं। इन वस्तुओं की सूची जारी हो चुकी है। स्वभाविक है कि इस फैसले के बाद महंगाई बढ़ेगी। डॉलर के मुकाबले रुपया अब तक के सबसे निचले पायदान पर पहुंच चुका है। आर बी आई के मुताबिक अभी रुपए में और गिरावट आयेगी। विदेशी निवेशकों ने बाजार से अपना निवेश निकालना शुरू कर दिया है। इसमें भी आर बी आई का मानना है कि विदेशी निवेशक आठ लाख करोड़ तक अपना निवेश निकाल सकते हैं। इस निवेश के निकलने का अर्थ होगा कि आने वाले दिनों में और भी भयानक रूप से बेरोजगारी का सामना करना पड़ेगा। अभी जून में ही आर बी आई ने अपने अध्ययन में देश के दस राज्यों बिहार, केरल, पंजाब, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश, हरियाणा, झारखंड, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की आर्थिक स्थितियां चिंताजनक स्तर से भी आगे की हो जायेगी। क्योंकि इन राज्यों के कुल खर्च का 80 से 90% का खर्च केवल राजस्व पर हो रहा है। कैपिटल खर्च के लिए केवल 10% बच रहा है। 31 मार्च 2020 तक की हिमाचल को लेकर आयी कैग रिपोर्ट के मुताबिक यहां भी कुल खर्च का 87% राजस्व पर खर्च हो रहा है। राजस्व के खर्च में केवल वेतन भत्ते पैन्शन और ब्याज की अदायगी ही शामिल रहती है यह सब जानते हैं। केवल ब्याज पर ही 20% से अधिक खर्च हो रहा है। इस समय कुछ राज्यों का आउटस्टैंडिंग कर्ज ही आर बी आई के मुताबिक जी डी पी का 247% से लेकर 296% तक पहुंच चुका है। आर बी आई ने अपने अध्ययन में यह भी स्वीकार किया है कि देश में आर्थिक मंदी का दौर 2018-19 से शुरू है जो आज चिन्ता की सारी हदें पार कर गया है। ऐसे में यह सवाल बड़ा अहम हो जाता है कि क्या हमारी सरकारें केंद्र से लेकर राज्य तक इसके बारे में चिन्तित हैं और इससे बाहर निकलने के उपाय गंभीरता से खोज रही हैं। या सत्ता में बने रहने के लिये अपने संसाधनों को बेचने तक आ गयी है? आम आदमी इससे जैसे-जैसे प्रभावित होता जायेगा वह उसी अनुपात में आक्रोशित होता जायेगा। यह तथ्य है इस समय वित्तीय स्थिति पर आम आदमी कोई सार्वजनिक चर्चा न छेड़ दें इसलिए उसके सामने फर्जी मुद्दे खड़े करके उसका ध्यान बांटने का प्रयास किया जा रहा है। जिसके ताजा उदाहरण नूपुर शर्मा और तीस्ता सितलवाड़ हैं। नूपुर शर्मा पर सर्वाेच्च न्यायालय की टिप्पणी इसका प्रमाण है। इसी तर्ज पर सितलवाड़ के मुद्दे पर उच्च न्यायालय से लेकर सर्वाेच्च न्यायालय के जजों और पूर्व राष्ट्रपति के खिलाफ घृणास्पद टिप्पणियां सोशल मीडिया के मंचों पर आनी शुरू हो गयी है। लेकिन क्या यह टिप्पणियां महंगाई और बेरोजगारी की पीड़ा से आम आदमी को मुक्ति दिला पायेगी? शायद नहीं। आर बी आई ने यह शायद पहली बार स्वीकारा है कि आर्थिक मंदी 2018-19 से शुरू है। स्मरणीय है कि कोरोना का लॉकडाउन और रूस-यूक्रेन युद्ध इसके बाद आये हैं। इसीलिये महंगाई और बेरोजगारी के लिये इन्हें ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। इसके लिये सरकार के 2014 से लेकर अब तक के लिये गये कुछ अहम फैसलों पर ध्यान देना होगा। 2014 में सत्ता परिवर्तन के तुरन्त बाद मोदी सरकार ने शांता कुमार कमेटी सार्वजनिक वितरण और कृषि पर बिठाई थी। जिसकी सिफारिशों पर तीन विवादित कृषि कानून आये। 2015 में सरकार प्रापर्टी टैक्स खत्म करके बड़े अमीरों को पहली राहत दी। इसके बाद 2016 में नोटबन्दी लाकर हर आदमी को अपनी जमा पूंजी लेकर बैंक तक पहुंचा दिया। लॉकडाउन में घर से काम में उद्योगों में रोबोट आ गये। विवादित कृषि कानून लाने से पहले श्रम कानूनों में संशोधन करके हड़ताल का अधिकार खत्म कर दिया। अब चुनाव जीतने के लिये प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण से लेकर मुफ्ति योजनाओं का सहारा लिया जा रहा है। इस सब पर गंभीरता और निष्पक्षता से विचार करते हुये आकलन करें कि क्या इसका परिणाम महंगाई और बेरोजगारी नहीं होगा तो और क्या होगा।

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